Thursday, October 31, 2019

COW गौ माता-कामधेनु

COW
गौ माता-कामधेनु
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
समुद्र मन्थन से कामधेनु का प्राकट्य :: 
क्षीरोदतोयसम्भूता या: पुरामृतमन्धने।
पञ्च गावः शुभाः पार्थ पञ्चलोकस्य मातरः॥
नन्दा सुभद्रा सुरभिः सुशीला बहुला इति।  
एता लोकोपकाराय देवानां तर्पणाय च॥
जमदग्निभरद्वाजवसिष्ठासितगौतमाः।
जगृहु: कामदाः पञ्च गावो दत्ताः सरैस्ततः॥
गोमयं रोचना मूत्रं क्षीरं दधि घृतं गवाम्।
षडङ्गानि पवित्राणि संशुद्धिकरणानि च॥
गोमयादुत्थितः श्रीमान् बिल्ववृक्षः शिवप्रियः।
तत्रास्ते पद्महस्ता श्रीः श्रीवृक्षस्तेन सः स्मृतः।
बीजान्युत्पलपद्मानां पुनर्जातानि गोमयात्॥
गोरोचना च माङ्गल्या पवित्रा सर्वसाधिका।
गोमूत्राद् गुग्गुलुर्जातः सुगन्धिः प्रियदर्शनः।
आहारः सर्वदेवानां शिवस्य च विशेषतः॥
यद्बीजं जगत् किञ्चित् तज्ज्ञेयं क्षीरसम्भवम्।
दधिजातानि सर्वाणि मङ्गलान्यर्थसिद्धये।
घृतादमृतमुत्पन्नं देवानां तृप्तिकारणम् ॥
ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति॥ 
गोषु यज्ञाः प्रवर्तन्ते गोषु देवाः प्रतिष्ठिताः। 
गोषु वेदाः समुत्कीर्णाः सषडङ्गपदक्रमाः॥
समुद्र मन्थन के समय क्षीरसागर से लोकों की मातृ स्वरूपा कल्याण कारिणी जो पाँच गौएँ उत्पन्न हुई थीं, उनके नाम थे :- नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला। ये सभी गौएँ समस्त लोकों के कल्याण तथा देवताओं को हविष्य के द्वारा परितृप्त करने के लिये आविर्भूत हुई थीं। फिर देवताओं ने इन्हें महर्षि जमदग्नि, भरद्वाज, वसिष्ठ, असित और गौतम मुनि को समर्पित किया और उन्होंने इन्हें प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। ये सभी गौएँ सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाली कामधेनु कही गयी हैं। गौओं से उत्पन्न दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र और रोचना, ये छ: अंग (गोषडंग) अत्यन्त पवित्र हैं और प्राणियों के सभी पापों को नष्टकर उन्हें शुद्ध करने वाले हैं। श्री सम्पन्न बिल्व वृक्ष गौओं के गोबर से ही उत्पन्न हुआ है। यह भगवान् शिव को बहुत प्रिय है। चूँकि उस वृक्ष में पद्महस्ता भगवती माता लक्ष्मी साक्षात् निवास करती हैं, इसीलिये इसे श्री वृक्ष भी कहा गया है। बाद में नील कमल एवं रक्त कमल के बीज भी गोबर  से ही उत्पन्न हुए थे। गौओं के मस्तक से उत्पन्न पवित्र गोरोचना समस्त अभीष्टों की सिद्धि प्रदान करने वाला तथा परम मंगल दायक है। अत्यन्त सुगन्धित गुग्गल भी गौओं के मूत्र से ही हुआ है। यह देखने से भी कल्याण करता है। यह गुग्गुल सभी देवताओं का आहार है, विशेष रूप से भगवान् शिव का प्रिय आहार है। संसार के सभी मंगल प्रद बीज एवं सुन्दर से सुन्दर आहार तथा मिष्टान्न आदि सब के सब गौ के दूध से ही बनाये जाते हैं। सभी प्रकार की मंगल कामनाओं को सिद्ध करने के लिये गाय का दही लोकप्रिय है। देवताओं को परम तृप्त करने वाला अमृत भी गाय के घी से ही उत्पन्न हुआ है। ब्राह्मण और गौ, ये दो नहीं हैं, अपितु एक ही कुल के दो पहलू या रूप हैं। ब्राह्मण में तो मन्त्रों का निवास है और गौ में हविष्य स्थित है; इन दोनों के संयोग से ही विष्णु स्वरूप यज्ञ सम्पन्न होता है; "यज्ञो वै विष्णुः"। गौओं से ही यज्ञ की प्रवृत्ति होती है और गौओं में सभी देवताओं का निवास है। छहों अंग :- शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष को और पद, जटा, शिखा, रेखा आदि क्रमों के साथ सभी वेद गौओं में ही सुप्रतिष्ठित हैं।[भविष्य पुराण, उत्तर पर्व]
प्रकृति ने समस्त जीव जंतुओं और सभी दुग्धधारी जीवों में केवल गाय ही है, जिसे ईश्वर ने 180 फुट (2,160 इंच ) लम्बी आँत दी है जिसके कारण गाय जो भी खाती-पीती है वह अन्तिम छोर तक जाता है। 
जिस प्रकार दूध से मक्खन निकालने वाली मशीन में जितनी अधिक गरारियां लगायी जाती हैं, उससे उतना ही वसा रहित मक्खन निकलता है, इसीलिये गाय का दूध सर्वोत्तम है। 
गाय बच्चा जनने के 18 घंटे तक अपने बच्चे के साथ रहती है और उसे चाटती है, इसीलिए वह लाखों बच्चों में भी वह अपने बच्चे को पहचान लेती है, जबकि भैंस और जरसी गाय अपने बच्चे को नहीं पहचान पातीं।
गाय जब तक अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी, तब तक दूध नहीं देती है।
बच्चा देने के बाद गाय के स्तन से जो दूध निकलता है, उसे खीस, चाका, पेवस, कीला कहते हैं, इसे तुरन्त गर्म करने पर फट जाता है।
बच्चा देने के 15 दिनों तक इसके दूध में प्रोटीन की अपेक्षा खनिज तत्वों की मात्रा अधिक होती है और लेक्टोज, वसा (फैट) एवं पानी की मात्रा कम होती है।
खीस वाले दूध में एल्व्युमिन दो गुनी, ग्लोव्लुलिन 12-15 गुनी तथा एल्युमीनियम की मात्रा 6 गुनी अधिक पायी जाती है। खीस में भरपूर खनिज है यदि काली गाय का दूध (खीस) एक हफ्ते पिला दें तो वर्षो पुरानी टीबी ख़त्म हो जाती है।
गाय की सींगो का आकर सामान्यतः पिरामिड जैसा होता है, जो कि शक्तिशाली एंटीना की तरह आकाशीय उर्जा (कोस्मिक एनर्जी) को संग्रह करने का कार्य सींग करते है।
गाय के कुकुद्द में सूर्य केतु नाड़ी होती है जो सूर्य से अल्ट्रावायलेट किरणों को रोकती है। गाय के 40 मन दूध में लगभग 10 ग्राम सोना पाया जाता है, जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढती है, इसलिए गाय का घी हलके पीले रंग का होता है।
गाय के दूध के अन्दर जल 87% वसा 4%, प्रोटीन 4%, शर्करा 5%, तथा अन्य तत्व 1 से 2% प्रतिशत पाया जाता है। 
गाय के दूध में 8 प्रकार के प्रोटीन, 11 प्रकार के विटामिन्स, गाय के दूध में "कैरोटिन" नामक होता है। 
गाय के दूध के पोषक तत्व गर्म करने पर भी सुरक्षित रहते हैं।
इसके अन्दर ‘कार्बोलिक एसिड‘ होता है जो कीटाणु नासक है। 
गौ मूत्र चाहे जितने दिनों तक रखें, ख़राब नहीं होता है। इसमें कैसर को रोकने वाली ‘करक्यूमिन‘ पायी जाती है।
गौ मूत्र में नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिक एसिड, पोटेशियम, सोडियम, लैक्टोज, सल्फर, अमोनिया, लवण रहित विटामिन ए, बी, सी, डी, ई आदि कई तरह के एंजाइम आदि तत्व पाए जाते है।
देसी गाय के गोबर-मूत्र-मिश्रण से "प्रोपिलीन ऑक्साइड” उत्पन्न होती है जो बारिस लाने में सहायक होती है!
इसी के मिश्रण से ‘एथिलीन ऑक्साइड‘ गैस निकलती है जो ऑपरेशन थियटर में काम आता है।
गौ मूत्र में मुख्यतः 16 खनिज तत्व पाये जाते है जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढाता है।
गाय के शरीर से पवित्र गुग्गल जैसी सुगंध आती है जो वातावरण को शुद्ध और पवित्र करती है।
सावधान :: गाय फीताकृमि, platyhelminths पृथुकृमि जैसे कर्मियों का प्राथमिक स्त्रोत्र भी है, जो कि उसके माँस में पलता है। यह मनुष्य और अन्य माँसाहारियों के शरीर में गाय का माँस खाने से प्रवेश कर जाता है। 
गाय सम्बन्धी सामान्य ज्ञान :: एक स्वस्थ गाय का वजन साढ़े तीन क्विंटल होता है।
गाय प्रतिदिन 10 किलो गोबर और 3 लीटर गो मूत्र देती है। गोबर से जैविक खाद बनता है। 
गाय के गोबर में 18 प्रकार के सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं।  इन सभी को कृषि भूमि की सख्त जरूरत है। मैंगनीज, फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्शियम, आयरन, कोबाल्ट, सिलिकॉन आदि।  यह खाद रासायनिक खाद से छह गुना अधिक गुणकारी है।
शास्त्रों में लिखा है कि गाय के गोबर में लक्ष्मी होती है और वैज्ञानिक शोध यह प्रमाणित करते हैं इसमें सोना भी पाया जाता है। 
गोमूत्र से 48 प्रकार के रोगों का इलाज़ होता है।
अमेरिका भारत से देशी गाय का मूत्र का आयात करता है और इसका उपयोग मधुमेह की दवा बनाने में करता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में गोमूत्र पर तीन पेटेंट हैं।
गाय के गोबर से निकलने वाली गैस को घरेलू ईंधन के अलावा वाहनों के ईंधन के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है। 
भारत में 17 करोड़ गाय हैं। अगर इनका गोबर इकट्ठा किया जाए तो देश को 1 लाख 32 हजार करोड़ की बचत होगी और बिना डीजल या पेट्रोल के आयात किये ईंधन की आपूर्ति की जा सकती है।

 

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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

Tuesday, October 29, 2019

KARM कर्म

कर्म KARM
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
कर्म-पुरुषार्थ ENDEAVOURS TO ATTAIN GOD :: वह मुख्य उद्देश्य या प्रयोजन, जिसकी प्राप्ति या सिद्धि के लिए मनुष्य को प्रयत्न, कर्म, कर्तव्य, उद्योग, उद्यम करना आवश्यक है, पुरुषार्थ कहलाता है। मनुष्य के रूप में जन्म का हेतु ये चार :- धर्म (duty, religiosity, righteousness), अर्थ Money, wealth, property assets), काम (Work, desire and Sex-reproduction) और मोक्ष (Salvation, Assimilation in the God, Liberation) ही हैं।
(1). धर्म :: धर्म से तात्पर्य स्वयं के स्वभाव, स्वधर्म और स्वकर्म को जानते हुए कर्तव्यों का पालन कर मोक्ष के द्वार खोलना है। इसके साधन यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार  हैं।
तटस्थों के लिए धारणा और ध्यान ही श्रेष्ठ है और भक्तों के लिए परमेश्वर की प्रार्थना से बढ़कर कुछ नहीं। इसे ही योग में ईश्वर प्राणिधान कहा गया है। यही संध्योपासना है। धर्म इसी से पुष्‍ट होता है। पुण्य इसी से अर्जित होता है। इसी से मोक्ष साधा जाता है।
(2). अर्थ :: अर्थ से तात्पर्य है जिसके द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि की सिद्धि होती हो। भौतिक सुखों से मुक्ति के लिए भौतिक सुख होना जरूरी है। ऐसे कर्म करने चाहियें जिनसे अर्थोपार्जन हो। पूजापाठ, धर्म-कर्म, हवन, दान दक्षिणा इसके अभाव में नहीं हो सकते।
पुरुषार्थ :: उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्न, प्रयास, कोशिश; efforts, endeavours made to achieve goal, target, aim.
(3). काम :: प्रजनन, वंश आगे बढ़ाने, पितृगणों-देवगणों की तृप्ति, साधना सभी के लिये काम अत्यवश्यक है। इसका उपयोग सीमित और सामाजिक दायरे में ही किया जाना चाहिये। 
सांसारिक सुख काम के अंतर्गत आते हैं। जिन सुखों से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक पतन होता है या जिनसे परिवार और समाज को तकलीफ होती है ऐसे सुखों को वर्जित माना गया है। भोग और संभोग की अत्यधिकता से शोक और रोगों की उत्पत्ति होती है। दोनों के लिए ही समय और नियम नियुक्ति हैं।
(4). मोक्ष :: मोक्ष का अर्थ है पदार्थ से मुक्ति। इसे ही योग समाधि कहता है। यही ब्रह्मज्ञान है और यही आत्मज्ञान भी। मोक्ष में स्थित व्यक्ति को ही कृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं। यही केवल्य, निर्वाण या समाधि कहलाता है।
KARM YOG कर्मयोग  :: From the first breath in the womb until the last breath, the human body works and the Karm  is associated with it. Respiration-heart beat, functions of brain, movement etc. are Karm-deeds. 
It involves Karta-the doer, Karan-Motive & instruments (desires, ambitions, senses and organs), Karm, actions, deeds, acts, activities, profession, work, labour, executions and Karm Sangrah-collection-accumulations of deeds.
One must do his duty with faith, without hope of personal benefit-gains or ambition.
Faith and disinterestedness act to purge the burden of Karm.
Faithless and self-interested people increase their burden.
Shedding of burden of Karm can release from endless cycles of birth-rebirth-suffering.
Right to perform prescribed duty, without entitlement to fruit or reward of action.
Never consider the self as the cause of result in activities and never be attached to non-performance of duties.
Vanishing of Karm and Karmfal relives from attachment, smear, stains, sullies and engross.
To have same feelings for accomplishment of desires and detachment.
To give same weight age to acquisitions and non-acquisitions.
Performance of prescribed, Varn-Ashram-natural, place, time, situation, person oriented duties as per dictates of Shashtr; without attachment, affections or desires.
To maintain a balance between accomplishment and non-accomplishment.
Repeated, practice, concentration and devotion to work, pleases the Almighty. One should work for the sake of God only, not for himself.
8 PREREQUISITES-ESSENTIALS OF SALVATION मोक्ष प्राप्ति हेतु आठ प्रकार के आत्म गुण ::
(1). समस्त प्राणियों पर दया करना।  Pity-mercy on all creatures-organisms.
(2). क्षमा।  Pardon-Forgiveness.
(3). दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना।  
To assure the worried-pained and protect him.
(4). जगत में किसी से ईर्षा द्वेष  न करना। 
Not to have envy-anonymity-enmity with any one.
(5). बाह्य  व आन्तरिक पवित्रता। 
External and internal purity-cleanliness.
(6). परिश्रम रहित अथवा अनायास प्राप्त हेतु कार्यों के अवसर पर उन्हें मांगलिक आचार-व्यवहार के द्वारा संपन्न करना।   
Events which do not involve labour or occasions which are obtained-comes up instantly, should be celebrated with auspicious rituals-Mantr-Shloks.
(7). अपने द्वारा उपार्जित द्रव्यों से दीन दुखियों की सहायता करते समय क्रपणता न  बरतना।  
Not to hold back, while helping the poor-down trodden, with the earned by own labour-efforts.
(8). पराये धन और पराई स्त्री के प्रति सदा  निस्पृह रहना। 
To remain aloof from with others wealth and women.
ये कर्म योग ज्ञान योग के साधन हैं, कर्म योग के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।  
These deeds-Karm Yog are the means of Gyan Yog. Gyan Yog can not be achieved-attained without Karm Yog.
Karm Yogi utilises the material objects (body) for the welfare of mankind and gets detached. He utilize the human body as a vehicle to Salvation.
One should perform Karm as per dictates of Shashtr (scriptures) i.e., Varn-Ashram Dharm, Nature and Situation (adverse-unfavourable), by deserting desires, affections, attachments, (passions, sensuality  and maintaining calm, cool, balance of mind  in failure, as well as success.[Exerts from :: Matays Puran]
THREE TYPES OF DEEDS-KARM ::
(1). Accumulated deeds constitute of Satvik, Rajsik and Tamsik Karm, done in many- many previous births, as and when the individual took birth as a human being. Auspicious-inauspicious, virtues-sins, have to be under gone in the form of illness, diseases, physical defects, gratification-suffering, pleasure- pain, fulfilment sexual desires, loss-gains etc. The impact of accumulated deeds, show off as per the dictates of Vidhata (Brahma) and Dharm (Son of Sun). They do not vanish in millions of births-Kalps without being faced. There is no way out. One has to face them.
(2). Deeds of the present-current birth also interact simultaneously. They, by the grace of God may nullify-strengthen, the punishment/rewards/fruits of accumulated deeds.
(3). Predestined deeds are the ones, which the organism is facing or is going to face, in order to vanish, them. One should be ready to face them without hesitation, happily, smiling. One should be cautious enough, not to generate a new chain of deeds.
Reason behind birth-rebirth is the creation of new chain of deeds, without eliminating the previous ones. Once the sum total of all these deeds is zero, the organism will not take birth.
The Human body, its various organs, senses, systems and the devotee’s efforts, actions, gestures, passions, and sensuality constitute this methodology. When devotee seeks help from the God or is patronised by the God, in his efforts as a major contributor, then everything turns divine, including his faith. It does not consider any one to be bad. Don’t have ill will for any one. Don’t do evil of others.
Karmfal is composed of auspicious and inauspicious, desired and the undesired. No activity can be performed in isolation or water tight compartments. It always has strings attached with it, as a result of which the Karmfal also appears in composed manner i.e., comfort-discomfort, pleasure-pain, joy-worries. Pleasures, the desired, are accompanied by undesired worries, pain, fears, sorrow, grief, anxiety, unease etc. Karm Fal simultaneously works, in the present incarnation as well.
Humans, Demi-Gods, Demons, Giants, Yaksh, Gandarvbh, Kinner (impotent), Serpents  Brahma, Vishnu, Mahesh, Indr etc. etc. are all governed by destiny by the dictates of Karm.
Any one, who is blessed with super human power, majesty, might, wealth, grandeur, strength, enlightenment, good luck, who make donations-charity, pardon is considered as a component of The Almighty.
One, who is not a component of Rudr can’t worship Rudr (Mahesh, Shiv).
One who does not possess the component of the God can’t donate food-grain.
One who is not a component of Vishnu can’t become a king.
No creature, living being is free. He is always under the control of Vidhata (Divinity) and to face birth-rebirth, pain-pleasure, against his will, wish involuntarily.
The mentality, tendency of the population depends upon the effect-impact of time (Kal).
In, Saty Yug people are religious, dutiful. They abide by the Dharm. People are sent to divine abodes on the basis of their auspicious-virtuous-pious deeds.
In, Treta Yug, people are religious and believe in attainment of God in addition to acquisition of wealth (essential for carrying out religious activities). Truth, charity, donations, pity, pardon, one wife and equanimity with all creatures are the common religious practices.
Religious practices in Treta and Dwaper are the same as Sat Yug.
In, Dwaper Yug, people are possessive about Dharm, Arth, Kam (Religion-attainment of God-Goodness, Wealth and sexuality, sensuality-passions).
During Kali Yug, whole population is attached with Arth-earning money by fair means, some by foul means and others by both fair and foul means. Their sexual desires, sensuality  passions are unlimited, uncontrolled and indecent. Sinners find their abode in Hell. They reside there till the change of Yug takes place and take birth on earth as humans.
After the end of Dwaper and beginning of Kal Yug all sinners of hell are reborn on earth.
Kali Yug is dominated by Asat and the behaviour of the population shows its impact in the form of falsehood, irreligious, unrighteousness, bad, untrue, unreal, unfounded, non-existent practices.
Due to the divine wish, will, sometimes inter changes do occur in the birth-rebirth cycles.
The saints, sages, ascetics of Kali Yug take birth in Dwaper, of Dwaper in Treta and those of Treta, in Saty Yug.
The sinners, unvirtuous people of Sat Yug take birth in Kali Yug.
All the four Yug co-exist at one or the other place on earth at the same time. Impact of the current, present Yug is reflected by the majority of population.
The human incarnation of soul is the main source of enlightenment, science, new ventures, researches, progress, ascetic practices, Karm, Mukti, Bhakti, Yog, Salvation and Permanand.
Anyone, who is unable to recognize-identify the Permatma in his inner self, will not be able to attain peace in any of the species of his next incarnations.
There is nothing to fear in deserting the fruits of Karm-deeds. An intelligent person should not indulge either in any sort of deeds or their fruits.
One should keep off sensuality, gratifications, suffering through prudence, intelligence and wisdom.
He should be content with enlightenment and science, while devoted to the Almighty (Bhagwan Sheh Nag ).
The greatest selfishness and the ultimate desire of the living being should be to experience oneness in the Brahm and his soul.[Extract:: Shri Mad Devi Bhagwat Puran]
Any one, merely experiences the remaining (left over) Karmfal of his previous births quietly, neutrally, passively, without reacting to them, prudently. His conscience and the inner self, guides him. He makes no efforts for acquisition or accumulation. All his actions are directed towards the benefit and welfare of the mankind and the various life forms, without establishing any relationship with them, prudently. His efforts are directed towards stabilising the inner self, only.
He does not establish any relation with Karm, deserts affections, rejects the pride of having done; which automatically terminates individuality, paving path to assimilation in God. He makes no bonds with the ever changing nature or the world, detaches himself from the differentiating nature and its functions as well. The Karm Yogi does not experience the need for self, owns anything and does nothing for self.
Elimination of Karm is related to egotism, which has four purposes- Abode, Implementation, Attempt and the Destiny. Whether an act is prescribed, determined or prohibited by scriptures (treatise, Shashtr), it has five motives behind accomplishment: Physical-mental, oral-verbal and micro-macro. When a person undertakes them, he accumulates them. When these actions are free from desires, accomplishment is there, but no accumulation. When intention is lost behind these actions, it leads to success without accumulation. Actions, constituting sins or virtues, free from accumulation, are not binding.
The imprudent, who considers the natural vital activities and functions as having been done by him, becomes the reason or cause behind accomplishment of motives. Either acceptance or rejection of Karm or Karmfal are not the vehicles (means, causes) of welfare. Neither the acceptance nor renouncement, are the motives of welfare. Means of welfare is break up of soul with nature. Karm Yog stands for renouncement of belonging (affections) and the Karmfal. Loss of belonging automatically leads to loss of ego (I, My, Me). Ego has a component of belonging  Rejection of ego cuts the bonds of affections or belonging  It’s the egotism that pertains to the feeling of having done it, which leads to accomplishment of Karm and accumulation as well. In Karm Yog, loss of affections eliminates ego i.e., renouncement through detachment with reward.
The nature is the doer. An individual, who is illusion ed by the ego, behaves as if he is the performer, achiever or loser.
There are 13 impliers constituting of 5 external (hands, feet, tongue, pennies, and anus), 5 internal (ears, eyes, skin, tongue and nose) and the remaining 3 rests inside the mind (Man, Intelligence and the Ego).
Coordinated efforts of (1). Hands :- giving, taking exchange, (2). Feet :- walk, run, movement, (3). Tongue :- Speech, (4). Pennies :- Reproduction, urination, (5). Anus :- Excretion, (6). Ears :- Hearing, (7). Eyes :- Seeing, (8). Skin :- Touch, (9). Tongue-taste, (10). Nose :- Smell, (11). Man :- Desires, (12). Mind (Intelligence) :- Thoughts, Decision, Behaviour and (13). Ego :- Pride, make endeavours.
The fifth one is divine, which depends upon the auspicious and inauspicious activities of the doer, affecting the inner self, laying the foundation of destiny.
Creeping of defects in the Physical, Verbal or Mental deeds (actions), leads to bonds (Rag, attachments, ties). If the Karm is performed as per directives of Shashtr, it becomes auspicious and ascetic. The Karm is Satvik and breaks the bonds.
Attachments and prejudices, pleasures and sorrow (pains) are mental Karm (imaginary, illusive activities).
The thought of ownership of Body, Speech and Mind create defects in the deeds. Detachment of bonds from these by Karm Yog or Gyan Yog leads to liberation from the nature. Man: Mind, heart, soul. It’s the seat of perception and feelings, wish, inclination, temperament, characters, will and purpose.[Extract  :: Shri Mad Bhagwad Geeta]
DESTINY-FATE प्रारब्ध-भाग्य :: Under the impact of the out put-result-fruit of his deeds in his previous lives, the living being could have done- achieved, whatever he liked.
Great Ascetics, clever, intelligent, prudent, mighty people have been found to be deprived off the fruits of their endeavours-efforts.
Imprudent, inferior, people who lack good qualities, virtues and without or low intelligence are seen to be associated with all sorts of amenities, luxuries, comforts in life without the blessings of anyone.
People indulged in brutality, cruelty, crime, deceit, misdeeds are found to be enjoying the comforts of life. There are the people, who do not work at all and still, the wealth flows towards them.
There are the people who make repeated, successive efforts, endeavours without success. They fail to obtain the desired commodity. Their wishes never materialise. It shows that the destiny is important.[Extract :: Narad Puran]
The organism takes birth and dies on the basis, by virtue of the remaining deeds in the previous lives. Who so ever has taken birth in this world will die-there is no doubt in it. Age, deeds, wealth, Education and death of the living being are fixed, while he is in the womb.
Pain pleasure, pear and welfare are obtained by virtue of Karm. The living being is dragged out of the womb with his head down and legs upward by the air. He is illusioned the moment, he takes birth by the Maya of Bhagwan Vishnu.
Birth in any specific specie is the out come, result of auspicious-inauspicious deeds, sins. Compilation of sins, misdeeds and inauspicious deeds keep degrading him to lower caste-specie. It’s the output of his misdeeds, guilt, crime and sins that he suffers from poverty, illness, diseases, low intelligence, imprudence and various pains.
Lokik (worldly), Kshar (perishable)-importance is given to both the soul and the world. It begins with the determination not to do evil, harm to anyone, not to consider anything bad or have ill will for any one.
Those who have not attained, acquired-obtained, renunciation and their intelligence has dissociated with grief, sorrow, pain and who’s  passions-sensuality are accompanied with them, are entitled-authorised to Karm Yog. Karm Yogi utilises the material objects (body) for the welfare of mankind and gets detached.
Performance of Varn-Ashram Dharm-as per description in scriptures, prescribed duties, nature, circumstances, rejection of desires, affections, attachments, passions, sensuality completely.
One should strike a balance (Equanimity) between Siddhi (attainment) and Asiddhi (non attainment).[Extract source :: Garud Puran]
KARM कर्म :: निष्काम भाव से किया कर्म सात्विक, कामना के लिए किया कर्म राजसिक तथा मोहवश किया गया कर्म तामस है। कार्य की सिद्धि-असिद्धि  में सम (निर्विकार) रहने वाला सात्विक, हर्ष-शोक करने वाला राजस तथा शठ और आलसी कर्ता तामस कहलाता है, कार्यं; Deeds, task, action, work, endeavour, act, occupation, effort, act, function, sacrifice.
कर्म के दो प्रकार :: (1). विहित (Ordained, prescribed, proper, fit, determined) जैसे व्रत, उपवास, उपासना और (2). निहित (Contained, latent, entrusted, vested), जैसे वर्णाश्रम, स्वभाव, परिस्थिति जन्य कर्म।
कर्म के 5  कारण हैं :: अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव।
राजा के आठ प्रकार के कर्म :- (1). प्रजाओं से कर लेना। (2).भृत्य और याचकों को यथायोग्य धन देना, (3). मन्त्रियों को किसी काम से भेजना, (4).अनावश्यक कार्यों से रोकना, (5). कार्य में संदेह होने पर राजा की आज्ञा को ही सर्वश्रेष्ठ मानना, (6). व्यवहारिक कामों को देखना, (7). पराजितों से उचित धन लेना और (8). किसी पाप के लिये प्रायश्चित करना ; ये आठ प्रकार के कर्म हैं। 
आदाने च विसर्गे च तथा प्रेष निषेधयो:। पंचमे चार्थ वचने व्यवहारस्य चेक्षणे॥ 
दण्डशुद्धयोः सदायुक्तस्तेनाष्टगतिको नृप: 
कर्मठ :: कुशलतापूर्वक काम करने वाला; कर्मनिष्ठ, शास्त्रविहित कर्मों को ठीक प्रकार से करने वाला, जिसने कई प्रशंसनीय और स्तुत्य कार्य किए हों; hard working, strenuous, energetic. 
कर्म फल :: यज्ञ-दान और कर्म मनुष्यों को भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। जिन्होंने कामनाओं का त्याग नहीं किया है, उन सकामी पुरुषों के कर्म का बुरा-भला और मिला हुआ कर्म-तीन प्रकार का फल देता है। यह फल मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है। सन्यासी-त्यागी के कर्मों का कोई फल नहीं होता।
कर्तव्य :: जिम्मेवारी; Duty.
करण (Implements) :: कुल तेरह करण हैं। बहि:करण (5 कर्मेन्द्रियाँ और 5 ज्ञानेन्द्रियाँ) तथा (3 अन्तःकरण :: मन, बुद्धि, अहँकार)।  
5 कर्मेन्द्रियाँ :: पाणी-हाथ: कार्य करना-लेना देना, पाद-पैर: चलना-फिरना, वाक्-जीभ, होंठ और मुँह: बोलना, उपस्थ-लिंग: मूत्र त्याग, पायु-गुदा: मल त्याग। 
5 ज्ञानेन्द्रियाँ :: श्रोत्र-कान :- सुनना, चक्षु-आँखें :- देखना, रसना-जीभ :- स्वाद-चखना, त्वक्-खाल: स्पर्श-महसूस करना, घ्राण-नाक: सूँघना, 
3 अन्तःकरण :: मन, बुद्धि, अहँकार।  मन :: इच्छा।  बुद्धि :: विचार, सोचना-समझना, निश्चय करना, सही गलत की पहचान, विवेक, याददाश्त आदि, अहँकार :: मैं पन, घमण्ड, अभिमान। चेष्टा-प्रयास-कोशिश। There are 13 impliers constituting of 5 external (-hands, feet, tongue, pennies, and anus), 5 internal (ears, eyes, skin, tongue, nose) and the remaining 3 rests inside the mind (Man, Intelligence and the Ego). Coordinated efforts of (1). Hands :-giving, taking, exchange, (2). Feet :- walk, run, movement, (3). Tongue :- Speech, (4). Pennies :-Reproduction, urination, (5). Anus :- Excretion, (6). Ears :- Hearing, (7). Eyes :-Seeing, (8). Tongue :- Taste, (8). Skin :-Touch, (10). Nose :-Smell, (11). Man:-Desires, (12). Mind (Intelligence):-Thoughts, Decision, Behaviour and (13). Ego :- Pride, glory. First 10 perform externally and the remaining 3 lies inside and together make endeavours-efforts. 
विहित कर्म :: (1). नित्य, (2). नैमित्तिक, (3). काम्य और (4). निषिद्ध। शास्त्र जिन कार्यों-कर्मों की आज्ञा देता है। यज्ञ-हवन-अग्निहोत्र, सांध्य और प्रातः कालीन सँध्या-पूजा पाठ। ऐहिक फल प्रदान करने वाले काम्य कर्म साधारण मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपादेय हैं।
PRESCRIBED DUTIES :: The ordained-prescribed deeds, functions which are directed (determined, fit, proper, arranged, instituted, performed,  ordered) by the Shastr-scriptures. Its not possible for every one to do all these duties. Yagy-Hawan-Holy sacrifices in fire, feeding the guests, Brahmans, grant of doles (अनुदान राज्य, धनी-मानी व्यक्तियों द्वारा आश्रम, शिक्षण संस्थाओं, हस्पताल को दी गई धन राशि-भेंट-सहायता), morning & evening prayers.
निहित-नियत कर्म (placed, kept, contained, latent, entrusted, vested duties-functions-deeds) :: Nihit Karm are compulsory, fixed, mandatory. Varnashram Dharm & various physical activities taking place within the body as daily routine, which are a must for every one.  One can not neglect them out of ignorance, illusion, confusion or otherwise. There is no bar-restriction on performing-doing these. Till the body has the soul, it will continue with the functions such as respiration, excretion, etc. Its a component of Vihit Karm as per Varnashram Dharm, essential as per difficult situation are Nihit Karm. 
पंच कर्म :: मोक्ष प्राप्ति के लिए पंच कर्म (सत्कर्मों) की उपयोगिता प्रत्येक मनुष्य-साधक की लिए है। इसमें धर्म, जाती, बिरादरी, वर्ण बीच में नहीं आते। इनकी विशद विवेचना धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में उपलब्ध है।
(1).  संध्योपासन :- यद्यपि संध्या वंदन-मुख्य संधि पांच वक्त की होती है जिनमें प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन प्रार्थना और ध्यान के माध्यम से किया जा सकता है। यह सकारात्मकता प्रदान करतीं हैं, जीवन में उमंग, ऊर्जा पैदा करतीं हैं। 
(2).  उत्सव :- हर्ष, उल्लास, शादी-विवाह, जन्मोत्सव, तीज-त्यौहार, अनुष्ठान यह अवसर प्रदान करते हैं। ये परस्पर मधुर सम्बन्ध, सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हैं। इनसे संस्कार, एकता और उत्साह का विकास होता है। पारिवारिक और सामाजिक एकता के लिए उत्सव जरूरी है। पवित्र दिन और उत्सवों में बच्चों के शामिल होने से उनमें संस्कार का निर्माण होता है वहीं उनके जीवन में उत्साह बढ़ता है। 
(3). तीर्थ यात्रा :- यह मनुष्य को पुण्य प्रदान करती है। पापों का नाश करती है। सामाजिकता का विकास करती है। 
(4).  संस्कार :- संस्कार मनुष्य को सभ्य-सामाजिक बनाते हैं। इनसे जीवन में पवित्रता, सुख, शांति और समृद्धि का विकास होता है। सोलह संस्कार जीवन के कर्म से जुड़े हैं और आवश्यकता के अनुरूप हैं। ये हैं :- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। 
(5).  धर्म :- धर्म का अर्थ है अपने वर्णाश्रम कर्तव्यों का पूरी निष्ठा-ईमानदारी से पालन। धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। सेवा भावना, दया, दान आदि कर्तव्यों का पालन भी नियमित रूप से करते रहना चाहिए। (5.1). व्रत, (5.2). सेवा, (5.3). दान, (5.4). यज्ञ* और (5.5). कर्तव्य का पालन। यज्ञ के अंतर्गत वेदाध्ययन भी आता है जिसके अंतर्गत छह शिक्षा (वेदांग, साँख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद) और छह दर्शन (न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य, वेदांत और योग) शामिल हैं। व्रत से मन और मस्तिष्क सुदृढ़ बनता है वहीं शरीर स्वस्थ और बनवान बना रहता है। दान से पुण्य मिलता है और व्यर्थ की आसक्ति हटती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। सेवा से मन को शांति मिलती है और धर्म की सेवा भी होती है। सेवा का कार्य ही धर्म है।
इन सभी से ऋषि ऋण, ‍‍देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण से उपरति होती है।
*यज्ञ भी मात्र पाँच तरह के होते हैं :- (5.4.1). ब्रह्मयज्ञ, (5.4.2). देवयज्ञ, (5.4.3). पितृयज्ञ, (5.4.4). वैश्वदेव यज्ञ तथा (5.4.5). अतिथि यज्ञ।
शास्त्रों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म ::  काम्य, निषिद्ध और नित्य। बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है। सभी कर्मों के परिणाम विधाता तय करता है जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल उसके जन्म-जन्मांतरों के कर्मों के अनुरूप प्रारब्ध के रूप में प्रकट करता है। पूर्व अर्जित कर्म ही शुभ-अशुभ, रोग-वैराग आदि के रूप में प्रकट होते है  और फल के उपरांत नष्ट हो जाते हैं। 
कर्म फल-परिणाम की दृष्टि से कर्म :: प्रारब्ध, संचित और वर्तमान-तत्काल फलदाई हो सकते हैं। प्रारब्ध को पूरी तरह बदला नहीं जा सकता, परन्तु उसमे सुधार-संशोधन अवश्य किया जा सकता है। संचित कर्म और तत्काल कर्म भविष्य को बदलने में कुछ-कुछ सहायक हो सकते हैं। 
कर्म के 5  कारण हैं :: अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव। सब भूतों में एक परमात्मा का ज्ञान सात्विक, भेद ज्ञान राजस और अतात्विक ज्ञान तामस है। निष्काम भाव से किया कर्म सात्विक, कामना के लिए किया कर्म राजसिक तथा मोहवश किया गया कर्म तामस है। कार्य की सिद्धि-असिद्धि में सम (निर्विकार) रहने वाला सात्विक, हर्ष-शोक करने वाला राजस तथा शठ और आलसी कर्ता तामस कहलाता है। कार्य-अकार्य के तत्व को समझने वाली बुद्धि सात्विक, उसे ठीक-ठीक न जानने वाली बुद्धि राजसिक तथा विपरीत धारणा रखने वाली बुद्धि तामसिक मानी  गयी है।
One should understand-realise the essence-gist of pious-righteous actions, vices-wretched-immoral actions-sins and inaction because the effects-results-outcome of actions is hidden-deep.
Deeds-actions can be divided into three categories according to their impact over the inner self-thinking of the individual. (1). Basic: (1.1). Vested-latent-contained-entrusted & (1.2). Ordained, prescribed-proper-determined-fit, (2). Deeds not accomplished-undone-inaction (-having no impact over the doer) & (3). Vices-sins-wretched-immoral acts. Any result oriented action performance is deed. Actions made-done without desire-motive turn into deed undone-not performed. Ordained, prescribed-proper-determined-fit performed with the desire-motive of harming others turn into sins. Any deed against the scriptures too is sin. Understanding of the fact that performances without involvement-attachment, is knowing the gist of deeds. Performances associated with equanimity, turn into deeds undone, how so ever intricate-horrific may they be. Understanding the gist of deeds undone and their summary rejection is essential. Its extremely difficult-intricate to know the orientation of the outcome-result of deeds due to the association of ego-pride and desire-motive for comforts-luxuries. [Shri Mad Bhagwat Geeta (4.16)] 
Please refer to :: HINDU PHILOSOPHY (6) हिंदु दर्शन :: KARM, GYAN & BHAKTI YOG कर्म, ज्ञान, भक्ति योग santoshkipathshala.blogspot.com
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न सिद्धि जल्दी मिल जाती है; इसलिये कर्मों की सिद्धि-फल चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना-पूजा करते हैं।[श्रीमद्भागवद गीता 4.12] 
Those who wish-desire for success (worldly pleasures) in this world through actions; worship various demigods (deities), because by doing this they soon get the reward (success, favourable out come, success) in their actions (endeavours).
पृथ्वी लोक में मनुष्य को नवीन कर्म करने का अधिकार मिला हुआ है। सिवाय मनुष्य योनि के अन्य किसी भी अन्य योनि में और सिवाय पृथ्वी के किसी अन्य किसी भी लोक में कर्म सम्भव नहीं हैं। कर्मों की सिद्धि प्रयत्न-प्रयास, आराधना, पूजा-अर्चना, तपस्या, भक्ति, ध्यान समाधि जैसे साधनों से मिलती है। सांसारिक पदार्थ और पारमार्थिक प्रयास यथा सेवा दो अलग विपरीत मार्ग हैं। सांसारिक उपलब्धियाँ आसक्ति, कामना, ममता राग-द्वेष उसे प्रकृति से जोड़ते हैं, जबकि जप-तप  उसे पारमार्थिक मार्ग-मुक्ति की ओर अग्रसर करते हैं। अपने लिए किया गया कोई भी कर्म बंधन कारक है। कर्म जन्य सिद्धि चाहने से ही कर्मों में मलिनता उत्पन्न हो जाती है। पदार्थों की इच्छा पूर्ति तो महज प्रारब्ध के अनुरूप शीघ्र ही मिल सकती है, मगर मोक्ष (मुक्ति) कर्मयोग, सेवा, सहायता, पारमार्थिक कर्मों, अपने से अन्य (भिन्न) व्यक्तियों के हेतु, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि के सहारे ही संभव है। 
Its only over the earth that the humans, unlike other creatures have the right to perform deeds (new ventures) make efforts. The reward-fruit of the deeds is available through efforts, prayers, asceticism, meditation, etc. One can choose either of the two directions: one leads to satisfaction-satiation of own desires and the other is meant for the service of the mankind-social welfare. The ventures which make the human crave for self joins (connects) himself with the nature, leading to repeated cycles of birth and death. Prayers, devotion to Almighty, asceticism, charity etc. paves the way for assimilation in the Ultimate, which is eternal. This ensures that he is freed from the clutches of pain, sorrow, grief, tortures, torments. There are the means like Karm Yog, Gyan Yog & Bhakti Yog which paves the way for Salvation.
One should make full use of the opportunity obtained as a human being to attain Salvation.
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥ 
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) को उनके गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक; मेरे द्वारा रचा गया है। उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तुम अकर्ता ही जानो। मुझे कर्मों के फल की कामना नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो तत्त्व से मुझे जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।[श्रीमद्भागवद गीता 4.13-14] 
The Almighty who is imperishable, all pervading, creator of this universe has created the four castes along with their characteristics and functions. In spite of being the creator, HE remains unattached with this action, detached like a non performer. HE is not inclined to the reward (fruit, result, outcome) of HIS actions. So, those actions do not involve-absorb HIM. 
इस चराचर में समस्त प्रणियों का उद्भव उनके प्रारब्ध-पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार सत्व, रज और तम गुणों के अनुरूप होता है। पृथ्वी पर मनुष्यों सहित समस्त जीवधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के गुणों से अविभूत हैं। पशु, पक्षी, सर्प, वृक्ष आदि अपने गुणों के अनुसार उपरोक्त चारों गुणों के अनुरूप वर्णों में बँटे हुए हैं। इतना ही नहीं देवता, दानव आदि भी अपने पूर्व जन्म और प्रारब्ध के अनुरूप ही हैं। समस्त प्राणियों का कर्तव्य है कि अपने कर्तव्य कर्मों का नियम-धर्म के अनुरूप पालन करें। यह पूजा का एक रूप ही है। इन सब की उत्पत्ति करने का-कर्तापन का अभिमान-स्पृहा भगवान् को नहीं है। इस सब में परमात्मा का कुछ भी व्यय नहीं रहता अर्थात पूर्ववत ही रहता है, क्योकि सभी प्राणियों में उसका अंश उपस्थित है। शरीर प्रकृति का अंश है और प्रकृति में ही विलय हो जायेगा। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि इस शरीर के अंग-अंश हैं और नष्ट प्रायः हैं, यद्यपि उनका परिमाण भी यथावत रहता है। धन-सम्पत्ति, नाते-रिश्तेदार इस शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और कर्म, कर्तव्य और कर्मफल के हेतु हैं। जो भी मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, वो दिव्यगुण सम्पन्न हो जाता है। भगवान्  भी अपने किये गए कर्तव्य-कर्म से असम्बद्ध हैं। मनुष्य का ध्यान जब तक कामनाओं, वासनाओं, ममता, आसक्ति, फलेच्छा में रहेगा, तब तक वह संसार सागर में गोते खाता, डूबता-उतराता रहेगा। इस सबसे  दूर हटने से वह मलिनता से मुक्त होकर दिव्य आचरण वाला हो जायेगा। जो कुछ उसे मिला है, वही उसे निष्काम भाव से परहित-परमार्थ में अर्पण कर देना है। 
कर्म में कर्तव्याभिमान शामिल है। वह क्रिया, जिसमें कर्तव्याभिमान ना हो, फलदायक भी ना हो और जो फलेच्छा से रहित कर्तव्याभिमान से मुक्त दिव्य है, वो लीला है। सांसारिक मनुष्यों द्वारा कर्म होता है, मुक्त पुरुषों द्वारा क्रिया होती तथा भगवान् के द्वारा लीला होती है।
Each and every organism is tied with his destiny, which is the outcome of deeds in previous births depending upon the three basic characteristics: Satv, Raj and Tam. The Almighty created four basic (fundamental) groups of human, Varn-castes on the basis of the actions (performances, functions, duties) in this universe. A total of 84,00,000 species exist in this universe in the form of animal, birds, snakes, reptiles, trees and all other categories etc. Various other divine species like giants, demons, demigods, deities, Rakshas, Yaksh, Gandarbh too were evolved through this basis fundamental rule of nature. What is common in them is the soul-a component of the Almighty HIM SELF. Its the responsibility of each and every organism to act according to the functions allotted to him. Deviation from them bring impurity resulting in cycles of birth and death. Carrying out of these functions as per the Varnashram Dharm is a form of prayer. The body will vanish after a certain pre decided period of time. The sense organs will help the individual in discharging-performing according to the sanctioned duties, depending upon the individuals desires, motives, qualities. The wealth-accumulations will help him in redeeming his status as a divine entity, if it is utilised for the sake of helping the ones, in need (the poor, needy). Relatives, wealth are concerned with the body and are the means of action, duties and the desire for the reward. One's concern, clamour  for the desires, motives, wants will keep him struck with the world and he will continue drowning and rising up and down, in the ocean of births and rebirths. The moment he isolate himself from desires, motives, sensuality, lust, wishes he qualifies for the divinity and freedom from births and deaths. Its his pious-revered duty to invest his belongings for the service of humanity, man kind, social welfare.
The Almighty is free from the ego of having done it and so should an individual be. Nothing is lost in the creations by the God and similar is the story when an individual perform for the sake, service of mankind, society or others selflessly, relentlessly, free from motives.
Karm, deeds, action by an individual is associated with ego, action free from ego is pure if it is not turning into output, while the Karm which is free from the desire of reward and ego is divine.
Humans perform deeds, the detached make pure actions, while actions of the Almighty are divine.
The Muslims, Europeans and neo Buddhists made concerted efforts to demolish Hinduism. After independence people like Gandhi, Ambedkar, Nehru (a Muslims posing as Hindu) made efforts to wipe of Varnashram Dharm. They have succeeded partially. The politicians are doing their best to scrape the caste system unsuccessfully. New castes are emerging polluting the society beyond limits.
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। 
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥
पहले भी मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों ने इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तुम भी पूर्वजों जैसे ही सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही करो।[श्रीमद्भागवद गीता 4.15] 
There had been people in the past who performed without the desires (motives, incentives) for attaining Salvation (Assimilation in the Almighty, Liberation). Therefore, one should also work on the lines-foot prints of the ancestors.

अर्जुन मुमुक्षु थे और अपने कल्याण चाहते थे। जनक, विवस्वान, मनु, इक्ष्वाकु आदि भी मुमुक्षु थे। मुमुक्षयों ने भी कर्म योग का तत्व जान कर कर्म किये हैं। अतः मनुष्य को निष्काम भाव से कर्म-कर्तव्य करने चाहिये। कर्म करते हुए योग में स्थित होना चाहिये और योग में स्थित होते हुए भी कर्म करना चाहिये। कर्म करना-प्रवृति और कर्म न करना-निवृति, दोनों ही मानव प्रवृति-प्रकृति के अंग हैं। दोनों से ऊपर उठना योग है। पूर्ण निवृति मनुष्य के लिये संभव नहीं है। संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिये यदि निस्वार्थ भाव से कोई कर्म किया जायेगा तो वह बंधन कारी नहीं होगा। मुमुक्षुओं ने कर्तव्याभिमान और फलेच्छा का त्याग करके कर्म किये हैं, जो बंधन कारी नहीं है।
Arjun was desirous of release from the cycles of birth and death. Prior to him various mighty kings like Janak, Vivisman, Ikshvaku and Manu attained Liberation by realizing the gist (extract, theme, central idea, nectar) of Karm-performance. Whatever has to be done, it should be without the desire-clamour of fruit (favourable result, outcome). One should establish himself in Yog, while performing work and vice versa. To do work and not to do work, both are human tendencies. To rise above both of these is Yog. Complete freedom from non performance is impossible for the humans. The deed undertaken for the benefit of the masses-society will not be binding. There should be no selfishness in one's motives and he will be free from the repeated cycles of birth and death. Those who are desirous of Salvation are free from the pride-ego of having done (achieved, performed) some thing, without expecting a return.
People with a will to be liberated had performed like this, in the past (with success). So one should also perform the same type-pattern of actions as were done by the ancestors.
Its possible to work along with the reciting the names, verses, rhymes pertaining to the God. One can listen to songs related to the God, Bhajans, prayers etc. while driving, gardening, swimming, talking, cooking, eating or sitting, laying down silently etc. If its difficult to sleep at night try recitation of a Shlok devoted to the Almighty and see the impact. A sound sleep comes automatically.
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। 
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए, मैं तुमसे वह कर्म-तत्व कहूँगा जिसे जानकर तुम अशुभ (कर्म, संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।[श्रीमद्भागवद गीता 4.16] 
One, the wise, enlightened too, get deluded in understanding the nature of action (work, function, endeavour, deed) and inaction? Therefore, the Almighty decided to explain-elaborate the gist of action, which liberates one  from the inauspicious (bondage from actions).
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि केवल शरीर ही नहीं अपितु मन, वाणी के द्वारा होने वाली क्रियाएँ (विचार) भी कर्म हैं। कर्म का भाव जैसा होगा वैसा ही स्वरूप वह ले लेगा जायेगा :- सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक, यद्यपि देखने में वे  एक से ही लगते हैं। उपासना, साधना सात्विक है, परन्तु यदि उसे कामना पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाये, तो वही राजसिक तथा किसी के नाश के लिए किया जाये तो वही तामसिक हो जाती है। प्रवृति अथवा निवृति मार्ग दोनों ही मुक्ति के साधन बन जाते हैं। वही कर्म, अकर्म हो जाता है, यदि कर्ता में फलेच्छा (आसक्ति, राग, द्वेष, ममता) नहीं है, यह निर्लिप्तता है। इस बात को समझना कि ये दोनों ही मुक्ति के मार्ग हैं, कर्म-तत्व को जानना है। कर्म जीव को बाँधता है और अकर्म (पारमार्थिक) मुक्ति दाता है। सात्विक त्याग में कर्म करना भी अकर्म है। कर्म और अकर्म की विभाजन रेखा इतनी बारीक-महीन है कि शास्त्रों का ज्ञाता, अच्छे से अच्छा अनुभवी और तत्वज्ञ-विद्वान भी मोहित हो जाता है। कर्मयोग और त्याग में विवेक की प्रधानता से ये पारमार्थिक कर्म ही किये जाते हैं। कर्म तत्व के इस रहस्य को समझने के बाद मनुष्य भव सागर के पार उतर जाता है।
Bhagwan Shri Krashn explained to Arjun that its not only the body which perform, but the brain (thoughts, ideas and speech) too works. It is the motive (idea, concept) behind actions, which makes them Satvik-pure, Rajsik-desirous & Tamsik (contaminated, stained, slurred, polluted) by the desire of harming some one. The prayers too turn to Satvik, Rajsik or Tamsik according to the thinking of the individual. Intentional or otherwise, both type of deeds turn into zero, leading one to freedom from reincarnations, if there is no desire, attachment, allurement, enmity. Both of these are modes of Liberation if intentions are pure for the sake of improving the society-helping others. The line drawn between Karm-work and Akarm-no work is so fine that, it often confuses the most intelligent (enlightened, wise) knowing the gist, understanding of scriptures, Varnashram Dharm. Karm Yog and renunciation associated with prudence becomes devotional for the society as a whole. The purity of theme (gist, central idea) behind the thoughts is sufficient to sail through the ocean, called living world.
Its the intention which makes the motive Satvik, Rajsik or Tamsik. Good intention is Satvik and bad intention is Tamsik.
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥
कर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए और विकर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए तथा अकर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति गहन-छिपी हुई-कठिन है।[श्रीमद्भागवद गीता 4.17] 
One should understand-realize the essence-gist of pious-righteous actions, vices (wretched, immoral actions, sins) and inaction because the effects, results, outcome of actions is hidden-deep. 
अन्तःकरण के भाव से कर्म के तीन भेद हैं। कर्म, अकर्म और विकर्म। सकामभाव से की गई कोई भी क्रिया कर्म बन जाती है। फलेच्छा, ममता, आसक्ति से रहित परमार्थ कर्म अकर्म बन जाता है। विहित कर्म यदि अहित की भावना अथवा दुःख पहुँचाने के भाव-इच्छा से किया गया तो वह भी विकर्म-पाप बन जायेगा तथा शास्त्र निषिद्ध कर्म तो विकर्म है ही। निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्म के तत्व को जानना है। कामना से कर्म होते हैं और कामना बढ़ जाने से विकर्म। समतापूर्वक किया गया विकर्म भी अकर्म बन जाता है। विकर्म के तत्व को जानना है, उसका और कामना का स्वरूप से त्याग करना है। 
कर्म की गति को कर्तव्याभिमान और फलेच्छा-सुखेच्छा के रहते जानना-समझना बेहद कठिन (क्लिष्ठ, मुश्किल) है।
Deeds-actions can be divided into three categories according to their impact over the inner self-thinking of the individual. (1). Basic: (1.1). Vested (latent, contained, entrusted) & (1.2). Ordained, prescribed (proper, determined, fit), (2). Deeds undone (inaction, having no impact over the doer) & (3). Vices (sins, wretched, criminal offences, immoral acts). Any result oriented action performance is deed. Actions made (done without desire, motive turn into deed undone, not performed). Ordained, prescribed (proper, determined, fit) performed with the desire-motive of harming others, turn into sins. Any deed against the scriptures too is  a sin. Understanding of the fact that performances without involvement-attachment, is knowing the gist of deeds. Performances associated with equanimity, turn into deeds undone, how so ever intricate-horrific may they be. Understanding the gist of deeds undone and their summary rejection is essential. Its extremely difficult-intricate to know the orientation of the outcome-result of deeds due to the association of ego-pride and desire-motive for comforts-luxuries.
One has to perform till he is alive. His actions should be free from desires, motives, own benefit if he wish to attain Salvation. The deeds may be virtuous in one situation and yet a sin in another. 
कर्मण्यकर्म यः पश्येद-कर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी सभी कर्मों को करने वाला है।[श्रीमद्भागवद गीता 4.18] 
One who sees (finds, perceives, observes) inaction in action and action in inaction, he is wise-enlightened among humans. He is a Yogi-established and is the doer-performer of all actions; nothing remains to be done by him.
जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, कर्म करना अथवा न करना दोनों ही कर्म हैं। कोई भी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना, यानि कि प्रवृति अथवा निवृति न रखना, मनुष्य को बन्धन मुक्त रखता है। यह योगी का लक्षण है। निर्लिप्तता स्वयं के लिये और कर्म संसार-प्रकृति के लिये हैं, धर्म स्वरुप हैं। परिवर्तन शील प्रकृति और निवृति का आरम्भ और अंत होता है, मगर परम निवृत तत्व-अपने स्वरूप का अन्त नहीं होता। जो बुद्धिमान है, वह इस कर्म तत्व को समझ लेता है अर्थात उसने सब कुछ जान लिया। फल की इच्छा न रखने से राग उत्पन्न नहीं होता और परमार्थ-हित करने से साधक वीतराग हो जाता है और सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। कर्म योगी सिद्धि और असिद्धि में सम रहता है। वह फलेच्छा, ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल दूसरों के लिये कर्तव्य-कर्म करता है। करना, जानना और पाना शेष न रहने से वह कर्मयोगी अशुभ संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। 
By the time one has relation with the nature i.e., he is alive; whether he does any thing or not, he is continuously working (functioning, performing). Whether one does any thing or not his indifference (detachment, dissociation) keeps him free from bonds-ties. Neither he intends to do nor desires to detach to remain aloof. This is the characteristics of a Yogi. Detachment is for himself and performances are for the nature i.e., for others. The nature and intentions-tendencies to detach have a beginning and end, but the own self (inner self, soul) has no end. The intelligent-prudent, grasp the gist (extract, theme) of this concept. Understanding of this concept means that he has understood every thing. Loss of desire to have the reward of deeds creates detachment and he start functioning in the interest of others-society which relinquishes him and he weighs the work and no work equally. 
He, the Karm Yogi has acquired equanimity in achievements and failures-no success. He rejects the desires for reward, affections, attachments, allurements and performs for the service-as a duty, for the sake of others, in need. The Karm Yogi has nothing to do, know or receive and this makes him free from the inauspicious bonds (clutches, ties) in this  world-universe.
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥[श्रीमद्भागवद गीता 4.19] 
जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरंभ कामना और संकल्प से रहित होते हैं और जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि द्वारा जल चुके हैं, उसको ज्ञानी लोग भी पंडित-बुद्धिमान कहते हैं। 
One, the beginning of whose actions is without desires & determination-commitments  and whose deeds have been eliminated (vanished, burnt, covered, consumed) by the fire of wisdom (enlightenment) is recognised as a Pandit (philosopher, wise, learned, scholar) by the enlightened. 
किसी कार्य को करने का निश्चय करना-निर्णय करना संकल्प होता है। अच्छा-बुरा, हानिकारक-लाभप्रद है अथवा नहीं, यह देखना तथा नुकसान करने वाला हो तो अन्य मार्ग-पथ का चुनाव करना विकल्प तलाशना है। जब विकल्प हट जाये तब कामना रह जाती है। कर्मयोगी में संकल्प और विकल्प दोनों ही मिट जाते हैं। उसके सामने जो मार्ग है, उसमें कामना नहीं होती, परन्तु कर्म होता है। उसके द्वारा हर काम सुचारु रूप से सांगोपांग और तत्परता पूर्वक किया जाता है। उसके कार्य शास्त्र सम्मत होते हैं। उनसे किसी का अहित नहीं होता। उनमें संकल्प और कामना का अभाव रहता है। यह समझ लेना कि कर्म का सम्बन्ध शरीर के साथ है, स्वरूप (शरीरी, आत्मा) के साथ नहीं, ज्ञान है। शरीर और कर्म दोनों ही नाशवान हैं। कर्म योगी कर्मयोनि मानव शरीर में रहकर भी इसमें लिप्त नहीं होता।  कर्मों में  लिप्त होना बुद्धिमान के लिए असम्भव है। 
The decision to start some job, project, work is determination. One may opt for alternatives only after finding gains or losses, associated with what he wants to do. Failure to find alternatives, leaves behind longing-unsatisfied desires. The Karm Yogi has no choices-alternatives and motives. The path adopted by him is free from desires-longings, with the pure, pious, virtuous, righteous performances. All his deeds are perfect, associated with readiness-willingness, done-performed, smoothly-dedicatedly. His functions have the permission of the Shastr (scriptures, Philosophy). He never intends to harm anyone. Understanding of the fact that deeds are associated with the body & not with the soul is acquisition of learning-knowledge. Body as well as deeds are perishable. 
Karm Yogi utilise the human body (incarnation) for achieving the Ultimate without being attached to it. One who has understood-grasped this gist, is praised by the enlightened as learned (wise, intelligent, prudent).
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥[श्रीमद्भागवद गीता 4.20]
जो व्यक्ति कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और स्वयं में  सदा तृप्त-नित्य संतुष्ट है, वह कर्मों में लगा हुआ होकर भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। 
One who has given up (rejected, relinquished) attachment for the actions and their fruits, is always content with him self and is independent, though engaged in actions, is a not a doer-performer, in essence-reality.
कर्म करते हुए कर्ता का यह भाव कि शरीरादि कर्म-सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा औए मेरे लिए है तथा इसका मुझे यह-अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्म फल का हेतु बन जाता है। अगर इनमें किञ्चित मात्र भी आसक्ति नहीं है तो वो कर्मफल का हेतु नहीं बनता। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि का किञ्चित मात्र भी आश्रय न लेना निराश्रय है। उसे स्वतः सिद्ध नित्य तृप्ति का अनुभव हो जाता है। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसार के हित में होते हैं। 
सांगोपांग रीति से सब कर्म करते हुए भी वह वास्तव में किञ्चित मात्र कोई कर्म नहीं करता, क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त के साथ कर्म का स्पर्श ही नहीं होता तथा उसके सभी कर्म अकर्म  हो जाते हैं। अतः वह कर्मफल से बँधता ही नहीं। 
The thinking (understanding) of the doer that this body, the objects, materials, (aims, targets, goals) to perform are mine, the deeds are mine, I will be rewarded in this or that manner, become the motive for performance-more & more repeated performances. If one is not inclined (attached, interested) in the result oriented deeds,  he remains aloof (unstained, unslurred, untainted) from the outcome-result of the deeds. Not to seek dependence over country-place, period (era, time), object-material, individuals, situations makes one independent. He starts realising contemplation-satisfaction. All his deeds-motives are directed towards the  well being of the masses-society. This is the state when he does every thing strictly according to the dictates of scriptures-Shastr but the deeds & their out come become null and void, since he is detached (relinquished, content). He remains untied (unbonded, free) with the deeds and their out come.
The relinquished performs but is not tied by the impact, result, out come of the deeds.
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। 
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥[श्रीमद्भागवद गीता 4.21] 
जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है ऐसा इच्छा रहित कर्म योगी-मनुष्य केवल शरीर-निर्वाह संबंधी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता। 
One who has controlled his body and the inner self (soul, heart, ego & mind), who has rejected-relinquished the collection (storage, accumulation, possessions) of every thing, a desires free person-Karm Yogi is not tainted-slurred, while doing-discharging all his duties pertaining to the sustenance of the body.
कर्मयोगी आशा और इच्छा से मुक्त है। अतः उसका शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वश में हो जाते हैं। सन्यास की अवस्था में कर्मयोगी सब प्रकार के भोग-संग्रह का परित्याग कर चुका है। गृहस्थ हो, तो भी वह भोग की दृष्टि से किसी चीज का संग्रह नही करता, अपितु संसार की सेवा के दृष्टिकोण से रखता है। उसमें कामना, आशा, स्पृहा, वासना नहीं रहते। निवृति परायण कर्मयोगी केवल शरीर-निर्वाह के लायक न्यूनतम  कर्म ही करता है। क्योंकि उसका कर्म करने अथवा न करने से अपना किञ्चित मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वह जन्म-मरण तथा पाप से भी मुक्त है। उसमें आलस्य-प्रमाद भी नहीं हैं। उसके शरीर, इन्द्रियांँ संयत हैं। 
Karm Yogi is free from desires-motivation. His physique, sense organs and the inner self (soul, heart, ego, sentiments, psyche  & mind) are disciplined-under control. As a hermit (wanderer, recluse), he has relinquished (rejected) the tendency to accumulate (collect, store) goods for comforts-utilisation. As a household-family member, he possess these commodities for the benefit-utilisation of others-as a component social responsibilities. He is liable to fulfill his families needs as a responsibility. He is free from desires-wants, hope, sensuality, sexuality, passions. One who has the tendency to Liberate, stocks-piles only that much goods as are needed for sustenance-subsistence. Since, he has no relation with deeds-performances or non performances, he is free from sins & birth or death. He is free from laziness & intoxication. His physique and sense organs are balanced. Mentally, he is sound-perfect.
The needs of the relinquished are barest possible, minimum. He has no desire or ambition. He performs for the sake of others and does not accumulate-acquire any thing for himself.
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥[श्रीमद्भागवद गीता 4.22] 
अपने आप जो कुछ मिल जाये उससे वह संतुष्ट रहता है, जो ईर्ष्या से रहित, द्वंद्वों (हर्ष, शोक आदि) से रहित तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।
One is satisfied-content with whatever comes his way through destiny (stroke of luck, fate) automatically-without efforts, is beyond enmity-envy &  disputes, has attained equanimity towards success and failure, is not bound by the deeds-actions while doing-discharging them.
कर्मयोगी निष्काम भाव से सभी कर्तव्य-कर्म करता हुआ, फल प्राप्ति की इच्छा से रहित-कर्म के अनुकूल या प्रतिकूल, लाभ या हानि, मान अपमान, स्तुति-निन्दा से अपने अन्तःकरण में दोष उत्पन्न नहीं देता। उसके लिए समस्त चराचर के प्राणी एक समान हैं। उसे किसी से भी ईर्ष्या-ग्लानि-द्वेष नहीं है। उसका मन-मस्तिष्क अन्तर्द्वन्दों, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, से मुक्त है। वह द्वैत और अद्वैत, निर्गुण या निराकार  के झगड़े-झंझट से दूर है। सिद्धि-असिद्धि में उसका सम भाव है। वह तो कर्म करते हुए भी नहीं बँधता-फिर अकर्म और कर्म न करने से तो कैसे बँधेगा!? वह तो पूर्ण रूप से निर्लिप्त है। उसे समता की प्राप्ति हो चुकी है। 
Karm Yogi does every thing without attachment with it, without the desire of reward-positive out come of it. He does not bother weather the proceeds are gain or loss, praise or slur, insult or honor, prayer or blasphemy. For him the entire world is one. All its creatures-organisms are similar-identical having the component-soul of the Almighty, in them. His mind (mood, psyche, inner self, heart, soul) are never perturbed-disturbed, by pain or pleasure, enmity or friendship. He do not care for the duality of the Almighty. He has same attitude-equanimity, towards success and failure. He is unbonded-free, while working-performing deeds and therefore, he can not be tied (tainted, slurred), when he is not performing. He has attained equanimity.
Equanimity, contentedness, self satisfaction paves the way for the Karm Yogi.
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥[श्रीमद्भागवद गीता 4.23] 
जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, इस प्रकार केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं। 
One whose attachments have destroyed, who is free (liberated, without bonds, ties, attachments, allurements) whose intelligence is stable in enlightenment (memory of the Almighty) and he does work for the sake of Yagy-sacrifices (performs only for the sake of social benefit) only; all his Karm-deeds, which connects him with the unending cycle of birth and death are lost. He is set to get Salvation-Liberation, Assimilation in the Almighty. This is the Ultimate goal of human incarnation which connects him to eternity.
मनुष्य का घटनाक्रम, क्रियाओं, पदार्थ, परिस्थितियों, व्यक्तियों से जो सम्बन्ध-हृदय से लगाव है, वही जन्म-मरण का हेतु है। मनुष्य असंग होते हुए भी शरीर, इन्द्रियों, बुद्धि, पदार्थ, परिस्थिति आदि से सम्बन्ध मानकर सुख की चाहत में, उनसे आबद्ध हो जाता है। कर्मयोगी इनको अपने लिये नहीं मानता, अपितु संसार की ही सम्पत्ति मानकर, संसार को ही अर्पित कर देता है। उसमें अहम नष्ट हो जाता है। वह ममता, आसक्ति, कामना के प्रवाह से मुक्त हो जाता है। उसकी बुद्धि में स्वरूप का ज्ञान नित्य-निरन्तर जाग्रत रहता है। क्रिया और पदार्थ जड़ हैं, इनका स्वरूप से किञ्चित मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। ये प्रकाश्य और स्वरूप प्रकाशक-चेतन, असंग है। निस्वार्थ रूप से दूसरों की सेवा यज्ञ है। क्योंकि यज्ञ के लिये कर्म करने से सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। अतः कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। मनुष्य के जीवन का महत्व इसलिए है कि वो मोक्ष के लिये यज्ञ रूपी सतत् प्रयास जारी रखे।
Attachment of the human being with the situation, events, actions, material objects and the other organisms, results in unending cycle of infinite incarnations leading to 84,00,000 species. He keeps on vibrating-rotating from one them to the other. Man is mortal but the soul is for ever. The inner self though independent, yet it gets attached with the desire for comforts with actions, commodities, body, sense organs, intelligence, situations etc. The Karm Yogi, do not consider all these for him self. He is busy with the benefit of society, masses, down trodden. His ego-pride have been lost. He has offered-provided, all his belongings for the service of man kind (social welfare, masses, public), who needs them. He no more suffers from desires, attachments (allurements, ties, bonds). His intelligence always keep him alert about the real self (soul, the component of the God) with in him.
He has realised that actions and material objects are inertial-static in nature. The real self has no permanent connection with them. The real self shows the static nature of material objects-body and actions. Selfless service is Yagy (ascetic practice, prayer, devotion, worship). 
Since, one has been busy through out his life performing for others, all his deeds have resulted in his detachment-freedom from reincarnation. He has successfully utilised the opportunity for his Liberation (Assimilation in the Almighty, Salvation).
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥[श्रीमद्भागवद गीता 4.24] 
जिससे अर्पण किया जाये (स्त्रुक्, स्त्रुवा) वे पात्र ब्रह्म है, यज्ञ में अर्पित हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी, आदि) द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूपी कर्ता द्वारा ब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति रूपी क्रिया भी ब्रह्म है, ऐसे यज्ञ को करने वाले जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गई है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। 
Offerings-sacrifices, pots (instruments, implements) in a Yagy (Hawan, Agnihotr, sacred scarifies in holi fire) are Brahm, materials sacrificed in Agnihotr-sacrificial fire constitute Brahm, one who is making sacrifice-oblation in the fire, sacrifice and the sacrificial fire too, is Brahm and one who has attained Karm Samadhi in the Brahm, output, result-rewards obtained out of this Hawan-sacrifice by the performer too constitute Brahm-the Ultimate.
यज्ञ में अग्नि रूप हुई आहुति मुख्य है। सभी साधन साध्य रूप होने पर यज्ञ बनते हैं। यज्ञ में परमात्म तत्व वास्तविकता है। यज्ञ कर्ता के सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। अर्पण की क्रिया, पदार्थ, आहुति देने वाला, अग्नि और आहुति देने की क्रिया ब्रह्म ही हैं। कर्ता को ब्रह्म में ही कर्म समाधि अनुभव होती है अर्थात उसकी सभी कर्मों में ब्रह्म बुद्धि होती है। उसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्म रूप हो जाते हैं। उसे फल के रूप में भी ब्रह्म की ही उपलब्धि होती है। उसकी दृष्टि में सिवाय ब्रह्म के अन्य किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। 
Sacrificial fire is the main component of the Yagy (Hawan, Agnihotr). Sacrifices offered, turn into eternal fire. All means pertaining to Yagy Karm turn into (Assimilate into the Ultimate, Eternal). All actions of the devotee-performer turn into non actions, leading him to freedom from birth and death. 
All functions (offerings, oblations, materials, performer, sacrificial fire) and the processes too turn into Brahm. The doer finds Brahm Samadhi in his actions-process. He receives the out put of the Yagy in the form of Brahm, it self. He do not find any thing independent, other than the Brahm.
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। 
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.10] 
जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्व गुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है तथा अपने स्वरूप में स्थित है।  
जो भी शास्त्र विहित शुभ कर्म फलेच्छा से किया जायेगा, वो पुनर्जन्म कारक होगा। शास्त्र निषिद्ध पाप कर्म नीच योनियों या नर्क में ले जायेगा। ये कर्म अकुशल कर्म कहलाते हैं और  इनका त्याग द्वेषरहित भाव से करना चाहिये। द्वेष, फलेच्छा से अथवा अकुशल कर्म दोनों से ज्यादा भयंकर फलदायक है। शास्त्र विहित वर्णाश्रम धर्म व परिस्थिति जन्य कर्म जो आसक्ति व फलेच्छा का त्याग करके किये जाते हैं, वे कुशल कर्म मुक्ति दायक हैं। 
कुशल कर्म करने में जिसका राग नहीं व अकुशल कर्मों के त्याग में जिसका द्वेष नहीं है, जो निर्लिप्त है, वही असली त्यागी है और योगारूढ़ है। तत्व भाव में अविछन्न भाव से स्थित रहने के कारण उसमें किसी प्रकार के संदेह की गुंजाईश नहीं रहती। 
आसक्ति आदि का त्याग होने से, उसकी अपने स्वरूप में, चिन्मयता (All Consciousness, Pure Consciousness) में स्वतः स्थिति हो जाती है। 
जिसके सम्पूर्ण कार्य सांगोपांग, संकल्प और विकल्प, कामना से रहित तथा ज्ञान रूप अग्नि ने जिसके सम्पूर्ण कर्मों को जला दिया है वे मेधावी, विद्वान, पण्डित कहा जाता है। 
The renouncer, who has no bias (envy, grudge) against inauspicious, evil, unfavourable, useless or unprofitable Karm; is unattached and wise (intelligent, enlightened, learned, prudent), free from doubts and suspicions-pervaded by wisdom, is entrenched-stabilised  in his own self i.e., Salvation.
Generally, auspicious, religious ceremonies, rituals, pilgrimages are undertaken with the motive-desire to improve next birth. Inauspicious, anti social, evil, inhuman, misdeeds are sufficient to place the doer in hell or lower life forms; even if they are rejected, without bias. One becomes detached, if he stops the Karm with bias, but develops a relationship with bias-which is even more harmful and dangerous than the auspicious and inauspicious ventures.
Certain deeds performed as per scriptures, especially according to Varnashram Dharm-duties or circumstantially, without any desire, leading to renunciation, are termed as useful or profitable, if the performer do not get attached to them. One, who has no attachment for useful ventures and has no bias against evils, is a real renouncer. He should not be affected by either of these, if so, he leads to Yog-assimilation in God.
One who performs and yet remains unaffected, is wise and becomes free from doubts or suspicions (about the cause and effect of birth and rebirth and the Almighty), which arise only when there is confusion in the mind.
With the loss of attachments and desires, the devotee attains his own self or innerself (freedom from distortions, birth, death and defects) i.e., becomes an independent component of the Almighty, the Brahm.
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। 
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.11] 
शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग किया जाना सम्भव नहीं है, इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है, यह कहा जाता है। 
It’s not possible for the embodied human beings to renounce, abandon, discard the entire Karm, therefore the one, who renounces the Karmfal, is the ultimate Tyagi–the renouncer.
मनुष्यों के द्वारा कर्मों का पूर्ण रूप से त्याग करना संभव नहीं है, क्योंकि शरीर प्रकृति का अंग है। मनुष्य यज्ञ, तप, दान, तीर्थ, जैसे कर्मों को भले ही छोड़ दे; परन्तु खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि नहीं छोड़ सकता। ये बाहरी सम्बन्ध नहीं छूट सकते। सम्बन्ध अन्दर से-मन से छोड़ना है। कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता-योगनिष्ठा भी प्राप्त नहीं होती और कर्मों का त्याग करने मात्र से-साँख्य निष्ठा भी प्राप्त नहीं होगी। 
जब तक प्राणी-मनुष्य जिन्दा है, उसके साँस चल रही है, ह्रदय धड़क रहा है, वह कर्म कर रहा है। 
पुरुष चेतन, निर्विकार, एकरस तथा प्रकृति विकारी, परिवर्तनशील है। जब तक पुरुष प्रकृति के साथ तादात्म्य मानता रहेगा, उसका कर्मों से सम्बन्ध बना रहेगा। पुरुष ने प्रकृति से सम्बन्ध जोड़ा है ना कि प्रकृति ने पुरुष से। स्वयं को शरीर मानने से अहंता और शरीर को अपना मानने से ममता होती है। अहंता-ममता की घनिष्ठता देहधारी को कर्मों से मुक्त नहीं होने देती। इससे आसक्ति, कर्मासक्ति, फलासक्ति होती है, मगर विवेक उसे निर्विकार बनाता है, अभिमान नहीं आने देता और विवेकी-निराभिमानी अंतःकरण से कर्म व कर्मफल  कर देता है। 
One who develops rapport with his body can’t renounce the Karm Fal completely, since the body is a component of nature, which is always active.
If one develops rapport with the body, he can’t desert action. He may desert Yagy, Dan, Tap, pilgrimage etc. But he can’t cease to move, excrete, respire or food intake, unless the innerself detaches itself with the Karm, one can’t detach himself from Karm.
It’s not possible to attain the status of Nish Karmanyta (a state of life free from actions), unless one starts working. Just by rejection of deeds, one can’t attain accomplishment (Siddhi-capability to grant, fulfill, boons, certain desire).
Once it’s decided to renounce the Karm Fal, all deeds automatically turns to benefit the mankind.
Prudence-intelligence never let the doer suffer from ego, due the rejection of Karm Fal (reward of industry). In fact, the Karm (task), which has been completed, keeps no relation with the doer, as well as the Karm Fal (reward), which once utilised vanishes forever, maintaining no relation with him.
Man is attached with the nature; nature is not attached with him. This is always a one sided affair (relation).
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। 
साँख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.13] 
हे महाबाहो! साँख्य-शास्त्र में कर्मों का अंत करने वाले, सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये ये पाँच हेतु-कारण बताये गए हैं; उनको तू मुझ से भली भाँति जान।
Philosophy of Sankhy (Gyan, enlightenment  Yog), which eliminates all Karm, has described five means (motives, reasons) for the successful performance of duties. 
कर्म शास्त्र विहित है या शास्त्र निषद्ध, शारीरिक हो या मानसिक अथवा वाचिक, स्थूल हो या सूक्ष्म, इन सबके 5 हेतु बताये गए हैं। इन कर्मों में कर्तव्य-कर्तव्याभिमान रहने पर कर्म सिद्धि और कर्म संग्रह दोनों होते हैं। जब इन कर्मों में कर्तव्य नहीं रहता, तब कर्म सिद्धि तो होती है, मगर कर्म संग्रह नहीं होता। अपितु क्रिया में अधिष्ठान, करण, चेष्टा और दैव; ये 4 हेतु ही रह जाते हैं। 
साँख्य सिद्धान्त में विवेक-विचार की प्रधानता है। क्षत्रिय होने के नाते युद्ध अर्जुन का कर्तव्य-कर्म है। साँख्य योग में अहंता (मैं पन)  का त्याग मुख्य है, जिससे ममता (मेरा पन) का त्याग स्वतः हो जाता है। अहंता में भी ममता होती है। 
Attainment of God has two main divisions :: (1). DIVINE-ALOUKIK अलौकिक :- The divine or Akshar, which is a component of the Almighty and constitutes of imperishable soul, the one which never vanishes and the other (2). LOUKIK-WORLDLY लौकिक :- It pertains to Human, which is Ksher or perishable. Together, they constitute of three paths to Salvation :- (1.1). Alokik (Divine, Eternal) Bhakti, (2.1). Loukik (Worldly), Sankhy Yog i.e., Gyan Yog and (2.2). Loukik :- Karm Yog.
The path of Aloukik Bhakti is available and open to all :- the deities, demons and humans. Human beings are the only ones, blessed with all the three paths. Human body is capable of performing Gyan Yog as well as Karm Yog. Salvation is Mukti: Sayujy, Sarupy, Salok, Samipy. Bhakti is considered superior to it i.e., Salvation. Bhakti associated by Mukti is still better.
Gyan-Sankhy Yog utilises knowledge, understanding, prudence, intelligence, consciousness and practice to achieve the Almighty. It’s initiated with :- I have nothing. I don’t need anything. I have nothing to do for me. It requires detachment on the part of the doer. Thought behind Sankhy can be grasped by understanding it in depth, through conscience, prudence and meditation. Ego (pride, glory) is major hurdle in it’s path.
KARM YOG :: The body, it's various organs, senses, systems and the devotee’s efforts, actions, gestures constitutes this methodology. When devotee seeks help from the God or is patronised by the God, in his efforts as major contributor, then everything turns divine, including his faith. It does not consider anyone to be bad. Don’t have ill will for anyone. Don’t do evil of others.
Elimination of Karm is related to egotism, which has four purposes :- Abode, Implementation, Attempt and the Destiny. Whether an act is prescribed, determined or prohibited by scriptures (treatise, Shashtr), it has five motives behind accomplishment :- Physical, mental, oral-verbal, micro, macro. When a person undertakes them, he accumulates them. When these actions are free from desires; accomplishment is there but no accumulation. When intention is lost behind these actions, it leads to success without accumulation. Actions, constituting sins or virtues, free from accumulation, are not binding.
The imprudent, who considers the natural vital activities and functions as having been done by him, becomes the reason or cause behind accomplishment of motives. Either acceptance or rejection of Karm or Karm Fal are not the vehicles (means, causes) of welfare. Neither the acceptance nor renouncement, are the motives of welfare. Means of welfare is break up of soul with nature. Karm Yog stands for renouncement of belongingness (affections) and the Karm Fal. Loss of belongingness automatically leads to loss of ego (I, My, Me, Mine). Ego has a component of belongingness  Rejection of ego cuts the bonds of affections or belongingness  It’s the egotism that pertains to the feeling of having done it, which leads to accomplishment of Karm and accumulation as well. In Karm Yog, loss of affections eliminates ego i.e., renouncement through detachment with reward.
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। 
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.18] 
ज्ञाता (जानने वाले का नाम ज्ञाता है), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाये-ज्ञान) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु-ज्ञेय), इन तीनों से कर्म-प्रेरणा होती हैं और कर्ता (कर्म करने वाला, कर्ता), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, करण।) तथा क्रिया (करना, क्रिया), ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है। 
Knowledge, theme (content of Knowledge) and the learned person (the scholar, philosopher, Pandit, enlightened, intellectual) is inspired for Karm and the Motive (instruments, objects), Karm and the doer, leads to acquisition of Karm.
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता के होने पर ही कर्म की प्रेरणा होती है। कर्ता अनेक हो सकते हैं; परन्तु उन सबको जानने वाला एक ही रहता है, जिसे परिज्ञाता कहा गया है। कर्म संग्रह के 3 कारण हैं :- करण, कर्म और कर्ता। क्रिया करने के साधन करण, चेष्टाएँ कर्म और इन दोनों से संबंध जोड़ने वाला कर्ता है। कर्तापन होने से अहंकृत भाव होने से कर्म संग्रह होता है, अन्यथा नहीं। 
अहंकार और लिप्सा-लिप्तता होने से ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का संयोग कर्म प्रेरणा और संग्रह पाप-पुण्य का कारण बनता है। 
The doer is responsible for acquisition of Karm. The ego is the vehicle of acquisition in the doer. The tendency-inspiration takes place by ego. Attachment and the combination of knowledge, theme (contents-objects of knowledge) and the learned tends to fulfill the ambition (goals, target). Loss of Ego leads to vanishing of acquired Karm and ultimately Karm Fal.
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। 
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.19] 
गुणों का विवेचन करने वाले शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान और कर्म तथा कर्ता तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तुम मुझ से भली भाँति सुनो। 
The Philosophy, scriptures, treatise (Sankhy Shastr, Gyan Yog), which analyses (investigate, evaluate, discriminate) the characteristics, finds Gyan (learning, knowledge), Karm and the doer are of three types (depending upon :: Satvik , Rajsik, Tamsik).
कर्म की प्रेरणा से पहले ज्ञान होता है। इसके बाद हो कर्म आरम्भ होता है। कर्म करने में कर्ता मुख्य है। ज्ञान, कर्ता और कर्म के सात्विक रहने से मनुष्य निर्लिप्त रहता है। ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता तथा कर्म, करण और कर्ता में बुद्धि-विचार-विवेक की प्रधानता है। सात्विकता कर्मों से संबन्ध विच्छेद करा कर परमात्म तत्व से मिलाने वाली है। राजस प्रवृति मनुष्य को जन्म-मृत्यु चक्र में उलझाती है और तामस प्रवृति  उसे नर्क और नीच योनियों में जाती है। 
Intelligence (depending upon inclination, needs, desires) is behind the choice-selection of work (profession). Fore sight (awareness) provides inspiration to do a certain job. Satvik combination of Gyan (insight+foresight), Karm and the Karta (doer) detaches the person from the worldly affairs and connects him with the Ultimate-God. Rajas Karm puts him in the cycle of birth and rebirth, while Tamsik Karm throws him into the hell or lower form of life–forms, species.
The enlightened devotee frees from attachments and prejudices, perceives (sees), the Pure, Defect less, Supreme Soul in differentiated, distinguished, divisible, destructible, possession, knowledge and behaviour. He rises above all and attains the essence of Supreme Soul.
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। 
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.41]
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं। 
O Parantap! The deeds-duties of Brahmn, Kshatriy, Vaeshy and Shudr are differentiated on the basis of the three characteristics (qualities, abilities, traits) generated-evolved from their nature possessed by them through various births carried over with the soul.
Professional behaviour (nature of work) one is performing, comes through their accumulated deeds evolved out of destiny. There duties are divided according to the qualities-three characteristics born out of nature. 
द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) और शूद्रों के वर्णाश्रम धर्म अलग-अलग हैं। मनुष्यों में उनके पूर्व जन्मों के संस्कार उनके वर्तमान जन्म में किसी जाति-विशेष में जन्म का कारण बनते हैं। सत्व, रज और तम ही संस्कारों का निर्माण करते हैं। ऊँच-नीच योनि में जन्म और भोगों का मिलना, ये पूर्व जन्मों के शेष कर्मों का परिणाम मात्र हैं। मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराना नहीं चाहिए, अपितु उनके आधार पर अपने अगले जन्मों को सुधारने का प्रयास करना चाहिए। इसमें बुद्धि, विवेक, संगति, आचार, विचार, स्वाध्याय सहायक सिद्ध होते हैं। आज जो ब्राह्मण है, कल को वो ही व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम स्वरूप अति निकृष्ट कीट, पशु, पक्षी योनि में भी जा सकता है और एक शूद्र मात्र स्वकर्म को सुचारू रूप से अँजाम देकर देव योनि अथवा मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। जातिगत अभिमान व्यक्ति को नर्क में भी पहुँचा सकता है। 
Brahmn, Kshatriy and Vaeshy are termed as Dwij Jati (upper cast, Swarn) and Shudr belong to lower castes-service class. Four divisions in the population have been created on the basis of characters (Gun) and nature of work. Nature of work is differentiated on the basis of the three characteristics, earth, heaven, nether world and the deities. Birth in any of the four Varn (Caste) takes place as a result of the performances in the previous births, while the present and previous births will decide the next births, in India (Bharat, Hindustan, Aryavart). Elsewhere, differentiation like black-white, rich-poor, high-low, upper caste-lower caste, masters-slaves are also based on the basis of deeds in previous births
Innerself of the human being is affected by his rites, actions, company, environment, which lays down the foundation of his nature and behavior. Nature and behavior in previous births, develop the Satv, Rajo or Temo Gun (tendencies, characters) in him, which decides his present birth in Brahmn, Kshatriy, Vaeshy or Shudr families. His actions too depend upon inborn characteristics-tendencies, which develop his mentality. Birth in higher or lower species-animate, is the result of destiny, on the basis of performances in previous births and pleasure & pains are associated with them accordingly.
One should not be proud of being a Brahmn and the Shudr should not be shy-depressed, demoralised for  being so, since the Varn is not a permanent feature of the soul.
Brahmn, Kshatriy, Vaeshy and Shudr too have further sub divisions making them higher or lower as compared to the other one. Animals too have distinctions like revered-hated, good-bad, honourable or taboo like the cow is revered and a pig is discarded.
No one can be purely pious-virtuous or a sinner. Those with higher composition of Satvik Gun, goes to heavens, one with higher content of Rajsik Gun, will inhabit the earth and with excess of Tamsik gun one is moved to lower species, abodes and the hell.
More of Satv Gun creates a Brahmn, dominance of Rajo Gun over recessive Satv gun, forms a Kshatriy and the dominance of Rajo Gun and depression of Temo Gun creates a Vaeshy, while excessive Temo Gun leads to birth in a Shudr family.
Similarly, such distinction, hierarchy is present in the inhabitants, occupants of the three abodes (heavens, earth, nether world) as well, like caste, position, status, situation etc.
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। 
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में प्रीति पूर्वक-तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य, जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।[श्रीमद् भगवद्गीता 18.45] 
Listen-understand the means, method, procedure by following which a person engaged-perform his duties affectionately, religiously, piously, attains accomplishment-the Ultimate, as described by the Almighty himself. 
मनुष्य को सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो सकती है, अगर वो अपने लिए उलझन, राग-द्वेष पैदा न करे। प्राकृतिक कर्मों को स्वार्थ-फलेच्छा को त्यागकर, तत्परतापूर्वक आचरण करने से आसक्ति का वेग पैदा नहीं होता और निर्लिप्तता उत्पन्न होती है। इससे परमात्मा की तरफ स्वाभाविक आकर्षण पैदा हो जाता है। कर्म परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं और उसमें ही विलीन हो जाते हैं। अतः मनुष्य को अपने शास्त्रोचित कर्तव्य का प्रेम पूर्वक, आदर पूर्वक, नि:स्वार्थभाव से करना चाहिये। किसी भी कर्म में भाव की प्रधानता है। एक ही कर्म भाव के पृथक होने से सुखदायक अथवा दुःखदायक बन जाता है। 
It’s evident that accomplishment is a natural gift to a person, who continues with his prescribed Varnashram-Righteous duties-obligations, provided, he do not create hurdles for himself through attachment, prejudices, vices etc. He should carry out all functions-obligations by discarding selfishness and involvement, happily, eagerly-earnestly, intently, readily, willingly, enthusiastically without the desire of rewards. His motto should be to help others-humanity and seek pleasure in such activities.
Performances, without attachments, lust, prejudice, desire for rewards, quenches his thirst for further natural activities and the person realises self automatically, generating attraction towards the Almighty, leading him to Salvation. At this stage all performances merge into one single stream, increasing the momentum for Salvation.
The human being should act just like a component of a machine which performs in unison with various other components without the feeling-thought of being higher-lower, big-small or great-inferior, since all components are equally important and the machine cannot function if smallest of small of them, goes out of order. Purity of thoughts, disposition, intentions, ideas and understanding of the importance of each organ of the society, paves the way-path to assimilation in God i.e., Salvation-Moksh.
सात्विक कर्म ::
वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम्। 
वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्॥[मनु स्मृति 8.16]
सभी कामनाओं की सिद्धि की वर्षा करने वालों को वृष कहते हैं। वृष भगवत धर्म है। ऐसे धर्म का जो नाश करता है, उसे देवता वृषल कहते हैं। इसलिये धर्म का लोप न करें।  
Showering of virtues, fulfilment of desires is Godly conduct and the duty of the pious, (virtuous, righteous). A person who does this, is like a demigod and is called a Vrash. The person who destroys the virtues, values is called a Vrashal-destroyer of ethics, morals. Vrash is derived from Varsha-i.e., rain.
 वृष :: सभी कामनाओं की सिद्धि की वर्षा करने वालों को वृष कहते हैं। वृष भागवत धर्म है।

वृषल :: जिसे धर्म आदि का कुछ भी ज्ञान न हो, फलतः कुकर्मी और पापी, शूद्र, बदचलनी या शूद्रता के कारण जातिच्युत किया हुआ ब्राह्मण या क्षत्री, घोड़ा, चन्द्रगुप्त का एक नाम। Vrashal is one violates justice, virtues, values or simply a sinner, a person who falls from a higher caste to lower caste due to his misdeeds-misconduct-sins.
नियतं सङ्गरहितम रागद्वेषतः कृतम्। 
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.23]
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले-फलेच्छा से रहित पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो, वह सात्त्विक कहा जाता है। 
कोई भी कर्म जो वर्ण और शास्त्र के अनुसार किसी परिस्थिति में और जिस समय शास्त्रों ने जैसा करने के लिए कहा है वह व्यक्ति के लिए नियत कर्म हो जाता है। शास्त्र निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिये। नियत कर्म कर्तव्याभिमान से रहित होकर किया जाना चाहिये। राग द्वेष से रहित होकर कर्म किया जाये। कर्म का त्याग द्वेष पूर्वक न हो। कर्म के साधन-शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि से भी राग द्वेष रहित हो। कर्म भविष्य में मिलने वाले फल की इच्छा से रहित होकर किया जाये। पदार्थ से निर्लिप्त रहते हुए असंगतापूर्वक किया गया कर्म सात्विक है। जब तक कि अति सूक्ष्म रूप से भी कर्म की प्रकृति के साथ संगता-सम्बन्ध है वह सात्विक है; प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही वह कर्म अकर्म हो जाता है। 
The deeds fixed in the Shashtr-ordained and performed by an individual as per procedure-without attachment, free from the ego of having done it, without the desire for reward, attachments and prejudices is Satvik.
The Karm as per dictates of Varn, Ashram and situation is fixed for a person. One must not act against the Shastr. He should be free from ego. Physical growth, working of organs and systems takes place automatically, under the influence of nature. This realisation, detaches a person from various duties and responsibilities, eliminating ego.
Acceptance of duties, actions and responsibilities by a person and his innerself should be free from attachments, prejudices and devoid of actions. Any action performed without the desire of reward in future with detachment from actions and possessions is Satvik. Satvik Karm is Satvik, till it is attached with nature even at microscopic level, otherwise it becomes Akarm, deed-action not performed. 
सात्विक कर्ता ::
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। 
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.26]
जो कर्ता रागरहित, कर्तव्याभिमान से रहित धैर्य और उत्साह से युक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है (कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है), वह सात्त्विक है। 
साँख्य-ज्ञान योगी के समान सात्विक कर्ता का भी राग नहीं होता। सात्विक कर्ता का कामना-वासना, आसक्ति, स्पृहा, ममता आदि से सम्बन्ध न जोड़ने के कारण लिप्तता का अभाव रहता है। उसका आसुरी भावना से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसमें निर्विकार, त्यागी होने का अभिमान नहीं है। विध्न-बाधा आने पर भी उसमें धैर्य-धृति नित्य, निरन्तर, लगातार बनी रहती है। वह घृति और उत्साह से युक्त है। उसे पूरी शक्ति, ताकत, समझ, समय, सामर्थ्य लगाने पर भी काम पूरा हो या न हो पाये, सिद्धि-असिद्धि, प्रसन्नता-खिन्नता, हर्ष-शोक आदि में निर्विकार रहना है।
आसक्ति-अहंकार से रहित, धैर्य-उत्साह से युक्त, सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार कर्ता सात्विक है। 
Doer who is free from attachments, pride and ego (feeling of having done or achieved something), possess patience and enthusiasm (zeal, morale), unstained by accomplishment (success, fulfilment, attainment) or failure is Satvik (Pious, virtuous, righteous).
The devotee should abstain from the feeling of having sacrificed, detached, being defectless or that he has no ego. Feeling of being special or something, due to possessions, ego or pride should be discarded by the doer with inner strength. He should maintain his patience (calm-cool) and should not deter in spite of obstacles in difficult situations, confrontation by failures, unexpected poor performances-results, obstructions, which is within his limits and reach. He should maintain his patience and Keep up his enthusiasm, zeal and morale in adverse situations-circumstances, without losing heart.
Accomplishments or failures in spite of whole hearted efforts never create pleasure or sadness in his innerself, which are divine and out of his control.
The Satvik never demonstrate his abilities, specialities or powers. Uninvolved-he just do it.
राजस कर्म :: 
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः। 
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.24]
परन्तु जो कर्म भोगों की इच्छा से अथवा अहंकार से और परिश्रम पूर्वक किया जाता है, वह राजस है। 
मनुष्य कर्म करेगा तो उसे पदार्थ-वस्तु, सुख-आराम, भोग की उपलब्धि होगी, आदर-सम्मान मिलेगा,  बड़ाई होगी आदि-आदि फ्लेच्छा से किये गये कर्म हैं। कर्म योगी का शरीर में थोड़ा अभिमान रह भी जायेगा तो वह साँख्य योगी के समान ज्यादा बाधक नहीं होगा। कोई भी कर्म स्वयं के लिये न करने से उसे कर्तव्याभिमान नहीं होगा, क्योंकि वह उसने मात्र कर्तव्य पालन हेतु किया है। कार्य के पूरा होने पर वह कर्तृत्व-अभिमान उसी कार्य में लीन हो जायेगा। 
(1). कोई कार्य करता हुआ देखे और तारीफ करे या अकेले में दूसरों की तुलना में अपने कार्य में विलक्षणता-विशेषता हो तो अभिमान-अहंकार हो ही जाता है। यह अहंकार पूर्वक किया गया कर्म राजस है। (2). फलेच्छा से किया गया कर्म भी राजस है। (3). शरीर के सुखों की प्रधानता होने से फलेच्छा की अवहेलना हो जाती है और फलेच्छा की प्रधानता होने से सुखों की अवलेहना हो जाती है। अहंकार और परिश्रम पूर्वक फलेच्छा से किया गया कर्म राजस है। राजस व्यक्ति की जरूरतें ज्यादा, परिश्रम ज्यादा (झूँट, फ़रेब, बेईमानी, छल-छंद, कपट, आपराधिक प्रवृति, चंचलता आदि की अधिकता), राग द्वेष का बढ़ना, आराम-सुख की चाहत बढ़ती ही रहती है। 
The action (deed-labour) performed-done with the desire for rewards in the form of pleasures, gratification, honours, enjoyment, sex, (suffering is not included in it) or due to vanity, ego, pride is Rajsik.
Ability to perform better, excellence at work, higher educational qualification, status, intelligence-genius, cleverness, honesty, honours, expectation of rewards in future or present associated with labour are Rajsik.
Enthusiasm in doing work by minimising rest, pleasures and comforts, overloading self with hard work, targets, goals etc. is associated with demand for pleasures, joy, luxuries, intimacy, physical comforts; may ultimately result in indifference, negligence and ignorance at work.
Such people increases their needs, requirements, possessions leading to more demand, in turn more labour, associated with attachments to the body and possessions-enhancing their need for rest-due to tiredness, fatigue and ultimately little labour appeared to be too big for them.
राजसिक कर्ता ::
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। 
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.27]
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला-रागी और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाला-हिंसक, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।
The doer who, is attached to the desire of reward, fruits of action, greed, with violent-cruel nature, impure and is passionate-associated with pleasure (happiness-sexuality-sensuality) and pains (sorrow, sadness) is Rajsik. 
राजस कर्ता रजोगुणी होने के कारण के रागी (कर्मों, कर्म फल, वस्तु, पदार्थ आदि में अभुरुचि रखने वाला) कहा गया है। उसे जो कुछ भी मिलता है, उसमें उसकी संतुष्टि नहीं होती और ज्यादा की चाहत बनी रहती है। वो हिंसक व्रती का, अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का नुकसान करने वाला, दुःख देने वाला होता है। उसमें विवेक बुद्धि का अभाव होता है। वह जिन-जिन भोग पदार्थों का संग्रह करता है, वे सब अपवित्र हो जाती हैं। उसके आस-पास का वायुमण्डल-स्थान अपवित्र हो जाता है। वह सफलता-विफलता, अनुकूल-प्रतिकूल, परिस्थिति, घटनाक्रम, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, राग-द्वेष में ही उलझा रहता है। इतना अवश्य है कि रजोगुणी में होश और सावधानी का पुट बना रहता है। 
One who find attraction towards actions, performances and their rewards, desirous of possessions and affections, likes, attachments is Ragi (attached). All his actions are associated with the motive-desire of returns, gains, profits. He seeks more and more of all such things, which satisfy his ego, thirst, anxiety for honours, fame, money, respect. He has no regard or concern for the troubles, tensions losses, incurred by others due to his selfishness. It causes heart burns, envy, jealousy in the have not’s-the poverty stricken. He attacks, terrorise, invades, intrudes, loots, murder others and slaughter anyone and everyone, who dare obstruct him. The envious, depressed, oppressed do feel hurt, humiliated (physically, mentally, sentimentally, spiritually) and curses do affect him. His body, all his possessions, place where he lived, burnt-cremated, buried becomes impure-inauspicious. He keeps struggling with pains-pleasures, successes-failures or favourable-unfavourable happenings. Both Rajsik and Tamsik have a common characteristic of violence and cruelty. Rajsik is conscious, careful and absorbed while Tamsik has no sense or understanding.
तामसिक कर्म :: 
अनुबन्धं क्षयं हिंसा-मनवेक्ष्य च पौरुषम्। 
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.25॥ 
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर केवल मोहपूर्वक-अज्ञानवश आरंभ किया जाता है, वह तामस है।
मूढ़ तामस की प्रधानता के कारण किसी भी कर्म और उसके परिणाम का विचार करता ही नहीं। "बिना विचार जो करे, सो पीछे पछताये; काज बिगारे आपनो, जग में होय हँसाये"। मनुष्य को कोई भी कार्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि इससे अपनी या दूसरों की कोई हानि तो नहीं हो रही है। धन-समय, अपमान-निन्दा-तिरस्कार, लोक-परलोक तो नहीं बिगड़ रहा? कहीं जीवों की हिंसा-हत्या तो नहीं हो रही? इन सबसे उसका अधोपतन तो नहीं हो रहा? उस कार्य को करने की मेरी क्षमता है कि नहीं? मेरी बुद्धि-बल, सामर्थ्य, समय, कला, ज्ञान, पौरुष पर्याप्त हैं अथवा नहीं? ये सब कुछ विवेकहीन कभी भी नहीं सोचता। बुरे से बुरा काम करके भी वह गर्व-बड़ाई का अनुभव करता है। दूसरों के काम में बाधा-अवरोध उत्पन्न करना उसका स्वभाव बन जाता है और उसको तमोगुणी होने के कारण घोर नर्क-हीन  योनियों में जन्म लेना पड़ता है। 
Actions-deeds undertaken without considering consequences, injury, ability, results, outcomes, losses, violence, destruction and own capacity-calibre out of delusion (allurement, ignorance) are Tamsik (darkness).
The Tamsik doer fails to weigh his own ability, capabilities, intelligence, knowledge, vigour vitality, manly strength, courage, spirit before beginning with the work. He acts as per his own mood, whims, fancy, will, without prudence or reasoning. It’s a part of his nature to obstruct-bully others. He seldom understand, the destruction-loss caused to others by his action; automatically leading to his own downfall.
Satvik devotee automatically progress (moves towards Bhakti, Salvation), due to his innerself and nature.
तामसिक कर्ता  ::
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः। 
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.28॥
जो कर्ता असावधान-अयुक्त, अशिक्षित-शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड़ वाला, जिद्दी, घमंडी, धूर्त, उपकारी का अपकार-बुरा करने वाला (दूसरों की जीविका का नाश करने वाला) तथा विषादी-शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है। 
A doer who is careless-lacks concentration, crude-uneducated, rigid-stiff, stubborn, malicious-injurious (offensive, harmful, hostile, inimical, censurable), to the beneficent (helpful, furthering, conducive), lazy, morose, depressed, procrastinate (Unsteady, vulgar, unbending, wicked, indolent, desponding and procrastinating) is Tamsik.
The Muslim terrorists of today and invaders of the past falls in this category.The Britishers who invaded and ruled India too comes under this category.Those who converted Hindus and are still busy with this nonsense too are imprudent-Tamsik.
(1). तामसी प्रवृति का मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार नहीं करता क्योंकि वह मूढ़ है। (2). उसे शास्त्र, सतसंग, उपदेश, अच्छी-उचित शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई। (3). उसका मन, वाणी, शरीर में अकड़ है, जिसके कारण वह वर्णाश्रम के अनुसार अपने से बड़े-बूढ़ों, माता-पिता, गुरु-आचार्य, आदि के साथ आदर-सम्मान-विनम्र व्यवहार नहीं करता। (4). वह शठ-जिद्दी भी है। (5). वो प्रत्युपकार नहीं करता, उलटे बुरा करने का मनोविचार रखता है। (6). वह उचित कर्म नहीं करता, अपितु नींद-आलस में रहता है। (7). इन सब कारणों से उसे सफलता (मोक्ष, मुक्ति) की प्राप्ति नहीं होती, अतः उसे विषाद, क्रोध-आक्रोश बना रहता है। (8). अविवेकी होने के कारण, उसे हर काम को करने में अधिक समय लगता है और उसका कोई काम सुचारु रूप से चलता भी नहीं है। इन आठ लक्षणों वाला व्यक्ति तामस कहलाता है। तामस वृति का विवेक से विरोध है। अतः तामस मनुष्य अधिक विषादी होता है।
The Tamsik individual is incapable of analysing, thinking, decide what to do and what not to do or to appropriate, which makes him careless.
A person, who has not studied Shastr-scriptures, has not been in the association of virtuous people or attended congregations, is devoid of preaching, is crude, illiterate or uneducated, does not bow down in front of parents, elders, teachers, respected people or the mighty, has no manners, is not mild, courteous, humble, reverential, affable or submissive, is Tamsik.
He is wicked, vicious, deceitful and unprincipled, does not accept the good advice due to his stubbornness and considers-likes his own thoughts-fancy & caprice only. He is a person who do not mind harming the people who were helpful-conducive to him. He does not like work, keeps day dreaming, prefer sleep-laying down in the bed. He suffers from sadness, despair, melancholy, depression and is sullen, ill tempered and is unsocial.
It takes him long to finish a work. He is imprudent and do not try to find ways and means to minimise effort or to make the job easier and convenient-is unable to devise short cuts.
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। 
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.46
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। 
Accomplishment is attained by an individual by worshiping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the  universes are pervaded, through his natural, instinctive, prescribed, Varnashram related deeds.
जिस परमात्मा से संसार पैदा-उत्पन्न हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है, जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन  होने के बाद भी रहेगा तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने, स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए। 
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद :- श्रीमद्भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा (पढ़ना, समझना, जीवन में अपनानां) उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्म योगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है। 
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser who alone is complete amongest all; who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in HIM and WHO is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural, prescribed, Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Duties assigned to Brahmns are :- Acquiring knowledge-learning and training for self, educating others, performing Yagy-sacrifices, accepting and making donations-charity, piousness-purity, performing natural deeds, Satvik food habits. All of his movements should be directed towards the welfare-benefit, service of the four Varn and the mankind, in whom the Almighty is pervaded. He has to perform all his duties happily, with pleasure and devotion to the God as per his dictates, with wisdom.
Kshatriy has five natural, instinctive duties :- Protecting the people, bravery, spirited, majestic actions, donations, Yagy, studies, consumption of food, leading to worship of God pervaded in all communities, automatically.
Vaeshy worship the God by his natural instincts, such as Yagy, studies, donations, accepting interest, agriculture, protection of cows (animal husbandry) and trade-business.
Shudr should perform his prescribed, natural duties-instinctive services to worship the God, inclusive of consumption of food, sleep-awakening with the realisation of presence of God in all of the four Varn. Anyone who is getting paid for the job performed by him is considered as a Shudr.
One should not develop love, affection, attachment for the services, while performing them, though these are divine-devotional, pertaining to worship through them. He just has to act as an instrument. Love, affection, attachment for worldly possessions, services, instincts, make them impure-unfit for offerings for worship.
Creation of unlimited Bliss-Ultimate love (Permanand) for God is accomplishment and nothing is left to be acquired thereafter.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
    
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