Tuesday, June 18, 2024

BRAHMAN TODAY ब्राह्मण की वर्तमान काल में स्थिति

ब्राह्मण की वर्तमान काल में स्थिति :: जिस व्यक्ति पर एट्रोसिटी एक्ट 89 के तहत बिना जाँच-पड़ताल के भी कार्यवाई की जा सकती है, वो ब्राह्मण है। जिसको जाति सूचक शब्द इस्तेमाल करके बेखौफ गाली दी जा सकती है, वो ब्राह्मण है, देश में आरक्षित 131 लोकसभा सीटों और 1,225 विधान सभा सीटों पर चुनाव नहीं लड़ सकता है, लेकिन वोट दे सकता है, वो ब्राह्मण है, जिसके हित के लिए आज तक कोई आयोग नहीं बना, वो ब्राह्मण है जिसके लिए कोई सरकारी योजना न बनी हो, वो  ब्राह्मण है। 
जिसके साथ देश का संविधान भेदभाव करता है, वो ब्राह्मण है, मात्र जिसको सजा देने के लिए NCSC और NCST का गठन किया गया वो ब्राह्मण है। मात्र जिसे सजा देने के लिए हर जिले में विशेष SC/ST न्यायालय खोले गए हैं, वो अभागा  ब्राह्मण है। 
जो स्कूल में अन्य वर्गों के मुकाबले चार गुनी फीस दे कर अपने बच्चों को पढाता है, वो बेसहारा ब्राह्मण है। 
नौकरी, प्रमोशन, घर आवंटन आदि में जिसके साथ कानूनन भेदभाव वैध है वो बेचारा ब्राह्मण है। 
सरकारों व सविधान द्वारा सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया जाने वाला वो ब्राह्मण है। 
सबसे ज्यादा वोट देकर भी खुद को लुटापिटा-ठगा सा महसूस करने वाला वो ब्राह्मण है। 
सभाओं में फर्श तक बिछा कर एक अच्छी सरकार की चाह में आपको सत्ता सौंपने वाला वो ब्राह्मण है। 
देश हित मे आपका तन, मन, धन से साथ देने वाला वो ब्राह्मण है।
इतने भेदभाव के बावजूद भी, धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो की भावना जो रखता है, वो ब्राह्मण है।
BRAHMANS TODAY वर्तमान में ब्राह्मण :: It's very-very difficult, rather impossible to follow-observe the self imposed restrictions, prohibitions, dictates in the life of a Brahmn. It's clearly the reason behind the evolution of the tree of Varn, caste-creed in Hindu religion-society.
One is free to become a Brahmn just by following the long-long list of do's and don'ts.
Daksh Prajapati, who was born out of the right foot-toe of Brahma Ji, may be treated as a Shudr (born out of the feet of Brahma Ji).
His 13 daughters, who were married to Kashyap-a Brahman,  followed the dictates of Shashtr; gave birth to all life forms on including Rakshas, Demons, Giants, Yaksh, Shudr, Mallechchh (Christians & Muslims) earth.
Sanctity, righteousness, asceticism, virtuousness, religiosity, truthfulness, purity, piousity, poverty, donations, charity, kindness, fasting, contentedness, satisfaction, teaching and learning Veds, Purans, Epics, Shashtr, harmony, peace, soft spokenness, decent behaviour, tolerance, highly developed fertile creative brain, excellent memory-power to retention-grasp, not to envy, anger, greedy, perturbed, tease are synonyms to a Brahmn. 
Today's Brahmns are Brahmns only for the name sake. They are just the carriers of the genes, chromosomes, DNA of their ancestors, Rishis, forefathers. They are changing with the changing times and do not hesitate-mind, adopting any profession, trade, business, job for the sake of earning money for survival, in the ever increasing race of fierce competition-in a world, which is narrowing down-shrinking, day by day, in an atmosphere of scientific advancement, discoveries, innovations, researches. However, whichever is the field, they work-choose, they assert their excellence-highly developed mental calibre, capabilities, capacities and move ahead of others, facing-tiding over, all turbulence, difficulties, resistances. What ever a Brahmn does, he should resort-revert back to prayers, devotion to God as and when he has time.


Thursday, April 4, 2024

विद्यार्थी LEARNER-SCHOLAR

विद्यार्थी LEARNER-SCHOLAR
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च; स्तब्धता चाभिमानित्वं तथात्यागित्वमेव च। एते वै अष्ट दोषा: स्यु: सदा विद्यार्थिनां मता:
आलस्य करना, मदकारी पदार्थों का सेवन, घर आदि में मोह रखना, चपलता-एकाग्रचित न होना, व्यर्थ की बात में समय बिताना, उद्धतपना (inaugurate) या जड़ता, अहंकार और लालची होना, ये विद्यार्थी के आठ दोष  माने गए है अर्थात् इन दुर्गुणों से युक्त को विद्या प्राप्त नहीं होती।[विदुर नीति 116] 
Evils-defects of a learner-student :- laziness, use of drugs-narcotics, attachment for the home, lack of concentration-frolic behaviour, versatility, wasting time in useless affairs, ignorance, ego and greediness.  
चंचलता :: बहुमुखी प्रतिभा, बहुविज्ञता; versatility.
सुखार्थिन: कुतो विद्या नास्ति विधार्थिन: सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥117॥
सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ? विधार्थी को सुख कहाँ? इसलिए जो सुख की चाहना करने वाला है, उसे विद्या की प्राप्ति की इच्छा छोड़ देनी चाहिए अथवा विद्यार्थी को सुख की इच्छा छोड़ देनी चाहिए।विदुर नीति 117] 
The student should not crave for comforts-luxury. The learner can have either education or comforts.
विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
विद्वता और राज्य अतुलनीय (इन दोनों की एक दूसरे से तुलना नहीं की जा सकती) हैं, राजा को तो अपने राज्य-देश में ही सम्मान मिलता है पर विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है। 
Enlightenment, learning, knowledge and kingdom-empire can never be compared. A king is honoured-respected in his own land, country, state, whereas the intellectual, scholar, philosopher is respected everywhere. 


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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
skbhardwaj1951@gmail.com

Sunday, December 5, 2021

सप्त मातृका

सप्त मातृका
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सप्तमात्रिरिका का उल्लेख महाशक्ति की सककारी सात देवियों के लिये हुआ है। ये देवियाँ हैं :- ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही और चामुण्डा अथवा नारसिंही। इन्हें 'मातृका' या 'मातर' भी कहते हैं।
मातृका का मूल शब्द मातृ है, जिसका अर्थ है माँ-mother. 
उनमें वह शक्ति है जो मातृ गुणों का प्रतीक है और इस ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों की रक्षक, प्रदाता और पालनकर्ता भी है। जिस प्रकार पृथ्वी की हर चीज सूर्य से अपनी स्रोत ऊर्जा प्राप्त करती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियाँ अपनी ऊर्जा मातृकाओं से प्राप्त करती हैं। मातृकाओं की तंत्र-विद्या में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि उनमें जन्मजात क्षमता है, जिस के फलस्वरूप वह स्वयं का प्रतिरूप बना सकती है और उनके प्रतिरूप भी अन्य शक्तियों और रूपों को जन्म दे सकते हैं। वह अपने सूक्ष्म रूप में हर जगह और हर चीज में है, लेकिन यह मान्यता है कि वे अपने प्रकट रूप में ब्रह्मांड में उपस्थित है और आठ दिशाओं पर शासन करती है जो अनंत का भी प्रतीक है।
उत्पत्ति के पूर्व मातृका हमेशा अपने मूल रूप योगमाया (आदि माता भगवती (mother nature) के रूप में मौजूद रहती हैं और वे इस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च शक्ति है। भगवान् शिव परम देव हैं और उनके भीतर योगमाया निवास करती हैं। योगमाया के कारण, शिव को ईश्वर माना जाता है, योगमाया की शक्ति के अभाव में शिव एक शव तुल्य हो जाते है।
वह सृष्टि के पहले भी शिव के भीतर विद्यमान थी। हर विध्वंस का एक सही समय होता है, जैसे प्रकृति एक फूल को अपने चरम तक खिलने देती है और फिर उसे मुरझा कर नष्ट कर देती है, जिससे नए फूलों को खिलने का अवसर मिलता है, वैसे ही शिव का प्रमुख कर्तव्य है कि पहले की सभी कृतियों के अस्तित्व को जड़ से मिटा दें ताकि नव-निर्माण हो सके।
ऐसा करने के लिए भगवान शिव को शक्ति और ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो ब्रह्माण्ड को एक फूल की तरह खिलने के लिए पोषित कर सके, ठीक उसी तरह जिस तरह एक मां की अपनी नई रचना के पोषण के लिए आवश्यक होता है। इस ऊर्जा को मातृ पुंजा कहा जाता है, जो स्वयं को द्विगुणित या जनन करके इस ब्रह्माण्ड-universe के हर हिस्से में अपने आप को विलय कर देती हैं । इस प्रकार मातृका सृष्टि में हर जगह मौजूद हो जाती हैं। उनकी वजह से है ब्रह्माण्ड आत्म-पालन और आत्म-पोषण कर सकता है, यह तब तक चलता रहता हैं जब तक कि महाप्रलय (Ultimate devastation, annihilation) नहीं हो जाता। एक रचना के विनाश के बाद, दूसरी एक नई रचना होती है और यही मातृकायें फिर से नए ब्रह्मांड के निर्वाहक और पोषणकर्ता की भूमिका निभाती है। यह क्रम अनवरत चलता रहता है।
शिव और योगमाया हिमालय के कैलाश पर्वत से संतों और ऋषियों को आगम-निगम की ज्ञानमयी बुद्धि प्रदान करने के लिए उतरे। वे अक्सर तंत्र-मंत्र के बारे में एक-दूसरे के साथ बातचीत में संलग्न होते थे और उन वार्ता को संतों के साथ-साथ सिद्धियों और महर्षि विश्वामित्र ने भी सुना था। उन्होंने फिर इन वार्ताओं की सांकेतिक भाषा का सरलीकरण कर के इस ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया।
यस्य देवस्य यत्रूपं यथाभूषण वाहनम्।
युद्ध में चण्डिका की सहायता के लिए सप्त मातृकाएं उत्पन्न हुईं थीं। ये सप्त मातृकाएं चण्डिका में समावित हो गई। इन्हीं सप्त मातृकाओं की सहायता से देवी ने रक्त बीज का वध किया था। ये सात देवियाँ अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहाँ उपस्थित होती हैं।[मार्कण्डेय पुराण] 
माँ दुर्गा ने स्वयं मातृकाओं की रचना की। जब दैत्य शुम्भ दुर्गा को युद्ध में चुनौती देता है, तब माता दुर्गा ने इनकी मदद से राक्षस सेना का वध किया। उसके बाद राक्षस रक्त बीज के रक्त को चूस कर उसका वध भी किया। देवी दुर्गा कहती हैं कि यह सभी मेरे ही रूप हैं और अंतत: ये सब मुझ में ही समाहित हो जातीं हैं। यहाँ काली को एक मातृका के रूप में वर्णित किया गया हैं। चंड-मुंड का संहार करने के लिये काली को चामुण्डा भी कहा गया है।[देवी महात्म्यम]
हिरण्याक्ष राक्षस का पुत्र (adopted son) अंधक (माता पार्वती और भगवान् शिव का पुत्र) भगवान् शिव का परम भक्त था। भगवान् शिव ने उसे वर प्रदान किया था रणभूमि में तुम्हारे लहू के हर एक बूँद से नया अंधकासुर उत्पन्न होगा, जिसे कारण तुम युद्ध में अजेय होगे। भगवान् शिव के इस आशीर्वाद के कारण, सारी पृथ्वी अंधकासुरों से त्रस्त हुयी । फिर इन अंधकासुरों का लहू चुसने के लिए भगवान् शिव ने ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि सात मातृकाओं का निर्माण किया। इन्होने अंधकासुर का सारा लहू चूस लिया एवं तत्पश्चात् भगवान् शिव ने अंधकासुर का वध किया। अंधकासुर का वध होने के पश्चात्, भगवान् शिव के द्वारा उत्पन्न सात मातृका पृथ्वी पर के समस्त प्राणिजात का लहू चूसने लगी । फिर उनका नियंत्रण करने के लिए, भगवान् शिव ने नृसिंह का निर्माण किया, जिसने अपने जिह्रादि अवयवों से घंटाकर्णो, त्रैलोक्यमोहिनी, आदि बतीस मातृकाओं का निर्माण किया। इन बतीस मातृकाओं ने सात मातृकाओं को शांत किया। नरसिंह ने मातृकाओं को दुनिया को नष्ट करने बजाय उस की रक्षा करने की आज्ञा दी, जिस से वे माता के रूप में पूजित हो जायें। इस तरह मातृकायें एक तरफ देवताओं की युद्ध में मदद करने वाली शक्तियाँ हैं, जो शत्रु-संहारक की भूमिका निभाती हैं, दूसरी ओर पालनकर्ता वाला रूप भी हैं।[मत्स्य पुराण, विष्णु धर्मोत्तर पुराण]
सप्त-मातृकाओं की रूपकात्मकता :: भगवान् शिव ज्ञान की आत्मा हैं। अंधक अज्ञानता या अंधकार का प्रतिनिधित्व करता है। जितना अधिक ज्ञान अज्ञान पर हमला करता है, उतना ही अधिक यह उठता हैं और बढ़ता है। यह अन्धकासुर का बहुलीकरण हैं और दूसरे क्रम के उप-असुरों के जन्म द्वारा दर्शाया गया है। जब तक आठ अवगुण :- काम, क्रोध, लोभ, मद या घमंड, मोह या भ्रम, ईर्ष्या, निंदा और द्वेष को ज्ञान के नियंत्रण और संयम में नहीं रखा जाता तब तक यह अंधकार को समाप्त करने में कभी भी सफलता नहीं मिल सकती।
मातृकायें आत्म ज्ञान हैं, जो अज्ञानता रूपी अंधकासुर के विरूद्ध युद्ध करती हैं।मातृकायें शरीर के मूल जीवंत अस्तित्व पर शासन करती हैं।[वराह पुराण]
मातृकाओं को शरीर के उपरोक्त मूल जीवंत अवयवों की अधिदात्री माना जाता हैं :-
ब्राह्मणी :- त्वचा,
माहेश्वरी :- रक्त,
कौमारी :- मांसपेशियां,
वैष्णवी :- हड्डी,
ऐंद्री :- अस्थि मज्जा,
चामुंडा :- वीर्य।
मातृकाओं को तेजस्वी, कृपापात्री, परोपकारी और देखभाल करने वाली देवी माताओं के रूप में चित्रित किया गया है। मातृकाये बच्चों को अपनी गोद में लेकर रखती हैं और उसी के साथ वे अस्त्र-शस्त्र भी अपने दूसरे हाथों में पकड़ती हैं। मातृकाओं की ये प्रतिमायें पौराणिक प्रतीकों और अभिव्यक्ति का सुन्दर सामंजस्य था, जो आज तक चला आ रहा हैं। भारत में सप्तमातृकाओं की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी जाती हैं :-
(1). स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा,
(2). आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं,
(3). नृत्यरत प्रतिमा।
मातृकाओं के चार हाथ हैं व गोद में शिशु है। कुछ प्रतिमाओं में उनके वाहन और ध्वजा को अंकित किया गया है तो कुछ स्थानों में उनके आसनों के रूप में उनके वाहन या सवारी का अंकन भी मिलता है। सप्त मातृका के आरम्भ में वीरभद्र और अंत में गणेश की प्रतिमा होनी चाहिए।[विष्णुधर्मोत्तर और सुत्रधार मंडन रचित ग्रंथ रूपमंडन]
सप्तमात्राओं का देवी स्वरूप :: 
(1). ब्रह्माणी की प्रतिमा में उनका रंग सुनहरा और उनके चार सिर व चार भुजाएं हैं। एक हाथ वरद मुद्रा में तो दूसरा अभय मुद्रा में और तीसरे हाथ में यज्ञपात्र है। इनका वाहन हंस है और गोद में शिशु है।
(2). माहेश्वरी का रंग गोरा हैं और जटाओं में अर्धचंद्र हैं। उनका वाहन नंदी है, चर्तु भुजाओं में त्रिशूल, अक्षमाला, खड्ग और एक हाथ अभय मुद्रा में है।
माहेश्वरी भगवान् शिव की शक्ति हैं, जिन्हें महेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। माहेश्वरी भी भगवान् शिव के नामों के अनुरूप यथा रुद्राणी, महिषी, रौद्री और शिवानी जानी जाती हैं माहेश्वरी को नंदी-धर्म पर बैठे हुए चित्रित किया गया है और उनके चार या छह हाथ हैं। माहेश्वरी सफेद स्वरूपित, त्रिनेत्र त्रिशूल, डमरू, अक्षमाला, पानपात्र, कुल्हाड़ी, मृग या एक कपाल-खोपड़ी सर्प और सर्प कंगन, अर्धचंद्राकार और जन मुकुंद से सुशोभित हैं ।
(3). कौमारी के छः सिर और दस हाथ हैं उनका केश विन्यास भी कार्तिकेय की तरह है। उनका वाहन मयूर है। वे अपने हाथों में शक्ती, ध्वाजा, दण्ड, धनुष, बाण, अक्षमाला, कुक्कुड और कमंडलु धारण करती हैं। उनके दो हाथ अभय और वरद मुद्रा में हैं।
कौमारी को कुमारी, कार्तिकी, कार्तिकेयनी और अंबिका के नाम से भी जाना जाता है। युद्ध के देवता भगवान् कार्तिकेय की शक्ति हैं। कौमारी एक मोर की सवारी करती है और उसकी चार या बारह भुजाएँ होती हैं। वह एक भाला, कुल्हाड़ी, एक शक्ति (शक्ति) या टंका (चांदी के सिक्के) और धनुष रखती है। उसे कभी-कभी कार्तिकेय की तरह छह सिरों वाला चित्रित किया जाता है और एक बेलनाकार मुकुट पहनता है।
(4). वाराही धूम्रवर्णीया और विष्णु के वराह अवतार की तरह चेहरा वराह का व धड़ मनुष्य का है। वराहपुराण के अनुसार चर्तुभुजी प्रतिमा का वर्णन है जिन मे वे दंड़, खड्ग, खेतका और फाश धारण करती है। वाहन के रूप में कहीं मेष तो कहीं भैंसा अंकित रहता है।
वाराही या वैराली विष्णु के तीसरे और सूअर के सिर वाले वराह की शक्ति है। वह एक डंडा (दंड की छड़ी) या हल, बकरी, एक वज्र या तलवार और एक पनपात्रा रखती है। कभी-कभी, वह एक घंटी, चक्र, चमरा (एक याक की पूंछ) और एक धनुष रखती है । वहअन्य गहनों के साथ करण मुकुंद नामक मुकुट पहनती है।
(5). वैष्णवी का रंग गहरा और सौम्य रूप हैं, आभूषण और वनमाला पहने हुये हैं। उनके दो हाथों में शंख व चक्र हैं तो तीसरा हाथ अभयमुद्रा में व चौथे में शिशु को गोद में लिए हुए हैं। इनकी सवारी विष्णु की तरह गरूड़ ही है।भगवान् श्री हरी विष्णु की तरह, वह हार, पायल, झुमके, चूड़ियाँ आदि जैसे गहनों से सुशोभित हैं और एक बेलनाकार मुकुट जिसे किरीश मुकुंद कहा जाता है।
(6). ऐन्द्री या इन्द्राणी का रंग सुनहरा लाल हैं और वे अपने वाहन हाथी पर विराजमान है। उनके दो हाथ क्रमश: अभय तथा वरद मुद्रा में व तीसरे हाथ में आयुध के तौर पर वज्र और चौथे हाथ में शिशु विराजमान है।
इंद्राणी देवराज इन्द्र की शक्ति हैं। उन्हें हाथी पर बैठे ऐंद्री को दो या चार या छह भुजाओं के साथ गहरे रंग के चित्रित किया गया है। उसे दो या तीन या इंद्र की तरह, एक हजार आंखों के रूप में चित्रित किया गया है। वह वज्र (वज्र), बकरी , फंदा और कमल के डंठल से लैस है। तरह-तरह के गहनों से सजी, वह किरिष्ट मुकुंद पहनती हैं।
(7). चामुण्डा का रंग गहरा लाल हैं और लगभग काली की तरह ही रौद्र मुखमुद्रा व गले में मुण्डमाल शोभित है। उनके हाथों में कपाल, शूल, नरमुण्ड तथा अग्नि है व वाहन श्रृगाल यानी सियार है। खजुराहो में प्राप्त चामुंडा की प्रतिमा के छ: हाथ हैं जिनमें डमरू, त्रिशूल, अंकुश, खप्पर व नरमुंड और अग्नि हैं।
BHAGWAN SHIV, SAPT
 MATRKA & GANPATI
उन्हें चामुंडी और चर्चिका भी कहा जाता है, चामुंडा भगवान् शिव की शक्ति है। वह अक्सर काली के साथ पहचानी जाती है और उसकी उपस्थिति और आदत में समान है। काली के साथ पहचान देवी महात्म्य में स्पष्ट है। काले रंग के चामुंडा को कटे हुए सिर या खोपड़ी (मुंड माला) की माला पहने हुए और डमरू, त्रिशूल, तलवार और पानी पात्र (पीने का बर्तन) धारण करने के रूप में वर्णित किया गया है। उन्हें सियार की सवारी या एक आदमी (की एक लाश पर खड़ी, वह तीन आँखों होने, एक भयानक चेहरा और एक धँसा पेट के रूप में वर्णित किया गया है।

    
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Wednesday, November 24, 2021

BRAHMAN ब्राह्मण

 ब्राह्मBRAHMAN
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]  
ब्राह्मण शब्द ब्रह्म से बना है। जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर अन्य किसी को नहीं पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है। पंडित तो किसी विषय के विशेषज्ञ को कहते हैं और जो कथा बाँचता है, वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है, वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता, वह ब्राह्मण नहीं। स्मृति पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है :- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊँचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे।
सागरे सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे॥
चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः।
सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया॥
अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि।
नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता॥
पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में है। चार वेद उसके मुख में हैं,  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसलिये ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है। पृथ्वी पर ब्राह्मण विष्णु रूप है, इसलिए जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष नहीं करना चाहिए। 
देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता:।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता॥
सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं, इस कारण ब्राह्मण देवता हैं।
जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।
विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्॥
ब्राह्मण के बालक को जन्म से ही ब्राह्मण समझना चाहिए।
यह उस व्यक्ति के लिये है जो मनसा, वचना कर्मणा ब्राह्मण है। जन्म से ब्राह्मण होना निरर्थक है।
संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है। जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राह्मण परम पूजनीय माना गया है।
पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।
अस्यैव दर्शनान्नित्यं, अश्वमेधादिजं फलम्॥
जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्ति मार्ग पर अग्रसर करता है, जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है, ऐसे ब्राह्मण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।
पितामह भीष्म जी ने पुलस्त्य जी से पूछा :-
गुरुवर! मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
पुलस्त्य जी ने कहा :-
राजन! इस पृथ्वी पर ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्री सम्पन्न होता है। तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं। ब्राह्मण देवताओं का भी देवता है। संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है। वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है। ब्राह्मण सब लोगों का गुरु, पूज्य और तीर्थ स्वरुप है।
पूर्वकाल में नारद जी ने ब्रह्मा जी से पूछा :- किसकी पूजा करने पर लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं!?
ब्रह्मा जी बोले :- जिस पर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, उस पर भगवान् श्री हरी भगवान विष्णु भी प्रसन्न हो जाते हैं। अत: ब्राह्मण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रह्म  परमेश्वर परमात्मा को प्राप्त होता है। ब्राह्मण के शरीर में सदा ही भगवान् श्री हरी विष्णु का निवास है। जो दान, मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।
जिसके घर पर आया हुआ ब्राह्मण निराश नही लौटता, उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।
पवित्र देश काल में सुपात्र ब्राह्मण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है। वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है, उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है। जिस घर के आँगन में ब्राह्मणों की चरण धूलि पड़ने  से वह पवित्र होते हैं, वह तीर्थों के समान हैं।
न विप्रपादोदककर्दमानि, न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि। 
स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि, श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि॥
जहाँ ब्राह्मणों का चरणोदक नहीं गिरता,जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,जहाँ स्वाहा, स्वधा, स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है। वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो, तब भी वह श्मशान के समान है।
भीष्मजी! पूर्वकाल में भगवान् श्री हरी विष्णु के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।
पितृयज्ञ (श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं।
ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं। ब्राह्मण के बिना दान, होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।
जहाँ ब्राह्मणों को भोजन नहीं दिया जाता, वहाँ असुर, प्रेत, दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं।
ब्राह्मण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।
उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है। ब्राह्मणों को देखकर भी प्रणाम न करने से, उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है, धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।
Merely on the basis of birth, one can not claim to be a Brahman.
चौ पूजिय विप्र सकल गुनहीना। शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा
कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा। एहिसम विजयउपाय न दूजा॥
[रामचरित मानस]
ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय, गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय, गोविन्दाय नमोनमः॥
जगत के पालनहार गौ, ब्राह्मणों के रक्षक भगवान् श्री कृष्ण कोटिशः वन्दना करते हैं।
जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थ ल पर धारण करते हैं, उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।
ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है, ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।
ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है, ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।
ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है, ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।
ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है, ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।
ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है, ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।
ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है, ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान् है।
ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है, ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।
ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है, ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।
ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है, ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।
ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है, ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए बेद कीर्तिवान है।
ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है, ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।
ब्राह्मण संकुचित विचार धाराओं  से परे एक नाम है।
ब्राह्मण-परम्परा :: एक कुलीन ब्राह्मण को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न 11 (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए :-
गोत्र, प्रवर, वेद, उपवेद, शाखा, सूत्र, छन्द, शिखा, पाद, देवता और द्वार।
(1). गोत्र :- गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषि कुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है। किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया। इन गोत्रों के मूल ऋषि – विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इन गोत्रों के अनुसार इकाई को "गण" नाम दिया गया, यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ ।
गोत्र शब्द एक अर्थ में गो अर्थात् पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है। गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे, वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई। जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है यथा :-
(1.1). गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है।
(1.2). गोत्रों से व्‍यक्ति के सम्बन्धों की पहचान होती है।
(1.3). गोत्र से सम्बन्ध स्थापित करने में सुविधा रहती है।
(1.4). गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है।
​(1.5). गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।
(2). प्रवर :- प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ"। अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।
(3). वेद :- वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है, इनको सुनकर याद किया जाता है, इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन-अध्यापन करता है।
(4). उपवेद :- प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये।
(5). शाखा :- वेदों के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है, कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
(6). सूत्र :- व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !
(7). छन्द :- उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परा सम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए ।
(8). शिखा:- अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है।
(9). पाद :- अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं। ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है। अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं।
(10). देवता :- प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता [गणेश, विष्णु, शिव, दुर्गा,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक] उनके आराध्‍य देव है। इसी प्रकार कुल के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों [माता-पिता आदि] के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है। एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए। 
(10.1). इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी।
(10.2). कुल देवता अथवा कुल देवी।
(10.3). ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी।
(11). द्वार :- यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता ) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार होता है।
ब्राह्मण ::
भगवान् श्री राम  ने परशुराम जी से कहा :-
देव  एक  गुन  धनुष  हमारे। नौ गुन  परम  पुनीत तुम्हारे॥
हे प्रभु हम क्षत्रिय हैं, हमारे पास एक ही गुण अर्थात धनुष ही है, आप ब्राह्मण हैं, आप में परम पवित्र 9 गुण हैं।[राम चरित मानस] 
ब्राह्मण के नौ गुण :-
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः॥
रिजुः :- सरल हो, 
तपस्वी :- तप (मेहनती-परिश्रमी) करने वाला हो, 
संतोषी :- मेहनत की कमाई पर  सन्तुष्ट रहनेवाला हो, 
क्षमाशीलो :- क्षमा करनेवाला हो,
जितेन्द्रियः :- इन्द्रियों को वश में रखनेवाला हो,
दाता :- दान करने वाला हो,
शूर :- बहादुर हो,
दयालुश्च :- सब पर दया करने वाला, ब्रह्म ज्ञानी हो।
[राम चरित मानस]
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। 
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों को वश में करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर, लोक-परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्था रखना, ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.42]   
Equanimity, serenity, self control-restraint, peace loving, tolerance (bearing of pain, difficulty, suffering, inconvenience, hardship, torture, righteous or devout conduct to carry-out religious faith-duties), purity-austerity and cleansing (internal and external), faith in eternity, forgiveness, honesty, uprightness-simplicity of body and mind, wisdom-knowledge of Ved, Puran, Upnishad, Itihas (History) Brahmans are the natural duties-qualities of the Brahmns.
ब्रह्म कर्म, सत्वगुण की प्रधानता, ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण-लक्षण हैं। इनमें उसको परिश्रम नहीं करना पड़ता। 
शम :: मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहां से हट जाये।
दम :: इन्द्रियों को वश में रखना।
तप :: अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।
शौच :: मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। क्षान्ति-बिना क्षमा माँगे ही क्षमा करना। आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों। ज्ञान-वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण। 
आजकल के ब्राह्मण में कलयुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और कुछ को छोड़ कर शेष नाम मात्र के ब्राह्मण हैं। केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता; उसे ब्राह्मण उसके माँ-बाप, गुरु जनों द्वारा शिक्षा-दीक्षा से बनाया जाता है। 
A Brahman is deemed to have self control over his senses, organs and the mind in order to fix and channelize the brain and energies as per his own will and desire. It enables him to utilise, divert or restraint his capabilities in best possible manner for the service of mankind, humanity and society.
He is capable of bearing with pain, insult, torture, difficulty, suffering, inconvenience, hardship and wretchedness, while carrying out righteous or devout conduct, duties. He restrains himself, though capable of repelling wickedness and improper conduct.
During the current cosmic era-Kali Yug the Brahman is the most deprived lot. He has to accept various jobs for his survival in addition to performing his traditional duties, Pooja-Path (Prayers associated with enchantment of verse devoted to the Almighty), Yagy, Hawan, Agni Hotr (Holy sacrifices in holy fire), study of Veds, scriptures and guiding, motivating the public to seek Moksh.
He has to ascertain purity of body, mind and soul, senses, organs; purity of food, drinks and behaviour. Maintenance of good habits of excretion, bathing are essential for him, in daily routine. He should ad-hare to pious behaviour, virtuous and ethical conduct. He is always soft and polite and uses decent, dignified, distinguished language. He never uses harsh words or language.
Those who migrate to other countries forget all these things and adopt them selves to those circumstances-situations. Still the prudent never forget these and seek guidance from learned, enlightened.

He forgives, without being asked happily, though cable to punish with the strength, power and might possessed by him. He is immune to defamation, back biting and insult.
He bears simple cloths. He is simple, honest and open. He is free from cheating, cunningness,  trickery, fraud, deceit, deceiving, ill will etc.
He studies and learns Ved, Puran, Upnishad, Brahman, Ramayan, Mahabharat, Geeta and History; acquires the knowledge of various other scriptures to understand, accept and act in accordance with them. He has the understanding and experience of do’s and do not’s of performing Vedic rites, sacrifices and scientific methods.
He has firm faith and belief in God, Ved, other Abodes (life after death, rebirth) and respects and honour them. A Brahmn is not burdened to act in accordance with them, since he is born in such families, where purity of blood has been maintained. He has the natural Brahmanical tendencies (DNA, chromosomes, genes) in him due to the atmosphere, company and association. Importance is not given to the means of livelihood-earning for living due to the presence of Satvik characters, practice, company, self study. It’s for the society to take care of him, since he is the real owner of the earth and all means of livelihood.
A Brahmn has to be an ideal person with high moral character, values, virtues and dignity. He should command respect in the society. He should purify and sanctifies himself every day, in the morning by bathing, prayers and rituals. He is a devotee of the God with simple living and high thinking. He learns and acquires the knowledge of various Vedic literature  He himself accepts donations and distributes the surplus, among the ones who are in need of them. He teaches and guides the students and disciples. He is free from ill will, anger, envy and prejudices. He is always soft and polite, with graceful-refined decent tone, language and behaviour. He is revered in the society in high esteem and is ready to help anyone and everyone. He is simple and down to earth, in behaviour and practice. He observes fast on festivals. He is away from wine, woman, narcotics, drugs, meat, fish and meat products. He adhere to ascetic practices and performs Hawan, Yagy, prayers and religious ceremonies as per calendar, on the prescribed dates auspicious occasions and schedule. He has conquered his desires.
Brahmns have originated from the forehead of Brahma. They are the mouth of the community and the store house of knowledge and wisdom. Teaching, educating, showing the right direction and preaching the four Varn are the pious duties of a Brahman. Anyone who is a Brahman by birth, but do not possess the Brahmnical qualities, characters, virtues, morals, wisdom is not considered to be a Brahman. The Brahmans who are corrupt in respect of food, habits, behaviour, devoid of Bhakti, devotion to God are considered to be inferior to lower castes.
Anyone who insults, misbehaves a Brahman and invite his wrath, has his abode in the hells. His life is cursed and all sorts of pains-sorrow, tortures, insults comes to him uninvited.
दैवाधीनं  जगत सर्वं, मन्त्रा  धीनाश्च  देवता:। 
ते मंत्रा: ब्राह्मणा धीना:, तस्माद्  ब्राह्मण देवता:॥
धिग्बलं क्षत्रिय बलं, ब्रह्म तेजो बलम बलम्।
एकेन ब्रह्म दण्डेन, सर्व शस्त्राणि हतानि च॥
तात्पर्य यह है कि मनुष्य गुण से हारे हैं। त्याग तपस्या गायत्री सन्ध्या के बल से और आज लोग उसी को त्यागते जा रहे हैं और पुजवाने का भाव जबरजस्ती रखे हुए हैं। 
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या। वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्॥
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं। छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्॥
वेदों का ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल (जड़) दिन के तीन विभागों :- प्रातः, मध्याह्न और सायं सन्ध्या काल के समय यह  तीन सन्ध्या (गायत्री मन्त्र का जप) करना है, चारों वेद उसकी शाखायें हैं तथा  वैदिक धर्म के  आचार विचार का पालन करना उसके पत्तों के समान हैं। अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि इस सन्ध्या रूपी मूल की यत्नपूर्वक रक्षा करें, क्योंकि यदि मूल ही नष्ट हो जायेगा तो न तो शाखायें बचेंगी और न पत्ते ही बचेंगे।
ब्राह्मण :: 
ब्राह्मण  को डुबोने वाली तीन वस्तुएँ :- दारु, दोगङ, दगा।
ब्राह्मण  के लिये जरुरी तीन :- शिखा, सूत्र, संध्या।
ब्राह्मण  को प्रिय तीन :- न्याय, नमन, आदर।
ब्राह्मण  को अप्रिय तीन :- अपमान, विश्वासघात, अनादर।
ब्राह्मण  को महान बनाने वाले तीन :- शरणागत रक्षक, दयालूता, परोपकार।
ब्राह्मण  के लिये अब जरुरी तीन :- एकता, सँस्कार, धर्म पालन।
ब्राह्मण  के लिये छोङने वाली तीन :- बुरी संगत, आलस, आपसी मनमुटाव।
ब्राह्मण  को जोङने वाली तीन :- गौरवशाली इतिहास,  परम्पराएँ, आदर्श।  
भारत के क्रान्तिकारियों में  90% क्रान्तिकारी ब्राह्मण थे।   
ब्राह्मण स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी :- चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर), बाल गंगाधर तिलक, रानी लक्ष्मी बाई, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, मंगल पान्डेय, लाला लाजपत राय, देशबन्धु डा. राजीव दीक्षित, शिवराम राजगुरु, विनोबा भावे, गोपाल कृष्ण गोखले, पण्डित मदन मोहन मालवीय, डा. शंकर दयाल शर्मा, रवि शंकर व्यास, मोहनलाल पंड्या, महादेव गोविंद रानाडे, बाल गंगाधर तिलक, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, बिपिन चंद्र पाल, नर हरि पारीख, हरगोविन्द पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, बदरी दत्त पाण्डे, प्रेम बल्लभ पाण्डे, भोलादत पाण्डे, लक्ष्मीदत्त शास्त्री, मोरारजी देसाई, महावीर त्यागी, बाबा राघव दास, स्वामी सहजानन्द।  
बाह्मणों की उपेक्षा व तिरस्कार की बात सोचने मात्र से ही  सोचने वाले का सर्वस्व पतन होना शुरू हो जाता है।[अथर्व वेद के 5.19.10]
ब्राह्मण दान देने पे आया तो :- दधीचि,
दान लेने पे आया तो :- सुदामा,
परीक्षा लेने पे आया तो :- भृगु,
तपोबल पे आया तो :- कपिल मुनि,
अहंकार को दबाने पे आया तो :- अगस्त मुनि,
धर्म को बचाने पे आया तो :- आदि शंकराचार्य,
नीति पे आया तो :- आचार्य चाणक्य, 
हिंदुत्व रक्षक एवं स्वराज स्थापना पे आया तो :- पेशवा बाजीराव,
नेतृत्व करने पे आया तो :- अटल बिहारी,
बग़ावत पे आया तो :- मंगल पांडे,
क्रांति पे आया तो :- चंद्रशेखर आज़ाद,
संगठित करने पे आया तो :- केशव बलिराम हेगड़ेवार,
संघर्ष करने पे आया तो :- विनायक राव सावरकर,
निराश हुआ तो :- नाथु राम गोडसे
क्रोध मे आया तो :- परशुराम।
BRAHMAN SANSKAR-RITES  ब्राह्मण संस्कार ::  ब्राह्मण के तीन जन्म  होते हैं। (1). माता के गर्भ से, (2). यज्ञोपवीत से व (3). यज्ञ की दीक्षा लेने  से। यज्ञोपवीतके समय गायत्री माता व और आचार्य पिता होते हैं। वेद की शिक्षा देने से आचार्य पिता कहलाते हैं। यज्ञोपवीत के बिना, वह किसी भी वैदिक कार्य का अधिकारी नहीं होता। जब तक वेदारम्भ न हो, वह शूद्र के समान है।     
जिस ब्राह्मण के 48 संस्कार विधि पूर्वक हुए हों, वही ब्रह्म लोक व ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इनके बिना  वह शूद्र के समान है। 
गर्वाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकार के वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पञ्च महायज्ञ (जिनसे पितरों, देवताओं, मनुष्यों, भूत और ब्रह्म की तृप्ति होती है), सप्तपाक यज्ञ (संस्था-अष्टकाद्वय), पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, शूलगव, आश्र्वयुजी, सप्त हविर्यज्ञ (संस्था-अग्न्याधान), अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणि, सप्त्सोम (संस्था-अग्निष्टोम), अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। ये चालीस ब्राह्मण के संस्कार हैं। 
ब्राह्मण में 8 आत्म गुण :: 
अनसूया :- दूसरों के गुणों में दोष बुद्धि न रखना, गुणी के गुणों को न छुपाना, अपने गुणों को प्रकट न करना, दुसरे के दोष-अवगुण देखकर प्रसन्न न होना। 
दया :- अपने-पराये, मित्र-शत्रु में अपने समान व्यवहार करना और दूसरों का  दुःख दूर करने की इच्छा रखना। 
क्षमा :- मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना। क्षमाशील व्यक्ति महान माना जाता है। मेधातिथि तथा गोविन्दराज के अनुसार दूसरे के अपराध को सह लेना क्षमा है। क्रोध आने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। किसी के अपकार पर बदला न लेना क्षमा है। क्षमा के द्वारा ही विद्वान शुद्ध होता है। अपना अपमान सह लेना क्षमा है। अपमान को प्राप्त व्यक्ति सुख पूर्वक विचरण करता है तथा अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है। इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र साधन क्षमा है क्षमावान् मनुष्य को व्यक्ति मूर्ख विचारते हैं, यद्यपि वह स्वयं मूर्ख-अज्ञानी होते हैं। क्षमाशील व्यक्ति ही संतोष प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अपराध करें तब क्षमा द्वारा ही स्वयं सुख प्राप्त होता है तथा अपराधी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। यही उसके अपराध की सजा है। इस प्रकार भूलों से बचने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है तथा भूलों पर प्रायश्चित्त कर मन को निर्मल करने वाला व्यक्ति आत्म विजय का पथिक होता है। क्षमा का सभी धर्मों में गुणगान किया गया है। क्षमा की यह भावना भारतीय संस्कृति के प्राणों में बसी है। शान्ति ही जीवन के सुख की तुला है तथा यह शान्ति क्षमा भाव के द्वारा प्राप्त होती है। अतः मानव एक दूसरे से क्षमा माँगकर तथा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
अनायास :- जिन शुभ कर्मों को करने से शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म को हठात् न करना। 
मंगल :- नित्य अच्छे कर्मों को करना और बुरे कर्मों को न करना। 
अकार्पन्य :- मेहनत, कष्ट व न्यायोपार्जित धन से, उदारता पूर्वक थोडा-बहुत नित्य दान करना।  
शौच :- अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। शौच दो प्रकार का होता है :- वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है, किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है। आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं। जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है, वह पुरुष हजार बार मिट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते। मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है; अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये। शौचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है, उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे। मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है, मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो। शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है :- जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त। सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है। यदि जन्म समय में मरण-सूतक तथा मरण-सूतक में जन्म-सूतक हो जाये तो दोनों की शुद्धि मरण-सूतक के अशौचार द्वारा होती है। यज्ञ के समय में, विवाह में, देवपूजन में तथा अग्निहोत्र में अशौचार तथा सूतक दोनों नहीं होते हैं। वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत्। 
ते ह्येनं कुपिता हन्युः सद्यः सबलवाहनम्॥
अत्यन्त विपत्ति आने पर भी राजा ब्राह्मणों को कुपित न करे। यदि ब्राह्मण कुपित हो जायें तो सेना और वाहन के साथ उसका नाश कर देते हैं।[मनु स्मृति 9.313] 
The king should never anger-provoke the Brahmns under any-most difficult (intricate, typical) circumstances. Infuriated Brahmans can crush-destroy him along with his army and the carriers-vehicles.
One after another regimes lost their empire due to the anger of Brahmans. Recently the Muslim regime of Nehru dynasty was unseated. Now, its the turn of another party BJP, which has indulged in harming the Swarn especially the Brahmans.
Failure to help & support the rightful demands of teachers led to BJP's downfall in Delhi, although the Kejriwal government is more harmful to them.
यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्निरपेयश्च महोदधिः। 
क्षयी चाप्यायितः सोमः को न नश्येत् प्रकोप्य तान्॥
जिन्होंने (ब्राह्मणों ने) अग्नि को सर्वभक्षी, समुद्र को अपेय और चन्द्रमा को क्षय होने वाला बना दिया, भला उनके कुपित हो जाने पर कौन नष्ट नहीं होगा!?[मनु स्मृति 9.314] 
Who would escape unhurt-unharmed, by provoking-angering the Brahmns who made Agni Dev eater of every thing (whether good or bad), made ocean water unfit for drinking and made Moon with continuous loosing and gaining shine.
The Brahman has the strength due to his Tapasya-asceticism, self imposed suffering of surviving with minimum needs-requirements, facing extreme heat, cold and showers and worst ever social conditions as are prevailing at present. He is taunted, tortured, harassed, blasphemed by the Shudr.

लोकानन्यान्सृजेयुर्ये लोकपालांश्च कोपिताः।
देवान् कुर्युरदेवांश्च कः क्षिण्वंस्तान्समृध्नुयात्॥
कुपित होने पर जो अन्य लोकों की और लोकपालों की रचना कर सकते हैं और देवताओं को मनुष्य बना सकते हैं, उनको छेड़कर कौन समृद्धिशाली हो सकता है?![मनु स्मृति 9.315] 
Who can either prosper or retain his glory & wealth by disturbing-teasing the Brahmns, who are capable of creating new universes and appoint the governors-guardians of all directions?!
The manner, the impact of the remaining three cosmic era remain in a specific era, Brahmans with might, power Mantr Shakti remain in every era. The Sapt Rishis, Bhagwan Parshu Ram, Bhagwan Ved Vyas are still present over this earth. 88,000 Rishis are also meditating in the deep caves of Himalay, over laden with ice.
यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा। 
ह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात्ताञ्जिजीविषुः॥
जिनके आश्रय से लोक और देवता सदा रहते हैं, जिनका ब्रह्म ही धन है, उनको जीने की इच्छा वाला कौन सतायेगा?![मनु स्मृति 9.316] 
Who would trouble the Brahman desirous of life; who solely depends upon the God and whose support is essential for the universe to survive and existence of demigods?!

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्। 
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत्॥
जिस प्रकार वैदिक और अवैदिक रीति से स्थापित की हुई अग्नि महान देवता है, उसी तरह ब्राह्मण पंडित हो या मूर्ख, महान देवता है।[मनु स्मृति 9.317] 
The manner in which the fire is a great deity irrespective of its ignition through Vaedic (meant for oblations) or non Vaedik means (for cooking, burning the dead or waste); in the same manner the Brahmn too is a great demigod whether he is a Pandit (educated, scholar, learned, enlightened) of fool (uneducated, ignorant, imprudent, moron, duffer, idiot).

श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति। 
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते॥
श्मशान में भी तेजस्वी अग्नि दूषित नहीं होती और हवन करने से तो वह बढ़ती ही है।[मनु स्मृति 9.318] 
The fire in funeral pyre remain uncontaminated and become brilliant by carrying out Hawan.
Cremation through Vaedik procedures-means a process carried just like Agnihotr, Hawan, holy sacrifices with pure deshi ghee, wood, barley, honey etc.
Yagy-Hawan are the deeds-processes which cleanse the environment by killing germs, bacteria, viruses, microbes.
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु। 
सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्॥
उसी प्रकार सभी प्रकार के अपवित्र कार्यों में संलग्न रहने पर भी ब्राह्मण पूजनीय है, क्योंकि वह परम् देवता है।[मनु स्मृति 9.319] 
In this manner the Brahmn is revered in spite of engaging in impure activities (mean occupations, service) since he is the Ultimate demigod.
Circumstances may compel the Brahman to accept patty jobs for the sake of survival which do not degenerate-lower his status, since he is still busy with prayers, worship, devotion to the Almighty undertaking fasting, meditation, Yog, ascetics.

क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान्प्रति सर्वशः। 
ब्राह्मैव संनियन्तृ स्यात्क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम्॥
सब प्रकार से अत्यंत उत्कट रूप से ब्राह्मणों को पीड़ा देने वाले क्षत्रिय का शासन ब्राह्मण ही कर सकता है, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है।[मनु स्मृति 9.320] 
Only a Brahman can restrain-control, punish-discipline, the Kshatriy-ruler who torture-tease the Brahmans in all possible manner; since the Kshatriy has his origin in the Brahman.
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्। 
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति॥9.321॥ 
जल अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा उत्पन्न हुआ है। उनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में वे शान्त हो जाते हैं।[मनु स्मृति 9.321] 
Fire has evolved from water, Kshatriy has evolved from Brahman and iron has evolved from stone. In spite their might spreaded over the entire space they become quite when they meet their origin.
नाब्रह्म क्षत्रंमृध्नोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते। 
ब्रह्म क्षत्रं च सम्पृक्तमिह चामुत्र वर्धते॥
 बिना ब्राह्मण के क्षत्रिय की वृद्धि नहीं होती है और क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती। यदि ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों परस्पर मिले रहें तो यहाँ और परलोक दोनों जगह, दोनों की वृद्धि होती है।[मनु स्मृति 9.322] 
The Kshtriy can not progress prosper without Brahmans, Brahmans can not rise-prosper without Kshatriy. If both of them remain united they progress in this world and the next abode-incarnation.
The Kshatriy has valour, bravery, might and the Brahman has intelligence, prudence, diplomacy, power to administer without lust-greed. This combination is enough to increase the boundaries of state and keep the populace-subjects happy.

दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः सर्वदण्डसमुत्थितम्। 
पुत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत प्रायणं रणे॥
सभी प्रकार के दण्डों से पाये हुए धन को ब्राह्मण के सुपुर्द करके, अपने पुत्र को राज्य का दायित्व प्रदान कर राजा रण-युद्ध भूमि में प्रयाण करे।[मनु स्मृति 9.323] 
The king should depart for battle after handing over the responsibility of treasury (income & expenditure, arrivals-accruals through fines & punishments to enlightened-learned Brahmans and handing over charge of day today affairs to his son-heir (since there a chance of death during the war).
The heir apparent must be trained in administration, judiciary and war fare. He should be made courageous and ready to fight as well. He should be given chance-opportunity to fight in wars and battle as well, under protection of the worthy Guru. 
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद् वृत्त्युपायान् यथाविधि।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत्
ब्राह्मण सबकी वृत्ति का उपाय यथाविधि जानकर, उसका सब लोगों को उपदेश करे और स्वयं भी अपनी जीविका का उपाय करे।[मनु स्मृति 10.2 
The Brahman should find out, search, analyse the ways and means of all Varn (& castes & sub castes) for survival-subsistence and guide-direct them accordingly and should make efforts for his own subsistence as well.
Begging or accepting charity, donations-gifts, doles should never be the goal of a Brahmn. He may earn through Priesthood, performance of Yagy, Hawan, Agnihotr for others, teaching, astrology, medicine etc. He may earn his livelihood through other respectable means as well in addition to worship, prayers, meditations, ascetic practices side by side.
Its better to survive of own endeavours in comparison to accepting doles, charity, bribe or beggings, I personally feel as a Brahman.
वैशेष्यात्प्रकृतिश्रैष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात्।
संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः
अत्यन्त श्रेष्ठता, प्रकृति की श्रेष्ठता के कारण, नियमों को धारण करने में और संस्कारों की विशेषता से सभी वर्णों का स्वामी ब्राह्मण है।[मनु स्मृति 10.3  
On account of his excellence-pre-eminence, superiority of origin, subjecting himself to restrictions & observance of Sanskars (virtues, piousity, righteousness, honesty, truth, enlightenment, wisdom, prudence, intelligence, Mantr Shakti, valour, ethics, culture, sovereignty) the Brahman is Supreme and master-controller of all castes.
All Varn-castes have emerged out of the Brahmans depending upon nature, capability, capacity, traits, characters, mutations through various permutations & combinations of genes, chromosomes, DNA etc.
व्याघ्रानां महति निद्रा सर्पानां च महद् भयम्।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं तस्मात् जीवन्ति जन्तवः॥
शेरों को नींद बहुत आती है, साँपो को डर बहुत लगता है और ब्राह्मणों में एकता नहीं है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है। यदि शेर अपनी नींद का त्याग कर दे, साँप अपना डर छोड़ कर निर्भय हो जाये, और ब्राह्मण अनेकत्व छोड़ कर एक हो जाये तो इस संसार में दुष्ट जीवों का रहना मुश्किल-नामुमकिन हो जाये।
ब्रह्म हत्या :: जिस ब्राह्मण की हत्या की गई हो उसकी खोपड़ी के एक भाग का खप्पर बनाकर सर्वदा हाथ में रखे। दूसरे भाग को बाँस में लगाकर ध्वजा बनाए और उस ध्वजा को सर्वदा अपने साथ रखे। भिक्षा में उपलब्ध सिद्धान्न से अपना जीवन निर्वाह करे। इन नियमों का पालन करते हुए 12 वर्ष पर्यन्त तीर्थ यात्रा करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से छुटकारा मिलता है। एक ब्राह्मण की अथवा 12 गौओं की प्राण रक्षा करने पर अथवा अश्वमेघ यज्ञ, अवभृथ स्नान करने पर उपर्युक्त 12 वर्ष की अवधि में कमी होना सम्भव है।
गुरुरग्निद्विर्जातिनां वर्णानां ब्राह्मणों गुरु:।
पतिरेव गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याSभयाग्तो गुरु:॥
ब्राह्मणों को अग्नि की पूजा करनी चाहिए, दूसरे लोगों को ब्राह्मण की पूजा करनी चाहिए, पत्नी को  पति की पूजा करनी चाहिए तथा दोपहर के भोजन के लिए जो अतिथि आये उसकी सभी को पूजा करनी चाहिए।[चाणक्य नीति 5.1]
The Brahmans should worship Agni-the deity of fire (Agnihotr, Hawan, holy sacrifices if fire), other castes should worship Brahman, the wife should worship the husband and a guest who has arrived at the time of lunch should be worshipped by everyone. 
Agni is the deity of the Brahman, Kshatriy and Vaishy.  Brahman being the Guru of all the Varn (castes-sub castes) deserve to be respected, honoured, regarded. Husband is the Guru-guide of a woman. Guest is also considered to be a Guru, since he comes at random and goes back.
Brahman, Kshatriy and Vaeshy perform Agnihotr-pious fire, Hawan-Yagy to pray to the God and offer sacrifices to the deities at all auspicious occasions (there is no ban on such sacrifices by other Varn, castes, provided they are performed with devotion). Its, Agni-holy fire, who accepts sacrifices for all the angels, deities from the man kind, for their welfare, be it a candle, incense stick or Dhoop. (Varn :: Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr, Nishad, Yahudi (Jews, यहूदी)-Mallechchh (Christians & Muslims).
A woman should abide by the wishes of her husband instead of others, since he is more concerned about her as compared to them. Wife should not dominate her husband. Those women who dominate the husband normally, gives birth to female child. Husband may seek her opinion, consult her, time and again, pertaining to vital matters. Her thoughts-suggestions should be regarded, kept in the mind by the husband. She must not interfere with the day to day working of her husband. She should not allow unknown-known, person to stay at her home, in the absence of her husband under any circumstances. Earlier there used to be two sections of the house-Ghar (घर) meant for women and children and Gher (घेर, enclosure) meant for the male, animals, agriculture equipment in addition to guests.
During the current phase Brahmans are not enlightened or learned either. Most of them are unable to recite even a single Shlok-Mantr properly. Most of the Brahmans do not no Sanskrat. I studied Sanskrat to class 8
th only. So, I depend over others for translating Sanskrat text into English. Still, the community invite the Priests-Pujari for performing rituals, prayers at home. Do not expect the working women to worship the husband. Time is changing fast and unknown person should not be allowed entry in the house. 
एकाहारेण सन्तुष्टः षड्कर्मनिरतः सदा।
ऋतुकालेऽभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते
सही मायने में ब्राह्मण वही है जिसके 16 संस्कार हुए हों, दिन में एक बार भोजन करे, दिन में समागम न करे, महीने में केवल एक बार और केवल अपनी पत्नी के साथ ही समागम करे और वह भी महवासी की समाप्ति के बाद।
[चाणक्य नीति 11.12] 
In reality one is a Brahman whose 16 rites have been performed, if he survives over just one meal in a day, mates with his wife only, once in a month, after the menstrual cycles, during nights only. 
The Brahman who takes single meal to keeps the body fit-fine, tuned to maintain the purity-piousness of brain-mind, do his duties, rituals, prayers, Agnihotr-Hawan, Yagy regularly and mates with his wife only for producing children without lust, not as an object of sex. 
A Dwij is born twice, first from the womb and then through Janeu-sacred thread ceremony-education and 16 purification rites.
Its really difficult for the Brahman to follow the code of conduct meant for him in recent times. In the Kali Yug its quiet impossible. Still, exceptions are always there. Brahmans are Brahmans only for the name sake these days. They have started eating meat, drinking wine, smoking, trading and other acts which were taboo hither to, for them. One may find them indulging in all sorts of wretched deeds as criminals, politicians, policemen and even in judiciary.
The Brahman (Pandit, scholar, philosopher, learned, enlightened) used to survive over the fruits, bulbous roots grown over uncultivated land not meant for farming-agriculture, in the jungle-forest and make offerings every day for his ancestors-Pitres, were designated as Rishi.
Rishi, Brahm Rishi, Mahrishi, Dev Rishi are titles of the Brahmans who are engaged in asceticism, meditation, devout-profound meditation. Some depend over leaves of plants, others over fruits, bulbs, roots or simply air. Kshatriy (marshal castes in India) too undertake rigorous asceticism, meditation, fasting for the cleansing of body-mind and soul. Fasting is very common practice in India. Almost every mature Hindu believes in it, including the Shudr.
लाक्षादितैलनीलानां कौसुम्भमधुसर्पिषाम्।
विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शुद्र उच्यते
जो ब्राह्मण लाख, तेल, नील, रंगरेजी-वस्त्रादि, शहद, घी, शराब, माँस, मछली, अण्डा आदि के कारोबार में लगा है, वह शूद्र है।
[चाणक्य नीति 11.15] 
The Brahman who engage himself in trading of lac (shellac, sealing wax), oil, Neel (blue), cloth colouring (dying, printing, weaving, tailoring), honey, Ghee, wine, meat (egg, fish) etc. is termed as Shudr (lowest caste, Varn, segment in Hinduism).
This is how Brahmans lower down, degrade them selves in caste hierarchy. People often quote Manu Smrati as the propagator of caste system in India which clearly says the caste is determined by the deeds of one's profession-job. One can see how the caste system is formed due to the greed, needs, requirements of individuals. Its a fact that once a person adopted lower caste, he never went back to Brahmnical practices.
Millions of people were converted to Islam by the Muslim traitors. They still continue with the their caste hierarchy. Thousands of Brahmans were converted to Islam and forced to do the job of scavengers-sweepers. These people still work as Chudha-Bhangi but retain the title of their ancestors. If they make efforts they can easily turn into Brahmans again.
In reality one is a Brahman whose 16 rites have been performed, if he survives over just one meal in a day, mates with his wife only, once in a month, after the menstrual cycles, during nights only. 
The Brahman who takes single meal to keeps the body fit-fine, tuned to maintain the purity-piousness of brain-mind, do his duties, rituals, prayers, Agnihotr-Hawan, Yagy regularly and mates with his wife only for producing children without lust, not as an object of sex. 
A Dwij is born twice, first from the womb and then through Janeu-sacred thread ceremony-education and 16 purification rites.
Its really difficult for the Brahman to follow the code of conduct meant for him in recent times. In the Kali Yug its quiet impossible. Still, exceptions are always there. Brahmans are Brahmans only for the name sake these days. They have started eating meat, drinking wine, smoking, trading and other acts which were taboo hither to, for them. One may find them indulging in all sorts of wretched deeds as criminals, politicians, policemen and even in judiciary.
The Brahman (Pandit, scholar, philosopher, learned, enlightened) used to survive over the fruits, bulbous roots grown over uncultivated land not meant for farming-agriculture, in the jungle-forest and make offerings every day for his ancestors-Pitres, were designated as Rishi.
Rishi, Brahm Rishi, Mahrishi, Dev Rishi are titles of the Brahmans who are engaged in asceticism, meditation, devout-profound meditation. Some depend over leaves of plants, others over fruits, bulbs, roots or simply air. Kshatriy (marshal castes in India) too undertake rigorous asceticism, meditation, fasting for the cleansing of body-mind and soul. Fasting is very common practice in India. Almost every mature Hindu believes in it, including the Shudr.
परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छलीद्वेषी मदुक्रूरो मार्जार उच्यते
वह ब्राह्मण जो दूसरों के काम में अड़ंगे डालता है, दम्भी है, स्वार्थी है, धोखेबाज है, दूसरों से घृणा करता है और बोलते समय मुँह में मिठास और ह्रदय में क्रूरता रखता है, वह एक बिल्ली के समान है।
[चाणक्य नीति 11.16] 
The Brahman who thwarts-spoils works (virtuous efforts, pious endeavours, good projects) of others, is an hypocritical (impostor, dissembling, hypocrite, heretic), busy in own selfish motives, like a sharp knife-weapon from inside, cheat-envy others, but shows off as polite (soft-quiet) while speaking mildly, cherishes cruelty in his heart is termed as a male cat.
One should be careful-cautious with such people, having realised-identified them. One should remain at an arm's length-away from them. They are cunning-deceiving people. Cruelty lies in their brain.
Almost all politicians of today are made up of this stuff.
वापीकूपतडागानामारामसुखश्वनाम्।
उच्छेदने निराशंङ्क स विप्रो म्लेच्छ उच्यते॥11.17॥
जो ब्राह्मण तालाब, कुँए, पोखर, बाग-बग़ीचे, सामान्य जनों के दैनिक उपयोग की वस्तुओं यथा सड़क, नाली, विधालय, पुस्कालय और मंदिर को नष्ट करता है, वह मलेच्छ है।[चाणक्य नीति 11.17]  
The Brahman who destroy water bodies, ponds, wells, reservoirs, orchards, gardens, parks, public utilities, with out fear-shamelessly is described as a Mallechhe (i.e., Muslims & Christians) a category much much below the Shudr-Chandal & Nishad.
There is no place for destructive minds-people in Brahmnical culture-Hinduism. Such people are called out caste. They were made to stay out of the village.
Chanky observed Romans destroy farmers crops, house, looting their property, abducting men and women for slavery, destroying-spoiling temples and poisoning rivers and water bodies. Muslims proved to be more dreaded followed by Britishers.
Nehru a Muslim, called-titled himself a Pandit and befooled the entire nation-country. He did every thing to destroy Hinduism in associations with the communists.
धन्या द्विजमयी नौका विपरीता भवार्णवे।
तरन्त्यधोगता: सर्वे उपरिस्था: पतन्तयध:॥
वे मनुष्य धन्य हैं, जिन्होंने ब्राह्मण रूपी नौका का आश्रय लिया हुआ है; जो उन्हें भवसागर के पार उतार सकती है। जिन लोगों ने उनका सहारा नहीं लिया, उनका क्या होगा, यह कोई नहीं जानता।[चाणक्य नीति 15.13]   
In this universe the boat in the from of Brahman is praise worthy, virtuous-auspicious. It sails in an opposite, reverse direction in the ocean shaped universe. Those who remains below this boat seek help-shelter, depend over it, sail across the ocean and those who discard it, no one knows what happens to them.
Brahman forms the apex-peak of the population cone-pyramid. He is considered to be virtuous and honourable. Those households who behave gently, favourably-diligently with the deserving Brahmans definitely improve their next incarnations.
During the current era, its extremely difficult to find a true Brahman, since most of them are Brahmans by caste-Varn not by deeds.
After Maha Bharat the Brahmans degraded themselves especially after the on set of Buddhism. In todays world I find Brahmans who are unable to recite even a single Shlok properly. They do not possess the knowledge of epics, scriptures, Ved, Upnishad, Puran, Vedant, Ramayan & Maha Bharat.
पीत: क्रुद्धेन तातश्चरणतलहतो वल्ल्भो येन रोषाद्;
आबाल्याद्विप्रवर्यै: स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे।
गेहं मे छेदयन्ति प्रतिदिवस मुमाकान्त पूजा निमित्तं;
तस्मात्खिन्ना सदाहं द्विजकुलनिलयं नाथ युक्तं त्यजामि॥
भगवान् श्री हरी विष्णु ने माँ लक्ष्मी से उनके ब्राह्मणों के प्रति नाराजगी का कारण पूछा तो उन्होंने कहा, "मैं ब्राह्मणों के घर में इसलिये नहीं रहती क्योंकि, अगस्त्य ऋषि ने ग़ुस्से में समुद्र-मेरे पिता को पी लिया, भृगु ने आपकी छाती पर लात मारी, ब्राह्मण सरस्वती के पुजारी हैं और कमल के फूल भगवान् शिव को अर्पित करते हैं"।[चाणक्य नीति 15.16] 
Bhagwan Vishnu asked Maa Lakshmi, the reason of her anger towards the Brahmans. She said that August Rishi-a Brahman sucked the Ocean-her father, due to his anger. Bhragu again a Brahman struck you on the chest with his foot. The Brahman community keep praying your second wife Saraswati to seek her blessings in addition to plucking lotus flowers for offering to Bhagwan Shiv. 
The fact is that the Brahmans were neither greedy nor willing to acquire wealth; by nature. They were devoted to learning and enlightenment. Their motto was to attain Salvation-next step in incarnation. They worship Bhagwan Shri Hari Vishnu as the nurturer.
In today's times most of the Brahmans and Brahmans for the name sake only.
निन्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी।
सत्यं ब्रुवन् गुरवे कर्म कुर्वन् न ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात्
नित्य यथा समय स्नान आचमन करने वाला, नित्य अग्निहोत्रादी यज्ञ करने वाला, नित्य स्वाध्याय करने वाला, धर्मादी आचरण से पतित पुरुषों के अन्न, धन आदि से दूर रहने वाला, सत्य बोलने वाला और गुरु का कार्य करने वाला ब्राह्मण ब्रह्मलोक से नष्ट नहीं होता।[विदुर नीति 119]
The student (Brahman, celibate) who bathes regularly, performs holy sacrifices in fire, resort to self study, do not accept alms from the depraved-wicked who do not follow Dharm, speaks truth and serve; the Guru never comes down from the Brahm Lok. Brahm Lok is the abode of the creator-Brahma Ji. 


    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा