SIGNIFICANT NUMERALS IN HINDUISM
हिन्दुत्व में महत्वपूर्ण सँख्याएँ CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
SIGNIFICANCE OF 1 का महत्त्व :: परमात्मा एक है। उसे भगवान्, ईश्वर, परमेश्वर, Almighty, God जैसे नामों से जाना जाता है।
ब्रह्म :: एक है।
ब्रह्मा जी का एक दिन :: 1 कल्प
अक्षौहिणी :: अक्षौहिणी सेना में योद्धाओं और पशुओं की गिनती का प्राचीन माप है। महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी। एक अक्षौहिणी सेना में 21,870 रथ, 21,870 हाथी, 65,610 घुड़सवार एवं 1,09,350 पैदल सैनिक होते थे।[महाभारत]
चतुरंगिणी सेना :: प्राचीन भारत में सेना के चार अँग होते थे :- हाथी, घोड़े, रथ और पैदल। जिस सेना में ये चारों अँग होते थे, वह चतुरंगिणी सेना कहलाती थी।
अक्षौहिणी सेना के चार विभाग :: (1). रथ (रथी), (2). गज (हाथी सवार), (3). घोड़े (घुड़सवार) और सैनिक-पैदल सिपाही।
इनका अनुपात :: रथ:गज:घुड़सवार:पैदल सनिक :: 1:1:3:5
इसके प्रत्येक भाग की सँख्या के अँकों का कुल जमा 18 आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक फीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोड़े।
महाभारत युद्ध की सेना के मनुष्यों की सँख्या कम से कम 46,81,920, घोड़ों की सँख्या 27,15,620 और इसी अनुपात में गजों की सँख्या थी।
एक अक्षौहिणी सेना नौ भाग ::
पत्ति :: 1 गज + 1 रथ + 3 घोड़े + 5 पैदल सिपाही।
सेनामुख :: (3 x पत्ति) = 3 गज + 3 रथ + 9 घोड़े + 15 पैदल सिपाही।
गुल्म :: (3 x सेनामुख) = 9 गज + 9 रथ + 27 घोड़े + 45 पैदल सिपाही।
गण :: (3 x गुल्म) = 27 गज + 27 रथ + 81 घोड़े + 135 पैदल सिपाही।
वाहिनी :: (3 x गण) = 81 गज + 81 रथ + 243 घोड़े + 405 पैदल सिपाही।
पृतना :- (3 x वाहिनी) = 243 गज + 243 रथ + 729 घोड़े + 1,215 पैदल सिपाही।
चमू :: (3 x पृतना) = 729 गज + 729 रथ + 2,187 घोड़े + 3,645 पैदल सिपाही।
अनीकिनी :: (3 x चमू) = 2,187 गज + 2,187 रथ + 6,561 घोड़े + 10,935 पैदल सिपाही।
अक्षौहिणी :: (10 x अनीकिनी) = 21,870 गज + 21,870 रथ + 65,610 घोड़े + 1,09,350 पैदल सिपाही।
एक अक्षौहिणी सेना :: गज = 21870, रथ = 21870, घुड़सवार = 65610, पैदल सिपाही = 109350.
इसमें चारों अंगों के 21,8700 सैनिक बराबर-बराबर बँटे हुए होते थे। प्रत्येक इकाई का एक प्रमुख होता था।
पत्ती, सेनामुख, गुल्म तथा गण के नायक अर्धरथी हुआ करते थे।
वाहिनी, पृतना, चमु और अनीकिनी के नायक रथी हुआ करते थे।
एक अक्षौहिणी सेना का नायक अतिरथी होता था।
एक से अधिक अक्षौहिणी सेना का नायक सामान्यतः एक महारथी हुआ करता था।
पाण्डवों की सेना ::7 अक्षौहिणी।
1,53,090 रथ, 1,53,090 गज, 4,59,270 अश्व, 7,65,270 पैदल सैनिक।
कौरवों की सेना :: 11 अक्षौहिणी।
2,40,570 रथ, 240570 गज, 7,21,710 घोड़े, 12,02,850 पैदल सैनिक।
अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम्।
प्रविश्यान्तर्दधे राजन्सागरं कुनदी यथा॥
महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी।
अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।
यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव॥
सौतिरूवाच :- अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।[महाभारत आदिपर्व और सभापर्व]
उग्रश्रवा जी ने कहा :- एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े। बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने पत्ति कहा है।
एको रथो गजश्चैको नरा: पंच पदातय:।
त्रयश्च तुरगास्तज्झै: पत्तिरित्यभिधीयते॥
इस पत्ति की तिगुनी सँख्या को विद्वान पुरुष सेनामुख कहते हैं। तीन सेनामुखों को एक गुल्म कहा जाता है।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा:।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥
तीन गुल्म का एक गण होता है, तीन गण की एक वाहिनी होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने पृतना कहा है।
त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय:।
स्मृतास्तिस्त्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै:॥
तीन पृतना की एक चमू, तीन चमू की एक अनीकिनी और दस अनीकिनी की एक अक्षौहिणी होती है। यह विद्वानों का कथन है।
चमूस्तु पृतनास्तिस्त्रस्तिस्त्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा:॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की सँख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21,870) बतलायी है। हाथियों की सँख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।
अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा:।
संख्या गणिततत्त्वज्ञै: सहस्त्राण्येकविंशति:॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्तति:।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्॥
निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की सँख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (1,09,350) जाननी चाहिये।
ज्ञेयं शतसहस्त्रं तु सहस्त्राणि नवैव तु।
नराणामपि पंचाशच्छतानि त्रीणि चानघा:॥
एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक सँख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (65,610) कही गयी है।
पंचषष्टिसहस्त्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया॥
तपोधनो! सँख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।
एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना:।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना:॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणना के अनुसार कौरवों-पाण्डवों दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी।
एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयो:।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु॥
अद्भुत कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपंचक क्षेत्र में कौरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता:।
कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा॥
SIGNIFICANCE OF 2 का महत्त्व ::
वध के दो प्रकार :- (1). प्रकाश (प्रकट) और (2). अप्रकाश (गुप्त)। जो सब लोगों के द्वेषपात्र हों, ऐसे दुष्टों का प्रकट रूप में वध करना चाहिये; किंतु जिनके मारे जाने से लोग उद्विग्न हो उठें, जो राजा के प्रिय हों तथा अधिक बलशाली हों, वे यदि राजा के हित में बाधा पहुँचाते हैं तो उनका गुप्त रूप से वध करना उत्तम कहा गया है। गुप्त रूप से वध का प्रयोग यों करना चाहिये :- विष देकर, एकान्त में आग आदि लगाकर, गुप्त मनुष्यों द्वारा शस्त्र का प्रयोग कराकर अथवा शरीर फोड़ा पैदा करने वाले उबटन लगवाकर राज्य के शत्रु को नष्ट करे। जो जाति मात्र से भी ब्राह्मण हो उसे प्राण दण्ड न दे। उस पर सामनीति का प्रयोग करके उसे वश में लाने की चेष्टा करे।राम नीति]
दो प्रकार के व्यसन :- मानुष और देव। अनय और अपनय दोनों के संयोग से प्रकृति व्यसन प्राप्त होता है अथवा केवल देव से भी उसकी प्राप्ति होती है।वह श्रेय (अभीष्ट अर्थ) को व्यस्त (क्षिप्त या नष्ट कर देता है, इसलिये व्यसन कहलाता है।[राम नीति]
गुप्तचर के दो प्रकार :- प्रकाश (प्रकट) और अप्रकाश (गुप्त)। इनमें जो प्रकाश है, उसको 'दूत' संज्ञा है और अप्रकाश 'चर' कहा गया है। वाणिक (वैदेहक), किसान (गृहपति), लिडी (मुण्डित या जटाधारी तपस्वी), भिक्षुक (उदास्थित) अध्यापक (छात्रवृत्ति रहने वाला कार्यटिक), इन चरों की स्थिति के लिये संस्थाएँ हैं। इसके लिये वृत्ति (जीविका) की व्यवस्था की जानी चाहिये, जिससे ये सुख से रह सकें*4।
*4'वैदेहक' आदि शब्द 'वणिक्' आदि संस्थाओं के चरों के नामान्तर हैं।
जब दूत की चेष्टा विफल हो जाय तथा शत्रु व्यसन ग्रस्त हो, तब उस पर चढ़ाई करें।[राम नीति]
राज्य के दो भेद :: बाह्य और आभ्यन्तर। राजा का अपना शरीर ही 'आभ्यन्तर राज्य' है तथा राष्ट्र या जनपद को 'बाहा राज्य' कहा गया है। राजा इन दोनों को रक्षा करे।[राम नीति]
योगी-साधकों-तपस्वियों की दो गतियों ::
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तू हर समय योग युक्त समता को प्राप्त कर।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.27] The Almighty stressed that the Yogi-one, who is aware of the two routes-paths after the death; first leading to Salvation and the other leading to reincarnation, is not enchanted-illusioned. He asked Arjun to attain equanimity aided with Yog and establish himself in it.
योगी-साधकों-तपस्वियों की दो गतियाँ :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।
There are two paths after the death one may follow. The second one is that of comforts, sensuality, enjoyment, pleasure and the first one is to liberate from the repeated cycles of birth and death. The enlightened, aware of these two has to attain equanimity and practice for Liberation, emancipation, Salvation with firm determination. He is not illusioned or enchanted. He rejects all allurements, desires and devote himself whole heartedly, to the Almighty.
माया ब्रह्म (की परिणाम शक्ति) के दो भेद ::
तत्र सा मायाख्या परिणाम शक्तिश्च द्विविधा वर्ण्यते, निमित्ताशो माया उपादानांश: प्रधानम् इति। तत्र केवला शक्तिर्निमित्तम्, तद व्यूहमयी तूपादानमिति विवेक:।
परिणाम शक्ति के निमित्तांश को निमित्त माया और उपादानांश को उपादार्ना माया भी कहा गया है।[चैतन्य महाप्रभु] निमित्त माया के चार भेद :: काल, दैव, कर्म और स्वभाव।[चैतन्य महाप्रभु]
दो प्रकार के जीव :: नित्य मुक्त और नित्य संसारी। नित्य मुक्त जीवों पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता और ब्रह्म की स्वरूप शक्ति के अधीन वे सदा मुक्त रहते हैं। नित्य संसारी जीव माया के अधीन रहते हैं। ऐसे जीवों के दो भेद होते हैं, बहिर्मुख और विद्वेषी। बहिर्मुख जीवों के दो भेद हैं :- अरुचिग्रस्त और वैकृत्यग्रस्त।[चैतन्य महाप्रभु]
दो प्रकार के जीव ::
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
इस संसार में क्षर-नाशवान और अक्षर-अविनाशी, ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 15.16] There are two types of entities in this world-cosmos :- perishable and imperishable. The bodies of living beings are perishable (लौकिक, अस्थायी, temporal, temporary, changeable, mutable) and the soul, eternal, spirit is imperishable.
प्रत्यक्ष दिखने वाले शरीरादि पदार्थ जड़, नाशवान, लौकिक अर्थात क्षर हैं। जगत और जीव दोनों ही लौकिक हैं। कर्म योग और ज्ञान योग भी लौकिक हैं, परन्तु भक्ति योग अलौकिक है। अपरा प्रकृति को क्षर और परा प्रकृति को अक्षर कहा गया है। जीवात्मा निर्विकार, अविनाशी अक्षर है। क्षर और अक्षर दोनों को ही पुरुष कहा गया है। प्राणियों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को भूत अर्थात नाशवान कहा गया है। जीवात्मा को कूटस्थ कहा गया है, क्योंकि वह हमेशां एक जैसा, ज्यों का त्यों रहता है; क्योंकि वह अलौकिक-अपरा है।
Everything which is visible, inertial, perishable, worldly is Kshar. The world and the living being both are perishable. Karm Yog and Gyan Yog, both are perishable. The nature which leads to creation is Para and is perishable. The eternity, soul & the Almighty are imperishable-Akshar. Bhakti Yog too is imperishable. The 3 types of bodies acquired by the soul are perishable, but the soul is for ever, unchangeable & divine-Apara.
जीव दो प्रकार के होते हैं :- क्षर (च्युत, नश्वर, लौकिक) और अक्षर (अच्युत, अनश्वर, अलौकिक)। क्षर को जन्म, वृद्धि, अस्तित्व, प्रजनन, क्षय तथा विनाश के परिवर्तनों से गुजरना पड़ता है। जो भी जीव क्षुद्र चींटी से लेकर ब्रह्मा जी तक भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है, वो नाशवान है। जो अक्षर है उसका न जन्म होता है, न जरा-वृद्धावस्था है और न ही मृत्यु। अक्षर सदैव मुक्त और एकावस्था में बने रहते हैं।
The living beings are of two types: Perishable and imperishable. One who comes in contact with the worldly entities from an ant to Brahma Ji-the creator, is perishable. The perishable has to pass through 6 phases: Birth, growth, existence, regeneration, decay and destruction-death. The imperishable remains as such, in the same state, like the child of 14 years. The physique of Bhagwan Shri Krashn remained as such, like a child of 14 years, till he left earth. Imperishable does not pass through birth, ageing and death, maintaining the same free state of the body for ever. The imperishable has attained parity with the God. However, the God is over & above these two categories of beings.
जीव दो प्रकार के प्राणियों की सृष्टि ::
मन के तप के 2 लक्षण :- मौन और आत्मनिग्रह।
वाचिक तप के 2 लक्षण हैं :- सत्य और स्वाध्याय।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥
इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि हुई है :- दैवी और आसुरी। दैवी को तो मैनें विस्तार से कह दिया है, अब हे पार्थ! मुझ से आसुरी सृष्टि के बारे में विस्तार से सुनो।[श्रीमद् भगवद्गीता 16.6]
Bhagwan Shri Krashn told Arjun by addressing him as Parth that there were only two types of creations, castes, divisions & that HE had described the divine (pious, virtuous, truthful, righteous, wise, enlightened) creations in detail at length and he was going to narrate about the demonic (ignorant) creations.
प्रकृति में दो तरह की सृष्टि है दैवी और आसुरी। दोनों शक्तियाँ एक दूसरे के विपरीत हैं। भूत सर्ग में सभी प्रकार की सृष्टि आ जाती है। परमात्मा का अंश चेतन है। प्रकृति का अंश जड़ है। जब तक चेतन अंश प्रकृति से जुड़ा है, वह आसुरी सम्पदा के अंतर्गत आता है। जैसे ही वह प्रकृति से विमुख होकर परमात्मा की ओर बढ़ता है, उसमें दैवी सम्पदा का प्रादुर्भाव हो जाता है। दुराचार, अनाचार, अत्याचार करने वाले परमात्मा से विमुख होते हैं और उनका पाप निरंतर बढ़ता चला जाता है। दैवी और आसुरी शक्तियाँ दोनों ही लौकिक हैं। अलौकिक अनन्त और अपार है। लौकिक की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। जीव ने ही लौकिक को धारण कर रखा है। जब तक जीव की दृष्टि में संसार की सत्ता है, तभी तक लौकिक है। संसार की सत्ता न रहने से सभी कुछ अलौकिक है।
The nature has two types of creations acting in opposite directions. The first one tend to move towards the God, while the second one acts the other way round-nature. The past creations govern both of them. The alert, enlightened, wise component is a the from of the Almighty. It leads one to imperishable-divinity. The segment which is rigid-inertial is governed by the nature and follows the dictates of ignorance-darkness, lethargies having demonic traits. The demonic character always moves one to perishable leading to long sequence of birth & rebirth. As soon as this component start moving to the God his character changes from perishable to imperishable-divine. Those who are busy in atrocities, torture, terrorism, teasing, assassination, murders, crimes, rape, snatching, frauds, Jihad, terrorism etc. etc. are the ignorant ones going to suffer in future. Their sin graph will continue to rise further and further. The organism is responsible to give strength to perishable character which is demonic, devilish, satanic. The moment one start ignoring the negative forces his freedom-Salvation is sure. He will start the journey to bliss-pleasure which is the Ultimate-divine. Divinity is infinite, imperishable.
वध के दो प्रकार :: (1). प्रकाश (प्रकट) और (2). अप्रकाश (गुप्त)। जो सब लोगों के द्वेषपात्र हों, ऐसे दुष्टों का प्रकट रूप में वध करना चाहिये; किंतु जिनके मारे जाने से लोग उद्विग्न हो उठें, जो राजा के प्रिय हों तथा अधिक बलशाली हों, वे यदि राजा के हित में बाधा पहुँचाते हैं तो उनका गुप्त रूप से वध करना उत्तम कहा गया है। गुप्त रूप से वध का प्रयोग यों करना चाहिये :- विष देकर, एकान्त में आग आदि लगाकर, गुप्त मनुष्यों द्वारा शस्त्र का प्रयोग कराकर अथवा शरीर फोड़ा पैदा करने वाले उबटन लगवाकर राज्य के शत्रु को नष्ट करे। जो जाति मात्र से भी ब्राह्मण हो उसे प्राण दण्ड न दे। उस पर सामनीति का प्रयोग करके उसे वश में लाने की चेष्टा करे।[राम नीति]
राज्य के दो भेद :: बाह्य और आभ्यन्तर। राजा का अपना शरीर ही 'आभ्यन्तर राज्य' है तथा राष्ट्र या जनपद को 'बाहा राज्य' कहा गया है। राजा इन दोनों को रक्षा करे।
बन्धन-जाल के दो प्रकार :: संसारी और शास्त्रीय। द्वैत-अद्वैत, मत-मतान्तर के झगड़े में पड़ने के बजाय साधक का ध्यान केवल और केवल परमात्मा में होना चाहिये। शास्त्र को लेकर विवाद व्यर्थ है, क्योंकि भगवान् श्री कृष्ण ने उद्धव से कहा कि हर व्यक्ति शास्त्र की व्याख्या अपने हित-स्वार्थ के अनुरूप करता है।
Two types of Bonds :: Worldly and the ones related to the explanation of scriptures.
परमात्मा के 2 रूप हैं :- व्यक्त और अव्यक्त, साकार और निराकार।
वृत्ति के दो भेद :: ‘‘वृत्तयः पंचतय्य क्लिष्टाऽक्लिष्टा’’
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं और हर प्रकार की वृत्ति के दो भेद या रूप हैं; क्लिष्ट और अक्लिष्ट।
दो पक्ष :: कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। दो लिंग :: नर और नारी (तीसरा नपुंसक-किन्नर)।
दो पूजा :: वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन :: उत्तरायन और दक्षिणायन।
दो प्रकार के वैदिक कर्म ::
सुखाभ्युदयिकं चैव नैःश्रेयसिकमेव च।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्॥
सुख और अभ्युदय को करने वाला तथा मुक्ति को देने वाला, इस तरह प्रवृत और निवृत्त दो प्रकार के वैदिक कर्म हैं।[मनु स्मृति 12.88]
The Vaedic deeds are of two types :- (1). One tends to acquire comforts & rise in the social strata and (2). which inclines one to Liberation.
The first lures one to sensualities, sexuality, passions-lasciviousness, luxuries, comforts, peaking heights in the society, worldly affairs and the second types of deeds intends-forces one to Assimilation in God, i.e., emancipation, Salvation-Moksh.
2 अश्विनी कुमार :: (1). नासत्य और (2.) दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।योगी, साधकों, तपस्वियों की दो गतियों :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।
दो प्रकार की गायत्री :: लौकिक और वैदिक। लौकिक गायत्री में चार चरण होते हैं तथा वैदिक गायत्री में तीन चरण होते हैं। इसी कारण वश गायत्री का नाम त्रिपदा भी है। त्रिपदा गायत्री के ऋषि विश्वामित्र हैं। परम सत्ता धर्मी, शक्ति या शक्तिमान् की जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया इस गुण त्रय से सम्पन्न है और जो ज्योति: स्वरुप है, उसकी मैं उपासना करता हूँ। त्रिपदा गायत्री के भूमि, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये अष्टाक्षर कहलाते है।
गायत्री का प्रत्येक पाद आठ अक्षरों का है :- भू:, भुव: और स्व: यह तीनों लोक परिन्त विराजमान हैं। ऋच: यजूंषि ओर सामानि ये अष्टाक्षर भी गायत्री की एक पदत्रयी विद्या है। प्राणों का नाम गय है। उनका त्राण करने से ही गायत्री कहलाती है।
गायत्री के भिन्न-भिन्न 24 अक्षर :: ऊँ (1). त, (2). त्स, (3). वि, (4). तु, (5). र्व, (6). रे, (7). णि, (8). यं। ऊँ (9). भ, (10). र्गो, (11). दे, (12). व, (13). स्य, (14). धी, (15). म, (16). हि। ऊँ (17). धि, (18). यो, (19). यो, (20). न:, (21). प्र, (22). चो, (23). द, (24). यात्।
मुक्ताविद्रुमहेमनील धवलच्छायैमुर्खैस्त्रीक्षणैयुर्क्ता मिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम्। गायत्रीं वरदाभयाडंकुशकषा: षुभ्रं कपालं गुणं, षंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥
यह पॉंच सिर वाली है (जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के बोधक) तथा प्रधान पंच प्राण धारिणी है। इन पंच प्राणों के पंच वर्ण हैं। एक मोती जैसा, दूसरा विद्रुम मणि जैसा तीसरा सुवर्ण जैसा, चौथा नीलमणि जैसा और पॉंचवा धवल अर्थात् गौरवपूर्ण का है। इसके तीन आँखें हैं अर्थात् (अ, उ, म् :: ऊॅं) प्रणव के वर्ण-त्रय के अनुसार वेद त्रय अर्थात् रस वेद, विज्ञान वेद और छन्दो वेद सम्बद्ध, ऋक, यजु: और साम वेदात्मक तीन नयन अर्थात् ज्ञानवाली या त्रिविद्यावाली है। इसी को दूसरे प्रकार से श्रुति कहती है कि ये नाद, बिन्दु और कला के द्योतक है। इसके मुकुट पर, जो रत्न–मंडित है, वह चन्द्र है अर्थात् ज्योतिर्मयी आद्युक्ति अमृत वर्शिणी है, ऐसा बोध है। तत्व वर्णात्मिका है अर्थात् चौबीस अक्षर वाली गायत्री चतुविशंति तत्वों की बनी हुई पूर्ण अर्थात् सत् चिद् ब्रा स्वरुपिणी है। यहॉ गायत्री में तीन अक्षर हैं :– ग+य+त्र। ग से ‘गति‘ ‘य‘ तथा ‘त्र‘ से ‘यात्री‘ अर्थात् यात्री की गति हो, वह ‘गायत्री‘ है। ‘ग‘ से गंगा, ‘य‘ से यमुना और ‘त्र‘ से त्रिवेणी। ये तीनों हिन्दु के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। दसों भुजायें कर्मेन्द्रियों और विषयों की द्योतक है। दक्षिण पाँचों भुजाएँ, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ की द्योतक है तथा बॉंई :– पाँचों भुजाएँ वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग और आनन्द विशयक रुप है। ये दसों आयुध इनके कर्म करण रुप हैं। ऐसी ही रुप–कल्पना परा प्राण शक्ति या परमात्मा की भी है और अपरा, चन्चला, माध्यमा, प्राणशक्ति या जीवात्मा की भी है।
श्रुति भी कहती है कि "गायत्री वा इदं सर्वम्" गायत्री ही सब कुछ है। व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से गायत्री वह है जो इसके साधक को सभी प्रकार की मलिनता तथा पापों से बचाये एवं संरक्षण करे। कहा गया हे कि गायन्तं त्रायते इति गायत्री। गायत्री मन्त्र भी है और प्रार्थना है जिसमें उपासक केवल अपने लिये ही नहीं, सभी के लिये ज्ञान की ज्योति पाने हेतु प्रार्थना करता है।
देवियों में स्थान ::
गयत्र्येव परो विश्णुगायित्र्व पर: षिव:।
गायत्र्येव परो ब्राा, गायत्र्येव त्रयी तत:॥[स्कन्दपुराण]
गायत्री ही परमात्मा विष्णु है, गायत्री ही परमात्मा शिव है और गायत्री ही परमात्मा परम् ब्रह्म है। अत: गायत्री से ही तीनों वेदों की उत्पत्ति हुई है। भगवती गायत्री को सावित्री, ब्रागायत्री, वेदमाता, देवमाता आदि के नाम से मनुष्य ही नही अपितु देव गण भी सम्बोधित करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि गायत्री वेदों की माता है और गायत्री से ही चारों वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह सब ब्रह्माण्ड गायत्री ही है। वेद, उपनिषद्, वेदों की शाखाएं, ब्रामण ग्रन्थ, पुराण और धर्मशास्त्र ये सभी गायत्री के कारण पवित्र माने जाते हैं। अनेक शास्त्र, पुराणादि के कीर्तन करने पर भी ये सभी शास्त्र गायत्री के द्वारा ही पावन होते हैं। गायत्री मन्त्र के जप में भगवत् तत्व को प्रकट करने की रहस्यमयी क्षमता है। मन्त्र के जप से हृदय की ग्रंथियों का भेदन होता है, सम्पूर्ण दु:ख छिन्न–भिन्न हो जाते हैं और सभी अवशिष्ट कर्मबन्धन विनिष्ट हो जाते हैं।
TRI PAD GAYATRI :: Trinity, being the Primordial Divine Energy, is the source of three cosmic qualities Sat, Raj and Tam representing spirituality by the deities “Saraswati” or “Hreem”. “Lakshmi” or “Shreem” and “Kali” or “Durga” as “Kleem”. Incorporation of “Hreem” in the soul augments positive traits like wisdom, intelligence, discrimination between right and wrong, love, self discipline and humility. Yogis, spiritual masters, philosophers, devotees and compassionate saints derive their strength from Saraswati.
बलवान :: अन्न और जल। भूख और प्यास में इतनी शक्ति है कि बड़े से बड़े बलवान को भी झुका दें।[माता सरस्वती कालिदास संवाद]
बटोही :: चंद्रमा और सूर्य, जो बिना थके चलते रहते हैं।[माता सरस्वती कालिदास संवाद]
मेहमान :: धन और यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता।[माता सरस्वती कालिदास संवाद]
सहनशील :: (1). धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भण्डार देती है। (2). पेड़ को पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देता है।[माता सरस्वती कालिदास संवाद]
हठी :: नख और केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं।[माता सरस्वती कालिदास संवाद]
मूर्ख :: राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है और दूसरा दरबारी पण्डित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।[माता सरस्वती कालिदास संवाद]
ढाई अक्षर 21/2 alphabets :: ढ़ाई अक्षर प्रेम पढ़े पण्डित होए।
ढाई अक्षर का वक्र और ढाई अक्षर का तुण्ड।
ढाई अक्षर की रिद्धि और ढाई अक्षर की सिद्धि।
ढाई अक्षर का शंभु और ढाई अक्षर की सत्ति।
ढाई अक्षर का ब्रम्हा और ढाई अक्षर की सृष्टि।
ढाई अक्षर का विष्णुऔर ढाई अक्षर की लक्ष्मी।
ढाई अक्षर का कृष्ण और ढाई अक्षर की कान्ता-राधा रानी।
ढाई अक्षर की दुर्गा और ढाई अक्षर की शक्ति।
ढाई अक्षर की श्रद्धा और ढाई अक्षर की भक्ति।
ढाई अक्षर का त्याग और ढाई अक्षर का ध्यान।
ढाई अक्षर की तृप्ति और ढाई अक्षर की तृष्णा।
ढाई अक्षर का धर्म और ढाई अक्षर का कर्म।
ढाई अक्षर का भाग्य और ढाई अक्षर की व्यथा।
ढाई अक्षर का ग्रन्थ और ढाई अक्षर का संत।
ढाई अक्षर का शब्द और ढाई अक्षर का अर्थ।
ढाई अक्षर का सत्य और ढाई अक्षर का मिथ्या।
ढाई अक्षर की श्रुति और ढाई अक्षर की ध्वनि।
ढाई अक्षर की अग्नि और ढाई अक्षर का कुँड।
ढाई अक्षर का मंत्र और ढाई अक्षर का यंत्र।
ढाई अक्षर की साँस और ढाई अक्षर के प्राण।
ढाई अक्षर का जन्म और ढाई अक्षर की मृत्यु।
ढाई अक्षर की अस्थि और ढाई अक्षर की अर्थी।
ढाई अक्षर का प्यार और ढाई अक्षर का स्वार्थ।
ढाई अक्षर का मित्र और ढाई अक्षर का शत्रु।
ढाई अक्षर का प्रेम और ढाई अक्षर की घृणा।
जन्म से लेकर मृत्यु तक हम बंधे हैं ढाई अक्षर में।
हैं ढाई अक्षर ही वक़्त में और ढाई अक्षर ही अन्त में।
SIGNIFICANCE OF 3 का महत्त्व :: भेद के ये तीन प्रकार :: स्नेह और अनुराग को दूर कर देना, परस्पर संघर्ष (कलह) पैदा करना तथा धमकी देना, भेदज्ञ पुरुषों ने भेद के ये तीन प्रकार बताये हैं।[राम नीति]
दण्ड के तीन भेद :- वध, धन का अपहरण और बन्धन एवं ताड़न आदि के द्वारा क्लेश पहुँचाना :- ये दण्ड के तीन भेद हैं।[राम नीति]
राजदूत दूत के तीन भेद :: सभा में निर्भीक बोलने वाला, स्मरण शक्ति से सम्पन्न, प्रवचन कुशल, शस्त्र और शास्त्र में परिनिष्ठित तथा दूतोचित कर्म के अभ्यास से सम्पन्न पुरुष राजदूत होने के योग्य होता है। निसृष्टार्थ (जिस पर संधि-विग्रह आदि कार्य को इच्छानुसार करने का पूरा भार सौंपा गया हो, वह), मितार्थ (जिसे परिमित कार्य भार दिया गया हो, यथा इतना ही करना या इतना ही बोलना चाहिये), तथा शासन हारक (लिखित आदेश को पहुँचाने वाला), ये दूत के तीन भेद कहे गये हैं।[राम नीति]
मित्र संग्रह के तीन प्रकार :- मित्र के आने पर दूर से ही अगवानी में जाना, स्पष्ट एवं प्रिय वचन बोलना तथा सत्कारपूर्वक मनोवाञ्छित वस्तु देना, ये मित्र संग्रह के तीन प्रकार हैं।[राम नीति]
मित्र संग्रह के तीन फल :- धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति, ये मित्र से मिलने वाले तीन प्रकार के फल हैं।[राम नीति]
राजा द्वारा परीक्षा हेतु 3 गुण :: कुलीनता, जन्मस्थान तथा अवग्रह (उसे नियन्त्रित रखने वाले बन्धु जन), इन तीन बातों की जानकारी उसके आत्मीयजनों के द्वारा प्राप्त करे। (यहाँ भी आगम या परोक्ष प्रमाण का ही आश्रय लिया गया है।) परिकर्म (दुर्गादि-निर्माण) में दक्षता (आलस्य न करना) विज्ञान (बुद्धि से अपूर्व बात को जान कर बताना) और धारयिष्णुता (कौन सा कार्य हुआ और कौन सा कर्म शेष रहा; इत्यादि बातों को सदा स्मरण रखना), इन तीन गुणों की भी परीक्षा करे।[राम नीति]
पुरोहितों का ज्ञान :: पुरोहित को तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) तथा दण्ड नीति के ज्ञान में भी कुशल होना चाहिये; वह सदा अथर्व वेदोक्त विधि से राजा के लिये शान्ति कर्म एवं पुष्टि कर्म का सम्पादन करें।
कौटिल्य ने इसका अनुमोदन किया है :-
पुरोहितम् उदितोदितकुलशील साङ्गवेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां दैवमानुषीणाम् आथर्वभिरुपायैः प्रतिकतर प्रकुर्वीत।
बुद्धिमान् राजा तत्तद् विद्या के विद्वानों द्वारा उन अमात्यों के शास्त्र ज्ञान तथा शिल्पकर्म; इन दो गुणों की परीक्षा करे। यह परोक्ष या आगम प्रमाण द्वारा परीक्षण है।[राम नीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र 19.50]
राजाओं के लिये तीन प्रमाण :- प्रत्यक्ष परोक्ष और अनुमान।
कौटिल्य का कथन :-
प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः।
इनमें स्वयं देखा हुआ प्रत्यक्ष, दूसरों के द्वारा कथित परोक्ष तथा किये गये कर्म से अकृत कर्म का अवेक्षण अनुमान है।[राम नीति]
बुढ़ापे में दुःख :-
वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं तिस्र: पुंसां विडम्बना॥8.9॥
बुढ़ापे में पत्नी का मर जाना, भाई-बन्धुओं द्वारा धन का हड़प लेना तथा भोजन के लिए दूसरे के अधीन रहना, ये तीनों बातें पुरुषों के लिए अत्यंत दुःखदायक होती हैं।
Death of wife in old age, snatching (taking away, controlling one's wealth) by relatives-others, dependence for food over others are extremely painful for a man.
Woman is the true friend-associate in old age, since she takes care of food, health, wealth of a man. She is the only one in whom one can confide. After her death, he has to depend over others for food-well being. Son or daughter in law may not take care of the old man. They target his property-wealth and just wait for him to die, so that it is transferred to them quickly. Old parents are just killed to take control of their wealth. This may a reason why they neglect the person, who took their care and did every thing for them even without being asked. The current generation is behaving rather like rouges and do not skip a chance to traumatise the old parents. Its therefore, essential for a human being to make proper arrangements for his old age so that either he or his wife has not depend over others.
Please refer to :: TRAUMATISING-HUMILIATING PARENTS माँ बाप की दुर्गति करनbhartiyshiksha.blogspot.comदुःख के तीन प्रकार :: आधि, व्याधि एवं उपाधि।
आधि :- मानसिक कष्ट,
व्याधि :- शारीरिक कष्ट एवं
उपाधि :- प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख।
दुःख के कारण :- कामना-वासना, अतृप्त इच्छाएँ, अधिक की चाहत।
गधे से ये तीन बातें सीखें :-
सुश्रान्तोSपि व्हेद् भारं शीतोष्णं च न पश्यति।
संतुष्टश्चरति नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्॥
गधे से ये तीन बातें सीखें :- अपना बोझ स्वयं ढोना, सर्दी गर्मी की चिंता नहीं करना और सदा संतुष्ट रहना।[चाणक्य नीति 6.18] An intelligent, prudent, enlightened person can learn these 3 things (traits, characters) from the ass :- (1). It keeps on carrying weight in spite of tiredness, (2). It works through all seasons without worrying about cold or heat and (3). He remain satisfied by grazing any where.
No doubt one gets tired after longer hours of duties-work and feels sleepy. He may commit blunders during this span of responsibilities. Though its not easy, yet its not difficult as well. Practices helps a lot during such situations. One has to tolerate strain for achieving his targets, he must do so.
So, always fatigue-over burden.
One will find people working against all odds pertaining to season (climates, weather). Its up to one, how he trains his body. One will find people working in Sahara desert, Tundra, Siberia or the places, where temperatures touch minus 67 degrees centigrade. See the people who are at work at the 100th story of a mega structure. Nothing is difficult-impossible for the human beings once decision is taken. Determination will definitely bless with success.
I found Indians working late night till 2 o'clock in USA. Indian company was exploiting its workers in 2,009.
As far food is concerned one can work with the help of little food or the one which is easily available. Over eating is always dangerous.
Remember vegetarian food-diet is the best.
भक्ति की पात्रता :: उन लोगों में ही होती है, जो सांसारिक मामलों से न तो एकदम विरक्त होते हैं और न ही एकदम अनुरक्त और भगवान् की जो पूजा और नाम संकीर्तन में विश्वास रखते हैं। ऐसे लोग तीन कोटियों में रखे जा सकते हैं :- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। उत्तम कोटि में वे आते हैं, जो वेद शास्त्र ज्ञाता होने के साथ साथ पूर्ण आत्मा और दृढ़ संकल्प से भगवान् की भक्ति में रत होते हैं। मध्यम कोटि के भक्त वे हैं, जो वेद शास्त्र वेत्ता न होते हुए भी भगवत भक्ति में दृढ़ आस्था रखते हैं। निकृष्ट कोटि के भक्तों में उन लोगों की गिनती होती है, जिनकी आस्था और संकल्प दृढ़ नहीं रहते।[चैतन्य महाप्रभु]
भक्ति मार्ग की तीन अवस्थाएं :: साधन, भाव और प्रेम। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। यही भक्ति की चरम अवस्था है और इस सोपान पर पहुँचने के बाद ही जीव मुक्ति का पात्र बनता है।
साधन भक्ति के दो भेद :- वैधी और रागानुगा। शास्त्रीय विधियों द्वारा प्रवर्तित भक्ति वैधी और भक्त के हृदय में स्वाभाविक रूप से जागृत भक्ति रागानुगा कहलाती है।[चैतन्य महाप्रभु]
ब्रह्म की तीन शक्तियाँ :- परा, अपरा और अविद्या। परा शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का निमित्त कारण है तथा अपरा और अविद्या-माया, शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का उपादान कारण माना जाता है।[चैतन्य महाप्रभु]
अभिव्यक्ति की दृष्टि से ब्रह्म की शक्ति के तीन रूप :- सेवित्, संघिनी और ह्लादिनी।[चैतन्य महाप्रभु]
3 अन्तःकरण :: मन, बुद्धि, अहँकार। मन :- इच्छा, बुद्धि :- सोच-विचार, सोचना-समझना, निश्चय करना, सही गलत की पहचान, विवेक, याददाश्त आदि, अहँकार :- मैं पन, घमण्ड, अभिमान। चेष्टा, प्रयास, कोशिश।
शरीरिक तप के 3 लक्षण :- शौच, आर्जव (1). ऋजु होने की अवस्था, गुण या भाव।ऋजुता, सीधापन, भोलापन, (2). सरलता, सुगमता, (3). व्यवहार आदि की सरलता या साधुता (no attachment, simple-honest behaviour-dealings) और अहिंसा।
दण्ड के तीन भेद :: वध, धन का अपहरण और बन्धन एवं ताड़न आदि के द्वारा क्लेश पहुँचाना।[राम नीति]
भेद के ये तीन प्रकार :: स्नेह और अनुराग को दूर कर देना, परस्पर संघर्ष (कलह) पैदा करना तथा धमकी देना, भेदज्ञ पुरुषों ने भेद के ये तीन प्रकार बताये हैं।
मित्र से मिलने वाले तीन प्रकार के फल :: धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति।
मित्र संग्रह के तीन प्रकार :: मित्र के आने पर दूर से ही अगवानी में जाना, स्पष्ट एवं प्रिय वचन बोलना तथा सत्कारपूर्वक मनोवाञ्छित वस्तु देना।
यज्ञ के तीन विभाग :: हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ। तीनों के सात-सात प्रकार हैं। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं।
त्रिपुरा :: तीन पुरों की अधीश्वरी। त्रिविध मार्ग होने से पुरियाँ भी तीन हैं।
तीन पुरियों में जाने के मार्ग :: सायुज्य, सारुप्य और सामीप्य मोक्ष।
त्रिमूर्ति :: (1). ब्रह्मा, (2). विष्णु और (3). महेश्वर। (जो सृष्टि से पूर्व जो विधमान थीं।)
त्रिकुट चूर्ण :: सौंठ, पीपल, काली मिर्च। सौंठ (सुन्ठी-सूखी अदरख), काली मिर्च और छोटी पीपल। इन तीनों को बराबर बराबर मात्रा में लेकर कूट पीसकर अथवा मिक्सी में डालकर महीन चूर्ण बना लें।
त्रिफला :: हरड़, बहेड़ा, आंवला। 1 मात्रा हरड़ +2 मात्रा बहेड़ा +3 मात्रा आँवला दो तोला हरड़।
वेद त्रयी :: (1). ऋग, (2). यजु और (3). साम वेद से पूर्व विद्यमान थीं।
त्रि-लोक Three Abodes :: (1). स्वर्ग, (2). पृथ्वी और (3). पाताल के लय होने पर भी पुन: उनको ज्यों का त्यों बना देने वाली भगवती का नाम त्रिपुरा है; earth, heaven & nether world.
तीन देवता :: (1). ब्रह्मा, (2). विष्णु और (3). महेश। देवता का अर्थ भी गुरु भी है।
तीन गुरु :: (1). गुरु, (2).परम गुरु और (3). परमेष्ठी गुरु।
तीन अग्नि-ज्योति :: (1). गाहर्पत्य, (2). दक्षिनाग्नि और (3). आहवनीय। (अग्नि का अर्थ ज्योति भी है।)
तीन ज्योतियाँ :: (1). ह्रदय ज्योति, (2). ललाट ज्योति और (3). शिरो-ज्योति।
तीन शक्ति :: (1). इच्छा शक्ति, (2). ज्ञान शक्ति और (3). क्रिया शक्ति।
शक्ति-तीन देवियाँ :: (1). ब्रह्माणी, (2). वैष्णवी और (3). रुद्राणी।
तीन स्वर :: (1). उदात्त, (2). अनुदात्त और (3). त्वरित अर्थात (1). अ-कार, (2). उ-कार और (3). बिन्दु।
तीन लोक :: (1). स्वर्ग, (2). मृत्यु और (3). पाताल। लोक शब्द से देहस्थ चक्र का अर्थ भी लिया जाता है।
तीन चक्र :: (1). आज्ञा, (2). शीर्ष और (3). ब्रह्म ज्ञान।
त्रि-पदी (तीन स्थान) :: (1). जालन्धर पीठ, (2). काम रूप पीठ और (3). उड्डियान-पीठ। पद शब्द से नाद शब्द का भी बोध होता है।
तीन नाद :: (1). गगनानंद, (2). परमानन्द और (3). कमलानन्द।
त्रिपदी से तीन पदों वाली गायत्री भी ली जाती है।
त्रि-पुष्कर (तीन तीर्थ) :: (1). शिर, (2). ह्रदय, (3). नाभि अथवा (1). ज्येष्ठ पुष्कर, (2). मध्यम पुष्कर, (3). कनिष्ठ पुष्कर।
त्रि-ब्रह्म (तीन ब्रह्म) :: (1). इड़ा, (2). पिंगला, (3). सुषुम्ना अर्थात (1). अतीत, (2). अनागत, (3). वर्तमान जैसे (1). ह्रदय, (2). व्योम, (3). ब्रह्म-रंध्र।
त्रयी वर्ण (तीन वर्ण) :: (1). ब्राह्मण, (2). क्षत्रिय, (3). वैश्य अथवा वर्ण शब्द से बीजाक्षरों का ग्रहण होता है :- (1). वाग बीज, (2). काम बीज और (3). शक्ति-बीज।
प्राणायाम क्रियाएँ :: प्राणायाम दौरान श्वास-निश्वास सम्बन्धी तीन क्रियाएं :- (1). पूरक, (2). कुम्भक और (3). रेचक।
उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अन्दर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।
आयु भेद :: शरीर, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं। काल प्रमाण के अनुसार दीर्घायु, मध्यायु और अल्पायु, ये तीन भेद होते हैं।
तपस्या के तीन प्रकार :: शरीर तप, वा्मय तप और मानस तप।
त्रिदेव :- भगवान् ब्रह्मा, भगवान् विष्णु और भगवान् महेश (शिव)।
त्रिदेवियाँ :- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती।
त्रेय ऋषि :: अंगिरा, वृहस्पति और भारद्वाज। Angira, Brahaspati and Bhardwaj.
त्रिलोक :- स्वर्ग, पृथ्वी व नर्क।
तीन लोक :- पृथ्वी, आकाश, पाताल।
त्रिवेणी :- माँ गँगा, माँ यमुना और माँ सरस्वती।
त्रिकाल :- भूत, भविष्य और वर्तमान।
त्रिगुण :- सत्व, ऱज और तम। सात्विक, राजसिक, तामसिक।
त्रिदोष :- पित्त, कफ़ और वात।
तीन ऋण :: देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण।
तीन प्रधान नाड़ियाँ :: इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना।
तीन प्रकार के मार्ग :: (1). स्थल-भूमि, (2). जल, समुद्र व नदी, (3). आकाश।
THREE KINDS OF FIRE तीन प्रकार की अग्नि :: दावानल (jungle fire), बड़वानल fire in the ocean) और जठराग्नि (fire in the stomach)। बड़वानल-जल में उपस्थित अग्नि; fire present in water.
कर्म संग्रह के 3 कारण :: करण, कर्म और कर्ता। (कर्ता :: कर्म करने वाला, कर्ता। करण :: जिन साधनों से कर्म किया जाए, करण। क्रिया :: करना।)
तीन प्रकार के ऋण ::
जायमानो वै ब्राह्मणास्त्रिभिर्ऋर्णऋर्णवान् जायते।
ब्रह्मचयेर्ण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजयापितृभ्यः॥
द्विज, जन्मते ही ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण, इन तीन प्रकार के ऋणों से ऋणी बन जाता है। ब्रह्मचर्य के द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञ द्वारा देवऋण से और सन्तति को सुयोग्य बनाने से पितृऋण से मुक्ति मिलती है।[तैत्तिरीय संहिता 3.10.5]
(1). देव ऋण :: पालनहार भगवान् विष्णु से जुड़ा है, देव ऋण। इस ऋण से मुक्ति हेतु जातक को धर्म, सदाचार का पालन करते हुए दान और यज्ञ करना चाहिये।अपनी सामर्थ्य का न्यूनतम भाग उपभोग करना और अधिकतम भाग लोकहित के लिए लगा देना ही यज्ञ भावना है।
जातक को चाहिये कि अपनी सामर्थ्य के अनुकूल धन, ज्ञान, समय, श्रम, सलाह, सद्भाव, शिक्षा, सहयोग आदि दूसरों को देता रहे। रोज़ सुबह और शाम भगवान् विष्णु, भगवान् कृष्ण या हनुमान जी महाराज का पूजन मंत्र, चालीसा, पाठ एवं स्तोत्र के माध्यम से करे। रोज़ माथे पर चंदन का तिलक लगाकर घर से निकले। सात्विक भोजन करे और यथाशक्ति सुपात्र को दान दे।
(2). ऋषि ऋण :: भगवान् शिव और ज्ञान से जुड़ा है, ऋषि ऋण। ब्रह्मचर्य के पालन से ऋषि ऋण से छुटकारा मिलता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है किसी भी प्रकार का सम्भोग न करना। जातक को सभी इन्द्रियों का संयम करना और आस्तिकता को अपनाना है। इस ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति को विद्याध्ययन, वेद, उपनिषद्, शास्त्र और गीता का अध्ययन करना चाहिये। बुरे व्यसनों से दूर रहें। अपने मन और शरीर को स्वच्छ रखें। माथे पर घी या चंदन का तिलक लगाएँ।
(3). पितृ ऋण :: इसका सम्बन्ध जातक के पूर्वजों से है। पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध करने से इस ऋण से मुक्ति मिल जाती है। रोज़ हनुमान चालीसा का पाठ करें। घर के वास्तु दोष को ठीक करें। तीन गुण :: इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात चेतना और घृति ये सात विकार तथा सत्त्व, रज और तम ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता]
तीन मल :: (1). पुरीष, (2). मूत्र और (3). स्वेद।
तीन देव :: ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ :: महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक :: पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन अवस्थाएँ :: द्रव्य की अवस्थाएँ ठोस, द्रव, गैस।
तीन स्तर :: प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव :: जीवन के तीन पड़ाव-बचपन, जवानी, बुढ़ापा
तीन रचनाएँ :: देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था :: जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल :: भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन संध्या :: प्रात:, मध्याह्न, सायं।
सयन :: दिन के तीन भाग :- सुबह, दोपहर शाम।
तीन नाड़ी :: इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन शक्ति :: इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति।
त्रिविधि बंधन TRIPLE BOND :: (1). ब्रह्म ग्रन्थि, (2). विष्णु ग्रन्थि और (3). रुद्रग्रन्थि।
तीन योनियाँ :- सुर, असुर और मनुष्य।
तीन शरीर :: स्थूल-भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर।
तीन व्याह्रतियाँ :: सृष्टि से पूर्व ब्रह्मा जी ने स्वयं ज्ञान देह से "भू: र्भुवः स्वः" कहा-इसलिए यह ब्रह्म स्वरूप है। इसी कारण 'ऊँ' के पश्चात् गायत्री मन्त्र के आदि में ही इन्हें लगाया जाता है।
(1). गायत्री मन्त्र में ऊँकार के पश्चात् :- भूः भुवः स्वः, यह तीन व्याह्रतियाँ आती हैं। व्याह्रतियों का यह त्रिक् अनेकों बातों की ओर संकेत करता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है। सत, रज, तम इन तीन गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है। भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है।
(2). अग्नि, वायु और सूर्य इन तीन प्रधान देवताओं का भी प्रतिनिधित्व यह तीन व्याह्रतियाँ करती हैं। तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है। एक ऊँ की तीन संतान हैं- भूः भुवः स्वः।
(3). व्याह्रतियों में से तीनों वेदों का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार के अनेकों संकेत व्याह्रतियों के इस त्रिक् में भरे हुये हैं । उन संकेतों का सार हमें सत्य, प्रेम और न्याय ही प्रतीत होता है।
(4). भूः विष्णु भगवान हैं तथा भुवः लक्ष्मी जी हैं, उन दोनों का दास स्वः रूपी जीव है।
(5). वेदों का सार उपनिषद है। उपनिषदों का सार गायत्री, गायत्री का सार "भूर्भुवः स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ हैं।
(6). त्रिदेव रूपी परब्रह्म की शक्तियों का मनुष्य को ध्यान रखना चाहिए। उनके द्वारा पदार्थों को एक रूप में नहीं रहने दिया जाता। समस्त विश्व की सभी चीजें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। "चरम परिवर्तन का नाम मृत्यु" है।
(7). पदार्थों का परिवर्तन एवं नाश होना स्वाभाविक है, इसीलिए उनसे मोह नहीं करना चाहिए, केवल उनके सदुपयोग का ध्यान रखना चाहिए।
(8). सत, रज और तम इन तीनों गुणों से संसार बना है। इन तीनों स्वभावों के प्राणी और पदार्थ इस विश्व में रहते हैं। मनुष्यों के लिये उनमें से अनेक उपयोगी और लाभदायक हैं और अनेकानेक हानिकारक अनुपयोगी हैं। मनुष्य को क्रमशः नीचे से ऊपर की ओर चलना चाहिए। अनुपयोगिता से बचते हुए उपयोगिता को अपनाना है। तम से रज की ओर और रज से सत की ओर कदम बढ़ाना है।
(9). अग्नि, वायु और जल की उपासना का अर्थ है, तेजस्विता, गतिशीलता और शान्तिप्रियता का मन में स्थापित होना। इस त्रिविध सम्पत्ति को अन्दर धारण करके, जीवन को सर्वांगीण सुःख-शान्तिमय बनाया जा सकता है।
(10). ईश्वर, जीव,प्रकृति के गुन्थन की गुत्थी को तीन व्याह्रतियाँ ही सुलझाती हैं। भूः :- धरती, भुवः :- स्वर्ग एवं स्वः :- पाताल यद्यपि तीन लोक विशेष भी हैं; परन्तु अन्तःकरण, शरीर और संसार यह तीन क्षेत्र भी सूक्ष्म लोक हैं, जिनमें स्वर्ग एवं नरक की रचना मनुष्य अपने आप करता है। सत, रज, तम इन तीनों का ठीक प्रकार उपयोग हो तो यह बन्धन न रहकर मुक्ति के सहायक एवं आनन्द के उपकरण बन जाते हैं।
गन्धत्रय :- सिन्दूर, हल्दी, कुंकुम।
त्रिधातु :- सोना, चाँदी, लोहा। कुछ आचार्य सोना, चांदी और तांबे के मिश्रण को भी त्रिधातु कहते हैं।
3 प्रकार के शारीरिक दुष्कर्म ::
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्॥[मनुस्मृति 12.7]
किसी की (न दी हुई) वस्तु को बल पूर्वक ले लेना-छीन लेना, बिना विधान के हिंसा करना और पर स्त्री का सेवन; ये तीनों शारीरिक दुष्कर्म हैं।
Snatching others belongings by force, undue-unnecessary violence and raping other's women-wife are physical crimes-sins.
These three kinds of wicked actions are performed through the body.
त्रिदण्डी ::
वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव च।
यस्यैते निहिता बुद्धौ त्रिदण्डीति स उच्यते॥[मनुस्मृति 12.10]
वाग्दण्ड, मनोदण्ड और देहदण्ड ये जिसके बुद्धि में स्थित हैं, उसको त्रिदण्डी कहते हैं अर्थात जो बुद्धि, मन, वचन और शरीर से दुष्कर्मों से अलग रहता है।
One who controls his tongue-speech, thoughts-Man and the body is called Tridandi. He do not indulge in sins pertaining to speech-words, intelligence-prudence and the body.
FIRE अग्नि तीन प्रकार की अग्नि :: गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
तीन प्रकार के प्रमुख श्राद्ध :: नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध।[मत्स्य पुराण]
पतिव्रत के तीन कारण :: (1). पर पुरुष से विरक्ति, (2). पति प्रीति व (3). अपनी रक्षा की सामर्थ। तीन प्रकार के दुःख :- आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि :- मानसिक कष्ट, व्याधि :- शारीरिक कष्ट एवं उपाधि :- प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख।
3 reasons for a woman to be devoted to her husband ::
(1). Detachment, distaste for the other person,
(2). Love and affection for the husband and
(3). Capability, capacity, strength, power to protect herself.
SIGNIFICANCE OF 4 का महत्त्व ::
वृद्धों की सेवा से चार की वृद्धि :-
अभिवादलशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि सम्प्रवर्धन्ते कीर्तिरायुर्यशो बलम्॥
गुरुजनों का सम्मान करने के स्वभाव वाले तथा सदा अनुभवी वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य का सम्मान, आयु, यश तथा बल ये चारों बढ़ते हैं।[विदुर नीति 114]
The respect-honour, age, name & fame and might of one, who serve and respect his elders-Guru and experienced-mature person, keep on increasing.
गुप्त परामर्श के अयोग्य 4 व्यक्ति :-
चत्वारि राज्ञा तु महाबलेना वर्ज्यान्याहु: पण्डितस्तानि विद्यात्।
अल्पप्रज्ञै: सह मन्त्रं न कुर्यात दीर्घसुत्रै रभसैश्चारणैश्च॥
अल्प बुद्धि वाले, देरी से कार्य करने वाले, जल्दबाजी करने वाले और चाटुकार लोगों के साथ गुप्त विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए। राजा को ऐसे लोगों को पहचान कर उनका परित्याग कर देना चाहिए।[विदुर नीति 49]
The king should never consult the ignorant, idiots, those who are in a hurry and the smoothie, spaniel. He should recognise and remove-expel them.
सज्जन पुरुष GENTLEMAN ::
यज्ञो दानमध्ययनं तपश्च चत्वार्येतान्यन्वेतानि सणि।
दमः सत्यमार्जवमानृशंस्यं चत्वार्येतान्यनुयान्ति सन्तः॥
यज्ञ, दान, अध्ययन तथा तपश्चर्या, ये चार गुण सज्जनों में पाये जाते हैं।इन्द्रिय दमन, सत्य, सरलता तथा कोमलता; इन चार गुणों का सज्जन पुरुष पालन करते हैं।[VIDUR POLICY विदुर नीति]
Yagy, charity, study and penance, these four qualities are found in gentlemen. Repression of passions (sexuality, sensuality), truth, simplicity and politeness are the four characters-qualities are followed by gentlemen.
भेद के 4 उपाय :- (1). समान तृष्णा का अनुसन्धान (उभय पक्ष को समान रूप से लाभ होने की आशा का प्रदर्शन), (2). अत्यन्त उग्र भय (मृत्यु आदि की विभीषिका) दिखाना तथा (3). उच्च कोटि का दान और (4). मान, ये भेद के उपाय कहे गये हैं।रामनीति]
उभय पक्ष की चतुर्विध स्तुति :- वह उभय पक्षों के कुल की (यथा, "आप उदितोदित कुल के रत्न हैं" आदि), नाम की (यथा *"आपका नाम दिग्दिगन्त में विख्यात है" इत्यादि), द्रव्य की (यथा, "आपका द्रव्य परोपकार में लगता है" इत्यादि) तथा श्रेष्ठ कर्म की (यथा, "आपके सत्कर्म की श्रेष्ठ लोग भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं" आदि कहकर) बड़ाई करे। इस तरह चतुर्विध स्तुति करनी चाहिये। तपस्वी के वेष में रहने वाले अपने चरों के साथ संवाद करे अर्थात् उनसे बात करके यथार्थ स्थिति को जानने की चेष्टा करे।[रामनीति]
चार प्रकार के मित्र :- औरस (माता-पिता के सम्बन्ध से युक्त), मित्रता के सम्बन्ध से बँधा हुआ, कुल क्रमागत तथा संकट से बचाया हुआ।[रामनीति]
मित्र के चार गुण :- सत्यता (झूंठ न बोलना), अनुराग और दुःख-सुख में समान रूप से भाग लेना ये मित्र के चार गुण हैं।[रामनीति]
वार्तालाप सम्बन्धी 4 गुण :: प्रगल्भता (सभा आदि में निर्भीकता), प्रतिभा (प्रत्युत्पन्नमतिता), वाग्मिता (प्रवचन कौशल) तथा सत्य वादिता; इन चार गुणों को बातचीत के प्रसङ्गों में स्वयं अपने अनुभव से जाने।[रामनीति]
चारों वर्णों तथा आश्रमों के सामान्य धर्म :: किसी भी प्राणी को हिंसा न करना-कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्य भाषण करना, बाहर और भीतर से पवित्र रहना एवं शौचाचार का पालन करना, दीनों के प्रति दया भाव रखना तथा क्षमा (निन्दा आदि को सह लेना), ये चारों वर्णों तथा आश्रमों के सामान्य धर्म कहे गये हैं।[राम नीति]
राजनीति की चार विधायें :: राजा को चाहिये कि वह विनय गुण से सम्पन्न आन्वीक्षिकी (आत्म विद्या एवं तर्क विद्या) वेदत्रयी, वार्ता (कृषि, वाणिज्य और पशुपालन) तथा दण्ड नीति- इन चार विद्याओं का उनके विद्वान तथा उन विद्याओं के अनुसार अनुष्ठान करने वाले कर्मठ पुरुषों के साथ बैठकर चिन्तन करे (जिस लोक में इनका सम्यक् प्रचार और प्रसार हो)।
आन्वीक्षिकी से आत्मज्ञान एवं वस्तु के यथार्थ स्वभाव का बोध होता है। धर्म और अधर्म का ज्ञान वेदत्रयी पर अवलम्बित है, अर्थ और अनर्थ वार्ता के सम्यक उपयोग पर निर्भर हैं तथा न्याय और अन्याय दण्ड नीति के समुचित प्रयोग और अप्रयोग पर आधारित हैं।[राम नीति]
उत्साह के सूचक चार गुण :: दक्षता (आलस्य का अभाव), शीघ्रकारिता, अमर्ष (अपमान को न सह सकना) तथा शौर्य।
यहाँ धारण शीलता बुद्धि से और दक्षता उत्साह से सम्बन्ध रखने वाले गुण हैं; अत: इनका अन्तर्भाव हो सकता है तथापि इनका पृथक् उपादान हुआ है, वह इन गुणों की प्रधानता सूचित करने के लिये है।
यहाँ धारण शीलता बुद्धि से और दक्षता उत्साह से सम्बन्ध रखने वाले गुण हैं; अत: इनका अन्तर्भाव हो सकता है तथापि इनका पृथक् उपादान हुआ है, वह इन गुणों की प्रधानता सूचित करने के लिये है।[भगवान् श्री राम]
राजा का 4 प्रकार व्यवहार :- लक्ष्मण न्याय (धान्य का भाग लेने आदि) के द्वारा धन का अर्जन करना, अर्जित किये हुए धन को व्यापार आदि द्वारा बढ़ाना, उसकी स्वजनों और परजनों से रक्षा करना तथा उसका सत्पात्र में नियोजन करना (यज्ञादि में तथा प्रजा पालन में लगाना एवं गुणवान् पुत्र को सौंपना), ये राजा के चार प्रकार के व्यवहार बताये गये हैं।[भगवान् श्री राम]
चार गुण ::
अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥
अभिवादनशील-विनम्र और प्रतिदिन अनुभवी-बुजुर्गों की सेवा करने वाले में चार गुणों का विकास होता है :- आयु, विद्या, यश और बल।
One who is polite and serves experienced mature-people regularly, gains four qualities :- Age, knowledge, fame and power.
4 गुण ::
स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके, चत्वारी चिह्नानि वसन्ति देहे।
दानप्रसंगो मधुरा च वाणी, देवाSर्चनम् ब्राह्मण तर्पणं च॥
स्वर्ग में स्थित देवताओं और पृथ्वी पर रहने वाले सात्विक व्यक्तियों में परोपकार, मीठे वचन बोलना, भगवान् की आराधना और ब्राह्मणों की सेवा-अर्चना का गुण एक समान होता है।[चाणक्य नीति 7.15]
One, who is reborn on earth after a stint-stay in heaven, is recognised through 4 major characteristics (1). tendency to donate-charity, (2). sweet, consoling talks-speech, (3). prayers-devotion to deities and (4). offering of gifts, food and clothing to Brahmans.
The reverse of it is also true i.e., any one who possesses these characters is entitled to heaven after death.
Almighty has expressed-explained the tendencies, properties, behaviour of those, who return to the earth after utilising their virtuous, righteous, pious deeds, having failed to acquire Salvation, Liberation, Assimilation in the Ultimate.मुर्गे से चार सीख :-
प्रत्युथानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारी कुक्कुटात्॥
सही समय पर उठना, निडरतापूर्वक संघर्ष, संपत्ति का रिश्तेदारों में उचित बँटवारा और कष्ट से अपना रोजगार में कष्ट सहन करना मुर्गे से सीखें।चाणक्य नीति 6.19]
An intelligent (prudent, enlightened) person can grasp-learn 4 things (traits, characters) from the cock :- (1). It gets up in the morning & crocks-shouts before Sun rise, (2). Its always eager-ready to fight with the other cocks, (3). It shares its food with the chickens, (4). To bear pain while serving.
Common phrase :- Early to bed early to rise makes man healthy wealthy and wise. In spite of all odds one must try to get up, before Sun rise. But remember that one should not crock like the cock or frog. Resort to exercise & morning rituals prayers etc. quietly.
There is competition in all walks of life. Its the need of the hour. Reservation may help but not in every, all fields of life. One should be vigilant enough to counter the attacks from the enemy side, opponents, competitors. In fact reservation is a curse like a cancer for the upper caste able, intelligent, capable youth. Even after three generation, these people are enjoying reservations.
What ever is earned should be shared with the family including elders, parents, grand parents unlike the present generation which throws out the parents, without understanding that they too will grow old and face the music.
While in job one has to face several odds, including senior's misbehaviour and mental torture-agony, harassment. Not only one has to protect himself but also keep the superiors happy through hard work and flattery-undue appreciation.
नौकरी के नौ काम दसवाँ हाँ जी। हम्बे-हम्बे कहना और उसी गाँव में रहना। Yes man ship.
कुछ लोगों के लिये इसका मतलब चमचागीरी, चापलूसी भी हो सकता है, मगर जमीर बेचकर रोजगार करना अच्छा नहीं है। अतः उचित अवसर-मौंका मिलते ही अच्छी नौकरी तलाश कर लेनी चाहिये अथवा धृष्ट अधिकारी को दुरुस्त कर देना चाहिये।
4 पुरुषार्थ ENDEAVOURS :: इच्छा desire, वैभव prosperity, पवित्रता righteousness, मोक्ष Moksh liberation).
चार दिव्य वृक्ष :- कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान; ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।
8 सदी में पावन मंदिर, जावा, इंडोनेशिया में कल्पवृक्ष जिसे कल्पतरु कल्प पदुरमा, और कल्प पदपा के रूप में जाना जाता है का जिक्र मिलता है। भारत में प्राचीन कल्पवृक्ष सिर्फ दो स्थानों पर ही उपलब्ध है ऐसा माना जाता है। उड़ीसा राज्य के जगन्नाथ पुरी धाम एवं ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ धाम में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रोपित किया गया हुआ है।
चारों वर्णों का धर्म ::
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येऽब्रवीन्मनुः॥
अहिंसा (किसी को भी मन, वाणी और शरीर से दुःख न देना) सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्रता और इन्द्रियों का निग्रह करना; यह संक्षेप में चारों वर्णों का धर्म मनु जी ने कहा है।[मनु स्मृति 10.63] Manu has doctrined that non violence (not to harm anyone with mentally-thinking, speech-words or physically), speaking the truth, not to steal, purity-piousness and controlling the sense organs (non indulgence in moral turpitude, passions, sexuality, sensuality, lust, sex, vulgarity, lasciviousness) are the Dharm duties of the four Varn-Hindus.
It does not means that one should not protect either himself, his family or the society. Sacrificing life for the protection of others is the highest sacrifice. Raise arms against the intruders, terrorist, criminals, attackers and vanish them.
चार प्रकार के बल :: साम, दाम, दंड और भेद।
ईश्वर के शरणागत 4 श्रेणियों के भक्तों के लक्षण :-
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥7.16॥
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम-पवित्र कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकट निवारण के लिए भजने वाला), जिज्ञासु (मुझे यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी अर्थात; ऐसे चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात मेरी शरण ग्रहण करते हैं।
Hey Arjun, the best, ablest amongest the descendants of king Bharat! There are 4 categories of humans who takes shelter (protection, asylum) under me, namely :- (1). The pious (virtuous, righteous, honest), (2). distressed-facing difficulties, trouble, (3). anxious (curious, desirous) who wish to know-identify me and (4). the enlightened (scholars, philosophers).
सत्य वादी (पवित्र, शुद्ध, ईमानदार, उत्तम चरित्र) वाले भक्त जो परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं, की चार श्रेणियाँ हैं। मोक्ष मार्ग के अनुयायी मनुष्य यज्ञ-तप, दान-पुण्य, भजन-पूजन, तीर्थ यात्रा, श्रवण-स्वाध्याय :- वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता, इतिहास आदि नित्य प्रति करते रहते हैं। इसके लिए ह्रदय का शुद्ध (दोष, पाप) रहित होना अत्यावशक है। न्यायोचित स्त्रोत्र से धनोपार्जन वाले पवित्र विचार रखने वाले अपने वर्णाश्रम धर्म में आरूढ़ सज्जन-सरल ह्रदय व्यक्ति परमात्मा का आलम्बन स्वीकार करते हैं। निराश (आर्त, दीन-दुःखी, प्रेषण, संकट ग्रस्त) व्यक्ति भी ऐसा ही करते हैं। परमात्मा के प्रेमी भक्त जो उन्हें जानना-समझना चाहते हैं, वो शुद्ध ह्रदय-मनोवृति से भगवत सम्बन्धी मूल तत्व-तत्व ज्ञान के अभिलाषी होते हैं। जो ज्ञानी-तत्वज्ञ हैं, वो तो स्वयं को परमात्मा के प्रेम से ओत-प्रोत होकर उसकी शरणागति ग्रहण करके मुक्ति का इन्तज़ार करते हैं। उनकी समस्त कामनाएँ-इच्छाएँ केवल परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर तक ही सीमित हो गई हैं।
The pious (honest, truthful, righteous, virtuous) humans, who seek asylum under the Almighty have been categorised into 4 groups. Those who visit virtuous places, take a dip in pious holy rivers, go for pilgrimage, visit temples, perform sacrifices, grants donations, adopts charity for the needy, read-listen, adopt (embrace asceticism-celibacy), read or listen to the scriptures, epics, holy books and stories pertaining to the God too qualifies for Salvation. Those who visit holy places must be pure at heart free from enmity, vices, greed etc. There are the people who are suffering from diseases, tortures, shortages, deficit, scarcity, troubles, difficulties, too come to the fore of the Almighty. In addition to these there are the intelligent people who wish to identify the gist (nectar, theme, central idea, elixir) of the Ultimate, too reach HIM. The enlightened wait till the impact of their fair & foul deeds is neutralised completely. Their desires, wishes, choices are restricted to the God only. They love HIM, pray HIM remember HIM and keep on doing their domestic-essential duties with dedication. Whatever they have is offered for the social welfare-cause.
चार प्रकार के मित्र :- औरस (माता-पिता के सम्बन्ध से युक्त), मित्रता के सम्बन्ध से बँधा हुआ, कुल क्रमागत तथा संकट से बचाया हुआ।
सत्य (झूंठ न बोलना), अनुराग और दुःख-सुख में समान रूप से भाग लेना ये मित्र के चार गुण हैं।
चार शक्तियाँ :: (1). परा, (2). भुवनेश्वरी, (3). कमला एवं (4). सुभगा।
चार विद्यायें :: (1). आन्वीक्षकी (तर्क अथवा दर्शन), (2). त्रयी (तीन वेद), (3). वार्ता (आधुनिक अर्थशास्त्र) और (4). दण्डनीति (राजनीति)।[कौटिल्य]
धर्म के चार लक्षण ::
वेदः स्मृति: सदाचार स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥[मनुस्मृति 2.12]
वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मा को प्रिय संतोष; ये चार साक्षात् धर्म के लक्षण हैं।
Ved, Smrati, good conduct and satisfaction to the soul are the four characteristics-pillars of Dharm. चार गुण ::
(1).
यज्ञो दानमध्ययनं तपश्च चत्वार्येतान्यन्वेतानि सणि।
दमः सत्यमार्जवमानृशंस्यं चत्वार्येतान्यनुयान्ति सन्तः॥
यज्ञ, दान, अध्ययन तथा तपश्चर्या, ये चार गुण सज्जनों में पाये जाते हैं।इन्द्रिय दमन, सत्य, सरलता तथा कोमलता; इन चार गुणों का सज्जन पुरुष पालन करते हैं।[विदुर नीति 38]
Yagy, charity, study and penance, these four qualities are found in gentlemen. Repression of passions (sexuality, sensuality), truth, simplicity and politeness are the four characters-qualities are followed by gentlemen.
(2).
अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥
विनय शील व्यक्ति द्वारा वृद्ध, बुजुर्ग और अनुभव शील व्यक्तियों की सेवा करने से चार गुणों का विकास होता है :- आयु, विद्या, यश और बल।
One who is polite, serves experienced, matured, old, elders regularly, gains four qualities :- Age, knowledge, fame and power.
(3).
स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके, चत्वारी चिह्नानि वसन्ति देहे।
दानप्रसंगो मधुरा च वाणी, देवाSर्चनम् ब्राह्मण तर्पणं च॥
स्वर्ग में स्थित देवताओं और पृथ्वी पर रहने वाले सात्विक व्यक्तियों में परोपकार, मीठे वचन बोलना, भगवान् की आराधना और ब्राह्मणों की सेवा-अर्चना का गुण एक समान होता है।[चाणक्य नीति 7.15]
One, who is reborn on earth after a stint-stay in heaven, is recognised through 4 major characteristics (1). tendency to donate-charity, (2). sweet, consoling talks-speech, (3). prayers-devotion to deities and (4). offering of gifts, food and clothing to Brahmans.
The reverse of it is also true i.e., any one who possesses these characters is entitled to heaven after death.
Almighty has expressed-explained the tendencies, properties, behaviour of those, who return to the earth after utilising their virtuous, righteous, pious deeds, having failed to acquire Salvation, Liberation, Assimilation in the Ultimate.
आयु के चार भेद :: शरीर, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं। हित, अहित, सुख और दु:ख, आयु के ये चार भेद हैं।
चातुर्जात :- नागकेसर, तेजपात, दालचीनी, इलायची।
चार धाम :: बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि :: सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार निति :: साम, दाम, दंड, भेद।
चार स्त्री :: माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग :: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय :: सुबह,दोपहर, शाम, रात।
चार अप्सरा :: उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु :: माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी :: जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव :: अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी :: ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम :: ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य :: खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ :: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य :: तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।
चार युग :: सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग।
चारपीठ :: शारदा पीठ (द्वारिका), ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम), गोवर्धन पीठ (जगन्नाथ पुरी) और शृंगेरी पीठ।
चार वेद :: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद और सामवेद।
परमात्मा अवतार में 4 मूर्तियों में प्रकट होते हैं :- (1). राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघन।
(2). कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न जी और अनिरुद्ध जी।
4 धाम :: बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम।4 धाम यात्रा :- गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ।
4 आश्रम :- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास।
चतुर्भुज :- भगवान् श्री हरी विष्णु।
4 वर्ण :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र।
अंतःकरण के चार अंग :: मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।
यज्ञ के 4 अंग :: स्नान, दान, होम-हवन तथा जप।
यज्ञ में 4 आधार :: (1). व्यक्ति, (2). अग्नि, (3). वाणी और (4). चरु।
जप करने की विधियाँ वैदिक मन्त्र का जप करने की चार विधियाँ :: (1). वैखरी, (2). मध्यमा, (3). पष्चरी और (4). परा शुरु।
चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियाँ :: अग्निहोत्र में अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियाँ :- (1). गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, (2). मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, (3). शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा (4). ओषधियाँ व वनस्पतियाँ जो स्वास्थ्यवर्धक होती हैं।
अशुभफल दायक वाणी के 4 कर्म ::
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्॥[मनु स्मृति 12.6]
कठोर और झूँठ बोलना, दूसरे के दोषों को बताना और बिना अभिप्राय के वचन बोलना ये चार प्रकार के अशुभ फ़ल देने वाले वाणी के कर्म हैं।
Speaking plain truth-harsh words and telling lies, describing other's faults and speaking anything without motive i.e., useless talk-gossip, which may not be liked by others, are the four kinds of words which leads to inauspicious results.
Abusive language and talking idly are verbal evils-action.
मोक्ष-मुक्ति के 4 प्रकार ::
(1). सालोक्य :- इससे भगवद धाम की प्राप्ति होती है। वहाँ सुख-दु:ख से अतीत, अनंत काल के लिए है, अनंत असीम आनंद है।
(2). सामीप्य :- इसमें भक्त भगवान् के समीप, उनके ही लोक में रहता है।
(3). सारूप्य :- इसमें भक्त का रूप भगवान् के समान हो जाता है और वह भगवान् के तीन चिन्ह :- श्री वत्स, भृगु-लता और कोस्तुभ मणी, को छोड़कर शेष चिन्ह शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि से युक्त हो जाता है।
(4). सायुज्य :- इसका अर्थ है एकत्व। इसमें भक्त भगवान् से अभिन्न हो जाता है। यह ज्ञानियों को तथा भगवान् द्वारा मारे जाने वाले असुरों प्राप्त होती है।
सार्ष्टि भी मोक्ष का ही एक अन्य रूप है, जिसमें भक्त को परम धाम में ईश्वर के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता हैं। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य, ये सभी भक्त को प्राप्त हो जाते हैं। केवल संसार की उत्पत्ति व संहार करना भगवान् के आधीन रहता है, जिसे भक्त नहीं कर सकता।
4 PURPOSES OF EGOTISM :: Elimination of Karm is related to egotism, which has four purposes :- Abode, Implementation, Attempt and the Destiny.
4 WAYS TO KEEP WIFE UNDER CONTROL ::
(1). Excellent woman :- By means of incantation, understanding, good will, love and affection.
(2). Middle order (medium, ordinary woman) :- Through gifts, fulfilment of needs, desires, essentials.
(3). Lower status, order, inferior, base, mean woman :- By bribing, threat, differentiation and punishment, and
(4). Lower status, order, inferior, base, mean, wretched woman :- Through guile.
उत्तम स्त्री साम से, मध्यम स्त्री दान और भेद से तथा अधम स्त्री को भेद व दंड नीति से वश में रखा जा सकता है। अधम स्त्री को दंड के उपरांत साम-दान आदि से प्रसन्न कर लेना चाहिये।भर्ता-पति का अहित करने वाली, व्यभिचारणी स्त्री काल कूट विष के समान होती है, उसका परित्याग करना ही श्रेयकर है। उत्तम कुल में उत्पन्न पतिव्रता, पति का हित चाहने वाली स्त्री का सदा ही आदर-सत्कार करना चाहिये।
One should reconcile with the inferior woman (make her happy, please) through gifts, love and flattery, praise, after punishment, reproach. A characterless woman who acts against her husband is like the venom-poison. She deserve to be divorced, separated, rejected, doomed.
A woman born in a noble, respected, honourable family, blessed with values, ethics, virtues, piousity, righteousness, must be honoured, loved, admired, praised.
भोजन के 4 प्रकार :: भीष्म पितामह ने अर्जुन को निम्न 4 प्रकार से भोजन न करने के लिए कहा :-
(1). पहला भोजन :- जिस भोजन की थाली को कोई लांघ कर गया हो वह भोजन की थाली नाले में पड़े कीचड़ के समान होती है।
(2). दूसरा भोजन :- जिस भोजन की थाली में ठोकर लग गई, पाँव लग गया वह भोजन की थाली भिष्टा के समान होता है।
(3). तीसरा भोजन :- जिस भोजन की थाली में बाल पड़ा हो, केश पड़ा हो वह दरिद्रता के समान होता है।
(4). चौथा भोजन :- अगर पति और पत्नी एक ही थाली में भोजन कर रहे हो तो वह मदिरा के तुल्य होता है।
अगर पत्नी, पति के भोजन करने के बाद थाली में भोजन करती है, उसी थाली में भोजन करती है या पति का बचा हुआ खाती है तो उसे चारों धाम के पुण्य का फल प्राप्त होता है। वह भोजन उसके लिये चारों धाम के प्रसाद के तुल्य हो जाता है।
कुमारी बेटी यदि अपने पिता के साथ एक ही थाली में भोजन करती है तो उस पिता की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती; क्योंकि बेटी पिता की अकाल मृत्यु को हर लेती है। इसीलिए बेटी जब तक कुँमारी रहे, अपने पिता के साथ बैठकर भोजन करें, ताकि वह अपने पिता की अकाल मृत्यु को दूर कर सके।
SIGNIFICANCE OF 5 का महत्त्व :: पंचकोश ध्यान धारणा के निर्देश में पाँच प्राण तत्त्व ::
पाँच प्राण :– चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान नामक पञ्च पर्ण करते हैं।
पाँच तत्त्व :– अग्नि, जल, वायु , आकाश और पृथ्वी यह पाँच तत्त्व काया, दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है।
पाँच देव :– भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन्हें क्रमशः बलिष्ठता, बुद्धिमता, उपार्जन शक्ति, अभिवर्धन, पराक्रम एवं परिवर्तन की प्रखरता कह सकते हैं। यही पाँच शक्तियाँ आत्मसत्ता में भी विद्यमान हैं और इस छोटे ब्रह्माण्ड को सुखी समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व सम्भालती हैं।
प्रारब्ध द्वारा निश्चित 5 बातें :-
आयु: कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पंचैतानि हि स्रजयन्ते गर्भस्थस्यैव देहिन:॥
व्यक्ति कितने साल जीयेगा, वह किस प्रकार का काम करेगा, उसके पास कितनी संपत्ति और शिक्षा-ज्ञान होगा और उसकी मृत्यु कब होगी; ये बातें प्रारब्धवश माता के गर्भ में ही निश्चित हो जाती हैं।[चाणक्य नीति 4.1]
One's age, profession, finance-wealth, education and death are pre destined.
These five are fixed, the moment soul enters the womb to take shape as a child.
India is a country where astrology and palmistry are taught-learnt since ages. People make astonishingly accurate predictions even today. There are those as well, who do this only for earning money & such people may be inaccurate. This is an intricate subject-science over which treatises can be written. In fact Veds, Bhavishy Purans, Upnishads give detailed descriptions pertaining to the current era and the people dominating it for the next 2,40,000 years and everything is proving to be correct. At least at two places in Bhavishy & other Purans emergence of Chanky had been written-predicted. Bhavishy Puran was written at least 5,000-6.000 years ago and its certain that Achary Chanky knew this as well.
But one must not forget that the destiny gives broad guide lines only and expects the humans to do virtuous deeds, since accumulated as well current deeds too have their impact over the destiny.Shlok [CHANAKY NITI चाणक्य नीति 3.11] above mentions that "Poverty can be eliminated by continued labour, endeavours, efforts, industry. A laborious person can not remain poor. Only one, who make efforts can avail-attain the riches due to him by virtue of destiny". So, its very-very clear that destiny plays its role but human effort is equally essential.
Its not merely a hypothesis but a thing experienced by me myself & I do make accurate predictions through palmistry.
I did not have Luck Line, so were my wife and son; but today each one of have well defined, well cut Luck & Sun Lines. We did hard labour for 15-18 hours a day. Now my son and daughter in law too word for 14 hours each day, including Sundays.
विश्वास के अयोग्य 5 :-
नाखिनां च नदीनां च श्रंगीणाम् शस्त्रपाणीनां।
विश्वासों नैव कर्तव्य: स्त्रीषु राजकुलेषु च॥
इन 5 पर कभी विश्वास ना करें :- (1). नदियाँ, (2). जिन व्यक्तियों के पास अस्त्र-शस्त्र हों, (3). नाख़ून और सींग वाले पशु, (4). औरतें और (5). राज घराने के लोग।[चाणक्य नीति 1.15]
One should never trust these :- (1). the rivers, (2). armed people, (3). beasts (carnivores, cannibals) with claws or horns, (4). unknown women and (5). members of a royal family.
Animals which are meat eaters can not be believed, since they do not hesitate in attacking their masters if annoyed, angry or hungry. Its not possible to asses their mood especially in breeding season. Animals with long horns too get angry and attack now and then.
One can not ascertain the either the depth of river at a point or when will it be in spate and wash away while crossing it, on feet. Then there is whirlpool which may swallow and lead a person to death.
When will the people with arms & ammunition attack, is uncertain. The woman and people from royal families may go to any extreme for their own good-welfare, benefits. When will the people belonging to these three categories deceive, kill or ditch one is uncertain, due to their wicked desires, ego imprudence. People in India from Kshatriy-royal families are generally hot headed, they are plagued by a sense of false pride, ego, rivalry. There are the claimants to the thrown, who murder each other without a logic along with the associates, decedents and accomplish. Their friendship as well as enmity, are always dangerous. Power makes one mad like Putin, Jinping, Kim.
पुलिस वालों की ना दोस्ती भली ना दुश्मनी।
Implied to modern times during democracy-republic, this rule govern well. The politics is extremely-highly polluted. Political murders are quite common. Politicians are quick to sacrifice their loyal and family members for a birth in cabinet, assembly, parliament. The criminals successfully make efforts to reach highest possible post in government by murdering innocents.There is not even a single political party India & elsewhere which is free from corruption.
अतिथि सेवा :-
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञ: पञ्चदक्षिण:॥
मनुष्य को उचित है कि यदि कोई अतिथि घर पर आ जाए तो उसको (1). प्रसन्न दृष्टि से देखे, (2). मन से उसकी सेवा करे, (3). मधुर वाणी द्वारा उसे सन्तुष्ट करे, (4). जब वह जाने लगे तो उसके पीछे-पीछे कुछ दूर तक जाए और (5). जब तक वह रहे तब तक उसके स्वागत सत्कार में लगा रहे। ये पाँच कर्म करना गृहस्थ के लिए पाँच प्रकार की दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ कहलाता है।[महा भारत अनुशासन पर्व 4.6]
अतिथि :: वेदों का विद्वान, साधू-संत, ब्राह्मण, उपदेशक और आचार्य आदि जिसकी तिथि निश्चित न हो। वह अतिथि कहलाता है।
One should (1). welcome the guest happily, (2). serve him whole heartedly, (3). talk to him sweet voice, (4). follow him for some distance when he depart and (5). continue serving him till he is present in his house.
This is true till the guest is well known, elder, Guru, sage a decent person otherwise if he is traitor, cheat, thug he must be expelled at once like the Britishers & Muslims.
पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम्।
दद्यादतिथिपूजार्थ स यज्ञ: पञ्चदक्षिण:॥
अतिथि को पैर धोने के लिए जल, बैठने के लिए आसन, प्रकाश के लिए दीपक, खाने के लिए अन्न और ठहरने के लिए स्थान देता है, इस प्रकार अतिथि सत्कार के लिए इन पाँच वस्तुओं का दान पञ्च दक्षिण यज्ञ कहलाता है।[महा भारत अनुशासन पर्व 4.8]
Providing water for washing-cleaning feet, seat-cushion for sitting, lighting to see, food and place to stay is called Panch Yagy.
This is true but do not take the risk to allow all these things with strangers especially Muslims & the Christians. Never forget that the Muslims came to India and settled here to convert the innocent Hindus & killed millions of them without mercy. Similarly, the Christians-Europeans came for trading and ruled India and killed millions of them mercilessly. Still today, the Christians & the Muslims are busy in converting Hindus. Worst it all is, LOVE JIHAD. Hindu girls are lured, misled, converted to Islam and later sold as prostitutes and ultimately killed to extract their vital organs for sale & transplant. Shahrukh Khan, Amer Khan, Pataudi, are all Brand Ambassadors of this business.
5 अनुयायी :-
पंच त्वाऽनुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः॥
पाँच लोग छाया की तरह सदा आपके पीछे लगे रहते हैं। ये पाँच लोग हैं, मित्र, शत्रु, उदासीन, शरण देने वाले और शरणार्थी।[विदुर नीति 52]
The friend, enemy, neutral, one who grants asylum and the person seeking asylum-protection are always following like shadow.
भोग व्यूह के पाँच भेद :: कक्ष, पक्ष तथा उरस्य जब विषम भाव से स्थित हों तो भोग नामक व्यूह होता है। इसके पाँच भेद :- सर्पचारी, गोमूत्रिका, शकट, मकर और पतन्तिक हैं।[राम नीति]
साम के पाँच भेद :: (1). दूसरे के उपकार का वर्णन, (2). आपस के सम्बन्ध को प्रकट करना (जैसे :- आपकी माता मेरी मौसी हैं, इत्यादि), (3). मधुरवाणी में गुण-कीर्तन करते हुए बोलना, (4). भावी उन्नति का प्रकाशन (यथा :- ऐसा होने पर आगे चलकर हम दोनों का बड़ा लाभ होगा इत्यादि) तथा (5). मैं आपका हूँ, यों कहकर आत्म समर्पण करना।[राम नीति]
दान के पाँच भेद :: (1). किसी से उत्तम (सार), अधम (असार) तथा मध्यम (सारा-सार) भेद से जो द्रव्य सम्पत्ति प्राप्त हुई हो, उसको उसी रूप में लौटा देना, यह दान का प्रथम भेद है। (2). बिना दिये ही जो धन किसी के द्वारा ले लिया गया हो, उसका अनुमोदन करना (यथा :- आपने अच्छा किया जो ले लिया। मैंने पहले से ही आपको देने का विचार कर लिया था), यह दान का दूसरा भेद है। (3). अपूर्व द्रव्यदान (भाण्डागार से निकालकर दिया गया नूतन दान), (4). स्वयं ग्राह प्रवर्तन (किसी दूसरे से स्वयं ही धन ले लेने के लिये प्रेरित करना यथा :- अमुक व्यक्ति से अमुक द्रव्य ले लो, वह तुम्हारा ही हो जायगा) तथा (5). दातव्य ऋण आदि को छोड़ देना या न लेना, इस प्रकार ये दान के पाँच भेद कहे गये हैं।[राम नीति]
पाँच प्रकार के दैव-व्यसन :- अग्नि (आग लगना), जल (अतिवृष्टि या बाद), रोग, दुर्भिक्ष (अकाळ पड़ना) और मरक (महामारी) :- ये पाँच प्रकार के दैव-व्यसन हैं। शेष मानुष व्यसन हैं। पुरुषार्थ अथवा अथर्व वेदोक्त शान्ति कर्म से दैव व्यसन की शान्ति करें।[राम नीति]
RAM POLICY राम नीति :: मंत्र विकल्प
भगवान् श्री राम कहते हैं :- लक्ष्मण! प्रभावशक्ति और उत्साह शक्ति से मन्त्र शक्ति श्रेष्ठ बतायी गयी है। प्रभाव और उत्साह से सम्पन्न शुक्राचार्य को देव पुरोहित बृहस्पति ने मन्त्र बल से जीत लिया।
जो विश्वसनीय होने के साथ ही साथ नीति शास्त्र का विद्वान् हो, उसी के साथ राजा अपने कर्तव्य के विषय में मन्त्रणा करे। (जो विश्वसनीय होने पर भी मूर्ख हो तथा विद्वान् होने पर भी अविश्वसनीय हो, ऐसे मन्त्री को त्याग दे। कौन सा कार्य किया जा सकता है और कौन सा अशक्य है, जो अशक्य कार्य अशक्य है, इसका स्वच्छ बुद्धि से विवेचन करे।) जो अशक्य कार्य का आरम्भ करते हैं, उन्हें क्लेश उठाने के सिवा कोई फल कैसे प्राप्त हो सकता है!?
मन्त्रियों की मन्त्रणा के पाँच अङ्ग :: अविज्ञात (परोक्ष) का ज्ञान, विज्ञात का निश्चय, कर्तव्य के विषय में दुविधा उत्पन्न होने पर संशय का उच्छेद (समाधान) तथा शेष (अन्तिम निश्चित कर्तव्य) की उपलब्धि, ये सब मन्त्रियों के ही अधीन हैं। सहायक, कार्य साधन के उपाय, देश और काल का विभाग, विपत्ति का निवारण तथा कर्तव्य की सिद्धि ये मन्त्रियों की मन्त्रणा के पाँच अङ्ग हैं।[राम नीति]
शत्रु पर आक्रमण के 5 भेद :: विगृह्यगमन, संधायगमन, सम्भूयगमन, प्रसङ्गतः गमन तथा उपेक्षापूर्वक गमन, ये नीतिज्ञ पुरुषों द्वारा यान के पाँच भेद कहे गये हैं।[राम नीति]
5 प्रकार के वैर :: सापत्न (रावण और विभीषण की भाँति सौतेले भाइयों का वैमनस्य), वास्तुज (भूमि, सुवर्ण आदि के हरण से होने वाला अमर्ष), स्त्री के अपहरण से होने वाला रोष, कटु वचन जनित क्रोध तथा अपराध जनित प्रतिशोध की भावना, ये 5 प्रकार के वैर अन्य विद्वानों बताये हैं।[राम नीति]
प्रजाजनों को पाँच प्रकार का भय :: आयुक्तक (रक्षाधिकारी राज कर्मचारी), चोर शत्रु राजा के प्रिय सम्बन्धी तथा राजा के लोभ इन पाँचों से प्रजाजनों को पाँच प्रकार का भय प्राप्त होता है। इस भय का निवारण करके राजा उचित समय पर प्रजा से कर ग्रहण करे।[राम नीति]
मंत्री के 5 गुण :: (1). स्मृति, अनेक वर्षों की बीती बातों को भी न भूलना, (2). राजा के आत्म सम्पत्ति सम्बन्धी गुण (उसके स्वरूप को न भूलना), (3). अर्थ-तत्परता (दुर्गादि की रक्षा एवं संधि आदि में सदैव तत्पर रहना), (4). वितर्क (विचार), ज्ञान निश्चय (यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है इस प्रकार का निश्चय), (5). दृढ़ता तथा मन्त्रना गुप्ति (कार्य सिद्धि होने तक मन्त्रणा को अत्यन्त गुप्त रखना) ये मन्त्री सम्पत् के गुण कहे गये हैं।[राम नीति]
मूर्खों के पाँच लक्षण ::
मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥
मूर्खों के पाँच लक्षण :- गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों-विचारों का अनादर।[QUOTES :: APHORISM (1) सुभाषितानि (नीति)
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Idiots-fools five characteristics-signs: Pride-ego, abusive-foul language, anger, stubbornness (argumentation-useless) discussion-debate and disrespect for other's opinion (ideas-thoughts).
पंचजन :: पंचजन का अभिप्राय पाँच व्यक्तियों से है।
पाँच व्यक्ति जो यज्ञ के सहभागी हैं।[ऋग्वेद]
शूद्र और निषाद (धर्मसूत्र में जिन्हें ब्राह्मण और शूद्र स्त्री से उत्पन्न वर्ण संस्कार माना गया है) यज्ञभागी थे। समस्त शूद्र यज्ञ के पात्र थे।[यास्क]
पंचजना शब्द का अर्थ है, चार वर्ण और निषाद।[निरुक्त]
ऋग्वेद में जातियों का वर्णन-विवरण नहीं है। सभी व्यक्ति समान थे और यज्ञ में निर्बाध हवि चढ़ाते थे। निषाद भी अप्रत्यक्ष रूप से यज्ञयाग के भाग थे।
याजक को तीन रात तक निषाद और वैश्य तथा राजन्य के साथ ठहरना होगा।[विश्वजित यज्ञ]
इस प्रकार आर्य समुदाय के निषाद आर्येत्तर थे।
गन्धर्व, पितर, देव, असुर-राक्षस, मनुष्य भी पंचजन कहे गए हैं।
नौकर-चाकरों का पाँच प्रकार का विभाजन :: (1). कपाटिक :- जो कपटी हो, दूसरे के मर्म को जानने वाला हो और अपने वेश को छिपाने में माहिर-प्रवीण हो; ऐसे चतुर व्यक्ति के साथ एकान्त में सलाह, मशवरा, आदेश करे या सन्देश ग्रहण करे,
(2). उदास्थित :- भ्रष्ट सन्यासी के वेश-रूप में हो। उसे वैरी तथा प्रजा का सच्चा भेद देने के लिये नियुक्त करके, राजा एकान्त में उससे सभी भेदों को जाने;
(3). गृहस्थ :- जो साधारण स्थिति का होने पर भी चतुर पवित्रात्मा हो, राजा उसकी वृत्ति निश्चित कर अपन गुप्तचर नियुक्त करे,
(4). वाणिजक :- जिस बनिये के पास पूंजी न हो, मगर व्यापार करने में चतुर हो, उसे धन देकर व्यापार के बहाने अपने देश में या अपने देश के बाहर भेजकर उसके द्व्रारा गुप्त भेद-सूचनाएँ प्राप्त करे, और
(5). तापस :- जो सन्यासी नीतिज्ञ हो और जीविका से हीन हो, उसे वृत्ति देकर उसे अपना गुप्त दूत नियुक्त करे और वह अपने कपटी शिष्यों के साथ त्रिकालज्ञ बना हुआ राजा के प्रति लोगों के मनोभावों को जानकर एकान्त में राजा से कहे।
चित्त-ध्यान 5 अवस्थायें :: मूढ़ (idiot, duffer, silly), (2). विक्षिप्त (mental wreak), (3). क्षिप्त (a muck, lunatic, madman, neurosis, deranged, insane, distracted, distraught, brain sick, deranged, unsound, unstable, demented, rabid), (4). एकाग्र (concentrated) और (5). निरुद्ध (Constrained, Detained)।
5 पश्चाताप-महाव्रत :- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह (भोग बुद्धि से संग्रह का अभाव) पाँच यम हैं, जिन्हें महाव्रत कहा जाता है।
Non violence, truth, not to steal, chastity and avoidance of the storage-accumulation of goods for comforts, are 5 divine rules in life, which are considered to be extreme penances.
कौवे से सीखें ये पाँच बातें :-
गूढ़ च मैथुन धाष्ट्र्यं काले काले च संग्रहम्।
अप्रमत्तविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात्॥
पत्नी के साथ एकांत में प्रणय, निडरता, उपयोगी वस्तुओ का संचय, सभी ओर दृष्टि और दूसरों पर आसानी से विश्वास ना करना यह कौवे से सीखें।[चाणक्य नीति 6.20] One should learn mating in privacy (with one's wife); boldness; storing away useful items; watchfulness and not easily trusting others are the five qualities to be learned from a crow.
These 5 characteristics should be present in shrewd politicians, diplomats. For a common man too they are equally important.
Shashtr-scriptures prohibit sexual acts in the open, in front of any one, nudity, porn. One should not permit himself to be photographed-video graphed naked or in sexual postures under any circumstances, since these things are counter productive. Even in grossly free-open societies, ministers had to resign due to this reason. If these acts are performed in front of any one, openly, they initiates impotency in the sexual partners. Such activities should be essentially private.
We should discard leaders like Trump. You can find the nude pictures of Obama's mother.
One should be bold enough to snatch what belongs to him. It needs extreme caution and care and attentiveness. One should always store enough food, ration for at least 2-3 months. Governments should maintain stocks for 12 years with extreme care, unlike India where millions of tonnes of grain is wasted away every year due to carelessness-callous attitude of employees, FCI and they remain unpunished. There is yet another foolish act observed in India, first they permit exports at low prices and then they import them at much higher costs. During recent years sugar, onions, wheat are some of the commodities pertaining to this negligence, idiocy. There is deep rooted conspiracy in it.
Neighbouring countries like Pakistan, Shri Lanka, Bangla Desh, Mayan Mar & Nepal are facing deep crises due to mismanagement.
One must not be lazy, since it always harms him, since he losses as and when he is not quick to the need-demand of the situation. Targets are never met, leading to slipping of business in others pockets.
Faith is an essential component of human behaviour. This society can never run-function without it. But one should be extremely vigilant, cautious, alert. This is the reason trade secrets are passed on to the opponents by the employees-enemy. Plans, programs, ideas, secrets should remain close to the chest otherwise others will be benefited through them, not the one who propounded, discovered them.
Discoveries made in America were easily stolen-procured by Russia & China & the result is obvious.
पिता तुल्य 5 व्यक्ति :-
निता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितर: स्मृता:॥
जिसने जन्म दिया, जिसने यज्ञोपवीत संस्कार किया, जिसने पढ़ाया, जिसने भोजन दिया और जिसने भयपूर्ण परिस्थितियों में बचाया वे सभी पिता का समान हैं।[चाणक्य नीति 5.22] These five people are considered (regarded, respected) like father, (1). one who gave birth, (2). one who awarded with sacred thread round the neck, (second birth of Dwijati-Swarn), before starting schooling, (3). the Guru who taught, (4). one who gives grain-food to survive and (5). the one who protects are equivalent to father.
They deserve respect-honour and should be served as and when they are in need. They make one a socially useful being, help him stand on his own feet and earn his livelihood.
सिद्धि के पाँच हेतु :: अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव।
5 कर्मेन्द्रियाँ :: पाणी-हाथ :- कार्य करना-लेना देना, पाद-पैर :- चलना-फिरना, वाक्-जीभ, होंठ और मुँह :- बोलना, उपस्थ-लिंग :- मूत्र त्याग, पायु-गुदा :- मल त्याग।
5 ज्ञानेन्द्रियाँ :: श्रोत्र-कान :- सुनना, चक्षु-आँखें :- देखना, रसना-जीभ :- स्वाद-चखना, त्वक्-खाल :- स्पर्श-महसूस करना, घ्राण-नाक :- सूँघना।
पाँच चीज़ें आदमी के पैदा होते ही विधाता उसके भाग्य में लिख देता है :- आयु, कर्म, धन, विद्या और यश।[बैताल पचीसी]
साम के पाँच भेद :: (1). दूसरे के उपकार का वर्णन, (2). आपस के सम्बन्ध को प्रकट करना (जैसे :- आपकी माता मेरी मौसी हैं, इत्यादि), (3). मधुरवाणी में गुण-कीर्तन करते हुए बोलना, (4). भावी उन्नति का प्रकाशन (यथा :- ऐसा होनेप र आगे चलकर हम दोनों का बड़ा लाभ होगा इत्यादि) तथा (5). मैं आपका हूँ, यों कहकर आत्म समर्पण करना।
दान के पाँच भेद :: (1). किसी से उत्तम (सार), अधम (असार) तथा मध्यम (सारा-सार) भेद से जो द्रव्य सम्पत्ति प्राप्त हुई हो, उसको उसी रूप में लौटा देना, यह दान का प्रथम भेद है। (2). बिना दिये ही जो धन किसी के द्वारा ले लिया गया हो, उसका अनुमोदन करना (यथा :- आपने अच्छा किया जो ले लिया। मैंने पहले से ही आपको देनेका विचार कर लिया था), यह दान का दूसरा भेद है। (3). अपूर्व द्रव्यदान (भाण्डागार से निकालकर दिया गया नूतन दान), (4). स्वयं ग्राह प्रवर्तन (किसी दूसरे से स्वयं ही धन ले लेने के लिये प्रेरित करना यथा :- अमुक व्यक्ति से अमुक द्रव्य ले लो, वह तुम्हारा ही हो जायगा) तथा (5). दातव्य ऋण आदि को छोड़ देना या न लेना, इस प्रकार ये दान के पाँच भेद कहे गये हैं।
मन्त्रियों की मन्त्रणा के पाँच अङ्ग :: सहायक, कार्य साधन के उपाय, देश और काल का विभाग, विपत्ति का निवारण तथा कर्तव्य की सिद्धि ये मन्त्रियों की मन्त्रणा के पाँच अङ्ग हैं।
आसन के भेद :: जब विजिगीषु और शत्रु, दोनों एक दूसरे की शक्ति का विधात न कर सकने के कारण आक्रमण न करके बैठ रहें तो इसे आसन कहा जाता है। इसके पाँच भेद :- (1). विगृह्य आसन, (2). संधाय आसन, (3). सम्भूय आसन, (4). प्रसङ्गासन तथा (5). उपेक्षासन।
यान के पाँच भेद :: विगृह्यगमन, संधायगमन, सम्भूयगमन, प्रसङ्गतः गमन तथा उपेक्षापूर्वक गमन, ये नीतिज्ञ पुरुषों द्वारा यान के पाँच भेद कहे गये हैं।(जिस-राजा के बल एवं पराक्रम उच्च कोटि के हों, जो विजिगीषु के गुणों से सम्पन्न हो और विजय की अभिलाषा रखता हो तथा जिसकी अमात्यादि प्रकृति उसके सद्गुणों से उसमें अनुरक्त हो, ऐसे राजा का युद्ध के लिये यात्रा करना 'यान' कहलाता है।)
5 TYPES-KINDS OF ENMITY 5 प्रकार के वैर :: सापत्न (रावण और विभीषण की भाँति सौतेले भाइयों का वैमनस्य), वास्तुज (भूमि, सुवर्ण आदि के हरण से होने वाला अमर्ष), स्त्री के अपहरण से होने वाला रोष, कटु वचन जनित क्रोध तथा अपराध जनित प्रतिशोध की भावना, ये 5 प्रकार के वैर विद्वानों बताये हैं।
मुक्ति के 5 प्रकार :: (1). सालोक्य, (2). सामीप्य, (3). सारूप्य, (4). सायुज्य और (5). कैवल्य अथवा सार्ष्टि। इनमें से सालोक्य का एक मार्ग है और कैवल्य का एक।
भक्ति ही मुक्ति-मोक्ष का साधन है। इन सब मुक्तियों में से सायुज्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। सायुज्य मुक्ति, मोक्ष ही है, यानि जीव की पृथक सत्ता का इस अवस्था में अवसान हो जाता है। जीव का कभी ब्रह्म में विलय नहीं होता, सायुज्य मुक्ति में भी ब्रह्म और जीव का नित्य सहअस्तित्व बना रहता है।
पञ्च प्राण (प्राणवायु, प्राणायाम) :: प्राणी के शरीर के भीतर पाँच प्रकार की वायु पाई जाती है। ये पाँचों ही पवन देव के पुत्र हैं और प्राणी में प्रकृति के अंश में उपस्थित रहते हैं।
प्राण :: वह वायु जो मनुष्य, प्राणी, जीव के शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत प्राण वायु की उपस्थिति तक ही जीवात्मा इसमें निवास करता है। इस वायु का मुख्य स्थान हृदय में है।इस वायु के आवागमन को अच्छी तरह, भली-भाँति समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। वायु शरीर के अन्तर्गत खाद्य पदार्थों-भोजन को पोषक या हानिकारक पदार्थों में तब्दील करने-बदलने की क्षमता रखती है। मल का निर्माण और निष्कासन भी इसी के माध्यम से होता है।
आयाम :: प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार और दिशा। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं, उसी आयाम में चले जाते हैं। मनुष्य जब श्वास लेता है तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँच भागों में विभक्त हो जाती है अर्थात शरीर के भीतर पाँच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थितर रहकर भी गतिशील रहती है।
पंचक :: (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।
वायु के इस पाँच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति चैतन्य रहता है, स्मृतियांँ सुरक्षित रहती हैं, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह-स्पंदन होता रहता है। मन के विचार बदलने या स्थिर रहने में भी इसका योगदान रहता है। इस प्रणाली में किसी भी प्रकार का अवरोध पूरे शरीर, तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर, मन तथा चेतना बीमारी, व्याधि, रोग और शोक से ग्रस्त हो जाते हैं। नियमित प्राणायाम मन-मस्तिष्क, चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायु तंत्र और खून आदि सभी को शुद्ध और पुष्ट, स्वस्थ रखता है।
ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
(1). प्राणवायु :- ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त जो प्राणवायु होती है, उसे प्राण कहते हैं। श्वास प्रश्वास को नासिका द्वारा लेना और छोड़ना, मुख और नासिका की गति, अन्न को पाचन योग्य बनाना, पानी को रक्त मूत्र एवं पसीने में परिवर्तित करना प्राणवायु के मुख्य कार्य है। इसका सम्बन्ध वायु तत्व एवं अनाहत चक्र (ह्रदय) से है। प्राण वायु मनुष्य के शरीर का संचालन करती है। यह वायु मूलत: खून ऑक्सीजन (O2) और कार्बन-डाइऑक्साइड ( CO2) के रूप में रहती है।
(2). अपान वायु :- यह नाभि से लेकर पैरों तक विचरती है। नाभि से नीचे के अंग यथा प्रजनन अंग, गर्भाशय, कमर, घुटने, जंघाएँ, मल-मूत्र पैर इन सभी अंगों का कार्य अपान वायु द्वारा होता है। इसका सम्बन्ध पृथ्वी तत्व और मूलाधार चक्र से है। इसकी गति नीचे की ओर होती है। अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(3). समानवायु :- यह नाभि से ह्रदय तक चलती है। पाचन क्रिया भोजन से रस निकलकर पोषक तत्वों को सभी अंगो में बाँटना इस वायु का कार्य है। इसका सम्बन्ध अग्नि तत्व और मणिपुर चक्र से है। समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता है।
(4). व्यान वायु :- यह समूचे शरीर में घूमती है। सभी स्थूल एवं सूक्षम नाड़ियों में रक्त संचार बनाये रखना इसका कार्य है। इसका सम्बन्ध जल तत्व और स्वाधिष्ठान चक्र से है। व्यान का अर्थ है चरबी तथा माँस से सम्बंधित कार्यों का सम्पादन करना।
(5). उदान वायु :- यह कंठ से लेकर मस्तिष्क पर्यन्त भ्रमण करती है। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व और विशुद्धि चक्र से है। उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में स्थित होती है।
प्राणिक मुद्रा :- पाँचों प्राणों के नाम पर ही पाँच प्राणिक मुद्राएँ हैं, जिनमें दो या दो से अधिक तत्वों का अग्नि के साथ मिलन होता है। उदाहरणार्थ :- अग्नि + वायु + आकाश, अग्नि + आकाश + पृथ्वी, अग्नि + पृथ्वी + जल, अग्नि + वायु + आकाश + पृथ्वी और अग्नि + शेष चारों तत्व। इसी तरह से बनने वाली मुद्राओं को ही प्राणिक मुद्रा कहा जाता है। जब दो से अधिक तत्व आपस में मिलते हैं तो उनका प्रभाव तत्व मुद्राओं की तुलना में और भी अधिक बढ़ जाता है। जिस प्रकार से दो अथवा अधिक नदियों के मिलने से संगम का महत्व बढ़ जाता है, उसी प्रकार इन मुद्राओं का महत्व भी बढ़ जाता है। ये मुद्राएँ हैं :- (1). प्राण मुद्रा, (2). अपान मुद्रा, (3). व्यान मुद्रा, (4). उदान मुद्रा और (5). समान मुद्रा अथवा मुकुल मुद्रा।
निरुक्त वैदिक ग्रंथों में शब्दों की व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन है। यह हिन्दु धर्म के छः वेदांगों में से एक है अर्थात व्याख्या और व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मुख्यतः वेदों में आये हुए शब्दों की पुरानी व्युत्पत्ति का विवेचन है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary-dictionary) भी है। संस्कृत के प्राचीन व्याकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है।
इसका उद्देश्य शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना है।
"अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्"
अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्र रूप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है, वही निरुक्त है। शिक्षा प्रभृत्ति छह वेदांगों में निरुक्त की गणना है।[ऋग्वेद भाष्य भूमिका-सायण] "निरुक्त श्रोत्रमुचयते"
निरुक्त को वेद का कान है।[पाणिनि शिक्षा] इस शिक्षा में निरुक्त का चतुर्थ स्थान है। उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यंतर तथा बाह्य विशेषताओं के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है। निरुक्त की जानकारी के बिना वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान सम्भव नहीं है।
पाँच प्रकार का निरुक्त :: (1). वर्णागम (अक्षर बढ़ाना), (2). वर्ण विपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), (3). वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), (4). नाश (अक्षरों को छोड़ना) और (5). धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना।[काशिका वृत्ति]
काशिका वृत्ति में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उस पर अपने विचार दिए हैं।
पंचांग :- पांचों अंग, फल फूल, बीज, पत्ते और जड़।
पंचकोल :- चव्य, छित्र कछल, पीपल, पीपल मूल और सौंठ।
पंचमूल बृहत् :- बेल, गंभारी, अरणि, पाटला, श्योनक।
पंचमूल लघु :- शलिपर्णी, प्रश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली और गोखरू। दोनों पंचमूल मिलकर दशमूल कहलाते हैं।
मुक्ति के पाँच प्रकार :: सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य।
पाँच तत्व :: पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता :: गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सूर्य।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ ::
बुद्धिन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः।
कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्वादिनी प्रचक्षते॥
इसमें कान आदि पाँच बुद्धिन्द्रिय और गुदा आदि पाँच कर्मेन्द्रिय।[मनु स्मृति 2.91]
They include ears and the 5 intelligence oriented sense organs; while the rest 5 include the functional organs like anus.पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ :: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषो जिव्हा नासिका चैव पञ्चमी।
पायूपस्थं हस्तपादं वाक्चैव दशमी स्मृता॥2.90॥
कान, त्वचा-चर्म, नेत्र, जिव्हा, नाक, गुदा, लिंग, हाथ, पैर और दसवीं वाणी।[मनु स्मृति 2.90] The 10 sense organs include ears, skin, eyes, tongue, nose, anus, penis or vagina, hands, legs and the 10th is speech.
पाँच कर्म :: रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच अँगुलियाँ :: अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार :: गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत :: दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत :: भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद :: मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु :: प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
5 वर्ण-जातियाँ FIVE CATEGORIES OF HUMANS ::
य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरन्यति। इन्द्र: पञ्व क्षितिनाम्॥
इन्द्रदेव, पाँचो श्रेणियों के मनुष्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) और सब ऐश्वर्य सम्पदाओं के अद्वितीय स्वामी हैं।[ऋग्वेद 1.7.9]
इन्द्र पाँचों श्रेणियों के मानवों और ऐश्वर्यों के एक मात्र स्वामी हैं।
Indr Dev is the sole head-master of the 5 kinds of humans :- Brahmn, Kshatriy, Vaeshy, Shudr and the Nishad and he is the unique-unquestionable owner of all amenities, wealth, comforts.
प्राणोदानौ समानश्च व्यानश्चापान एव च।
स्थानस्था मारुताः पञ्च यापयन्ति शरीरिणाम्॥[सु.नि.अ. 1]
प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान यह पाँच प्रकार का वायु विभिन्न स्थानों में स्थित रहता हुआ मनुष्यों के जीवन का यापन करता है। ये वायु के पाँच भेद हैं तथा कर्मानुसार इनका स्थान भिन्न-भिन्न है; परन्तु स्वतंत्र रूप जीवन स्वरूप जो वायु है, उसका स्थान भी नियत है, जहाँ पर वायु स्थित रहता है और उन स्थानों में स्थित वायु अपने प्राकृत कर्मों द्वारा शरीर का अनुग्रह करता है।
सम्मानीय ::
पंचैव पूजयन् लोके यश: प्राप्नोति केवलं।
देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान्॥[विदुर नीति 51]
देवता, पितर, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि, इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए। इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है।
One must pray (worship, honour, welcome) the demigods-deities, Manes, humans, beggars and the guests with pure heart. It leads to fame and honour of the doer.
One must be cautious while dealing with the beggars and the uninvited guests during this age called Kali Yug. Impostors, frauds, cheats, terrorist, criminals might be dealing with the innocent house hold. Always remember Ravan who abducted Maa Sita.
पीछा करने वाले CHASERS ::
पंच त्वाऽनुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः॥[विदुर नीति 52]
पाँच लोग छाया की तरह सदा आपके पीछे लगे रहते हैं। ये पाँच लोग हैं, मित्र, शत्रु, उदासीन, शरण देने वाले और शरणार्थी।
The friend, enemy, neutral, one who grants asylum and the person seeking asylum-protection are always following like shadow.
These people always chase-follow one.
पंच तन्मात्रा :: शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्धो को पंच तन्मात्राएँ कहते हैं; 5 basic ingredients from which the earth has evolved are smell, touch, figure, extract-fluid and sound.
पाँच इन्द्रियाँ :: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष :: सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट, बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते :: आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या :: अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।
5 ज्ञानेंद्रिय :: श्रोत-Ears, त्वक्-Skin, चक्षु-Eyes, रसन-Tongue एवं घ्राण-Nose.
5 कर्मेन्द्रिय :: वाक् (वाणी)-Speech, हस्त-Hands, उपस्थ-Pennies, गुदा-Anus एवं पाद (पैर)-Legs.
पाँच प्रकार के क्लेश :: मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं।
पाँच प्रकार की वृत्तियाँ :: "प्रत्यक्षनुमानागमाः प्रमाणानि"
(5.1). प्रमाण, (5.2). विपर्यय, (5.3). विकल्प, (5.4). निद्रा तथा (5.5). स्मृति,
(5.1). प्रमाण के तीन भेद :- (5.1.1). प्रत्यक्ष प्रमाण, (5.1.2). अनुमान प्रमाण और (5.1.3). आगम प्रमाण,
पाँच प्रकार की वृत्तियाँ :: चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ हैं।
PANCH BHUT-TATV पञ्च तत्व-भूत :: These five elements are (1). Earth or Prathvi, पृथ्वी, (2). Water or Jal, जल, (3). Fire-Tej or Agni, अग्नि, (4). Air or Vayu, वायु and (5). Ether or Akash, आकाश।
पंच तत्त्व :: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।
पञ्च प्राण :: हिन्दु योग एवम दर्शन ग्रंथों में मुख्य प्राण पञ्च बताए गए हैं। इसके आलावा उपप्राण भी पाँच बताये गए हैं। पाँच प्राणों के नाम इस प्रकार हैं। (1.1). प्राण, (1.2). अपान, (1.3). समान, (1.4). उदान और (1.5). व्यान।5 उपप्रधान वायु नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय।
पञ्च प्राण या प्राण वायु ::
(1). प्रधान वायु :-(1.1). प्राण :: निवास स्थान-ह्रदय; श्र्वास को बाहर निकालना, खाये हुए अन्न को पचाना।
(1.2). अपान :: निवास स्थान-गुदा; श्र्वास को अंदर ले जाना, मल-मूत्र को बाहर निकालना, गर्भ को बाहर निकालना।
(1.3). समान :: निवास स्थान-नाभि; पचे हुए भोजन को समस्त अंगो, ऊतकों, कोशिकाओं तक ले जाना।
(1.4). उदान :: निवास स्थान-कण्ठ; भोजन के गाढ़े और तरल भाग को अलग-अलग करना, सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालना, दूसरे शरीर या लोक में ले जाना।
(1.5). व्यान :: निवास स्थान-सम्पूर्ण शरीर; शरीर के सम्पूर्ण अंगों को सिकोड़ना और फैलाना।
(2). उप प्रधान वायु :-
(2.1). नाग :: कार्य-डकार लेना।
(2.2). कूर्म :: कार्य-नेत्रों को खोलना और बन्द करना।
(2.3). कृकर :: कार्य-छींकना।
(2.4). देवदत्त :: कार्य-जम्हाई लेना।
(2.5). धनंजय :: कार्य-मृत्यु के बाद शरीर को फुलाना।
पञ्च प्राणमय कोष :: आत्मा के 5 कोष हैं। अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनंदमय। ये पाँचों आत्मा के आवरण है और आत्मा की शक्ति से ही अस्तित्व में रहते हैं। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है, जिससे सभी जीवधारी प्राणी जीवन पाते हैं। शरीर को चलाने के कारण इसको जीवनी शक्ति भी कहा जाता है। प्राण शरीर को स्वस्थ रखता है, कार्य की द्रष्टि से इसके 5 भाग हैं जिनको पञ्च प्राण कहा जाता है। नासिका से ह्रदय तक प्राण वायु, ह्रदय से नाभि तक समान वायु, नाभि से पैर तक अपान वायु, गर्दन से सिर तक उदान वायु व सम्पूर्ण शरीर में फैली है व्यान वायु। ये वायु इन सम्बंधित अंगों को बल देती रहती है। इनमें से जब किसी प्राण की शक्ति कम होती है तब वहाँ बीमारी आती है। प्राण को बढाने के लिए योग में प्राणायाम का वर्णन किया गया है। यही प्राण मन व इंद्रियों को गति देने का कार्य करता है। ये प्राण बड़ा शक्तिशाली है, जब तक ये शरीर के साथ होता है, जीवन रहता है, लेकिन जैसे ही ये अपनी शक्तियों को शरीर से समेटकर शरीर का साथ छोड़ देता है, उस अवस्था को मृत्यु कहा जाता है। प्राण जन्म देने में भी उतना ही सहायक है, जितना मृत्यु में। इसकी शक्ति को देखते हुए कई बार इस प्राण को ही आत्मा समझ लिया जाता है, जबकि ये तो आत्मा का एक कोष (आवरण) है। उपनिषदों में प्राण को आत्मा की छाया कहा है।
पड्चांग :: किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल और जड़।
पञ्चतन्मात्रा (Panch Tan Matra) :: पञ्चतन्मात्रा शब्द-word-sound-speech, created by mouth , स्पर्श-touch, experience through skin, रूप-shape-size-form perceived through eyes, रस-juice-extract experience through tongue, गंध-smell-scent, experienced through nose का विशेष महत्व उल्लेखित है और इसे इन्द्रियों का विषय माना गया है।
पंचोपचार :: गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को "पंचोपचार" कहते हैं।
पंचामृत Panchamrat :: दूध, दही, घृत, मधु (शहद) तथा शक्कर इनके मिश्रण को “पंचामृत“ कहते हैं।Its is a mixture of cow's urine, milk, curd and Ghee with honey. गाय के दूध, दही, घी और गौ मूत्र के साथ शहद का मिश्रण पंचमत्र कहलाता है।
पंच महायज्ञ ::
वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि।
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं गृही॥[मनु स्मृति 3.67]
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे।
The holy-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युस्करः।
कण्डनी चोदकुम्भश्र्च वध्यते यास्तु वाहयन्॥[मनु स्मृति 3.68]
गृहस्थ के चूल्हा, चक्की (सील, लुढ़िया), झाड़ु, ऊखल-मूसल, पानी का घड़ा आदि पाँचों हिंसा के स्थान हैं। इनसे काम लेने से गृहस्थ पाप का भागी होता है।
Five possessions of a house hold may indulge him in sin viz. hearth, grinding-stone, broom, pestle & mortar and the piture-the water container made of backed clay-vessel.
Whether one kill insects knowingly or unknowingly it amounts to violence leading to sin. To get rid of this sin, one can observe fast on every Amavashya-moonless night. Its rather impossible to avoid such sins. One is bound to kill rats, cockroaches, spiders, mosquitoes, flies every day to live peacefully-comfortably and even snakes, if they enter the house. Lice, leech, bed bugs must be killed-eradicated at once, right at the sight and then observe penances or pray to the God.
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः।
पञ्च क्लर्प्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥[मनु स्मृति 3.69]
महर्षियों ने उन पापों के नाश के लिये प्रतिदिन क्रम से पञ्चमहायज्ञ करने का आदेश दिया है।
The sages have directed to perform 5 types of sacrifices to remain untouched by the sin of killing insects etc.
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:पितृ यज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो दैवो बलिभौर्तो नृयज्ञोSतिथिपूजनम्॥[मनु स्मृति 3.70]
पितरों का तर्पण करना, वेद का पठन-पाठन, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, होम करना, जीवों को अन्न की बलि देना और नृयज्ञ अतिथि का आदर-सत्कार करना ये ही पञ्चमहायज्ञ हैं।
Teaching & learning of Veds, sacrifice to the manes, Brahmn Yagy, Pitr Yagy, Dev Yagy, offering grains-meals to organism (insects like ants, animals like cows, dogs etc.) welcoming-hospitality to the guest and offering food and drinks and the offerings to the deceased are 5 types of oblations.
OBLATION :: बलि, आहुति, नैवेद्य, हव्य, बलिदान, यज्ञ, क़ुरबानी; holocaust, immolation, offering, sacrifice, a thing presented or offered to God or a demigods.
पञ्चैतान्यो महायज्ञान्न हापयति शक्तितः।
स गृहेSपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते॥[मनुस्मृति 3.71]
जो इन 5 महायज्ञों को यथाशक्ति करता है, वह घर में नित्य रहकर भी हिंसा-दोषों से लिप्त नहीं होता।
One who perform these 5 Maha Yagy-spiritual rites every day, according to his capability is not contaminated by these defects connected with violence i.e., he is affected by the sin generated by the killing of insects etc at home during routine life.
अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतमेव च।
ब्राह्मयंहुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते॥[मनुस्मृति 3.73]
अहुत, हुत, प्रहुत, ब्राह्मयहुत और प्राशित, ये पञ्चयज्ञ कहलाते हैं।
Ahut, Hut, Prahut, Brahmyhut and Prashit are called 5 kinds of Yagy-sacrifices.
जपोSहुतो हुतो होमः प्रहुतो भौतिको बलि:।
ब्राह्मयं हुतं द्विजग्रयार्चा प्राशितं पितृतर्पणम्॥[मनुस्मृति 3.74]
ब्रह्मयज्ञ संज्ञक जप को अहुत कहते हैं। देवसंज्ञक होम को हुत, भूतबलि को प्रहुत, अतिथि ब्राह्मयहुत ब्राह्मण सत्कार को और प्राशित पितृयज्ञ संज्ञक नित्य श्राद्ध कहते हैं।
Ahut is symbolic form of Ultimate-Brahm sacrifice associated with the recitation of Ved Mantr but without sacrifices-offerings in the holy fire, Hut is the offering of sacrifices-oblation into the holy fire, Prahut amounts to the scattering of offerings over the ground meant for the diseased still roaming-hovering around as ghosts, soul, Bhoot and is called Bhoot Bali, Atithi is welcoming the Brahmn-guest who arrive without intimation at odd hours, Prashit Pitr Yagy is offering-oblation to the Manes every days Shraddh-Tarpan (तर्पण).
स्वाध्याये नित्युक्त: स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।
दैवकर्मणि युक्तो हि विभर्तीदं चराचरम्॥[मनुस्मृति 3.75]
दरिद्रता के कारण अतिथि के सत्कार में असमर्थ हो तो वह नित्य स्वाध्याय करे, क्योंकि दैवकर्म में लगा हुआ पुरुष इस चराचर को धारण कर सकता है।
One who is struck by poverty and is unable to welcome-honour the guests, should resort to self study of scriptures-Veds everyday, since it enables him, keeps busy in performance of rites to support the creations. Self study of scriptures is comparable to performing rites, sacrifices, prayers.
Virtuous, righteous, pious acts of the humans help in sustaining the life over the earth.
ब्रह्म यज्ञ :: वेदों का अध्ययन (अर्थात् स्वाध्याय) तथा देवता और ऋषियों का तर्पण-ब्रह्म यज्ञ है।
पितृ यज्ञ :: पितरों को तर्पण करना (सुमंतु, जैमिनी, वैशंपायन जैसे ऋषियों के तथा अपने पूर्वजों के नाम पर जल देने की विधि।
देव यज्ञ :: वैश्वदेव, अग्निहोत्र और नैमित्तिक यज्ञ देव यज्ञ के भाग हैं।
नित्य होने वाली पंच सूना-जीव हिंसा के प्रायश्चित स्वरूप वैश्वदेव करना। नित्य उप जीविका करते समय मनुष्य द्वारा अनजाने में होने वाली जीव हिंसा को शास्त्र में पंचसूना कहा गया है।
वैश्वदेवः प्रकर्तव्यः पन्चसूनापनुत्तये।
कण्डनी पेषणी चुल्ली जलकुम्भोमार्जनी॥
कूटना, पीसना, चूल्हे का उपयोग करना, पानी भरना तथा बुहारना, ये पाँच क्रियाएं करते समय सूक्ष्म जीव जंतुओं की हिंसा अटल है। इस हिंसा को ‘पंच सूना’ जीव हिंसा कहते हैं। ऐसी हिंसा हो जाए, तो ध्यानपूर्वक ‘वैश्वदेव’ प्रायश्चित का अंगभूत कर्म नित्य करें। उक्त हिंसा के परिणाम स्वरूप मनुष्य के मन पर हुआ पाप संस्कार दूर होता है।[धर्म सिंधु]
वैश्वदेव विधि :: अग्नि कुंड में ‘रुक्मक’ अथवा ‘पावक’ नामक अग्नि की स्थापना कर अग्नि का ध्यान करें। अग्नि कुंड के चारों ओर छः बार जल घुमाकर अष्ट दिशाओं को चंदन-पुष्प अर्पित करें तथा अग्नि में चरु की (पके चावलों की) आहुति दें। तदुपरांत अग्नि कुंड के चारों ओर पुनः छः बार जल घुमाकर अग्नि की पंचोपचार पूजा करें तथा विभूति धारण करें।
उपवास के दिन बिना पके चावल की आहुति दें। (उपवास के दिन चावल पकाए नहीं जाते; इसलिए आहुतियाँ चरू की न देकर, चावल की देते हैं।)
अत्यधिक संकट काल में केवल उदक (जल) से भी (देवताओं के नामों का उच्चारण कर ताम्र पात्र में जल छोडना), यह विधि कर सकते हैं।
यदि यात्रा में हों, तो केवल वैश्वदेव सूक्त अथवा उपरोक्त विधि के मौखिक उच्चारण मात्र से भी पंच महायज्ञ का फल प्राप्त होता है।
भूत यज्ञ (बलि हरण) :: वैश्वदेव हेतु लिए गए अन्न के एक भाग से देवताओं को बलि दी जाती है। भूत यज्ञ में बलि अग्नि में न देकर, भूमि पर रखते हैं।
नृयज्ञ अथवा मनुष्य यज्ञ :: अतिथि का सत्कार करना अर्थात् नृयज्ञ अथवा मनुष्य यज्ञ करना। ब्राह्मण को अन्न देना भी मनुष्य यज्ञ है।
पंच महायज्ञ का महत्त्व :: जिस घर में पंच महा यज्ञ नहीं होते, वहाँ का अन्न संस्कारित नहीं होता; इसलिए संन्यासी, सत्पुरुष और श्राद्ध के समय पितर उसे ग्रहण नहीं करते। जिस घर में पंच महायज्ञ करने पर शेष अन्न का सेवन किया जाता है, वहाँ गृह शाँति रहती है तथा अन्न पूर्णा देवी का वास रहता है।
दिन का समय साधना के लिए अनुकूल होने से दिन में न सोयें।
आरोहणं गवां पृष्ठे प्रेतधूमं सरित्तटम्।
बालतपं दिवास्वापं त्यजेद्दीर्घं जिजीविषुः॥
जो दीर्घ काल तक जीवित रहना चाहता है, वह गाय-बैल की पीठ पर न बैठे, चिता का धुँआ अपने शरीर को न लगने दे, (गँगा के अतिरिक्त दूसरी) नदी के तट पर न बैठे, उदय कालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श न होने दे तथा दिन में सोना छोड़ दें।[स्कंदपुराण, ब्रह्म.धर्मा. 6.66-67]
दिन और रात, इन दो मुख्य कालों में से रात के समय साधना करने में शक्ति का अधिक व्यय होता है; क्योंकि इस काल में वातावरण में अनिष्टकारी, राक्षसी, तामसिक शक्तियों का संचार बढ जाता है। इसलिए यह काल साधना के लिए प्रतिकूल रहता है। यह काल पाताल के मांत्रिकों के लिए (मांत्रिक अर्थात् बलवान आसुरी शक्ति) पोषक होता है; इसलिए सभी मांत्रिक इस तम काल में साधना करते हैं। इसके विपरीत, सात्त्विक जीव सात्त्विक काल में (दिन के समय) साधना करते हैं। दिन में अधिकाधिक साधना कर, उस साधना का रात के समय चिंतन करना तथा दिन भर में हुई चूक सुधारने का संकल्प कर, पुनः दूसरे दिन परिपूर्ण साधना करने का प्रयास करना, यह ईश्वर को अपेक्षित है। इसलिए दिन में सोनेसे बचें। दिन में सोने से रात में नींद ठीक तरीके से नहीं आती।
यज्ञ के पाँच प्रकार :: लोक क्रिया, सनातन, गृहस्थ, पंचभूत और मनुष्य।
गृहस्थ धर्म के यज्ञ :: (1). ब्रह्मयज्ञ, (2). देवयज्ञ, (3). पितृयज्ञ, (4). वैश्वदेवयज्ञ-भूतयज्ञ-पञ्चबलि, (4.1). गोबलि, (4.2). कुक्कुरबलि, (4.3). काकबलि, (4.4). देवबलि एवं (5). अतिथि यज्ञ-मनुष्य यज्ञ-श्राद्ध संकल्प।
Panch Gavy पंचगव्य :- गाय के दूध, घृत, मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में “पंचगव्य“ कहते है।
Its a concoction prepared by mixing five products from viz. Cow's dung, urine, milk, curd and ghee.
पंच कर्म :: (1). संध्योपासन, (2). उत्सव, (3). तीर्थ यात्रा, (4). संस्कार और (5). धर्म।
पाँच तरह के यज्ञ :: (1). ब्रह्मयज्ञ, (2). देवयज्ञ, (3). पितृयज्ञ, (4). वैश्वदेव यज्ञ, (5). अतिथि यज्ञ।
पंचयज्ञ ::
एकमप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पञ्चयज्ञिके।
न चैवात्रशयेत्किंञ्चिद्वैश्र्वदेवं प्रति द्विजम्॥मनु स्मृति: 3.83॥
पंचयज्ञ के अन्तर्गत पितृ के निमित्त एक ब्राह्मण को अवश्य भोजन करावे, पर वैश्य देव के निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराने की आवश्यकता नहीं है।
Under the procedure of Pitr Yagy, the house hold must offer food to one Brahmn for the satisfaction of the manes. For the sake of Vaeshy Dev there is no such compulsion.
अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतमेव च।
ब्राह्मयंहुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते॥[मनु स्मृति 3.73]
अहुत, हुत, प्रहुत, ब्राह्मयहुत और प्राशित, ये पञ्चयज्ञ कहलाते हैं; Ahut, Hut, Prahut, Brahmyhut and Prashit are called 5 kinds of Yagy-sacrifices.
पंचधातु :- सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा और जस्ता।
वात दोष के पांच भेद :: (1). समान वात, (2). व्यान वात, (3). उदान वात, (4). प्राण वात और (5). अपान वात हैं। वात दोष को वायु दोष भी कहते हैं।
पित्त दोष के पांच भेद होते हैं :: (1). पाचक पित्त, (2). रंजक पित्त, (3). भ्राजक पित्त, (4). लोचक पित्त और (5). साधक पित्त।
कफ दोष के पांच भेद :: (1). श्लेष्मन कफ, (2). स्नेहन कफ, (3). रसन कफ, (4). अवलम्बन कफ और (5). क्लेदन कफ।
पंचायतन पूजा :: पंचायतन पूजा में पाँच देवताओं "विष्णु, गणेश, सूर्य, शक्ति तथा शिव" का पूजन किया जाता है।
5 प्रकार की साधना ::
(1). अभाविनी :- पूजा के साधना तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जलमात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहते हैं।
(2). त्रासी :- जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से या मानसापचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।
(3). दोर्वोधी :- बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जानी वाली पूजा दाबांधी कही जाती है।
(4). सौतकी :- सूत की व्यक्ति मानसिक सन्ध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को भौतिकी कहा जाता है
(5). आतुरो :- रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ायें। फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरू तथा ब्राम्हणों की पूजा करके पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगें-ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करे तो इस साधना को आतुर कहा जाएगा। अपने श्रम का महत्व- पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है तथा अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गए साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।
पाँच प्रकार के श्राद्ध :: नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण श्राद्ध।[यम स्मृति]
5 प्रकार की साधना ::
(1). अभाविनी :– पूजा के साधन तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहा जाता है।
(2). त्रासी :– जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।
(3). दोवोर्धी :– बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा दोर्वोधी कहलाती है।
(4). सौतकी :- सूत की व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।
(5). आतुरी :: रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्य मंडल की ओर देख कर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे, ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करें तो इस पूजा को आतुरी कहा जाएगा।
गायत्री के पाँच मुख-पाँच दिव्य कोश :- अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश। पंचकोशी साधना ध्यान गायत्री की उच्च स्तरीय साधना है। पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पाँच मुख मानवीय चेतना के पाँच आवरण हैं। इनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोश या पाँच खजाने भी कह सकते हैं। मनुष्य की अन्तःचेतना में एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इनके जागने पर मानवीय सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँच जाती है और जगमगाती हुई दृष्टिगोचर होती है। [पंचकोशी साधना]
Please refer to :: पंचकोशी साधना santoshhindukosh.blogspot.com
पञ्च प्राणमय कोष :: आत्मा के 5 कोष हैं। अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनंदमय। ये पाँचों आत्मा के आवरण है और आत्मा की शक्ति से ही अस्तित्व में रहते हैं। प्राण एक ऐसी ऊर्जा है, जिससे सभी जीवधारी प्राणी जीवन पाते हैं। शरीर को चलाने के कारण इसको जीवनी शक्ति भी कहा जाता है। प्राण शरीर को स्वस्थ रखता है, कार्य की द्रष्टि से इसके 5 भाग हैं जिनको पञ्च प्राण कहा जाता है। नासिका से ह्रदय तक प्राण वायु, ह्रदय से नाभि तक समान वायु, नाभि से पैर तक अपान वायु, गर्दन से सिर तक उदान वायु व सम्पूर्ण शरीर में फैली है व्यान वायु। ये वायु इन सम्बंधित अंगों को बल देती रहती है। इनमें से जब किसी प्राण की शक्ति कम होती है तब वहाँ बीमारी आती है। प्राण को बढाने के लिए योग में प्राणायाम का वर्णन किया गया है। यही प्राण मन व इंद्रियों को गति देने का कार्य करता है। ये प्राण बड़ा शक्तिशाली है, जब तक ये शरीर के साथ होता है, जीवन रहता है, लेकिन जैसे ही ये अपनी शक्तियों को शरीर से समेटकर शरीर का साथ छोड़ देता है, उस अवस्था को मृत्यु कहा जाता है। प्राण जन्म देने में भी उतना ही सहायक है, जितना मृत्यु में। इसकी शक्ति को देखते हुए कई बार इस प्राण को ही आत्मा समझ लिया जाता है, जबकि ये तो आत्मा का एक कोष (आवरण) है। उपनिषदों में प्राण को आत्मा की छाया कहा है।पञ्च गव्य Panch Gavy :: Its a concoction prepared by mixing five products from viz. Cow's dung, urine, milk, curd and ghee.
पंचामृत Panchamrat :: Its is a mixture of cow's urine, milk, curd and Ghee with honey.
पाँच प्रकार के यज्ञ :: कर्मयज्ञ, तपयज्ञ, जपयज्ञ, ध्यान यज्ञ और ज्ञानयज्ञ।[श्री शिव उत्तरार्द्ध] पञ्च महायज्ञ ::
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:पितृ यज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो दैवो बलिभौर्तो नृयज्ञोSतिथिपूजनम्॥
पितरों का तर्पण करना, वेद का पठन-पाठन, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, होम करना, जीवों को अन्न की बलि देना और नृयज्ञ अतिथि का आदर-सत्कार करना ये ही पञ्चमहायज्ञ हैं।[मनु स्मृति 3.70]
Teaching & learning of Veds, sacrifice to the Manes, Brahmn Yagy, Pitr Yagy, Dev Yagy, offering grains-meals to organism (insects like ants, animals like cows, dogs etc.) welcoming-hospitality to the guest and offering food and drinks and the offerings to the deceased are 5 types of oblations.पञ्चाग्नि ::
पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत:।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ॥[विदुर नीति 11]
माता, पिता, अग्नि, आत्मा और गुरु इन्हें पञ्चाग्नि कहा गया है। मनुष्य को इन पाँच प्रकार की अग्नि की सजगता से सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए। इनकी उपेक्षा करके हानि होती है।
Mother, father, fire, soul & the Guru constitute Panchagni-five forms of fire. One must serve them whole heartedly. Negligence in doing so, may lead to losses.
पञ्चाग्नि :: अन्वाहार्य, पाचन, गार्हपत्य, आहवनीय और आवसथ्य। इन पञ्चाग्नियों का रूप निम्न प्रकार हैं:
द्युलोक अग्नि :- उसमें सूर्यरूपी समिधा जल रही है। उसकी किरणें धुआँ हैं, दिन उसकी लपटें हैं, चन्द्रमा अंगारे और नक्षत्र चिंगारियां हैं। उसमें देवता श्रद्धा की आहुति देते हैं, जिससे सोम (राजा) पैदा होता है।
पर्जन्य अग्नि :- वायु समिधा, अभ्र धूम, विद्युत् ज्वाला, वज्रपात अंगारे, गर्जन चिंगारियां हैं। उसमें देव सोम (राजा) की आहुति देते हैं। तब वर्षा उत्पन्न होती है।
पृथ्वी अग्नि :- सम्वत्सर समिधा, आकाश धूम, रात्रि ज्वाला, दिशा अंगारे तथा अवान्तर दिशाएं चिंगारियां हैं। इसमें देव वर्षा की आहुति देते हैं। फलत: अन्न उत्पन्न होता है।
शरीर (हमारा) अग्नि :- वाक् उसकी समिधा, प्राण धूम, जिह्वा ज्वाला, चक्षु अंगारे, श्रोत्र चिंगारियां हैं। उसमें देव अन्न की आहुतियां देते हैं। जिससे वीर्य उत्पन्न होता है।
स्त्री देह अग्नि :- उसकी समिधा उपस्थ, उपमन्त्रण धूम, योनि ज्वाला, मैथुन अँगारे और आनन्द चिंगारियाँ हैं। इससे गर्भ उत्पन्न होता है। यहाँ श्रद्धारूपी जल देह में रूपान्तरित होता है। शरीर उत्पन्न होता है।
मृत्यु काल में प्राणाग्नि के निकल जाने से शीतल शरीर को अग्नि (पञ्चमहाभूत) के हवाले कर दिया जाता है। अग्नि आत्मा को वहीं ले जाता है, जहाँ से वह आया था।
साधन पञ्चक :: परमात्मा ने 5 बातें अर्जुन को कहीं, जिन्हें साधन पञ्चक भी कहा जाता है और 2 विभागों में बाँटा गया है। (1). भगवान् के साथ घनिष्टता और (2). संसार के साथ सम्बन्ध विच्छेद। (1.1). साधक (व्यक्ति, भक्त), जप, कीर्तन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्मों को और वर्णाश्रम धर्म, देश, काल, परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त लौकिक कर्मों को केवल प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करता है। (1.2). जो व्यक्ति परमात्मा को ही परमोत्कृष्ट समझकर, केवल उनके परायण रहता है और उन्हें ही परम ध्येय, परम आश्रय, परम प्रापणीय मानता है। (1.3). जो समस्त देश, काल, परिस्थितियों में केवल परमात्मा की ही भक्ति करता है और केवल उन्हीं से प्रेम करता है। (2.1). उसकी संसार में आसक्ति, ममता और कामना नहीं है। उसका प्रभु के साथ अनन्य प्रेम है। उसमें राग का अभाव है। (2.2). उसके ह्रदय में किसी के भी प्रति किञ्चित मात्र का द्वेषभाव नहीं है। इस प्रकार का व्यक्ति परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है अर्थात प्रभु को तत्व से जानता है, दर्शन प्राप्त कर लेता है और उन्हें प्राप्त भी कर लेता है। जिस उद्देश्य के लिये उसका जन्म हुआ था, वह पूरा हो जाता है। इन सब की प्राप्ति हेतु मनुष्य को अपनी चिन्तन शक्ति और दृष्टि को परमात्मा के सिवाय किसी अन्य में नहीं लगाना चाहिये।
The Almighty told 5 things to Arjun, which are called Sadhak Panchak (5 resolves, determination, Vows, Notion, Conviction, Conception of the practitioner-devotee). They have been subdivided into two groups. (1.1). Pronunciation of God's names, recitation, meditation-concentration, auspicious-holy company, self study of scriptures-holy text, performance of deeds pertaining to the Almighty, following Varnashram Dharm, performances of duties for the pleasure-happiness of the God irrespective of the location, time and situation. (1.2). To remain devoted to the Almighty by considering HIM to be Ultimate goal, shelter and attainable. (1.3). To remain devoted to HIM and love HIM only. (2.1). One is not attached to the world, has no desires or attachments. (2.2). He has no enmity for any one. One who posses these qualities can see the God. He knows the God through gist, sees HIM and attains HIM, assimilate in HIM i.e., achieves Salvation. The goal of his birth is accomplished. To achieve this goal one should not put his thoughts and vision to any other entity.
पञ्चवर्ग :: अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना, ये पाँच प्रकृतियाँ ही पञ्चवर्ग हैं।
नौकर-चाकरों का विभाजन भी पाँच प्रकार का है :: (1). कपाटिक :- जो कपटी हो, दूसरे के मर्म को जानने वाला हो और अपने वेश को छिपाने में माहिर-प्रवीण हो; ऐसे चतुर व्यक्ति के साथ एकान्त में सलाह, मशवरा, आदेश करे या सन्देश ग्रहण करे, (2). उदास्थित :- भ्रष्ट सन्यासी के वेश-रूप में हो। उसे वैरी तथा प्रजा का सच्चा भेद देने के लिये नियुक्त करके, राजा एकान्त में उससे सभी भेदों को जाने; (3). गृहस्थ :- जो साधारण स्थिति का होने पर भी चतुर पवित्रात्मा हो, राजा उसकी वृत्ति निश्चित कर अपन गुप्तचर नियुक्त करे, (4). वाणिजक :- जिस बनिये के पास पूंजी न हो, मगर व्यापार करने में चतुर हो, उसे धन देकर व्यापार के बहाने अपने देश में या अपने देश के बाहर भेजकर उसके द्व्रारा गुप्त भेद-सूचनाएँ प्राप्त करे, और (5). तापस :- जो सन्यासी नीतिज्ञ हो और जीविका से हीन हो, उसे वृत्ति देकर उसे अपना गुप्त दूत नियुक्त करे और वह अपने कपटी शिष्यों के साथ त्रिकालज्ञ बना हुआ राजा के प्रति लोगों के मनोभावों को जानकर एकान्त में राजा से कहे।
सिद्धि के पाँच हेतु :: क्रिया मेंअधिष्ठान, कर्ता (कर्तव्य-कर्तव्याभिमान), करण, चेष्टा और दैव।
भक्ति के पाँच भाव :: वात्सल्य, श्रृंगार, शान्त, दास और सख्य।
पाँच क्लेश :: अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश। 5 अँगुलियाँ प्रतीक हैं :- (1). कनिष्ठिका (बुध पर्वत) जल तत्व, (2). अनामिका (सूर्य पर्वत) पृथ्वी तत्व, (3).मध्यमा (शनि पर्वत) आकाश तत्व, (4). तर्जनी (वृहस्पति पर्वत) वायु तत्व और (5). अंगुष्ठ (शुक्र पर्वत) अग्नि तत्व।
5 जगह हँसना करोड़ों पाप के बराबर है :- श्मशान में, अर्थी के पीछे, शोक में, मन्दिर में और कथा में बगैर प्रसंग।
प्रारब्ध DESTINY ::
आयु: कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पंचैतानि हि स्रजयन्ते गर्भस्थस्यैव देहिन:॥[चाणक्य नीति 4.1]
व्यक्ति कितने साल जीयेगा, वह किस प्रकार का काम करेगा, उसके पास कितनी संपत्ति और शिक्षा-ज्ञान होगा और उसकी मृत्यु कब होगी; ये बातें माता के गर्भ में ही निश्चित हो जाती हैं।
One's age, profession, finance-wealth, education and death are predestined.
These five are fixed the moment soul enters the womb to take shape as a child.
पाँच चीज़ें आदमी के पैदा होते ही विधाता उसके भाग्य में लिख देता है :- आयु, कर्म, धन, विद्या और यश।[बैताल पचीसी]
पाँच वस्तुएँ, जो अपवित्र होते हुए भी पवित्र हैं ::
उच्छिष्टं शिवनिर्माल्यं वमनं शवकर्पटम्।
काकविष्टा ते पञ्चैते पवित्राति मनोहरा॥
(1). उच्छिष्ट :- गाय का दूध पहले उसका बछड़ा पीकर उच्छिष्ट करता है। फिर भी वह पवित्र माना जाता है और भगवान् शिव पर चढ़ता है।
(2) शिव निर्माल्यं :- गँगा जी का अवतरण स्वर्ग से सीधा भगवान् शिव के मस्तक पर हुआ। यद्यपि भगवान् शिव पर चढ़ायी हुई हर चीज़ निर्माल्य है, तथापि गंगाजल पवित्र है।
(3). वमन-उल्टी :- मधुमख्खी जब फूलों का रस लेकर अपने छत्ते पर आती है, तब वो अपने मुख से उस रस की शहद के रूप में उल्टी करती है, जो पवित्र कार्यों में उपयोग किया जाता है।
(4). शव कर्पट :- धार्मिक कार्यों को सम्पादित करने के लिये पवित्रता की आवश्यकता रहती है, रेशमी वस्त्र को पवित्र माना गया है, पर रेशम को बनाने के लिये रेशमी कीडे़ को उबलते पानी में डाला जाता है ओर उसकी मौत हो जाती है उसके बाद रेशम मिलता है तो हुआ शव कर्पट फिर भी पवित्र है ।
(5). काक विष्टा :- कौवा पीपल पेड़ों के फल खाता है ओर उन पेड़ों के बीज अपनी विष्टा में इधर-उधर छोड़ देता है, जिसमें से पेड़ों की उत्पत्ति होती है। पीपल काक विष्टा से उगता है, फिर भी पवित्र है।
SIGNIFICANCE OF 6 का महत्त्व ::
कुत्ते से 6 बातें सीखें :-
बह्वाशी स्वल्प सन्तुष्ट: सुनिद्रो लघुचेतन:।
स्वामीभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणा:॥[चाणक्य नीति 6.21]
बहुत भूख हो पर खाने को कुछ ना मिले या कम मिले तो भी संतुष्ट रहना, संतोष करना, गाढ़ी नींद में हो तो भी क्षण भर में उठ जाना, स्वामी के प्रति वफ़ादारी और निडरता कुत्ते से सीखनी चाहिये।[चाणक्य नीति 6.21] One can acquire six characters from a dog :- (1). It can digest large quantities of food, (2). It remains content-satisfied with whatever it has to eat, (3). It has a sound sleep-deep slumber, (4). It is alert enough to be awake with the slightest sound-noise, (5). Its faithful-unflinching devotion to his master and (6). It attacks the enemy with full strength and bravery.
One should always avoid too much food since consumption of excess food makes him lethargic, lazy and fat-bulky. Such people sleep for longer hours and avoid-shirk work. Their capacity to do work becomes quite low as compared to others. They loss charm, attraction to women and acquire impotency as well. Employers seldom like such people, specially in army, security and police. One should not expect them to fight.
A slim trim person is welcome every where specially in females. He is attractive, smart, energetic, dashing, full of energy, charm, strength and vigour.
शरीर में 6 प्रकार के विकार Defects in the body :- उत्पन्न होना, बदलना, सत्तावान दिखना, बढ़ना, धटना और नष्ट होना।
The organism is associated with 6 types of defects-activities :- Birth-coming to existence, change, physical presence, growth, decay (recede, reduce) & destruction (vanish, elimination, death.
6 बिना आग के जलाने वाले :-
कुग्रामवास: कुलहीन सेवा कु भोजनं क्रोध मुखी च भार्या।
पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निना षट् प्रदहन्ति कायम्॥
ऐसे गाँव में रहना जहाँ मूल सुविधाएँ न हों, नीच कुल में पैदा हुए व्यक्ति की नौकरी करना, अस्वास्थय्वर्धक भोजन का सेवन, पत्नी का हरदम गुस्से में रहना, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री व्यक्ति को बिना आग के ही जलाती हैं।[चाणक्य नीति 4.8]
A place which is devoid of source of income, earning and the tendency of the residents of a particular place not to cooperate-help each other, service of a down trodden (unworthy, wretched person, one born in a low caste family), stale (spoiled, unhealthy, tasteless food), quarrelsome wife, foolish (moron, idiot) son and widowed daughter are the six parameters which keeps a person worried, restless, tense each and every moment. This is like burning without fire. [Read this with Shlok 1.8]
Sources of earning are meagre in villages and due to this reason, villagers are migrating to cities and abroad. Highly qualified, genius are forced to migrate abroad, due to reservation. Civic society is essential for the residents of a place-cluster for cultural-social programs, celebrations including death. Mutual cooperation is desirable-a must. But the urbanisation has brought the evil of aloofness along with it. Its very difficult to find out whether a person is right, genuine, correct or not, one should have or enjoy his company or not. Stale food invite disease-illness and quarrelsome wife keep the husband tense (haunted-bothered). Idiot-moron son bring uninvited trouble and widowed daughter becomes unmanageable and wicked people keep flocking in and around the house.
During the last 77 years there is huge quantum of migration by the highly qualified, skilled, learned professional, engineers, doctors etc. for want of suitable jobs both in private and government sector. The scenario is worst in government jobs due to reservation where scheduled castes, scheduled tribes, so called Dalits, back wards snatch jobs without merit. Continuous inflow of infiltrators from Bangla Desh, Myanmar-Burma and Pakistan has also resulted in an nonuniform society. The urban society is grossly un homogeneous.
India's richest businessmen, person in highest positions are so called Dalits.
The worst possible thing is that those Swarn Hindus who voted Modi to power have to bear the brunt of this situation-policy. Now they are talking of caste wise census. Britishers followed the policy of "लड़ाओ और राज्य करो। भारतीय राजनीति बाज़ बाँटो और राज्य करो की नीति में यकीन करते हैं"। सबसे बुरी बात तो यह है कि RSS भी इसका समर्थन करती है। जब संविधान में सब बराबर हैं तो आरक्षण, जातीय जनगणना किस लिए और क्यों!?
छः सच्चे हितैषी और बांधव :-
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शांति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम् बान्धवा:॥
सत्य ही हमारी माता, ज्ञान ही पिता, धर्म ही हमारा भाई, दया ही मित्र, शांति ही हमारी पत्नी, क्षमा ही पुत्र है। ये छः ही सच्चे हितैषी और बांधव भी हैं।
Truth is our mother, enlightenment-learning is father, Dharm is our brother, pity is friend, peace is wife and pardon is son. These are true well wishers and relatives.
छः तकलीफें-परेशानियाँ :-
कांतावियोग: स्वजनापमानो ऋणस्य शेषं कुन्रपस्य सेवा।
दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥[चाणक्य नीति 2.14]
पत्नी का वियोग होना, अपने ही लोगों से बेइज्जत होना, बचा हुआ ऋण, दुष्ट राजा की सेवा करना, गरीबी एवं दरिद्रों की सभा; ये छह बातें शरीर को बिना अग्नि के ही जला देती हैं।
Six troubles (pains, sorrow, grief, difficulties loan, wicked ruler); burn the body without fire :- separation-isolation from wife, insult from his own family members-relatives, failure to repay debt, service of a cruel (torturous, intolerable, wicked master, incapable, incompetent head-specially women and scheduled caste), surviving under poverty (subsistence, money not enough to meet basic needs) and the company of fools (wicked, imprudent, morons, duffers-unintelligent people).
Its true but one should not continue living with grief-pain if he has to survive. He must make endeavours to come out of this sickness-trauma as early as possible and strive again for betterment. Its a phenomenon which is cyclic in natures. If good days are not there, so will be the bad tenure. One must not lose courage & moral.
Destiny is just one factor with one in the life, but deeds-endeavours, continued efforts made simultaneously and accumulated pious deeds shapes the future. Never be afraid or disheartened by the hurdles, pains, difficulties keep on working prudently, wisely and the success is yours.छः अवगुण-पतन का कारण :-
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता॥117॥
छः अवगुण व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं :- नींद, तन्द्रा, डर, गुस्सा, आलस्य और काम को टालने की आदत।
Six bad habits lead to one downfall :- sleep, drowsiness, fear, anger, laziness and avoiding work.
Eight hours of sleep is essential for every human being.
6 अवगुण तामसिकता ::
अत्यन्तकोप: कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीच प्रसंग: कुलहीनसेवा, चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्॥
अत्याधिक क्रोध, कठोर वचन, निर्धनता-दरिद्रता, अपने ही संबंधियों से शत्रुता, नीच लोगों से सम्बन्ध-मैत्री और कुलहीन की नौकरी-चाकरी, सेवा मनुष्य में ये अवगुण तामसिकता के प्रतीक हैं और उसे पृथ्वी पर ही नर्क का अनुभव कराते हैं।[चाणक्य नीति 7.16]तामसिक :: तमोगुण संबंधी, अंधकार संबंधी; vengeful, vindictive.
These bad habits of the denizens of hell may characterise men on earth; extreme wrath, harsh speech, enmity with one's relations, poverty, the company with the wretched, criminals, base and service to men of low origin.
There are 6 Tamsik characters possessed by human beings, which make them experience the troubles, tortures, difficulties, tensions, pains, grief, sorrow of hell on the earth :- (1). Extreme anger-fury, (2). Speaking bitter, acrid, pungent, sharp, brackish, displeasing, coarse, crude, (3). Poverty, (4). Anonymity with own people-relatives, (5). Company of the wretched, criminals, degraded, depraved, discarded, terrorists, murders, (6). Serving a person of low origin-low caste.
One must desist from acquiring any one of them. Those who have these bad qualities-tendencies, must try to get rid of them.6 सुख :-
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्व रांगना।
विभवो दानशक्तिश्च नाSल्पस्य॥[चाणक्य नीति 2.2]
भोजन के योग्य पदार्थ और भोजन करने की क्षमता, सुन्दर स्त्री और उसे भोगने के लिए काम शक्ति, पर्याप्त धनराशि तथा दान देने की भावना, ऐसे संयोगों का होना तप और पूर्वजन्मों के श्रेष्ठ कर्मों का फल है।पूर्वजन्म के तप या पुण्य फल के प्रभाव से ही कुछ लोगों को 6 तरह का सुख मिलता है।
Availability of quality-good food & ability to eat and digest it, beautiful woman and capability-potency to enjoy sex-mating with her, enough money to survive and desire for charity-donations, social welfare; presence of such combinations-chances are not the result-out come of asceticism, austerities, Tapasya.
Its believed that availability of eatables and capacity to eat and digest, passionate-sensual nature and libido-power to have sex along with availability of women for sex, wealth and tendency to donate are God gifts possessed by one, are either due to the deeds in previous births-incarnations or asceticism. One has to make efforts to attain these.
One comes across people in society who have plenty of every thing to eat, but they suffer either from indigestion or have no teeth.
खाना तो है, परन्तु दाँत नहीं हैं।
On the contrary one is healthy, possessed with power to digest but has nothing or very little to eat. There are people all around us, who have plenty of wealth but they either do not utilise it or are not in a position to use it. Misers keep on collecting and die without utilising.
जोड़-जोड़ मर जायेंगे माल जमाई खायेंगे।
Tendency to put the wealth to proper use or to donate for charity are blessed by the Almighty, depending upon accumulated deeds in previous births-rebirths.
One has to make endeavours to attain something and then put these to judicious use. Those who get opportunities, wealth left behind by the ancestors may not prove fit for them.
शत्रु से सताये जाने पर नीति गत 6 गुण ::
संधिं च विग्रहं चैव यानमासनमेव च।
द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥
सन्धि (मेल-मिलाप), विग्रह, (विरोध), यान (शत्रु के देश पर चढ़ाई करना), आसन (उपेक्षण), द्वैधीभाव (बल का दो भागों में बाँटना) और संश्रय (शत्रु से सताये जाने पर प्रबल राजा का आश्रय लेना), इन छः गुणों को सदा सोचना चाहिये।[मनु स्मृति 7.160]
The king should always keep six tenants of policy measures pertaining to the enemy :: (1). Compromise, treaty, alliance, (2). opposition, repulsion, retaliation, defeating in the war field, (3). attacking the enemy, (4). halting, stalling, stance, repulsion or just ignoring, (5). division of the army into two segments and (6). seeking help-protection from a strong ally in case of being troubled.
6 प्रकार के उपकार न मानने वाले :-
षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम्।
आचार्यं शिक्षिता: शिष्या: कृतदाराश्च मातरम्॥
नारीं विमतकामास्तु कृतार्थाश्च प्रयोजकम्।
नावं निस्तीर्णकान्तारा आतुराश्च चिकित्सितम्॥
छः प्रकार के व्यक्ति प्राय: उपकार करने वाले को सदा ही हीन दृष्टि से देखते हैं। आचार्य को पढ़े हुए शिष्य, माता को विवाहित पुत्र, पत्नी को जिसकी कामेच्छा नष्ट हो गई है, वे पुरुष जिनको कार्य में लगाने वाले का प्रयोजन सिद्ध हो गया है, नौका से जल को पार करते हुए लोग और चिकित्सा करने वाले को आतुर स्वस्थ होकर।[विदुर नीति 98-99]
हीन दृष्टि से देखना :: look down.
उपकारी :: conducive helpful, benefactor.
These six category of people look down the benefactor with thanklessness :- (1). the student to his teacher after the completion of his education, (2). married son to his mother, (3). husband to his wife whose desire for sex is lost, (4). the employer to his workers who are no more needed, (5). the travellers to the boatman having crossed the river & (6). the patient to the doctor.
ध्यान न देने से नष्ट वाली होने वाली 6 चीजें :-
षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्त्तमनवेक्षणात्।
गाव: सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसंगति:॥
गौवें, सेवा, भृत्यों पर आश्रित कार्य, खेती, स्त्री, विद्या और नीच पुरुष की संगति; ये छ: थोड़ी देर भी ध्यान न देने से नष्ट हो जाती हैं।[विदुर नीति 97]
These six things destroy a person due to negligence of :- (1). cows, (2). servants, (3). agriculture dependent over servants, (4). women, (5). education & (6). the company of wicked-evil minded person.
6 प्रकार के मनुष्य :-
षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौरा: प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सका:॥
प्रमदा: कामयानेषु यजमानेषु याजका:।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिता:॥
छ: प्रकार के पुरुष छ: प्रकार के आश्रय पर ही जीवनयापन करते हैं, सातवाँ ऐसा नहीं मिलता जो किसी अन्य के आश्रय पर जीवन बिताता हो। चार लोग प्रमादी पुरुष के आश्रय पर जीते हैं, प्रमाद न करें तो चोरों को चोरी करने का अवसर न मिले। रोगियों के आश्रय पर वैध जीते हैं, यदि लोग स्वस्थ रहें तो चिकित्सक का जीवन यापन कठिन हो जायेगा। स्त्रियाँ कामी पुरुषों के आश्रय पर जीती हैं, यदि पुरुष जितेन्द्रिय हो तो दुराचारिणी स्त्रियों की जीविका ही न रहे। यज्ञ करने वालों के आश्रय पर याजक ऋत्विक लोग जीवन यापन करते हैं, यदि यज्ञ क्रिया का लोप हो जावे तो ऋत्विक भी न रहें। राजा प्रजा में लड़ाई-बखेड़ा होने पर ही जीवन धारण करता हैं, यदि मनुष्यों में सदा सौमनस्य होम, किसी प्रकार का विवाद ही पैदा न हो तो राजा की भी आवश्यकता न रहे और मूर्खों के आश्रय विद्वान् जीते है। यदि सभी मूर्ख बुद्धिमान बन जायें तो विद्वान् की पूछ ही न रहे।[विदुर नीति 95-96]
प्रमादी :: सुस्त, लापरवाह, ग़ाफिल, प्रमादी, उपेक्षाकारी; fanatic, negligent, lax, blunderer.
Six types of humans survive by virtue of six kinds of humans. The seventh type is not available who depend over others. Four people survive through fanatics. Lack of negligence will not provide an opportunity to the thieves. The doctors survive over the ill health of the patients. The women survive over the passionate-lascivious. If the male has control over him the characterlessness-lasciviousness woman will loss their living. The priests survive over those who perform Yagy-Hawan, holy sacrifices in fire. The king is essential due to mutual conflicts of masses-subjects. If there are no differences between the populace, there is no need for the rulers. The intelligentsia survive over the duffers, idiots, ignorant, morons. If every one become intelligent-prudent, there will be no respect-demand for the learned-scholars.
6 सांसारिक सुख :-
अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥
इस जीव लोक के छ: सुख हैं :- (1). धन की प्राप्ति, (2). सदा स्वस्थ रहना, (3). प्रिय भार्या, (4). प्रिय बोलने वाली भार्या, (5). वश में रहने वाले पुत्र और (6). मनोरथ पूर्ण कराने वाली विद्या अर्थात् इन छ: से संसार में सुख उपलब्ध होता है।[विदुर नीति 94]
These are six worldly pleasures :- (1). accumulation of wealth-worldly possessions, (2). good health-not to fall ill, (3). lovely wife, (4). the wife who speaks descent words, (5). the son who is obedient & (6). the education which helps in attaining desired.
त्याज्य 6 व्यक्ति :-
षडिमान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्॥
जैसे समुद्र में टूटी नौका को छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार आगे कहे गये छ: व्यक्तियों को छोड़ देवे :- (1). न पढ़ाने वाले गुरु को, (2). स्वाध्याय न करने वाले को, (3). रक्षा न करने वाले राजा को, (4). अप्रिय बोलने वाली पत्नी को, (5). ग्राम की इच्छा रखने वाले चरवाहे को और (6). वन की इच्छा रखने वाले नाई को।विदुर नीति 93]
The way-manner the broken ship is deserted in the ocean these six should also be rejected :- (1). a teacher who do not teach, (2). one who avoid self studies of (Veds, scriptures, history, epics), (3). the king-state which do not protects the subjects, (4). the wife who talks nonsense, absurd and oppose the husband, (5). the shepherds who wish to reside in villages & (6). the barber who wants to remain in the forests.
छ: तरह के दुःखी लोग ::
ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः॥
ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला, ये छ: तरह के लोग संसार में सदा दुःखी रहते हैं।[विदुर नीति]
These six category of people are always worried-perturbed :- envious, one who hate others, dissatisfied (absence of contentedness), furious-angry, one who always doubt others and the one who depend over others for his survival.
त्याज्य छ: दोष ::
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥12॥
कल्याण अथवा उन्नति चाहने वाले मनुष्य को निद्रा, तन्द्रा (ऊँघना; somnolence, lethargy, somnolence) भय, क्रोध आलस्य और दीर्घ सूत्रता (जल्दी हो जाने वाले कामों में अधिक समय लगाने की आदत), ये छ: दोष त्याग देने चाहिए।[विदुर नीति]
One who want his welfare-progress must reject these six bad habits :- too much sleep, letharginess, fear, anger, laziness and tendency to prolong a certain job.
Eight hours of sleep is essential for every human being.
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
छः अवगुण व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं :- नींद, तन्द्रा, डर, गुस्सा, आलस्य और काम को टालने की आदत।
Six bad habits lead to one downfall :- sleep, drowsiness, fear, anger, laziness and avoiding work.
सेना के छः भेद ::
भगवान् श्री राम कहते हैं :- छः प्रकार की सेना को कवच आदि से संनद्ध एवं व्यूह बद्ध करके इष्ट देवताओं की तथा संग्राम सम्बन्धी दुर्गा आदि देवियों की पूजा करने के पश्चात् शत्रु पर चढ़ाई करे। मौल, भृत, श्रेणि, सुहृद्, शत्रु तथा आटविक इष्ट ये छः प्रकार के सैन्य*6(2) हैं।
**6(2)मूलभूत पुरुष के सम्बन्धों से चली जाने वाली वंश परम्परागत सेना मौल कही गयी है। आजीविका देकर जिसका भरण-पोषण किया गया हो, यह भृत बल है। जनपद के अन्तर्गत जो व्यवसायियों तथा कारीगरों का संघ है, उनकी सेना श्रेणियल है। सहायता के लिये आये हुए मित्र की सेना सुहृद्बल है। अपनी दण्ड शक्ति से वश में की गई सेना शत्रुबल है तथा स्वमण्डल के अन्तर्गत अटवी (जंगल) का उपभोग करने वालों को आटविक कहते हैं। उनकी सेना आटविक बल है।
इनमें पर की अपेक्षा आदि पूर्व-पूर्व सेना श्रेष्ठ कही गयी है। इनका व्यसन भी इसी क्रम से गरिष्ठ माना गया है।[राम नीति]
बलाबल सेना के छः अङ्ग :: पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी सवार, ये सेना के चार अङ्ग हैं; किंतु मन्त्र और कोष, इन दो अङ्गों के साथ मिलकर सेना के छः अङ्ग हो जाते हैं।[राम नीति]
सेनाओं की 6 छावनी :: सेना की छावनी कहाँ और कैसे पड़नी चाहिये, इस बात को जो जानता है तथा भले-बुरे निमित्त (शकुन) का ज्ञान रखता है, वह शत्रु पर विजय पा सकता है। (1). स्कन्धावार (सेना की छावनी) के मध्य भाग में खजाने सहित राजा के ठहरने का स्थान होना चाहिये। (2). राज भवन को चारों ओर से घेरकर क्रमश: मौल (पिता-पितामह के काल से चली आती हुई मौलिक सेना), (3). भृत (भोजन और वेतन देकर रखी हुई सेना), (4). श्रेणि (जनपद निवासियों का द्विषद्बल अथवा कुविन्द आदि की सेना), (5). मित्र सेना, द्विषद्बल (राजा की दण्ड शक्ति से वशीभूत हुए सामन्तों की सेना) तथा (6). आटविक (वन्य प्रदेश के अधिपति की सेना), इन सेनाओं की छावनी डाले।
(राजा और उसके अन्तःपुर की रक्षा की सुव्यवस्था करने के पश्चात्) सेना का एक चौथाई भाग युद्ध सज्जा से सुसज्जित हो सेनापति को आगे करके प्रयत्नपूर्वक छावनी के बाहर रात भर चक्कर लगाये। वायु के समान वेगशाली घोड़ों पर बैठे हुए घुड़सवार दूर सीमान्त पर विचरते हुए शत्रु की गतिविधि का पता लगायें। जो भी छावनी के भीतर प्रवेश करें या बाहर निकलें, सब राजा की आज्ञा प्राप्त करके ही वैसा करें।[राम नीति]
न छोड़ने योग्य छः गुण MAINTAIN 6 VIRTUES ::
षड् गुणा: पुरुषेणेह त्यक्तव्या न कदाचन।
सत्यं दानम् अनालस्यम् अनसूया क्षमा धॄति:॥79॥
इस छः गुणों को व्यक्ति को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए :- सत्य, दान, तत्परता, दूसरों में दोष न देखने की प्रवृत्ति, क्षमा और धैर्य।
One should never give up these six qualities :- Truth, Charity, Promptness, not finding faults in others, Forgiveness and Patience.
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः॥13॥
मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य; इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।[विदुर नीति]
One must not reject these six virtues :- truth, charity-donation, dedication to work, not to point out other's weaknesses, pardon and patience.
कूटनीति के 6 गुण :: संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय; इन छहों गुणों के यथा समय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा?[भगवान् श्री कृष्ण और नारद जी संवाद, महाभारत]
परिवार सम्बन्धी 6 गुण :-
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः॥
एक धार्मिक-भद्र पुरुष के लिये सत्य माता, अध्यात्मिक ज्ञान पिता, धर्माचरण बंधु, दया मित्र, शांति पत्नी और क्षमा पुत्र के समान हैं और यही उसका परिवार हैं।[चाणक्य नीति 12.11]
The holy-virtuous person finds his mother in truth, father in enlightenment (learning, knowledge, education), brother in Dharm-religion, sister in mercy-pity, wife in peace (solace, tranquillity), sons in forgiveness and tolerance, these six constitute his relatives, friends, family members.
Universal brotherhood is not a new concept. It depends upon how one visualises over the things, events, developments, world around him.कुत्ते से 6 बातें सीखें :-
बह्वाशी स्वल्प सन्तुष्ट: सुनिद्रो लघुचेतन:।
स्वामीभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणा:॥
बहुत भूख हो पर खाने को कुछ ना मिले या कम मिले तो भी संतुष्ट रहना, संतोष करना, गाढ़ी नींद में हो तो भी क्षण में उठ जाना, स्वामी के प्रति वफ़ादारी और निडरता कुत्ते से सीखनी चाहिये।[चाणक्य नीति 6.21]One can acquire six characters from a dog :- (1). It can digest large quantities of food, (2). It remains content-satisfied with whatever it has to eat, (3). It has a sound sleep-deep slumber, (4). It is alert enough to be awake with the slightest sound-noise, (5). Its faithful-unflinching devotion to his master and (6). It attacks the enemy with full strength and bravery.
One should always avoid too much food since consumption of excess food makes him lethargic, lazy and fat-bulky. Such people sleep for longer hours and avoid-shirk work. Their capacity to do work becomes quite low as compared to others. They loss charm, attraction to woman and acquire impotency as well. Employers seldom like such people, specially in army, security and police. One should not expect them to fight.
A slim trim person is welcome every where specially in females. He is attractive, smart, energetic, dashing, full of energy, charm, strength and vigour.
शरीर को बिना अग्नि के जलाने वाली छह बातें ::
कांतावियोग: स्वजनापमानो ऋणस्य शेषं कुन्रपस्य सेवा।
दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥
पत्नी का वियोग होना, अपने ही लोगों से बेइज्जत होना, बचा हुआ ऋण, दुष्ट राजा की सेवा करना, गरीबी एवं दरिद्रों की सभा; ये छह बातें शरीर को बिना अग्नि के ही जला देती हैं।[चाणक्य नीति 2.14]These six troubles (pains, sorrow, grief, difficulties) burn the body without fire :- separation-isolation from wife, insult from his own family members-relatives, failure to repay debt, service of a cruel (torturous, intolerable, wicked master, incapable, incompetent head-specially women and scheduled caste), surviving under poverty (subsistence, money not enough to meet basic needs) and the company of fools (wicked, imprudent, morons, duffers-unintelligent people).
Its true but one should not continue living with grief-pain if he has to survive. He must make endeavours to come out of this sickness-trauma as early as possible and strive again for betterment. Its a phenomenon which is cyclic in natures. If good days are not there, so will be the bad tenure. One must not lose courage & moral.
Destiny is just one factor with one in the life, but deeds-endeavours, continued efforts made simultaneously and accumulated pious deeds shapes the future. Never be afraid or disheartened by the hurdles, pains, difficulties keep on working prudently, wisely and the success is yours.
कष्ट प्रदायक 6 अवगुण ::
अत्यन्तकोप: कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीच प्रसंग: कुलहीनसेवा, चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्॥
अत्याधिक क्रोध, कठोर वचन, निर्धनता-दरिद्रता, अपने ही संबंधियों से शत्रुता, नीच लोगों से सम्बन्ध-मैत्री और कुलहीन की नौकरी-चाकरी, सेवा मनुष्य में ये अवगुण तामसिकता के प्रतीक हैं और उसे पृथ्वी पर ही नर्क का अनुभव कराते हैं।[चाणक्य नीति 7.16]
These bad habits of the denizens of hell may characterise men on earth; extreme wrath, harsh speech, enmity with one's relations, poverty, the company with the wretched, criminals, base and service to men of low origin.
There are 6 characters possessed by human beings, which make them experience the troubles, tortures, difficulties, tensions, pains, grief, sorrow of hell on the earth :- (1). Extreme anger-fury, (2). Speaking bitter, acrid, pungent, sharp, brackish, displeasing, coarse, crude, (3). Poverty, (4). Anonymity with own people-relatives, (5). Company of the wretched, criminals, degraded, depraved, discarded, terrorists, murders, (6). Serving a person of low origin-low caste.
One must desist from acquiring any one of them. Those who have these bad qualities-tendencies, must try to get rid of them.छः प्रकार की हिंसक मनुष्य :: अग्नि लगाने वाला, विष देने वाला, जिसके हाथ में शस्त्र हो, धन का चुराने वाला, खेत चुराने वाला तथा स्त्री की चोरी करने वाला।[वशिष्ठ]
मदिरापान के तुल्य छः पाप कर्म ::
ब्रह्मोज्झता वेदनिन्दा कौटसाक्ष्यं सुहृद्वधः।
गर्हितानाद्ययोर्जग्धिः सुरापानसमानि षट्॥
पढ़े हुए वेद का अभ्यास न करके भुला देना, वेद की निन्दा, झूँठी गवाही देना, मित्र का वध करना, गर्हित-अखाद्य वस्तुओं का खाना, ये छः कर्म मदिरापान के समान हैं।[मनुस्मृति 11.56] Lack of practice of Veds (forgetting), depraving-slurring condemning Veds, false witness-evidence (false implicating), killing-slaying a friend, eating of discreditable-abhorrent & banned goods like meat are the six sins-offences comparable to drinking wine i.e., invite punishment meant for drinking wine.
ब्राह्मणों 6 कर्म :-
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट् कर्माणि यथाक्रमम्॥
जो ब्राह्मण अपने कर्म में संलग्न और ब्रह्मनिष्ठ हैं वे आगे कहे हुए छः कर्मों का भली भाँति अनुष्ठान करें।[मनुस्मृति 10.74] Those Brahmans who are devoted to their prescribed and mandatory duties and are absorbed in contemplating Brahma or the one self (own Spirit) should resort to the six acts which follows.
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मनः॥
अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये छः कार्य ब्राह्मणों के हैं।[मनुस्मृति 10.75] Teaching, learning-studying, performing Yagy (Hawan, sacrificing in holy fire, Agnihotr) for self & others, giving & accepting donations-charity are the six deeds listed for the Brahmans.
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः॥मनुस्मृति 10.76॥
इन छः कर्मों में तीन काम याजन (यज्ञ कराना), अध्यापन और विशुद्ध दान लेना ब्राह्मणों की जीविका है।
Out of the six deeds, three deeds viz. teaching, performing Yagy for others and accepting donations as fee-Dakshina, earned through pure means by the host, constitute the means of survival, earning, subsistence of the Brahmans.छ: बातें आदमी को हल्का करती हैं :- खोटे नर की प्रीति, बिना कारण हँसी, स्त्री से विवाद, असज्जन स्वामी की सेवा, गधे की सवारी और बिना संस्कृत की भाषा।[बैताल पचीसी]
सेना के छः अङ्ग :: पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी सवार, ये सेना के चार अङ्ग हैं; किंतु मन्त्र और कोष, इन दो अङ्गों के साथ मिलकर सेना के छः अङ्ग हो जाते हैं।
छः प्रकार के सैन्य :: मौल, भृत, श्रेणि, सुहृद्, शत्रु तथा आटविक इष्ट।मूलभूत पुरुष के सम्बन्धों से चली जाने वाली वंश परम्परागत सेना मौल कही गयी है। आजीविका देकर जिसका भरण-पोषण किया गया हो, यह भृत बल है। जनपद के अन्तर्गत जो व्यवसायियों तथा कारीगरों का संघ है, उनकी सेना श्रेणियल है। सहायता के लिये आये हुए मित्र की सेना सुहृद्बल है। अपनी दण्ड शक्ति से वश में की गई सेना शत्रुबल है तथा स्वमण्डल के अन्तर्गत अटवी (जंगल) का उपभोग करने वालों को आटविक कहते हैं। उनकी सेना आटविक बल है।
सामवेद गाने वाले छः पंक्तिपावन :-
त्रिणाचिकेत: पंचाग्निस्त्रीसुपर्ण: षडङ्गवित्।
ब्रह्मदेयात्मसन्तानो ज्येष्ठसामग एव च॥
त्रिणाचिकेन (अर्थात यजुर्वेद को पढ़कर उसमें कहे हुए व्रत को किया है) और अग्निहोत्र, त्रिसुपर्ण (ऋग्वेद का ज्ञाता या तदुक्त व्रत का व्रती) शिक्षा आदि छः अंगों का ज्ञाता तथा उसकी शिक्षा देने वाला, ब्राह्मविवाह से विधिपूर्वक ब्याही हुई स्त्री के गर्भ से उत्पन्न और आरण्यक उपनिषदों में गीयमान सामवेद का गान करने वाले, ये छः पंक्तिपावन हैं।[मनुस्मृति 3.185] (1). Trinachiken-one who had learnt Yajur Ved and observe the fasts described in it, (2). who keeps five sacred fires for carrying out Agnihotr sacred sacrifices in sacred fire, (3). Trisuparn, one who is well versed in Rig Ved, (4). follows the fasts described in it along with being the scholar of 6 Ang-organs of education and teaches them simultaneously, (5). born out of the wedding performed as per Brahmn process and (6). sings the songs-verses listed in Arnayak Upnishad of Sam Ved; is qualified to sit in the rows of Virtuous Brahmns for sacred feast of Homage to Manes, demigods-deities.
सिद्धि प्रदान करने वाले षट्कर्म :- (1). शान्ति, (2). वश्य, (3). स्तम्भन, (4). विद्वेषण, (5). उच्चाटन और (6). मारण। तन्त्र शास्त्र में ये षट्कर्म कहे गए हैं।
अग्नि के प्रकार :: (1). गार्हपत्य, (2). आहवनीय, (3). दक्षिणाग्नि, (4). सभ्य, (5). आवसथ्य और (6). औपासन छ: प्रकार हैं।[जैमिनी, मीमांसा सूत्र- हवि:प्रक्षेपणाधिकरण]षडरस :- पाचन में सहायक छह रस; मधुर, लवण, अम्ल, तिक्त, कटु और कषाय।
6 ॠतु :: शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
ज्ञान के 6 अंग :: शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
6 कर्म :: देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
6 दोष :: काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।
6 व्यक्ति सदा दुःखी रहते हैं :: (1). ईष्यालु, (2). घृणा करने वाला-घृणा परमात्मा से तत्काल अलग कर देती है, (3). क्रोधी, (4). शंकाशील, (5). दूसरों पर निर्भर रहने वाला या अपेक्षा रखने वाला तथा (6). असंतोषी।
छह दर्शन :: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा, दक्षिण मिसांसा।
षड्विनायक :: मोद, प्रमोद, सुमुख, दुर्मुख, अविघ्न, तथा विघ्नकर्ता।
शरीर 6 प्रकार के विकार :: उत्पन्न होना, बदलना, सत्तावान दिखना, बढ़ना, धटना और नष्ट होना।The organism is associated with 6 types of defects-activities :- Birth-coming to existence, change, physical presence, growth, decay (recede, reduce) & destruction (vanish, elimination, death.
SIX TYPES OF FIRE अग्नि के 6 प्रकार :: जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के (1). गार्हपत्य, (2). आहवनीय, (3). दक्षिणाग्नि, (4). सभ्य, (5). आवसथ्य और (6). औपासन छ: प्रकार हैं।
तर्पण के छः विभाग :: (1). देव-तर्पण, (2). ऋषि-तर्पण, (3). दिव्य-मानव-तर्पण, (4). दिव्य-पितृ-तर्पण, (5). यम-तर्पण और (6). मनुष्य-पितृ-तर्पण। SIX PHASES OF LIFE जीवन के छः चरण (छः विकार) :: जन्म, वृद्धि, अस्तित्व, प्रजनन, क्षय तथा विनाश; Birth, growth, existence, regeneration, decay and destruction.
छह प्रकार के अभिचार :: तंत्र शास्त्र में प्राय: छह प्रकार के अभिचारों का वर्णन मिलता है :- (1). मारण, (2). मोहन, (3). स्तंभन, (4). विद्वेषण, (5). उच्चाट्टन और (6). वशीकरण।
मारण से प्राण नाश करने, मोहन से किसी के मन को मुग्ध करने, स्तंभन से मंत्रादि द्वारा विभिन्न घातक वस्तुओं या व्यक्तियों का निरोध, स्थितिकरण या नाश करने, विद्वेषण से दो अभिन्न हृदय व्यक्तियों में भेद या द्वेष उत्पन्न करने, उच्चाटन से किसी के मन को चंचल, उन्मत्त या अस्थिर करने तथा वशीकरण से राज या किसी स्त्री अथवा अन्य व्यक्ति के मन को अपने वश में करने की क्रिया संपादित की जाती की जाती है।
इन विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को करने के लिए अनेक प्रकार के तांत्रिक कर्मो के विधान मिलते हैं; जिनमें सामान्य दृष्टि से कुछ घृणित कार्य भी विहित माने गए हैं। इन क्रियाओं में मंत्र, यंत्र, बलि, प्राण-प्रतिष्ठा, हवन, औषधि, विष प्रयोग आदि के विविध नियोजित स्वरूप मिलते हैं। उपर्युक्त अभिचार अथवा तांत्रिक षट्कर्म के प्रयोग के लिए विभिन्न तिथियों का का विधान मिलता है जैसे :- मारण के लिए शतभिषा में अर्धरात्रि, स्तंभन के लिए शीतकाल, विद्वेषण के लिए ग्रीष्म कालीन पूर्णिमा की दोपहर, उच्चाटन के लिए शनिवार युक्त कृष्णा चतुर्दशी अथवा अष्टमी आदि का निर्देश है।
अभिचार :: हनन; incantation, black magic, recourse to incantations or spells for an ulterior purpose, a spell of malign effect, employment of spells for a malevolent purpose, sorcery, a conjurer.
छः प्रकार के हिंसक मनुष्य ::अग्नि लगाने वाला, विष देने वाला, जिसके हाथ में शस्त्र हो, धन का चुराने वाला, खेत चुराने वाला तथा स्त्री की चोरी करने वाला।[वशिष्ठ]
छः प्रकार का तर्पण :: (1). देव-तर्पण, (2). ऋषि-तर्पण, (3). दिव्य-मानव-तर्पण, (4). दिव्य-पितृ-तर्पण, (5). यम-तर्पण और (6). मनुष्य-पितृ-तर्पण।
समर्थ गुरु के 6 गुण :: ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य (Opulence, grandeur, वैभव, शोभा), यश, लक्ष्मी और मधुर वाणी।
मुक्ति-मोक्ष दायक 6 कर्म ::
वेदाभ्यासस्तपोज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम्॥
वेदाभ्यास, तपस्या, ज्ञान, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा और गुरु सेवा; ये सब मुक्ति देने वाले हैं।[मनु स्मृति 12.83]
Studying the Ved, ascetics-austerities, Gyan-knowledge (knowing the Almighty), the subjugation of the organs-controlling sensualities, passions-lasciviousness, non violence and serving the Guru (elders, sages, parents, learned, Brahmans) are capable of granting Liberation to one.
मनुष्य के छः गुण ::
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शांति:पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम् बान्धवा:॥
सत्य ही हमारी माता, ज्ञान ही पिता, धर्म ही हमारा भाई, दया ही मित्र, शांति ही हमारी पत्नी, क्षमा ही पुत्र है। और ये छः ही सच्चे हितैषी और बान्धव भी हैं। स्त्रियों के छः दोष ::
पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।
स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट्॥[मनु स्मृति 9.13]
मदिरा पीना, दुष्टों की संगति, पति का वियोग, इधर-उधर घूमना, अकाल में सूतना और दूसरे के घर में रहना ये छः स्त्रियों के दोष हैं।
Drinking wine-spirituous liquor, illicit-wicked company, separation-isolation from the husband, roaming-loitering aimlessly hither & thither (rambling abroad), sleeping at odd-unseasonable hours (specially during solar & lunar eclipse) and dwelling-living in other men's house, are the six defects-causes which may ruin-spoil a woman's life.
Life becomes curse for such women who do not care for these postulates. Momentary pleasure put them into great hardships later, like slavery, prostitution & even murder.
छः प्रकार के स्त्री धन ::
अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि।
भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्॥[मनु स्मृति 9.194]
अध्यग्नि, अद्यावाहनिक, प्रीति से दिया हुआ, भाई से, माता से और पिता से दिया हुआ धन; ये छः प्रकार के स्त्री धन होते हैं।
The assets of a woman called Stri Dhan (the sixfold property of a woman), forms the gifts & money given to her prior to marriage i.e., offerings in holy fire are carried out and later a dowry, anything given to her as a token of love, in the form of money and gifts given by brother, father and the mother.
Any thing received by her during life time belongs to her. The maternal family is always ready to help her and shower gifts and money including the third generation according to their capability.
मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु ::
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योधिगच्छति।
न स पापैः कुतो नर्थैंर्युज्यते विजेतेँद्रियः॥14॥
मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु :- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की बात ही क्या है।[विदुर नीति]
One who do not indulge (controls, over power, wins) these six enemies residing in his heart (mind, innerself) :- sex, anger, greed, attachment, ego-intoxication, jealousy-envy has become stoic and do not indulge in sins. These defects can not spoil him in any way.
छ: बातें आदमी को हल्का करती हैं :- खोटे नर की प्रीति, बिना कारण हँसी, स्त्री से विवाद, असज्जन स्वामी की सेवा, गधे की सवारी और बिना संस्कृत की भाषा।[बैताल पचीसी।
छः गुण ::
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः॥[विदुर नीति 13]
मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य; इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।
One must not reject these six virtues :- truth, charity-donation, dedication to work, not to point out other's weaknesses, pardon and patience.
छः शत्रु ::
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योधिगच्छति।
न स पापैः कुतो नर्थैंर्युज्यते विजेतेँद्रियः॥[विदुर नीति 14]
मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु :- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की बात ही क्या है।
One who do not indulge (controls, over power, wins) these six enemies residing in his heart (mind, innerself) :- sex, anger, greed, attachment, ego-intoxication, jealousy-envy has become stoic and do not indulge in sins. These defects can not spoil him in any way.
छ: सदा दुःखी ::
ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः॥[विदुर नीति 15]
ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला, ये छ: तरह के लोग संसार में सदा दुःखी रहते हैं।
These six category of people are always worried-perturbed :- envious, one who hate others, dissatisfied (absence of contentedness), furious-angry, one who always doubt others and the one who depend over others for his survival.
षडिमान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्॥[विदुर नीति 93]
जैसे समुद्र में टूटी नौका को छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार आगे कहे गये छ: व्यक्तियों को छोड़ देवे :- (1). न पढ़ाने वाले गुरु को, (2). स्वाध्याय न करने वाले को, (3). रक्षा न करने वाले राजा को, (4). अप्रिय बोलने वाली पत्नी को, (5). ग्राम की इच्छा रखने वाले चरवाहे को और (6). वन की इच्छा रखने वाले नाई को।
The way-manner the broken ship is deserted in the ocean these six should also be rejected :- (1). a teacher who do not teach, (2). one who avoid self studies of (Veds, scriptures, history, epics), (3). the king-state which do not protects the subjects, (4). the wife who talks nonsense, absurd and oppose the husband, (5). the shepherds & (6). the barber who wants to remain in the forests.
अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥
[विदुर नीति 94]
इस जीव लोक के छ: सुख हैं :- (1). धन की प्राप्ति, (2). सदा स्वस्थ रहना, (3). प्रिय भार्या, (4). प्रिय बोलने वाली भार्या, (5). वश में रहने वाले पुत्र और (6). मनोरथ पूर्ण कराने वाली विद्या। अर्थात् इन छ: से संसार में सुख उपलब्ध होता है।
These are six worldly pleasures :- (1). accumulation of wealth-worldly possessions, (2). good health-not to fall ill, (3). lovely wife, (4). the wife who speaks descent words, (5). the son who is obedient & (6). the education which helps in attaining desired.
षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौरा: प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सका:॥[विदुर नीति 95]
प्रमदा: कामयानेषु यजमानेषु याजका:।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिता:॥[विदुर नीति 96]
छ: प्रकार के पुरुष छ: प्रकार के आश्रय पर ही जीवनयापन करते हैं, सातवाँ ऐसा नहीं मिलता जो किसी अन्य के आश्रय पर जीवन बिताता हो। चार लोग प्रमादी पुरुष के आश्रय पर आदि जीते हैं, प्रमाद न करें तो चोरों की चोरी करने का अवसर न मिले। रोगियों के आश्रय पर वैध आदि जीते हैं, यदि लोग स्वस्थ रहें तो चिकित्सक का जीवनयापन कठिन हो जायेगा। स्त्रियाँ कामी पुरुषों के आश्रय पर जीती हैं, यदि पुरुष जितेन्द्रिय हो तो दुराचारिणी स्त्रियों की जीविका ही न रहे। यज्ञ करने वालों के आश्रय पर याजक ऋत्विक लोग जीवन यापन करते हैं, यदि यज्ञ क्रिया का लोप हो जावे तो ऋत्विक भी न रहें। राजा प्रजा में लड़ाई-बखेड़ा होने पर ही जीवन धारण करता हैं, यदि मनुष्यों में सदा सौमनस्य होम, किसी प्रकार का विवाद ही पैदा न हो तो राजा की भी आवश्यकता न रहे और मूर्खों के आश्रय विद्वान् जीते है। यदि सभी मूर्ख बुद्धिमान बन जायें तो विद्वान् की पूछ ही न रहे।
प्रमादी :: सुस्त, लापरवाह, ग़ाफिल, प्रमादी, उपेक्षाकारी; fanatic, negligent, lax, blunderer.
Six types of humans survive by virtue of six kinds of humans. The seventh type is not available who depend over others. Four people survive through fanatics. Lack of negligence will not provide an opportunity to the thieves. The doctors survive over the ill health of the patients. The women survive over the passionate-lascivious. If the male has control over him the characterless woman will loss their living. The priests survive over those who perform Yagy-Hawan, holy sacrifices in fire. The king is essential due to mutual conflicts of masses-subjects. If there are no differences between the populace, there is no need for the rulers. The intelligentsia survive over the duffers, idiots, ignorant, morons. If every one become intelligent-prudent, there will be no respect-demand for the learned-scholars.
प्राणी रचना के 6 घटक ::
महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।
विषयाणां ग्रहीत्रणी शनैः पंचेन्द्रियाणि च॥1.15॥
फिर परमात्मा ने आत्मस्वरूप ज्ञानार्थ मनुष्य के शरीर में (आत्मा के साथ-साथ), बुद्धि, त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम), विषयग्राही पाँचों इन्द्रियाँ को बनाया।[मनुस्मृति 1.15]
Thereafter, the Almighty created intelligence to understand-realise the self, the 3 characteristics-qualities (Satv, Raj and Tam) and the five sense organs in the body-physique along with the soul. Various organism were composed by using different proportions of these basic components by the Almighty.
तेषां त्ववयवान्सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम्।
सन्निवेश्याSSत्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे॥1.16॥
फिर अत्यन्त तेजस्वी इन छहों तत्वों के सूक्ष्म अवयवों को उन्हीं के सूक्ष्म विकारों में न्यास करके सभी प्राणियों की रचना की।[मनुस्मृति 1.16]
Then he developed all living beings by using these highly energetic six components-elements, synthesising within themselves, through their extremely small-microscopic defects, properties-characteristics. Slightest variation in the 6 basic proportions create a new living being-organism.
SIGNIFICANCE OF 7 का महत्त्व ::
सात मर्यादा Seven decorum :: ब्रह्म हत्या, सुरापान, चोरी, गुरू पत्नी गमन, भ्रूण हत्या, दुष्ट कर्म पुनः-पुनः पापा चरण, सुरापान, पाप करके न कहना उसे छिपाने के लिए झूठ बोलना।
सात अवगुण :: अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, निद्रा, अप्रकाश, अप्रवर्ति और मोह ये सात अवगुण तमोगुणी हैं और कम-ज्यादा, हर एक मनुष्य में होते हैं।
अपूर्ण 7 :-
सप्तैतानि न पूर्यन्ते पूर्यमाणान्यनेकशः।
स्वामी पयोधिरुदरं कृपणोऽग्निर्यमो गृहम्॥
ये सात कभी पूरे नहीं होते और पूरे करने पर बढकर अनेक हो जाते हैं :- मालिक, समुद्र, पेट, कंजूस, अग्नि, मृत्यु और घर।[सुभाषितानि]
These seven are never complete and while trying to complete, they grow multiple times :- Employer, Sea, Stomach, Miser, Fire, Death and Construction of House.
महाकुल के सात गुण :-
तपो दमो ब्रह्मवित्तं विताना: पुण्या विवाहा: सततान्नदानम्।
येष्वेवैते सप्त गुणा वसन्ति सम्यग्वृत्तास्तानि महाकुलानि॥
जिन कुलों में (1). तप आदि द्वंदों का सहन करना, (2). दम, (3). वेदादि का स्वाध्याय, (4). यज्ञ, (5). श्रेष्ठ विवाह, (6). सदा अन्न का दान और (7). उत्तम आचार ये सात गुण रहते हैं, वे कुल महाकुल कहलाते हैं।[विदुर नीति 105]
The hierarchy-clan which is associated with these 7 characters-qualities never is termed as Maha Kul-Ultimate dynasty :- (1). ascetic practices, bears troubles-tensions, (2). restraining sense organs, (3). study of scriptures-Veds, Puran, Vedant; (4). Yagy, (5). excellent marriage, (6). regular donation of food grain and (7). virtuous behaviour.
DISCIPLINE-TRAINING दम :: Training of the senses (इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in actions in the world and the nature of inner thoughts one cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions (mortification, subduing feelings).
व्यूह के मुख्यतः सात अङ्ग :- (1). उरस्य, (2). कक्ष, (3). पक्ष, इन तीनों को एक समान बताया जाता है अर्थात् मध्यभाग में पूर्वोक्त रीति से नौ हाथियों द्वारा कल्पित एक अनीक सेना को उरस्य कहा गया है। उसके दोनों पार्श्वभागों में एक-एक अनीक की दो सेनाएँ कक्ष कहलाती हैं। कक्ष के बाह्य भाग में दोनों ओर जो एक-एक अनीक की दो सेनाएँ हैं, वे पक्ष कही जाती हैं। इस प्रकार इस पाँच अनीक सेना के व्यूह में 45 हाथी, 225 अश्व, 675 पैदल सैनिक प्रति योद्धा और इतने हो पाद रक्षक होते हैं। इसी तरह उरस्य, कक्ष, पक्ष, मध्य, पृष्ठ, प्रतिग्रह तथा कोटि इन सात अङ्गों को लेकर व्यूह शास्त्र के विद्वानों ने व्यूह को सात अङ्गों से युक्त कहा है।
एक-एक घुड़सवार योद्धा के सामने तीन-तीन पैदल पुरुषों को प्रतियोद्धा अर्थात् अग्रगामी योद्धा बनाकर खड़ा करे। इसी रीति से पाँच-पाँच अश्व एक-एक हाथी के अग्रभाग में प्रतियोद्धा बनाये।
इनके सिवा हाथी के पाद रक्षक भी उतने ही हों अर्थात् पाँच अश्व और पंद्रह पैदल। प्रतियोद्धा तो हाथी के आगे रहते हैं और पादरक्षक हाथी के पैरों के निकट खड़े होते हैं। यह एक हाथी के लिये व्यूह विधान कहा गया है। ऐसा ही विधान रथव्यूह के लिये भी समझना चाहिये।
गज व्यूह :: एक गजव्यूह के लिये जो विधि कही गयी है, उसी के अनुसार नौ हाथियों का व्यूह बनाये। उसे अनीक जानना चाहिये। (इस प्रकार एक अनीक में पैंतालीस अश्व तथा एक सौ पैंतीस पैदल सैनिक प्रतियोद्धा होते हैं और इतने ही अश्व तथा पैदल पादरक्षक हुआ करते हैं।) एक अनीक से दूसरे अनोक की दूरी पाँच धनुष बतायी गयी है। इस प्रकार अनीक विभाग के द्वारा व्यूह-सम्पत्ति स्थापित करे।राम नीति]
शत्रु को वशीभूत करने के 7 उपाय :: साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल और माया ये सात उपाय हैं; इनका शत्रु के प्रति प्रयोग करना चाहिये। इन उपायों से शत्रु वशीभूत होता है।[राम नीति]
आचार्य चाणक्य ने चाणक्य नीति में इसी को लिखा है।
सात स्वर :: षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद, ये सातों स्वर ब्रह्म व्यञ्जक होने के नाते ही ब्रह्म रूप गये हैं।
स्त्रियों में परमात्मा के 7 गुण :: कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, घृति और क्षमा; fame, prosperity, speech, memory, intellect, resolve and forgiveness.
तमोगुणी 7 अवगुण :: अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, निद्रा, अप्रकाश, अप्रवर्ति और मोह।
धर्म से धन प्राप्त करने के सात मार्ग :-
सप्त वित्तागमा धर्म्या दायो लाभः क्रयो जयः।
प्रयोगः कर्मयोगश्च सत्प्रतिग्रह एव च॥
दाय (पूर्वजों की सम्पत्ति), लाभ (गढ़े हुए धन की प्राप्ति), क्रय (खरीदना), जय (जीतकर लेना), प्रयोग (ब्याज पर द्रव्य-धन देने से), कर्मयोग (खेती और वाणिज्य) और दान; ये सात रास्ते धर्म मार्ग से धन प्राप्त करने के हैं।[मनु स्मृति 10.115] There are seven means of earning through Dharm-righteousness modes viz. inheritance, obtaining buried treasures, purchase, winning, earning by lending money for interest, Karm Yog (earning through labour in field-agriculture & business) and accepting donations.
सात विकार :: इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात चेतना और घृति ये सात विकार तथा सत्त्व, रज और तम ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं।
गवाही के लिये अनुपयुक्त-अयोग्य ::
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलाकधूर्त्त च चिकित्सकं च।
अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान्साक्ष्ये त्वधिकुर्वीतसप्त॥[विदुर नीति 36]
हथेली (हाथ देखने वाले, ज्योतिषी) तथा शरीर के लक्षण देखने वाले-सामुद्रिक शास्त्र के ज्ञाता, चोर और चोरी का माल खरीदने वाले व्यापारी, जुआरी, चिकित्सक-वैद्य, दोस्त और नौकर; इन सातों को कभी अपना गवाह न बनाएँ, ये कभी भी पलट सकते हैं।
सप्त धातु :- शरीर की सात धातुएं; रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।
तपो दमो ब्रह्मवित्तं विताना: पुण्या विवाहा: सततान्नदानम्।
येष्वेवैते सप्त गुणा वसन्ति सम्यग्वृत्तास्तानि महाकुलानि॥[विदुर नीति 105]
जिन कुलों में (1). तप आदि द्वंदों का सहन करना, (2). दम, (3). वेदादि का स्वाध्याय, (4). यज्ञ, (5). श्रेष्ठ विवाह, (6). सदा अन्न का दान और (7). उत्तम आचार ये सात गुण रहते हैं, वे कुल महाकुल कुल कहलाते हैं।
DISCIPLINE-TRAINING दम :: Training of the senses (इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in actions in the world and the nature of inner thoughts one cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions (mortification, subduing feelings).
The hierarchy-clan which is associated with these 7 characters-qualities never is termed as Maha Kul-Ultimate dynasty :- (1). ascetic practices, bears troubles-tensions, (2). restraining sense organs, (3). study of scriptures-Veds, Puran, Vedant; (4). Yagy, (5). excellent marriage, (6). regular donation of food grain and (7). virtuous behaviour.
शिक्षक के 7 गुण ::
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता॥
विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व और प्रसन्नता :– ये सात शिक्षक के गुण हैं।7 SEAS सप्तद्वीप :: (1). जम्बूद्वीप, (2). प्लक्षद्वीप, (3). शाल्मलद्वीप, (4). कुशद्वीप, (5). क्रौंचद्वीप, (6). शाकद्वीप और (7). पुष्करद्वीप।
7 PILGRIMAGE-DIVINE CITIES सप्त पुरियाँ :: (1). अयोध्या, (2). मथुरा। (3). माया (हरिद्वार), (4). काशी, (5). कांची, (6). अवंतिका (उज्जयिनी) और (7). द्वारका।
7 OCEANS सप्त सागर :: (1). खारे पानी का सागर, (2). इक्षुरस का सागर, (3). मदिरा का सागर, (4). घृत का सागर, (5). दधि का सागर, (6). दुग्ध का सागर और (7). मीठे जल का सागर।
7 DIVINE RIVERS सप्त नदी :: (1). गंगा, (2). गोदावरी, (3). यमुना, (4). सिंधु, (5). सरस्वती, (6). कावेरी और (7). नर्मदा।
7 SAGES सप्त ऋषि :: (1). केतु, (2). पुलह, (3). पुलस्त्य, (4). अत्रि, (5). अंगिरा, (6). वशिष्ट और (7). मारीचि। OR THE NAMES DIFFER IN DIFFERENT KALP-BRAHMA JI'S DAY.
सप्त ऋषि :: विश्वामित्र, जमदाग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप!
7 पितर :: कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निश्वात्त और बर्हिषत् हैं।देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त; ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं। ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं। वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं। उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं।
7 प्रकार के दास ::
ध्वजाहृतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदत्रिमौ।
पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः॥[मनु स्मृति 8.415]
युद्ध में विजय प्राप्त होने पर लाया गया, भोजन के लालच से स्वयं आया हुआ, दासी के गर्भ से उत्पन्न, खरीदा हुआ, किसी का दिया हुआ, जो बाप-दादे के समय से ही काम करता आया हो और दण्ड, ऋण आदि चुकाने के लिये दास हुआ हो, ये सातों दास हैं।
There are seven kinds-categories of slaves of, (viz.) one who was made a captive in war, who accepted slavery due to the greed-need for food, born out of a slave woman, gifted-transferred by someone, serving since the periods of grandfather or father or one who accepted slavery for paying off fine or clear debt himself, willingly-under compulsion.
Bhishm Pitamah liberated the slaves who served him for long prior to the Maha Bharat war and declared them as ordinary citizens. The slave women in king Janak's palace were adorned with precious jewellery and dealt with honour.
7 DAYS सप्त दिवस :: (1). सोमवार, (2). मंगलवार, (3). बुधवार, (4). गुरुवार, (5). शुक्रवार, (6). शनिवार और (7). रविवार।
7 PLANETS सप्त ग्रह :: (1). सूर्य, (2). चन्द्र, (3). मंगल, (4). बुध, (5). ब्रहस्पति, (6). शुक्र और (7). शनि।
7 ABODES सप्त लोक :: (1). अतल, (2). वितल, (3). नितल, (4). गभस्तिमान, (5). महातल, (6). सुतल और (7). पाताल।
7 DIMENSIONS सप्त आयामों :: शास्त्रों में सप्त लोक, सप्त ऋषि, सप्त देवियाँ, सप्त नगरी, सप्त रंग, सूर्य की सप्त किरणें, सप्त घोड़ों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। उपरोक्त सात समूह वस्तुतः चेतना की सात परतें, सात आयाम हैं-जिनका आलंकारिक वर्णन इन रूपों में किया गया है।
सामान्यतया तीन आयाम तक ही मनुष्य का बोध क्षेत्र है। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई या गहराई के अंतर्गत समस्त पदार्थ सत्ता का अस्तित्व है। इन्द्रियों की बनावट भी कुछ ऐसी है कि वह मात्र तीन आयामों का अनुभव कर पाती है :- लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई जो भी पदार्थ स्थूल नेत्रों को दृष्टिगोचर होते हैं, उनके यही तीन परिमाण हैं। इसके पश्चात् चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम आयाम कितना विलक्षण एवं शक्ति-सम्पन्न है।
चतुर्थ आयाम अनेक रहस्य अपने अन्दर छिपाये हुए है और जिज्ञासुओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। योगियों का अदृश्य हो जाना, कुछ पलों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाना, संभवतः चतुर्थ आयाम में पहुँचकर ही संभव हो सका होगा। चतुर्थ आयाम जानकारी हमारे ऋषियों को अति प्राचीन-आदि काल से ही है।
इसका बोध होते ही ज्ञान का एक अनंत क्षेत्र खुल सकता है। तब यह संसार भिन्न रूप में दिखाई पड़ने लगता है। उन मान्यताओं को जिन्हें हम सत्य यथार्थ मानते हैं, संभव है भ्रांति मात्र लगने लगे। अनुसार काल को भूत, वर्तमान, भविष्य की सीमाओं से नहीं बाँधा जा सकता है।
पाँचवाँ आयाम विचार जगत् से संबंधित है। विचारों के माध्यम से वस्तुओं के स्वरूप की कल्पना की जाती है। विचार जगत् में उठने वाली तरंगें वातावरण एवं मनुष्यों को प्रभावित करती हैं तथा अपने अनुरूप लोगों को चलने के लिए बाध्य करती हैं।
पंचम आयाम की रहस्यमय शक्ति को जानने एवं उसको करत लगत कर सदुपयोग करने से ही बड़ी-बड़ी आध्यात्मिक क्रान्तियाँ संभव हो सकी हैं। कन्दरा में बैठे ऋषि एक स्थान पर बैठकर अपने विचारों को पंचम आयाम में प्रस्फुटित करते रहते हैं तथा अभीष्ट परिवर्तन कर सक ने में समर्थ होते हैं।
छठा आयाम भावना जगत् है। इस लोक में मात्र देवता निवास करते हैं। इस आलंकारिक वर्णन में एक तथ्य छिपा है कि भावों में ही देवता निवास करते हैं अर्थात् भाव सम्पन्न व्यक्ति देव तुल्य हैं। भावना की शक्ति असीम है।
आत्मा का परमात्मा से मिलन कितना आनन्ददायक होता है-इसका अनुमान भौतिक मनः स्थिति द्वारा लगा सकना संभव नहीं है। तत्त्वज्ञानी उसी आनन्द की मस्ती में डूबे रहते हैं तथा जन-मानस को उसे प्राप्त करने की प्रेरणा देते रहते हैं।
तुलसीदास जड़-चेतन सबमें परमात्म सत्ता का अनुभव करते हुए लिखते हैं :-
सीयराम मय सब जग जानी।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत्।
ईशावास्योपनिषद् तथा रामायण के इस उद्धरण में अद्वैत स्थिति का वर्णन किया गया है। सप्तम आयाम की यही स्थिति है। इसमें पहुँच ने पर जड़-चेतन में विभेद नहीं दिखता। सर्वत्र एक ही सत्ता दृष्टिगोचर होती है।
शिव-शक्ति का, ब्रह्म-प्रकृति का, जड़-चेतन का, जीव-ब्रह्म की एकरूपता सातवें आयाम में दिखाई पड़ ने लगती है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं। इसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। सातवें आयाम का ही वर्णन लोक के रूप में किया गया है।
सात लोकों का अस्तित्व मनुष्य के इर्द-गिर्द एवं भीतर बाहर स्थित है। उसमें से इन्द्रियों एवं यंत्र-उपकरणों से तो मात्र तीन को ही अनुभव किया जा सकता है। चौथे लोक में यदि प्रवेश संभव हो सके, तो इन्हीं इन्द्रियों और इन्हीं यंत्र-उपकरणों से ऐसा कुछ देखा-समझा जा सकेगा, जिसे आज की तुलना में अकल्पनीय और प्रत्याशित एवं अद्भुत ही कहा जाएगा।
भूः, भुवः, स्वः के बाद यह चौथा आयाम चेतना जगत् और भौतिक जगत् का घुला-मिला स्वरूप है। इसे तप लोक कहा गया है। तपस्वी इसमें अभी भी प्रवेश पाते और अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न सिद्ध कहलाते हैं।
इसके ऊपर के जनः महः और सत्य लोक विशुद्धतः चेतनात्मक हैं। उनमें प्रवेश पाने वाला दैवी शक्तियों से सम्पन्न होता है, उस तरह की मनःस्थिति एवं परिस्थिति में होता है, जिसे पूर्ण पुरुष, जीवन्मुक्त, परमहंस एवं देवात्मा जैसे शब्दों में सामान्य जनों द्वारा तो कहा-सुना ही जा सकता है।
ब्रह्मांड का स्वरूप :: यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है। वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है वहाँ से यह दस गुना ज्यादा ‘तामस अंधकार’ से घिरा हुआ है और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत्तत्व से घिरा हुआ है जो असीमित, अपरिमेय और अनंत है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। अनंत महत्तत्व से घिरा ‘तामस अंधकार’ और उससे ही घिरे ‘आकाश’ को स्थान और समय कहा गया है। इससे ही दूरी और समय का ज्ञान होता है। आकाश से ही वायुतत्व की उत्पत्ति होती है। वायु से ही तेज अर्थात अग्नि की और अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की सृष्टि हुई। इस धरती पर जो जीवन है वह खुद धरती और आकाश का है।
7 पाताल लोक :: (1). तल, (2). अतल, (3). वितल, (4). तलातल, (5). रसातल, (6). महितल और (7). पाताल।
7 स्वर्ग-ऊर्ध्व लोक :: (1). भू, (2). भुवः, (3). स्व, (4). मह, (5). जन, (6). तप और (7). सत्य लोक।
7 लोकों को मूलत: दो श्रणियों में विभाजित किया गया है :: (1). कृतक लोक और (2).अकृतक लोक।
कृतक लोक :: इसमें ही प्रलय और उत्पत्ति का चक्र चलता रहता है। कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन या मृत्युलोक भी कहते हैं। यह नश्वर और परिवर्तनशील मानते हैं। इसकी एक निश्चितआयु है। त्रैलोक्य के नाम हैं- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक। यही लोक पाँच तत्वों से निर्मित हैं :- आकाश, अग्नि, वायु, जल और जड़। इन्हीं पाँच तत्वों को वेद क्रमश: जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय कोष कहते हैं।
(1). भूलोक (धरती, पृथ्वी) :: जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है, लेकिन भूलोक से तात्पर्य जिस भी ग्रह पर पैदल चला जा सकता है।
(2). भुवर्लोक (आकाश) :: पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है।
(3). स्वर्गलोक (अंतरिक्ष) :: सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है। अकृतक लोक समय और स्थान शून्य है।
अकृतक लोक :: जन, तप और सत्य लोक तीनों अकृतक लोक कहलाते हैं। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात जो नश्वर नहीं है अनश्वर है। जिसे मनुष्य स्वयं के सद्कर्मों से ही अर्जित कर सकता है। कृतक और अकृतक लोक के बीच स्थित है ‘महर्लोक’ जो कल्प के अंत के प्रलय में केवल जनशून्य हो जाता है, लेकिन नष्ट नहीं होता। इसीलिए इसे कृतकाकृतक लोक कहते हैं।
(4). महर्लोक :: ध्रुवलोक से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है।
(5). जनलोक :: महर्लोक से बीस करोड़ योजन ऊपर जनलोक है।
(6). तपलोक :: जनलोक से आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है।
(7). सत्यलोक :: तपलोक से बारह करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है।
जिन के घर में यज्ञ नहीं होता उनके सात लोक नष्ट हो जाते हैं। इनमें भी जो ‘महर्लोक’ हैं वह जनशून्य अवस्था में रहता है जहाँ आत्माएं स्थिर रहती हैं, यहीं पर महाप्रलय के दौरान सृष्टि भस्म के रूप में विद्यमान रहती है। यह लोग त्रैलोक्य और ब्रह्मलोक के बीच स्थित है।
7 विकार :: इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात चेतना और घृति।
सन्ध्या के मन्त्रों में शरीर के सात अंगों का वर्णन :: (1). ओ३म् भू: पूनातु शिरसि। (2). ओ३म् भुव: पूनातु नेत्रयो:।(3). ओ३म् स्व: पूनातु कण्ठे। (4). ओ३म् मह: पूनातु हृदये। (5). ओ३म् जन: पुनातु नाभ्याम। (6). ओ३म् तप: पुनातु पादयो। (7). ओ३म् सत्यम् पुनातु पुन: शिरसि। ओ३म् खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।
ब्रह्माण्ड के सात लोक :: (1). पृथ्वी, (2). वायु, (3). अन्तरिक्ष, (4). आदित्य, (5). चन्द्रमा, (6). नक्षत्र और (7). ब्रह्म लोक। ये ही लोक हैं; जिनमें प्राणी रहा करता है। परन्तु यज्ञ न करने अथवा देव ऋण से उऋण न होने वाले जिस लोक में भी जायेंगे वह उनके लिए शान्ति का स्थान ना होगा। सातवें ब्रह्म लोक में तो अशुभकर्मी जा ही नहीं सकते।
सप्त धातु :: (1). रस धातु, (2). रक्त धातु, (3). माँस धातु, (4). मेद धातु, (5). अस्थि धातु, (6). मज्जा धातु और (7). शुक्र धातु। सप्त धातु, वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं। जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं।
सप्त रत्न :: हीरा, मोती, मूंगा, पन्ना, माणिक, पुखराज और नीलम।
सप्त धातु :: सोना, चांदी, तांबा, लोहा, पीतल, जस्ता और सीसा।
सात व्याह्रतियाँ :: ब्रह्मा जी ने ॐ बीज मंत्र से वर्ण माला उत्पन्न की। उन्होंने ही ॐ बीज मंत्र से यज्ञ के लिए भू:, भूव:, स्व:, महा, जन, तप, सत्यम सात व्याह्रती उत्पन्न कीं।
अग्नि की 7 जिह्नाएँ :: (1.1) हिरण्या, (1.2). गगना, (1.3). रक्ता, (1.4). कृष्णा, (1.5). सुप्रभा, (1.6). बहुरूपा एवं (1.7). अतिरिक्ता।
कतिपय आचार्याें ने अग्नि की सप्त जिह्नाओं के नाम इस प्रकार बताये हैं :- (2.1). काली, (2.2). कराली, (2.3). मनोभवा, (2.4). सुलोहिता, (2.5). धूम्रवर्णा, (2.6). स्फुलिंगिनी तथा (2.7). विष्वरूचि।
सप्तमृत्तिका :: गोशाला, अश्वशाला, गजशाला, बांबी, तालाब, संगम और राजद्वार की मिटटी।
सात छंद :: गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर :: सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर :: षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र :: सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार।
सात वार :: रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी :: गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप :: जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि :: वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) :: रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग :: बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल :: अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी :: मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य :: गेहूँ, चना, चांवल, जौ मूँग,उड़द, बाजरा।
राज्य के सात अंग :: अमात्य (मन्त्री), राष्ट्र (जनपद), दुर्ग (किला), कोष (खजाना), बल (सेना) और सुहृत (मित्रादि), ये राज्य के परस्पर उपकार करने वाले सात अंग कहे गये हैं। राज्य के अंगों में राजा और मन्त्री के बाद राष्ट्र प्रधान एवं अर्थ का साधन है, अत: उसका सदा पालन करना चाहिये। इनमें पूर्व-पूर्व अङ्ग पर की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं।[राम नीति]
सप्ताङ्गं ::
स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्तथा।
सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते॥[मनु स्मृति 9.294]
राजा, मंत्री, ग्राम, देश, खजाना, सेना और मित्र; ये सात राज्य की प्रकृति हैं। इसलिए राज्य को सप्ताङ्ग कहते हैं।
The king and his minister, his capital, his realm, his treasury, his army and his friends-ally are the seven constituent parts of a kingdom; hence a kingdom is said to have seven limbs-organs.
संसार-सृष्टि रचना के 7 घटक ::
तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम्।
सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्य: सम्भवत्यव्यायद् व्ययम्॥
इन परम तेजस्वी (महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्रा) सात तत्वों के, शरीर बनने वाले भागों से यह नश्वर संसार अव्यव से उत्पन्न होता है।[मनु स्मृति 1.19]
The perishable world-universe is composed of the 7 basic components, called Mahatt-Tatv, Ahankar and Panch Tan Matra. These 7 components again have various finer components.
महत्त-तत्व Mahatt-Tatv :: प्रकृति का पहला विकार (defect) या कार्य (function), पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था, इसी को दार्शनिक परिभाषा में बुद्धि-तत्त्व भी कहते हैं, सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्त्व है, यह जीवात्मा।
This is the most important component of evolution. This is called Jeevatma-Soul, something which is essential for life. This has the mechanism called intelligence which govern every thing, every event. This is minutest of the 7 basic components.
पञ्चतन्मात्रा (Panch Tan Matra) :: शब्द :- word-sound-speech, created by mouth, स्पर्श :- touch, experience through skin, रूप :- shape, size-form perceived through eyes, रस :- juice-extract experience through tongue, गंध :- smell-scent, experienced through nose; का विशेष महत्व उल्लेखित है और इसे इन्द्रियों का विषय माना गया है।
SIGNIFICANCE OF 8 ::8 CHARACTERISTICS OF SOUL आत्मा के 8 गुण ::
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
आत्मा अव्यक्त-अप्रत्यक्ष है। यह अचिन्त्य-चिन्तन का विषय नहीं है और यह निर्विकार-विकार रहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर शोक करना उचित नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.25]
The soul is invisible (unrevealed, which can not be seen like air, intelligence, desires, thoughts), beyond thoughts (imagination, image, perception & defect less, pure, untainted, unsmeared). Therefore, Hey Arjun! having understood (recognized, identified) the soul in this manner, grief-condolence is undesirable (useless, unjustified, unnecessary).
आत्मा का स्थूल शरीर के समान आँखों से दृष्टिगोचर होना सम्भव नहीं है (इसके लिये दिव्य दृष्टि चाहिये)। मन और बुद्धि तो चिन्तन विचारों में आते हैं, परन्तु यह चिन्तन का विषय भी नहीं है। यह चेतना उत्पन्न करने वाली है। यह देही-विकार रहित कहा गया है, क्योंकि यह परिवर्तन रहित है।
Its not possible to see-observe the soul like a physical entity. One might need divine sight-vision. One may perceive, think, recognize, understand, intelligence and the feelings, sensuality, passions (always subject to change, variable, negotiable). But this is defect less, pure, uncontaminated, since it is free from change.
इसको निषेध मुख से 8 गुणों :- अच्छेद्य, अक्लेद्य, अदाह्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य से युक्त माना गया है और
विधिमुख से :- नित्य, सनातन, स्थाणु और सर्वगत माना गया है। इसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन इसलिये भी सम्भव नहीं है, क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है और स्वयं वाणी इससे प्रकट होती है। आत्मा को इस प्रकार जानकर किसी का भी किसी के लिये भी शोक व्यर्थ-उचित नहीं है।
Soul has 8 characteristics through negativity or contradiction :: It can not be cut-divided, wet, burnt, sucked, inertial (unmovable, stationary), unrevealed, beyond thought, untainted-unsmeared &
has 4 characteristics through positivity-reasoning :- Perennial, absolute, perpetual, stable, stationary, immobile and ancient-since ever, which is pervaded-present in each and every particle including all organism.
आठ गुणों से युक्त आत्मा को जानने का फल :-
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोSपिपास: सत्यकामः सत्यसङ्कल्प: सोSन्वेष्टव्य: स विजिज्ञासितव्यः स सर्वा ँ ्श्च लोकानाप्नोति स सर्वाँ ्श्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच।[छान्दोग्यo 8.7.1]
प्रजापति ने कहा :: जो आत्मा पाप रहित, जरा (बुढ़ापा) रहित, मृत्युरहित, शोक रहित, भूख से रहित, प्यास से रहित, सत्य काम और सत्य सङ्कल्प (इन स्वभाव गत आठ गुणों से युक्त) है, उसे खोजना चाहिये, उसे जानना चाहिये। जो उसको खोजकर जान लेता है, वह सब लोकों और समस्त कामनाओं को प्राप्त होता है।
Prajapati has said that the Soul which is possessed with 8 characterises :- untainted (free from sins), ageless (does not grow old), imperishable (does not die), free from sorrow (pains, displeasure), free from hunger, free from thirst, truthful, determined to be true in resolve; should be identified (searched, traced). One who identifies it, attain all abodes i.e., Ultimate abode-Salvation (Moksh) and all his desires are fulfilled.
विद्यार्थी के आठ दोष :-
आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च;
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथात्यागित्वमेव च।
एते वै अष्ट दोषा: स्यु: सदा विद्यार्थिनां मता:॥
आलस्य करना, मदकारी पदार्थों का सेवन, घर आदि में मोह रखना, चपलता-एकाग्रचित न होना, व्यर्थ की बात में समय बिताना, उद्धतपना (inaugurate) या जड़ता, अहंकार और लालची होना, ये विद्यार्थी के आठ दोष माने गए है अर्थात् इन दुर्गुणों से युक्त को विद्या प्राप्त नहीं होती।[विदुर नीति 116]
Evils-defects of a learner-student :- laziness, use of drugs-narcotics, attachment for the home, lack of concentration-frolic behaviour, versatility, wasting time in useless affairs, ignorance, ego and greediness.
चंचलता :: बहुमुखी प्रतिभा, बहुविज्ञता; versatility.
राज्य की आय के आठ साधन-अष्टवर्ग :- खेती, व्यापारियों के उपयोग में आने वाले स्थल और जल के मार्ग, पर्वत आदि दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर एवं बाँध आदि), कुञ्जर बन्धन (हाथी आदि के पकड़ने के स्थान), सोने-चाँदी आदि की खानें, वन में उत्पन्न सार-दारु आदि (साखू, शीशम आदि) की निकासी के स्थान तथा शून्य स्थानों को बसाना, आय के इन आठ द्वारों को अष्टवर्ग कहते हैं। अच्छे आचार वाला राजा इस अष्ट वर्ग की निरन्तर रक्षा करे।[राम नीति]
दूसरों का दुःख परेशानी न देखने वाले ::
राजा वेश्या यमो ह्यग्नि स्तस्करो बाल याचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टक:॥
राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, छोटा बच्चा, भिखारी और कर वसूल करने वाला; ये आठों कभी दूसरों का दुःख-परेशानी नहीं देखते।[चाणक्य नीति 17.16]
These eight :- the king, prostitute, Yam Raj-the deity of death, thief, child, beggar and those who torture the common people, are very rigid, tough-hardened people who do not understand the trouble created by them to others.
पुरुष के 8 गुण ::
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥10॥
पुरुष की 8 गुणों से शोभा-महत्ता होती है :- बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता।
8 characteristics-qualities adorn a man : Intellect, good character, self-control, study of scriptures, valour, little talking-control of tongue-words-language, charity-donations as per capability and gratitude.
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥16॥
प्रज्ञा-बुद्धि, कुलीनता-उच्च कुल, इन्द्रिय दमन-इन्द्रियों पर काबू, शास्त्र ज्ञान, पराक्रम, मितभाषी होना-कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता, ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं।[विदुर नीति]
These eight virtues-characterises (qualities, traits) :- intelligence-prudence, high clan, control over senses-passions, knowledge of scriptures, courage (valour, power, might), speaking less, charity-donations as per capability and gratitude-thankfulness makes a person famous-recognised in the society.
तामस प्रवति-प्रकर्ति वाले व्यक्ति के 8 लक्षण :: जो कर्ता असावधान-अयुक्त, अशिक्षित-शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड़ वाला, जिद्दी, घमंडी, धूर्त, उपकारी का अपकार-बुरा करने वाला (दूसरों की जीविका का नाश करने वाला) तथा विषादी-शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है।
A doer who is careless-lacks concentration, crude-uneducated, rigid-stiff, stubborn, malicious-injurious (offensive, harmful, hostile, inimical, censurable), to the beneficent (helpful, furthering, conducive), lazy, morose, depressed, procrastinate (Unsteady, vulgar, unbending, wicked, indolent, desponding and procrastinating) is Tamsik.
(1). तामसी प्रवृति का मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार नहीं करता, क्योंकि वह मूढ़ है। (2). उसे शास्त्र, सतसंग, उपदेश, अच्छी-उचित शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई। (3). उसका मन, वाणी, शरीर में अकड़ है, जिसके कारण वह वर्णाश्रम के अनुसार अपने से बड़े-बूढ़ों, माता-पिता, गुरु-आचार्य, आदि के साथ आदर-सम्मान, विनम्र व्यवहार नहीं करता। (4). वह शठ-जिद्दी भी है। (5). वो प्रत्युपकार नहीं करता, उलटे बुरा करने का मनोविचार रखता है। (6). वह उचित कर्म नहीं करता, अपितु नींद-आलस में रहता है। (7). इन सब कारणों से उसे सफलता (मोक्ष, मुक्ति) की प्राप्ति नहीं होती, अतः उसे विषाद, क्रोध-आक्रोश बना रहता है। (8). अविवेकी होने के कारण, उसे हर काम को करने में अधिक समय लगता है और उसका कोई काम सुचारु रूप से चलता भी नहीं है। इन आठ लक्षणों वाला व्यक्ति तामस कहलाता है। तामस वृति का विवेक से विरोध है। अतः तामस मनुष्य अधिक विषादी होता है।
बुद्धि के आठ गुण ::
"शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्वाभिनिवेशा:प्रज्ञागुणा:"
सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, धारण करना (याद रखना), अर्थ-विज्ञान (विविध साध्य साधनों के स्वरूप का विवेक), ऊह (वितर्क), अपोह (अयुक्त युक्ति का त्याग) किया तथा तत्वज्ञान (वस्तु के स्वभाव का निर्णय)।[कौटिल्य अर्थशास्त्र 6.1.96]
बुद्धि के यह आठ अंग :: हनुमान बालि पुत्र अंगद को अष्टांग बुद्धि :- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक ठीक समझना, विज्ञान व तत्वज्ञान से सम्पन्न होना; चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।
आठ लोकपाल ::
सोमाग्न्यर्कानिलेन्द्राणां वित्ताप्पत्योर्यमस्य च।
अष्टानां लोकपालानं वपुर्धारयते नृपः॥
चन्द्रमा, अग्नि, सूर्य, वायु, इंद्र, कुबेर, वरुण और यम इन आठों लोकपालों का वास राजा के शरीर में होता है।[मनु स्मृति 5.96]
The king is blessed with the traits, characterises, qualities of the demigods Chandr-Moon, Agni-fire, Pawan-air, Indr, Kuber, Varun and Yam.
The manner in which the king is considered to be an incarnation of Bhagwan Vishnu being blessed with the power to protect the civilians-subjects, he is supposed to have the calibre to save the populace from natural disasters caused by these eight demigods.
शास्त्र ज्ञान हेतु आठ गुण :: युक्त बुद्धि, धृति (उद्वेग का अभाव), दक्षता (आलस्य का अभाव), प्रगल्भता (सभा में बोलने या कार्य करने में भी अथवा संकोच न होना), धारणशीलता (जानी-सुनी बात को भूलने न देना), उत्साह (शौर्यादि गुण), प्रवचन शक्ति, दृढ़ता (आपत्ति काल में क्लेश सहन करने की क्षमता), शुचिता (विविध उपायों द्वारा परीक्षा लेने से सिद्ध हुई आचार-विचार की शुद्धि), मैत्री (दूसरों को अपने प्रति आकृष्ट कर लेने का गुण), त्याग (सत्पात्र को दान देना), सत्य (प्रतिज्ञा पालन), कृतज्ञता (उपकार को न भूलना), कुल (कुलीनता), शील (अच्छा स्वभाव) और दम (इन्द्रिय निग्रह तथा क्लेश सहने की क्षमता), ये सम्पत्ति के हेतुभूत गुण हैं।
बुद्धि के आठ गुण ::
"शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्वाभिनिवेशा:प्रज्ञागुणा:"
सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, धारण करना (याद रखना), अर्थ-विज्ञान (विविध साध्य साधनों के स्वरूप का विवेक), ऊह (वितर्क), अपोह (अयुक्त युक्ति का त्याग) किया तथा तत्वज्ञान (वस्तु के स्वभाव का निर्णय)।[कौटिल्य अर्थशास्त्र 6.1.96]
उत्साह के सूचक चार गुण :: दक्षता (आलस्य का अभाव), शीघ्रकारिता, अमर्ष (अपमान को न सह सकना) तथा शौर्य।
यहाँ धारणशीलता बुद्धि से और दक्षता उत्साह से सम्बन्ध रखनेवाले गुण हैं अत: इनका अन्तर्भाव हो सकता था तथापि इनका पृथक् उपादान हुआ है, वह इन गुणों की प्रधानता सूचित करने के लिये है।
पैशुन्यं साहसं मोहं ईर्ष्यासूयार्थ दूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोपिगणोष्टकः॥[मनु स्मृति]
क्रोध से पैदा होने वाली 8 बुरी आदतें हैं :- (1). चुगली करना, (2). साहस, (3). द्रोह, (4). ईर्ष्या करना, (5). दूसरों में दोष देखना, (6). दूसरों के धन को छीन लेना, (7). गालियां देना, (8). दूसरों से बुरा व्यवहार करना।
8 विषाष्टक वस्तुयें :: (1). पिप्पली, (2). मिर्च, (3). सोंठ, (4). बाज पक्षी की विष्टा, (5). चित्रक (अण्डी), (6). गृहधूम, (7). धतूरे का रस तथा (8). लवण।
धर्म के आठ मार्ग ::
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृत॥
यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और लोभ विमुखता; धर्म के ये आठ मार्ग बताए गए हैं, इन पर चलने वाला धर्मात्मा कहलाता है।[विदुर नीति 39]
Yagy, study, charity, penance, truth, forgiveness, mercy and abandonment of greed are the eight ways of Dharm. The person abiding by these is called a Dharmatma-a pious person.
आठ गुण ::
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
बुद्धि, उच्च कुल, इंद्रियों पर काबू, शास्त्र ज्ञान, पराक्रम, कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता, ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं।[विदुर नीति 16]
These eight characterises (qualities, traits) :- intelligence-prudence, high clan, control over senses-passions, knowledge of scriptures, courage (valour, power, might), speaking less, charity-donations as per capability and gratitude-thankfulness makes a person famous-recognised in the society.
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
बाहरी आडम्बर, वस्त्र, आभूषण, नहीं; अपितु ये आठ गुण पुरुष को सुशोभित करते हैं :- बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता।
आयुर्वेद के आठ अंग :: प्रजापति ब्रह्मा ने आयुर्वेद को निम्न आठ भागों में बाँट कर प्रत्येक भाग का नाम तन्त्र रखा :-
(1). शल्य तन्त्र,
(2). शालाक्य तन्त्र,
(3). काय चिकित्सा तन्त्र,
(4). भूत विद्या तन्त्र,
(5) कौमारभृत्य तन्त्र,
(6). अगद तन्त्र,
(7). रसायन तन्त्र और
(8). वाजीकरण तन्त्र।
इस अष्टाग्ङ आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीर विज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी है।
आठ पाश :: संशय, दया, भय, संकोच, निन्दा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति।
आठ मातृका :: ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी :: आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु :: अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि :: अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु :: सोना, चांदी, तांबा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
आठ योग :: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि।
अष्टाङ्ग आयुर्वेद :: (1). शल्य, (2). शालाक्य , (3). काय चिकित्सा, (4). भूत विद्या, (5). कौमार भृत्य, (6). अगद तन्त्र, (7). रसायन और (8). बाजीकरण।
8 अंक माया-परिवर्तन का प्रतीक है।दोनों (परा, अपरा) प्रकृतिरूप मणियाँ परमेश्वर रूप सूत्र से गुथी हुई हैं :– यही मणि माला का सूत्र है।*
भगवान ने जगदुत्पत्ति रूप अपरा प्रकृति का वर्णन 8 भेदों में किया है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥[श्रीमद्भगवद्गीता 7.4]
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥[श्रीमद्भगवद्गीता 7.5]
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार-इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित यह अपरा प्रकृति है और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत धारण किया जाता है।
Earth, water, fire, air, sky (space, ether) are the basic ingredients, the mind (inner self, psyche, thoughts, ideas, gestures, intelligence, Buddhi) & the egoism (Ahankar, pride, arrogance); constitutes the eight fold divisions of this impure nature of the infinite past-time immemorial that has elapsed and in addition to these stands the pure nature of the Almighty which supports this world.
परमात्मा की प्रकृति परमात्मा से अलग नहीं है। परमात्मा का अंश होने से जीव भी उससे अलग नहीं है। अपरा से सम्बन्ध होने के कारण ही मनुष्य को प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड़ और परिवर्तन शील है। परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तन रहित है। परा प्रकृति ने ही अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है।
Nature created by the Almighty is not distinguished from the Almighty. The organism too is a component of the Almighty and hence he too is not distinguishable from HIM. Connection with the impure-contaminated makes the humans a component of the nature. The contaminated nature is inertial (stagnant, lethargic) and subject to change. The Para-pure is excellent-Ultimate, is alive and free from change. The Para-pure component of nature has supported the Apara-impure as well. The Almighty explained to Arjun by calling him Maha Baho! that both components of nature were supported by HIM i.e., the Para-pure and the impure as well component.यहाँ मन से अहंकार का, बुद्धि से महत्व का और अहंकार से अव्यक्त का तात्पर्य है।
अपरा प्रकृति के 8 भेद बताये है, इनके गुण भिन्न-भिन्न सँख्या के होते हैं :-
प्रकृति को पैदा करने वाला मूल है ब्रह्म, वह है एक एवं सत्।
उससे उत्पन्न अहंकार (अव्यक्त प्रकृति) दूसरी सँख्या में है, इसके 2 गुण है :- एक ब्रह्म का और दूसरा उसका अपना आवरण।
उससे उत्पन्न बुद्धि (महान) 3 गुणों वाली होती है, पहले वाले 2 गुण और तीसरा उसका अपना, विक्षेप।
मन ब्रह्म का चौथा विकार है; उसके 4 गुण होते है 3 पहले के और चौथा उसका अपना, मल।
पाँचवाँ विकार (आकाश) 5 गुणों वाला होता है, 4 पहले के गुण और एक उसका अपना। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए।
छठा विकार वायु है, उसके 6 गुण होते हैं।
सातवाँ विकार है, अनल (अग्नि), उसके 7 गुण हैं।
आठवाँ विकार है जल; इसके 8 गुण हैं।
नौवाँ विकार है भूमि (पृथ्वी), उसके 9 गुण हैं।
यहि बात मनुस्मृति में भी कही गयी है, बाद का गुण अपने से पहले के गुण को भी ले लेता है। अतः जो जितनी सँख्या वाला है, उसके उतने ही गुण है।
इस अष्टधा प्रकृति से ही समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि होती है। यह संसार बंधनरूप अपरा प्रकृति है। इसमें ब्रह्म के एक भेद को तो गिनना नहीं है; वह तो माला में सुमेरु स्थानीय है, उसे गिना नहीं जाता।
शेष अष्टधा प्रकृति के 2+3+4+5+6+7+8+9=44 कुल भेद हुए। ब्रह्म की परा प्रकृति जीवरूपा कही गयी है।
अष्टगन्ध :- (1). अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, ष्वेत चन्दन लाल चन्दन और सिन्दूर (देव पूजन हेतु)। (2). अगर लालचन्दन, हल्दी, कुंकुम, गोरोचन, जटामांसी, षिलाजीत और कपूर (देवी पूजन हेतु)। अष्टगंध :: अगर, कस्तूरी, कुकुम, कर्पूर, चन्दन, टोपीदार लौंग, देवदारु (शनि आराधना)।
अष्ट धातु :: सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, जस्ता, राँगा, काँसा और पारा।
अष्टगंध-देव पूजन हेतु :: अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन और सिन्दूर।
अष्टगंध-देवी पूजन :: अगर, लाल चन्दन, हल्दी, कुमकुम, गोरोचन, जटामासी, शिलाजीत और कपूर।
आठ प्रकार के यज्ञ कुण्ड ::
(1). योनी कुंड :– योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु।
(2). अर्ध चंद्राकार कुंड :– परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पति-पत्नी दोनों को एक साथ आहुति चाहिये।
(3. त्रिकोण कुंड :– शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु।
(4). वृत्त कुंड :- जन कल्याण और देश मे शांति हेतु।
(5). सम अष्टास्त्र कुंड :– रोग निवारण हेतु।
(6). सम षडास्त्र कुंड :– शत्रुओ मे लड़ाई झगड़े करवाने हेतु।
(7). चतुष् कोणा स्त्र कुंड :– सर्व कार्य की सिद्धि हेतु।
(8). पदम कुंड :– तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु।
सामान्य पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन के लिए चतुर्वर्ग के आकार के इस कुंड का ही प्रयोग करना चाहिये।ज्ञान प्राप्ति के 8 अन्तरङ्ग साधन ::
(1). विवेक :: सत्-असत्, उचित-अनुचित, हानि-लाभ, हित-अहित को सोच-समझकर निर्णय लेना। (2). वैराग्य :: सत्-असत् को अलग-अलग जानकर उसका त्याग करके संसार से विमुख होना।
(3). शमादि षट्सम्पत्ति :: (3.1). मन को इन्द्रियों से हटाना शम है। (3.2). इन्द्रियों को विषयों से हटाना दम है। (3.3). ईश्वर, शास्त्र पर पूज्य भाव से पूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। (3.4). वृतियों को संसार से हटाना उपरति है। (3.5). सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को सहना उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। (3.6). अन्तःकरण में शंकाओं को न रखना समाधान है। (4). मुमुक्षता :: संसार से छूटने की इच्छा मुमुक्षता है। मुमुक्षता जाग्रत होने के बाद साधक पदार्थों और कर्मों का स्वरूप से त्यागकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर उसके निवास पर शास्त्रों को सुनकर तात्पर्य का निर्णय करना और उसे धारण करना श्रवण है।
(5). श्रवण :: श्रवण से संशय दूर होता है। (6). मनन :: इससे प्रमेयगत संशय दूर होता है।
(7). निदिध्यासन :: संसार की सत्ता को मानना और परमात्मा-तत्व को न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावना को हटाना निदिध्यासन है। (8). तत्व पदार्थ संशोधन :: प्राकृत पदार्थ-मात्र से सम्बन्ध-विच्छेद होना, केवल चिन्मय-तत्व का शेष रहना, तत्व पदार्थ संशोधन है और यही तत्व साक्षात्कार है।
इन सब साधनों का तातपर्य है असाधन अर्थात असत् से सम्बन्ध का त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिए नहीं होती परन्तु त्याग का परिणाम अपने लिए होता है।अष्टवर्ग-रामनीति :: राजा मेघ की भाँति समस्त प्राणियों को आजोविका प्रदान करनेवाला हो। उसके यहाँ आय के जितने द्वार (साधन) हों, उन सब पर वह विश्वस्त एवं जाँचे-परखे हुए लोगों को नियुक्त करे। जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी से जल लेता है, उसी प्रकार राजा उन आयुक्त पुरुषों द्वारा धन ग्रहण करे।जिन्हें उन-उन कर्मों के करने का अभ्यास तथा यथार्थ ज्ञान हो, जो उपधा द्वारा शुद्ध प्रमाणित हुए हों तथा जिनके ऊपर जाने-समझे हुए गणक आदि करण वर्ग की नियुक्ति कर दी गयी हो तथा जो उद्योग से सम्पन्न हों, ऐसे ही लोगों को सम्पूर्ण कर्मों में अध्यक्ष बनाये। खेती, व्यापारियों के उपयोग में आने वाले स्थल और जल के मार्ग, पर्वत आदि दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर एवं बाँध आदि), कुञ्जर बन्धन (हाथी आदि के पकड़ने के स्थान), सोने-चाँदी आदि की खानें, वन में उत्पन्न सार-दारु आदि (साखू, शीशम आदि) की निकासी के स्थान तथा शून्य स्थानों को बसाना, आय के इन आठ द्वारों को अष्टवर्ग कहते हैं। अच्छे आचार वाला राजा इस अष्ट वर्ग की निरन्तर रक्षा करे।[अग्निपुराण 239.44-45]
राजा के आठ प्रकार के कर्म MANU SMRATI (7.154-160) मनु स्मृति :: राज धर्म-नीति
कृत्स्नं चाष्टविधं कर्म पञ्चवर्गं च तत्त्वतः।
अनुरागापरागौ च प्रचारं मण्डलस्य च॥
आठ प्रकार के कर्म, पञ्चवर्ग अनुराग, विरोध और राजाओं का रङ्ग-ढंङ्ग, यह सब अच्छी तरह सोचे (अर्थात किस राजा से सन्धि, किससे विग्रह, उनका प्रतिकार कैसे करना चाहिये, इन सब बातों को सोचे।[मनु स्मृति 7.154]
The king should thoroughly consider (analyses, perform) eight kinds of duties (eight fold business), dealing with five kind of servants, treaty, repulsion or enmity with the other kings.
आदाने च विसर्गे च तथा प्रेष निषेधयो:।
पंचमे चार्थ वचने व्यवहारस्य चेक्षणे॥
दण्डशुद्धयोः सदायुक्तस्तेनाष्टगतिको नृप:।
आठ प्रकार के कर्म :: (1). प्रजाओं से कर लेना। (2).भृत्य और याचकों को यथायोग्य धन देना, (3). मन्त्रियों को किसी काम से भेजना, (4).अनावश्यक कार्यों से रोकना, (5). कार्य में संदेह होने पर राजा की आज्ञा को ही सर्वश्रेष्ठ मानना, (6). व्यवहारिक कामों को देखना, (7). पराजितों से उचित धन लेना और (8). किसी पाप के लिये प्रायश्चित करना ; ये आठ प्रकार के कर्म हैं।
पञ्चवर्ग :: अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना, ये पाँच प्रकृतियाँ ही पञ्चवर्ग हैं।
नौकर-चाकरों का विभाजन भी पाँच प्रकार का है :: (1). कपाटिक :- जो कपटी हो, दूसरे के मर्म को जानने वाला हो और अपने वेश को छिपाने में माहिर-प्रवीण हो; ऐसे चतुर व्यक्ति के साथ एकान्त में सलाह, मशवरा, आदेश करे या सन्देश ग्रहण करे, (2). उदास्थित :- भ्रष्ट सन्यासी के वेश-रूप में हो। उसे वैरी तथा प्रजा का सच्चा भेद देने के लिये नियुक्त करके, राजा एकान्त में उससे सभी भेदों को जाने; (3). गृहस्थ :- जो साधारण स्थिति का होने पर भी चतुर पवित्रात्मा हो, राजा उसकी वृत्ति निश्चित कर अपन गुप्तचर नियुक्त करे, (4). वाणिजक :- जिस बनिये के पास पूंजी न हो, मगर व्यापार करने में चतुर हो, उसे धन देकर व्यापार के बहाने अपने देश में या अपने देश के बाहर भेजकर उसके द्व्रारा गुप्त भेद-सूचनाएँ प्राप्त करे, और (5). तापस :- जो सन्यासी नीतिज्ञ हो और जीविका से हीन हो, उसे वृत्ति देकर उसे अपना गुप्त दूत नियुक्त करे और वह अपने कपटी शिष्यों के साथ त्रिकालज्ञ बना हुआ राजा के प्रति लोगों के मनोभावों को जानकर एकान्त में राजा से कहे।
मध्यमस्य प्रचारं च विजिगीषोश्च चेष्टितम्।
उदासीनप्रचारं च शत्रोश्चैव प्रयत्नतः॥
मध्यम का प्रचार, विजिगीषू की चेष्टा और उदासीन तथा शत्रु का प्रयत्न; इन सब बातों को बड़े यत्न से सोचे।[मनु स्मृति 7.155]
The king should consider the activities of the people of the three categories viz. first one who is neutral but capable of forcing compromise over two opposite-rival states and is capable of punishing them if they fail to carry out his dictates, as well as helping them in case they unite, the second one is intelligent, stable-determined, active and smart-sharp by nature and the third one is neutral but able to mediate between the above two categories side by side, ready to help or control both (neutral).
मध्यम :: वह व्यक्ति है जो शत्रु की विजय की इच्छा करने वाले राजा की भूमि से तटस्ठ और उन दोनों के मिल जाने पर अनुग्रह करने में और उस देशों में विभिन्नता होने से दण्ड देने में समर्थ हो।
विजिगीषू :: वह शख्स है जो बुद्धि, उत्साह, गुण और स्वभाव से दृढ़ हो।
उदासीन :: ऐसा व्यक्ति जो वीजिगीषू और मध्यम, के मिले रहने पर अनुग्रह करने में और उनके न मिले होने पर निग्रह करने में समर्थ हो।
एताः प्रकृतयो मूलं मण्डलस्य समासतः।
अष्टौ चान्याः समाख्याता द्वादशैव तु ताः स्मृताः॥
ये मध्यम आदि संक्षेप से प्रकृतियाँ राजमण्डल की मूल हैं। इनके अतिरिक्त आठ और प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार कुल मिलकर बारह प्रकृतियाँ शास्त्र में कही गई हैं।[मनु स्मृति 7.156]
मित्र, अरिमित्र, मित्र-मित्र, अरिमित्र-मित्र, पार्ष्णिग्रह, आक्रन्द, पार्ष्णिग्राहासार, अकान्दासार, ये आठ अन्य प्रवृतियां हैं।
These traits described above constitute the core of administering a state. Other than these 8 more categories are there.
अमात्यराष्ट्रदुर्गार्थदण्डाख्याः पञ्च चापराः।
प्रत्येकं कथिता ह्येताः सङ्क्षेपेण द्विसप्ततिः॥
प्रत्येक भेद के मंत्री, देश, किला, कोष और सैन्य, ये पाँच प्रभेद और होते हैं। संक्षेप में इन्हें सबको मिलाकर 72 भेद हैं।[मनु स्मृति 7.157]
There are 72 distinctions-divisions including 5 distinctions pertaining to the individual minister handling a specific department-ministry, the kingdom, the fortress, the treasury and the army.
अनन्तरमरिं विद्यादरिसेविनमेव च।
अरेरनन्तरं मित्रमुदासीनं तयोः परम्॥
राजा को अपने राज्य की सीमाओं से सम्बन्धित राज्यों के राजाओं और उनके सेवकों को शत्रु-प्रकृति जानना चाहिये। इनसे मिले राजाओं के जो राज्य हों उन्हें मित्र प्रकृति जानना चाहिये और इन दोनों के पर जो राज्य हो उसे उदासीन प्रकृति समझना चाहिये।[मनु स्मृति 7.158]
The king should consider the states with common boundary-immediate neighbour and its servants as its enemy-foe and those which are touched by the boundaries of the enemy territory as friends and those kingdoms which are far away should be treated as neutral.
तान्सर्वानभिसंदध्यात्सामादिभिरुपक्रमैः।
व्यस्तैश्चैव समस्तैश्च पौरुषेण नयेन च॥
उन सभी राजाओं को साम, दाम, दण्ड और विभेद आदि उपायों से वश में करे अथवा केवल दंड या केवल साम से उन्हें वश में करे।[मनु स्मृति 7.159]
All these states should be handled by carrot and stick policy i.e., convincing (treaty, compromise, meetings), paying off some money, (territory, gifts, even making marital relations), punishment (invading, conquering) and/or creating misunderstanding (conflict, internal differences, enmity).
संधिं च विग्रहं चैव यानमासनमेव च।
द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥
सन्धि (मेल-मिलाप), विग्रह, (विरोध), यान (शत्रु के देश पर चढ़ाई करना), आसन (उपेक्षण), द्वैधीभाव (बल का दो भागों में बाँटना) और संश्रय (शत्रु से सताये जाने पर प्रबल राजा का आश्रय लेना), इन छः गुणों को सदा सोचना चाहिये।[मनु स्मृति 7.160]
The king should always keep six tenants of policy measures pertaining to the enemy :: (1). Compromise, treaty, alliance, (2). opposition, repulsion, retaliation, defeating in the war field, (3). attacking the enemy, (4). halting, stalling, stance, repulsion or just ignoring, (5). division of the army into two segments and (6). seeking help-protection from a strong ally in case of being troubled.
अष्ट सिद्धयाँ :: सिद्धि अर्थात पूर्णता की प्राप्ति होना व सफलता की अनुभूति मिलना। सिद्धि को प्राप्त करने का मार्ग एक कठिन मार्ग हो ओर जो इन सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है, वह जीवन की पूर्णता को पा लेता है। असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को ‘सिद्धि’ कहा गया है. चमत्कारिक साधनों द्वारा ‘अलौकिक शक्तियों को पाना जैसे : दिव्यदृष्टि, अपना आकार छोटा कर लेना, घटनाओं की स्मृति प्राप्त कर लेना इत्यादि. ‘सिद्धि’ इसी अर्थ में प्रयुक्त होती है।
शास्त्रों में अनेक सिद्धियों की चर्चा की गई है और इन सिद्धियों को यदि नियमित और अनुशासनबद्ध रहकर किया जाए तो अनेक प्रकार की परा और अपरा सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। सिद्धियाँ दो प्रकार की होती हैं :- एक परा और दूसरी अपरा। यह सिद्धियां इंद्रियों के नियंत्रण और व्यापकता को दर्शाती हैं। सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियाँ अपरा सिद्धियां कहलाती हैं।
मुख्य सिद्धियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं। इन सिद्धियों को पाने के उपरांत साधक के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। सिद्धियां क्या हैं व इनसे क्या हो सकता है इन सभी का उल्लेख मार्कंडेय पुराण तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण में प्राप्त होता है।
(1). अणिमा सिद्धि :: अति सूक्ष्म रूप धारण करना। इससे व्यक्ति सूक्ष्म रूप धर कर एक प्रकार से दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है। इसके द्वारा आकार में लघु होकर एक अणु रुप में परिवर्तित हो सकता है। अणु एवं परमाणुओं की शक्ति से सम्पन्न हो साधक वीर व बलवान हो जाता है। अणिमा की सिद्धि से सम्पन्न योगी अपनी शक्ति द्वारा अपार बल पाता है। इस के सिद्द होने पर व्यक्ति सूक्ष्म रूप का होकर कही भी आ जा सकता है।
(2). लघिमा सिद्धि :: स्वयं का भार न के बराबर करना और पल भर में वे कहीं भी आ-जा सकने की क्षमता। इस दिव्य महासिद्धि के प्रभाव से योगी सुदूर अनन्त तक फैले हुए ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ को अपने पास बुलाकर उसको लघु करके अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन कर सकता है।
(3). गरिमा सिद्धि :: स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान करना। इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है। यह सिद्धि साधक को अनुभव कराती है कि उसका वजन या भार उसके अनुसार बहुत अधिक बढ़ सकता है, जिसके द्वारा वह किसी के हटाए या हिलाए जाने पर भी नहीं हिल सकता।
(4). प्राप्ति सिद्धि :: किसी भी वस्तु को तुरन्त-तत्काल प्राप्त कर लेना। पशु-पक्षियों की बोली-भाषा को समझ लेना और भविष्य में होने वाली घटनाओं को जान लेना। कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता इस सिद्धि के बल पर जो कुछ भी पाना चाहें उसे प्राप्त किया जा सकता है। इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक जिस भी किसी वस्तु की इच्छा करता है, वह असंभव होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है। जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी पूरा कर पाने में वह सक्षम हो जाता है, केवल इसी सिद्धि द्वारा ही वह असंभव को भी संभव कर सकता है।
(5). प्राकाम्य सिद्धि :: पृथ्वी गहराइयों-पाताल तक जाने, आकाश में उड़ने और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकने का सामर्थ। कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति है। इसके सिद्ध हो जाने पर मन के विचार आपके अनुरुप परिवर्तित होने लगते हैं। इस सिद्धि में साधक अत्यंत शक्तिशाली शक्ति का अनुभव करता है। इस सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसे पाने में कामयाब रहता है। व्यक्ति चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे तो पानी पर चल सकता है।
(6). महिमा सिद्धि :: विशाल रूप धारण करना। अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता को महिमा कहा जाता है। यह आकार को विस्तार देती है। विशालकाय स्वरुप को जन्म देने में सहायक है। इस सिद्धि से सम्पन्न होकर साधक प्रकृति को विस्तारित करने में सक्षम होता है। जिस प्रकार केवल ईश्वर ही अपनी इसी सिद्धि से ब्रह्माण्ड का विस्तार करते हैं, उसी प्रकार साधक भी इसे पाकर उन्हें जैसी शक्ति भी पाता है।
(7). ईशिता सिद्धि :: दैवीय शक्तियाँ प्राप्त करना। हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना ही इस सिद्धि का अर्थ है। इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। सिद्धि प्राप्त होने पर अपने आदेश के अनुसार किसी पर भी अधिकार जमा सकता है, वह चाहे छोटे राज्यों से लेकर एक बड़े साम्राज्य ही क्यों न हो। इस सिद्धि को पाने पर साधक ईश रुप में परिवर्तित हो जाता है.
(8). वशिता सिद्धि :: जितेंद्रिय होना और मन पर नियंत्रण रखना। अतुलित बल की प्राप्ति। जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता को वशिता या वशिकरण कही जाती है। इस सिद्धि के द्वारा जड़, चेतन, जीव-जन्तु, पदार्थ-प्रकृति, सभी को स्वयं के वश में किया जा सकता है। इस सिद्धि से संपन्न होने पर किसी भी प्राणी को अपने वश में किया जा सकता है।
दस गौण सिद्धियां :: श्री मद् भागवत पुराण में भगवान् कृष्ण ने निम्न दस गौण सिद्धियों का वर्णन किया है
(1). अनूर्मिमत्वम्, (2). दूरश्रवण, (3). दूरदर्शनम्, (4). मनोजवः, (5). कामरूपम्, (6). परकायाप्रवेशनम्, (7). स्वछन्द मृत्युः, (8). देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्, (9). यथा संकल्प संसिद्धिः, (10). आज्ञा अप्रतिहता गतिः।
अन्य सोलह गौण सिद्धियाँ ::
(1). वाक् सिद्धि :- मनुष्य जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, कभी व्यर्थ न. जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो। वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है।
(2). दिव्य दृष्टि :- दिव्य दृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये। भविष्य में क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्य दृष्टि से युक्त महापुरुष बन जाता हैं।
(3). प्रज्ञा सिद्धि :- प्रज्ञा-मेधा अर्थात स्मरण शक्ति, बुद्धि, विवेक, ज्ञान इत्यादि। ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेना। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ मनुष्य के भीतर अंतर्मन में एक चेतना पुंज का जाग्रत होना।
(4). दूरश्रवण :- भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता।
(5). जल गमन :- इस सिद्धि को प्राप्त करके योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो।
(6). वायुगमन :- इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित करके मनुष्य एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल आ जा सकता हैं।
(7). अदृश्यकरण :- अपने स्थूल शरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर अदृश्य कर देना।
(8). विषोका :- स्वयं को अनेक रूपों में विभक्त-परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैंऔर दूसरे स्थान पर अलग रूप धारण कर लेना।
(9). देव क्रियानुदर्शन :- इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं। उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता है।
(10). कायाकल्प :- कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन। समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती है। इससे युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और युवा ही बना रहता है।
(11). सम्मोहन :- वशीकरण-सम्मोहन किसी भी अन्य व्यक्ति-प्राणी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया है।
(12). गुरुत्व :- गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान। जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता है। भगवान् श्री कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया है।
(13). पूर्ण पुरुषत्व :- इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना।
(14). सर्व गुण संपन्न :- व्यक्ति में संसार के सभी उदात्त गुणों यथा दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि का समावेश। इन्हीं गुणों के कारण मनुष्य विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता है और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता है।
(15). इच्छा मृत्यु :- इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति काल जयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता है।
(16). अनुर्मि :- अनुर्मि का अर्थ है मनुष्य पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावनाका कोई प्रभाव न होना।
8 वसु :: (1). आप, (2. ध्रुव), (3). सोम, (4). धर, (5). अनिल, (6). अनल, (7). प्रत्युष और (8). प्रभाष।
8 प्रकार का मैथुन :: महर्षि कश्यप से मैथुनी सृष्टि की शुरुआत हुई है। इसमें काम देव और उनकी पत्नी की अहम भूमिका है। इसका मूल उद्देश्य वंश वृद्धि है।
स्त्री और पुरुष में लिंग भेद है जो सन्तति के लिये आवश्यक है। इसका सम्बन्ध आनन्द से भी है। इस विषय में कामसूत्र का अध्ययन किया जा सकता है। जहाँ योनि मैथुन प्राकृतिक है, वहीं-हस्तमैथुन, गुदामेथुन, मुख मैथुन, पशु मैथुन अप्राकृतिक रोगकारक, मानसिक विकृति का द्योतक है।
भोग और रोग एक सिक्के के दो पहलू हैं। ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है।
अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः।
शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः॥[मनु स्मृति 6.26]
शारीरिक सुख भोगने के लिये यत्न न करे, ब्रह्मचारी हो अर्थात आठों प्रकार के मैथुन* का त्याग कर दे, भूमि पर सोये, निवास स्थान में ममता रहित होकर पेड़ के नीचे रहे।
One should reject all sorts of comforts, maintain celibacy-chastity of eight forms, sleep over land-ground, reject-discard home and live under the tree by rejecting all sorts of affection, allurements.
स्मरण कीर्तन केलि प्रेक्षणं गुह्य भाषणम्।
संकल्योSध्यवसायश्च क्रियानिष्पतिरेव च॥
मैथुन के आठ प्रकार ::
(1). दृष्टिकोण मैथुन :- पुरुष या स्त्रियों को कामुक भाव से देखना, विपरीत लिंगी को कामुक भावना से देखना।
(2). स्पर्श करना :- उसके रूप-गुणों का वर्णन करना,स्त्री-पुरुष सम्बन्धी चर्चा करना या गीत गाना।
(3). केलि मैथुन :- दूसरे पक्ष को रिझाने के लिए शारीरिक मुद्रा से इशारे करना, जो मैथुन में सहायक होने से सविलास की क्रीड़ा करना माना जाता है।
(4). प्रशंसा :- स्त्री-पुरुष के गुणों की प्रशंसा करना।
(5). गुप्तभाषण :- एकांत में संताप करना, मैथुन सम्बन्धी गुप्त बातें करना अथवा पुरुष-स्त्री का छुपकर वार्तालाप करना, कीर्तन से इसमें छिपने मात्र का भेद है।
(6). संकल्प मैथुन :- कामुक कर्म का दृढ़ निश्चय करना, मैथुन करूँ ऐसी तरंग का मन में उठना।
(7). अध्यवसाय :- तुष्टिकरण की कामना से स्त्री के निकट जाना, मैथुन करने का उपाय करना, अपराध-मुक्त करना, लोभ-प्रलोभ देकर, आगे-पीछे चक्कर काटकर या अन्य प्रकार का उद्योग करना।
(8). क्रिया निवृत्ति अर्थात् वास्तविक रति क्रिया :- जानबूझ कर लिंगेद्रिय से वीर्यपात-रजपात की क्रिया करना मैथुन क्रिया से बचना ही ब्रह्मचर्य है।
केलि :: खेल, क्रीड़ा, रति, आनंदक्रीड़ा, काम-व्यापार, संभोग, मौजमस्ती, विनोद, लीला, sexual intercourse, mating.
प्रेक्षण :: किसी काम, चीज या बात को किसी विशेष उद्देश्य से ध्यानपूर्वक देखने रहने का भाव, tendency to watch see, observe sexual intercourse performed by others.
गुह्य :: गुप्त रखने योग्य, रहस्यमय, छल, कपट, रहस्य, भेद; occult, revealing secrets of sexual life, intercourse, mating.
क्रोध से पैदा होने वाली 8 दोष-बुराईयाँ :: (1). चुगली करना, (2). साहस, (3). द्रोह, (4). ईर्ष्या करना, (5). दूसरों में दोष देखना, (6). दूसरों के धन को छीन लेना, (7). गालियां देना, (8). दूसरों से बुरा व्यवहार करना।
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासुयार्थदूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टक:॥[मनु स्मृति 7.48]
किसी का अज्ञात दोष प्रकट, साहस अर्थात बुरे कामों में पराक्रम दिखलाना, द्रोह, ईर्ष्या अर्थात दूसरे के गुणों को न सहना, असत्य अर्थात दूसरे के गुणों को देखना, अर्थदोष अर्थात अग्राह्य द्रव्य लेना और देय द्रव्य का न देना, कठोर भाषण और क्रूर प्रताड़ना, ये आठ क्रोध से उत्पन्न व्यसन-दोष हैं।
Tale-bearing, violence, treachery, envy, slandering, (unjust) seizure of property, reviling, and assault are the eight fold set (of vices) produced by wrath.
राजा के आठ प्रकार के कर्म :- (1). प्रजाओं से कर लेना। (2). भृत्य और याचकों को यथा योग्य धन देना, (3). मन्त्रियों को किसी काम से भेजना, (4).अनावश्यक कार्यों से रोकना, (5). कार्य में संदेह होने पर राजा की आज्ञा को ही सर्वश्रेष्ठ मानना, (6). व्यवहारिक कामों को देखना, (7). पराजितों से उचित धन लेना और (8). किसी पाप के लिये प्रायश्चित करना; ये आठ प्रकार के कर्म हैं।
आदाने च विसर्गे च तथा प्रेष निषेधयो:।
पंचमे चार्थ वचने व्यवहारस्य चेक्षणे॥
दण्डशुद्धयोः सदायुक्तस्तेनाष्टगतिको नृप:।
आठ महादान ::
तिलं लौहं हिरण्यञ्च कार्पासं लवणं तथा।
सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं स्मृतम्॥[गरुड़ पुराण 2.4.39]
(तिल, लोहा, सुवर्ण, कपास, लवण, सप्तधान, भूमि तथा गाय)
आठ प्रकार की हिंसा ::
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥[मनुस्मृति 5.51]
पशु-पक्षी अथवा मनुष्य को मारने की अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला) आज्ञा देने वाला, उसके खण्ड-खण्ड करने वाला-विशसिता (शस्त्र से मरे हुए प्राणियों के अंगों को काटने वाला), निहन्ता-मारने वाला, विक्रेता-माँस बेचने वाला, संस्कत्र्ता-माँस को पकाने वाला और मोल लेने वाला-क्रेता, परोसने वाला-उपहत्र्ता (उपहार रूप में माँस को देने वाला) और खाने वाला-खादक; ये आठों ही घातक-गुनहगार हैं।
All the 8 categories of people i.e., who orders killing-slaughter, who cut-chop it into pieces, the butcher-killer, seller, buyer, cook, who serves the meat and one who eats meat, are guilty-sinners.
आठ प्रकार के बन्धन :: संशय, दया, भय, संकोच, निन्दा प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति।
आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च;
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथात्यागित्वमेव च।
एते वै अष्ट दोषा: स्यु: सदा विद्यार्थिनां मता:॥[विदुर नीति 116]
आलस्य करना, मदकारी पदार्थों का सेवन, घर आदि में मोह रखना, चपलता-एकाग्रचित न होना, व्यर्थ की बात में समय बिताना, उद्धतपना (inaugurate) या जड़ता, अहंकार और लालची होना, ये आठ दोष विद्यार्थी के माने गए है अर्थात् इन दुर्गुणों से युक्त को विद्या प्राप्त नहीं होती।
Evils-defects of a learner-student :: laziness, use of drugs-narcotics, attachment for the home, lack of concentration-frolic behaviour, versatility, wasting time in useless affairs, ignorance, ego and greediness.
चंचलता :: बहुमुखी प्रतिभा, बहुविज्ञता; versatility.
अष्टमातृका ::
ब्राह्मणी :- ये परमपिता ब्रह्मा की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। ये पीत वर्ण की है तथा इनकी चार भुजाएँ हैं। ब्रह्मदेव की तरह इनका आसन कमल एवं वाहन हंस है।
वैष्णवी :- ये भगवान विष्णु की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। इनकी भी चार भुजाएँ हैं, जिनमें ये भगवान् श्री हरी विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा एवं कमल धारण करती हैं। नारायण की भाँति ये विविध आभूषणों से ऐश्वर्य का प्रदर्शन करती हैं तथा इनका वाहन भी गरुड़ है।
माहेश्वरी :- आदि देव महादेव की शक्ति को प्रदर्शित करने वाली चार भुजाओं वाली ये देवी नंदी पर विराजमान रहती हैं। इनका दूसरा नाम रुद्राणी भी है जो महरूद्र की शक्ति का परिचायक है। महादेव की भांति ये भी त्रिनेत्रधारी एवं त्रिशूलधारी हैं। इनके हाथों में त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्षमाला एवं कपाल स्थित रहते हैं।
इन्द्राणी :- ये देवराज इंद्र की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं, जिन्हें ऐन्द्री, महेन्द्री एवं वज्री भी कहा जाता है। इनकी चार भुजाएँ एवं हजार नेत्र बताये गए हैं। इन्द्र की भाति ही ये वज्र धारण करती हैं और ऐरावत पर विराजमान रहती हैं।
कौमारी :- शिवपुत्र कार्तिकेय की शक्ति स्वरूपा ये देवी कुमारी, कार्तिकी और अम्बिका नाम से भी जानी जाती हैं। मोर पर सवार हो ये अपने चारों हाथों में परशु, भाला, धनुष एवं रजत मुद्रा धारण करती हैं। कभी-कभी इन्हें स्कन्द की भाँति छः हाथों के साथ भी दर्शाया जाता है।
वाराही :- ये भगवान् श्री हरी विष्णु के अवतार वाराह अथवा यमदेव की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। ये अपने चार हाथों में दंड, हल, खड्ग एवं पानपत्र धारण करती हैं तथा भैसें पर सवार रहती हैं। इन्हे भी अर्ध नारी एवं अर्ध वराह के रूप में दिखाया जाता है।
चामुण्डा :- ये देवी चंडी का ही दूसरा रूप है और उन्हीं की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हें चामुंडी या चर्चिका भी कहा जाता है। इनका रंग रूप महाकाली से बहुत मिलता जुलता है। नरमुंडों से घिरी कृष्ण वर्ण की ये देवी अपने चारों भुजाओं में डमरू, खड्ग, त्रिशूल एवं पानपत्र लिए रहती हैं। त्रिनेत्रधारी ये देवी सियार पर सवार शवों के बीच में अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।
नरसिंहि :- विष्णु अवतार नृसिंह की प्रतीक इन देवी का स्वरुप भी उनसे मिलता है। इन्हें नरसिंहिका एवं प्रत्यंगिरा भी कहा जाता है।
SIGNIFICANCE OF 9 :: ब्राह्मण के नौ गुण :-
देव एक गुन धनुष हमारे। नौ गुन परम पुनीत तुम्हारे॥
हे प्रभु हम क्षत्रिय हैं हमारे पास एक ही गुण अर्थात धनुष ही है आप ब्राह्मण हैं आप में परम पवित्र 9 गुण हैं।[भगवान् श्री राम ने परशुराम जी से-राम चरित मानस]
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः॥
रिजुः :- सरल हो,
तपस्वी :- तप (मेहनती-परिश्रमी) करने वाला हो,
संतोषी :- मेहनत की कमाई पर सन्तुष्ट रहनेवाला हो,
क्षमाशीलो :- क्षमा करनेवाला हो,
जितेन्द्रियः :- इन्द्रियों को वश में रखनेवाला हो,
दाता :- दान करने वाला हो,
शूर :- बहादुर हो,
दयालुश्च :- सब पर दया करने वाला, ब्रह्म ज्ञानी हो।
[राम चरित मानस]
भिक्षा के उपयुक्त 9 पात्र :-
सान्तानिकं यक्ष्यमाणमध्वगं सार्ववेदसम्।
गुर्वर्थं पितृमात्र्यर्थं स्वाध्यायार्थ्युपतापिनः॥
नैवतान्स्नातकान्विद्याद् ब्राह्मणान्धर्मभिक्षुकान्।
निःस्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्याविशेषतः॥
सन्तान की इच्छा रखने वाला, यज्ञ करने की इच्छा वाला, पथिक (राहगीर), सर्वस्व दान देकर यज्ञ करने वाला, गुरु (विद्या प्रदान करने वाला) और माता-पिता के भरण-पोषण के लिये धन चाहने वाला, वेद पढ़ने वाला और रोगी व्यक्ति, धर्म भिक्षुक, ब्राह्मण स्नातक हैं अर्थात इनको स्नातक के समान समझें। इन निर्धनों को विद्या और योग्यता के अनुसार धन देना चाहिये।[मनुस्मृति 11.1-2]
One desirous of progeny, performance of Yagy, traveller, one performing Yagy by donating everything he has, the Guru, one who need money for his parents subsistence, learner of Veds, diseased, hermit and the Brahman should be considered like a celibate-Brahmchari asking alms and should be helped as per their status :- learning and ability; after examining whether they are worthy or not.
These nine categories of people requesting help should be granted alms by considering them to be Graduates in learning and Brahmans.
नव दुर्गा :: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धि दात्री।
नव रत्न :: हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नव निधि :: पद्म निधि, महापद्म निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नंद निधि, मकर निधि, कच्छप निधि, शंख निधि, खर्व-मिश्र निधि।
नौ विध्न :: शारीरिक रोग, चित्त की अकर्मण्यता, संशय, लापरवाही, शरीर की जड़ता, विषयों की इच्छा, कुछ का कुछ समझना, साधन करते रहने पर भी उन्नति न होना, ऊपर की भूमिका पाकर उससे फिर नीचे गिरना, वित्त में विक्षेप करने वाले नौ विध्न हैं।
नवग्रह :: सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु।
नवरत्न :: माणिक्य, मोती, मूँगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद और वैदूर्य।
NINE ELEMENTS OF BHAKTI YOG :: Dev Rishi Narad, described the nine elements of Bhakti Yog in his Bhakti Sutr.
SAT SANG (Auspicious, virtuous, righteous, pious, holy company) :: To cultivate and maintain contact with people who speak of God and truth.
HARI KATHA :: Listening, telling, remembering, describing, discussing stories pertaining to God: To be inspired by the Holy Scriptures, epics, Shastr and the life stories of saints.
SHRADDHA (Faith) :: To have faith in the Holy Scriptures and the Master and to accept and take to heart their words and teachings.
ISHWAR BHAJAN (ईश्वर भजन-Prayers, enchants, rituals) :: To sing God’s praises, to sing spiritual songs (Bhajans) in the praise the glory of God.
MANTR JAP (Recitation, Repetition of Mantr 108, 1008, ... times at a stretch) :: To inwardly repeat your Mantra at all times and under all circumstances.
SHAM DAM (Internal and External Control) :: To be the Master of the senses and not allow temptation to overwhelm us and to discipline thought, word and deed.
SANTOUN KA ADAR (आदर, respect, honour all Holy Virtuous people) :: To respect and honour all people who have dedicated their life to God, no matter to which religion they belong.
SANTOSH (contentment) :: Satisfaction, to be thankful for and content with everything that God gives.
ISHWAR PRANIDHAN (devotion to God) :: To love God with a pure heart without egoistic expectations, and complete surrender to the Divine.
हिंदु धर्म के 9 चिन्ह :: (1). शंख, (2). चक्र, (3). गदा, (4). कमल, (5). ध्वजा, (6). ॐ, (7). स्वास्तिक, (8). त्रिशूल और (9). कलश।नवधा भक्ति :: Please refer to :: नवधा भक्ति santoshsuvichar.blogspot.com 9 का अंक ब्रह्म का प्रतीक और अक्षय है। इसलिए सत्ययुग का प्रारंभ अक्षय नवमी से मान जाता है। आज भी कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी कहते है।
Number of beads in a rosary is 108. माला में मनकों की सँख्या 108 है।
Number of Purans is 18. पुराणों की सँख्या 18 है। Up-Purans-sub titles is 18. उपपुराण भी 18 हैं।
Oup Puran are 18 in number. औपपुराण भी 18 हैं।
Maha Bharat has 18 chapters. महाभारत के पर्व भी 18 हैं।
Shri Mad Bhagwat Geeta has 18 chapters. गीता में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश भी 18 अध्यायों में संगृहीत हैं।
Shri Mad Bhagwat has 18,000 rhymes-verses-Shlok. श्रीमद्भागवत के श्लोकों की सँख्या भी 18,000 है।
Number of Vaners in the army of Bhagwan Shri Ram was 18 Padam. भगवान राम की सेना में वानरों की सँख्या 18 पद्म ( 1015 ) थी।
युगों की सँख्या भी ऐसी ही है -
सत्ययुग के सौर वर्ष 17,28,000 हैं। [ 1+7+2+8 = 18; 1+8 = 9]
त्रेतायुग की सौर वर्ष सँख्या 12,96,000 हैं। [1+2+9+6 = 18; 1+8 = 9]
द्वापरयुग की सौर वर्ष सँख्या 8,64,000 हैं। [8+6+4 = 18; 1+8 =9]
कलियुग की सौर वर्ष सँख्या 4,32,000 है। [4+3+2 =9]
चार युगों के सौर वर्षों की सँख्या का जोड़ 43,20,000 (4.32 million) होता है। [4+3+2 =9]
71 चतुर्युग बीत जाने पर एक मन्वंतर होता है, जिसकी वर्ष संख्या 30,67,20,000 (306.72 million) है। [3+6+7+2 = 18; 1+8 =9]
प्रत्येक मन्वंतर के बाद एक संधिकाल होता है, जो कि एक सत्य युग के बराबर होता है। (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है)।
इस तरह ब्रह्मा जी के एक दिन में 14 मन्वंतर और 15 संधिकाल होते हैं, जिसे एक कल्प कहा जाता है।
15 संधियों का योग 2,59,20,000 (25.92 million) वर्ष का है। [2+5+9+2 = 18 , 1+8 = 9]
14 मन्वन्रोरों के कुल सौर वर्ष हैं = 42,940,80,000 (4.294 billion)। [4+2+9+4+8=27; 2+7=9]
इस तरह एक कल्प (14 मन्वन्तर +15 संधिकाल ) में कुल 4,32,00,00,000 (4.32 billion) सौर वर्ष होते हैं।[4+3+2 = 9] यह ब्रह्मा जी का एक दिन है, उतनी ही अवधि की उसकी रात होती है।
इस प्रकार ब्रह्मा के दिन-रात का जोड़ 86,40,00,000 सौर वर्ष का होता है। [8+6+4 = 18; 1+8 = 9]
ब्रह्मा जी का एक मास 2,59,20,00,00,000 (259.2 billion) सौर वर्ष का होता है। [2+5+9+2 = 18; 1+8 = 9]
ब्रह्मा जी का एक वर्ष = 31,10,40,00,00,000 (3110.4 billion) सौर वर्ष।
ब्रह्मा की आयु 100 दिव्य वर्ष है, जो कि 31,10,40,00,00,000 (311.04 trillion) सौर वर्ष है, यहाँ भी [3+1+1+4 = 9] का योग है और ब्रह्म का प्रतीक है। यह अक्षय है; इसीलिए सत्ययुग का प्रारंभ अक्षय नवमी से मान जाता है।आज भी कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी कहते है। इस 9 के ब्रह्म के अंक होने से महत्ता के कारण ही नव दुर्गा होती है। नवार्ण मंत्र के अक्षर भी 9, ग्रह भी 9 और नक्षत्र 27 (2+7 = 9) है।
9 अंक होने से ही “ न क्षरतीति नक्षत्रं “ इस निर्वचन से नक्षत्र भी अक्षय होता है। राशियों के अक्षर भी 9 है। तीन व्याहतियों के साथ गायत्री मंत्र के अक्षर भी 27 (2+7 = 9) है, इसलिए उसका जप 108 बार भी 1+8 = 9 होकर अक्षय फल वाला होता है।
महाभारत युद्ध में मरने से केवल 9 योद्धा हो बचे थे। पाँच पाण्डव, भगवान् श्री कृष्ण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा।
हमारे शरीर में छिद्र भी 9 हैं।
27 नक्षत्र होते है, प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं, इस तरह उनका भी गुणनफल 27 X 4 = 108 हुआ। इस तरह से नक्त्रोत्रों की माला के 108 सँख्या वाला होने से जपमाला की मणियों की सँख्या भी 108 है।
ब्रह्माण्ड में नक्षत्र माला का जिस स्थान पर दोनों ओर से सम्मलेन होता है, वह सुमेरु पर्वत है, ऐसा वेदों में कहा गया है। इसी प्रकार जपमाला का संयोजन स्थान भी सुमेरु है।
सुमेरु को लाँघना नहीं पडता, इस प्रकार 9 अंक तथा उसके प्रतिनिधि ब्रह्म को भी लाँघना ठीक नहीं होता। ऐसा कहा जाता है कि सुमेरु पर्वत का भी कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।
संस्कृत में 54 अक्षर पाए जाते हैं और हर अक्षर के पुरुष और स्त्री लिंग भेद 108 होते हैं। इस तरह से संस्कृत भाषा में 108 विभिन्न अक्षरों का प्रयोग होता है।
शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों में 108 भौतिक कामनाएँ होती हैं और वह 108 तरह के झूठ बोल सकता है।
हृदय चक्र से 108 नाड़ियाँ संचालित होती है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सुषुम्ना नाडी है, जो सहस्रार चक्र तक जाती हैं।
श्रीयंत्र में 54 बिंदु होते हैं, जहाँ पर 3 रेखाएँ जिन्हें मर्म कहते हैं, मिलती हैं। हर बिंदु के पुरुष वाचक और स्त्री वाचक दो भेद होते हैं। इस तरह से श्री यंत्र में 108 मर्म पाए जाते हैं।
मनुष्य के मन में भूत, वर्त्तमान और भविष्य काल से सम्बंधित भावनाएँ होती हैं। हर काल से संबधित 36 भावनाएँ होती हैं। इस तरह कुल 108 भावनाएँ होती हैं।
पृथ्वी की सूर्य से दूरी सूर्य के व्यास की 108 गुना है। (The distance between the Earth and the Sun equals about 108 times the Sun's diameter)
सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का 108 गुना है। Sun's diameter approximately equals 108 times the earth's diameter.)
पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी भी चन्द्रमा के व्यास का 108 गुना है। (the distance between the earth and the moon equals about 108 times the moon's diameter.)
पवित्र गंगा नदी का विस्तार 12° देशांतर ( 79-91 ) से 9° (22-31) अक्षांश तक है जो कि कुल विस्तार 12 X 9 = 108° है। (The sacred River Ganga spans a longitude of 12 degrees (79 to 91) and a latitude of 9 degrees (22 to 31). 12 times 9 equal 108.)
If one is able to be so calm in meditation as to have only 108 breaths in a day, enlightenment will come.
The angle formed by two adjacent lines in a pentagon equals 108 degrees.
There are said to be 108 Indian goddess names.
कृष्ण की गोपियों की संख्या भी 108 कही गयी है।
भारत में 108 प्रकार के नृत्य कहे गए हैं।
संयोग से प्रथम बार अंतरिक्ष की यात्रा करने वाला मानव यूरी गगारिन ने 108 मिनिट तक ही अंतरिक्ष की यात्रा तय की। (The first manned space flight lasted 108 minutes, and was on April 12, 1961 by Yuri Gagarin, a Soviet cosmonaut.)
Fahrenheit (°F) थर्मामीटर का उच्चतम तापमान भी 108° F ही होता है। ऐसा कहा जाता है की 108° F बुखार होने पर व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
108 मणियों की माला जपने का क्या उद्देश्य ::सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय को परोक्षता से 108 रूप में कहा गया है। गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं :-
"अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा "
अर्थात् समस्त जगत की उत्पत्ति और प्रलय मैं ही हूँ। और फिर कहा है :–
"मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव"
अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत मुझ परमेश्वर में ऐसे पिरोया हुआ है, जैसे सूत्र में मणियाँ। यहाँ माला का स्वरुप बता दिया गया।
*जीव अपरा प्रकृति से निर्मित सम्पूर्ण अपरा प्रकृतिरूप 9 गुणों वाले जगत को धारण कर लेता है, अतः दसवाँ होने से 10 गुणों वाला होता है।
9 पहले के गुण और 10 वाँ उसका अपना। पहले के 44 और ये 10 गुण मिलकर हो गए 54। यह मणियों की आधी माला तैयार हो गयी।
यह आधी सँख्या केवल उत्पत्ति की है। उत्पत्ति के विपरीत प्रलय होता है, उसकी भी सँख्या 54 होगी। जिसमें ये सारे 54 गुण पुनः ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार 108 मणियों की माला हो जाती है।
गीता में यहाँ बताया गया है कि मुझ परमेश्वर से अतिरिक्त जगत का कारण अन्य कुछ भी नहीं है। यही एक माला का सुमेरु हुआ। प्रलयोत्पत्ति का उदाहरण केवल व्यावहारिक है; सुमेरु जीव-ब्रह्म की एकता बताता है।
जीव और ब्रह्म मे अंतर यही है कि ब्रह्म की सँख्या 1 है, और जीव की 10। यहॉं 10 में शून्य माया का प्रतीक है। जब तक वह जीव के साथ है, तब तक जीव बंधन में है। जब उस मायारूप शून्य को जीव त्याग देता है, तब वह भी 1 हो जाने से ब्रह्म हो जाता है अर्थात ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
माला का उद्देश्य :: जीव जब तक 108 मणियों का विचार नहीं करता और कारण स्वरूप सुमेरु (ब्रह्म) तक नहीं पहुँचता, तब तक इस 108 में घूमता रहता है। जब सुमेरु रूप अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त कर लेता है; तब 108 से निवृत्त हो जाता है। माला समाप्त हो जाती है। सुमेरु को फिर लाँघा नहीं जाता।
जो तात्पर्य प्रलय-उत्पत्ति का है, वही 108 संख्या की माला के जप का भी है। जिस प्रकार जीव ब्रह्म हो जाने पर उत्पत्ति-प्रलय से निवृत्त हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म स्थानीय सुमेरु प्राप्त होने पर माला की आवृत्ति से भी निवृत्त हो जाता है।
जब तक वह ब्रह्म भाव प्राप्त न हो तब तक 108 मणियों की माला की आवृत्ति होती रहेगी, अर्थात जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा। जब व्यक्ति माला के समाप्त होने पर भी जप करता रहता है; तब सुमेरु को लाँघा नहीं जाता, परन्तु उसे उलटकर फिर शुरू से 108 का चक्र (उत्पत्ति-प्रलय) प्रारंभ कर देता है।
यह जगत परमेश्वर से ही उत्पन्न, परमेश्वर में ही स्थित और परमेश्वर में ही विलीन होता है। यही भाव माला का सूत्र प्रदर्शित करता है।
माला की मणियों की 108 सँख्या का विज्ञान ::जपने के लिए 108 सँख्या होती है। तदर्थ माला की आवश्यकता होती है। बिना सँख्या के जप करना ठीक नहीं माना गया है।
अप्समीपे जपं कुर्यात ससन्ख्यं तद्भवेत यथा,
असन्ख्यमासुरं यस्मात तस्मात तद गणयेत ध्रुवं।[बृहत्पराशरस्मृति 4. 40]
अब वही जपमाला के विषय में कहा गया है :-
स्फाटीकेंद्राक्षरुद्राक्षक्षै: पुत्रजीवसमुद्भवै: अक्षमाला प्रकर्तव्या प्रशस्ता चोत्तरोत्तरा, अभावे तक्षमालायः कुशग्रन्थाय पाणिना यथा कथश्चिद गणयेत ससन्ख्यं तद्भवेत यथा।[बृहत्पराशरस्मृति 4.41, 4.42]
यहाँ रुद्राक्ष की माला को अन्य मालाओं से श्रेष्ठ माना गया है। उसमें कीटाणु नाशक शक्ति भी हुआ करती है। सात्विक-विद्युत प्रदान शक्ति विज्ञान सम्मत होने से जप मे तुलसी की माला का उपयोग होता है।
गले में तुलसी आदि की कंठी पहनने का भी यही लाभ है, मौन रूप से जप करने से गले की नसों पर जोर पडता है, जिससे गण्ड माला (thyroid) आदि रोग होंने की आशंका होती है। गले में तुलसी की कंठी पड़ी रहने से गले से, उसका स्पर्श होते रहने से, इन रोगों के होने की आशंका खत्म हो जाती है।
माला में तर्जनी अंगुली नहीं लगाई जाती यह ध्यान देने वाली बात है क्योंकि तर्जनी अंगुली दूसरों को डाटने वाली , मारने आदि का भय देने वाली होने से पापयुक्ता व निकृष्ट होती है। और जप मे चाहिए पवित्रता; अतः तर्जनी अंगुली का माला मे स्पर्श नहीं कराया जाता।
श्वास :: मनुष्य के प्रत्येक पल में 6 श्वास निकलते हैं। ढाई पल या एक मिनट में 15 श्वास निकलते है। 1 घंटे में 900 श्वास हो जाते है। 12 घंटों में 10,800 श्वास हो जाते हैं और 24 घंटो में 21,600 श्वास होते हैं।
इन 24 घंटों में श्वासों का आधा भाग यदि सोना, खाना तथा अन्य सांसारिक कार्यों के लिए रख दिया जाय और शेष आधा समय परमार्थ-साधना का स्थिर किया जाय तो 12 का घंटों का समय यानि 10,800 सांसों में मनुष्य अपने इष्टदेव को भी इतने बार स्मरण करना चाहिए ऐसा वेदों में नियम बनाया गया।
यद्यपि दिन कभी 10 घंटों का कभी 13 घंटों का भी होता है फिर भी उसका मध्य भाग 12 घंटों का है। रात विश्राम के लिए होती है उसमें रज तथा तमोगुण का बाहुल्य होता है। अतः इष्टदेव के स्मरण के लिए दिन के घंटे ही ठीक माने गए हैं।
दिन के श्वास 10,800 माने गए हैं।
परन्तु लोकयात्रा में यदि इतना संभव नहीं है तो कम से कम उसके 100वें भाग के बराबर तो भगवान् का स्मरण करना ही चाहिए, इसलिए 108 बार जप करने का विधान रखा गया है। इसकी पूर्ति के लिए 108 मनकों वाली माला का उपाय रखा गया।
उपान्शुस्यात शतगुणाः, साहस्त्रोः मानसः स्मृतः।
यह जप की महिमा बताई गयी है। इसमें उपांशु (धीमे-धीमे) जप करने का फल 100 गुना बताया गया है और मन में जप करने का फल 1,000 गुना। माला की मणियाँ 108 होती हैं, उसके द्वारा उपांशु मंत्र जपने से 100 गुना फल होगा, तब 108 X 100 = 10,800 यह पूर्वोक्त दिन के श्वासों की संख्या पूर्ण हो जाति है। इसी कारण माला के मणियों की संख्या 108 रखना निराधार नहीं है।
वेदों में माया का अंक 8 एवं ब्रह्म का अंक 9 माना गया है। माया में परिवर्तन होता है, ब्रह्म में नहीं।
9 X 1 = 9
9 X 2 = 18
9 X 3 = 27
यहाँ 18 मे 1+8 के और 27 मे 2+7 के जोडने पर मूलांक 9 ही होता है। इस प्रकार 9 के अग्रिम पहाड़े में भी स्वयं जाना जा सकता है।
माया का प्रतीक 8 का पहाड़ा ::8 X 1 = 8
8 X 2 = 16, (1+6=7).
8 X 3 = 24, (2+4=6).
8 X 4 = 32, (3+2=5).
8 X 5 = 40, (4+0=4).
8 X 6 = 48, (4+8=12; 1+2=3).
8 X 7 = 56, (5+6=11, 1+1=2).
8 X 8 = 64, (6+4=10, 1+0=1).
यहाँ एक ब्रह्म ही अवशिष्ट हुआ। ब्रह्म के अंक 9 में तो विकार नहीं होता-इसलिए 8 X 9 = 72, (7+2=9) यह यहाँ प्रत्यक्ष है |
हिन्दु सूर्य उपासक है। वेदों मे सूर्य के 12 भेद-आदित्य, कहे गए है; उनमें 12 वाँ भेद विष्णु है। सूर्य की 12 ही रशियाँ होती है, सूर्य को भी वेदों में ब्रह्म कहा गया है। तब 12 अंको वाले सूर्य का 9 अंक वाले ब्रह्म से गुणन होने पर 108 सँख्या बनती है, जो कि 1+8 मिलकर 9 हो जाता है।
नवग्रह :- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु।
नवरत्न :- माणिक्य, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद और वैदूर्य।
इसके अतिरिक्त ब्रह्म अक्षरों के अनुसार भी 108 सँख्या का होता है :-
NUMERALS CORRESPONDING TO HINDI ALPHABETS
स्वर (vowels) ‘अ’ से ‘अः’ तक 16 हैं :: अ | आ | इ | ई | उ | ऊ | ए | ऐ | ओ | औ | ऋ | ॠ (प्लुत) | ऌ | ॡ (प्लुत) | अं | अः |
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 1 |
कुल 33 व्यंजन (consonant) हैं :: मनुष्य किसी की भी पद्धति से उपासना करें वो एक ही परब्रह्म को ही पहुँचती है।
ब्रह्म वाचक शब्दों के अक्षरों का जोड़ करने पर भी 108 की सँख्या ही प्राप्त होती है जो कि महज़ सहयोग नहीं है।
ब्रह्म :: ब (23), र (27), ह (33) एवं म (25) से बना है :- अ सर्वत्र व्यापक होने से प्रथक नहीं गिना जाता। योग करने पर 108 प्राप्त हुआ। अतः :: [23+27+33+25 = 108].
संसार :: स (32), अं (15) , स (32), आ (2), र (27) मिलकर [32+15+32+2+27 = 108] होती है।
सीताराम :: स (32), ई (4), त (16), आ (2), र (27), आ (2), म (25), मिलकर [32+4+16+2+27+2+25 =108 ]होती है।
रामकृष्ण :: र (27), आ (2), म (25), क (1), र (27), ॠ (7), ष (31), ण (15) इनको जोडने पर भी [27+2+25+ 1+27+7+31+15 = 108] ही आता है।
राम राम :: र = 27, आ = 2 , म = 25; 27+2+25+27+2 +25 = 108
राधाकृष्ण :: र (27), आ (2), ध (19), आ (2), क (1), ॠ (11), ष (31), ण (15); यहाँ भी योग [27+2+19+2+1 +11+31+15 = 108] होता है।
कैलाशनाथ :: क (1), ऐ (8), ल (28), आ (2), श (30), न (20), आ (2), थ (17); इनका भी जोड़ [1+8+28+2+ 30+20+2+17 = 108] ही होता है।
इस प्रकार माला के मणियों की सँख्या का ब्रह्म से सम्बन्ध सिद्ध हुआ। जहाँ 108 अंक 1 +8 जोड़कर 9 होता है, जो कि ब्रह्म का अंक है।
Weights assigned to English alphabets :: A = 1, B = 2, C = 3, D = 4, E = 5, F = 6, G = 7, H = 8, I = 9, J = 10, K = 11, L = 12, M = 13, N = 14, O = 15, P = 16, Q = 17, R = 18, S = 19, T = 20, U = 21, V = 22, W = 23, X =24, Y = 25, Z = 26. Shree Krishna :: 19+8+18+5+5+11+18+9+19+8+14+1 = 135; 1+3+5 = 9. Mohammed :: 13+15+8+1+13+13+5+4 = 72; 7+2 = 9. Mahavir :: 13+1+8+1+22+9+18 = 72; 7+2= 9. Guru Nanak :: 7+21+18+21+14+1+14+1+11 = 108; 1+0+8 = 9. Zarathustra :: 26+1+18+1+20+8+21+19+20+18+1 = 153; 1+5+3 = 9. Gautam :: 7+1+21+20+1+13 = 63; 6+3 = 9. Esa Messiah :: 5+19+1+13+5+19+19+9+1+8 = 99; 9+9 =18; 1+8 = 9.
Each one of these words ends with 9. |
मनुष्य शरीर की ऊँचाई = यज्ञोपवीत (जनेउ) की परिधि = (4 अँगुलियों) का 27 गुणा = 4 × 27 = 108.
पृथ्वी से सूर्य की दूरी : सूर्य का व्यास :: 1 : 108.
पृथ्वी से चन्द्र की दूरी : चन्द्र का व्यास 1 : 108.
सामान्यत: 24 घंटे में एक व्यक्ति 21,600 बार साँस लेता है। दिन-रात के 24 घंटों में से 12 घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष 12 घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है 10,800 बार।
एक वर्ष में सूर्य 21,600 कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माह दक्षिणायन में। अत: सूर्य छः माह की एक स्थिति में 10,800 बार कलाएं बदलता है।
ब्रह्मांड को 12 भागों में विभाजित किया गया है। इन 12 भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन 12 राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या 9 में राशियों की संख्या 12 से गुणा करें तो संख्या 108 प्राप्त हो जाती है।
सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती है। इस तरह कुल 36 रश्मियाँ हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें । इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के आठ वसुओं से टक्कर होती हैं। सूर्य की नौ रश्मियाँ और पृथ्वी के आठ वसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है।
नव निधियाँ ::
(1). पद्म निधि :- पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है ।
(2). महापद्म निधि :- महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता रहता है ।
(3). नील निधि :- नील निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेज से संयुक्त होता है। उसकी संपत्ति तीन पीढी तक रहती है।
(4). मुकुंद निधि :- मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है। वह राज्य संग्रह में लगा रहता है।
(5). नन्द निधि :- नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणोंवाला होता है। वही कुल का आधार होता है।
(6). मकर निधि :- मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करनेवाला होता है।
(7). कच्छप निधि :- कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है। वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है।
(8). शंख निधि :- शंख निधि एक पीढी के लिए होती है।
(9). खर्व निधि :- खर्व निधि वाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं।
सान्तानिकं यक्ष्यमाणमध्वगं सार्ववेदसम्।
गुर्वर्थं पितृमात्र्यर्थं स्वाध्यायार्थ्युपतापिनः॥[मनुस्मृति 11.1]
नैवतान्स्नातकान्विद्याद् ब्राह्मणान्धर्मभिक्षुकान्।
निःस्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्याविशेषतः॥[मनुस्मृति 11.2]
सन्तान की इच्छा रखने वाला, यज्ञ करने की इच्छा वाला, पथिक (राहगीर), सर्वस्व दान देकर यज्ञ करने वाला, गुरु (विद्या प्रदान करने वाला) और माता-पिता के भरण-पोषण के लिये धन चाहने वाला, वेद पढ़ने वाला, रोगी व्यक्ति और धर्म भिक्षुक, ब्राह्मण स्नातक हैं अर्थात इनको स्नातक के समान समझें। इन निर्धनों को विद्या और योग्यता के अनुसार धन देना चाहिये।
One desirous of progeny, performance of Yagy, traveller, one performing Yagy by donating everything he has, the Guru, one who need money for his parents subsistence, learner of Veds, diseased, hermit and the Brahmn should be considered like a celibate-Brahmchari asking alms and should be helped as per their status :- learning and ability; after examining whether they are worthy or not.
These nine categories of people requesting help should be granted alms by considering them to be Graduates in learning and Brahmans.
SIGNIFICANCE OF 10 महत्व ::
धर्म के दस लक्षण ::
धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
धर्म के दस लक्षण हैं :: धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।
Dharm (duty, religion) has ten characteristics :: Patience, forgiveness, self-control, not to steal, purity, control of senses (sensuality, lasciviousness, passions, sexuality), intelligence (enlightenment, knowledge, Gyan, prudence), truth, lack of anger.
दस जीवनोपयोगी कार्य-MODES OF SURVIVAL ::
विद्या शिल्पं भृतिः सेवा गोरक्ष्यं विपणिः कृषिः।
धृतिभेक्ष्यै कुसीदं च दश जीवनहेतवः॥
विद्या (जीवकोपयोगी विद्या), शिल्प (कारीगरी), वेतन लेकर काम करना, सेवा, गोरक्षा, खेती, संतोष, भिक्षा और ब्याज का व्यापार ये दस जीवनोपयोगी व्यापार हैं।[मनुस्मृति 10.116] Life oriented learning, handicrafts-mechanical jobs, working by receiving wages-salary, service, protection of cows, business, agriculture, self satisfaction-contentment, accepting alms i.e., begging and receiving interest on money are the ten righteous means of survival.
काम के कारण जन्म लेने वाली 10 बुरी आदतें-विकार, व्यसन :-
मृगयाऽक्षो दिवास्वप्नः परिवाद: स्त्रियो मद:।
तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः॥
(1). शिकार खेलना, (2). जूआ, (3). दिन में सोना, (4). दूसरों के दोष का वर्णन, (5). स्त्रियों का सहवास, (6). मद्य का मद, (7). नाचना, (8). गाना, (9). बजाना और (10). वृथा घूमना, ये काम से उत्पन्न दस व्यसन हैं।[मनु स्मृति 7.47]
(1). Hunting, (2). gambling, (3). sleeping by day, (4). censoriousness (describing weaknesses of others, fault finding), (5). excess company of women, (6). intoxication-drunkenness, (7). an inordinate love for (8). dancing, (9). singing and (10). music and useless travel are the tenfold set of vices springing from love of pleasure.
अधर्मी ::
दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्।
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः॥
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः॥
मद्यपान से मत्त, विषयासक्त मन वाला होने से प्रमत्त, उन्माद आदि रोग से युक्त उन्मत्त, थका हुआ, क्रोध से युक्त, भूखा, शीघ्रता करने वाला. लोभी, डरा हुआ और दसवाँ कामी, ये दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं मानते। इसलिए पण्डित को चाहिए कि इसने सम्पर्क न रखे।[विदुर नीति 53-54]
The drunkards, passionate, frantic-frenetic, tired-weak, angry-furious, hungry, one in a hurry, greedy, afraid-feared and the lascivious do not worry about Dharm (virtuous, ethics, dignity). The learned, scholars, prudent should not keep relations-dealings with such people.
Company of such people leads to destruction.
राजा भोज कालीदास संवाद ::
(1). दुनिया में भगवान की सर्वश्रेष्ठ रचना :- माँ,
(2). सर्वश्रेष्ठ फूल :- कपास का फूल,
(3), सर्वश्र॓ष्ठ सुगंध :- अपने वतन की मिट्टी की,
(4). सर्वश्र॓ष्ठ मिठास :- वाणी की,
(5). सर्वश्रेष्ठ दूध :- माँ का,
(6). सबसे से काला :- कलंक,
(7). सबसे भारी :- पाप,
(8). सबसे सस्ता :- सलाह,
(9). सबसे महंगा :- सहयोग,
(10). सबसे कडवा :- सत्य।
काम के कारण जन्म लेने वाली 10 बुरी आदतें :: (1). शिकार खेलना, (2). जुआ खेलना, (3). दिन में अर्धनिद्रित रहते हुए कपोल कल्पनाएं करना, (4). परनिंदा करना, (5). स्त्रियोंं के साथ रहना, (6). शराब पीना, (7). नाचना, (8). श्रृंगारिक कविताएं, गीत आदि गाना, (9). बाजा बजाना, (10). बिना किसी उद्देश्य के घूमना।
मृगयाक्षदिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियों मदः।
तौर्यत्रिकं वृथाद्या च कामजो दशको गणः॥[मनु स्मृति]
दस महाविद्या :: काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ :: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल :: इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (भगवान् श्री हरी विष्णु) :: मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सती :: सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।
10 विश्वदेव :: पुराणों में दस विश्वदेवों को उल्लेख मिलता है, जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है। ये हैं :- क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, धुनि, कुरुवान, प्रभवान् और रोचमान।
10 MAHA VIDYA दस महा विधा :: (1). महाकाली, (2). तारा, (3). षोडशी त्रिपुर सुन्दरी, (4). भुवनेश्वरी, (5). छिन्नमस्ता, (6). त्रिपुर भैरवी, (7). धूमावती, (8). मातंगी, (9). कमला और (10). बगला मुखी। Please refer to 10 MAHA VIDYA दस महा विधा santoshsuvichar.blogspot.com
धर्म के दस लक्षण ::
(1).
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
संतोष, क्षमा, संयम-मन को दबाना, अस्तेय-अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, धीया बुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनुस्मृति 6.92]Contentment, forgiveness, suppression of mind-self control, abstention from unrighteous appropriating anything (not to snatch, loot, belongings of others), purity-cleaning of the body, coercion of the organs (sensuality, sex, lust), wisdom-prudence, knowledge (learning, enlightenment, Tatv Gyan-Gist of the Supreme Soul), truthfulness and abstention from anger, form the ten tenets, rules for an auspicious life.
(2).
धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥96॥
धर्म के दस लक्षण हैं :: धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।
Dharm has ten characteristics :- Patience, forgiveness, self-control, non-stealing (theft, loot), purity, control of senses, intelligence-prudence, knowledge, truth, non-anger.
धृति-धैर्य :- धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।
क्षमा :- दूसरो के दुर्व्यवहार और अपराध को लेना तथा आक्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।
दम :- मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।
अस्तेय, अपरिग्रह :- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।
पवित्रता (शौच) :- शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।
इन्द्रिय निग्रह :- पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।
धी :- भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।
विद्या :- आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीने की सच्ची कला ही विद्या है।
सत्य :- मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।
अक्रोध :- दुर्व्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुँचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर सम्भव प्रयास करना।
दषोपचार :: पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय, मधुपक्र, आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने की विधि को "दषोपचार" कहते है।
कायेन त्रिविधं कर्म वाचा चापि चतुर्विधम्।
मनसा त्रिविधं चैव दशकर्मपथाॅस्त्यजेत्॥
मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर से होने वाले तीन, वाणी से होने वाले चार प्रकार के और और मन से होने वाले तीन प्रकार के कर्म; इस प्रकार कुल दस प्रकार के कर्मों को त्याग दे*।[महा.अनुशासन पर्व 6.5]
One should reject the three types of sins done through the body, three types of sins through speech-voice & four types of sins committed-performed through innerself. Thus rejecting ten kinds of sins.
*(1). शरीर से होने वाले तीन प्रकार के पाप कर्म :- (1.1). दूसरे प्राणियों को मारना- हिंसा। (1.2). चोरी करना। (1.3). पर-स्त्री से संसर्ग करना। (2). वाणी से होने वाले चार प्रकार के पाप कर्म :- (2.1). व्यर्थ बोलना, (2.2). कठोर बोलना, (2.3) चुगली करना और (2.4). झूठ बोलना। (3). मन से होने वाले तीन प्रकार के पाप कर्म :- (3.1). दूसरे के धन की प्राप्ति का लोभ, (3.2). प्राणियों के प्रति बैर-भावना और (3.3). कर्म फल पर विश्वास न करना।
दस दिशाएँ :: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, नैऋत्य, वायव्य, अग्नि, आकाश एवं पाताल।
10 दिशा के 10 दिग्पाल :: ऊर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।
10 महाभूत और विषय कार्य :: आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये दस हैं।
दस महादान ::
गोभूतिलहिरण्याज्यं वासो धान्यं गुडानि च।
रौप्यं लवणमित्याहुर्दशदानान्यनुक्रमात्॥[निर्णय सिन्धु-मदनरत्न का वचन]
(सवस्ता गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, धान्य, गुड़, चाँदी तथा लवण)
10 SENCE ORGANS ::
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषो जिव्हा नासिका चैव पञ्चमी।
पायूपस्थं हस्तपादं वाक्चैव दशमी स्मृता॥
कान, त्वचा-चर्म, नेत्र, जिव्हा, नाक, गुदा, लिंग, हाथ, पैर और दसवीं वाणी।[मनु स्मृति 2.90] The 10 sense organs include ears, skin, eyes, tongue, nose, anus, penis or vagina, hands, legs and the 10th is speech.
SIGNIFICANCE OF 11 महत्व ::
ग्यारहवीं इन्द्री-मन ::
एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।
यस्मिञ्जीते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ॥
उभयात्मक (ज्ञान और कर्म दोनों इन्द्रियों में रहने वाला) 11 वाँ मन है, जिसको जीतने से ये दोनों इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।[मनु स्मृति 2.92] 11 रुद्र :: (1). शम्भू, (2). पिनाकी, (3). गिरीश, (4). स्थाणु, (5). भर्ग, (6). भव, (7). सदाशिव, (8. शिव), (9). हर, (10). शर्व और (11). कपाली। इन 11 रुद्र देवताओं को यक्ष और दस्युजनों का देवता माना गया है। पुराणों में रुद्रों के अलग-अलग नाम :: मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग-अलग नाम मिलते हैं।
SIGNIFICANCE OF 12 महत्व ::
12 QUALITIES :: The twelve petals of the Lotus depict the twelve qualities that one should develop in the heart center: Joy, peace, love, harmony, bliss, clarity, purity, compassion, understanding, forgiveness, patience and kindness. One must cultivate these twelve qualities within himself. [YOG-योग :: KUNDLINI कुण्डलिनी जागरण]
द्वादश राजमण्डल :: दिग्विजय की इच्छा रखने वाले राजा को नौ हजार योजन के क्षेत्रफल वाले चक्रवर्ति क्षेत्र पर विजय प्राप्त करनी हो तो उसे अपने आगे के पाँच तथा पोछे के चार राजाओं की ओर ध्यान देना होगा। इसी तरह अगल-बगल के उस राज्य पर भी विचार करना होगा, जिसकी सीमा अपने राज्य से तथा शत्रु के राज्य से भी मिलती हो; ऐसे राज्य की मध्यम संज्ञा है। इस सम्पूर्ण मण्डल से बाहर जो प्रबल राज्य या राजा है, उसकी संज्ञा उदासीन है। विजिगीषु के सामने जो पाँच राज्य हैं, उनके नामों का वर्णन क्रमश: इस प्रकार व्यवहार होगा :- (1). शत्रु राज्य, (2). मित्र राज्य, (3). शत्रु के मित्र का राज्य, (4). मित्र के मित्र का राज्य तथा (5). शत्रु के मित्र के मित्र का राज्य विजिगीषु के पीछे के जो चार राज्य हैं, वे क्रमशः :- (1). पार्ष्णिग्रह, (2). आक्रन्द, (3). पार्ष्णि ग्राहासार, (4). आक्रन्दासार; इन नामों व्यवहृत होंगे। विजिगीषु सहित इन सबकी सँख्या बारह होती है। यह सम्भावनात्मक सँख्या है। यदि विजिगीषु इससे अधिक के क्षेत्र को अपनी विजय का लक्ष्य बनाता है, तो इसी ढंग से अन्य राज्य भी इसी मण्डल में परिगणित होंगे और द्वादश की जगह अधिक राजमण्डल भी हो सकते हैं।
भगवान् श्री राम कहते हैं :- राजा को चाहिये कि वह मुख्य द्वादश राज मण्डल का चिन्तन करे। (1). अरि, (2). मित्र, (3). अमित्र, (4). मित्र-मित्र तथा (5). अरिमित्र-मित्र क्रमश: विजिगीषु के सामने वाले राजा कहे गये हैं। विजिगीषु के पीछे क्रमश: चार राजा इस प्रकार हैं :- (1). पार्ष्णिग्राह, उसके बाद, (2). आक्रन्द, तदनन्तर इन दोनों के आसार अर्थात् (3). पार्ष्णिग्राहासार एवं (4). आक्रन्दासार। अरि और विजिगीषु दोनों के राज्य से जिसकी सीमा मिलती है, वह राजा मध्यम कहा गया है। अरि और विजिगीषु, ये दोनों यदि परस्पर मिले हों-संगठित हो गये हों तो मध्यम राजा कोष और सेना आदि की सहायता देकर इन दोनों पर अनुग्रह करने में समर्थ होता है और यदि ये परस्पर संगठित न हो तो वह मध्यम राजा पृथक-पृथक या बारी-बारी से इन दोनों का वध करने में समर्थ होता है। इन सबके मण्डल से बाहर जो अधिक बलशाली या अधिक सैनिक शक्ति से सम्पन्न राजा है, उसकी उदासीन संज्ञा है। विजिगीषु, अरि और मध्यम; ये परस्पर संगठित हों तो उदासीन राजा इन पर अनुग्रह मात्र कर सकता है और यदि ये संगठित न होकर पृथक्-पृथक् हों तो वह उदासीन इन सबका वध कर डालने में समर्थ हो जाता है।
विजिगीषु :: विजय की इच्छा करनेवाला, महत्वाकांक्षी, योद्धा, शूर वीर, प्रतिद्वंदी-प्रतिपक्षी; one who is desirous of victory, opponent, warrior, soldier.[राम नीति]
प्रतीत्य समुत्पाद :: अविद्या, संस्कार विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भय, जाति और दुःख से बारहों पदार्थ जो उत्तरोत्तर संबद्ध हैं और क्रमात् एक दूसरे से उत्पन्न होते हैं।
घड़ी में 12 घण्टे :: आदित्य-सूर्य 12 हैं। ब्रह्म :- एक है।
अश्विन :- रथ के दो घोड़े होते हैं, इसलिए 2 की सँख्या।
त्रिगुण :- तीन गुण सत, रज तम। चतुर्वेद :- चार वेदों के अनुरूप सँख्या 4 है।
पंच प्राण :- का प्रतीक अंक 5।
षड्ररस :- जीवन में छह रस मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त तथा कसाय।
सप्त ऋषि :- सात ऋषियों प्रतीक अंक 7 ।
अष्ट सिद्धि :- 8 प्रकार सिद्धियाँ।
नौ द्रव्य :- नौ प्रकार के द्रव्य पदार्थ।
दश दिशा :- दस दिशाएँ।
रुद्र :- रुद्र 11 हैं।
TWELVE TYPES OF SONS :: Rousseau, Kshetraj, Duttak, Kratrim, Gudhotpann and Apviddh. They may be considered as the ones who will perform last rites, look after deceased's wealth-property-revenue dealings, equality in the use of surname-family title, family trade-practices-profession and prestige.
Other than these six more categories are also there :: Kanin, Sgodh, Kreet, Punarbhav, swam Dutt and Parshav. They are only for the name sake and are not treated at par as far as family name -title are concerned.
(1). Aurous :: Reproduced by oneself through socially accepted-recognised marriage.
(2). Kshetraj :: Reproduced by the wife from other suitable person with the consent of the husband, without involvement of lust-sexuality-sensuality-passion, when the husband becomes impotent insane, addicted. This practice is still prevalent in India and is called NIYOG PRATHA.
(3). Duttak :: A child adopted by the parents is called Duttak. No gifts, donations, money transactions are made in lieu of the child's adoption.
(4). Kratrim (artificial) :: A child handed over by a friend or his son, some eminent/enlightened person is kratrim.
(5). Gooddh :: A child about whom no one knows that who brought him into the family fold-house.
(6). Apviddh :: Child brought one himself from out side-elsewhere.
(7). Kanin :: A child born out of an unmarried girl.
(8). Sgodh :: A child born out of a pregnant girl after marriage.
(9). Kreet :: A child bought after by paying money.
(10). Punarbhav :: He may be of two types :- (10.1). The son born out of the daughter/girl married to one person and snatched from him and married to some one else. The child born from the first person-husband.after the child is born. (10.2). The girl is married to one person, snatched forcibly and married to some one else. The child is born from the second husband-person.
(11). Swayam Dutt :: If a person/child offers himself to a person due to famine/drought or some unavoidable circumstances due to the scarcity of food grain-eatables-money, he is Swayam Dutt.
(12). Parshav :: A child born of a Shudr married-unmarried girl by a Brahmn.
बारह प्रकार के पुत्र :: औरस, क्षेत्रज, दत्त, कृत्रिम, गूढोत्पन्न और अपविद्ध-ये छ: पुत्रों से ऋण, पिण्ड, धन की क्रिया, गोत्र साम्य, कुल वृति और प्रतिष्ठा रहती है।
इनके अतिरिक्त कानीन, सगोढ़, क्रीत, पौनर्भव, स्वयं दत्त और पार्शव -इनके द्वारा ऋण एवं पिंड आदि का कार्य नहीं होता-ये केवल नामधारी होते हैं व गोत्र एवं कुल से सम्मत नहीं होते।
(1). औरस :: अपने द्वारा उत्पन्न किया गया पुत्र।
(2). क्षेत्रज :: पति के नपुंसक, पागल-उन्मत्त या व्यसनी होने पर उसकी आज्ञा से काम वासना रहित पत्नी द्वारा उत्पन्न पुत्र।
(3). दत्तक :: गोद लिया हुआ, माता-पिता द्वारा दूसरे को दिया गया-इसके एवज में कोई धन, अनुग्रह, प्रतिकार नहीं प्राप्त किया गया हो।
(4). कृत्रिम :: श्रेष्ठजन, मित्र के पुत्र और मित्र द्वारा दिए गया पुत्र।
(5). गूढ़: :: वह पुत्र जिसके विषय में यह ज्ञान न हो कि वह गृह में किसके द्वारा लाया गया।
(6). अपविद्ध :: बाहर से स्वयं लाया गया पुत्र।
(7). कानीन :: कुँवारी कन्या से उत्पन्न पुत्र।
(8). सगोढ़ :: गर्भिणी कन्या से विवाह के बाद उत्पन्न पुत्र।
(9). क्रीत :: मूल्य देकर ख़रीदा गया पुत्र।
(10). पुनर्भव :: यह दो प्रकार का होता है-एक कन्या को एक पति के हाथ में देकर, पुन: उससे छीन कर दूसरे के हाथ में देने से जो पुत्र उत्पन्न होता है।
(11). स्वयंदत्त :: दुर्भिक्ष-व्यसन या किसी अन्य कारण से जो स्वयं को किसी अन्य के हाथ में सोंप दे।
(12). पार्शव :: व्याही गई या क्वाँरी अविवाहिता शूद्रा के गर्भ से ब्राह्मण का पुत्र।
बारह मास :: चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फागुन।
12 साध्यदेव :: अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं-कहीं इस तरह भी मिलते हैं :- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।
12 साध्य गण :: मन, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभस और विभु हैं।
12 यामदेव :: यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं। 12 KINDS OF GURU-12 प्रकार गुरु ::
नामचिंता मणि ग्रंथ में गुरुओं के निम्न बारह प्रकार बताये हैं :-
(1). धातुवादी गुरु :: बच्चा! मंत्र ले लिया, अब जाओ तीर्थाटन करो। भिक्षा माँग के खाओ अथवा घर का खाओ तो ऐसा खाओ, वैसा न खाओ। लहसुन न खाना, प्याज न खाना, यह करना, यह न करना। इस बर्तन में भोजन करना, ऐसे सोना आदि बातें कहकर अंत में ज्ञानोपदेश देनेवाले धातुवादी गुरु होते हैं।
(2). चंदन गुरु :: जिस प्रकार चंदन वृक्ष अपने निकट के वृक्षों को भी सुगंधित बना देता है, ऐसे ही अपने सान्निध्य द्वारा शिष्य को तारनेवाले गुरु चंदन गुरु होते हैं। चंदन गुरु वाणी से नहीं, आचरण से जातक-शिष्य को संस्कारों से भर देते हैं। उनकी सुवास का चिन्तन भी समाज को सुवासित कर देता है।
(3). विचार प्रधान गुरु :: जो सार है वह ब्रह्म-परमात्मा है, असार है अष्टधा प्रकृति का शरीर। प्रकृति का शरीर प्रकृति के नियम से रहे लेकिन आप अपने ब्रह्म-स्वभाव में रहें, इस प्रकार का विवेक जगाने वाले आत्म-विचार प्रधान गुरु होते हैं ।
(4). अनुग्रह-कृपाप्रधान गुरु :: अपनी अनुग्रह-कृपा द्वारा अपने शिष्यों का पोषण करें, मार्गदर्शन करें; अच्छा काम करें तो प्रोत्साहित करें, गड़बड़ी करें तो गुरु की मूर्ति मानो नाराज हो रही है, ऐसा अहसास करायें।
(5). पारस गुरु :: जैसे पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना कर देता है, ऐसे ही ये गुरु अपने हाथ का स्पर्श अथवा अपनी स्पर्श की हुई वस्तु का स्पर्श कराके शिष्य के चित्त के दोषों को हर कर चित्त में आनन्द, शान्ति, माधुर्य एवं योग्यता का दान करते हैं।
(6). कूर्म अर्थात् कच्छपरूप गुरु :: जैसे मादा कछुआ दृष्टिमात्र से अपने बच्चों को पोषित करती है, ऐसे ही गुरुदेव कहीं भी हों अपनी दृष्टिमात्र से शिष्य को दिव्य अनुभूतियाँ कराते रहते हैं।
(7). चन्द्र गुरु :: जैसे चन्द्रमा के उगते ही चन्द्रकांत मणि से रस टपकने लगता है, ऐसे ही गुरु को देखते ही शिष्य के अंतःकरण में उनके ज्ञान का, उनकी दया का, आनन्द, माधुर्य का रस उभरने, छलकने लगता है। गुरु का चिन्तन करते ही, उनकी लीलाओं, घटनाओं अथवा भजन आदि का चिंतन करके किसी को बताते हैं तो भी रस आने लगता है।
(8). दर्पण गुरु :: जैसे दर्पण में अपना रूप दिखता है, ऐसे ही गुरु के नजदीक जाते ही शिष्य-जातक को अपने गुण-दोष दिखते हैं और अपनी महानता का, शान्ति, आनन्द, माधुर्य आदि का रस भी आने लगता है, मानो गुरु एक दर्पण हैं। गुरु के पास गये तो हमें गुरु का स्वरूप और अपना स्वरूप मिलता-जुलता, प्यारा-प्यारा लगता है।
(9). छायानिधि गुरु :: साधक को अपनी कृपा छाया में रखकर उसे स्वानंद प्रदान करने वाले गुरु छाया निधि गुरु होते हैं। जिस पर गुरु की दृष्टि, छाया आदि कुछ पड़ गयी वह अपने-अपने विषय में, अपनी-अपनी दुनिया में राजा हो जाता है। राजे-महाराजे भी उसके आगे घुटने टेकते हैं।
(1). नादनिधि गुरु :: नादनिधि मणि ऐसी होती है कि वह जिस धातु को स्पर्श करें वह सोना बन जाती है। पारस तो केवल लोहे को सोना करता है।
(11). क्रौंच गुरु :: जैसे मादा क्रौंच पक्षी अपने बच्चों को समुद्र-किनारे छोडकर उनके लिए दूर स्थानों से भोजन लेने जाती है तो इस दौरान वह बार-बार आकाश की ओर देखकर अपने बच्चों का स्मरण करती है। आकाश की ओर देख के अपने बालकों के प्रति सदभाव करती है तो वे पुष्ट हो जाते हैं। ऐसे ही गुरु अपने चिदाकाश में होते हुए अपने शिष्यों के लिए सदभाव करते हैं तो अपने स्थान पर ही शिष्यों को गुदगुदियाँ होने लगती हैं, आत्मानंद मिलने लगता है और वे समझ जाते हैं कि गुरु ने याद किया।
(12). सूर्यकांत गुरु :: सूर्यकांत मणि में ऐसी कुछ योग्यता होती है कि वह सूर्य को देखते ही अग्नि से भर जाती है, ऐसे ही अपनी दृष्टि जहाँ पडे वहाँ के साधकों को विदेह मुक्ति देने वाले गुरु सूर्य कांत गुरु होते हैं। शिष्य को देखकर गुरु के हृदय में उदारता, आनंद उभर जाय और शिष्य का मंगल-ही-मंगल होने लगे, शिष्य को उठकर जाने की इच्छा ही न हो।
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ :: निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं।
(1). ब्रह्म यज्ञ :- प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना।
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ :- सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ :- असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।
(4). संयम रूप यज्ञ :- एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना।
(5). विषय हवन रूप यज्ञ :- व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना।
(6). समाधिरूप यज्ञ :- मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना।
(7). द्रव्य यज्ञ :- सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना।
(8). तपो यज्ञ :- अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि :- असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना।
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ :- दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना।
(11). प्रणायाम रूप यज्ञ :- पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना।
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ :- नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना।
SIGNIFICANCE OF 13 ::
13 करण :: श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण, वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा तथा मन, बुद्धि और अहंकार ये तेरह करण हैं। जो उत्पन्न होता है, वो कार्य है और जिससे कार्य की सिद्धि होती है, वो करण है।
SIGNIFICANCE OF 14 ::
चौदह रत्न :: श्री, मणि, रम्भा, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज,धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरु, धन्वन्तरि, विष और वाज की प्राप्ति हुई।
राजनीति के चौदह गुण :: देश-काल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्ट सहिष्णुता, सर्व विज्ञानता, दक्षता, उत्साह, मंत्र गुप्ति, एक वाक्यता, शूरता, भक्ति ज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता।
विद्या के चौदह स्थान :: पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, षङ्ग सहित चारों वेद। पाप-पुण्य एवं काम मोक्ष की बातें त्रयी के अन्तर्गत आते हैं।[याज्ञवल्क्य]
SIGINIFICANCE OF 15 ::
पंद्रह तिथियाँ :: प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावास्या।
SIGNIFICANCE OF 16 का महत्व ::
त्याज्य 6 बुरी आदतें ::
षड् दोषा: पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता॥77॥
सम्पन्न होने की इच्छा वाले मनुष्य को इन छः बुरी आदतों को त्याग देना चाहिये :- अधिक नींद, जड़ता, भय, क्रोध, आलस्य और कार्यों को टालने की प्रवृत्ति।
One who wish to become rich-prosper, should discard these 6 bad habits: extra sleep, letharginess, fear, anger, laziness and procrastination.[सुभाषितानि (नीति)]
न करने योग्य सोलह प्रकार के विग्रह :: (1). जिस विग्रह से बहुत कम लाभ होने वाला हो, (2). जो निष्फल हो, (3). जिससे फल प्राप्ति में सन्देह हो, (4). जो तत्काल दोष जनक विग्रह के समय मित्रादि के साथ विरोध पैदा करने वाला हो), (5). भविष्यकाल में भी निष्फल हो, (6). वर्तमान और भविष्य में भी दोषज नक हो, (7). जो अज्ञात बल- पराक्रम वाले शत्रु के साथ किया जाय एवं (8). दूसरों के द्वारा उभाड़ा गया हो, (9). जो साधारण स्त्री को पाने के लिये किया जा रहा हो, (11). जिसके दीर्घ काल तक चलते रहने की सम्भावना हो, (12). जो श्रेष्ठ द्विजों के साथ छेड़ा गया हो, (13). जो वरदान आदि पाकर अकस्मात् दैव बल से सम्पन्न हुए पुरुष के साथ छिड़ने वाला हो, (14). जिसके अधिक बलशाली मित्र हों, ऐसे पुरुष के साथ जो छिड़ने वाला हो, (15). जो वर्तमान काल में फलद, किंतु भविष्य में निष्फल हो तथा (16). जो भविष्य में फलद किंतु वर्तमान में निष्फल हो इन सोलह प्रकार के विग्रहों में कभी हाथ न डाले। जो वर्तमान और भविष्य में परिशुद्ध, पूर्णतः लाभप्रद हो, वही विग्रह राजा को छेड़ना चाहिये।[राम नीति]
संधियों के 16 प्रकार :: हे लक्ष्मण! अब मैं तुम्हें संधि, विग्रह, यान और आसन आदि के विषय में बता रहा हूँ। किसी बलवान् राजा के साथ युद्ध ठन जाने पर यदि अपने पक्ष की अवस्था शोचनीय हो तो अपने कल्याण के लिये संधि* कर लेनी चाहिये। (1). कपाल, (2). उपहार, (3). संतान, (4). संगत, (5). उपन्यास, (6). प्रतीकार, (7). संयोग, (8). पुरुषान्तर, (9). अदृष्टनर, (10). आदिष्ट, (11). आत्मामिष, (12). उपग्रह, (13). परिक्रय, (14). उच्छिन्न, (15). परदूषण तथा (16). स्कन्धोपनेय, ये संधि के सोलह भेद बतलाये गये हैं।
*इन सोलह संधियों का परिचय इस प्रकार है :-
(1). कपाल संधि :- समान शक्ति तथा साधन वाले दो राजाओं में जो बिना किसी शर्त के संधि की जाती है, उसे सम संधि या कपाल संधि कहते हैं। कपालसंधि उसका नाम इसलिये हुआ कि वह दो कपालों को जोड़ने के समान है। दो कपालों के योग से घड़ा बनता है। यदि एक कपाल फूट जाय और उसके स्थान पर दूसरा कपाल जोड़ा जाय तो वह बाहर से जुड़ा हुआ दीखने पर भी भीतर से पूरा-पूरा नहीं जुड़ता। इसी तरह जो संधि समान शक्तिशाली पुरुषों में स्थापित होती है, वह कुछ काल के लिये काम चलाऊ ही होती है। हृदय का मेल न होनेके कारण वह टिक नहीं पाती।
(2). उपहार संधि :- संधेय की इच्छा के अनुसार पहले ही द्रव्य आदि का उपहार देने के बाद जो उसके साथ संधि की जाती है, वह उपहार-संधि कही गयी है।
(3). संतान संधि :- कन्यादान देकर जो संधि की जाती है, वह संतान हेतुक होने के कारण संतान संधि कहलाती है।
(4). संगत संधि :- जो सन्धि सत्पुरुषों के साथ मैत्री पूर्वक स्थापित होती है, उसमें देने-लेने की कोई शर्त नहीं होती। उसमें दोनों पक्षों के अर्थ (कोष) और प्रयोजन (कार्य) समान होते हैं। परस्पर अत्यन्त विश्वास के साथ दोनों के हृदय एक हो जाते हैं। उस दशा में दोनों अपना खजाना एक-दूसरे के लिये खोल देते हैं और दोनों एक-दूसरे के प्रयोजन की सिद्धि के लिये समान रूप से प्रयत्नशील होते हैं। यह संधि जीवन पर्यन्त सुस्थिर रहती है। सब संधियों में इसी का स्थान ऊँचा है। जैसे टूटे हुए सुवर्ण के टुकड़ों को गलाकर जोड़ा जाय तो वे पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं, उसी तरह संगत संधि में दोनों पक्षों की संगति अटूट हो जाती है। इसीलिये इसे सुवर्ण संधि या काञ्चन संधि भी कहते हैं। यह सम्पत्ति और विपत्ति में भी, कैसा भी कारण क्यों न हों, उनके द्वारा अभेद्य रहती है।
(5). उपन्यास सिद्धि :- भविष्य में कल्याण करने वाली एकार्थ सिद्धि के उद्देश्य से जो संधि की जाय अर्थात् अमुक शत्रु हम दोनों को हानि पहुँचाने वाला है, अतः हम दोनों मिलकर उसका उच्छेद करें, इससे हम दोनों को समान रूप से लाभ होगा ऐसा उपन्यास (उल्लेख) करके जो की जाय, उसे उपन्यास कहा गया है।
(6). प्रतीकार संधि :- मैंने पहले इसका उपकार किया है, संकट काल में इसे सहायता दी है, अब यह ऐसे ही अवसर पर मेरी भी सहायता करके उस उपकार का बदला चुकायेगा; इस उद्देश्य से जो संधि की जाती है अथवा में इसका उपकार करता हूँ, यह मेरा भी उपकार करेगा इस अभिप्राय से जो संधि स्थापित की जाती है, उसका नाम प्रतीकार संधि हैं जैसे भगवान् श्री राम और सुग्रीव की संधि।
(7). संयोग सन्धि :- एक पर ही चढ़ाई करने के लिये जब शत्रु और विजिगीषु दोनों जाते हैं, उस समय यात्रा काल में जो उन दोनों में संगठन या साँठ-गाँठ हो जाती है, ऐसी संधि को संयोग कहते हैं।
(8). पुरुषान्तर सन्धि :- जहाँ दो राजाओं में एक नत मस्तक हो जाता है और दूसरा यह शर्त रखता है कि मेरे और तुम्हारे दोनों सेनापति मिल कर मेरा अमुक कार्य सिद्ध करें, तो उस शर्त पर होने वाली संधि पुरुषान्तर कही जाती है।
(9). अदृष्ट-पुरुष सन्धि :- अकेले तुम मेरा अमुक कार्य सिद्ध करो, उसमें मैं अथवा मेरी सेना का कोई योद्धा साथ नहीं रहेगा, जहाँ शत्रु ऐसी शर्त सामने रखे, वहाँ उस शर्त पर की जाने वाली संधि अदृष्ट-पुरुष कही जाती है। उसमें एक पक्ष का कोई भी पुरुष देखने में नहीं आता, अतः उसका नाम अदृष्ट-पुरुष है।
(10). आदिष्ट सन्धि :- जहाँ अपनी भूमि का एक भाग देकर शेष को रक्षा के लिये बलवान के साथ संधि की जाती है, उसे आदिष्ट कहा जाता है।
(11). आत्मामिष सन्धि :- जहाँ अपनी सेना देकर संधि की जाती है, वहाँ अपने आपको ही आमिष (भोग्य) बना देने के कारण उस सन्धि का नाम आत्मामिष है।
(12). उपग्रह सन्धि :- जहाँ प्राण रक्षा के लिये सर्वस्व अर्पण कर दिया जाता है, वह संधि उपग्रह कही गयी है।
(13). परिक्रय सन्धि :- जहाँ कोष का एक भाग, कुप्य (वस्त्र, कम्बल आदि) अथवा सारा ही खजाना देकर शेष प्रकृति (अमात्य, राष्ट्र आदि) की रक्षा की जाती है, वहाँ मानो उस धन से उन शेष प्रकृतियों का क्रय किया जाता है। अतएव उसको परिक्रय कहते हैं।
(14). उच्छिन्न सन्धि :- जहाँ सारभूत भूमि (कोष आदि की अधिक वृद्धि कराने वाले भूभाग) को देकर संधि की जाती है, वह अपना उच्छेद करने के समान होने से उच्छिन्न कहलाती है।
(15). परदूषण सन्धि :- अपनी सम्पूर्ण भूमि से जो भी फल या लाभ प्राप्त होता है, उसको कुछ अधिक मिलाकर देने के बाद जो सन्धि होती है, वह परदूषण कही गयी है।
(16). स्कन्धोपनेय सन्धि :- जहाँ परिगणित फल (लाभ) खण्ड-खण्ड करके अर्थात् कई किश्तों में बाँटकर पहुँचाये जाते हैं, वैसी सन्धि स्कन्धोपनेय कही गयी है।
जिसके साथ सन्धि की जाती है, वह संधेय कहलाता है। उसके दो भेद हैं :- अभियोक्ता और अनभियोक्ता। उक्त संधियों में से उपन्यास, प्रतीकार और संयोग, ये तीन संधियाँ अनभियोक्ता (अनाक्रमणकारी) के प्रति करनी चाहिये। शेष सभी अभियोक्ता (आक्रमणकारी) के प्रति कर्तव्य हैं।
परस्परोपकार, मैत्र, सम्बन्धज तथा उपहार, ये ही चार संधि के भेद जानने चाहिये; अन्य लोगों का मत*1 है।
*1(1). परस्परोपकार ही प्रतीकार है, मैत्र का ही नाम संगत संधि है। सम्बन्धज को हो संतान कहा गया है और उपहार तो पूर्व कथित उपहार है ही। इन्हीं में अन्य सबका समावेश है।
(2). सापत्र वैर में पूर्वोक्त एकार्थाभिनिवेश का अन्तर्भाव हो जाता है, स्त्री और वास्तु के अपहरण जनित वैर में पूर्वकथित स्त्री स्थानापहारज वैर का अन्तर्भाव है। वाग्जात वैर में पूर्वोक्त ज्ञाना पहारज और अपमान जनित वैर में पूर्वोक्त शेष 14 कारणों का समावेश हो जाता है।[राम नीति]
16 KINDS OF USEFUL TREATY प्रकार के लाभप्रद विग्रह :: (1). जिस विग्रह से बहुत कम लाभ होने वाला हो, (2). जो निष्फल हो, (3). जिससे फल प्राप्ति में सन्देह हो, (4). जो तत्काल दोष जनक विग्रह के समय मित्रादि के साथ विरोध पैदा करने वाला हो), (5). भविष्यकाल में भी निष्फल हो, (6). वर्तमान और भविष्य में भी दोषज नक हो, (7). जो अज्ञात बल- पराक्रम वाले शत्रु के साथ किया जाय एवं (8). दूसरों के द्वारा उभाड़ा गया हो, (9). जो साधारण स्त्री को पाने के लिये किया जा रहा हो, (11). जिसके दीर्घ काल तक चलते रहने की सम्भावना हो, (12). जो श्रेष्ठ द्विजों के साथ छेड़ा गया हो, (13). जो वरदान आदि पाकर अकस्मात् दैव बल से सम्पन्न हुए पुरुष के साथ छिड़ने वाला हो, (14). जिसके अधिक बलशाली मित्र हों, ऐसे पुरुष के साथ जो छिड़ने वाला हो, (15). जो वर्तमान काल में फलद, किंतु भविष्य में निष्फल हो तथा (16). जो भविष्य में फलद किंतु वर्तमान में निष्फल हो इन सोलह प्रकार के विग्रहों में कभी हाथ न डाले। जो वर्तमान और भविष्य में परिशुद्ध, पूर्णतः लाभप्रद हो, वही विग्रह राजा को छेड़ना चाहिये।
जब विजिगीषु और शत्रु, दोनों एक दूसरे की शक्ति का विधात न कर सकने के कारण आक्रमण न करके बैठ रहें तो इसे आसन कहा जाता है; इसके भी यान की ही भाँति पाँच भेद होते हैं। (1). विगृह्य आसन, (2). संधाय आसन, (3). सम्भूय आसन, (4). प्रसङ्गासन तथा (5). उपेक्षासन*3।
*3जय शत्रु और विजिगीषु परस्पर आक्रमण करके कारणवशात् युद्ध बंद करके बैठ जाये तो इसे विस कहते हैं।
यह एक प्रकार है :- विजिगीषु शत्रु के किसी प्रदेश को क्षति पहुँचाकर जब स्वतः युद्ध से विरत होकर बैठ जाता है, तब यह भी विगृह्यासन कहलाता है।
यदि शत्रु दुर्ग के भीतर स्थित होने के कारण पकड़ा न जा सके, तो उसके आसार (मित्र वर्ग) तथा बीज (अनाज को फसल आदि) को नष्ट करके उसके साथ विग्रह छोड़कर बैठ रहे। दीर्घ काल तक ऐसा करने से प्रजा आदि प्रकृतियाँ उस शत्रु राजा से विरक्त हो जाती है। अतः समयानुसार वह वशीभूत हो जाता है। शत्रु और विजिगीषु समान बलशाली होने के कारण युद्ध छिड़ने पर जब समान रूप से क्षीण होने लगें, तब परस्पर संधि करके बैठ जायें। यह संधाय आसन कहलाता है। पूर्व काल में निवात कवचों के साथ जब दिग्विजयी रावण का युद्ध होने लगा, तब दोनों पक्ष ब्रह्मा जी के वरदान से शक्तिशाली होने के कारण एक-दूसरे को परास्त न कर सके। उस दशा में ब्रह्मा जी को ही बीच में डालकर रावण संधि करके बैठ रहा। यह संधाय आसन का उदाहरण है।
विजिगीषु और उसके शत्रु को उदासीन और मध्यम से आक्रमण की समान रूप से शङ्का हो, तब उन दोनों को मिल जाना चाहिये। इस प्रकार मिलकर बैठना सम्भूय आसन कहलाता है। जब मध्यम और उदासीन में से कोई सा भी विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों का विनाश करना चाहता हो, तब वह उन दोनों का शत्रु समझा जाता है; उस दशा में विजिगीषु अपने शत्रु के साथ मिलकर दोनों के ही अधिक बलवान् शत्रुभूत उस मध्यम या उदासीन का सामना करें। यही सम्भूय आसन है।
यदि विजिगीषु किसी अन्य शत्रु पर आक्रमण की इच्छा रखता हो; किन्तु कार्यान्तर (अर्थलाभ या अनर्थ प्रतिकार) के प्रसंग से अन्यंत्र बैठे रहे तो इसे प्रसंगासन कहते हैं।
अधिक शक्तिशाली शत्रु की उपेक्षा करके अपने स्थान पर बैठे रहना उपेक्षासन कहलाता है। भगवान् श्री कृष्ण ने जब पारिजात का अपहरण किया था, उस समय उन्हें अधिक शक्तिशाली जानकर इन्द्रदेव उपेक्षा करके बैठ रहे, यह उपेक्षासन का उदाहरण है। एक दूसरा उदाहरण रुक्मी है। महाभारत युद्ध में वह क्रथ और क्रैशिकों की सेना लेकर बारी-बारों से कौरवों और पाण्डवों के पास और बोला, "यदि तुम डरे हुए हो तो हम तुम्हारी सहायता करके तुम्हें विजय दिलायें"। उसको इस बात पर दोनों ने उसकी उपेक्षा कर दी। अतः वह किसी और से युद्ध न करके अपने पर ही बैठा रहा।
दो बलवान् शत्रुओं के बीच में पड़कर वाणी द्वारा दोनों को ही आत्म समर्पण करे और कहे कि मैं और मेरा राज्य आप दोनों के ही हैं। यह संदेश दोनों के ही पास गुप्त रूप से भेजे और स्वयं दुर्ग में छिपा रहे। यह द्वैधीभाव की नीति है। जब उक्त दोनों शत्रु पहले से ही संगठित होकर आक्रमण करते हों, तब जो उनमें अधिक बलशाली हो, उसकी शरण ले। यदि वे दोनों शत्रु परस्पर मन्त्रणा करके उसके साथ कसी भी शर्त पर संधि न करना चाहते हों, तब वजिगीषु उन दोनों के ही किसी शत्रु का आश्रय ले अथवा किसी भी अधिक शक्तिशाली राजा की शरण लेकर आत्मरक्षा करे।
यदि विजिगीषु पर किसी बलवान् शत्रु का आक्रमण हो और वह उच्छिन्न होने लगे तथा किसी उपाय से इस संकट का निवारण करना उसके लिये असम्भव हो जाय, तब वह किसी कुलीन, सत्यवादी, सदाचारी तथा शत्रु की अपेक्षा अधिक बलशाली राजा की शरण ले। उस आश्रयदाता के दर्शन के लिये उसकी आराधना करना, सदा उसके अभिप्राय के अनुकूल चलना, उसी के लिये कार्य करना और सदा उसके प्रति आदर का भाव रखना, यह आश्रय लेने वाले का व्यवहार बतलाया गया है।[राम नीति]
सोलह का महत्व :: (1). सोलह वर्षीय कन्या-युवती-स्त्री और (2). हिन्दुओं में कृत्य जो किसी के मरने के दसवें या ग्यारहवें दिन होता है। षोडषोपचार :- आव्हान, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, ताम्बुल, तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को "षोडषोपचार" कहते है।
सोलह कलाएँ :: भगवान् श्री राम 12 कलाओं के अवतार थे तो भगवान् श्री कृष्ण सम्पूर्ण 16 कलाओं के अवतार थे। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति -ईश्वरीय गुणों से संपन्न-ईश्वर तुल्य-भगवान् होता है। चन्द्रमा के उदय और अस्त होने का काल 27 से 31 दिन के बीच रहता है।
चन्द्रमा की सोलह कलाएँ :- अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इन्हीं को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।
उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।
मानव मन की तीन अवस्थाएं :- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति।
जगत तीन स्तरों वाला है :- (1). एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। (2). दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और (3). तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।
तीन अवस्थाओं से आगे, सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं। यथा…
16 कलाओं का वर्गीकरण-नामकरण :- (1.1). अन्नमया, (1.2). प्राणमया, (1.3). मनोमया, (1.4). विज्ञानमया, (1.5). आनंदमया, (1.6). अतिशयिनी,(1.7). विपरिनाभिमी, (1.8). संक्रमिनी, (1.9). प्रभवि, (1.10). कुंथिनी, (1.11). विकासिनी, (1.12). मर्यदिनी, (1.13). सन्हालादिनी, (1.14). आह्लादिनी, (1.15). परिपूर्ण और (1.16). स्वरुपवस्थित।
(2.1). श्री, (2.2). इला, (2.3). लीला, (2.4). कांति, (2.5). विद्या,(2.6). विमला, (2.7). उत्कर्शिनी, (2.8). ज्ञान, (2.9). क्रिया, (2.10). योग, (2.11). प्रहवि, (2.12). सत्य, (2.13). इसना और (2.14). अनुग्रह।
(3.1). प्राण, (3.2). श्रधा, (3.3). आकाश, (3.4). वायु, (3.5). तेज, (3.6). जल, (3.7). पृथ्वी, (3.8). इन्द्रिय, (3.9). मन, (3.10). अन्न, (3.11). वीर्य, (3.12). तप, (3.13). मन्त्र, (3.14). कर्म, (3.15). लोक और (3.16). नाम।
16 वस्तुओं का वर्ग या समूह :: ईक्षण, प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म और नाम।
सोलह का महत्व :: (1). सोलह वर्षीय कन्या, युवती, स्त्री और (2). हिन्दुओं में कृत्य जो किसी के मरने के दसवें या ग्यारहवें दिन होता है।
16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।मोक्ष मार्ग की 16 कलाएं ::
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥[श्रीमद्भगवद्गीता 8.24]
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय-प्रकाशस्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अधिपति देवता है, उस मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर) पीछे ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्लपक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्लमार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्लपक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्लपक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद :: परमात्मा परोक्षरूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्षरुप रूप से जाननेवालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है।
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gun (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्ष क्रम में :: (1). अग्नि: :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति: :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अहः :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं।(1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है]
SIGNIFICANCE OF 17 ::
दण्ड व्यूह के सत्रह भेद :: प्रदर, दृढक, असा, चाप, चापकुक्षि, प्रतिष्ठ, सुप्रतिष्ठ, श्येन, विजय, संजय, विशाल विजय, सूची, स्थूणा कर्ण, चमू मुख, झषास्य, वलय तथा सुदुर्जय।
SIGNIFICANCE OF 18 ::
18 विद्याएँ :: चारों वेद, उनके छः अंग, मीमांसा, न्याय, पुराण एवं धर्म शास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्भ वेद तथा अर्थ शास्त्र। [श्री शिव महापुराण उत्तरार्ध]
18 न्याय सम्बन्धी राजा के कर्तव्य :: (1). ऋण लेना, (2). किसी के पास थाती (घर, सम्पत्ति, जमीन-जायदाद) गिरवी रखना, (3). मालिक से पूछे बगैर किसी चीज को बेचना, (4). दी हुई वस्तु को फिर से ले लेना, (5). वेतन ने देना, (6). दी हुई वस्तु से इन्कार करना, (7). की हुई व्यवस्था से इन्कार करना, (8). खरीद-फरोख्त, बिक्री, में किसी बात का अन्तर पड़ जाना, (9). स्वामी और पशु-पालकों में विवाद, (10). सीमा की तकरार, (11). गाली-गलौज करना या फिर मार-पीट करना, (12). चोरी करना, (13). जबरदस्ती किसी की चीज छीन ले लेना, (14). पराये पुरुष के साथ स्त्री का सम्बन्ध-सम्पर्क, (15). पति-पत्नी के परस्पर धर्म की व्यस्वस्था, (16). पैतृक आदि धन का विभाजन, (17). जुआ और (18). पशु-पक्षियों को लड़ाना। व्यवहार के ये ही 18 स्थान हैं।
SIGNIFICANCE OF 19 ::
षट्कर्मों में ज्ञेय 19 पदार्थ :: (1).षट्कर्मों में ज्ञेय 19 पदार्थ :: (1). देवता, (2). देवताओम के वर्ण, (3). ऋतु, (4). दिशा, (5). दिन, (6). आसन, (7). विन्यास, (8). मण्डल, (9). मुद्रा, (10). अक्षर, (11). भूतोदय, (12). समिधायें, (13). माला, (14). अग्नि, (15). लेखन द्रव्य, (16). कुण्ड, (17). स्त्रुक्, (18). स्त्रुवा तथा (19). लेखनी इन पदार्थों को भलीभाँति जानकारी कर षट्कर्मों में इनका प्रयोग करना चाहिए।
19 अवस्थाएं :- भगवदगीता में भगवान् श्री कृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की 3 प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् की 15 कला शुक्ल पक्ष की 01 हैं। इनमें से आत्मा की 16 कलाएं हैं।
आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥[श्रीमद्भगवद्गीता 8.24]
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय-प्रकाशस्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अधिपति देवता है, उस मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर) पीछे ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्लपक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्लमार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्लपक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्लपक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद :: परमात्मा परोक्षरूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्षरुप रूप से जाननेवालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है।
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gun (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्षक्रम में :: (1). अग्नि: :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति: :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अहः :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं। (3.1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (3.2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3.3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (3.4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (3.5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (3.6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (3.7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (3.8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (3.9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (3.10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (3.11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (3.12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (3.13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (3.14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (3.15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (3.16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है] जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
Please refer to SHRI MAD BHAGWAD GEETA CHAPTER (VIII) श्रीमद् भगवद्गीता अथाष्टमोSध्याय over santoshkipathshala.blogspot.com
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।
(1). अग्नि :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति :- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है, और (3). अहः :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।
इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं।
(1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।
(2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।
(3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है।
(4). अहंकार नष्ट हो जाता है।
(5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है।
(6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है।
(7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।
(8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है।
(9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।
(10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती।
(11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है।
(12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं।
(13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।
(14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है।
(15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है।
(16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है।
सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।
16 ANNA आना :: एक रूपये में 16 आने होते थे। एक आना बराबर 4 पैसे। एक रूपये में 64 पैसे होते थे।
SIGNIFICANCE OF 20 का महत्व ::
विग्रह-विवाद, लड़ाई-झगड़े के 20 कारण :- सप्ताङ्ग राज्य, स्त्री (सीता आदि, जैसी असाधारण देवी), जनपद के स्थान विशेष, राष्ट्र के एक भाग, ज्ञान दाता उपाध्याय आदि और सेना, इनमें से किसी का भी अपहरण विग्रह का कारण है (इस प्रकार छः हेतु बताये गये)। इनके सिवा मद (राजा दम्भोद्भव आदि की भाँति शौर्यादि जनित दर्प), मान (रावण आदि की भाँति अहंकार), जनपद की पीड़ा (जनपद निवासियों का सताया जाना) ज्ञान विघात (शिक्षा संस्थाओं अथवा ज्ञान दाता गुरुओं का विनाश), अर्थ विघात (भूमि, हिरण्य आदि को क्षति पहुँचाना), शक्ति विघात (प्रभु शक्ति मन्त्र शक्ति और उत्साह शक्तियों का अपक्षय), धर्म विघात, दैव (प्रारब्ध जनित दुरवस्था), सुग्रीव आदि जैसे मित्रों के प्रयोजन की सिद्धि, माननीय जनों का अपमान, बन्धु वर्ग का विनाश, भूतानुग्रह विच्छेद (प्राणियों को दिये गये अभयदान का खण्डन, जैसे किसी ने किसी वन में वहाँ के जन्तुओं को अभय देने के लिये मृगया की मनाही कर दी, किंतु दूसरा उस नियम को तोड़कर शिकार खेलने आ गया यही भूतानुग्रह विच्छेद है), मण्डल दूषण (द्वादश राज मण्डल में से किसी को विजिगीषु के विरुद्ध भड़काना-उभाड़ना, उकसाना, एकार्थाभिनिवेशित्व (जो भूमि या स्त्री आदि अर्थ एकको अभीष्ट है, उसी को लेने के लिये दूसरे का भी दुराग्रह), ये बीस विग्रह-विवाद, लड़ाई-झगड़े के कारण हैं।[राम नीति]
20 GODLY TRAITS :-
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दुःख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय और अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश; प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग बीस भाव मुझ से ही होते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.4-5]
Intelligence, enlightenment, disillusion, pardon, truth-austerity, self restraint-control & comforts-pleasure, pain-sorrow, training-discipline, tranquillity, evolution, destruction, fear, bravery-fearlessness, non violence, equanimity, satisfaction, asceticism, donation-charity, fame (goodwill, recognition, name), slander-defame are the 20 qualities-feelings, gestures which evolve due to the Almighty in the human beings.
मनुष्य के मस्तिष्क का विकास, सूझ-बूझ, बुद्धि-विवेक, चिन्तन-विचार शक्ति, दूरदृष्टि आदि ऐसे गुण हैं, जो उसे सन्मार्ग की ओर ले जा सकते हैं। सार-निस्सार, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य, साँख्य आदि ज्ञान के अंग हैं। मैं, मेरा, अपना, मोह है और संसार के प्रति विरक्ति असम्मोह है। अपने प्रति किये गए घोर अपराध-गुनाह, को शन करना, बर्दाश्त कर लेना और अपराधी को उसके किये गए कुकृत्य के लिए कहीं भी सज़ा न मिले, यह विचार मन में धारण कर लेना क्षमा है। ऐसा सत्य बोलना जो किसी बेगुनाह को सज़ा से मुक्त करा सके। जैसा देखा, सुना और समझा वैसा ही कहना। सत्य वह जो सुख का कारण बने। दम, शम, इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अपने वश में करना दम और मन को सांसारिक भोगों के चिंतन से हटाना शम है। शरीर, मन इन्द्रियों को अनुकूल परिस्थिति से हृदय में जो प्रसन्नता होती है, वह सुख है। प्रतिकूल परिस्थिति, परिणाम से जो अप्रसन्नता होती है वह दुःख है। सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदि के उत्पन्न होने को भव और लीन होने को अभाव कहते हैं। अपने आचरण, भाव आदि के शास्त्र, लोक-मर्यादा के विरुद्ध होने पर अन्तःकरण में जो अनिष्ट-दुःख की आशंका होती है, वो भय है; इसके विपरीत भाव अभय-निडरता है। तन, मन, वचन और देश, काल, परिस्थिति में किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है। अनुकूल-प्रतिकूल घटना, व्यक्ति, काल, परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी अंतःकरण-मन में किसी भी प्रकार की विषमता का न होना समता है। कम-ज्यादा जो भी जैसा भी मिल जाये, उसी में संतुष्ट रहना संतोष-संतुष्टि है। अपने कर्तव्य-धर्म के निर्वाह में किसी भी प्रकार के कष्ट, प्रतिकूल परिस्थिति का निर्वाह, व्रत-उपवास आदि तप हैं। अपनी नेक-ईमानदारी की कमाई का कुछ भाव सत्पात्र को देना दान है। अच्छे आचरण-वर्ताव, गुण, भाव, कार्यों के कारण समाज-देश में प्रसिद्धि, प्रशंसा यश है। समस्त प्राणियों में इन विभिन्न प्रकार के भावों, सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश परमात्मा से हुई प्राप्य है और वे ही इन सबके मूल में हैं। मत्त: योग, सामर्थ, प्रभाव का और पृथग्विधा: अनेक प्रकार की विभूतियों का द्योतक है। संसार में समस्त शुभ-अशुभ, विहित-निहित, निषिद्ध, सद्भाव-दुर्भाव आदि सभी कुछ भवत्वतलीला है। ये जो बीस भाव जो कि प्राणियों में बताये गए हैं, प्रभु से ही संचालित हैं।
Intelligence, development of brain-mind, thoughtfulness, prudence, power to analyse and synthesise, farsightedness, memory-retention are the factors, which can guide one-humans to austerity, piousity, virtuousness, righteousness & the Ultimate-Almighty. Power to understand right or wrong, just or unjust, duty-religiosity are the organs of enlightenment-learning. The preoccupation of mind with I, My, Me, Mine & the ego are illusion-attachment and rejection of worldly possessions-attachment is relinquishment-rejection. Pardon is the quality which allows forgiveness to the culprit for his crime against one and not to think of punishing him under any circumstances. Truth is a quality to report the event as such and to protect an innocent person from punishment. Say what you saw, heard or perceived. Dam is controlling the sense organs and avoiding the subjects-objects of sensual pleasure & Sham is that tendency which forbids one from the thinking-imagination of enjoyments, comforts, luxuries of this destructible-perishable world. Pleasure is happiness attained from the situations, incidents-occurring, attainments in the heart & the pain is caused due to failure, anti-adverse situation, results. Evolution-creation of worldly goods, person, situation-incident, mood, feeling, projection is also Godly act in addition to destruction. Fear comes to one, when he acts against law, person, scriptures, ethics and the power-actions of dreaded criminals. Non violence is the tendency not to hurt-harm any organism, individual, creature through body, mind, thinking, heart-imagination and the speech. Equanimity is the parity of adverse & favourable situation, event, occurrence, person-organism, time-cosmic era-death & life, pleasure-pain. Satisfaction means to remain content with whatever has been obtained-earned honesty, through righteous-just means. Asceticism is bearing of difficulties happily, worship of God through fasting, meditating in the lonely places (caves, mountains, forests, jungles) and as a recluse. Donation-charity is the grant for social welfare through own honest-righteous earning to the deserving. Appreciation due to nice-good conduct-behaviour, dealing with others, goodness, qualities is name & fame. These qualities, characteristics, traits, factors comes to one from the Almighty-God, who is at the root of this universe & all that is happening. Assimilation in God, Liberation-emancipation, Salvation, Yog, strength, power, capacity, impact-effect and various other auspicious qualities are the gifts of the God and whatever is happening is just an act of the Supreme Lord. These 20 qualities of humans are directed-granted by the God. Thus everything-event is a play-act of the Almighty.
Please refer to :: SALVATION: मोक्ष साधनाsantoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.comज्ञान और ज्ञानी के बीस गुण :: शरीर को क्षेत्र कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ कहते हैं।
सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ ईश्वर है और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही ज्ञान है।
क्षेत्र, उसके विकार, जिससे जो पैदा हुआ है तथा क्षेत्रज्ञ और उसके प्रभाव का ज्ञान।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभाग पूर्वक कहा गया है और युक्ति-युक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महत्तत्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय-यही 24 तत्वों वाला क्षेत्र है।
इच्छा, द्वेष, सुःख, दुःख, संघात (stroke, heap, striking, impact, striking down, a group, a heavy blow, collection, quantity, mass, blow, multitude), चेतना (प्राण शक्ति) और घृति; इन विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है।
अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना।
साधक का इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य होना, अहंकार का न होना और जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःख रूप दोषों को बार-बार देखना चाहिये।
आसक्ति रहित होना, पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ) सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना।
ईश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति का न होना।
अध्यात्म ज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्व ज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सब जगह देखना, ये (पूर्वोक्त बीस साधन समुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है।[श्रीमद् भगवद्गीता 1-13]
20 प्रकार का विग्रह :: सप्ताङ्ग राज्य, स्त्री (सीता आदि, जैसी असाधारण देवी), जनपद के स्थान विशेष, राष्ट्र के एक भाग, ज्ञान दाता उपाध्याय आदि और सेना, इनमें से किसी का भी अपहरण विग्रह का कारण है (इस प्रकार छः हेतु बताये गये)। इनके सिवा मद (राजा दम्भोद्भव आदि की भाँति शौर्यादि जनित दर्प), मान (रावण आदि की भाँति अहंकार), जनपद की पीड़ा (जनपद निवासियों का सताया जाना) ज्ञान विघात (शिक्षा संस्थाओं अथवा ज्ञान दाता गुरुओं का विनाश), अर्थ विघात (भूमि, हिरण्य आदि को क्षति पहुँचाना), शक्ति विघात (प्रभु शक्ति मन्त्र शक्ति और उत्साह शक्तियों का अपक्षय), धर्म विघात, दैव (प्रारब्ध जनित दुरवस्था), सुग्रीव आदि जैसे मित्रों के प्रयोजन की सिद्धि, माननीय जनों का अपमान, बन्धु वर्ग का विनाश, भूतानुग्रह विच्छेद (प्राणियों को दिये गये अभयदान का खण्डन, जैसे किसी ने किसी वन में वहाँ के जन्तुओं को अभय देने के लिये मृगया की मनाही कर दी, किंतु दूसरा उस नियम को तोड़कर शिकार खेलने आ गया यही भूतानुग्रह विच्छेद है), मण्डल दूषण (द्वादश राज मण्डल में से किसी को विजिगीषु के विरुद्ध भड़काना -उभाड़ना), एकार्थाभिनिवेशित्व (जो भूमि या स्त्री आदि अर्थ एकको अभीष्ट है, उसी को लेने के लिये दूसरे का भी दुराग्रह), ये बीस विग्रह-विवाद, लड़ाई-झगड़े के कारण हैं।[अग्निपुराण 240.16-18, रामनीति]
20 TRAITS प्राणियों के बीस भाव :: बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दुःख, उत्तपत्ति, विनाश, भय, अभय, और अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश-प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग बीस भाव हैं।
Intelligence, enlightenment, disillusion, pardon, truth-austerity, self restraint-control & comforts-pleasure, pain-sorrow, training-discipline, tranquillity, evolution, destruction, fear, bravery-fearlessness, non violence, equanimity, satisfaction, asceticism, donation-charity, fame-goodwill-name, slander-defame are the 20 qualities-feelings-gestures which evolve due to the Almighty in the human beings.
SIGNIFICANCE OF 21 का महत्व :: इन 21 वस्तुओं को नीचे-भूमि पर न रखें :- (1). मोती, (2). शुक्ति (सीपी), (3). शालग्राम,(5). शिवलिंग, (6). देवी की मूर्ति, (6). शंख, (7). दीपक, (8). यन्त्र, (9). माणिक्य, (10). हीरा, (11). यज्ञसूत्र (यज्ञोपवीत), (12). फूल, (13). पुष्पमाला, (14). जपमाला, (15). पुस्तक, (16). तुलसीदल, (17). कर्पूर, (18). स्वर्ण, (19). गोरोचन, (20). चंदन और (21). शालग्राम अभिषेक अमृत जल।
इन सभी वस्तुओं को किसी आधार पर स्थापित कर पूजित किया जाता है। पृथ्वी पर अक्षत, आसन, काष्ठ या पात्र रख कर इनको उस पर रखते हैं।
मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिंगं शिवां तथा।
शंखं प्रदीपं यन्त्रं च माणिक्यं हीरकं तथा॥
यज्ञसूत्रं च पुष्पं च पुस्तकं तुलसीदलम् ।
जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च सुवर्णकम्॥
गोरोचनं च चन्दनं च शालग्रामजलं तथा।
एतान् वोढुमशक्ताहं क्लिष्टा च भगवन् शृणु॥
इन इक्कीस वस्तुओं को सजगता पूर्वक किसी न किसी वस्तु के ऊपर रखना चाहिए। प्रायः दीपक को लोग अक्षतपुंज पर रखते हैं। पुस्तक को मेज पर रखते हैं। शालग्राम और देवी की मूर्ति को पीठिका पर रखते हैं।
शंख को त्रिपादी पर रखते हैं। स्वर्ण को डिब्बी में रखते हैं। फूल, फूलमाला को पुष्पपात्र में तथा यग्योपवीत को किसी पत्र पर रखते हैं।
SIGNIFICANCE OF 24 का महत्व ::
24 BASIC COMPONENTS OF BODY शरीर के घटक-क्षेत्र :: अव्यक्त मूल प्रकृति है। समष्टि बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है। पञ्च महाभूत का कारण होने से यह प्रकृति है और विकृति भी है। 5 महाभूत पृथ्वी, जल, तेज़, वायु और आकाश हैं। दस इन्द्रियों में 5 ज्ञानेन्द्रियाँ श्रोत्र (कान), त्वचा (खाल-स्पर्श), नेत्र (आँखें), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक) हैं। 5 कर्मेन्द्रियाँ वाक् (बोलना), पाणि, पाद (पैर), उपस्थ, और पायु हैं। अपञ्चिकृत महाभूतों से पैदा होने के कारण और स्वयं किसी का भी कारण ने होने से मन केवल विकृति ही है। शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध 5 ज्ञानेन्द्रियों के 5 विषय हैं।
The human body constitutes of 24 basic elements-components which are obtained from nature along with intelligence, ego, 5 basic physical components earth, water, air, energy and the sky. There are 10 organs constituting of 5 sense organs including ears, skin, eyes, tongue and nose with 5 functional organs i.e., organs of work speech-tongue, hands, feet, reproduction organs and the organs of excretion. The mind (will, gestures, desires, mood, thoughts, imagination etc.) represent defects. Sound, speech, beauty (shape, figure), extracts-juices and scent are the 5 motives of sense organs.
स्मृतियाँ :: मनु, विष्णु, अत्री, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगीरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, ब्रहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्, शातातप और वशिष्ठ। महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥
मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महत्तत्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय-यही 24 तत्वों वाला क्षेत्र है।[श्रीमद् भगवद्गीता 13.5]
The Kshetr (human body) constitutes of nature and macro intelligence, ego (I, my, me, mine; Id, ego, super ego) five basic elements, ten organs, mind, five sense objects; in total 24 elements.
अव्यक्त मूल प्रकृति है। समष्टि बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है। पञ्च महाभूत का कारण होने से यह प्रकृति है और विकृति भी है। 5 महाभूत पृथ्वी, जल, तेज़, वायु और आकाश हैं। दस इन्द्रियों में 5 ज्ञानेन्द्रियाँ श्रोत्र (कान), त्वचा (खाल-स्पर्श), नेत्र (आँखें), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक) हैं। 5 कर्मेन्द्रियाँ वाक् (बोलना), पाणि, पाद (पैर), उपस्थ और पायु हैं। अपञ्चिकृत महाभूतों से पैदा होने के कारण और स्वयं किसी का भी कारण ने होने से मन केवल विकृति ही है। शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध 5 ज्ञानेन्द्रियों के 5 विषय हैं।
The human body constitutes of 24 basic elements-components which are obtained from nature along with intelligence, ego, 5 basic physical components earth, water, air, energy and the sky. There are 10 organs constituting of 5 sense organs including ears, skin, eyes, tongue and nose with 5 functional organs i.e., organs of work speech-tongue, hands, feet, reproduction organs and the organs of excretion. The mind (will, gestures, desires, mood, thoughts, imagination etc.) represent defects. Sound, speech, beauty (shape, figure), extracts-juices and scent are the 5 motives of sense organs.
सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण ::
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागों ;
शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।
अष्ट अंग अरू दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये;
बिन जाने तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये।
आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म-स्थान) और आठ शंकादि दोष; इस प्रकार सम्यक्तत्व के पच्चीस दोष होते हैं। कोई भी जीव अपने अंदर रह रहे दोषों को जाने और समझे बिना उन दोषों को छोड़ नहीं सकता। वह अपनी आत्मा में विराजमान अनंत गुणों को कैसे गृहण करे? अतः सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों को त्याग करके चैतन्य परमात्मा में मन लगाना चाहिये।
जीव के मद के आठ दोष ::
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै:;
मद न रूपकौ मद न ज्ञानकौ, धन बलकौ मद भानै।
तपकौ मद न मद जु प्रभुताकौ, करै न सो निज जानै;
मद धारैं तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै।
(1). कुल-मद :- इस संसार में पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं। जिस व्यक्ति के पितृपक्ष में पिता आदि राजादि पुरूष होने से उसको मैं राजकुमार हूँ, इस तरह का अभिमान हो जाता है, उसे कुल-मद कहते हैं।
(2). जाति-मद :- स्वयं को उच्च जाति यथा स्वर्ण, ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य होने का मिथ्याभिमान।
(3). रूप-मद :- शारीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप-मद होता हैं।
(4) ज्ञान-मद :- अपनी विद्या या ज्ञान का अभिमान करना, सो ज्ञान-मद होता है।
(5) धन-मद :- अपनी धन-सम्पति का अभिमान करना, सो धन-मद होता है।
(6) बल-मद :- अपनी शारीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल-मद होता है।
(7) तप-मद :- अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद होता है।
(8) प्रभुता-मद :- अपने बड़प्पन और प्रभुता का गर्व करना सो प्रभुता-मद कहलाता है। इस तरह कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता; यह आठ मद-दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ मदों का गर्व नहीं करता है, वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है। यदि वह इनका गर्व करता है, तो ये मद सम्यकदर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं।
छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष ::
कुदेव-कुगुरू-कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचरै है;
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करै है।
कुगुरू, कुदेव, कुधर्म, कुगुरूसेवक, कुदेवसेवक तथा कुधर्मसेवक; यह छह अनायतन सच्चे धर्म के अस्थान, कुस्थान या दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यकद्रष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता है; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यकद्रष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को किसी भी भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण नमस्कार नहीं करता है, क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है। कुगुरू-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा यह तीन भी सम्यक्त्व के मूढ़ता नामक दोष होते हैं।
सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण ::
जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै;
मुनि-तन मलिन न देखे घिनावै, तत्व-कुतत्व पिछानै।
निज गुण अरू पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढ़ावे;
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सु दिढावै।
धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै;
इन गुणतै विपरीत दोष, तिनकों सतत खिपावै।
(1). नि:शंकित अंग :: सच्चा धर्म या तत्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है तथा अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है; इस प्रकार यथार्थ तत्वों में अपार, अचल श्रद्धा होना, सो नि:शंकित अंग कहलाता है।
अहो, अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव भोगों को कभी उचित नहीं मानते हैं; किन्तु जिस प्रकार कोई बन्दी इच्छा न होने पर भी कारागृह में घनघोर दु:खों को सहन करता है, उसी प्रकार अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव अपने पुरूषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रूचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते हैं; इसलिए उन्हें नि:शंकित और नि:कांक्षित अंग होने में कोई भी बाधा या रुकावट नहीं आती है।
(2). नि:कांक्षित अंग :: धर्म का पालन करके उसके बदले में सांसरिक सुखों की इच्छा न करना उसे नि:कांक्षित अंग कहते है।
(3). निर्विचिकित्सा अंग :: मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते है।
(4). अमूढ़द्रष्टि अंग :: सच्चे और झूठे तत्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न फँसना, वह अमूढ़द्रष्टि अंग है।
(5). उपगूहन अंग :: अपनी प्रशंसा कराने वाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना) सो उपगूहन अंग होता है। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यकद्रष्टि को होते हैं।
SIGNIFICANCE OF 30 का महत्व ::
धर्म के 30 लक्षण :- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार-ज्ञान, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृति, मनुष्य के अभिमान पूर्ण प्रयत्नों का फल उल्टा ही होता है; यह विचार धारण करना, मौन, आत्मचिंतन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग विभाजन-वितरण, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपनी आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान् श्री कृष्ण के नाम, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्यसाथी-प्रेमी, और आत्म समर्पण। ये तीस प्रकार का आचरण, सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह उपदेश प्रह्लाद जी ने अपने बाल्य काल में अपने सहपाठियों को दिया। उन्होंने यह सब नारद जी के मुँख से अपनी माँ को कहते सुना, जब वे गर्भ में थे।[श्रीमद्भागवत 11.7.8-12]
30 तुषित :: 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे :- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।
तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया।
पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है।
SIGNIFICANCE OF 33 का महत्व :: 33 कोटि तैंतीस करोड़ देवताओं के सामान्य पद और 33 विशिष्ट देवताओं को दर्शाता है। मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग जाने वाले मनुष्य, इन्हीं में से किसी एक देवता में उसी प्रकार मिल जाते हैं जैसे समुद्र में नदी।
DEMIGODS 33 कोटि देवतागण :: 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्वनीकुमार। अश्वनीकुमारों की जगह इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है।
12 आदित्य :: अदिति के पुत्र धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु 12 आदित्य हैं। अन्य कल्प में ये नाम इस प्रकार थे :- अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु। इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र।अथवा इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र। अथवा विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। प्रचलित है कि गुणों के अनुरुप किसी व्यक्ति के अनेक नाम भी होते हैं। जिस प्रकार एक व्यक्ति के कई नाम होते हैं उसी प्रकार एक नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं। इन्हीं पर वर्ष के 12 मास नियुक्त हैं।
8 वसु :: धर, ध्रुव, सोम, अह:, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभास।
11 रूद्र :: रूद्र, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली।
हर-रुद्र्ब, हुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित-रुद्र्वृ, षाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व, कपाली।
मृगव्याध, सर्प, निऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, दहन, ईश्वर, कपाली, स्थाणु, भव। [महाभारत]
काल भेद से रुद्रों के नामों में अन्तर है।
12 साध्य गण :: मन, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभस और विभु।
10 विश्वेदेव :: क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, धुनि, कुरुवान, प्रभवान् और रोचमान।
7 पितर :: कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निश्वात्त और बर्हिषत् ।
2 अश्वनीकुमार :: भगवान् सूर्य के पुत्र 2 अश्वनीकुमार देवताओं के वैद्य-चिकित्सक हैं।
(1). इन्द्र :: यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। इन्द्र एक पद है। स्वर्ग के शासन को इन्द्र कहा जाता है। इसे समय इकाई के तौर पर भी प्रयोग किया जाता है यथा एक इंद्र का कार्यकाल।
ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं।
(2). धाता :: धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्री विग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।
(3). पर्जन्य :: पर्जन्य तीसरे आदित्य हैं। ये मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं।
(4). त्वष्टा :: आदित्यों में चौथा नाम श्रीत्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में है। पेड़-पौधों में यही व्याप्त हैं। औषधियों में निवास करने वाले हैं। इनके तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं। अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे।
एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया।
ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।
(5). पूषा :: पांचवें आदित्य पूषा हैं, जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में ये विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं ऊर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है।
(6). अर्यमन :: अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है।आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। ये वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।
(7). भग :: सातवें आदित्य हैं भग। प्राणियों की देह में अंग रूप में विद्यमान हैं। ये भग देव शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं।
(8). विवस्वान :: आठवें आदित्य विवस्वान हैं। ये अग्निदेव हैं। इनमें जो तेज व ऊष्मा व्याप्त है वह सूर्य से है। कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अग्नि द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं।
(9). विष्णु :: नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन।
12 आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु।
(10). अंशुमान :: दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वही अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है।
(11). वरुण :: ग्यारहवें आदित्य जल तत्व का प्रतीक हैं वरुण देव। ये मनुष्य में विराजमान हैं जल बनकर। जीवन बनकर समस्त प्रकृति के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं।
वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में ‘अहुरा मज़्दा’ कहलाए।
(12). मित्र :: बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, साधुओं का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। ये 12 आदित्य सृष्टि के विकास क्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
SIGNIFICANCE OF 49 का महत्व ::
सिद्ध भक्त के 39 लक्षण ::
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥12.13॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.14॥
सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला तथा दयालु भी और ममता रहित, अहंकार रहित, सुःख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर संतुष्ट, योगी शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चय वाला, मुझ में अर्पित मन-बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।
The Almighty told Arjun that a devotee-Yogi, who is free from envy-rivalry, friendship & compassionate, free from attachments-affections & ego-pride, even-minded in pain and pleasure, forgiving and ever content, with subdued mind, with firm resolve, whose mind and intellect are engaged in dwelling upon HIM, who is devoted to HIM, is dear to HIM.One has to equanimity towards all living beings.
ऐसा व्यक्ति जो द्वेषभाव से मुक्त है और किसी को भी कोई भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाना चाहता, समस्त क्रियाओं में भगवान् का मंगलमय विधान ही मानता है, प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा का भाव रखने वाला, प्राणियों के प्रति ममता भाव से मुक्त तथा उसकी अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रति भी ममता नहीं है, उसकी अपने शरीर के प्रति अहं बुद्धि नहीं है। उसके अन्तःकरण में स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं, जिन्हें भक्त परमात्मा की कृपा ही मानता है, जिससे वह अहंकार से मुक्त रहता है। वह सुःख और दुःख, प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों के प्रति सम भाव रखता है। जिससे उसमें हर्ष-शोकादि विकार उत्पन्न नहीं होते। उसके स्वभाव में अपने प्रति द्वेष रखने वालों, अपराध करने वालों के प्रति भी क्षमा का भाव रहता है। वह सभी प्रकार से संतुष्ट है। वह नित्य-निरन्तर परमात्मा से जुड़ा हुआ होने के कारण योगी है। उसको अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर पूरा काबू है; जिससे वे अनुशासन में हैं। वह भगवान् के प्रति भक्ति भाव में पूरी तरह से दृढ़-अविचलित है।
साधन के प्रति भक्त में निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है। इसलिए कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग, तीनों में ही निर्मम और निरहंकार होने की बात कही गई है। जब भक्त के मन, बुद्धि, प्राण पूरी तरह भगवान् में लग जाते हैं, तो भगवान् का उसके प्रति प्रेम स्वाभाविक ही है।
The individual is free from envy, malice-hate and does not harm anyone. He believes that all auspicious activities that happens around him are the will of the God. He has pity in his heart for all beings. He has no affection-attachment for anyone-anything. He does not keep concern for the mind, intelligence and his own body as well. He is free from ego & pride pertaining to his body or capabilities of any kind, he possesses. This evolves auspicious divine qualities-traits in him for which he gives the credit to God's will-mercy. This prevents him from ego. He has developed neutrality towards pleasure & pain. This equanimity keeps him free from sorrow or joy. He pardons-forgives one, who has envious-malicious attitude towards him. He is content in himself and is satisfied with whatever he possess i.e., he has due to the kindness of the God. He is a Yogi who is always connected with the God. His body, mind, intelligence and the soul are under his own command & well disciplined. He has firm resolve towards devotion to God. He is rigid and free from ego for being a practitioner of Karm Yog, Gyan Yog and Bhakti Yog towards devotion to the Almighty. This has reciprocated-created love for the Almighty, in him.
The fact is that if one loves the God he too reciprocates.
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥12.15॥
जिससे कोई भी प्राणी उद्विघ्न-क्षुब्ध नहीं होता और जो स्वयं भी किसी से उद्विघ्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है।
The one by whom others are not agitated, disturbed, angered and who himself too is not agitated by others, who is free from joy, envy, fear and anxiety, is also dear to ME.
भक्त जिसके द्वारा-कारण कोई भी व्यक्ति परेशान नहीं होता भी, भगवान् को प्रिय है। उसकी समस्त क्रियाएँ प्राणी मात्र के भले के लिये होती हैं। वह भूल से भी किसी का अनिष्ट करने की चेष्टा नहीं करता। फिर भी कुछ आसुरी स्वभाव के व्यक्ति अपने दोष युक्त स्वभाव के कारण अकारण ही उससे द्वेष-वैर रखते हुए दुःखी रहते हैं। अक्सर दुष्ट लोग भी उसकी संगत में अपना बुरा स्वभाव-व्यवहार बदल लेते हैं। वह किसी के प्रति द्वेष-दुर्भावना नहीं रखता। वह सभी प्रकार के हर्ष-विषाद से मुक्त है। उसमें स्वाभाविक एक रस, विलक्षण और अलौकिक प्रसन्नता-परमानन्द है। उसमें दूसरों के प्रति ईर्ष्या का अभाव है। उसमें मृत्यु, सांसारिक कारणों यथा चोर, डाकू आदि तथा स्वयं के अन्दर पैदा होने वाले झूठ, कपट, बेईमानी, व्यभिचार, शास्त्र विरुद्ध आचरण और भावों का भी भय-डर नहीं है, क्योंकि वह इनसे निर्लिप्त-दूर है। उसमें गुणों का अभिमान नहीं है और दुर्गुणों-दुराचारों, विकारों से मुक्त है। वह परमात्मा को प्यार करता है और स्वयं भी परमात्मा को प्रिय है।
The God has described the person whom he likes-loves. One who does not harm, disturb, agitate, anger anyone, is dear to the Almighty. All his actions are for the welfare of the mankind. Still some people envy him due to their own demonic nature. Such people too change their habit-nature, when they come in contact with this type of devotee of the God. He does not nurse ill will (grievances, grudge) for the others. He is free from all kinds of tensions, since he possesses bliss in himself. He does not envy others. He is free from the fear of death, out side deterioration, thieves, dacoits, sinners, wretched and the inner defects. He loves the Almighty and is reciprocated by HIM.अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.16॥
जो अपेक्षा-आवश्यकता से रहित, बाहर-भीतर से पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित और सभी आरम्भों का अर्थात नये-नये कर्मों का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
The Almighty says that one who is needless-free from desires, pious, virtuous, righteous, pure both externally & internally, wise, neutral-has attained equanimity-impartiality, free from anxiety, (botheration, tensions, worries) & who has renounced the doer-ownership ship in all undertakings, endeavours, entrepreneurship etc., such a devotee is dear to HIM.
भक्त भगवान् को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर संसार की किसी भी वस्तु के प्रति खिंचाव-लगाव महसूस नहीं करता। उसका अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों के प्रति भी अपनापन-लगाव नहीं है। उसमें विषय-वासनाओं, स्पृहा का भी अभाव है। वह भयंकर से भयंकर विपत्ति-परिस्थिति में भी भगवत लीला में रमा रहता है। उसका अविनाशी परमात्मा से कभी वियोग नहीं होता। उसे अपने शरीर निर्वाह की भी चिन्ता नहीं है। उसे तो इसकी भी चिन्ता नहीं है कि भगवान् दर्शन देंगे अथवा नहीं।उसे परमपिता-परब्रह्म परमेश्वर में लीन होना है। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवान् को प्राप्त करना है, सो उसने पा लिया है।
वह शान्त, द्वेष रहित, समदर्शी और निस्पृह है। उसकी शरीर में अपनापन अहंता, ममता, मेरा-मैं पन नहीं है। उसका अन्तःकरण पवित्र है। ऐसे भक्तों की चरणरज से तीर्थ भी पवित्र हो जाते हैं। वह अहंकार से दूर है। अतः वह दक्ष और चतुर है। उसका विवेक जागृत है। वो संसार के प्रति उदासीन, निर्लिप्त, तटस्थ है। वह भेद-भाव से रहित है। उसके चित्त में व्यथा-दुःख, राग-द्वेष, खिन्नता, हलचल, हर्ष-शोक, नहीं हैं। वह परिस्थिति जन्य विकारों से मुक्त है। वो भोग, नए-नवीन उद्यमों से दूर है। वह सिवाए भगवान् के किसी को अपना नहीं मानता। ज्ञान के द्वारा उसकी चित्त, जड़-ग्रन्थि कट गई है। ऐसा भक्त जो पूरी तरह परमात्मा को ही समर्पित है, वो परमात्मा को प्रिय है।
The devotee considers the Almighty to be Ultimate-Eternal and do not find attachment-attraction towards other things-commodities, events. He has no attachment with his own body, mind, intelligence and the sense organs. He has freed himself from desires, wants, sensuality, passions. He keeps himself involved in the God even in worst possible circumstances-conditions. Practically, he is never separated from the God. He does not worry about his basic needs like food, since he thinks that the God will HIMSELF arrange it. He is under the asylum, shelter, protection of the God. He do not bother whether the God will come and meet him. He is calm, quite, composed, peaceful, neutral, detached, free from envies. He has no pride-ego or attachment for the body. His innerself is calm, quite, pure, pious, virtuous, righteous, honest, truthful. His conscience is pure. The sites of pilgrim becomes pious-pure with the touch of his feet. His sole motive is to attain the God, (Salvation, emancipation, assimilation in God, Liberation) which he has attained. He is skilful, wise and clever in the sense that his goal of reaching the Almighty is fulfilled. His prudence guides him. He is neutral to the world-universe and has developed equanimity towards its inhabitants. He is free from worries, grievances, anxieties-tensions, pleasure-pain, disturbances-distortions. He is not deterred by the adverse circumstances-conditions. He does not involve himself in new ventures, endeavours. He does not consider anyone else his own, except the God. His mind, psyche, mood, gestures and the inertia have been cut off by the enlightenment. He is thoroughly devoted to the Almighty. The Almighty loves him.
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥12.17॥
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है।
One who is free from rejoice, malice (hatred, malevolence, hate, malignity, resentment), grieves, desires, likes, dislikes; who has renounced both the good and the evil and is full of devotion is dear to the Almighty.
सिद्ध पुरुष में राग, द्वेष, हर्ष और शोक नहीं होते। ज्यों-ज्यों उसकी भक्ति का वेग बढ़ता है, त्यों-त्यों वह संसार से दूर होता चला जाता है और भगवान् से जुड़ता जाता है। अंततोगत्वा भगवान् का साक्षात्कार होने पर उसके सभी विकार पूरी तरह मिट जाते हैं। हर्ष और शोक; राग-द्वेष के परिणाम हैं, जो कि स्वतः कम होते जाते हैं। उसकी कामनाएँ नष्ट हो गईं हैं। भगवत्प्राप्ति के साथ ही सभी विकार खत्म हो जाते हैं। उसके शुभ और अशुभ कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। उसका कर्म बन्धन नष्ट हो जाता है। भक्त का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है। वह निरन्तर भगवान् का चिन्तन, स्मरण, भजन करता रहता है। इस अवस्था में परमात्मा को प्रिय हो जाता है।
The devotee who has reached the stage of perfection, becomes free from attachments, malice, pleasures or pain. With the increase in his intensity of worship his bonds with the God are strengthened. He becomes closer to HIM and is able to assess-see HIM. Pleasure & pains are the results-outcome of attachments and malice, hatred, malevolence, malignity, resentment, leading to loss, completion, fulfilment of desires. All his defects are removed with the view (face to face) of the God, impact of auspicious and inauspicious deeds, too are finished-over. The bonds-ties evolved due to the impact of endeavours are lost completely. He becomes an unparalleled devotee of the God. He continues with meditation, remembrance and recitation of holy verses of the Almighty. At this stage, he is accepted-adopted by the God with love. समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुःख-दुःख (मन-बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है और जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने, न होने में) सन्तुष्ट रहने वाला तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।[श्रीमद् भगवद्गीता 12.18-19] One who remains balanced-neutral towards friend or foe, in honour or insult-disgrace, in hot or cold (conditions adverse or favourable to the body), in pleasure or pain (conditions favourable or adverse to heart and intelligence); has attained equanimity & is free from attachment; who is indifferent to censure or praise; who is thoughtful, quiet and content with whatever he has; unattached to a place (region, country, house); equanimous (in full control of faculties, perfectly poised and sure of himself, self-contained and dependable; strong and self-possessed in the face of trouble) and full of devotion that person is dear to ME.
राग-द्वेष से रहित सिद्ध भक्त के हृदय में किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता। वह अपने आप में पूर्णतया सदैव सम रहता है। मान-अपमान स्थिति जन्य है। भक्त में अहंता और ममता न होने के कारण उसके अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) उत्पन्न नहीं होता और अपनी समता की स्थिति को बनाये रखता है। इन्द्रियों का अपने विषयों से संयोग होने पर उसके अन्तःकरण में समता होने से कोई विकार नहीं होता। यही स्थिति उसमें पदार्थों-धनादि की प्राप्ति-अप्राप्ति में सुख-दुःख के प्रति है। अतः प्राप्ति-अप्राप्ति में वह हर्ष-शोक से रहित है। स्वरूप से मनुष्य पदार्थों का संग-साथ छोड़ नहीं सकता, परन्तु वह अपने अन्तःकरण में उनमें आसक्ति, लगाव, जुड़ाव का त्यागकर सकता है। आसक्ति ही प्राणी को कामना, क्रोध, मूढ़ता का शिकार बनाती है। राग-आसक्ति का कारण मैं-पन है, जो मन, बुद्धि, इन्द्रियों और विषयों के प्रति है। विवेक इसको त्यागने में सहायक है। प्राणी का भगवान् से स्वाभाविक लगाव-प्रेम है, जो कि उसमें संसार के प्रति आसक्ति के कारण दबा-ढँका रहता है। भक्त के मन में शरीर के प्रति अहंता-ममता न होने से उस पर निंदा-स्तुति का प्रभाव नहीं पड़ता और इन दोनों में ही उसकी सम बुद्धि बनी रहती है। वह चिंतन-मननशीेल है और बगैर आवश्यकता के व्यर्थ नहीं बोलता। वह शरीर निर्वाह के लिये जो कुछ भी मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितयों में भी सम है। उसकी अपने निवास स्थान में ममता-आसक्ति नहीं है। उसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति किसी भी प्रकार की शंका नहीं है। अतः स्थिर बुद्धि है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उसे किसी प्रमाण, शास्त्र-विचार, स्वाध्याय आदि की ज़रुरत नहीं है। जिस व्यक्ति ने भगवत्भक्ति से स्वयं को भर लिया है, वही भक्तिमान और नर-मनुष्य कहलाने के काबिल है।
इस प्रकार भगवान् ने सिद्ध भक्त के पिछले 7 श्लोकों में 39 लक्षण बताये हैं।
The detached-relinquished devotee is free form enmity or friendship towards any one. He is equanimous and self contained. He is neutral to honour or insult. Being free from affections-attachments, he is free from pleasure or pain. He is calm, quite, composed when the sense organs interact with the objects of sensuality-passions. This interaction does not cause any defect-motivation in him. This status is maintained in success or failure in obtaining the worldly possessions, comforts, materials, money-wealth etc. He is free from happiness or disappointment for not having obtained goods for comforts-utility. Its not possible for him to isolate himself from the company of worldly materials, but he can reject the attachment in his heart for them. Attachment causes anger, despair, stupidity which he has to reject. The main reason for attachments is ego (I, my, me, mine) & imprudence, which connects him to passions, senses, sensuality, sexuality, which can be over come through prudence-intelligence. He has natural attachment-love for the Almighty, which is not revealed due to the worldly attractions. Worldly afflictions keep it masked. He develops neutrality in himself which protects him from praise of rebuke-slur. He maintains his cool towards them. He is thoughtful and analysis & synthesis keep on going in him, which controls his speech. He speaks only when essential and to the point, only. Whatever, he has got for maintaining the body is sufficient for him. He is satisfied and content with whatever he has. He do not store for future. He is equanimous towards the favourable or opposite-adverse conditions. He has no attachment for the place, he lives. He has no doubt about the Almighty in his heart. He do not need any quotations from the scriptures or self study about the existence of God. One has filled himself with devotion & is the true worshipper and deserve to be called a human being.
In this manner the Almighty described 39 qualities, traits, characteristics of the devotees in previous 7 verses to Arjun. One who acquires them is sure to the sail the ocean of this birth successfully.
SIGNIFICANCE OF 49 का महत्व ::
49 मरुत गण :: मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है, जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं।
वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम पृशित बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।[ऋ. 1.85.4]
7 मरुत :- (1). आवह, (2). प्रवह, (3). संवह, (4). उद्वह, (5). विवह, (6). परिवह और (7). परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं :- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।
SIGNIFICANCE OF 56 का महत्व ::
छप्पन भोग :: (1). भक्त (भात), (2). सूप (दाल), (3). प्रलेह (चटनी), (4). सदिका (कढ़ी), (5). दधि शाकजा (दही शाक की कढ़ी), (6). सिखरिणी (सिखरन), (7). अवलेह (शरबत), (8). बालका (बाटी), (9). इक्षु खेरिणी (मुरब्बा), (10). त्रिकोण (शर्करा युक्त), (11). बटक (बड़ा),m(12). मधु शीर्षक (मठरी), (13). फेणिका (फेनी), (14). परिष्टïश्च (पूरी), (15). शतपत्र (खजला), (16). सधिद्रक (घेवर), (17). चक्राम (मालपुआ), (18). चिल्डिका (चोला), (19). सुधाकुंडलिका (जलेबी), (20). धृतपूर (मेसू), (21). वायुपूर (रसगुल्ला), (22. चन्द्रकला (पगी हुई), (23. दधि (महा रायता), (24). स्थूली (थूली), (25). कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी), (26). खंड मंडल (खुरमा), (27). गोधूम (दलिया), (28). परिखा, (29. सुफलाढय़ा (सौंफ युक्त), (30). दधिरूप (बिलसारू), (31). मोदक (लड्डू), (32). शाक (साग), (33). सौधान (अधानौ अचार), (34). मंडका (मोठ), (35). पायस (खीर), (36). दधि (दही), (37). गोघृत, (38). हैयंगपीनम (मक्खन), (39). मंडूरी (मलाई), (40). कूपिका (रबड़ी), (41). पर्पट (पापड़), (42). शक्तिका (सीरा), (43). लसिका (लस्सी), (44). सुवत, (45). संघाय (मोहन), (46). सुफला (सुपारी), (47). सिता (इलायची), (48). फल, (49). तांबूल, (50). मोहन भोग, (51). लवण, (52). कषाय, (53). मधुर, (54). तिक्त, (55). कटु, (56). अम्ल।
गौलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर विराजते हैं। उस कमल की तीन परतें होती हैं। प्रथम परत में "आठ", दूसरी में "सोलह" और तीसरी में "बत्तीस पंखुड़िया" होती हैं। प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और मध्य में भगवान विराजते हैं। इस तरह कुल पंखुड़ियों संख्या छप्पन होती है। SIGNIFICANCE OF 64 का महत्व ::
64 अभास्वर :: तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं :- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।
64 FIELDS OF STUDIES IN ANCIENT INDIA (कला) :: विद्याओं-विधाओं का वर्गीकरण-विभाजन पद गरिमा, वर्ण व्यवस्था के अनुरूप है।
व्यवहारिक 44 कलाएँ :: (1). ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि की विधि, (2). हाथी, घोड़ा, रथ आदि चलाना, (3). मिट्टी और कांच के बर्तनों को साफ रखना, (4). लकड़ी के सामान पर रंग-रोगन सफाई करना, (5). धातु के बर्तनों को साफ करना और उन पर पालिश करना, (6). चित्र बनाना, (7). तालाब, बावड़ी, कमान आदि बनाना, (8). घड़ी, बाजों और दूसरी मशीनों को सुधारना, (9). वस्त्र रंगना, (10). न्याय, काव्य, ज्योतिष, व्याकरण सीखना, (11). नाव, रथ, आदि बनाना, (12). प्रसव विज्ञान, (13). कपड़ा बुनना, सूत कांतना, धुनना, (14). रत्नों की परीक्षा करना, (15). वाद-विवाद, शास्त्रार्थ करना, (16). रत्न एवं धातुएं बनाना, (17). आभूषणों पर पालिश करना, (18). चमड़े की मृदंग, ढोल नगारे, वीणा वगैरेह तैयार करना, (19). वाणिज्य, (20). दूध दुहना, (21). घी, मरूवन तपाना, (22). कपड़े सीना, (23). तरना, (24). घर को सुव्यवस्थित रखना, (25). कपड़े धोना, (26). केश-श्रृंगार, (27). मृदु भाषण वाक्पटुता, (28). बांस के टोकने, पंखे, चटाई आदि बनाना, (29). कांच के बर्तन बनाना, (30). बाग बगीचे लगाना, वृक्षारोपण, जल सिंचन करना, (31). शस्त्रादि निर्माण, (32). गादी गोदड़े-तकिये बनाना, (33). तैल निकालना, (34). वृक्ष पर चढ़ना, (35). बच्चों का पालन पोषण करना, (36). खेती करना, (37). अपराधी को उचित दंड देना, (38). भांति भांति के अक्षर लिखना, (39). पान सुपारी बनाना और खाना, (40). प्रत्येक काम सोच समझकर करना, (41). समयज्ञ बनना, (42). रंगे हुए चांवलों से मंडल मांडना, (43). सुगन्धित इत्र, तैल-धूपादि बनाना एवं, (44). हस्त कौशल-जादू के खेल से मनोरंजन करना।
संगीत की 7 कलाएं :: (1). नृत्य, (2). वादन, (3). श्रृंगार, (4). आभूषण, (5). हास्यादि हाव-भाव, (6). शय्या-सजाना और (7). शतरंज आदि कौतुकी क्रीड़ा करना। संगीत और नृत्य की भी 64-64 विधाएँ हैं।
आयुर्वेद शास्त्र की 8 कलाएं :: (1). आसव, सिर्का, आचार, चटनी, मुरब्बे बनाना, (2). कांटा-सूई आदि शरीर में से निकालना, आंख का कचरा कंकर निकालना, (3). पाचक चूर्ण बनाना, (4). औषधि के पौधे लगाना, (5). पाक बनाना, (6). धातु, विष, उपविष के गुण दोष जानना, (7). भभके से अर्क खीचना और (8). रसायन-भस्मादि बनाना।
धनुर्वेद सम्बन्धी 5 कलाएं :: (1). लड़ाई लड़ना, (2). कुश्ती लड़ना, (3). निशाना लगाना और (4). व्यूह प्रवेश-निर्गमन एवं रचना।
निम्न 64 कलाओं में पारंगत थे भगवान् श्री कृष्ण :: (1). नृत्य-नाचना, (2). वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना, (3). गायन विद्या-गायकी, (4). नाट्य-तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय, (5). इंद्रजाल- जादूगरी, (6). नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना, (7). सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना, (8). फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना, (9). बेताल आदि को वश में रखने की विद्या, (10). बच्चों के खेल, (11). विजय प्राप्त कराने वाली विद्या, (12). मन्त्रविद्या, (13). शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना, (14). रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना, (15). कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना, (16). सांकेतिक भाषा बनाना, (17). जल को बांधना, (18). बेल-बूटे बनाना, (19). चावल और फूलों से पूजा के उपहार की रचना करना। (देव पूजन या अन्य शुभ मौकों पर कई रंगों से रंगे चावल, जौ आदि चीजों और फूलों को तरह-तरह से सजाना), (20). फूलों की सेज बनाना, (21). तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना-इस कला के जरिए तोता-मैना की तरह बोलना या उनको बोल सिखाए जाते हैं, (22). वृक्षों की चिकित्सा, (23). भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति, (24). उच्चाटन की विधि, (25). घर आदि बनाने की कारीगरी, (26). गलीचे, दरी आदि बनाना, (27). बढ़ई की कारीगरी, (28). पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना यानी आसन, कुर्सी, पलंग आदि को बेंत आदि चीजों से बनाना।, (29). तरह-तरह खाने की चीजें बनाना यानी कई तरह सब्जी, रस, मीठे पकवान, कड़ी आदि बनाने की कला, (30). हाथ की फूर्ती के काम, (31). चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, (32). तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना, (33). द्यू्त क्रीड़ा, (34). समस्त छन्दों का ज्ञान, (35). वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या, (36). दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण, (37). कपड़े और गहने बनाना, (38). हार-माला आदि बनाना, (39). विचित्र सिद्धियां दिखलाना यानी ऐसे मंत्रों का प्रयोग या फिर जड़ी-बुटियों को मिलाकर ऐसी चीजें या औषधि बनाना जिससे शत्रु कमजोर हो या नुकसान उठाए, (40). कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना-स्त्रियों की चोटी पर सजाने के लिए गहनों का रूप देकर फूलों को गूंथना, (41). कठपुतली बनाना, नाचना, (42), प्रतिमा आदि बनाना, (43). पहेलियां बूझना, (44). सूई का काम यानी कपड़ों की सिलाई, रफू, कसीदाकारी व मोजे, बनियान या कच्छे बुनना, (45). बालों की सफाई का कौशल, (46). मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना, (47). कई देशों की भाषा का ज्ञान, (48). मलेच्छ-काव्यों का समझ लेना-ऐसे संकेतों को लिखने व समझने की कला जो उसे जानने वाला ही समझ सके, (49). सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा, (50). सोना-चांदी आदि बना लेना, (51). मणियों के रंग को पहचानना, (52). खानों की पहचान, (53). चित्रकारी, (54). दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना, (55). शय्या-रचना, (56). मणियों की फर्श बनाना यानी घर के फर्श के कुछ हिस्से में मोती, रत्नों से जड़ना, (57). कूटनीति, (58). ग्रंथों को पढ़ाने की चातुराई, (59). नई-नई बातें निकालना, 60). समस्यापूर्ति करना, (61). समस्त कोशों का ज्ञान, (62). मन में कटक रचना करना यानी किसी श्लोक आदि में छूटे पद या चरण को मन से पूरा करना, (63). छल से काम निकालना एवं 64). कानों के पत्तों की रचना करना यानी शंख, हाथीदांत सहित कई तरह के कान के गहने तैयार करना।
64 KALA कला ARTS :: According to the Vam Keshwar Tantr, there are 64 books called Kala. Many combinations depending over use and faculties are available. (1). Vocal music, (2). Instrumental music, (3). Dance, (4). Acting, (5). Painting, (6). Making emblems, (7). Making garlands and other creations with flowers, (8). Artwork for mattresses, (9). Artwork for bedspreads, (10). Body aesthetics, (11). House decoration, (12). Making musical instruments operated by water (like Jal Tarang जल तरंग), (13). Making sound effects in water, (14). Costume and fashion design, (15). Making pearl necklaces, (16). Hair styling, (17). Art of dressing, (18). Making ear ornaments, (19). Flower decoration, (20). Food styling, (21). Magic, (22). Landscaping, (23). Manicure, (24). Pastry making, (25). Making drinks, (26). Sewing, (27). Making nets, (28). Solving and creating riddles, (29). Reciting poems, (30). Discoursing on epics and poetical works, (31). Reading, (32). Attending theatrical plays, (33). Completing verses left unfinished (समस्या, problems) by others as a challenge, (34). Making cane furniture, (35). Woodworking, (36). Debate, (37). Architecture, (38). Assessing gold and gems, (39). Metallurgy, (40). Cutting and polishing diamonds, (41). Searching for ore, (42). Special knowledge of trees and plants, (43). Cock fighting, (44). Interpreting the songs of birds, (45). Massage, (46). Hair care, (47). Sign language, (48). Learning foreign languages, (49). Scholarship in local languages, (50). Predicting the future, (51). Mechanical engineering, (52). Strengthening memory power, (53). Learning by ear, (54). Instantaneous verse-making, (55). Decisiveness in action, (56). Pretence, (57). Prosody, (58). Preserving clothes, (59). Gambling, (60). Playing dice, (61). Playing with children, (62). Rules of respectful behavior, (63). Art of storytelling and entertaining, (like bards and minstrels) and (64). Grasping the essence of subjects.
64 subjects taught to girls along with sex education in ancient times in India as per Vatsyayan :: A female, therefore, should learn the Kam Shastr or at least a part of it, by studying its practice from some confidential friend. She should study alone in private the sixty-four practices that form a part of the Kam Shastr. Her teacher should either be the daughter of a nurse brought up with her and already married or a female friend who could be trusted in everything or the sister of her mother (i.e., her aunt) or an old female servant or a female beggar who may have formerly lived in the family or her own sister who could always be trusted.
As a matter of fact this subject is neither taught nor learnt by any one in today's world. So, every one is getting superfluous knowledge over this subject. Chances of exploitation are open. There was a time in India during Mughal era, when the Muslim Nababs-rulers of small units, used to send their boys to the prostitutes to learn manners. What they learnt side by side is not a mystery!
The girls were supposed to learn the following arts together with the Kam Sutr to become a suitable house wife :: (1). Singing, (2). Playing on musical instruments, (3). Dancing, (4). Union of dancing, singing, and playing instrumental music, (5). Writing, (6). drawing, (7). Tattooing, (8). Arraying and adorning an idol with rice and flowers, (9). Spreading and arranging beds or couches of flowers or flowers upon the ground, (10). Colouring the teeth, garments, hair, nails and bodies, i.e. staining, dyeing, colouring and painting the same, (11). Fixing stained glass into a floor, (12). The art of making beds, and spreading out carpets and cushions for reclining, (13). Playing on musical glasses filled with water, (14). Storing and accumulating water in aqueducts, cisterns and reservoirs, (15). Picture making, (15.i). trimming and (15.ii). decorating, (16). Stringing of rosaries, necklaces, garlands and wreaths, (17). Binding of turbans and chaplets and making crests and top-knots of flowers, (18). Scenic representations, stage playing Art of making ear ornaments Art of preparing perfumes and odours, (19). Proper disposition of jewels and decorations and adornment in dress, (20). Magic or sorcery, (21). Quickness of hand or manual skill, (22). Culinary art, i.e. cooking and cookery, (23). Making lemonades, sherbets, acidulated (अम्लयुक्त पेय) drinks and spirituous extracts with proper flavor and colour, (24). Tailor's work and sewing, (25). Making parrots, flowers, tufts, tassels, bunches, bosses, knobs, etc., out of yarn or thread, (26). Solution of riddles, enigmas, covert speeches, verbal puzzles and enigmatically (रहस्यपूर्ण, गूढ़, अज्ञेय, पेचीदा, अस्पष्ट, गूढ) subtle, Enigmatic, Inexplicable, Mysterious, Mystic questions, (27). A game, which consisted in repeating verses and as one person finished, another person had to commence at once, repeating another verse, beginning with the same letter with which the last speaker's verse ended, whoever failed to repeat was considered to have lost, and to be subject to pay a forfeit or stake of some kind (अंताक्षरी), (28). The art of mimicry or imitation, (29). Reading, including chanting and intoning, (30). Study of sentences difficult to pronounce. It is played as a game chiefly by women and children and consists of a difficult sentence being given and when repeated quickly, the words are often transposed or badly pronounced, (31). Practice with sword, single stick, quarter staff and bow and arrow, (32). Drawing inferences, reasoning or inferring, Carpentry or the work of a carpenter, (33). Architecture or the art of building, (34). Knowledge about gold and silver coins and jewels and gems, (35). Chemistry and mineralogy, (36). Colouring jewels, gems and beads, (37). Knowledge of mines and quarries, (38). Gardening; knowledge of treating the diseases of trees and plants, of nourishing them, and determining their ages, (39). Art of cock fighting, quail fighting and ram fighting, (40). Art of teaching parrots and starlings to speak, (41). Art of applying perfumed ointments to the body, and of dressing the hair with unguents and perfumes and braiding it, (42). The art of understanding writing in cipher and the writing of words in a peculiar way, (43). The art of speaking by changing the forms of words. It is of various kinds. Some speak by changing the beginning and end of words, others by adding unnecessary letters between every syllable of a word, and so on, (44). Knowledge of language and of the vernacular dialects, (45). Art of making flower carriages, (46). Art of framing mystical diagrams, of addressing spells and charms, and binding armlets, (47). Mental exercises, such as completing stanzas or verses on receiving a part of them or supplying one, two or three lines when the remaining lines are given indiscriminately from different verses, so as to make the whole an entire verse with regard to its meaning; or arranging the words of a verse written irregularly by separating the vowels from the consonants, or leaving them out altogether; or putting into verse or prose sentences represented by signs or symbols. There are many other such exercises, (48). Composing poems, (49). Knowledge of dictionaries and vocabularies, (50). Knowledge of ways of changing and disguising the appearance of persons, (51). Knowledge of the art of changing the appearance of things, such as making cotton to appear as silk, coarse and common things to appear as fine and good, (52). Various ways of gambling, (53). Art of obtaining possession of the property of others by means of Mantrs or incantations, (54). Skill in youthful sports, (55). Knowledge of the rules of society and of how to pay respect and compliments to others, (56). Knowledge of the art of war, of arms, of armies, etc., (57). Knowledge of gymnastics, (58). Art of knowing the character of a man from his features, (59). Knowledge of scanning or constructing verses, (60). Arithmetical recreations, (61). Making artificial flowers, (62). Making figures and images in clay.
A public woman, endowed with a good disposition, beauty and other winning qualities and also versed in the above arts, obtains the name of a Ganika (गणिका, वैश्या, कोठेवाली, नगरवधु) or public woman of high quality and receives a seat of honor in an assemblage of men. She is, moreover, always respected by the king and praised by learned men, and her favor being sought for by all, she becomes an object of universal regard. The daughter of a king too as well as the daughter of a minister, being learned in the above arts, can make their husbands favourable to them, even though these may have thousands of other wives besides themselves. And in the same manner, if a wife becomes separated from her husband and falls into distress, she can support herself easily, even in a foreign country, by means of her knowledge of these arts. Even the bare knowledge of them gives attractiveness to a woman, though the practice of them may be only possible or otherwise according to the circumstances of each case. A man who is versed in these arts, who is loquacious (बातूनी, मुखर, वाचाल) and acquainted with the arts of gallantry, gains very soon the hearts of women, even though he is only acquainted with them for a short time.
चौंसठ योगिनी ::
जीवन में योगदान :: स्त्री पुरुष की सहभागिनी है, पुरुष का जन्म सकारात्मकता के लिये और स्त्री का जन्म नकारात्मकता को प्रकट करने के लिये किया जाता है। स्त्री का रूप धरती के समान है और पुरुष का रूप उस धरती पर फ़सल पैदा करने वाले किसान के समान है।
स्त्रियों की शक्ति को विश्लेषण करने के लिये चौसठ योगिनी की प्रकृति को समझना जरूरी है। पुरुष के बिना स्त्री अधूरी है और स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है।
योगिनी की पूजा का कारण शक्ति की समस्त भावनाओं को मानसिक धारणा में समाहित करना और उनका विभिन्न अवसरों पर प्रकट करना और प्रयोग करना माना जाता है,
बिना शक्ति को समझे और बिना शक्ति की उपासना किये यानी उसके प्रयोग को करने के बाद मिलने वाले फ़लों को बिना समझे शक्ति को केवल एक ही शक्ति समझना निराट दुर्बुद्धि ही मानी जायेगी,और यह काम उसी प्रकार से समझा जायेगा,जैसे एक ही विद्या का सभी कारणों में प्रयोग करना।
(1). दिव्ययोग की दिव्ययोगिनी :- योग शब्द से बनी योगिनी का मूल्य शक्ति के रूप में समय के लिये प्रतिपादित है,एक दिन और एक रात में 1440 मिनट होते है,और एक योग की योगिनी का समय 22.5 मिनट का होता है,सूर्योदय से 22.5 मिनट तक इस योग की योगिनी का रूप प्रकट होता है।
यह जीवन में जन्म के समय,साल के शुरु के दिन में महिने शुरु के दिन में और दिन के शुरु में माना जाता है, इस योग की योगिनी का रूप दिव्य योग की दिव्य योगिनी के रूप में जाना जाता है, इस योगिनी के समय में जो भी समय उत्पन्न होता है वह समय सम्पूर्ण जीवन, वर्ष महिना और दिन के लिये प्रकट रूप से अपनी योग्यता को प्रकट करता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति समय वस्तु नकारात्मकता को समाप्त करने के लिये योगकारक माने जाते है, इस योग में अगर किसी का जन्म होता है तो वह चाहे कितने ही गरीब परिवार में जन्म ले लेकिन अपनी योग्यता और इस योगिनी की शक्ति से अपने बाहुबल से गरीबी को अमीरी में पैदा कर देता है, इस योगिनी के समय काल के लिये कोई भी समय अकाट्य होता है, (2). महायोग की महायोगिनी :- यह योगिनी रूपी शक्ति का रूप अपनी शक्ति से महानता के लिये माना जाता है,अगर कोई व्यक्ति इस महायोगिनी के सानिध्य में जन्म लेता है,और इस योग में जन्मी शक्ति का साथ लेकर चलता है तो वह अपने को महान बनाने के लिये उत्तम माना जाता है, (3). सिद्ध योग की सिद्धयोगिनी :– इस योग में उत्पन्न वस्तु और व्यक्ति का साथ लेने से सिद्ध योगिनी नामक शक्ति का साथ हो जाता है,और कार्य शिक्षा और वस्तु या व्यक्ति के विश्लेषण करने के लिये उत्तम माना जाता है, (4). महेश्वर की माहेश्वरी :- महा-ईश्वर के रूप में जन्म होता है विद्या और साधनाओं में स्थान मिलता है, (5). पिशाच की पिशाचिनी :- बहता हुआ खून देखकर खुश होना और खून बहाने में रत रहना, (6). डंक की डांकिनी :- बात में कार्य में व्यवहार में चुभने वाली स्थिति पैदा करना, (7). कालधूम की कालरात्रि :- भ्रम की स्थिति में और अधिक भ्रम पैदा करना, (8). निशाचर की निशाचरी :- रात के समय विचरण करने और कार्य करने की शक्ति देना छुपकर कार्य करना, (9). कंकाल की कंकाली :- शरीर से उग्र रहना और हमेशा गुस्से से रहना,न खुद सही रहना और न रहने देना, (10). रौद्र की रौद्री :- मारपीट और उत्पात करने की शक्ति समाहित करना अपने अहम को जिन्दा रखना, (11). हुँकार की हुँकारिनी :- बात को अभिमान से पूर्ण रखना,अपनी उपस्थिति का आवाज से बोध करवाना, (12). ऊर्ध्वकेश की ऊर्ध्वकेशिनी :- खडे बाल और चालाकी के काम करना, (13). विरूपक्ष की विरूपक्षिनी :- आसपास के व्यवहार को बिगाडने में दक्ष होना, (14). शुष्कांग की शुष्कांगिनी :- सूखे अंगों से युक्त मरियल जैसा रूप लेकर दया का पात्र बनना, (15). नरभोजी की नरभोजिनी :- मनसा वाचा कर्मणा जिससे जुडना उसे सभी तरह चूसते रहना, (16). फ़टकार की फ़टकारिणी :- बात बात में उत्तेजना में आना और आदेश देने में दुरुस्त होना, (17). वीरभद्र की वीरभद्रिनी :- सहायता के कामों में आगे रहना और दूसरे की सहायता के लिये तत्पर रहना, (18). धूम्राक्ष की धूम्राक्षिणी :- हमेशा अपनी औकात को छुपाना और जान पहचान वालों के लिये मुसीबत बनना, (19). कलह की कलहप्रिय :- सुबह से शाम तक किसी न किसी बात पर क्लेश करते रहना, (20). रक्ताक्ष की रक्ताक्षिणी :- केवल खून खराबे पर विश्वास रखना, (21). राक्षस की राक्षसी :- अमानवीय कार्यों को करते रहना और दया धर्म रीति नीति का भाव नही रखना, (22). घोर की घोरणी :- गन्दे माहौल में रहना और दैनिक क्रियाओं से दूर रहना, (23). विश्वरूप की विश्वरूपिणी :- अपनी पहचान को अपनी कला कौशल से संसार में फ़ैलाते रहना, (24). भयंकर की भयंकरी :- अपनी उपस्थिति को भयावह रूप में प्रस्तुत करना और डराने में कुशल होना, (25). कामक्ष की कामाक्षी :- हमेशा समागम की इच्छा रखना और मर्यादा का ख्याल नही रखना, (26). उग्रचामुण्ड की उग्रचामुण्डी :- शांति में अशांति को फ़ैलाना और एक दूसरे को लडाकर दूर से मजे लेना, (27). भीषण की भीषणी. :- किसी भी भयानक कार्य को करने लग जाना और बहादुरी का परिचय देना, (28). त्रिपुरान्तक की त्रिपुरान्तकी :- भूत प्रेत वाली विद्याओं में निपुण होना और इन्ही कारको में व्यस्त रहना, (29). वीरकुमार की वीरकुमारी :- निडर होकर अपने कार्यों को करना मान मर्यादा के लिये जीवन जीना, (30). चण्ड की चण्डी :- चालाकी से अपने कार्य करना और स्वार्थ की पूर्ति के लिये कोई भी बुरा कर जाना, (31). वाराह की वाराही :- पूरे परिवार के सभी कार्यों को करना संसार हित में जीवन बिताना, (32). मुण्ड की मुण्डधारिणी :- जनशक्ति पर विश्वास रखना और संतान पैदा करने में अग्रणी रहना, (33). भैरव की भैरवी :- तामसी भोजन में अपने मन को लगाना और सहायता करने के लिये तत्पर रहना, (34). हस्त की हस्तिनी :- हमेशा भारी कार्य करना और शरीर को पनपाते रहना, (35). क्रोध की क्रोधदुर्मुख्ययी :- क्रोध करने में आगे रहना लेकिन किसी का बुरा नही करना, (36). प्रेतवाहन की प्रेतवाहिनी :- जन्म से लेकर बुराइयों को लेकर चलना और पीछे से कुछ नही कहना, (37). खटवांग खटवांगदीर्घलम्बोष्ठयी :- जन्म से ही विकृत रूप में जन्म लेना और संतान को इसी प्रकार से जन्म देना, (38). मलित की मालती, (39). मन्त्रयोगी की मन्त्रयोगिनी, (40). अस्थि की अस्थिरूपिणी, (41). चक्र की चक्रिणी, (42). ग्राह की ग्राहिणी, (43). भुवनेश्वर की भुवनेश्वरी, (44). कण्टक की कण्टिकिनी, (45). कारक की कारकी, (46). शुभ्र की शुभ्रणी, (47). कर्म की क्रिया, (48). दूत की दूती, (49). कराल की कराली, (50). शंख की शंखिनी, (51). पद्म की पद्मिनी, (52). क्षीर की क्षीरिणी, (53). असन्ध असिन्धनी, (54). प्रहर की प्रहारिणी, (55). लक्ष की लक्ष्मी, (56). काम की कामिनी, (57). लोल की लोलिनी, (58). काक की काकद्रिष्टि, (59). अधोमुख की अधोमुखी, (60). धूर्जट की धूर्जटी, (61). मलिन की मालिनी, (62). घोर की घोरिणी, (63). कपाल की कपाली और (64). विष की विषभोजिनी।
चौंसठ योगिनी मंत्र :: (1). ॐ काली नित्य सिद्धमाता स्वाहा, (2). ॐ कपालिनी नागलक्ष्मी स्वाहा, (3). ॐ कुल्ला देवी स्वर्णदेहा स्वाहा, (4). ॐ कुरुकुल्ला रसनाथा स्वाहा, (5). ॐ विरोधिनी विलासिनी स्वाहा, (6). ॐ विप्रचित्ता रक्तप्रिया स्वाहा, (7). ॐ उग्र रक्ता भोग रूपा स्वाहा, (8). ॐ उग्रप्रभा शुक्रनाथा स्वाहा, (9). ॐ दीपा मुक्तिः रक्ता देहा स्वाहा, (10). ॐ नीला भुक्ति रक्त स्पर्शा स्वाहा, (11). ॐ घना महा जगदम्बा स्वाहा, (12). ॐ बलाका काम सेविता स्वाहा, (13). ॐ मातृ देवी आत्मविद्या स्वाहा, (14). ॐ मुद्रा पूर्णा रजतकृपा स्वाहा, (15). ॐ मिता तंत्र कौला दीक्षा स्वाहा, (16). ॐ महाकाली सिद्धेश्वरी स्वाहा, (17). ॐ कामेश्वरी सर्वशक्ति स्वाहा, (18). ॐ भगमालिनी तारिणी स्वाहा, (19). ॐ नित्यक्लिन्ना तंत्रार्पिता स्वाहा, (20). ॐ भेरुण्ड तत्त्व उत्तमा स्वाहा, (21). ॐ वह्निवासिनी शासिनि स्वाहा, (22). ॐ महावज्रेश्वरी रक्त देवी स्वाहा,(23). ॐ शिवदूती आदि शक्ति स्वाहा, (24). ॐ त्वरिता ऊर्ध्वरेतादा स्वाहा, (25). ॐ कुलसुंदरी कामिनी स्वाहा, (26). ॐ नीलपताका सिद्धिदा स्वाहा, (27). ॐ नित्य जनन स्वरूपिणी स्वाहा, (28). ॐ विजया देवी वसुदा स्वाहा, (29). ॐ सर्वमङ्गला तन्त्रदा स्वाहा, (30). ॐ ज्वालामालिनी नागिनी स्वाहा, (31). ॐ चित्रा देवी रक्तपुजा स्वाहा, (32). ॐ ललिता कन्या शुक्रदा स्वाहा, (33). ॐ डाकिनी मदसालिनी स्वाहा, (34). ॐ राकिनी पापराशिनी स्वाहा, (35). ॐ लाकिनी सर्वतन्त्रेसी स्वाहा, (36). ॐ काकिनी नागनार्तिकी स्वाहा, (37). ॐ शाकिनी मित्ररूपिणी स्वाहा, (38). ॐ हाकिनी मनोहारिणी स्वाहा, (39). ॐ तारा योग रक्ता पूर्णा स्वाहा, (40). ॐ षोडशी लतिका देवी स्वाहा, (41). ॐ भुवनेश्वरी मंत्रिणी स्वाहा, (42). ॐ छिन्नमस्ता योनिवेगा स्वाहा, (43). ॐ भैरवी सत्य सुकरिणी स्वाहा, (44). ॐ धूमावती कुण्डलिनी स्वाहा, (45). ॐ बगलामुखी गुरु मूर्ति स्वाहा, (46). ॐ मातंगी कांटा युवती स्वाहा, (47). ॐ कमला शुक्ल संस्थिता स्वाहा, (48). ॐ प्रकृति ब्रह्मेन्द्री देवी स्वाहा, (49). ॐ गायत्री नित्यचित्रिणी स्वाहा, (50). ॐ मोहिनी माता योगिनी स्वाहा, (51). ॐ सरस्वती स्वर्गदेवी स्वाहा, (52). ॐ अन्नपूर्णी शिवसंगी स्वाहा, (53). ॐ नारसिंही वामदेवी स्वाहा, (54). ॐ गंगा योनि स्वरूपिणी स्वाहा, (55). ॐ अपराजिता समाप्तिदा स्वाहा, (56). ॐ चामुंडा परि अंगनाथा स्वाहा, (57). ॐ वाराही सत्येकाकिनी स्वाहा, (58). ॐ कौमारी क्रिया शक्तिनि स्वाहा, (59). ॐ इन्द्राणी मुक्ति नियन्त्रिणी स्वाहा, (60). ॐ ब्रह्माणी आनन्दा मूर्ती स्वाहा, (61). ॐ वैष्णवी सत्य रूपिणी स्वाहा, (62). ॐ माहेश्वरी पराशक्ति स्वाहा, (63). ॐ लक्ष्मी मनोरमायोनि स्वाहा और (64). ॐ दुर्गा सच्चिदानंद स्वाहा।
64 पैसे :: एक भारतीय रूपये में 64 पैसे होते थे।
64 CHAKR :: Bhagwan Shiv granted 64 Chakr and their Mantr and Tantr to the world.
64 DIMENSIONS 64 आयाम ::Normally the knowledge of a human being is restricted to 4 dimensions, as for as earth is concerned. Our universe is defined with the help of 10 dimensions-directions. If we go beyond, there are infinite universes and they need 64 dimensions to be understood, identified, located.
This meaning is restricted in narrow sense to directions, but in fact AYAM is a much-much wider term, describing paranormal (अलौकिक), beyond the human brain i.e., exposure to 64 types of divine and other species walking over two legs (capable of floating freely in the sky & the space, able to cross the boundaries (limits) of the universes, beyond the limits of our universe.
Invariably, it involves the 64 types of mental faculties, which are restricted to 4 in humans discussing inner self i.e., psyche (मन), intelligence (prudence, memory, विवेक, याददाश्त), pride (Id, ego, अहँकार), concentration (penetration into to the invisible soul-Almighty, & the unknown, चित्त). Some humans are blessed with the power to see in future, i.e., the 5th AYAM.
The infinite universes are connected to each other like the atoms, molecules in a metal. They may involve two to more cosmos in multiples of 4, 16 or 64 forming a web comb like structure.
चौंसठ योगिनी मन्दिर :: चौंसठ योगिनी मन्दिर ग्वालियर के पास मुरैना जिले के मितावली गाँव में है। यह चौसठ योगिनी मन्दिर ही संसद भवन के पीछे का प्रेरणा स्त्रोत है। इतिहासकारों ने इस बात की पुष्टि की है और इस मन्दिर को भारतीय संसद भवन का प्रेरणा स्त्रोत बताया है क्योंकि दोनों ही गोलाकार और एक ही शैली में बने हैं। दोनों में अनेक समानताएँ हैं। 700 साल पहले बने इस मंदिर की संरचना इतनी उन्नत और परिष्कृत है कि भूकम्प के सैकड़ों झटके झेलने के बाद भी यह मन्दिर सुरक्षित है, जबकि यह भूकंपीय क्षेत्र में है।
यह मन्दिर कच्छप राजा देवपाल द्वारा बनाया 1,323 ई. (विक्रम संवत 1,383)के आसपास बनवाया गया था।
मन्दिर में सूर्य के गोचर के आधार पर ज्योतिष और गणित में शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस मन्दिर को 1,951 के अधिनियम संख्या LXXI, dt. 28.11.1951 के तहत एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक घोषित किया है।
इस मन्दिर को एकट्टसो महादेव मन्दिर भी कहा जाता है। 100 फीट ऊँची एक पहाड़ी के ऊपर खड़ा ये गोलाकार मन्दिर नीचे स्थित खेतों का शानदार दृश्य प्रस्तुत करता है।
इस मन्दिर का नामकरण इसके हर कक्ष में शिवलिंग की उपस्थिति के कारण किया गया है। यह चौंसठ योगिनियों को समर्पित है।
बाहरी रूप से मन्दिर की त्रिज्या 170 फीट की है और इसके आंतरिक भाग के भीतर 64 छोटे कक्ष हैं। मुख्य केंद्रीय मन्दिर में
पत्थर की पटिया के आवरण हैं, जो एक बड़े भूमिगत भंडारण के लिए वर्षा जल को संचित करने के लिए उनमें छिद्र हैं, जो कि भारत में विकसित वास्तु शास्त्र और भवन निर्माण कला का शानदार नमूना-उदाहरण हैं। छत से बारिश के पानी को नालियाँ भंडारण हेतु तालाब तक ले जाती हैं। छत से पाइप लाइन बारिश के पानी को स्टोरेज तक ले जाती है.
ब्रह्माण्ड में 108 अंक ::
(1). सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 इकाई।
150,000,000 km/1,391,000 km = 108 = 1 इकाई।
(पृथ्वी और सूर्य के बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं).
(2). सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1 ; 1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 इकाई।
सूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वी सजाई जा सकती हैं।
(3). पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 इकाई।
384403 km/3474.20 km = 108 = 1 इकाई।
पृथ्वी और चन्द्र के बीच 108 चन्द्रमा आ सकते हैं।
(4). मनुष्य की उम्र 108 वर्ष में पूर्णता प्राप्त करती है। ज्योतिष के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन काल में विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है।
(5). एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है।
1 मिनट में 15 श्वास, 12 घंटों में 10,800 श्वास, दिन भर में 100 श्वास, वैसे ही रात भर में 100 श्वास।
(6). एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ह्रदय की धड़कन पूरी करता है।
1 मिनट में 72 धड़कन, 6 मिनट में 432 धड़कन, 1 मुहूर्त में 4 धड़कन।
(6 मिनट = 1 मुहूर्त)
(7). सभी 9 ग्रह (वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 इकाई।
(8). सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। 27 x 4 = 108 = 1 इकाई।
(9). एक सौर दिन 200 विपल समय में पूरा होता है।
(1 विपल = 2.5 सेकेण्ड)
1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 = 200 विपल।
786 :: Its an aggregation of the numbers of Bhagwan Shri Krashn. (1). H(a)iri Kr(i)shna h-5, r-200, r-10, k-20, r-200, sh-300, n-50, a-1 = Aggregate of 786. The aggregate number of these letters (Hari Krishna) equals 786. (2). This is also the case of ‘Bismillaah al-Rahmaan al-Raheem’. Some believe to avoid using this number to avoid the danger of being indulging in infidelity. बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्हीमि :: बे ⇒ 2, सीन ⇒60, मीम ⇒40, अलिफ़ ⇒1, लाम ⇒30, हे ⇒8, अलिफ़ ⇒1, लाम ⇒30, रे ⇒200, हे ⇒8, मीम ⇒40, नून ⇒50, अलिफ ⇒1, लाम ⇒30, रे ⇒200, हे ⇒8, इये ⇒10, मीम ⇒40, का योग 786 होता है?
श्राद्ध के 96 अवसर :: एक वर्ष की अमावास्याएं 12, पुणादितिथियां 4, मन्वादि तिथियां 14, संक्रान्तियां 12, वैधृति योग 12, व्यतिपात योग 12, पितृ पक्ष 15, अष्टका श्राद्ध 5, अन्वष्टका 5 तथा पूर्वेद्यु 5 ।[धर्मसिन्धु]
VAEDIC SYSTEM OF NUMBERING वैदिक सँख्या प्रणाली ::
सामान्य-प्रचलित सँख्या क्रम :: इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़, अरब, दस अरब, खरब, दस खरब, नील (1013 Ten Trillion, Ten Billion), दस नील, पद्म (1015 One quadrillion, One billiard, SI prefix: Peta), दस पद्म (1016, Ten Quadrillion, Ten Billion), शंख ( 1017, One hundred quadrillion, One hundred billiard), दस शंख (गुलशन, 1018)।
ANCIENT SYSTEM OF COUNTING IN INDIA वैदिक-सनातन, भारतीय सँख्या पद्धति :: इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हज़ार, दस हज़ार, लाख, दस लाख, अरब, दस अरब, खरब दस खरब, नील (1013), दस नील, पद्म (1015), दस पदम, महा पदम, शंख (1017), महा शंख (1019), अन्त्या, मध्या, पारध, धून, अक्षोहिणी, महा अक्षोहिणी। अंक उपाध्याय (1021), जल्द (1023), माध (1025), अंंत (1029), महाअंत (1031), शिष्ट (1033), सिंघर (1035), अदंत सिंघर (1041).
हिन्दी-HINDI | FIGURES | INDEX-POWERS OF TEN | ENGLISH |
इकाई-एक-Ek | 1 | 100 | One |
दहाई-दस-Das | 10 | 101 | Ten, Scientific (SI Prefix): Deca. |
सैंकड़ा, सौ, शत, Sou | 100 | 102 | Hundred, SI Prefix: Hecto. |
हजार-सहस्र, Sahastr-Hajar | 1,000 | 103 | Thousand |
दस हजार-अयुत, Ayut-Das Hajar | 10,000 | 104 | Ten Thousand |
लाख-लक्ष, Lakh | 1,00,000 | 105 | Hundred Thousand |
दस लाख-नियुत, Niyut-Das Lakh. | 10,00,000 | 106 | Million, SI Prefix: Mega. |
करोड़, कोटी, Koti-Kror (Crore) | 1,00,00,000 | 107 | Ten Million |
दस करोड़ Das Kror | 10,00,00,000 | 108 | Hundred Million |
अरब Arab | 1,00,00,00,000 | 109 | Billion |
दस अरब Das Arab | 10,00,00,00,000 | 1010 | Ten Billion |
खरब, Kharab. |
| 1011 | Hundred Billion |
दस खरब, Das Kharab. (शंकु, Shanku) | 1,00,000 Koti | 1012 | Trillion, Quintilian, SI Prefix: Exa. |
महा शंकु, Maha Shanku. | 1,00,000 Shanku. | 1017 | One Hundred Quadrillion |
वृन्द, Vrand. | 1,00,000 Maha Shanku. | 1022 | Ten Sextillion |
महावृन्द, Maha Vrand. परार्ध | 1,00,000 Vrand. | 1027 | One Octillion |
पद्म, Padm. | 1,00,000 Maha Vrand. | 1032 | One Hundred Nonillion |
महापद्म, महा सिंघर Maha Padm. | 1,00,000 Padm. | 1037 | Ten Undecillion |
खर्व, Kharv. | 1,00,000 Maha-Padm. | 1042 | One Tredecillion |
महाखर्व, Maha Kharv. | 1,00,000 Kharv. | 1047 | One Hundred Quattuordecillion |
समुद्र, Samudr. | 1,00,000 Maha Kharv. | 1052 | Ten Sexdecillion |
ओघ, Ogh. | 1,00,000 Samudr. | 1057 | One Octodecillion |
महौघ, Mahaugh.
| 1,00,000 Ogh. | 1062 | One hundred Novemdecillion |
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