Thursday, December 17, 2020

SOCIAL WELFARE जन कल्याण

SOCIAL WELFARE
जन कल्याण
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्‌ दुर्गतिं तात गच्छति॥
हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही। क्योंकि हे प्रिय! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.40]
The Almighty Shri Krashn assured Arjun that one who is dedicated to the welfare of mankind, never falls down in hells and remains intact in this abode and the other abodes. 
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन तो तात (अत्यंत, अत्यधिक प्रिय) सम्बोधन से पुकारा। भगवान् अर्जुन को जब तात कहकर सम्बोधित करते हैं तो वे यह जाहिर करते हैं कि उन्हें अपने भक्त बहुत प्रिय हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि साधक द्वारा अर्जित योग का क्षय कभी भी नहीं होता। किसी कारणवश यदि उसे निम्न योनियों में भी जाना पड़ता है, तो भी उनसे छूटने के बाद भी उसका योग बल स्थिर बना रहता है। जो सन्मार्ग पर चल पड़ा, वो प्रभु का हो गया। देर-सबेर उसे फिर से परमात्मा की स्मृति हो ही जाती है और वो पुनः अपने प्रयास में जुट जाता है। जन कल्याण, भक्ति भाव  के संस्कार एक बार बन जायें तो मनुष्य का साथ जन्म जन्मांतरों तक बनाये रखते हैं, जब तक कि उसे मोक्ष प्राप्त न हो जाये।
The Almighty addressed Arjun as Parth and Tat, which indicates that he loved him a lot. It shows that the Almighty never leaves the devotee in the lurch. HE is always with the practitioner and keeps his earning in the form of Yog intact. In case if one has to take birth in some other lower species due to his immediate attachments-causes, he is allowed to recover it, like king Bharat who was born as a deer and his memory remained intact, helping him in discarding it and regain his path of renunciation. King Bharat is known for deeds for the benefit of his countrymen. India got its name from him, millions of years ago. One of the kings in Chandr Vansh also had the name as Bharat (Virath, known as Bhardwaj as well, but not Bhrdwaj Rishi). He too was dedicated to serve his countrymen and ruled for more than 27,500 years. Once the Yogi comes back to his practice, he is welcome to the club-fold of enunciators. Once the virtues arise in him as a social benefactor-devotee, they continues in him thereafter as well, in next incarnations till he is able to attain Salvation.
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (6) 
santoshkipathshala.blogspot.com

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

Monday, August 31, 2020

DEMIGODS 33 कोटि देवता

DEMIGODS 33 कोटि देवता
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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 ॐ गं गणपतये नमः।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
देवताओं जैसे को देवगण कहते हैं। देवगण भी देवताओं के लिए कार्य करते हैं। देवताओं के देवता अर्थात देवाधिदेव महादेव हैं तो देवगणों के अधिपति गणेश जी हैं। जैसे शिव के गण होते हैं उसी तरह देवों के भी गण होते हैं। गण का अर्थ है वर्ग, समूह, समुदाय। जहाँ राजा वहीं मंत्री इसी प्रकार जहाँ देवता वहाँ देवगण भी। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, तो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य।
गुणों के देवताओं का देववाची नामकरण :: अग्नि :- तेजस्वी। प्रजापति:- प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र :- ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा :- बनाने वाला। विष्णु :- व्यापक। रुद्र :- भयंकर। शिव :- कल्याण चाहने वाला। मातरिश्वा :- अत्यंत बलवान। वायु :- वेगवान। आदित्य :- अविनाशी। मित्र :- मित्रता रखने वाला। वरुण :- ग्रहण करने योग्य। अर्यमा :- न्यायवान। सविता :- उत्पादक। कुबेर :- व्यापक। वसु :- सब में बसने वाला। चंद्र :- आनंद देने वाला। मंगल :- कल्याणकारी। बुध :- बोध-ज्ञान स्वरूप। बृहस्पति :- समस्त ब्रह्माण्डों का स्वामी। शुक्र :- पवित्र। शनिश्चर :- सहज में प्राप्त होने वाला। राहु :- निर्लिप्त। केतु :- निर्दोष। निरंजन :- कामना रहित। गणेश :- प्रजा पालक। धर्मराज :- धर्म के अधिपति। यम :- फलदाता। काल :- समय रूप। शेष :- उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। शंकर :- कल्याण करने वाला।
आदित्य-विश्व-वसवस् तुषिताभास्वरानिलाः
महाराजिक-साध्याश् च रुद्राश् च गणदेवताः॥[नामलिङ्गानुशासनम्]
36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्यदेव, 64 आभास्वर, 49 मरुत्, 220 महाराजिक मिलाकर कुल 424 देवता और देवगण हैं। गणों की सँख्या अनन्त है। प्रमुख देवताओं की सँख्या 33 ही है। इसके अलावा प्रमुख 10 आंगिरस देव और 9 देवगण भी हैं। महाराजिकों की कहीं कहीं संख्या 236 और 226 भी मिलती है।
त्रिदेव :: ब्रह्मा, विष्णु और महेश के जनक हैं आदिदेव भगवान् सदाशिव और माँ दुर्गा। त्रिदेव की पत्नियाँ :- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती। पार्वती अपने पूर्व जन्म में सती थीं। माता पार्वती ही पिछले जन्म में सती थीं। सती के ही 10 रूप 10 महाविद्या के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं को 9 दुर्गा कहा गया है। आदिशक्ति माँ दुर्गा और पार्वती अलग-अलग हैं। दुर्गा सर्वोच्च शक्ति हैं, लेकिन उन्हें कहीं-कहीं पार्वती के रूप में भी दर्शाया गया है। राम, कृष्ण और बुद्ध आदि को देवता नहीं, भगवान् श्री हरी विष्णु का अवतार कहा गया है।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥
जो ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दस विश्वेदेव, दो अश्वनीकुमार तथा उन्चास मरुद्गण और गरम-गरम भोजन करने वाले सात पितृ गण तथा गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सभी चकित होकर आपको देख रहे हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.22] 
11 Rudr, 12 Adity, 8 Vasu, 12 Sadhygan, 10 Vishw Dev and 2 Ashwani Kumar, 49 Marud Gan and 7 Manes (Pitr Gan) who eat hot-fresh food, Gandharvs, Yaksh, Asur (Rakshas, Demons, Giants) and hosts-groups of Siddh are staring at you in surprise-amazed.
मरुद्गणों और यक्षों को भी देवताओं के समूह में शामिल किया गया है। त्रिदेवों ने सभी देवताओं को अलग-अलग कार्य पर नियुक्त किया है। वर्तमान मन्वन्तर में ब्रह्मा के पौत्र कश्यप से ही देवता और दैत्यों के कुल का निर्माण हुआ। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे। इनकी माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थीं। महर्षि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं।
ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दो अश्वनीकुमार तथा उन्चास मरुद्गण भगवान् को चकित होकर देख रहे हैं। 
12 साध्य गण :- मन, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभस और विभु हैं। ये 10 विश्वेदेव :- क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, धुनि, कुरुवान, प्रभवान् और रोचमान हैं। ये 7 पितर :- कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निश्वात्त और बर्हिषत् हैं। कश्यप जी की पत्नी मुनि, प्राधा और अरिष्टा से गन्धर्वों की उत्पत्ति हुई है, जो कि गायन विद्या में कुशल होने के कारण स्वर्गलोक के गायक हैं। कश्यप जी की पत्नी खसा से यक्षों की उत्पत्ति हुई है। देवताओं के विरोधी दैत्य, दानव और राक्षस असुर कहलाते हैं। कपिल आदि को सिद्ध कहते हैं। ये समस्त देवता गण, पितर, गन्धर्व, यक्ष आदि जो कि विराटरूप के ही अंग हैं, प्रभु को चकित होकर देख रहे हैं। अतः दिखने वाले और देखने वाले सभी एक परमात्मा ही हैं। 
What Arjun was visualising with his divine vision was seen by the demigods, giants, demons, Yaksh, Gandharvs, etc. simultaneously; within the Almighty with great surprise, in the broad form.

Please refer to :: EVOLUTION सृष्टि रचनाsantoshkipathshala.blogspot.com &
THE ALMIGHTY :: भगवान-परमात्माsantoshkipathshala.blogspot.com
24 देवताओं के नाम :: (1).अग्नि, (2). वायु, (3). सूर्य, (4). कुबेर, (5). यम, (6). वरुण, (7). बृहस्पति, (8). पर्जन्य, (9). इन्द्र, (10). गंधर्व, (11). प्रोष्ठ, (12). मित्रावरुण, (13). त्वष्टा, (14). वासव, (15). मरुत, (16). सोम, (17). अंगिरा, (18). विश्वेदेवा, (19). अश्विनीकुमार, (20). पूषा, (21). रुद्र, (22). विद्युत, (23). ब्रह्मा, (24). अदिति।[गायत्री मंत्र]
12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्वनी कुमार। अश्वनीकुमारों की जगह इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है।
12 आदित्य :: अदिति के पुत्र धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु 12 आदित्य हैं। अन्य कल्प में ये नाम इस प्रकार थे :- अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु। इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र अथवा इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र अथवा विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान्  वामन)। प्रचलित है कि गुणों के अनुरुप किसी व्यक्ति के अनेक नाम भी होते हैं। जिस प्रकार एक व्यक्ति के कई नाम होते हैं उसी प्रकार एक नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं। इन्हीं पर वर्ष के 12 मास नियु‍क्त हैं। 
(1). इन्द्र :: यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। इन्द्र एक पद है। स्वर्ग के शासन को इन्द्र कहा जाता है। इसे समय इकाई के तौर पर भी प्रयोग किया जाता है यथा एक इंद्र का कार्यकाल। 
ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं। 
(2). धाता :: धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्री विग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है। 
(3). पर्जन्य :: पर्जन्य तीसरे आदित्य हैं। ये मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं। 
(4). त्वष्टा :: आदित्यों में चौथा नाम श्रीत्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में है। पेड़-पौधों में यही व्याप्त हैं। औषधियों में निवास करने वाले हैं। इनके तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं। अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे। 
एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। 
ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े। 
(5). पूषा :: पांचवें आदित्य पूषा हैं, जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में ये विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं ऊर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है। 
(6). अर्यमन :: अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है।आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। ये वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं। 
(7). भग :: सातवें आदित्य हैं भग। प्राणियों की देह में अंग रूप में विद्यमान हैं। ये भग देव शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं। 
(8). विवस्वान :: आठवें आदित्य विवस्वान हैं। ये अग्निदेव हैं। इनमें जो तेज व ऊष्मा व्याप्त है वह सूर्य से है। कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अग्नि द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं। 
(9). विष्णु :: नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन। 
12 आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु। 
(10). अंशुमान :: दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वही अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है। 
(11). वरुण :: ग्यारहवें आदित्य जल तत्व का प्रतीक हैं वरुण देव। ये मनुष्य में विराजमान हैं जल बनकर। जीवन बनकर समस्त प्रकृति के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। 
वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में ‘अहुरा मज़्दा’ कहलाए। 
(12). मित्र :: बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, साधुओं का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। ये 12 आदित्य सृष्टि के विकास क्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
8 वसु :: धर, ध्रुव, सोम, अह:, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभास। 
11 रूद्र :: बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली। 
12 साध्य देव :: अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु, ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। 
10 विश्वेदेव :: क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, धुनि, कुरुवान, प्रभवान् और रोचमान।
7 पितर :: कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निश्वात्त और बर्हिषत् । 
2 अश्वनीकुमार :: (1). नासत्य और (2). दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न भगवान् सूर्य नारायण के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य देवताओं के वैद्य-चिकित्सक हैं।
 64 अभास्वर :: तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं :- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इन्द्रिय  और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।
12 यामदेव :: यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।
10 विश्वदेव :: पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।
220 महाराजिक :- कल्पान्तर में इनकी सँख्या 236 से 4000 कही गई है। 
49 मरुतगण :: मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम पृशित बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।[ऋग्वेद 1.85.4] 
पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।
7 मरुत :- (1). आवह, (2). प्रवह, (3). संवह, (4). उद्वह, (5). विवह, (6). परिवह और (7). परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं यथा ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।
30 तुषित :: 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक ‍द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।
तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्माण्ड भी है। चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठ गणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है।
अन्य देव :: गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, शनि, सोम, ऋभुः, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय आदि।
अन्य देवी :: भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति आदि।
देवताओं का वर्गीकरण ::
(1.1). स्थान क्रम :: द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्य स्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता और तीसरे पृथ्वी स्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
(1.2). परिवार क्रम :: इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
(1.3). वर्ग क्रम :: इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
(1.4). समूह क्रम :: इन देवताओं में सर्व देवा आदि की गिनती की जाती है।
(2.1). स्व: स्वर्ग :: सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदित्यगण, अश्विनद्वय आदि।
(2.2). अंतरिक्ष भूव: :: पर्जन्य, वायु, इंद्र, मरुत, रुद्र, मातरिश्वन, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य।
(2.3). पृथ्वी भू: धरती :: पृथ्वी, ऊषा, अग्नि, सोम, बृहस्पति, नद‍ियाँ आदि।
(2.4). पाताल :: उक्त 3 लोक के अलावा पितृलोक और पाताल के भी देवता नियुक्त हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। पितरों के देवता अर्यमा हैं। पाताल के देवाता शेष और वासुकि हैं।
(2.5). पितृ :: दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण :- अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।
(2.6). नक्षत्र के अधिपति :: चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।
10 दिशा के 10 दिग्पाल :: ऊर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।
ब्रह्मा :- सृजनकर्ता ब्रह्मा को जन्म देने वाला कहा गया है। 
विष्णु :- पालनहार विष्णु को पालन करने वाला कहा गया है।
महेश :- विनाशक महेश को संसार से ले जाने वाला कहा गया है।
त्रिमूर्ति :- ब्रह्मा-ब्रह्माणी (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु-लक्ष्मी (पालन तथा साधन) और शिव-पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति)। कार्य विभाजन अनुसार पत्नियाँ ही पतियों की शक्तियां हैं।
इंद्र :- बारिश और विद्युत को संचालित करते हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इंद्र हुए हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं :- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि।
अग्नि :- अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियां अग्नि के द्वारा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। बहुत सी ऐसी आत्माएं है जिनका शरीर अग्निरूप में है, प्रकाश रूप में नहीं।
सूर्य :- प्रत्यक्ष सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है तो इस नाम से एक देवता भी हैं। दोनों ही देवता हैं। कर्ण सूर्य पुत्र ही था। सूर्य का कार्य मुख्य सचिव जैसा है। सूर्यदेव जगत के समस्त प्राणियों को जीवनदान देते हैं।
वायु-पवन :- वायु को पवनदेव भी कहा जाता है। वे सर्वव्यापक हैं। उनके बगैर एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षण भर में नष्ट हो जाएगा। पवनदेव के अधीन रहती है जगत की समस्त वायु।
वरुण :- वरुण देव का जल जगत पर शासन है। उनकी गणना देवों और दैत्यों दोनों में की जाती है। 
धर्म-यम राज :- यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के प्राणियों के भौतिक शरीरों के नष्ट हो जाने के बाद उनकी आत्माओं को उचित स्थान पर पहुंचाने और शरीर के हिस्सों को पांचों तत्व में विलीन कर देते हैं। वे मृत्यु के देवता हैं।
कुबेर :- कुबेर धन के अधिपति और देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं।
मित्र :- मित्रः देव देव और देवगणों के बीच संपर्क का कार्य करते हैं। वे ईमानदारी, मित्रता तथा व्यावहारिक संबंधों के प्रतीक देवता हैं।
कामदेव :- कामदेव और रति सृष्टि में समस्त प्रजनन क्रिया के निदेशक हैं। उनके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती। कामदेव का शरीर भगवान् शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग (बिना शरीर) भी कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिसका भौतिक वजूद नहीं होता।
अदिति और दिति :- महर्षि कश्यप की पत्नियाँ। इनको भूत, भविष्य, चेतना तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।
धर्मराज और चित्रगुप्त :- संसार के लेखा-जोखा कार्यालय को संभालते हैं और यमराज, स्वर्ग तथा नरक के मुख्यालयों में तालमेल भी कराते रहते हैं।
अर्यमा या अर्यमन :- यह आदित्यों में से एक हैं और देह छोड़ चुकी आत्माओं के अधिपति हैं अर्थात पितरों के देव।
गणपति-गणेश :- शिवपुत्र गणेश जी महाराज को देवगणों का अधिपति नियुक्त किया गया है। वे बुद्धिमत्ता और समृद्धि के देवता हैं। विघ्ननाशक की ऋद्धि और सिद्धि नामक दो पत्नियाँ हैं।
कार्तिकेय-स्कन्द :- कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वे देवताओं के सेनापति हैं। उनका एक नाम स्कंद भी है। उनका वाहन मोर है तथा वे भगवान् शिव के पुत्र हैं। दक्षिण भारत में उनकी पूजा का प्रचलन है। 
देवऋषि नारद :- नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वे तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। वे देवताओं के संदेशवाहक और गुप्तचर हैं। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है।
हनुमान :- देवताओं में सबसे शक्तिशाली देव रामदूत हनुमानजी अभी भी सशरीर हैं और उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है। वे पवनदेव के पुत्र हैं। बुद्धि और बल देने वाले देवता हैं। उनका नाम मात्र लेने से सभी तरह की बुरी शक्तियाँ और संकटों का खात्मा हो जाता है।
 
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Tuesday, June 30, 2020

नैर्ऋति देव

नैर्ऋति देव
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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 "ॐ गं गणपतये नमः" 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
नैर्ऋति देव नैर्ऋत्य कोण के स्वामी हैं। ये सभी राक्षसों के अधिपति और परम पराक्रमी हैं। दिक्पाल निर्ऋति के लोक में जो राक्षस रहते हैं, वे जाति मात्र के राक्षस हें। आचरण में वे पूर्णरूप से पुण्यात्मा हैं। वे श्रुति और स्मृति के मार्ग पर चलते हैं। वे ऐसा खान-पान नहीं करते जिनका शास्त्रों में विधान नहीं है। वे पुण्य का अनुष्ठान करते हैं। इन्हें सभी प्रकार के भोग सुलभ हैं। निर्ऋति देवता भगवदीय जनों के हित के लिए पृथ्वी पर आते हैं। इनका वर्ण गाढ़े काजल की भाँति काला है तथा बहुत विशाल है। ये पीले आभूषणों से भूषित और हाथ में खड्ग लिये हुए हैं। राक्षसों का समूह इन्हें चारों ओर से घेरे रहता है। ये पालकी पर चलते हैं। इनका तेज काफी प्रखर है।
यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो 3 यच्च वासस आपो नुदन्तु निर्ऋतिं पराचैः॥2
वृक्ष के अग्र भाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है, शरीर अथवा पहने वस्त्रों पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान निर्ऋति देव (पापों को) हमसे दूर करें।
The drops of water falling from the tips of the trees are like their fruits. Water-rain drops falling over our cloths-bodies, from the outer space should be like the fruit of uncontaminated air. These droplets meant for purity, should remove our sins like the Nirati Dev-demigods granting pleasure, comforts.
निर्ऋति कश्यप ऋषि की पत्नी तथा प्रजापति दक्ष की पुत्री दिति के गर्भ से उत्पन्न सिंहिका नाम वाली कन्या का ही एक अन्य नाम था।
नैर्ऋति :: 
निघंटु 1/1 में पृथ्वी का नाम "निर्ऋति " दिया है। 
"विद्याद-लक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम्"; Decay, destruction, dissolution. 
"हिंसाया निर्ऋतेर्मृत्यो-र्निरयस्य गुदः स्मृतः"; a calamity, evil, bane, adversity. [महाभारत 1.87.9; 5.36.8] 
"सा हि लोकस्य निर्ऋतिः" "destruction, evil, calamity." [भागवत 2.6.9]
गौः निर्ऋति। गौरिति पृथिव्या नामधेयम्।यद् दूरंगता भवति।
यच्चास्यां भूतानि गच्छंति॥2[निघंटु, निरुक्त महर्षि यास्क कृत] 
गौ पृथ्वी का नाम है, क्योंकि ये दूर दूर तक जाने वाली है। साथ में सब प्राणी उसमें रमण करते हैं, अतः पृथ्वी का नाम गौ है।
निरुक्त में निर्ऋति के संग गौ शब्द का भी अर्थ दिया है।
तत्र निर्ऋतिरमणादृच्छते कृच्छ्रापत्तिरितरा॥3[निरुक्त 2.5]
निरमणात निविष्टानि रमन्तेsस्यां भूतानीति निर्ऋति। इतरा कृच्छ्रपत्तिः दुःखसंज्ञिका, निर्ऋति पाप्मा। एका विनिष्टानां भूतानां रमयित्री, एका पुनः कृच्छ्रमापदयित्री।[दुर्गाचार्य]
पृथ्वी में सब प्राणी आनन्द पाते हैं, इसलिए इसका नाम निर्ऋति है। साथ ही, दुःख संज्ञा वाली पापिनी होने से ये निर्ऋति है। प्राणियों को आनन्द देने व दुःखों को हरकर नाश करमे वाली होने से पृथ्वी निर्ऋति है।
इसका तात्पर्य हा कि पृथ्वी दुःख हरकर सब प्राणियों को सुख देती है, जिस प्रकार से माँ अपने शिशु सब प्रकार के दुःख सहकर भी सुख देती है, उसी प्रकार पृथ्वी भी है। चाहे कितने ही पापी क्यों न हो, फिर भी पृथ्वी सबको धारण करती है तथा समान रूप से आनन्दित करती है। इसलिये इसका नाम निर्ऋति है।
"अलक्ष्मी निर्ऋति" अशोभा (दरिद्रता) का नाम निर्ऋति है।

 
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अनन्त-शेष नाग

अनन्त-शेष नाग :: अनंत देव अध: (रसातल) क्षेत्र के स्वामी हैं। भगवान् की एक मूर्ति गुणातीत है, जिसे वासुदेव कहा जाता है और दूसरी तामसी है जिसे अनन्त या शेष कहते हैं। भगवान् की तामसी नित्यकला अनन्त के नाम से विख्यात है। ये अनादि हैं। इनके वीक्षण (विशेष तौर पर देखना, निरीक्षण, जाँच) मात्र से प्रकृति में गति आती है और सत्व, रज तथा तम, ये तीनों गुण अपने-अपने कार्य करने लगते हैं। इस तरह जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का क्रम चल पड़ता है। इनके पराक्रम, प्रभाव और  गुण अनन्त हैं। ये संपूर्ण लोकों की स्थिति के लिए ब्रह्मांड को अपने मस्तक पर धारण करते हैं। देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्दर्भ, विद्याधर, मुनिगण आदि भगवान् अनन्त  का ही ध्यान करते हैं। इनकी आँखें प्रेम के मद से आनंदित और विह्वल रहती है। भगवान् अनन्त द्रष्टा और दृश्य को आकृष्ट कर एक बना देते हैं। इसलिए इन्हें संकर्षण भी कहा जाता है। कोई पीड़ित या पतित व्यक्ति इनके नाम का अनायास ही अगर उच्चारण कर लेता है तो वह इतना पुण्यात्मा बन जाता है कि वह दूसरे पुरुषों के पाप-ताप को भी नष्ट कर देता है।
इनका शरीर पीताम्बर है। कानों में कुण्डल और गले में वैजयन्ती माला धारण किए रहते हैं। इनके एक हाथ में हल की मूठ रहती है और दूसरा हाथ अभय मुद्रा में रहता है। 
रामावतार में ये लक्ष्मण जी और कृष्णावतार में बलराम जी अर्थात संकर्षण थे।