Sunday, December 31, 2017

इन्द्रिय संयम CONTROLLING SENSE ORGANS

इन्द्रिय संयम
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
और जो अपने इन्द्रिय समूह को भली-भाँति वश में करके चिन्तन में न आने वाले, सब जगह परिपूर्ण, देखने में न आने वाले, निर्विकार, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त मुझ परब्रह्म परमेश्वर की तत्परता से उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्र के हित में प्रीति रखने वाले और सब जगह सम बुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।[SHRIMAD BHAGWAD GEETA (12) श्रीमद् भगवद्गीता :: DEVOTION भक्तियोग 12.3-4]
The Almighty asserted that those who control their senses completely-thoroughly and worship with promptness (quickness, readiness, swiftness, zeal) the invisible-formless, inconceivable, omnipresent-immovable, Dhruv (aligned at one particular position), non consumable, unrevealed and have love & affection for the benefit of the creatures-organism with equanimity, attain HIM-the Almighty.
प्रभु की उपासना साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में उपासकों के द्वारा की जाती है। इन्द्रिय संयम निर्गुण-तत्व की उपासना में ज़रूरी-सहयोगी है। निर्गुण उपासना और कर्मयोग में चिंतन का कोई आधार, सम्बल, सहारा नहीं होता, जिससे मन विषयों की ओर झुक-मुड़ सकता है। इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करना जरूरी है। सगुण उपासना में इन्द्रियाँ भगवान् में लग जाती हैं। क्योंकि सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को विषय प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंकार का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्द घन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। मनष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना न मानकर दूसरों की सेवा में लगा देता है, तो उसकी आसक्ति, ममता, कामना, स्वार्थ भाव का स्वतः त्याग हो जाता है। क्योंकि निर्गुण-निराकार परमात्मा सम है, अतः उसके उपासकों की बुद्धि सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में भी विषम नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोनों ही परमात्मा के स्वरूप हैं। सगुण उपासना सरल और निर्गुण उपासना थोड़ी कठिन है। 
The Almighty is worshipped through both means :- with form and without form. When one opts for characteristics less worship, he has to resort to control of senses, mind, intelligence. Characteristics less worship and Karm Yog do not have means to support meditation, which allows the thoughts to deviate towards the consumption-worldly affairs. When one adopts worship supported by one or the other form of the God, he has a means to help, restrain his mind and energies towards the Ultimate. This makes the utilisation of his thoughts, mind, intelligence and the senses. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. Absence of lust, sensuality, sexuality, passion lasciviousness, in the body, material world and the ego; undifferentiated-undivided devotion to HIM, continuously-regularity in HIS worship, is essential. When one discards money, belongings for the service of the society, others, mankind by considering them to be meant for the service of the mankind, he is detached, his selfishness, attachments, desires are lost. The Almighty is even, same, equal for all. HIS devotees cannot have distinguishable thoughts about others. They attain equanimity. Form less and with form; both are the features of the God. Its a bit difficult to worship HIM in formless state as compared to with form.
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥
अगर मेरे योग (समता) के आश्रित हुआ तू इस को भी करने में असमर्थ है, तो मन-इंद्रियों को वश में करके सम्पूर्ण कर्मों के फल की इच्छा का त्याग कर।SHRIMAD BHAGWAD GEETA (12) श्रीमद् भगवद्गीता :: DEVOTION भक्तियोग 12.11] 
The Almighty suggested another alternative to Arjun that if he found Abhyas Yog to be difficult, he could control his senses and the mind & heart (innerself, psyche, reflections, gestures, mood) and reject the desire for the reward of his deeds having surrendered to HIM with equanimity. 
भगवान् श्री कृष्ण ने पहले कहा कि उनकी प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण कर्मों को उनके लिये करो। यह भक्ति योग है। अब भगवान् ने अन्य उपाय में कर्मों के सम्पूर्ण फलों का त्याग करना है जो कि कर्म योग है। आत्म संयम के बिना कर्म फल त्याग असम्भव है। फल की इच्छा के त्याग के साथ मनुष्य का संसार से सम्बन्ध भी मिट जायेगा। इन्द्रिय संयम से कर्मों का विस्तार नहीं होगा। मन, बुद्धि, इन्द्रियों के संयम से विषयों का चिन्तन नहीं होगा और फिर उनमें आसक्ति का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। सर्व कर्मों में यज्ञ, दान, तप, सेवा और वर्णाश्रम धर्म भी आते हैं, जिनमें जीविका और शरीर निर्वाह भी शामिल है। अतः मनुष्य को कर्म फल में ममता, कामना, वासना, आसक्ति का त्याग करना है, जो कि पूरी तरह सरल और बेहद आसान हो सकता है। फलासक्ति का त्याग यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अकर्मण्य नहीं है, अपितु अपने कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक निर्वाह कर रहा है। कर्म फलासक्ति का त्याग ही सात्विक त्याग है। इससे क्रियाओं का वेग शान्त हो जाता है और पहले की आसक्ति मिट जाती है। व्यक्ति यह सुनिश्चित करें कि उसके राग द्वेष भी मिट रहे हैं। इच्छा आसक्ति मिटते ही, कर्मों से सम्बन्ध स्वतः नष्ट हो जाता है।
The Almighty always stresses over the completion of one's inherited duties with firm faith and determination. He just ask the individual to reject the desire for the reward, which is binding. The loss of motive for reward-fruit, detaches him with the living world. When the individual controls his senses, mind & heart, further extension of deeds (motives, desires) will stop. The ultimate stage of contemplation-satisfaction is attained-reached. The mind, intelligence and the senses will not drag him to consumption (comforts, luxuries, enjoyments, pleasure seeking etc.) and further actions (endeavours, goals, targets, materialistic achievements). Here the stress is over the rejection of the desire-attachment for worldly possessions. The duties-actions include service of the mankind, donations, holy sacrifices into fire, rituals asceticism and the Varnashram Dharm, which should not be abandoned under any circumstances. The actions are a must but desire for favourable output is undesirable-uncalled for. Working smoothly for the family, self, society, nation; resolves his passion for more and more activity. Here one should ensure that he perform the job without envy or attachment. Loss of attachment automatically relinquishes him from the reward-out come of the actions.
Its extremely difficult to restrain the brain & senses. But regular practice and devotion to the God helps in it as well.
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिर-शान्तस्य कुतः सुखम्‌॥
जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं (योग रहित हैं) की निश्चयात्मिका-व्यवसात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त पुरुष में निष्काम भाव अथवा कर्तव्य-परायणता का भाव नहीं होता, निष्काम भाव न होने से उसको शांति नहीं मिलती. फिर शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?[श्रीमद्भगवद्गीता साँख्य योग 2.66]
One who's sense organs are not under control, lacks assertiveness, single mindedness, firmness of intellect; is devoid of contemplation-selflessness or commitment to duty and the possessor fails to achieve peace, which in turn fail to provide happiness-pleasure to him.
विवेक पूर्वक इन्द्रिय संयम-कर्म योग के बगैर कामना नष्ट नहीं होती और बुद्धि स्थिर नहीं होती। जिस मनुष्य में केवल परमात्म प्राप्ति जैसी निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती, उसमें कर्तव्य का पालन, फल की इच्छा, कामना, आसक्ति, आदि के त्याग की भावना भी नहीं होगी। जिसका कारण है, ध्येय का स्थिर न होना। अपने वर्णाश्रम धर्म-कर्तव्य के पालन में दृढ़ता न रखना ही, अशांति पैदा करता है और जो अशांत है, वो सुखी हो ही नहीं सकता। 
Karm Yog involves the control of the sense organs prudently, which is essential for the loss of desires. Such possessors lack the determination to attain Salvation-the Ultimate (emancipation, Liberation, Assimilation in the Almighty). One who do not possess the feeling-determination for carrying out duties-Varnashram Dharm, rejection of the desire for reward, attachment, is devoid of peace. The main reason behind this is the lack of firm determination-decision pertaining to goal-the Almighty. Failure to carryout own Varnashram Dharm-duties create displeasure. One who is disturbed can never be happy. 
Please refer to :: VARNASHRAM DHARM वर्णाश्रम धर्म santoshkipathshala.blogspot.com
Firm determination to carry out-discharge responsibilities and committing oneself to service without the desire for reward & attachment qualifies one for Moksh & that is possible through the control of sense organs and the inner self (mind, mood, psyche) only.
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥
अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों से संयुक्त होकर मन बुद्धि को वैसे ही हर लेता है, जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु।[श्रीमद् भगवद्गीता 2.67] 
Sense organs have the tendency to roam freely in all possible directions in search of the (pleasure, joy, comforts, amusement) objects which can quench their thirst-satisfy them-temporarily. The sense organs when associate them selves with the mind, it takes over the intelligence (prudence) captures (shadowed, taken over-seizes it), just like the air which takes control over the boat in water.
मनुष्य जब भी कार्य-कलापों में व्यस्त होता है उसकी इन्द्रियाँ स्वछन्द धोड़े की तरह अपने अनुकूल वस्तु-पदार्थ को तलाशती रहती हैं। उनके मिलने पर वे उसी में रम जाती हैं, सुख प्राप्त करती हैं। एक अकेला विषय ही मन को भटकाने के लिए काफी है। अब कर्तव्य परायणता का स्थान भोग बुद्धि ले लेती है। भोग बुद्धि मनुष्य की निश्चयात्मक बुद्धि, जो कि भगवान् के श्री चरणों में लगनी चाहिए थी, वह भोग-विलास में लग जाती है। जिस नौका में खेवनहार (नाविक, इंजन) नहीं होते उसके भटकने, हवा की दिशा में बहने-चलने में देर नहीं लगती। वह उलटी दिशा में भी चली जाती है या लगातार इधर-उधर डोलती-डगमगाती रहती है। अगर वायु का वेग प्रबल हो तो नौका के डूबने में भी समय नहीं लगता।
इन्द्रियों से मन और मन से बुद्धि बलवान है। अगर बुद्धि शुद्द है परमात्मा में तल्लीन है तो उसे न तो मन और ना ही इन्द्रियाँ भटका सकती हैं। 
As and when, one begins with work, his sense organs start moving freely like a horse without reins. The senses looks for the related objects of their choice, which gives him satisfaction-pleasure. Success in it create bonds (ties, attachments) with them. The man start rejoicing-taking interest in them, forgetting the goal-Moksh for which he took the birth as a human being. His attention is diverted. He is a confused person now. He should seek asylum (protection, shelter) under the God. He has lost the way. He has become one playing the snake and ladder game. He is comparable to the boat which is present in the open sea, away from the shore, without the navigator, sailors, magnetic compass and the engines have of course failed. The wind gains speed. Now, the fate of the boat is uncertain. It may lead in an opposite direction or sink in a whirl. It may not be able to reach the shore, at all.
The intelligence (prudence, judicious thinking) is mightier than the mood (will, psyche) and the will (mood, desire) is stronger than the sense organs. One who's brain is concentrated in the Almighty is sure to succeed, sail in the ocean of life.
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस् तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार से वश में की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।[श्रीमद्भगवद्गीता साँख्य योग 2.68] 
One who's mind (psyche, mood, will power) and the sensuality are free from the attractions-allurements of the worldly pleasures (subjects, objects, desires) is wise (prudent) with stable (steady, wisdom). 
जिसका मन और इन्द्रियाँ संसार के आकर्षण से मुक्त हैं, उसकी बुद्धि स्थिर, निर्णयात्मक, वश में है। संसार में व्यवहार-विचरण करते हुए अथवा एकांत में चिन्तन करते हुए, जो विषयों-भोगों में प्रवृत्त नहीं होता, उसका मन इन्द्रियों के संगम के साथ भी उसे डिगा नहीं सकता। विषयों में आसक्ति (राग, खिंचाव) का नष्ट होना इन्द्रियों के वश में होने का द्योतक है। साधक जब दृढ़ता से निश्चय कर लेता है कि मेरा लक्ष्य केवल परमात्मा की प्राप्ति ही है, भोग-विषय, संग्रह, राग-द्वेष, आसक्ति नहीं हैं; तो उसका अपने ध्येय आराध्य (परमात्मा) को प्राप्त करना तय है, क्योंकि उसकी बुद्धि निश्चित (दृढ़, स्थिर) है। 
One's mind do not deviate-tremble, while dealing with the various components of the world or when he is in isolation-solitude, his MAN (mind, mood) can not deviate him. Loss of attraction towards the worldly comforts-subjects indicate his command-control over the senses. When the devotee, practitioner, ascetic determines that his aim, goal, target, ambition is to attain Salvation-the Almighty, the worldly objects can not distract him, any more. At this juncture his attainment of the Ultimate is sure-confirmed, since he has acquired control over his wishes, desires, will, mood and has stabilised in the God.
Please refer to :: INNER SELF-PSYCHE मन, चित्त, अन्तः करण santoshsuvichar.blogspot.com
Firmness, determination, exercise of control-command over sense organs can enable one to attain any thing. Never depend over luck or curse any one for failures, since they are temporary if one is pious, honest, free from greed, lust, vices. When ever of where ever one is present the Almighty should be remembered.
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों) को हठ पूर्वक रोककर, मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धि वाला मनुष्य मिथ्याचारी (असत्य आचरण वाला) कहा जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.6] 
One who control his sense & functional organs forcibly but thinks of the comforts, desires, objects of pleasure, joy is ignorant who is deceiving him self or simply a liar. One who restrains-prohibits his sense organs forcibly but thinks of them, that idiot-fool is a liar having-portraying false conduct.
ज्ञानेन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियों के तहत ही आती हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों को हठ पूर्वक रोकता है, उसमें संयम का अभाव है। यह इन्द्रियों को वश में करना नहीं, अपितु मिथ्याचार है। स्वयं को धोखा देना है। मूढ़मति-विवेकहीन इन्द्रियों की क्रियाओं को बल पूर्वक रोककर मन ही मन उनका चिंतन करता है तो, मिथ्या आचरण का दोषी तो हुआ ही, बाहर से, दिखावे ले लिये वह इन से भले ही छूट गया हो, परन्तु अहंता, ममता, कामना, राग-द्वेष, भोगों का चिंतन-लगाव, फिर भी नहीं छूटा। इसमें लोक-लाज, बदनामी, जेल का डर, अपमान, भर्तस्ना शामिल हैं। साधक को कर्मो  को स्वरूप से ही कामना-आसक्ति रहित होकर त्यागना है। 
Sense organs mind, nose, skin, ears, eyes are considered to be a component of functional organs. One who has no control over his sensualities but with hold the sense organs forcibly, which is nothing more than deception-cheating. One should make endeavours to train him self for rejecting-restraining from allurements of the sensualities-passions. This is false hood. He is still involved (attached to desires, affections, allurements, envy, greed, worldly subjects, pleasures, grief, imagination, thinking of sensualities, sexuality, lust, passions) with motives. The reason behind this the fear of defamation, jail, insult, scandalisation, abuse. The devotee has to summarily isolate-preserve (unlike a curtain) him self and subject to the God's dictates under his shelter (asylum, protection, cover).
इसका एक फायदा यह है कि वह कार्मिक पाप से बच जाता है, परन्तु मानसिक पाप तो रह ही जाते हैं जो निरन्तर परेशान करते हैं।
One is at least protected from the physical-functional sins. Mental sins remains as such. Practice makes a man perfect. Slowly & gradually one acquires control over his mind, brain waves, thoughts as well. It may be considered to be a preparatory stage for him. Its not that easy to get rid of the bad thoughts acquired in numerous births & rebirths.
Practice makes a man perfect.
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ (निष्काम भाव से) समस्त कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वह विशिष्ट-श्रेष्ठ है।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.7] 
Hey Arjun! The detached (relinquished) who controls his sense organs without desires and follows the path-dictates of Karm Yog (Functional attachment with the Almighty) with the help of all functional organs is a distinguished person (A Karm Yogi).
अनासक्त कर्म योगी मिथ्याचारी और साँख्य योगी दोनों से ही उत्तम है। निर्मल अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) वाले के व्यक्ति में कर्म-कर्तव्य को लेकर शंका नहीं होने चाहिये। इन्द्रियाँ तब वश में आती हैं, जब ममता, अहंता, घमण्ड नष्ट हो जाते हैं। जब निश्चयात्मक बुद्धि इन्द्रियों को काबु में कर लेती है तो, उनकी स्वतंत्रता-भटकाव खत्म हो जाता है और वे आज्ञा पालन करने लगती हैं।
कर्मयोगी को शास्त्र-वर्णाश्रम धर्म के अनुरूप कार्य करना चाहिये। उसे कर्म और उसके फल दोनों का ही त्याग करना होता है। इन दोनों के त्याग के बगैर मोक्ष सम्भव नहीं है। ज्ञान-साँख्य योगी का मुक्ति मार्ग अपेक्षाकृत कठिन है, क्योंकि उसे देहाभिमान से भी मुक्त होना है। दूसरों (समाज) के भले के लिए गये कार्य कर्म योग में परिणित हो जाते हैं। जो व्यक्ति दूसरों के लिए जीता-कार्य करता है वो, निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
Performance of the doer without attachment, is not only better than that of the one, who is a liar-deceiver, but also the Gyan Yogi-following the dictates of prudence-enlightenment. There is no place for confusion-doubt for the detached-relinquished Karm Yogi with pure, pious, clean innerself. The senses comes under control, only when attachment vanish (feeling of I, my, me, mine, ego-pride, arrogance). When the will (determination, heart, mind, soul) applies control (breaks) over the senses, they loss independence and start behaving.
The Karm Yogi acts through the controlled senses as per dictates of the scriptures (epics, Varnashram Dharm). One has to relinquish the attachment with the Karm as well as its reward (out come, fall out, result). One can not acquire assimilation in God without rejection of both (Karm-deeds and reward). The enlightened's the task is tedious, since he has to reject the pride of being a human. Performance of deeds for the benefit (welfare) of others turn into Karm Yog. One who live (survive, perform, work) for the sake of others is a distinguished person (better than others).
Mere knowledge is not enough. It should be strengthened with understanding, applicability with firm determination & effort. Let us perform our duties to the best of our ability and leave the rest to the God.
एवं प्रवर्तितं चक्रं  नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
हे पार्थ! जो पुरुष इस प्रकार लोक में इस प्रकार, परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल-अनुसार नहीं चलता-कार्य नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला अधायु-पाप मय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में  व्यर्थ ही जीता है।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.16]
Hey Parth! One who do not follow-function according to the cycle of evolution, due to indulgence in sensual pleasures (passions, sensualities, comforts, lust) is a sinner; living in vain. His life is of no use.
भगवान् जब अर्जुन को पार्थ कहकर सम्बोधित करते हैं तो वे उन्हें याद दिलाते हैं कि उनकी माँ कुन्ती ने अपने कर्तव्य के निर्वाह में जीवन भर कष्ट झेले हैं। जिस कर्म को अर्जुन घोर कर्म कह रहे हैं, वो तो महज यज्ञ-कर्तव्य है, जो कि सृष्टि क्रम के अनुकूल है। रथ का पहिया सृष्टि चक्र को प्रदर्शित करता है और यदि उसमें जरा सा भी खोट-खराबी उत्पन्न हो जाये तो वह परेशान करने लगता है अर्थात रथ का चलना बन्द हो सकता है। शरीर और संसार प्रकृति के ही रूप हैं। जब मनुष्य कामना, अहंता, ममता, आसक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्य का पालन करता है, उससे पूरी सृष्टि को सुख पहुँचता है। इन्द्रियों को सुख भोग के लिए वाला सृष्टि क्रम में बाधक, पशु के समान और पापी माना गया है। ऐसा व्यक्ति हिंसा, स्वार्थ, अभिमान और भोग से मुक्त हो ही नहीं सकता। इस प्रकार के व्यक्ति को प्रभु द्वारा पापी-चोर कहा गया है।
When Bhagwan Shri Krashn address Arjun as Parth, he reminds him of the difficulties faced by his mother Kunti, for carrying out her duties throughout the life. Arjun too is supposed to carry out, his duties as a Yagy, as an essential component of the cycle of evolution, which he is considering as terrible (frightful, violent, vehement, harsh, extreme, intense, taboo). Evolutionary process is like the wheel of the chariot, which does not move or create jerks, if damaged. Human body and the world are the components of nature. When an individual acts by rejecting desires (affections, allurements, ego) the whole world (nature) feels the pleasure. On the contrary one who indulges in bodily comforts (pleasures, sensualities, sexuality, passions) create hindrances in the natural cycles-processes and is considered to be a sinner. One with these tendencies can not become free from violence, selfishness, pride, ego and suffering. Bhagwan Shri Krashn equate these people with the thief-sinner.
One who is born will die. One who commit sin will go to hell. Cause & effect are the essential components of evolution and are cyclic in nature. If one preform he gets outcome. Do not give up, face the trouble and achieve success.
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
प्रत्येक इन्द्रिय और उसके विषय में राग और द्वेष स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके पारमार्थिक-कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले शत्रु हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.34]
One should not be dependent (misguided, distracted, controlled, misled) by the attachments and enmity, the subjects of sense organs, which are the enemies of one, who is eager (willing, devoted) for the welfare of others.
प्रत्येक इन्द्रिय (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण) के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) में अनुकूलता होने पर राग और प्रतिकूलता होने पर द्वेष होता है। राग-द्वेष शरीर के अहम् से जुड़े हैं। साधक को इनके उत्पन्न होने पर साधन और साध्य से निराश न होकर, किसी भी कार्य में प्रवृत अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिए। जैसे ही साधक साधना, भजन-पूजन से उपराम होता है, दबी-ढ़ँकी इच्छाएँ बलवती होकर सर उठाती हैं। यह घबराने, हताश, चिंता, निराश होने का विषय नहीं है। उसे न तो इनसे डरना है और न ही इनके प्रति दुर्भावना को ही लाना है, अपितु तटस्थ-समभाव हो जाना है, किनारा कर लेना है। 
जो कुछ भी कोई मनुष्य अपने लिए पसन्द  नहीं करता, उसे वह दूसरों के प्रति न करे। अगर राग द्वेष न हों, तो जड़ता हो ही नहीं और सब कुछ चिन्मय परमात्मा स्वरूप आनन्दमय-मंगलमय हो जाये। मनुष्य अनुकूलता में दूसरों की सेवा और प्रतिकूलता में इच्छा का त्याग करें। अनुकूलता-प्रतिकूलता में सुखी-दुखी न हो, क्योकि यह फलासक्त होना है और फलासक्ति से मनुष्य बँध जाता है।
Favourable situations generate attachment for the sense organs, while unfavourable one, create rejection (enmity, anger, pain-sorrow-grief). Attachment and enmity are connected with the actions of the body and are further attached with ego-pride. The practitioner should not be happy or disheartened with fulfilment of desire or failure. He should generate equanimity with the subjects of sense organs and outcome. As soon as the devotee is free from his daily routine (prayers, rituals, meditation), the suppressed desires raise their head, again. One has to ignore them. There is nothing to fear or afraid of. He should not grow hatred for them. Instead, he should become neutral towards them. 
One should never do any thing which he do not like to be done with him. One will not be static-inertial, if attachments and enmity are not there and everything will become blissful like the Almighty. When ever and where ever one gets a favourable opportunity, he should work for the sake of others (society). If things take an adverse route (course) he should reject the desires completely. To be happy or dejected is associated with the reward of deeds and the desire for favourable outcome (fruit) of deeds is binding, leading to unending cycle of birth & death.
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥
इसलिए हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.41] 
Therefore, Hey Arjun, the best amongest the ancestors of Bharat-descendant of Bharat clan! You should control the senses  and over power (vanish, kill) the worst sinner Kam (the desire, motive, aspiration or sexuality, lust) with firm determination, might, that destroy the enlightenment and sciences.
मनुष्य को काम (लालसा, वासना, लिप्सा, लालच, लोभ, राग, द्वेष, आसक्ति) से बचने लिए कामना रहित-निष्काम होकर कर्म करना चाहिये; अन्यथा वह शास्त्र ज्ञान तथा विज्ञान तत्व-ब्रह्म ज्ञान आदि का नाश करने की प्रवृति रखेगा (जो कि ढँक-आच्छादित अवश्य हो जायेगा, मगर नष्ट नहीं होगा)। मनुष्य इन्द्रियों के वश-आधीन होकर अकर्तव्य कर बैठता है और पतन-अधोगति को प्राप्त होता है। कामनाएँ ही मनुष्य को पाप, बुराई, पतन, अधोगति की ओर अग्रसर करती हैं।
Desires, aspirations, motives forces one to commit undesirable sinful-wretched, wicked, vicious acts. He is over powered by the lust (passions, sensuality, sexuality, endless wants-desires). Therefore, he should perform all deeds-actions without involvement. Failure to do so leads to masking of his learning (understanding, prudence, intelligence). In this state he commits all sorts of crimes-sins and moves towards down fall, the hell.
One should make continuous endeavours to control himself with firmness, not to be swayed by lust, sex, passions, sensuality, Lasciviousness. Desires and lust can never be satisfied, quenched, satiated.
Sexual desires are greatest hurdles in the path of Moksh. They pollutant the mind and distract one from the righteous path.
इन्द्रियाणि पराण्याहु-रिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा  संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥
इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से श्रेष्ठ (सबल, प्रकाशक, व्यापक, सूक्ष्म) हैं, इन इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है, वह आत्मा है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन (काम, वासना, आसक्ति)  को वश में करके, हे महाबाहो! तुम इस काम रूप दुर्जय शत्रु को मार डालो।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.42-43]
The senses are superior to the human body which houses them, the MAN (innerself, mood, mind-brain, psyche) is superior to the senses, the intelligence is superior to the MAN and the the soul is superior-stronger to the intelligence. Being aware of the fact that the soul is superior to the intelligence, utilize the intelligence to smash, vanish, kill the enemy in the shape of desires, motives, aspiration.
Restrain-control the body through senses, senses through psyche, psyche through intelligence-prudence and intelligence through Soul.
मनुष्य को इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भान होता है। अतः इन्द्रियाँ शरीर और विषयों से भी श्रेष्ठ हैं। इन्द्रियाँ मन को नहीं जानतीं, परन्तु मन इन्द्रियों को जानता है। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को जानती हैं। मन बुद्धि को नहीं जानता, मगर बुद्धि मन को और उसके संकल्पों को जानती है। बुद्धि का स्वामी अहम् है, बुद्धि कारण है और अहम् कर्ता, कारण परतंत्र होता है, पर कर्ता स्वतंत्र। अहम् के जड़ (प्रकृति) अंश में काम का निवास है। जड़ अंश से तादात्म्य होने के कारण, वह काम स्वरूप-चेतन में रहता प्रतीत होता है। अहम् में ही काम रहता है, जो कि भोगों की इच्छा करता है और सुख-दुःख का भोक्ता बनता है। भोक्ता, भोग और भोग्य सजातीय हैं। अहम् तक, सब कुछ प्रकृति का अंश है और उस अहम् से आगे परमात्मा का अंश स्वयं है, जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम् का आश्रय, आधार, कारण और प्रेरक है तथा श्रेष्ठ, बलवान, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म है।
जड़ प्रकृति का अंश ही सुख-दुःख रूप में परिणित होता है। चेतन में विकृति नहीं है, प्रत्युत चेतन विकृति का ज्ञाता है। जड़ से तादात्म्य होने पर सुख-दुःख का भोक्ता चेतन ही बनता है। केवल जड़ में सुख या दुःख नहीं होता और चेतन भी स्वयं को भोक्ता मान लेता है। परमात्म तत्व का साक्षात्कार होते ही रसबुद्धि निवृत हो जाती है। भोक्तापन में जो निर्लिप्त तत्व है, उसके ज्ञान से रस अर्थात काम की निवृति हो जाती है। परमात्मा के साक्षात्कार से काम सर्वदा और सर्वथा मिट जाता है। अपने आप में अपने को वश में करने से, काम मरता है। मनुष्य इस काम को जो कि दुर्जय शत्रु है, वश में करने में समर्थ है। 
The human being identifies the subjects & objects through the senses. So, the senses are stronger than the physique-body and the objects-subjects of lust. The senses are unaware of the the MAN (inner self, psyche) but the MAN identifies-knows the senses. Man does not recognize the intelligence but the intelligence identifies-controls the MAN (mood, desires). The ego commands the intelligence. Intelligence is a tool and the ego is the master. Ego-pride dominates the intelligence. This ego is a component of the nature. The ego has a close relation ship with the static (inertial component, nature), but the static component too has a relationship with the awake (energised, living, conscious). The awaken bears all pleasures & pains. The ego seeks pleasure and the awake-conscious, suffers-bears the pain. Beyond ego exists the soul-component of the Almighty. The soul is superior to the body, MAN, intelligence & ego and provides support-sustain them being base, reason and inspiring & is superior, strong, enlightening, pervading and minute.
The static-inertial component of nature ego, converts into pleasures & pains-miseries. Soul constitutes the living-awake component which has no defect. This soul is aware of the defects, impurities, stains. Attachment of the soul with the static make the soul experience-bear pleasure-pains. The soul is a component of the Almighty. On realisation of this state, the human being, discards the tendency to accept (find, experience, enjoy) the comforts. Here detachment appears and the devotee is set free from the clutches of desires (lust, tendency to enjoy the comforts, passions). The realisation of the Almighty vanishes the desires for ever and relinquishment appears. Allurements (attachments, bonds, ties) break. The human being is capable of controlling himself from the onslaught of desires, his worst possible enemy.
Its the pious duty of an individual to control his demands (desires, aspiration, motives, provocations) so as to rise above the nature and move closer to the Almighty. Soul is a component of the Almighty. So, seek asylum in the Almighty.

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥
अन्य योगी लोग सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की सभी क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम, योग समाधि, योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 4.27]
There are the other Yogis, who sacrifice all the actions of their senses and the Pran (vital airs) in the fire kindled by the knowledge of the Yog of self-restraint.
समाधि भी यज्ञ स्वरूप है। योगी समस्त इन्द्रियों को मन-बुद्धि सहित समाधि अवस्था में ले जाकर उन्हें शाँत और निश्छल-निश्चेष्ट कर लेता है। इस अवस्था में प्राणों की क्रियाओं का हवन भी हो जाता है अर्थात वे रुक जाती हैं। हठयोग में, समाधी की अवस्था में, कुम्भक क्रिया का अभ्यास प्राणों को घंटों, दिनों (वर्षों) तक रोक कर, आयु बढ़ाता है। समाधि काल में मन को एकाग्र करने पर प्राणों की गति स्वतः रुक जाती है। समाधि और निद्रा दोनों ही अवस्थाओं में कारण शरीर से सम्बन्ध बना रहता है और सच्चिदानंद परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है, ऐसा ज्ञान जाग्रत रहता है। निद्रा काल समाधि से भिन्न है, क्योंकि इसमें प्राणों की गति कायम रहती है। चित्त वृति निरोध रूप अर्थात समाधि रूप यज्ञ करने वाले योगी जन इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं का समाधि रूप अग्नि में हवन  किया करते हैं। मन-बुद्धि की चञ्चलता को त्याग कर सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में स्थित होकर सच्चिदानन्द परमात्मा में स्थित हो जाते हैं।   
Staunch meditation is also a form of Yagy (holy sacrifice, burning). Yogi directs (channelize) his sensualities along with mind and intelligence, into staunch meditation and silences (over power, control, ride) them. In this process the life sustaining forces are also sacrificed. They come to a halt. During Hath Yog and staunch meditation, the practitioner controls his breath initially from minutes to hours and years, which boost his longevity. There are Yogis who's chronological age is in thousands of years. During the period of Samadhi, the brain is thoroughly immersed (concentrated, directed, channelized) into the Almighty. Though the heart beat stops, yet brain remain conscious-concentrated into the Almighty, keeping him alive. The practitioner is absorbed completely into the sensation of the presence of the Almighty, all around him. He experiences bliss-Parmanand. This state is different to that of sleep, in which the flow of air (breathing, respiration) vital continues. Controlling the activities of the brain, which roams around in all directions i.e., the state of Samadhi, the Yogi diverts the actions-activities of the mind & intelligence into sacrificial fire, in the form of Samadhi. This is state, when the devotee is stabilised-established in the Almighty.
Please refer to :: (1). YOG (6) योग santoshkipathshala.blogspot.com (2). Yog chapters 1-12 jagatgurusantosh.wordpress.com
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम चिरेणाधिगच्छति॥
जितेन्द्रिय (इन्द्रिय संयम करने वाला) तथा साधन परायण, निरंतर प्रयत्न करने वाला श्रद्धावान ज्ञान को प्राप्त होता है और तत्काल परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 4.39] 
One who has attained perfect control over his senses and makes efforts-endeavours continuously, ultimately attains enlightenment and attains the Ultimate-Supreme peace. 
मनुष्य स्वयं को भ्रान्ति-गलत फहमी के कारण  जितेन्द्रिय समझ लेता है। अगर इन्द्रियाँ पूर्णतः वश में हैं और वह साधना में तत्परता से लगा है, तो अंततोगत्वा जितेन्द्रिय हो भी सकता है। 
One misconceives that he has attained full control over his senses. It depends upon his efforts-endeavours that he ultimately becomes a stoic-continent.
यदि व्यक्ति को परमात्मा, शास्त्र, महापुरुषों-ज्ञानियों, धर्म में श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, निष्ठा, प्रेम है तो वह श्रद्धालु भी है। परमात्म तत्व का अनुभव-ज्ञान भले ही न हो, परन्तु उसमें विश्वास अवश्य हो। परमात्मा मनुष्य से कभी दूर नहीं है, यदि वो ऐसा समझता है। उसे स्वयं में मान लेना श्रद्धा है और यही श्रद्धा परमात्म तत्व का ज्ञान प्रदान करती है। इन्द्रियाँ संयत नहीं हैं, साधना में तत्परता नहीं है, तो यह श्रद्धा में कमी है। गुरु में श्रद्धा ज्ञान प्राप्ति हेतु अत्यावश्यक है। गुरु ज्ञान प्राप्ति में सहायक साधन भी है। अन्तःकरण और इन्द्रियाँ इस संसार को अपना मानने का भ्रम पैदा करती हैं। श्रद्धा, विश्वास, विवेक मनुष्य को भ्रम मुक्त करते हैं। 
One may not be having the knowledge of the Ultimate but he should possess the faith in HIM. He is a devotee-faithful if he has faith in the Almighty, scriptures-Veds, Epics, the enlightened (Pandit, philosophers, scholars, Guru). The Almighty is never away from the devotee, if he has faith-belief in HIM. Faith is to believe that the "Almighty resides within us". This faith grants awareness of the gist of the God. In case senses are not under control & the means are not utilised whole heartedly, it is lack of faith. Faith in the Guru, too is essential to achieve the goal-destination "the Ultimate". The innerself-mind and the senses mistakes by considering this perishable world to be own. This illusion attaches him with the world but the faith in the Guru and the prudence breaks this mirage. 
The atheist has his own way of living in this world.
 नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्‌ गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मि षन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥
तत्व को जानने वाला साँख्य योगी देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूँघते हुए, खाते हुए, चलते हुए, सोते हुए, साँस लेते हुए, बोलते हुए, मल-मूत्र त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए तथा आँखों को खोलते-बंद करते हुए भी, ऐसा माने कि सब इन्द्रियाँ ही अपने-अपने कार्यों में लगी हैं, मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.8-9]
One who has attained the gist (essence, theme, central idea, extract) of the Ultimate, should consider that he is not performing-doing anything, but the senses are interacting amongest the sense organs and seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, breathing, speaking, excreting (urinating and defecating), taking, opening and closing of the eyes, are the activities of the sense objects and do not belong to him.
साँख्य योग का विवेकशील साधक अनुभव करता है कि शरीर में होने वाली समस्त क्रियाएँ प्रकृति के अधीन हैं और वह स्वतंत्र है। तत्वज्ञान होने से उसमें कर्तापन का अहंकार नहीं है। वह मन, बुद्धि, प्राण, शरीर, इन्द्रियाँ आदि के साथ वह अपनी एकता स्वीकार नहीं करता।
अज्ञानी समष्टि के क्षुद्र अंश व्यष्टि के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। साधक स्वयं को कभी भी कर्त्ता न माने। कर्त्ता पन का अभाव होने से स्वरूप का अनुभव हो जाता है। जिस प्रकार स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आने पर द्रष्टा उससे सम्बन्ध नहीं रखता, उसी प्रकार तत्वविद् शरीरादि से होने वाली क्रियाओं से स्वयं को मुक्त रखता है। तत्वविद् पुरुष और प्रकृति को ठीक समझता है। गुण और क्रियाएँ प्रकृति के अंग हैं, पुरुष के नहीं। ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण, उपप्राण प्रकृति के अंग हैं।
पुरुष-चेतन में भोक्तापन नहीं है। पुरुष (आत्मा, परमात्मा) अक्षर, अव्यय और निर्लिप्त है। वह एकरस और एकरूप ही रहता है। वह सुख-दुःख से परे है। चिन्मय सत्तामात्र में न करना है और न होना है।
The Sankhy Yogi uses his prudence to conclude that all activities are governed by the nature and the body is a component of the nature. He, as an entity-soul is free from the clutches of nature. He finds-understands that he is not the doer. He is free from the ego of being the doer. Urge for physical-mental activities arise cyclically, time and again. All these activities are occurring automatically by them self. He does not recognise himself with the desires-wishes, intelligence-motive, life force-the vital, body-physique and the sense organs. He do not consider himself as the doer.
The ignorant associates himself with the macro (large) as a micro (small-minute) entity as the doer-performer. The prudent practitioner does not consider him self to be the doer. Once the ego of being the doer is scrapped, one identifies himself-own self. One do not consider himself as the performer in the dreams. Likewise, the enlightened (wise, prudent) detaches himself from the physical activities going on in the body. One who has realised the essence (gist, extract) of the Ultimate knowledge is able to distinguish between the body and the soul. He understands that all functions are going within the body not the soul-a component of the Almighty. Organs of work, senses, life force-the vital are the components of nature not the Almighty.
The eternal-conscious is free from ego of being the consumer. The eternal is detached, indeclinable (invariable, imperishable). He is uniform and away from pleasure-pain. The conscious is neither a doer (performer) nor consumer.
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरूणी विषं॥
शास्त्र के अनुसार आचरण ने करना, पेट खराब होने पर भी खाना, निर्धन व्यक्ति द्वारा उत्सव का आयोजन और वृद्ध व्यक्ति के लिए जवान पत्नी ज़हर के समान हैं।[चाणक्य नीति 4.15]
Failure to follow the doctrine of scriptures-Varnashram Dharm, eating food when stomach is upset, organising a function by a poor and marrying a young woman are like poison.
Regular, continued, rigorous practice (reading, learning, understanding, application) is essential for participating in discourses-discussions, food should  be taken only when stomach is in proper order i.e., there is no indigestion, poverty stricken should avoid organising parties (functions, celebrations) and an old man should avoid marrying a young girl or woman; if he does so it will be like poison for him. 
There has been a practice-doctrine debate, in India pertaining to discussions over the interpretation, meaning of scriptures-Shastr. The winner was considered to be an enlightened, virtuous, intelligent person. There are certain professions like teaching, judicial counselling-arguments, which involve debate. One must adopt to rigorous practice to be successful in these trades maintain virtuousness. 
In case of indigestion one must not take food and opt for treatment.
A poor person will not be honoured in any gathering, party, congregation where rich, well to do people assemble. One may be insulted by the high and mighty. So, he should desist from attending such places. Organising a function by  poverty stricken by lending money is disastrous for him. He will mortgage his assets and will not be able to recover them. In India practically every day one or the other farmer commit suicide due to this reason only.
An old man looses health, vigour and potency. His desire for sex will put him in danger, since a greedy woman may marry him for money & remain dissatisfied with him since he will never be able to satisfy her. She will indulge in illicit relations with young people of her own age, when ever & where ever there is an opportunity. She will try to eliminate him for wealth as well. People try various medicines to regain lost vigour & vitality, which further deteriorate there potency and health.
Shahjahan was too lascivious, marrying own daughter and took over dose of medicines to activate-boost sexual power & died as a result of it.
One must learn from the experiences of others and improve his life.
इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नर:।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि  साधयेत्॥
विद्वान (समझदार, बुद्धिमान) व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को बगुले की तरह वश में करके, देश, काल-समय, अपने बल (सामर्थ्य, योग्यता, क्षमता) को ध्यान में रखकर ही अपने सभी कार्यों-लक्ष्य को  पूरा करता है।[चाणक्य नीति 6.17] 
One who concentrate with all his ability (strength, prudence, intelligence, capacity, capability) over his target (aim, goal, endeavour, project, ambition), according to time & country like the crane; achieve success in life. 
Crane stands over one foot near the pond quietly and engulfs the fish as soon as it comes in its range.
As far as possible one must concentrate over one thing, at a time. With reference to a state, it should not face, invite, target many enemies at a time or attack so many of them at a time. Isolate the weaker ones and handle them with care.
Let more people-who have specialisation, perfection, mastery over it, be involved to accomplish the job. Jobs may be decentralised as per need of the situation. Keep the reins in own hands and review the out come and adjust the programs accordingly. Fine tuning of the project is desirable.
Never crave for more than own ability, power, strength, vigour. Competition should be in healthy spirit. There should be no scope for deception, cheating from own side but opposite side may be bent upon defeating one using fair or foul means. Never forget punishing the one who unnecessarily create hindrances at the most opportunate time & situation.
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात! विषयान् विषवत् त्यज। 
क्षमार्जवंदया शौचं सत्यं पीयूषवत्॥
यदि जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना चाहते हो तो इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए विषयों को उसी तरह त्याग दो, जैसे विष को त्याग देते हो। इन सब को छोड़कर तितिक्षा, ईमानदारी का आचरण, दया, शुचिता और सत्य इसका अमृत पियो।[चाणक्य नीति 9.1]  
One who is desirous of attaining Salvation (renunciation, Liberation) should reject-discard sensualities, sexuality, lust, passions like poison. One should accept forgiveness, prayers-asceticism, truth, pity, purity (piousness, righteousness, virtuousness) as nectar-elixir.
Religion means faith in God. Faith is a factor which always keeps one tied to the welfare of others. The Ultimate goal of a faithful is assimilation in the Almighty-Permanand (extreme pleasure). Nothing is left to be attained once one tastes the Ultimate Pleasure-bliss. Salvation is the core of religion.

Please refer to :: Salvation मोक्ष santoshsuvichar.blogspot.com      santoshkipathshala.blogspot.com
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु यः॥
जो सदा संतुष्ट, शुद्ध इन्द्रियों वाले और एकान्त में रमने वाले हैं, उन्होंने ज्ञान और योग (दोनों) का फल प्राप्त कर लिया है।[अष्टावक्र गीता 17.1] 
Those who are always satisfied-content, having pure, neat-clean sense organs  and prefers to remain alone (aloof, solitude), have obtained-attained the reward, award, fruit  of Gyan (enlightenment, learning) and Yog (assimilation in the Almighty).
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः।
समस्तवासना मुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते॥
सदा स्वयं में स्थित, सर्वत्र स्वच्छ प्रयोजन वाला, समस्त वासनाओं से मुक्त पुरुष सर्वत्र सुशोभित होता है।[अष्टावक्र गीता 17.11] 
The liberated, who is forever-always, established in himself, with clear intentions, free from all sensuality-passions, well adorned, decorated, embellished everywhere.



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