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ब्रह्म सूत्र को वेदान्तशास्त्र अथवा उत्तर (ब्रह्म) मीमांसा का आधार ग्रन्थ माना जाता है। इसके रचयिता बादरायण हैं। बादरायण से पूर्व भी वेदान्त के आचार्य हो गये हैं, सात आचार्यों के नाम तो इस ग्रन्थ में ही प्राप्त हैं। इसका विषय है :- "ब्रह्म विचार"।
इसके प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। इस प्रकार ब्रह्मसूत्र में सोलह पाद हैं। फिर प्रत्येक पाद में कई अधिकरण हैं। अधिकरण का तात्पर्य एक विशेष समस्या या विषय का विवेचन है। ये वस्तुत: अवान्तर प्रकरण हैं। अधिकरण के पांच अवयव होते हैं :- विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष और निर्णय। अधिकरण के इस स्वरूप से स्पष्ट है कि ब्रह्मसूत्रकार अपने विषय का प्रतिपादन करने के अनन्तर उस पर संशय करते हैं और उस संशय को उत्पन्न करने के लिए पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हैं। अन्त में वे उत्तरपक्ष में पूर्वपक्ष का खंडन करते हैं और फिर अपने निर्णय को रखते हैं। स्पष्टत: यह प्रणाली विशुद्ध आलोचनात्मक है। ब्रह्मसूत्र की दार्शनिक प्रणाली तार्किक है। प्रत्येक अधिकरण का विवेचन एक या अनेक सूत्रों में किया गया है। कुछ अधिकरणों के विवेचन एक ही सूत्र में हैं और कुछेक के विवेचन आठ-आठ, नव-नव या दस-दस सूत्रों में हैं। सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त प्रकर्थन हैं।
ब्रह्मसूत्र का महत्त्व :: इसने उपनिषदों को एक दर्शन का रूप प्रदान किया। यह वेदान्त का संस्थापक बन गया। इसे वेदान्त का न्याय प्रस्थान कहा जाता है। यह वेदान्त की प्रस्थान त्रयी में अन्यतम है। यह सर्वशास्त्रीय ब्रह्मसूत्र है। काशकृत्स्न आदि के ब्रह्मसूत्र एक शाखीय थे और कुछ समय पश्चात् काल-कवलित हो गये। इसने बौद्ध धर्म और दर्शन के आक्रमणों से वैदिक दर्शन की रक्षा की। यह सर्वमान्य और सर्व प्रामाणिक है। शंकराचार्य (630 ई.), भास्कर (8वीं शती), यादव प्रकाश (11वीं शती), श्रीपति (14वीं शती), वल्लभ (14वीं शती), विज्ञानभिक्षु (16वीं शती) तथा बलदेव (18वीं शती) ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे।
11वीं शती से अठारहवीं शती तक ब्रह्मसूत्र का महत्त्व वैदिक या औपचारिक दर्शन की कसौटी के रूप में हो गया। जो दर्शन इस कसौटी पर खरा उतरे वह वैदिक दर्शन माना जाने लगा। इस कसौटी का तात्पर्य है कि ब्रह्मसूत्र के अनुसार होना ही किसी दर्शन की प्रामाणिकता है। उन्नीसवीं शती में रामानन्द सम्प्रदाय के अनुसार भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे गए, जिनमें आनन्द भाष्य, जानकी भाष्य तथा वैदिक भाष्य मुख्य हैं। वैदिक भाष्य की विशेषता यह है कि इसमें ब्रह्मसूत्र को वेद मंत्रों का संयोजन या समन्वय करने वाला सिद्ध किया गया है, न कि उपनिषद वाक्यों का। इनके अतिरिक्त आर्यमुनि (20वीं शती), हरप्रसाद (20वीं शती), राधाकृष्णन (20 वीं शती) आदि ने भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे। ब्रह्मसूत्र के रचना काल से लेकर आज तक लगभग प्रत्येक शताब्दी में इस पर वृत्ति या भाष्य लिखे जाते रहे हैं। इन भाष्यों से ब्रह्मसूत्र का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है।
ब्रह्मसूत्र छः दर्शनों का एक अंग है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नामों से भी जाना जाता है। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ हैं :- उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है।
11वीं शती से अठारहवीं शती तक ब्रह्मसूत्र का महत्त्व वैदिक या औपचारिक दर्शन की कसौटी के रूप में हो गया। जो दर्शन इस कसौटी पर खरा उतरे वह वैदिक दर्शन माना जाने लगा। इस कसौटी का तात्पर्य है कि ब्रह्मसूत्र के अनुसार होना ही किसी दर्शन की प्रामाणिकता है। उन्नीसवीं शती में रामानन्द सम्प्रदाय के अनुसार भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे गए, जिनमें आनन्द भाष्य, जानकी भाष्य तथा वैदिक भाष्य मुख्य हैं। वैदिक भाष्य की विशेषता यह है कि इसमें ब्रह्मसूत्र को वेद मंत्रों का संयोजन या समन्वय करने वाला सिद्ध किया गया है, न कि उपनिषद वाक्यों का। इनके अतिरिक्त आर्यमुनि (20वीं शती), हरप्रसाद (20वीं शती), राधाकृष्णन (20 वीं शती) आदि ने भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे। ब्रह्मसूत्र के रचना काल से लेकर आज तक लगभग प्रत्येक शताब्दी में इस पर वृत्ति या भाष्य लिखे जाते रहे हैं। इन भाष्यों से ब्रह्मसूत्र का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है।
ब्रह्मसूत्र छः दर्शनों का एक अंग है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नामों से भी जाना जाता है। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ हैं :- उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है।
ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्रांजलता, सौष्ठव और प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शांकर भाष्य सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम शारीरक भाष्य है।
ब्रह्म ही सत्य है। "एकं एवं अद्वितीय" अर्थात वह एक है और दूसरे की साझेदारी के बिना है :- यह "ब्रह्मसूत्र" कहता है। वेद, उपनिषद और गीता ब्रह्मसूत्र पर कायम है। ब्रह्मसूत्र का अर्थ वेद का अकाट्य वाक्य, ब्रह्म वाक्य। ब्रह्मा को आजकल ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा कहा जाता है।
"एकं ब्रह्म द्वितीय नास्ति नेह ना नास्ति किंचन"
एक ही ईश्वर है दूसरा नहीं है। उस ईश्वर को छोड़कर जो अन्य की प्रार्थना, मंत्र और पूजा करता है वह अनार्य है, नास्तिक है या धर्म विरोधी है यथा :- जो एक ब्रह्म को छोड़कर तरह-तरह के देवी-देवताओं की प्रार्थना करता है, एक देवता को छोड़कर दूसरे देवता को पूजता रहता है अर्थात एक को छोड़कर अनेक में भटकने वाले लोग, जो मूर्ति या समाधि के सामने हाथ जोड़े खड़ा है, जो नक्षत्र तथा ज्योतिष विद्या में विश्वास रखने वाला है, जो सितारों और अग्नि की पूजा करने वाला है, जो सूअर, गाय, कुत्ते, कव्वे और साँप का माँस खाने वाला है, जो एक धर्म से निकलकर दूसरे धर्म में जाने वाली विचारधारा का है, जो शराबी, जुआरी और झूठ वचन बोलकर खुद को और दूसरों को गफलत में रखने वाला है, खुद के कुल, धर्म और परिवार को छोड़, दूसरों से आकर्षित होने वाले और झुकने वाले। नास्तिकों के साथ नास्तिक और आस्तिकों के साथ छद्म आस्तिक बनकर रहने वाले, जो जातियों में खुद को विभाजित रखता है और अपने ही लोगों को नीचा या ऊँचा समझता है, जो वेद और धर्म पर बहस करता है और उनकी निंदा करता है, वेदों की बुराई करने वाले और वेद विरुद्ध आचरण करने वाले, जो नग्न रहकर साधना करता है और नग्न रहकर ही मंदिर की परिक्रमा लगाता है, जो रात्रि के कर्मकांड करता है और भूत या पितरों की पूजा-साधना करता है, इत्यादि।
निंबार्क संप्रदाय :: निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैत का दर्शन प्रतिपादित किया। निम्बार्क का प्रादुर्भाव 3096 ईसापूर्व (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) हुआ था। निम्बार्क का जन्म स्थान वर्तमान आँध्र प्रदेश में है। निम्बार्क का अर्थ है :- नीम पर सूर्य। मथुरा में स्थित ध्रुव टीले पर निम्बार्क संप्रदाय का प्राचीन मन्दिर बताया जाता है। इस संप्रदाय के संस्थापक भास्कराचार्य एक संन्यासी थे। इस संप्रदाय का सिद्धान्त 'द्वैताद्वैतवाद' कहलाता है। इसी को 'भेदाभेदवाद' भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं। इस प्राचीन सिद्धान्त को 'द्वैताद्वैत' के नाम से पुन: स्थापित करने का श्रेय निम्बार्काचार्य को जाता है। उन्होंने 'वेदान्त पारिजात-सौरभ', वेदान्त-कामधेनु, रहस्य षोडसी, प्रपन्न कल्पवल्ली और कृष्ण स्तोत्र नामक ग्रंथों की रचना भी की थी। वेदान्त पारिजात सौरभ ब्रह्मसूत्र पर निम्बार्काचार्य द्वारा लिखी गई टीका है। इसमें वेदान्त सूत्रों की सक्षिप्त व्याख्या द्वारा द्वैताद्वैतव सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।
सम्बन्धित दर्शन :: चंद्रकीर्ति, निम्बार्काचार्य, निंबार्क संप्रदाय, प्रमुख मीमांसक आचार्य, प्रस्थानत्रयी, बल्देव विद्याभूषण, बादरायण, भामती, भारत में दर्शनशास्त्र, भारतीय दर्शन, भाष्य, मध्वाचार्य, राधा कृष्ण, रामभद्राचार्य, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीमद्भगवद्गीता, सांख्य दर्शन, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, सूत्र, हिन्दू दर्शन, हिन्दू धर्मग्रन्थों का कालक्रम, हिंदू धर्म में कर्म, जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची, जैमिनि, वाचस्पति मिश्र, विज्ञानभिक्षु, वेदान्त दर्शन, आदि शंकराचार्य, आदि शंकराचार्य की कृतियाँ, अद्वैत वेदान्त, अध्यास, अप्पय दीक्षित, उत्तरमीमांसा, उपनिषद्।
बादरायण :: बादरायण वेदान्त के न्याय-प्रस्थान के प्रवर्तक ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र के रचयिता थे। वाचस्पति मिश्र के समय में उन्हें व्यास की उपाधि दी गई। ब्रह्मसूत्र ने उपनिषदों को एक दर्शन का रूप प्रदान किया। वह वेदान्त का संस्थापक बन गया। ब्रह्मसूत्रों का अध्ययन करने से पता चलता है कि बादरायण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द या श्रुति को प्रमाण मानते थे।
इसको वेदान्तसूत्र या शारीरिक मीमांसासूत्र भी कहा जाता है। इस समय जो ब्रह्मसूत्र उपलब्ध है, उसमें शंकराचार्य के अनुसार कुल 555 सूत्र हैं।
बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में जैमिनि, बादरि, काशकृत्स्न, कार्ष्णाजिनि, औडुलोमि, आश्मरथ्य तथा आत्रेय का उल्लेख किया है। ये सभी ब्रह्मसूत्रों के रचयिता थे। किन्तु इनके ब्रह्मसूत्र अब अनुपलब्ध हैं। इनमें से काशकृत्स्न का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में भी मिलता है। आश्वलायन तथा कात्यायन के श्रौतसूत्रों में तथा बोधायन और भरद्वाज के गृह्यसूत्रों में भी इनमें से कुछ आचार्यों के नाम उल्लिखित हैं।
जैमिनि ने मीमांसासूत्र में तथा शाण्डिल्य ने भक्तिसूत्र में बादरायण का नामोल्लेख किया है।
बादरायण ने साँख्यमत, मीमांसामत, योगमत, वैशेषिकमत, बौद्ध सर्वास्तिवाद, बौद्ध विज्ञानवाद या शून्यवाद, जैनमत, पाशुपत मत तथा पांचरात्र मत का खंडन किया है। इससे निश्चित है कि वे बुद्ध के परवर्ती हैं।
बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर उपवर्ष ने जो पाणिनि के गुरु थे तथा बौधायन ने जिनकी परम्परा का उद्धार रामानुज ने किया था, वृत्तियाँ लिखी थीं, किन्तु ये वृत्तियाँ अब उपलब्ध नहीं है। उनके कुछ अंश परवर्ती वेदान्त और मीमांसा के साहित्य में उपलब्ध हैं।
गरुड़पुराण, पद्मपुराण, मनुस्मृति तथा हरिवंशपुराण में भी वेदान्तसूत्र का उल्लेख तथा संदर्भ है।
बादरायण नाम से स्पष्ट है कि वे बदर गोत्र में उत्पन्न हुए थे। बदर के ही गोत्र में बादरि भी उत्पन्न हुए थे। अत: कुछ लोग बादरि तथा बादरायण को अभिन्न समझते हैं। किन्तु स्वयं ब्रह्मसूत्र में ही बादरायण ने अपना नामोल्लेख बादरि से भिन्न करके किया है।
बादरायण का दर्शन :: इस समय बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर अद्वैतमत, वैष्णवमत, शैवमत, शाक्तमत, तथा आर्य समाज मत के भाष्य उपलब्ध हैं। यही बात शैवमत के भाष्यों के बारे में भी निश्चयपूर्वक कही जा सकती है। वैष्णवमत के भाष्य बादरायण के मत के अनुसार नहीं हैं, क्योंकि बादरायण ब्रह्मवादी थे, न कि ईश्वरवादी (ब्रह्म और ईश्वर एक ही हैं)। वैष्णवमत ने विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैतवाद, द्वैतवाद या भेदाभेदवाद और अचित्य भेदाभेदवाद के दर्शनों का विकास किया है। इन भाष्यों में प्राय: शंकराचार्य के भाष्य के खंडन की प्रवृत्ति ही अधिक है (निम्बार्क के भाष्य को छोड़कर)। यादव प्रकाश का भाष्य और शुकभाष्य अनुपलब्ध है। भास्कर का भाष्य भी भेदाभेदवादी है। बादरायण का दर्शन अद्वैतवाद, भेदाभेदवाद और विशिष्टाद्वैतवाद में से ही एक है।
शंकराचार्य का भाष्य ही बादरायण के अभिमतों के सर्वाधिक निकट है। उनका दर्शन उपनिषदों के 'एकमेवाद्वितीय' सत् या ब्रह्म का ही प्रतिपादन करता है। शंकराचार्य के इस कथन को सभी भाष्यकार मानते हैं कि ब्रह्मसूत्रों का मुख्य प्रयोजन उपनिषद के वाक्यों को संग्रथित करना है। अत: बादरायण अद्वैतवादी थे।
ब्रह्म ::
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा :- अब, इस प्रकार ब्रह्म जिज्ञासा करना है।
जन्माद्यस्य यत :- ब्रह्म वह है, जिससे इस जगत् का जन्म होता है, जिसमें इसकी स्थिति होती है तथा जिसमें इसका लय होता है।
शास्त्रयोनित्वात् :- ब्रह्म का ज्ञान शास्त्र से होता है।
तत्तु समन्वयात् :- वह ब्रह्मज्ञान शास्त्र के समन्वय से होता है। शास्त्र का समन्वय धर्म ज्ञान में नहीं है।
ईक्षतेनशिब्दम् :- ब्रह्म चेतन है। अत: वेदबाह्य प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष तथा अनुमान से जगत् के आदि कारण की जो मीमांसा की जाती है, वह सत्य नहीं है।
अपबृंहणात् ब्रह्म :- जो फैलता जाता है उसे ब्रह्म कहते है।
बादरायण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द या श्रुति को प्रमाण मानते थे। किन्तु वे श्रुति विरोधी प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान को ग़लत समझते थे। अत: वे मुख्यत: श्रुतिवादी या वेदवादी थे। उनके अनुसार श्रुति अनुगृहीत तर्क ही मुख्य प्रमाण हैं, जिसके द्वारा ब्रह्म की जिज्ञासा की जानी चाहिए। दर्शन का स्वरूप मीमांसा है। श्रुतियों की तर्क संगत मीमांसा करना ही दर्शन है। दर्शन ब्रह्मविद्या है, क्योंकि श्रुतियों की मीमांसा का समन्वय उसी में है। पहले गुरु से ब्रह्म का श्रवण करना है, फिर उस श्रवण पर मनन करना है। मनन से ब्रह्मविद्या का निश्चय हो जाता है और अन्य दर्शनों का खंडन हो जाता है। अन्त में इस मनन पर निदिध्यासन करना है। निदिध्यासन आत्म साक्षात्कार रूप होता है। उसका अन्त आत्म त्याग में होता है। यही आत्म त्याग ब्रह्म प्राप्ति है। आत्मा ही ब्रह्म है। जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।
BRAHM SUTR ब्रह्मसूत्र santoshhindukosh.blogspot.com
(1). समन्वय) :: इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों और उपनिषद के वाक्यों का समन्वय किया गया है।
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।[ब्रह्मसूत्र 1.1.1]
जन्माद्यस्य यतः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.2]
शास्त्रयोनित्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.3]
तत् तु समन्वयात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.4]
ईक्षतेर् नाशब्दम्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.5]
गौणश् चेन् नात्मशब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.6]
तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.7]
हेयत्वावचनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.8]
प्रतिज्ञाविरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.9]
स्वाप्ययात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.10]
गतिसामान्यात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.11]
श्रुतत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.12]
आनन्दमयोऽभ्यासात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.13]
विकारशब्दान् नेति चेन् न प्राचुर्यात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.14]
तद्धेतुव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.15]
मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.1.16]
नेतरोऽनुपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.17]
भेदव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.18]
कामाच् च नानुमानापेक्षा।[ब्रह्मसूत्र 1.1.19]
अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति।[ब्रह्मसूत्र 1.1.20]
अन्तस् तद्धर्मोपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.21]
भेदव्यपदेशाच् चान्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.22]
आकाशस् तल्लिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.23]
अत एव प्राणः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.24]
ज्योतिश् चरणाभिधानात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.25]
छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.26]
भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तेश् चैवम्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.27]
उपदेशभेदान् नेति चेन् नोभयस्मिन्न् अप्य् अविरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.28]
प्राणस् तथानुगमात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.29]
न वक्तुर् आत्मोपदेशाद् इति चेद् अध्यात्मसंबन्धभूमा ह्य् अस्मिन्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.30]
शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.31]
जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेन् नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वाद् इह तद्योगात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.32]
सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.1]
विवक्षितगुणोपपत्तेश् च। [ब्रह्मसूत्र 1.2.2]
अनुपपत्तेस् तु न शारीरः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.3]
कर्मकर्तृव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.4]
शब्दविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.5]
स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.6]
अर्भकौस्त्वात् तद्व्यपदेशाच् च नेति चेन् न निचाय्यत्वाद् एवं व्योमवच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.7]
संभोगप्राप्तिर् इति चेन् न वैशेष्यात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.8]
अत्ता चराचरग्रहणात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.9]
प्रकरणाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.10]
गुहां प्रविष्टाव् आत्मानौ हि तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.11]
विशेषणाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.12]
अन्तर उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.13]
स्थानादिव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.14]
सुखविशिष्टाभिधानाद् एव च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.15]
अत एव च स ब्रह्म।[ब्रह्मसूत्र 1.2.16]
श्रुतोपनिषत्कगत्यभिधानाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.17]
अनवस्थितेर् असंभवाच् च नेतरः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.18]
अन्तर्याम्यधिदैवाधिलोकादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.19]
न च स्मार्तम् अतद्धर्माभिलापाच् छारीरश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.20]
उभयेऽपि हि भेदेनैनम् अधीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.2.21]
अदृश्यत्वादिगुणको धर्मोक्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.22]
विशेषणभेदव्यपदेशाभ्यां च नेतरौ।[ब्रह्मसूत्र 1.2.23]
रूपोपन्यासाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.24]
वैश्वानरः साधारणशब्दविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.25]
स्मर्यमाणम् अनुमानं स्याद् इति।[ब्रह्मसूत्र 1.2.26]
शब्दादिभ्योऽन्तःप्रतिष्ठानाच् च नेति चेन् न तथा दृष्ट्युपदेशाद् असम्भवात् पुरुषमपि चैनम् अधीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.2.27]
अत एव न देवता भूतं च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.28]
साक्षाद् अप्य् अविरोधं जैमिनिः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.29]
अभिव्यक्तेर् इत्य् आश्मरथ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.30]
अनुस्मृतेर् बादरिः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.31]
संपत्तेर् इति जैमिनिस् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 1.2.32]
आमनन्ति चैनम् अस्मिन्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.33]
द्युभ्वाद्यायतनं स्वशब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.1]
मुक्तोपसृप्यव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.2]
नानुमानम् अतच्छब्दात् प्राणभृच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.3]
भेदव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.4]
प्रकरणात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.5]
स्थित्यदनाभ्यां च। [ब्रह्मसूत्र 1.3.6]
भूमा संप्रसादाद् अध्युपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.7]
धर्मोपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.8]
अक्षरम् अम्बरान्तधृतेः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.9]
सा च प्रशासनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.10]
अन्यभावव्यावृत्तेश्च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.11]
ईक्षतिकर्मव्यपदेशात् सः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.12]
दहर उत्तरेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.13]
गतिशब्दाभ्यां तथा हि दृष्टं लिङ्गं च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.14]
धृतेश् च महिम्नोऽस्यास्मिन्न् उपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.15]
प्रसिद्धेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.16]
इतरपरामर्शात् स इति चेन् नासंभवात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.17]
उत्तराच् चेद् आविर्भूतस्वरूपस् तु।[ब्रह्मसूत्र 1.3.18]
अन्यार्थश् च परामर्शः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.19]
अल्पश्रुतेर् इति चेत् तद् उक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.20]
अनुकृतेस् तस्य च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.21]
अपि च स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 1.3.22]
शब्दाद् एव प्रमितः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.23]
हृद्यपेक्षया तु मनुष्याधिकारत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.24]
तदुपर्य् अपि बादरायणः संभवात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.25]
विरोधः कर्मणीति चेन् नानेकप्रतिपत्तेर् दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.26]
शब्द इति चेन् नातः प्रभवात् प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.27]
अत एव च नित्यत्वम्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.28]
समाननामरूपत्वाच्चावृत्तावप्यविरोधो दर्शनात् स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.29]
मध्वादिष्व् असंभवाद् अनधिकारं जैमिनिः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.30]
ज्योतिषि भावाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.31]
भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।[ब्रह्मसूत्र 1.3.32]
शुगस्य तदनादरश्रवणात् तदाद्रवणात् सूच्यते हि।[ब्रह्मसूत्र 1.3.33]
क्षत्रियत्वगतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.34]
उत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.35]
संस्कारपरामर्शात् तदभावाभिलापाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.36]
तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.37]
श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.38]
स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.39]
कम्पनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.40]
ज्योतिर् दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.41]
आकाशोऽर्थान्तरत्वादिव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.42]
सुषुप्त्युत्क्रान्त्योर् भेदेन।[ब्रह्मसूत्र 1.3.43]
पत्यादिशब्देभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.44]
आनुमानिकम् अप्य् एकेषाम् इति चेन् न शरीर-रूपक-विन्यस्त-गृहीतेर् दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.1]
सूक्ष्मं तु तदर्हत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.2]
तदधीनत्वाद् अर्थवत्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.3]
ज्ञेयत्वावचनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.4]
वदतीति चेन् न प्राज्ञो हि प्रकरणात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.5]
त्रयाणाम् एव चैवम् उपन्यासः प्रश्नश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.6]
महद्वच् च। [ब्रह्मसूत्र 1.4.7]
चमसवदविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.8]
ज्योतिरुपक्रमा तु तथा ह्य् अधीयत एके। [ब्रह्मसूत्र 1.4.9]
कल्पनोपदेशाच् च मध्वादिवदविरोधः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.10]
न संख्योपसंग्रहादपि ज्ञानाभावाद् अतिरेकाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.11]
प्राणादयो वाक्यशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.12]
ज्योतिषैकेषाम् असत्यन्ने।[ब्रह्मसूत्र 1.4.13]
कारणत्वेन चाकाशादिषु यथाव्यपदिष्टोक्तेः। [ब्रह्मसूत्र 1.4.14]
समाकर्षात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.15]
जगद्वाचित्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.16]
जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेत् तद्व्याख्यातम्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.17]
अन्यार्थं तु जैमिनिः प्रश्नव्याख्यानाभ्याम् अपि चैवम् एके।[ब्रह्मसूत्र 1.4.18]
वाक्यान्वयात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.19]
प्रतिज्ञासिद्धेर् लिङ्गम् आश्मरथ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.20]
उत्क्रमिष्यत एवं भावाद् इत्य् औडुलोमिः। [ब्रह्मसूत्र 1.4.21]
अवस्थितेर् इति काशकृत्स्नः। [ब्रह्मसूत्र 1.4.22]
प्रकृतिश् च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्। [ब्रह्मसूत्र 1.4.23]
अभिध्योपदेशाच् च। [ब्रह्मसूत्र 1.4.24]
साक्षाच् चोभयाम्नानात्। [ब्रह्मसूत्र 1.4.25]
आत्मकृतेः। [ब्रह्मसूत्र 1.4.26]
परिणामात्। [ब्रह्मसूत्र 1.4.26]
योनिश् च हि गीयते। [ब्रह्मसूत्र 1.4.27]
एतेन सर्वे व्याख्याता व।
(2). अविरोध :: इसमें स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्मवाद का विरोध किसी भी शास्त्र या शास्त्र वाक्य से नहीं है। इसके प्रथम पाद में स्वमत प्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है। इसमें विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है।
इसके द्वितीय अध्याय में, विशेषत: प्रथम दो पक्षों में, तो खंडन ही मुख्य हैं। द्वितीय अध्याय का प्रथमपाद स्मृतिपाद कहा जाता है और द्वितीय अध्याय का द्वितीयपाद तर्कपाद। स्मृतिपाद में वेदान्त विरोधी स्मृतियों का खंडन है और तर्कवाद में वेदान्त विरोधी दर्शनों का। इन दर्शनों में सांख्य, वैशेषिक, जैनमत, बौद्ध सर्वास्तिवाद, बौद्ध विज्ञानवाद, पाशुपत और पांचरात्र हैं। इस प्रकार परमत निराकरण के द्वारा स्वमत स्थापन की प्रवृत्ति बादरायण में विशेष रूप से देखी जाती है। 'तु', 'न', 'चेत्' आदि शब्दों के द्वारा बादरायण पक्षपाती थे, न कि रूढ़िवादी दर्शन के। उनका वेदान्त पूर्ण आलोचनात्मक दर्शन है। याज्ञवल्क्य और काशकृत्स्न के पश्चात् वे ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वेदान्ती हुए हैं।
इसके द्वितीय अध्याय में, विशेषत: प्रथम दो पक्षों में, तो खंडन ही मुख्य हैं। द्वितीय अध्याय का प्रथमपाद स्मृतिपाद कहा जाता है और द्वितीय अध्याय का द्वितीयपाद तर्कपाद। स्मृतिपाद में वेदान्त विरोधी स्मृतियों का खंडन है और तर्कवाद में वेदान्त विरोधी दर्शनों का। इन दर्शनों में सांख्य, वैशेषिक, जैनमत, बौद्ध सर्वास्तिवाद, बौद्ध विज्ञानवाद, पाशुपत और पांचरात्र हैं। इस प्रकार परमत निराकरण के द्वारा स्वमत स्थापन की प्रवृत्ति बादरायण में विशेष रूप से देखी जाती है। 'तु', 'न', 'चेत्' आदि शब्दों के द्वारा बादरायण पक्षपाती थे, न कि रूढ़िवादी दर्शन के। उनका वेदान्त पूर्ण आलोचनात्मक दर्शन है। याज्ञवल्क्य और काशकृत्स्न के पश्चात् वे ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वेदान्ती हुए हैं।
स्मृत्यनवकाशदोषप्रसङ्ग इति चेन् नान्यस्मृत्यनवकाशदोषप्रसङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.1]
इतरेषां चानुपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.2]
एतेन योगः प्रत्युक्तः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.3]
न विलक्षणत्वाद् अस्य तथात्वं च शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.4]
अभिमानिव्यपदेशस् तु विशेषानुगतिभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.5]
दृश्यते तु।[ब्रह्मसूत्र 2.1.6]
असद् इति चेन् न प्रतिषेधमात्रत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.7]
अपीतौ तद्वत्प्रसङ्गाद् असमञ्जसम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.8]
न तु दृष्टान्तभावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.9]
स्वपक्षदोषाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.10]
तर्काप्रतिष्ठानाद् अपि।[ब्रह्मसूत्र 2.1.11]
अन्यथानुमेयम् इति चेद् एवम् अप्य् अनिर्मोक्षप्रसङ्गः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.12]
एतेन शिष्टापरिग्रहा अपि व्याख्याताः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.13]
भोक्त्रापत्तेर् अविभागश् चेत् स्याल् लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.14]
तदनन्यत्वम् आरम्भणशब्दादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.15]
भावे चोपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.16]
सत्वाच् चापरस्य।[ब्रह्मसूत्र 2.1.17]
असद्व्यपदेशान् नेति चेन् न धर्मान्तरेण वाक्यशेषाद्युक्तेः शब्दान्तराच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.18]
पटवच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.19]
यथा च प्राणादिः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.20]
इतरव्यपदेशाद् धिताकरणादिदोषप्रसक्तिः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.21]
अधिकं तु भेदनिर्देशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.22]
अश्मादिवच् च तदनुपपत्तिः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.22]
उपसंहारदर्शनान् नेति चेन् न क्षीरवद् धि।[ब्रह्मसूत्र 2.1.23]
देवादिवद् अपि लोके।[ब्रह्मसूत्र 2.1.24]
कृत्स्नप्रसक्तिर् निरवयवत्वशब्दकोपो वा।[ब्रह्मसूत्र 2.1.25]
श्रुतेस् तु शब्दमूलत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.27]
आत्मनि चैवं विचित्राश् च हि। [ब्रह्मसूत्र 2.1.28]
स्वपक्षदोषाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.29]
सर्वोपेता च तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.30]
विकरणत्वान् नेति चेत् तद् उक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.31]
न प्रयोजनवत्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.32]
लोकवत् तु लीलाकैवल्यम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.33]
वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति। [ब्रह्मसूत्र 2.1.34]
न कर्माविभागाद् इति चेन् नानादित्वाद् उपपद्यते चाप्य् उपलभ्यते च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.35]
सर्वधर्मोपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.36]
रचनानुपपत्तेश् च नानुमानं प्रवृत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.1]
पयोऽम्बुवच् चेत् तत्रापि।[ब्रह्मसूत्र 2.2.2]
व्यतिरेकानवस्थितेश् चानपेक्षत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.3]
अन्यत्राभावाच् च न तृणादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.4]
पुरुषाश्मवद् इति चेत् तथापि।[ब्रह्मसूत्र 2.2.5]
अङ्गित्वानुपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.6]
अन्यथानुमितौ च ज्ञशक्तिवियोगात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.7]
अभ्युपगमेऽप्य् अर्थाभावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.8]
विप्रतिषेधाच् चासमञ्जसम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.9]
महद्दीर्घवद् वा ह्रस्वपरिमण्डलाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.10]
उभयथापि न कर्मातस्तदभावः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.11]
समवायाभ्युपगमाच् च साम्याद् अनवस्थितेः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.12]
नित्यम् एव च भावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.13]
रूपादिमत्त्वाच् च विपर्ययो दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.14]
उभयथा च दोषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.15]
अपरिग्रहाच् चात्यन्तम् अनपेक्षा।[ब्रह्मसूत्र 2.2.16]
समुदाय उभयहेतुकेऽपि तदप्राप्तिः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.17]
इतरेतरप्रत्ययत्वाद् उपपन्नम् इति चेन् न सङ्घातभावानिमित्तत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.18]
उत्तरोत्पादे च पूर्वनिरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.19]
असति प्रतिज्ञोपरोधो यौगपद्यमन्यथा।[ब्रह्मसूत्र 2.2.20]
प्रतिसंख्याप्रतिसंख्यानिरोधाप्राप्तिर् अविच्छेदात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.21]
उभयथा च दोषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.22]
आकाशे चाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.23]
अनुस्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.24]
नासतोऽदृष्टत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.25]
उदासीनानाम् अपि चैवं सिद्धिः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.26]
नाभाव उपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.27]
वैधर्म्याच् च न स्वप्नादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.28]
न भावोऽनुपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.29]
सर्वथानुपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.30]
नैकस्मिन्न् असम्भवात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.31]
एवं चात्माकार्त्स्न्यम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.32]
न च पर्यायाद् अप्य् अविरोधो विकारादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.33]
अन्त्यावस्थितेश् चोभयनित्यत्वाद् अविशेषः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.34]
पत्युर् असामञ्जस्यात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.35]
अधिष्ठानानुपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.36]
करणवच् चेन् न भोगादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.37]
अन्तवत्त्वम् असर्वज्ञता वा।[ब्रह्मसूत्र 2.2.38]
उत्पत्त्यसंभवात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.39]
न च कर्तुः करणम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.40]
विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेधः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.41]
विप्रतिषेधाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.42]
न वियदश्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.1]
अस्ति तु।[ब्रह्मसूत्र 2.3.2]
गौण्यसंभवाच् छब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.3]
स्याच् चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.4]
प्रतिज्ञाहानिर् अव्यतिरेकात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.5]
शब्देभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.6]
यावद्विकारं तु विभागो लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.7]
एतेन मातरिश्वा व्याख्यातः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.8]
असंभवस् तु सतोऽनुपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.9]
तेजोऽतस् तथा ह्य् आह।[ब्रह्मसूत्र 2.3.10]
आपः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.11]
पृथिवी।[ब्रह्मसूत्र 2.3.12]
अधिकाररूपशब्दान्तरेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.13]
तदभिध्यानाद् एव तु तल्लिङ्गात् सः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.14]
विपर्ययेण तु क्रमोऽत उपपद्यते च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.15]
अन्तरा विज्ञानमनसी क्रमेण तल्लिङ्गाद् इति चेन् नाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.16]
चराचरव्यपाश्रयस् तु स्यात् तद्व्यपदेशो भाक्तस् तद्भावभावित्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.17]
नात्मा श्रुतेर् नित्यत्वाच् च ताभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.18]
ज्ञोऽत एव।[ब्रह्मसूत्र 2.3.19]
उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.20]
स्वात्मना चोत्तरयोः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.21]
नाणुरतच्छ्रुतेर् इति चेन् नेतराधिकारात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.22]
स्वशब्दोन्मानाभ्यां च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.23]
अविरोधश् चन्दनवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.24]
अवस्थितिवैशेष्याद् इति चेन् नाभ्युपगमाद् धृदि हि।[ब्रह्मसूत्र 2.3.25]
गुणाद्वा लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.26]
व्यतिरेको गन्धवत् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 2.3.27]
पृथगुपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.28]
तद्गुणसारत्वात् तु तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.29]
यावदात्मभावित्वाच् च न दोषस् तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.30]
पुंस्त्वादिवत् त्व् अस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.31]
नित्योपलब्ध्यनुपलब्धिप्रसङ्गोऽन्यतरनियमो वान्यथा।[ब्रह्मसूत्र 2.3.32]
कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.33]
उपादानाद् विहारोपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.34]
व्यपदेशाच् च क्रियायां न चेन् निर्देशविपर्ययः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.35]
उपलब्धिवदनियमः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.36]
शक्तिविपर्ययात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.37]
समाध्यभावाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.38]
यथा च तक्षोभयथा।[ब्रह्मसूत्र 2.3.39]
परात् तु तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.40]
कृतप्रयत्नापेक्षस् तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.41]
अंशो नानाव्यपदेशाद् अन्यथा चापि दाशकितवादित्वम् अधीयत एके।[ब्रह्मसूत्र 2.3.42]
मन्त्रवर्णात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.43]
अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 2.3.44]
प्रकाशादिवत् तु नैवं परः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.45]
स्मरन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.46]
अनुज्ञापरिहारौ देहसम्बन्धाज् ज्योतिरादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.47]
असन्ततेश् चाव्यतिकरः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.48]
आभास एव च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.49]
अदृष्टानियमात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.50]
अभिसन्ध्यादिष्व् अपि चैवम्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.51]
प्रदेशभेदाद् इति चेन् नान्तर्भावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.52]
तथा प्राणाः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.1]
गौण्यसंभवात् तत्प्राक् श्रुतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.2]
तत्पूर्वकत्वाद् वाचः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.3]
सप्त गतेर् विशेषितत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.4]
हस्तादयस् तु स्थितेऽतो नैवम्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.5]
अणवश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.6]
श्रेष्ठश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.7]
न वायुक्रिये पृथगुपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.8]
चक्षुरादिवत् तु तत्सहशिष्ट्यादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.9]
अकरणत्वाच् च न दोषस् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 2.4.10]
पञ्चवृत्तिर् मनोवत् व्यपदिश्यते।[ब्रह्मसूत्र 2.4.11]
अणुश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.12]
ज्योतिर् आद्यधिष्ठानं तु तदामननात्प्राणवता शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.13]
तस्य च नित्यत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.14]
त इन्द्रियाणि तद्व्यपदेशाद् अन्यत्र श्रेष्ठात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.15]
भेदश्रुतेर् वैलक्षण्याच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.16]
संज्ञामूर्तिकॢप्तिस् तु त्रिवृत्कुर्वत उपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.17]
मांसादि भौमं यथाशब्दमितरयोश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.18]
वैशेष्यात् तु तद्वादस् तद्वादः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.19]
(3). साधना :: इसमें ब्रह्मप्राप्ति के उपाय और ब्रह्म से तत्वों की उत्पत्ति कही गयी है और जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है।
तदन्तरप्रतिपत्तौ रंहति संपरिष्वक्तः प्रश्ननिरूपणाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.1]
त्र्यात्मकत्वात् तु भूयस्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.2]
प्राणगतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.3]
अग्न्यादिश्रुतेर् इति चेन् न भाक्तत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.4]
प्रथमेऽश्रवणाद् इति चेन् न ता एव ह्य् उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.5]
अश्रुतत्वाद् इति चेन् नेष्टादिकारिणां प्रतीतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.6]
भाक्तं वानात्मवित्त्वात् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 3.1.7]
कृतात्ययेऽनुशयवान् दृष्टस्मृतिभ्यां यथेतमनेवं च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.8]
चरणाद् इति चेन् न तदुपलक्षणार्थेति कार्ष्णाजिनिः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.9]
आनर्थक्यम् इति चेन् न तदपेक्षत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.10]
सुकृतदुष्कृते एवेति तु बादरिः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.11]
अनिष्टादिकारिणाम् अपि च श्रुतम्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.12]
संयमने त्व् अनुभूयेतरेषामारोहाव् अरोहौ तद्गतिदर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.13]
स्मरन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.14]
अपि सप्त।[ब्रह्मसूत्र 3.1.15]
तत्रापि तद्व्यापारादविरोधः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.16]
विद्याकर्मणोर् इति तु प्रकृतत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.17]
न तृतीये तथोपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.18]
स्मर्यतेऽपि च लोके।[ब्रह्मसूत्र 3.1.19]
दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.20]
तृतीयशब्दावरोधः संशोकजस्य।[ब्रह्मसूत्र 3.1.21]
तत्स्वाभाव्यापत्तिरुपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.22]
नातिचिरेण विशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.23]
अन्याधिष्ठिते पूर्ववदभिलापात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.24]
अशुद्धम् इति चेन् न शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.25]
रेतःसिग्योगोऽथ।[ब्रह्मसूत्र 3.1.26]
योनेःशरीरम्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.27]
सन्ध्ये सृष्टिराह हि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.1]
निर्मातारं चैके पुत्रादयश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.2]
मायामात्रं तु कार्त्स्न्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.3]
पराभिध्यानात् तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ।[ब्रह्मसूत्र 3.2.4]
देहयोगाद्वा सोऽपि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.5]
सूचकश् च हि श्रुतेराचक्षते च तद्विदः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.6]
तदभावो नाडीषु तच्छ्रुतेरात्मनि च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.7]
अतः प्रबोधोऽस्मात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.8]
स एव तु कर्मानुस्मृतिशब्दविधिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.9]
मुग्धेर्ऽधसंपत्तिः परिशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.10]
न स्थानतोऽपि परस्योभयलिङ्गं सर्वत्र हि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.11]
भेदाद् इति चेन् न प्रत्येकमतद्वचनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.12]
अपि चैवम् एके।[ब्रह्मसूत्र 3.2.13]
अरूपवदेव हि तत्प्रधानत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.14]
प्रकाशवच्चावैयर्थ्यात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.15]
आह च तन्मात्रम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.16]
दर्शयति चाथो अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 3.2.17]
अत एव चोपमा सूर्यकादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.18]
अम्बुवदग्रहणात् तु न तथात्वम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.19]
वृद्धिह्रासभाक्त्वमन्तर्भावादुभयसामञ्जस्यादेवं दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.20]
प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिषेधति ततो ब्रवीति च भूयः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.21]
तदव्यक्तमाह हि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.22]
अपि संराधने प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.23]
प्रकाशादिवच्चावैशेष्यं प्रकाशश् च कर्मण्यभ्यासात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.24]
अतोऽनन्तेन तथा हि लिङ्गम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.25]
उभयव्यपदेशात्त्वहिकुण्डलवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.26]
प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.27]
पूर्ववद्वा।[ब्रह्मसूत्र 3.2.28]
प्रतिषेधाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.29]
परमतस्सेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.30]
सामान्यात् तु।[ब्रह्मसूत्र 3.2.31]
बुद्ध्यर्थः पादवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.32]
स्थानविशेषात्प्रकाशादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.33]
उपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.34]
तथान्यप्रतिषेधात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.35]
अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.36]
फलमत उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.37]
श्रुतत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.38]
धर्मं जैमिनिरत एव।[ब्रह्मसूत्र 3.2.39]
पूर्वं तु बादरायणो हेतुव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.40]
सर्ववेदान्तप्रत्ययं चोदनाद्यविशेषात् ।[ब्रह्मसूत्र 3.3.1]
भेदान् नेति चेद् एकस्याम् अपि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.2]
स्वाध्यायस्य तथात्वे हि समाचारेऽधिकाराच् च सववच् च तन्नियमः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.3]
दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.4]
उपसंहारोर्ऽथाभेदाद्विधिशेषवत्समाने च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.5]
अन्यथात्वं शब्दाद् इति चेन् नाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.6]
न वा प्रकरणभेदात् परोवरीयस्त्वादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.7]
संज्ञातश् चेत् तद् उक्तम् अस्ति तु तद् अपि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.8]
व्याप्तेश् च समञ्जसम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.9]
सर्वाभेदादन्यत्रेमे।[ब्रह्मसूत्र 3.3.10]
आनन्दादयः प्रधानस्य।[ब्रह्मसूत्र 3.3.11]
प्रियशिरस्त्वाद्यप्राप्तिरुपचयापचयौ हि भेदे।[ब्रह्मसूत्र 3.3.12]
इतरे त्वर्थसामान्यात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.13]
आध्यानाय प्रयोजनाभावात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.14]
आत्मशब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.15]
आत्मगृहीतिर् इतरवद् उत्तरात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.16]
अन्वयाद् इति चेत् स्याद् अवधारणात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.17]
कार्याख्यानादपूर्वम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.18]
समान एवं चाभेदात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.19]
सम्बन्धादेवमन्यत्रापि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.20]
न वा विशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.21]
दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.22]
संभृतिद्युव्याप्त्यपि चातः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.23]
पुरुषविद्यायामपि चेतरेषामनाम्नानात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.24]
वेधाद्यर्थभेदात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.25]
हानौ तूपायनशब्दशेषत्वात् कुशाच्छन्दस्स्तुत्युपगानवत्तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.26]
सांपराये तर्तव्याभावात् तथा ह्य् अन्ये।[ब्रह्मसूत्र 3.3.27]
छन्दत उभयाविरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.28]
गतेर् अर्थवत्त्वम् उभयथान्यथा हि विरोधः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.29]
उपपन्नस् तल्लक्षणार्थोपलब्धेर् लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.30]
यावदधिकारम् अवस्थितिर् आधिकारिकाणाम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.31]
अनियमस्सर्वेषामविरोधश्शब्दानुमानाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.32]
अक्षरधियां त्ववरोधस्सामान्यतद्भावाभ्यामौपसदवत्तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.33]
इयदामननात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.34]
अन्तरा भूतग्रामवत्स्वात्मनोऽन्यथा भेदानुपपत्तिर् इति चेन् नोपदेशवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.35]
व्यतिहारो विशिंषन्ति हीतरवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.36]
सैव हि सत्यादयः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.37]
कामादीतरत्र तत्र चाऽयतनादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.38]
आदरादलोपः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.39]
उपस्थितेऽतस्तद्वचनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.40]
तन्निर्धारणानियमस्तद्दृष्टेः पृथग्घ्यप्रतिबन्धः फलम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.41]
प्रदानवदेव तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.42]
लिङ्गभूयस्त्वात्तद्धि बलीयस्तदपि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.43]
पूर्वविकल्पः प्रकरणात्स्यात् क्रियामानसवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.44]
अतिदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.45]
विद्यैव तु निर्धारणाद्दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.46]
श्रुत्यादिबलीयस्त्वाच् च न बाधः। [ब्रह्मसूत्र 3.3.47]
अनुबन्धादिभ्यः प्रज्ञान्तरपृथक्त्ववद्दृष्टश् च तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.48]
न सामान्यादप्युपलब्धेर्मृत्युवन्न हि लोकापत्तिः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.49]
परेण च शब्दस्य ताद्विध्यं भूयस्त्वात् त्व् अनुबन्धः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.50]
एक आत्मनः शरीरे भावात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.51]
व्यतिरेकस्तद्भावभावित्वान्न तूपलब्धिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.52]
अङ्गावबद्धास्तु न शाखासु हि प्रतिवेदम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.53]
मन्त्रादिवद्वाविरोधः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.54]
भूम्नः क्रतुवज्ज्यायस्वं तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 3.3.55]
नाना शब्दादिभेदात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.56]
विकल्पोऽविशिष्टफलत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.57]
काम्यास्तु यथाकामं समुच्चीयेरन्न वा पूर्वहेत्वभावात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.58]
अङ्गेषु यथाश्रयभावः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.59]
शिष्टेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.60]
समाहारात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.61]
गुणसाधारण्यश्रुतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.62]
न वा तत्सहभावाश्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.63]
दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.64]
पुरुषार्थो ऽतः शब्दाद् इति बादरायणः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.1]
शेषत्वात्पुरुषार्थवादो यथान्येष्व् इति जैमिनिः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.2]
आचारदर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.3]
तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.4]
समन्वारम्भणात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.5]
तद्वतो विधानात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.6]
नियमात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.7]
अधिकोपदेशात् तु बादरायणस्यैवं तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.8]
तुल्यं तु दर्शनम्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.9]
असार्वत्रिकी।[ब्रह्मसूत्र 3.4.10]
विभागः शतवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.11]
अध्ययनमात्रवतः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.12]
नाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.13]
स्तुतयेऽनुमतिर्वा।[ब्रह्मसूत्र 3.4.14]
कामकारेण चैके।[ब्रह्मसूत्र 3.4.15]
उपमर्दं च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.16]
ऊर्ध्वरेतस्सु च शब्दे हि।[ब्रह्मसूत्र 3.4.17]
परामर्शं जैमिनिरचोदनाच्चापवदति हि।[ब्रह्मसूत्र 3.4.18]
अनुष्ठेयं बादरायणस्साम्यश्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.19]
विधिर् वा धारणवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.20]
स्तुतिमात्रम् उपादानाद् इति चेन् नापूर्वत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.21]
भावशब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.22]
पारिप्लवार्था इति चेन् न विशेषितत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.23]
तथा चैकवाक्योपबन्धात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.24]
अत एव चाग्नीन्धनाद्यनपेक्षा।[ब्रह्मसूत्र 3.4.25]
सर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रुतेर् अश्ववत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.26]
शमदमाद्युपेतस् स्यात् तथापि तु तद्विधेस् तदङ्गतया तेषाम् अप्य् अवश्यानुष्ठेयत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.27]
सर्वान् नानुमतिश् च प्राणात्यये तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.28]
अबाधाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.29]
अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 3.4.30]
शब्दश् चातोऽकामकारे।[ब्रह्मसूत्र 3.4.31]
विहितत्वाच् चाऽश्रमकर्मापि।[ब्रह्मसूत्र 3.4.32]
सहकारित्वेन च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.33]
सर्वथापि त एवोभयलिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.34]
अनभिभवं च दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 3.4.35]
अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.36]
अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 3.4.37]
विशेषानुग्रहश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.38]
अतस् त्व् इतरज्ज्यायो लिङ्गाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.39]
तद्भूतस्य तु नातद्भावो जैमिनेर् अपि नियमात् तद्रूपाभावेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.40]
न चाधिकारिकम् अपि पतनानुमानात् तदयोगात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.41]
उपपूर्वम् अपीत्य् एके भावमशनवत् तद् उक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.42]
बहिस् तूभयथापि स्मृतेर् आचाराच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.43]
स्वामिनः फलश्रुतेर् इत्य् आत्रेयः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.44]
आर्त्विज्यम् इत्य् औडुलोमिः तस्मै हि परिक्रीयते।[ब्रह्मसूत्र 3.4.45]
सहकार्यन्तरविधिः पक्षेण तृतीयं तद्वतो विध्यादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.46]
कृत्स्नभावात् तु गृहिणोपसंहारः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.47]
मौनवद् इतरेषाम् अप्य् उपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.48]
अनाविष्कुर्वन्न् अन्वयात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.49]
ऐहिकम् अप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.50]
एवं मुक्तिफलानियमस् तदवस्थावधृतेस् तदवस्थावधृतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.51]
(4). फल :: फल अध्याय में ब्रह्मज्ञान का फल अर्थात् स्वर्ग और मोक्ष का विवेचन है। चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।
चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया गया है। इस सूत्र में पूर्व मीमांसा शास्त्र का खंडन है
आवृत्तिर् असकृदुपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.1]
लिङ्गाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.2]
आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.3]
न प्रतीके न हि सः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.4]
ब्रह्मदृष्टिर् उत्कर्षात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.5]
आदित्यादिमतयश् चाङ्ग उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.6]
आसीनः संभवात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.7]
ध्यानाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.8]
अचलत्वं चापेक्ष्य।[ब्रह्मसूत्र 4.1.9]
स्मरन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.10]
यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.11]
आप्रयाणात् तत्रापि हि दृष्टम्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.12]
तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोर् अश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.13]
इतरस्याप्य् एवम् असंश्लेषः पाते तु।[ब्रह्मसूत्र 4.1.14]
अनारब्धकार्ये एव तु पूर्वे तदवधेः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.15]
अग्निहोत्रादि तु तत्कार्यायैव तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.16]
अतोऽन्यापि ह्य् एकेषाम् उभयोः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.17]
यद् एव विद्ययेति हि।[ब्रह्मसूत्र 4.1.18]
भोगेन त्व् इतरे क्षपयित्वाथ संपद्यते।[ब्रह्मसूत्र 4.1.19]
वाङ्मनसि दर्शनाच् छब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.2.1]
अत एव सर्वाण्यनु।[ब्रह्मसूत्र 4.2.2]
तन्मनः प्राण उत्तरात्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.3]
सोऽध्यक्षे तदुपगमादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.4]
भूतेषु तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.5]
नैकस्मिन् दर्शयतो हि।[ब्रह्मसूत्र 4.2.6]
समाना चासृत्युपक्रमाद् अमृतत्वं चानुपोष्य।[ब्रह्मसूत्र 4.2.7]
तदापीतेः संसारव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.8]
सूक्ष्मं प्रमाणतश् च तथोपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.9]
नोपमर्देनातः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.10]
अस्यैव चोपपत्तेर् ऊष्मा।[ब्रह्मसूत्र 4.2.11]
प्रतिषेधाद् इति चेन् न शारीरात् स्पष्टो ह्येकेषाम्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.12]
स्मर्यते च।[ब्रह्मसूत्र 4.2.13]
तानि परे तथा ह्य् आह।[ब्रह्मसूत्र 4.2.14]
अविभागो वचनात्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.15]
तदोकोग्रज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारो विद्यासामर्थ्यात् तच्छेषगत्यनुस्मृतियोगाच्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.16]
रश्म्यनुसारी।[ब्रह्मसूत्र 4.2.17]
निशि नेति चेन् न सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद् दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 4.2.18]
अतश् चायनेऽपि दक्षिणे।[ब्रह्मसूत्र 4.2.19]
योगिनः प्रति स्मर्येते स्मार्ते चैते।[ब्रह्मसूत्र 4.2.20]
अर्चिरादिना तत्प्रथितेः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.1]
वायुमब्दादविशेषविशेषाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.2]
तटितोऽधि वरुणः संबन्धात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.3]
आतिवाहिकास् तल्लिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.4]
वैद्युतेनैव ततस् तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.5]
कार्यं बादरिरस्य गत्युपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.6]
विशेषितत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.7]
सामीप्यात् तु तद्व्यपदेशः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.8]
कार्यात्यये तदध्यक्षेण सहातः परम् अभिधानात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.9]
स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.10]
परं जैमिनिर् मुख्यत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.11]
दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.12]
न च कार्ये प्रत्यभिसन्धिः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.13]
अप्रतीकालम्बनान् नयतीति बादरायण उभयथा च दोषात् तत्क्रतुश् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.14]
विशेषं च दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 4.3.15]
संपद्याविर्भावः स्वेन शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.1]
मुक्तः प्रतिज्ञानात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.2]
आत्मा प्रकरणात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.3]
अविभागेन दृष्टत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.4]
ब्राह्मेण जैमिनिर् उपन्यासादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.5]
चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वाद् इत्य् औडुलोमिः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.6]
एवम् अप्य् उपन्यासात् पूर्वभावाद् अविरोधं बादरायणः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.7]
संकल्पाद् एव तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.8]
अत एव चानन्याधिपतिः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.9]
अभावं बादरिर् आह ह्य् एवम्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.10]
भावं जैमिनिर् विकल्पामननात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.11]
द्वादशाहवद् उभयविधं बादरायणोऽतः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.12]
तन्वभावे सन्ध्यवद् उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.13]
भावे जाग्रद्वत्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.14]
प्रदीपवदावेशस् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 4.4.15]
स्वाप्ययसंपत्योर् अन्यतरापेक्षम् आविष्कृतं हि।[ब्रह्मसूत्र 4.4.16]
जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणाद् असंनिहितत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.4.17]
प्रत्यक्षोपदेशाद् इति चेन् नाधिकारिकमण्डलस्थोक्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.18]
विकारावर्ति च तथा हि स्थितिम् आह।[ब्रह्मसूत्र 4.4.19]
दर्शयतश् चैवं प्रत्यक्षानुमाने।[ब्रह्मसूत्र 4.4.20]
भोगमात्रसाम्यलिङ्गाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.4.21]
अनावृत्तिः शब्दाद् अनावृत्तिः शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.22]
बादरायण की प्रणाली में तर्क का महत्त्व इतना अधिक है कि ब्रह्मसूत्र मुख्यत: एक खंडन वाला ग्रन्थ प्रतीत होता है। पांचवें सूत्र में साँख्य शास्त्र का खंडन है।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)