सप्त मातृका
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सप्तमात्रिरिका का उल्लेख महाशक्ति की सककारी सात देवियों के लिये हुआ है। ये देवियाँ हैं :- ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही और चामुण्डा अथवा नारसिंही। इन्हें 'मातृका' या 'मातर' भी कहते हैं।
मातृका का मूल शब्द मातृ है, जिसका अर्थ है माँ-mother.
उनमें वह शक्ति है जो मातृ गुणों का प्रतीक है और इस ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों की रक्षक, प्रदाता और पालनकर्ता भी है। जिस प्रकार पृथ्वी की हर चीज सूर्य से अपनी स्रोत ऊर्जा प्राप्त करती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियाँ अपनी ऊर्जा मातृकाओं से प्राप्त करती हैं। मातृकाओं की तंत्र-विद्या में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि उनमें जन्मजात क्षमता है, जिस के फलस्वरूप वह स्वयं का प्रतिरूप बना सकती है और उनके प्रतिरूप भी अन्य शक्तियों और रूपों को जन्म दे सकते हैं। वह अपने सूक्ष्म रूप में हर जगह और हर चीज में है, लेकिन यह मान्यता है कि वे अपने प्रकट रूप में ब्रह्मांड में उपस्थित है और आठ दिशाओं पर शासन करती है जो अनंत का भी प्रतीक है।
उत्पत्ति के पूर्व मातृका हमेशा अपने मूल रूप योगमाया (आदि माता भगवती (mother nature) के रूप में मौजूद रहती हैं और वे इस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च शक्ति है। भगवान् शिव परम देव हैं और उनके भीतर योगमाया निवास करती हैं। योगमाया के कारण, शिव को ईश्वर माना जाता है, योगमाया की शक्ति के अभाव में शिव एक शव तुल्य हो जाते है।
वह सृष्टि के पहले भी शिव के भीतर विद्यमान थी। हर विध्वंस का एक सही समय होता है, जैसे प्रकृति एक फूल को अपने चरम तक खिलने देती है और फिर उसे मुरझा कर नष्ट कर देती है, जिससे नए फूलों को खिलने का अवसर मिलता है, वैसे ही शिव का प्रमुख कर्तव्य है कि पहले की सभी कृतियों के अस्तित्व को जड़ से मिटा दें ताकि नव-निर्माण हो सके।
ऐसा करने के लिए भगवान शिव को शक्ति और ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो ब्रह्माण्ड को एक फूल की तरह खिलने के लिए पोषित कर सके, ठीक उसी तरह जिस तरह एक मां की अपनी नई रचना के पोषण के लिए आवश्यक होता है। इस ऊर्जा को मातृ पुंजा कहा जाता है, जो स्वयं को द्विगुणित या जनन करके इस ब्रह्माण्ड-universe के हर हिस्से में अपने आप को विलय कर देती हैं । इस प्रकार मातृका सृष्टि में हर जगह मौजूद हो जाती हैं। उनकी वजह से है ब्रह्माण्ड आत्म-पालन और आत्म-पोषण कर सकता है, यह तब तक चलता रहता हैं जब तक कि महाप्रलय (Ultimate devastation, annihilation) नहीं हो जाता। एक रचना के विनाश के बाद, दूसरी एक नई रचना होती है और यही मातृकायें फिर से नए ब्रह्मांड के निर्वाहक और पोषणकर्ता की भूमिका निभाती है। यह क्रम अनवरत चलता रहता है।
शिव और योगमाया हिमालय के कैलाश पर्वत से संतों और ऋषियों को आगम-निगम की ज्ञानमयी बुद्धि प्रदान करने के लिए उतरे। वे अक्सर तंत्र-मंत्र के बारे में एक-दूसरे के साथ बातचीत में संलग्न होते थे और उन वार्ता को संतों के साथ-साथ सिद्धियों और महर्षि विश्वामित्र ने भी सुना था। उन्होंने फिर इन वार्ताओं की सांकेतिक भाषा का सरलीकरण कर के इस ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया।
यस्य देवस्य यत्रूपं यथाभूषण वाहनम्।
युद्ध में चण्डिका की सहायता के लिए सप्त मातृकाएं उत्पन्न हुईं थीं। ये सप्त मातृकाएं चण्डिका में समावित हो गई। इन्हीं सप्त मातृकाओं की सहायता से देवी ने रक्त बीज का वध किया था। ये सात देवियाँ अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहाँ उपस्थित होती हैं।[मार्कण्डेय पुराण]
माँ दुर्गा ने स्वयं मातृकाओं की रचना की। जब दैत्य शुम्भ दुर्गा को युद्ध में चुनौती देता है, तब माता दुर्गा ने इनकी मदद से राक्षस सेना का वध किया। उसके बाद राक्षस रक्त बीज के रक्त को चूस कर उसका वध भी किया। देवी दुर्गा कहती हैं कि यह सभी मेरे ही रूप हैं और अंतत: ये सब मुझ में ही समाहित हो जातीं हैं। यहाँ काली को एक मातृका के रूप में वर्णित किया गया हैं। चंड-मुंड का संहार करने के लिये काली को चामुण्डा भी कहा गया है।[देवी महात्म्यम]
हिरण्याक्ष राक्षस का पुत्र (adopted son) अंधक (माता पार्वती और भगवान् शिव का पुत्र) भगवान् शिव का परम भक्त था। भगवान् शिव ने उसे वर प्रदान किया था रणभूमि में तुम्हारे लहू के हर एक बूँद से नया अंधकासुर उत्पन्न होगा, जिसे कारण तुम युद्ध में अजेय होगे। भगवान् शिव के इस आशीर्वाद के कारण, सारी पृथ्वी अंधकासुरों से त्रस्त हुयी । फिर इन अंधकासुरों का लहू चुसने के लिए भगवान् शिव ने ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि सात मातृकाओं का निर्माण किया। इन्होने अंधकासुर का सारा लहू चूस लिया एवं तत्पश्चात् भगवान् शिव ने अंधकासुर का वध किया। अंधकासुर का वध होने के पश्चात्, भगवान् शिव के द्वारा उत्पन्न सात मातृका पृथ्वी पर के समस्त प्राणिजात का लहू चूसने लगी । फिर उनका नियंत्रण करने के लिए, भगवान् शिव ने नृसिंह का निर्माण किया, जिसने अपने जिह्रादि अवयवों से घंटाकर्णो, त्रैलोक्यमोहिनी, आदि बतीस मातृकाओं का निर्माण किया। इन बतीस मातृकाओं ने सात मातृकाओं को शांत किया। नरसिंह ने मातृकाओं को दुनिया को नष्ट करने बजाय उस की रक्षा करने की आज्ञा दी, जिस से वे माता के रूप में पूजित हो जायें। इस तरह मातृकायें एक तरफ देवताओं की युद्ध में मदद करने वाली शक्तियाँ हैं, जो शत्रु-संहारक की भूमिका निभाती हैं, दूसरी ओर पालनकर्ता वाला रूप भी हैं।[मत्स्य पुराण, विष्णु धर्मोत्तर पुराण]
सप्त-मातृकाओं की रूपकात्मकता :: भगवान् शिव ज्ञान की आत्मा हैं। अंधक अज्ञानता या अंधकार का प्रतिनिधित्व करता है। जितना अधिक ज्ञान अज्ञान पर हमला करता है, उतना ही अधिक यह उठता हैं और बढ़ता है। यह अन्धकासुर का बहुलीकरण हैं और दूसरे क्रम के उप-असुरों के जन्म द्वारा दर्शाया गया है। जब तक आठ अवगुण :- काम, क्रोध, लोभ, मद या घमंड, मोह या भ्रम, ईर्ष्या, निंदा और द्वेष को ज्ञान के नियंत्रण और संयम में नहीं रखा जाता तब तक यह अंधकार को समाप्त करने में कभी भी सफलता नहीं मिल सकती।
मातृकायें आत्म ज्ञान हैं, जो अज्ञानता रूपी अंधकासुर के विरूद्ध युद्ध करती हैं।मातृकायें शरीर के मूल जीवंत अस्तित्व पर शासन करती हैं।[वराह पुराण]
मातृकाओं को शरीर के उपरोक्त मूल जीवंत अवयवों की अधिदात्री माना जाता हैं :-
ब्राह्मणी :- त्वचा,
माहेश्वरी :- रक्त,
कौमारी :- मांसपेशियां,
वैष्णवी :- हड्डी,
ऐंद्री :- अस्थि मज्जा,
चामुंडा :- वीर्य।
मातृकाओं को तेजस्वी, कृपापात्री, परोपकारी और देखभाल करने वाली देवी माताओं के रूप में चित्रित किया गया है। मातृकाये बच्चों को अपनी गोद में लेकर रखती हैं और उसी के साथ वे अस्त्र-शस्त्र भी अपने दूसरे हाथों में पकड़ती हैं। मातृकाओं की ये प्रतिमायें पौराणिक प्रतीकों और अभिव्यक्ति का सुन्दर सामंजस्य था, जो आज तक चला आ रहा हैं। भारत में सप्तमातृकाओं की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी जाती हैं :-
(1). स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा,
(2). आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं,
(3). नृत्यरत प्रतिमा।
मातृकाओं के चार हाथ हैं व गोद में शिशु है। कुछ प्रतिमाओं में उनके वाहन और ध्वजा को अंकित किया गया है तो कुछ स्थानों में उनके आसनों के रूप में उनके वाहन या सवारी का अंकन भी मिलता है। सप्त मातृका के आरम्भ में वीरभद्र और अंत में गणेश की प्रतिमा होनी चाहिए।[विष्णुधर्मोत्तर और सुत्रधार मंडन रचित ग्रंथ रूपमंडन]
सप्तमात्राओं का देवी स्वरूप ::
(1). ब्रह्माणी की प्रतिमा में उनका रंग सुनहरा और उनके चार सिर व चार भुजाएं हैं। एक हाथ वरद मुद्रा में तो दूसरा अभय मुद्रा में और तीसरे हाथ में यज्ञपात्र है। इनका वाहन हंस है और गोद में शिशु है।
(2). माहेश्वरी का रंग गोरा हैं और जटाओं में अर्धचंद्र हैं। उनका वाहन नंदी है, चर्तु भुजाओं में त्रिशूल, अक्षमाला, खड्ग और एक हाथ अभय मुद्रा में है।
माहेश्वरी भगवान् शिव की शक्ति हैं, जिन्हें महेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। माहेश्वरी भी भगवान् शिव के नामों के अनुरूप यथा रुद्राणी, महिषी, रौद्री और शिवानी जानी जाती हैं। माहेश्वरी को नंदी-धर्म पर बैठे हुए चित्रित किया गया है और उनके चार या छह हाथ हैं। माहेश्वरी सफेद स्वरूपित, त्रिनेत्र त्रिशूल, डमरू, अक्षमाला, पानपात्र, कुल्हाड़ी, मृग या एक कपाल-खोपड़ी सर्प और सर्प कंगन, अर्धचंद्राकार और जन मुकुंद से सुशोभित हैं ।
(3). कौमारी के छः सिर और दस हाथ हैं उनका केश विन्यास भी कार्तिकेय की तरह है। उनका वाहन मयूर है। वे अपने हाथों में शक्ती, ध्वाजा, दण्ड, धनुष, बाण, अक्षमाला, कुक्कुड और कमंडलु धारण करती हैं। उनके दो हाथ अभय और वरद मुद्रा में हैं।
कौमारी को कुमारी, कार्तिकी, कार्तिकेयनी और अंबिका के नाम से भी जाना जाता है। युद्ध के देवता भगवान् कार्तिकेय की शक्ति हैं। कौमारी एक मोर की सवारी करती है और उसकी चार या बारह भुजाएँ होती हैं। वह एक भाला, कुल्हाड़ी, एक शक्ति (शक्ति) या टंका (चांदी के सिक्के) और धनुष रखती है। उसे कभी-कभी कार्तिकेय की तरह छह सिरों वाला चित्रित किया जाता है और एक बेलनाकार मुकुट पहनता है।
(4). वाराही धूम्रवर्णीया और विष्णु के वराह अवतार की तरह चेहरा वराह का व धड़ मनुष्य का है। वराहपुराण के अनुसार चर्तुभुजी प्रतिमा का वर्णन है जिन मे वे दंड़, खड्ग, खेतका और फाश धारण करती है। वाहन के रूप में कहीं मेष तो कहीं भैंसा अंकित रहता है।
वाराही या वैराली विष्णु के तीसरे और सूअर के सिर वाले वराह की शक्ति है। वह एक डंडा (दंड की छड़ी) या हल, बकरी, एक वज्र या तलवार और एक पनपात्रा रखती है। कभी-कभी, वह एक घंटी, चक्र, चमरा (एक याक की पूंछ) और एक धनुष रखती है । वहअन्य गहनों के साथ करण मुकुंद नामक मुकुट पहनती है।
(5). वैष्णवी का रंग गहरा और सौम्य रूप हैं, आभूषण और वनमाला पहने हुये हैं। उनके दो हाथों में शंख व चक्र हैं तो तीसरा हाथ अभयमुद्रा में व चौथे में शिशु को गोद में लिए हुए हैं। इनकी सवारी विष्णु की तरह गरूड़ ही है।भगवान् श्री हरी विष्णु की तरह, वह हार, पायल, झुमके, चूड़ियाँ आदि जैसे गहनों से सुशोभित हैं और एक बेलनाकार मुकुट जिसे किरीश मुकुंद कहा जाता है।
(6). ऐन्द्री या इन्द्राणी का रंग सुनहरा लाल हैं और वे अपने वाहन हाथी पर विराजमान है। उनके दो हाथ क्रमश: अभय तथा वरद मुद्रा में व तीसरे हाथ में आयुध के तौर पर वज्र और चौथे हाथ में शिशु विराजमान है।
इंद्राणी देवराज इन्द्र की शक्ति हैं। उन्हें हाथी पर बैठे ऐंद्री को दो या चार या छह भुजाओं के साथ गहरे रंग के चित्रित किया गया है। उसे दो या तीन या इंद्र की तरह, एक हजार आंखों के रूप में चित्रित किया गया है। वह वज्र (वज्र), बकरी , फंदा और कमल के डंठल से लैस है। तरह-तरह के गहनों से सजी, वह किरिष्ट मुकुंद पहनती हैं।
(7). चामुण्डा का रंग गहरा लाल हैं और लगभग काली की तरह ही रौद्र मुखमुद्रा व गले में मुण्डमाल शोभित है। उनके हाथों में कपाल, शूल, नरमुण्ड तथा अग्नि है व वाहन श्रृगाल यानी सियार है। खजुराहो में प्राप्त चामुंडा की प्रतिमा के छ: हाथ हैं जिनमें डमरू, त्रिशूल, अंकुश, खप्पर व नरमुंड और अग्नि हैं।
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