Friday, June 24, 2016

सनातन-हिन्दु धर्म HINDUISM-ETERNITY

सनातन-हिन्दु धर्म
HINDUISM-ETERNITY
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च। शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
क्योकिं ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख आश्रय मैं ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 14.27] 
The Almighty declared that HE is the basis-support of Brahm, Ambrosia-Amrat, everlasting cosmic order (Dharm) and absolute bliss. 
परमात्मा ने स्पष्ट किया कि ब्रह्म के आधार वही हैं अर्थात निराकार परमात्मा और साकार ब्रह्म वही हैं। भगवान् श्री कृष्ण ही परमात्मा और ब्रह्म हैं। अविनाशी अमृत भी वही हैं, क्योंकि जो अनंत है, वह परमात्मा का रुप ही है। सनातन धर्म-हिन्दु धर्म स्वयं प्रभु हैं। ऐकान्तिक सुख भी परमात्मा ही हैं। जिस प्रकार एक ही जल बर्फ, तरल, द्रव्य, ठोस, वाष्प, बादल, नदी, समुद्र, कुँए के रुप में दिखता है, वैसे ही परमात्मा भी ब्रह्म, अमृत, ऐकान्तिक सुख स्वरुप हैं।
The Almighty made it absolutely clear to Arjun that HE is the Brahm-God, Ambrosia-Amrat, the eternal religion-Sanatan Dharm, i.e., Hindu Dharm and the Ultimate  Bliss. The manner in which water is seen as ocean, river, glacier, well, cloud, vapours, mist, ice, fog; the God too is seen in various other forms time and again to perpetuate the humanity.
DHARM :: Everything prescribed by the epics-scripters, leading to Sadgati (improvement of Perlok-next birth-incarnation, abode) by undertaking chastity, ascetic, righteous, auspicious, pious acts-austerities and rejecting inauspicious acts. Whole hearted efforts, expenses made; devotion of body, mind and soul, physique, ability, status, rights, capabilities for the welfare of others (mankind, society, world), leading to the welfare of the doer is Dharm.
शास्त्रों में बताया गया विधान जो कि कर्म परलोक में सद्गति प्रदान करता है, वह धर्म है। माँ-बाप, बड़े-बूढ़े, दूसरों की सेवा करना-सुख पहुँचाना, अपने तन, मन, धन सामर्थ्य, योग्यता, पद, अधिकार, आदि को समाज सेवा में उपयोग करना धर्म है। कुँआ, तालाब, बाबड़ी, धर्मशाला, शिक्षण संस्थान,अस्पताल, प्याऊ-सदावर्त, निष्काम भाव सेवा, आवश्यकतानुसार उदारता पूर्वक खर्च करना और बिना लोभ, लाभ, लिप्सा, लालच, स्पृहा रहित इन कार्यों को करना धर्म हैं। वर्णाश्रम धर्म और कर्तव्य का पालन धर्म है।
ADHARM :: Use of position-status for inauspicious acts, selfishness, teasing, paining others, cruelty, torture, terrorism, vices, wickedness, snatching-looting other's belongings, murder etc. is Adharm-irreligiosity. It creates bonds, ties and hurdles for the doer. Scriptures have prescribed-described the various acts an individual should do, depending upon Varn-caste & creed, Ashram-stages in life, Country, social decorum, convention, dignity and the situation.
धर्म में कुधर्म, अधर्म और परधर्म का समिश्रण होता है। दूसरे के अनिष्ट का भाव, कूटनीति आदि, धर्म में कुधर्म हैं। यज्ञ में पशुबलि देना आदि धर्म में अधर्म है। जो अपने लिए निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदि का धर्म, धर्म में परधर्म है। कुधर्म, अधर्म और परधर्म से कल्याण नहीं होता। कल्याण उस धर्म से होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमान का त्याग एवं दूसरे का वर्तमान और भविष्य में हित शामिल है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। 
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण में कमी वाला, अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।[श्रीमद्भगवद्गीता 3.35]  
One should discharge own duties (Varnashram Dharm, dictate of scriptures, religion) even if they lack qualities-virtues, better or superior characteristics, traits as compared to the religion (duties) of others. One should prefer death while performing own duties as compared to those of others, which causes fear.
मनुष्य के लिए स्वधर्म का पालन करना सहज है, क्योंकि यह प्रारब्ध के आधीन और पूर्व कर्मों के फलस्वरूप है। इसके पालन करते हुए मनुष्य बन्धन मुक्त हो जाता है। 
पिछले 800-2,100 सालों में भारत में और उसके बाहर बहुसँख्यक हिन्दुओं को तलवार की धार पर, लालच देकर, बहकाकर-फुसलाकर धर्म परिवर्तन करा दिया गया। आज पूरे इण्डिनेशिया, पाकिस्तान, बंगलादेश, ईरान, मिस्त्र, ईराक, फारस की खाड़ी तक जो मुसलमान हैं, उनके पूर्वज हिन्दु थे। बहुसँख्यक सुन्नियों के  पूर्वज और शेष 542 फिरकों के इस्लाम के मानने वाले भी हिन्दु ही थे। ये लोग पहले मुसलमान बने और अब आतंकवादी बनाये जा रहे हैं। हिन्दु धर्म के ठेकेदारों, पोंगा, पण्डितों ने उन्हें वापस हिन्दु नहीं होने दिया। कहा गया हिन्दु पैदा होता नहीं है। पर घर में वापसी तो होती है। पोते-पड़ पोते को  कोई घर आने से नहीं रोकता।
जिस मोहम्मद ने इस्लाम को शुरू किया वो खुद एक भटका हुआ, हिन्दु ब्राह्मण पुजारी का महाघमण्डी-अहँकारी और धर्म द्रोही बेटा था। 
Please refer to :: FORCIBLE CONVERSIONS OF HINDUS हिन्दुओं का इस्लाम में बलात् धर्मांतरण bhartiyshiksha.blogspot.com 
ईसाईयों ने भी कुछ कम गुनाह नहीं किये हैं। वे आज भी भारत में सक्रिय हैं और धन, पद का लालच देकर, बरगला कर धर्म परिवर्तन करा रहे हैं। भारत में निखद्द सरकारें मन्दिरों का चढ़ावा इन धर्म परवर्तन किये हुओं पर लूट कर खर्च-व्यर्थ कर रही हैं। 
स्वधर्म में राग द्वेष रहने से पाप लगता है, अन्यथा नहीं। निस्वार्थ-निष्काम भाव से  किया गया कोई भी कर्तव्य-कर्म परमात्म प्राप्ति का साधन बन सकता है। परधर्म का पालन करने वाले कभी भी कहीं भी सुखी नहीं हो सकते। त्याग-कर्मयोग, बोध-ज्ञान योग और प्रेम-भक्ति योग स्वधर्म हैं। निर्लिप्त रहना, परसेवा, निष्काम, निर्मल रहना, अनासक्ति स्वधर्म हैं। कामना, ममता और आसक्ति परधर्म हैं। परमात्मा का अंश शरीरी स्व और प्रकृति का अंश शरीर पर है। स्वधर्म चिन्मय धर्म और परधर्म जड़धर्म हैं। भोग-संग्रह की इच्छा परधर्म पारमार्थिक, समाज कल्याण की इच्छा स्वधर्म है। तीर्थ, व्रत, दान-पुण्य, तप, चिंतन, समाधि, शुभ कर्म स्वधर्म तथा यदि इन्हीं को सकाम भाव से किया जाये तो परधर्म हो जाते हैं। स्वधर्म कल्याण कारक व परधर्म भयानक हैं। 
To carry out one's inborn duties is quite easy, since its determined by the destiny and deeds in previous births. One who perform them relentlessly become free from the clutches of birth-death cycle.
During the period of last 2,100 years a large number of people have been converted to Islam by the use of force, incentives and coercive methods. One find people making efforts to convert the natives to Christianity, by be fooling them or luring them through one or the other means. One will hardly find a person in India and neighbouring countries with a different DNA, chromosomes or genes. The trend has changed now. Terrorists are converting innocent people to their net work in the name of Islam. Their sole goal is to snatch power by using religion called Islam. Islam is synonymous with terrorism. The tragedy with the Hindu community is that the so called enlightened, learned, Pandits did not let the home coming respectfully. They slammed the doors over their mouth & shamed them. Such people are still active and trying to give a wrong-negative direction to Hinduism. It had been heard that Hindu is born and not converted. Home coming is home coming be it for the son or the great-great grand son.
ANY ONE CAN PRACTICE HINDUISM WITHOUT BEING CONVERTED BY ARY SAMAJ OR ANY OTHER AGENCY. ONE DO NOT NEED CERTIFICATE TO BE A HINDU.
If one carries out his own duties without attachment, enmity, motive, he is not tainted, stained, slurred, blasphemed. Any deed carried out without selfishness without desires, motives, becomes a means to attain the Almighty. One who does the duties which does not belong, pertain to him, always lead to dissatisfaction (trouble, tensions, tortures). Such people can never rest in peace, live peacefully. Sacrifice, rejection, relinquishment grants Karm Yog, understanding (realisation), awards enlightenment i.e., Gyan (Sankhy) Yog; while love for the Eternity awards Bhakti Yog, the divine duties of a human being. To be detached, helping (servicing) others, purity (piousness, righteousness, honesty) to remain detached, are one's own duties, i.e., divine duties-responsibilities. Desires, affections-attachments and passions are foreign. Soul is a component of the God and pertains to one, while the body is a component of the nature and pertains to others. Carrying out of ones duties is Godly and the rest is inertial to be discarded. Desire (habit of accumulations, passions, sensuality, sexuality, lust) is not own religion while helping others (social-community service), without the desire of appreciation (honours, respect, praise, reward) is own religion. Visiting holy places, fasting, meditation, staunch meditation, asceticism, chastity, pious deeds remain own-self religion; till one is free from the desire of return (reward, favourable outcome). The impact of own duties is positive, beneficial; while that of carrying others duties (religion, faith), is surely furious (harmful, dangerous).
अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो भी धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी सिद्धि इसी में है कि भगवान् प्रसन्न हों। इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान् का ही निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधना करते रहना चाहिये।[श्रीमद्भागवत 1.2.13-14]
धर्म के 30 लक्षण :: सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार-ज्ञान, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृति, मनुष्य के अभिमान पूर्ण प्रयत्नों का फल उल्टा ही होता है; यह विचार धारण करना, मौन, आत्मचिंतन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग विभाजन-वितरण, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपनी आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान् श्री कृष्ण के नाम, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्यसाथी-प्रेमी, और आत्म समर्पण। ये तीस प्रकार का आचरण, सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह उपदेश प्रह्लाद जी ने अपने बाल्य काल में अपने सहपाठियों को दिया। उन्होंने यह सब नारद जी के मुँख से अपनी माँ को कहते सुना, जब वे गर्भ में थे।[श्रीमद्भागवत 11.7.8-12]
धर्म वह है जो मनुष्य को आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। विभिन्न पंथों, मतों और संप्रदायों द्वारा जो नियम, मनुष्य को अच्छे जीवन यापन, प्रेम, करूणा, अहिंसा, क्षमा और अपनत्व का भाव उत्पन्न करते हों वही धर्म हैं। 
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः। 
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
धर्म शब्द संस्कृत की 'धृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलंबन देना, पालन करना। धारण करने योग्य आचरण धर्म है। सही और गलत की पहचान कराकर प्राणि मात्र को सत्-सद्  मार्ग पर चलने के लिए अग्रसर करे, वह धर्म है। जो मनुष्य के जीवन में अनुशासन लाये वह धर्म है। आदर्श अनुशासन वह है, जिसमें व्यक्ति की विचार धारा और जीवन शैली सकारात्मक हो जाती है। जब तक किसी भी व्यक्ति की सोच सकारात्मक नहीं होगी, धर्म उसे प्राप्त नहीं हो सकता है। धर्म ही मनुष्य की शक्ति है, धर्म ही मनुष्य का सच्चा शिक्षक है। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है, अपूर्ण है।
"धार्यते इति धर्म:" 
अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है। 
लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। यह मानव जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली, ज्ञानानुकुल, मर्यादा युक्त पद्यति है। सदाचार युक्त जीवन ही धर्म है। धर्म ईश्वर में दृढ आस्था, विश्वास का प्रतीक है। इसका आधार ईश्वरीय सृष्टि नियम है। यह मनुष्य को पुरुषार्थी बनाकर मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता है।
क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, धी या बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनुस्मृति]
धैर्य :: धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।
क्षमा :: दूसरों के दुर्व्यवहार और अपराध को लेना तथा आक्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।
दम :: मन की स्वच्छंदता को रोकना, बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।
अस्तेय, अपरिग्रह :: किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।
पवित्रता (शौच) :: शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।
इन्द्रिय निग्रह :: पाँचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।
धी :: भली-भाँति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।
विद्या :: आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीने की सच्ची कला ही विद्या है।
सत्य :: मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।
आक्रोश :: दुर्व्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुँचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर संभव प्रयास करना।
धर्म का स्वरुप :: धर्म अनुभूति का विषय है। यह मुख की बात मतवाद अथवा युक्ति मूलक कल्पना मात्र नहीं है। आत्मा की ब्रह्म स्वरूपता को जान लेना, तद्रुप हो जाना-उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है। यह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाना, यही धर्म है।[स्वामी विवेकानंद]
आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे।[ऋग्वेद 4.5.3.3]
धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया।[ऋग्वेद 5.63.7]
यहाँ 'धर्म' का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धान्त) या आचार नियम है। 
अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्॥ 
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्।
दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ 
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
भय रहित मन की निर्मलता, दृढ मानसिकता, स्वार्थ रहित दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नही रखना; यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते है।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.1-3] 
सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया॥
धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। धर्म मय आचरण का फल तत्काल दिखाई नहीं देता अपितु, समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व (ज्ञान रूप में) मिलता है। धर्म आचरण करते हुए कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है किन्तु ये कठिनाइयाँ ज्ञान और समझ को बढ़ाती हैं। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरुप समझ में आने लगता है, तब मनुष्य कर्मो को ध्यान से देखते हैं और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नही होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नही जाता। अतः मनुष्य को सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।[महाभारत, शांतिपर्व 174.2]
भगवान् श्री राम धर्म की जीवंत प्रतिमा हैं।[बाल्मिकी रामायण 3.37.13] 
श्री राम कभी धर्म को नहीं छोड़ते और धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता है। [बाल्मिकी रामायण, युद्ध काँड 28.19] 
संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन अवश्य करना चाहिए।[भगवान् श्री राम]
यस्मिस्तु सर्वे स्वरसंनिविष्टा धर्मो, यतः स्यात् तदुपक्रमेत। 
द्रेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके, कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता॥
जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थों का समावेश नहीं, उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो वहीं कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। यानि उससे, उसके अपने ही जलने लगते हैं। धर्म विरूद्ध कार्य करना घोर निंदनीय है। माता सीता भी धर्म के पालन का ही आवश्यक मानती हैं।[बाल्मीकि रामायण 2.21.58] 
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्। 
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्॥
धर्म से अर्थ प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है। माता सीता ने यह उस समय कहा जब भगवान् श्री राम वन में मुनिवेश धारण करने के बावजूद शस्त्र साथ में रखना चाहते थे। बाल्मीकि रामायण में माता सीता के माध्यम से पुत्री धर्म, पत्नी धर्म और माता धर्म मुखरित हुआ है। अतः सीता भारतीय नारी का आदर्श स्वरुप है। [बाल्मीकि रामायण 3.9.30]
धर्म ईश्वर प्रदत होता है, व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ नहीं, क्योंकि व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ मत (विचार) होता है अर्थात उस व्यक्ति को जो सही लगा वो उसने लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया और श्रद्धा पूर्वक अथवा बल पूर्वक अपना विचार (मत) स्वीकार करवाया।
केवल हिंदु धर्म ही ईश्वरीय धर्म है, अन्य सभी मत हैं जिनका प्रचार, प्रसार धन, सत्ता के लोभ-लालच के वश किया गया है। यह समग्र मानव जाति के लिए है और सभी के लिये समान हैं। सूर्य का प्रकाश, जल, प्रकृति प्रदत खाद्य पदार्थ आदि ईश्वर कृत है और सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। उसी प्रकार धर्म (धारण करने योग्य) भी सभी मनुष्यों के लिए समान है। 
वेदों में यह कहा गया है :-
"वसुधैव कुटुम्बकम्" 
सारी धरती को अपना घर समझो; consider the whole earth to be a home.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया। 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। 
तस्माद्धर्मो न हन्तवयः मानो धर्मो हतोवाधीत्॥
धर्म उसका नाश करता है जो धर्म का नाश करता है। धर्म उसका रक्षण करता है, जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है। अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए। धर्म का नाश करने वाले का सर्वनाश, अवश्यंभावी है।[मनु स्मृति]
मज़हब, मत धर्म के समानार्थक नहीं हैं। 
Mazhab stands for sect. Its not synonym of Dharm, religion.
Dharm means-the duty assigned to us, as an individual, as a component of the family-household, member of a society, resident of a place, country, world and the universe as a whole; as a child, a teacher, a father, a mother, as a professional etc.
Simplest-easiest way to achieve Salvation, emancipation, Liberation-Assimilation in God, is to discharge one's own duties religiously, honestly, faithfully, honestly, piously, righteously whole heartedly, with firm determination. One should not run away from his liabilities. Its good-appreciable to perform them with dedication. 
Everything prescribed by the scripters-epics, leading to Sadgati (improvement of Perlok-next birth, abode) by undertaking auspicious, pious acts and rejecting inauspicious acts. Whole hearted efforts, expenses made; devotion of body, mind and soul, physique, ability, status, rights, capabilities for the welfare of others (mankind, society, world), leading to the welfare of the doer is Dharm.
Inherent, prescribed, Varnashram functions-duties, devoid of virtues, excellence, are better than those belonging to others-carried out methodically with perfection, since carrying out of own righteous, natural deeds keeps the doer-performer free, untainted from sins, vices, wickedness.
To bring the devotee out of confusion, the Almighty asserts that he should immerse all his prescribed, ordained Varnashram duties in him and come to his fore-refuse and that he will take care of the devotee, asks him not to worry as he will liberate–relieve him of all sins.
Accomplishment is attained by an individual worshiping the Almighty, from whom all the organisms have evolved and by whom the entire universe is pervaded, through his natural, instinctive, prescribed Varnashram related deeds.
धर्म का तात्पर्य  है, अपने कर्तव्य-दायित्व का भली-भाँति निर्वाह करना।   
मोक्ष प्राप्ति का सबसे सुगम उपाय है, अपने कर्तव्य का मेहनत, ईमानदारी, भरोसे के साथ, धर्म समझ कर पालन करना। 
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने कर्तव्य से भागे नहीं-विमुख न हो, उसका पूरी निष्ठा, और ईमानदारी  से पालन करे।  
गृहस्थ धर्म का पालन सन्यास से भी उत्तम है । 
पिता की भक्ति से इहलोक, माता की भक्ति से मध्य लोक और गुरु की भक्ति से इंद्र लोक प्राप्त होते हैं। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं और जो इनका निरादर करता है, उसकी  सभी क्रियाएं निष्फल होती हैं। जब तक ये जीवित हैं, तब तक इनकी नित्य सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा रूपी धर्म में पुरुष का सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात धर्म  है। 
One who serves-takes care of father entitles himself to the comforts-pleasures of this world, the one who is devoted to his mother attains the middle Lok (heavens which lies in the middle of the 7 heavens) and the one who renders service to his teacher gets Indr Lok. One looks after the three, is capable of attaining all Dharm and the one, who neglects-discards them suffers from, all round failure, disaster, agony. Till, they are alive, one should do his best to please-nourish them, through service-devotion. Duties-deeds-ambitions are accomplished just by the care of the trio.This is the true Dharm.
भगवान राम द्वारा युद्ध में मारे गए वानरों को जीवन दान दिया गया व उनसे वर माँगने को कहा। वानरों ने रावण की अनेकों पुत्रियों से उनका विवाह करने की प्रार्थना की। भगवान् राम ने उनकी इच्छा पूरी की व उनको जालंधर (समुद्र पुत्र, माता लक्ष्मी के भाई) द्वारा उत्पन्न किये गये 7 द्वीपों, जिनमें से बर्लिन भी एक था में, बसाया। लाल मुँह वाले अंग्रेज-व्यक्ति, उन्हीं वानरों व रावण पुत्रियों की सन्तति हैं।
स्वास्तिक एक ऐसा चिन्ह है, जो कि दुनियां के हर भाग में मिलता है-पाया जाता है। यह सनातन-हिन्दु (आर्य एक आदि नाम है, जो हिन्दुओं के लिए अति प्राचीन कल से प्रयुक्त होता आ रहा है और वर्तमान में भी प्रयोग में आता है और हिन्दु धर्म के नौं चिन्हों में से एक है। इसका प्रयोग नाज़ी-जर्मनी, के चांसलर हिटलर के द्वारा उसको झुका हुआ बनाया, जिसके परिणाम स्वरूप उसे भयंकर हार का मुँह पड़ा। वो जर्मनी में रहने वालों को शुद्ध-आर्य कहता था। 
Swastik is a religious sign which has been found almost everywhere, including ancient lost civilisations. Scriptures mention the origin of all life forms from one person-Kashyap, a son of Brahma Ji and his wives. Initially life originated in Brahm Lok and there after it moved to the earth and other Lok (7 Heavens, 7 Patals and 28 Hells).
Bhagwan Ram made the Vaners (a breed resembling monkeys-due to tail, with rest of features like men) alive and asked them to seek some boons, who in turn requested to be married to the daughters of Ravan, produced through illegitimate relations with innumerable women forcibly. Bhagwan fulfilled their desire and awarded them with the 7  islands created by Jalandhar-son of Samudr and brother of Ma Laxmi.  One of such islands is Berlin now Germany. 
The Germans called themselves Aryans, though in fact they are the progeny of Vaners and daughters of Ravan.
Bali was a Vanar produced by Dev Raj Indr. His brother Sugreev was fathered by Sury Bhagwan-SUN, too is a Vanar. Hanuman Ji Maharaj is an incarnation of Bhagwan Shiv and he too is a Vanar. Hanu Man Ji Maharaj is a Pandit-scholar, disciple of Sury Bhagwan, more enlightened than Mahrishi Balmiki and Ravan.     
हिंदु धर्म के 9 चिन्ह :: (1). शंख, (2). चक्र, (3). गदा, (4). कमल, (5). ध्वजा, (6). ॐ, (7). स्वास्तिक, (8). त्रिशूल और (9). कलश। 
 CONCH

CHAKR
MACE
 
  LOTUS

hindu flag FLAG
 
 OM
SWASTIC
 
TRISHUL-TRIDENT
 trishula
KALASH
 
 Hinduism is derived from the word Hindustan one of the many names, India had been known to the world viz., Bharat, Hindustan, Jumbu Dweep (island), Him Varsh, Arayawart. The true name is SANATAN DHARM, meaning thereby ancient, never ending, perpetual, eternal, which is now, which was then and which will be there. Some people call it Vedic Dharm or Brahmn Dharm as well. It all started with the desire of the Almighty to create.
Dharm means-the duty assigned to us, as an individual, as a component of the family, member of a society, resident of a place, country,  world and the universe as a whole. As a child, a teacher, a father, a mother, as a professional etc.
We the ones, who believes in HIM call HIM-The Almighty, Bhagvan, Permatma, God. He has millions of names, incarnations-AVTARS. Recitation of his names relives one of all sins; one of such verses is VISHNU SHAHASTRA NAM.
A Hindu can worship HIM in any way, as per his liking. He is free to choose a  deity and worship accordingly. He may visit temple, holy places as per his will. He is free to pray in front of an idol, in a temple or in solitude. He may offer gifts, flowers, money. God welcomes him even if he offers prayers empty handed. He can recite prayers while travelling, sitting, bathing, resting or in any posture. Members of a family may be worshiping different deities at the same occasion. There is no restriction on the method of performing prayers. How ever rites, rituals, Hawan, Yagy, verses needs high degree of essence, purity, notes and specific procedures. Rhythm, pronunciation, clarity in recitation is essential, stressed. Bathing in the morning before prayers is advised. Wearing of clean clothes is advised during the prayers. Morning prayers are performed facing east and evening prayers are performed facing north. However, again, there is no restriction on direction,time, mode. One may pray while facing North-East as well.
This is a religion which provides unlimited freedom. Any one can adopt it, without conversion.
This is the source of all faiths and practice, including Mallechs & Yavan-Romans.
Religion has four pillars (fundamental tenets) ::
(1). GYAN :: Knowledge, Enlightenment, Knowing-identifying self, self realisation, wisdom.
(2). DHYAN  :: Concentration, meditation, contemplation, deep thinking.
(3). SHUM :: Controlling of mind, brain, heart and soul. Disciplining, restraining self, absence of passion, peace of mind, quietness, rest.
(4). DUM ::  Self control, restraint, mortification, sub-due feelings.
It's only on the earth that the living beings have physical-material bodies, elsewhere they are Divine.
A soul is able to acquire a human body only after passing through 84,00,000 cycles of births and rebirths (i.e.; incarnations), through different species of plants and animals. Saints, sages meditate at isolated places-deep woods, mountain caves for millions of years, without meals surviving only on water or air or just by chewing the leaves of trees. Most of them die to reborn again and continue the process for many-many rebirths, without any result. A few of them, who succeed in concentrating-discipline their mind, body and soul are able to attain Salvation-Liberation-Assimilation, emancipation in the Ultimate-Almighty i.e., Moksh.
Purity of heart and efforts take one to the abode of the Deity whom he prayed for, as per their Karm-deeds. With the dilution of their Karm Fal-reward (outcome, result), they take rebirth on this earth. The species of rebirth is decided by the Karm Fal in higher abodes or the earth itself. The soul which is born in India is superior to the one which is reborn elsewhere, on earth. Amongest those souls who are born in India, the souls which took birth as humans in between the plains of Holy Rivers Ganga and Yamuna are more pious. It’s only here in India, where the embodiment of soul-the humans can perform or do some Karm, leading to higher Lok-abode of the Deity, Heaven or Salvation. Elsewhere on earth, it’s all the result of deeds-the Karm Fal, through which the soul has to pass.
Amongest the humans the Brahmn, Kshatriy, Vaeshy, Shudr, Mallechchh are superior to the next, respectively.
A sin committed in the plains of Ganga and Yamuna, any of the Tirth or the 7 Puries-Kashi, Ayodhya, Jaggan Nath Puri..., is sufficient to send the soul to hells and in numerable cycle of births and rebirths.
Soul has no sex. This is minute of the minutest, which can not be sub divided further. It's neither male nor female. It acquires the shape and size of thumb of man, before being captured by the Yum Doot's at the time of death, to be taken to Yam Lok. Its Gati (movement is decided by Chitr Gupt as per its deeds in millions of life-death cycles).It can rise up to Vaekunth or may fall into any of the 28 Narak (Hell's).
Other than these Shwet Dweep, Marut Lok, Sury Lok, Chandr Lok, Yam Lok, Varun Lok, Indr Lok, Agni Lok, Vayu Lok, Dhruv Lok, Nag Lok etc., do exist.
SHWET DWEEP :: Abode of nurturer Bhagwan Vishnu and Maa Laxmi, accompanied by Bhagwan Shash Nag. 
MARUT (YAYU-PAWAN) LOK :: Abode of Pawan Dev-the deity, demigod  of air. 
SURY LOK :: Abode of Bhagwan Sury Narayan-The Sun God. 
CHANDR LOK :: The abode of Chandr (Moon) Dev-the deity of medicines and (born out of the ocean on the earth) king of Brahmns.
YAM LOK :: Abode of Yam Dev (deity of death) and transit point for all souls, mighty son of Sury Bhagwan and awards next birth according to sins and virtues of the soul in previous birth.
VARUN LOK :: Abode of Varun Dev-the deity, demigod of water.
INDR LOK :: Abode of Indr-King of heaven and deities-demigods, deity of rains and responsible for the welfare of humans on earth.
AGNI LOK ::  Abode of Agni Dev the deity, demigod of fire.
All these abodes-Loks are inhabitable. The body in these habitats is not a material-physical the one acquired by humans on earth.
The sins take a soul into the hell, as per its accumulated deeds, in thousands and thousands of births and re births. A soul released from the Hell, having undergone the punishment for its sins, takes birth as insects. Some souls are reborn as birds, animals, trees, shrubs.etc, as per their deeds as humans in one or the other birth. At occasions humans love for some animal-pet, creature becomes the reason to acquire that particular embodiment, before rebirth as humans. The soul keep moving from one species to another or from one Lok (Abode) to another Lok, as per its good or bad deeds in one or the other Yoni (Species).
Good works-deeds, Yagy, Charity, Piousity, Virtues, Helping the needy, perceiving God in each and every creature, considering each and every individual to be equal, takes the soul to Heaven i.e., Divine incarnations.
Pleasure and pain are synonyms of Heaven and Hell, respectively. After enjoying its stay in heaven, the soul returns to the earth, to reborn as human being in well to do, respectable and established family. The game of snake and ladder continues playing its role, till the human being takes the path of Salvation, by reforming himself and purify his deeds.
When a human being born in India; make efforts to purify himself for salvation, through Ascetic practices, Yagy, Meditation, Prayers, Yog, Sacrifices, Donations, Honesty, Truth, Charity, Helping the needy in distress and trouble, Reading, Writing, Listening, Understanding, Following, Practising, Vedic literature: Ved’s, Upnishad, Puran, Geeta, Ramayan, Maha Bharat, Brahman etc., followed in next rebirths, he entitles himself for Moksh-Salvation i.e., assimilation in God. Souls in various universes, having attained Moksh, assimilate themselves in God or the Deity prayed to. The Deity, itself do pray to the God for Moksh. Having being granted Moksh, the Deity, too immerse itself into the God.
मानव जन्म  एक मात्र उद्देश्य मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति हेतु, मनुष्य को परमात्मा की अनन्य भक्ति करनी चाहिये।  
Any one, who is better than the best, craves for excellence in a particular field and strives to protect and safe guard the human beings, is a partial or complete incarnation of the Almighty-The God called: Bhagwan. Each and every Deity in itself is an incarnation of the God.
Para Prakratity (परा प्रकृति), Bhagwan Shri Krashn, Radha Ji, Maha Virat Purush, Adi Dev Mahadev-Shiv, Bhagwan Brahma, Bhagwan Vishnu, Mata Maha Laxmi, Mata Saraswati, Mata Savitri and Maa Ganga are all alike, so are the animals, plants, humans.
The way a molecule of water moves from the oceans to air and reaches back, after passing through various cycles of nature, the soul meets the Almighty, after purification in many many incarnations.
FUNCTIONS OF DEITIES देवताओं का कार्य विभाजन :: 
BHAGWAN SHRI KRASHN भगवान श्री कृष्ण :: First embodiment of the nirakar-formless Almighty, जगत के उतपत्ति कर्ता।
MAA BHAGWATI RADHA JI भगवती राधा :: The power-might-strength of the Almighty, भगवान् श्री कृष्ण की चिर संगिनी। 
VIRAT PURUSH विराट पुरुष ::  The creator of  all Universes, Son of Bhagwan Shri Krashn and Radha Ji; महा विष्णु, वैकुण्ठ लोक वासी, भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी के पुत्र-समस्त बृह्मांडों के जनक। 
NARAYAN-THE FIRST INCARNATION OF ALMIGHTY IN OUR UNIVERSE नारायण :: Narayan is called Vishnu as well. He is the nurturer. First embodiment of the Almighty in this universe from the golden shell-egg in water, 
इस चराचर-ब्रह्माण्ड में जल-नार में स्वर्ण अण्ड से प्रकट हुए, मोक्ष प्रदायक। श्वेतद्वीप वासी भगवान् श्री नारायण को भगवान् श्री हरि विष्णु के नाम से जाना जाता है। वे इस संसार-सृष्टि  के पालनहार हैं। 
MAA LAXMI माँ लक्ष्मी (माया) :: Daughter of Samudr & Wife of Bhagwan Vishnu, समुद्र की पुत्री व  विष्णु की पत्नी, धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति की देवी, जो प्राणियों को मोहमाया में बाँधतीं हैं।  
MAA SARASWATI माँ सरस्वती :: Goddess-Deity of learning & Music, भगवान् श्री हरी विष्णु की पत्नी; ज्ञान-संगीत की  देवी। 
BHAGWAN BRAHMA JI  भगवान ब्रह्मा जी :: The Creator, उत्पत्ति कर्ता-जन्मदाता। 
BHAGWAN SHIV-MAHESH भगवान शिव :: He is the destroyer of the universe, विध्वंसक-नष्ट कर्ता; विद्या-ज्ञान प्रदायक। उन्हें महाकाल भी कहा गया है।
SHAKTI-MAA PARWATI शक्ति (पार्वती, शिव पत्नी, दुर्गा, भवानी, अम्बे) :: Wife-consort of Bhagwan Shiv-grants might-power-strength to the devotees, भगवती अवतार-शक्ति दायक; पति-पत्नी में सामंजस्य प्रदान करतीं हैं। माता पार्वती ही पिछले जन्म में सती थीं। सती के ही 10 रूप 10 महाविद्या के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं को 9 दुर्गा कहा गया है। आदिशक्ति माँ दुर्गा और माता पार्वती अलग-अलग हैं। दुर्गा सर्वोच्च शक्ति हैं, लेकिन उन्हें कहीं कहीं पार्वती के रूप में भी दर्शाया गया है। माता लक्ष्मी, माता पार्वती  सरस्वती एक रूप होकर माँ दुर्गा बनतीं हैं। 
TRINITY OF GODS त्रिमूर्ति :: Bhagwan Brahma, Vishnu & Mahesh form the Trinity, भगवान् ब्रह्मा माँ सरस्वती (सृजन तथा ज्ञान), भगवान् विष्णु माँ लक्ष्मी (पालन तथा साधन) और भगवान् शिव माँ पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति)। कार्य विभाजन अनुसार पत्नियाँ ही पतियों की शक्ति हैं। सर्वप्रथम त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश महत्वपूर्ण हैं। उक्त त्रिदेव के जनक हैं सदाशिव और दुर्गा। त्रिदेव की पत्नियाँ हैं :- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती। माँ पार्वती अपने पूर्व जन्म में सती थीं। 
INDR इन्द्र :: King of Heaven-Demi Gods, Nurturers, protects earth through rains and nourishment; देवताओं के राजा, इन्द्रियों की विशेष शक्ति। बारिश और विद्युत को संचालित करते हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इंद्र हुए हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं :- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि। वानर राज बाली देवराज इन्द्र  था। नर ऋषि ने अर्जुन के रूप में देवराज इन्द्र का पुत्र बनकर जन्म लिया। 
AGNI-FIRE अग्नि :: Grants beautiful and attractive body; सुन्दर और आकर्षक शरीर। अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियाँ अग्नि के द्वारा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। बहुत सी ऐसी आत्माएं हैं, जिनका शरीर अग्निरूप में है, प्रकाश रूप में नहीं।
SURY-SUN सूर्य :: Illuminates the whole universe, including the heaven & hells; भगवान् सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। सुग्रीव भगवान् सूर्य  पुत्र हैं। कर्ण सूर्य पुत्र ही था। सूर्यदेव जगत के समस्त प्राणियों को जीवनदान देते हैं।
PAWAN-DEV AIR पवन-मारुत-वायु देव :: Deity of wind-air; वायु प्रवाह; वायु को पवनदेव भी कहा जाता है। वे सर्वव्यापक हैं। उनके बगैर एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षणभर में नष्ट हो जाएगा। शरीर में आत्मा प्राणवायु  स्थित रहती है है। पवनदेव के अधीन रहती है जगत की समस्त वायु। हनुमान जी महाराज भगवान् शिव के अवतार और पवन पुत्र हैं। 
VARUN DEV-WATER वरुण :: Deity of water-rain; जल के देवता, वरुणदेव का जल जगत पर शासन है। उनकी गणना देवों और दैत्यों दोनों में की जाती है।  
YAM RAJ-DHARM RAJ DEITY OF DEATH-FAITH-RELIGION यम राज-धर्म राज :: Death-Rebirth, punishes for sins; धर्म कर्म, पुनर्जन्म, लोक-परलोक निर्धारण, कर्म फल; यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के प्राणियों के भौतिक शरीरों के नष्ट हो जाने के बाद उनकी आत्माओं को उचित स्थान पर पहुँचाने और शरीर के हिस्सों को पाँचों तत्व में विलीन कर देते हैं। वे सूर्यपुत्र और मृत्यु के देवता हैं।
CHITR GUPT चित्रगुप्त :: He maintains records pertaining to the fair or fouls deeds, virtues & sins of all creatures; संसार के प्राणियों के पुण्य-पाप का लेखा-जोखा रखते हैं और यमराज, स्वर्ग तथा नरक के मुख्यालयों में तालमेल भी कराते रहते हैं। कायस्थ वंश उन्हीं से चला है। 
KUBER-TREASURER OF DEMIGODS WEALTH कुबेर ::  King of Yaksh & Treasurer of demigods; देवताओं के धन के अधिपति-रक्षक-खजांची-कोषाध्यक्ष, यक्षों के राजा और रावण के बड़े भाई। 
MITR मित्र :: मित्र देव, देव और देवगणों के बीच संपर्क का कार्य करते हैं। वे ईमानदारी, मित्रता तथा व्यावहारिक संबंधों के प्रतीक देवता हैं।
KAM DEV काम देव :: Sensuality, Sex, Lust, Sexuality, Passions, Lasciviousness; काम-उत्तेजना, वासना, प्यार; कामदेव और रति सृष्टि में समस्त प्रजनन क्रिया के निदेशक हैं। उनके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती। उनकी दूसरी पत्नी प्रीति हैं। भगवान् श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न जी के रूप में उन्हें दूसरा शरीर प्राप्त हुआ। कामदेव का शरीर भगवान् शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग (बिना शरीर) भी कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है, जिसका भौतिक वजूद नहीं होता।
RATI रति ::  Helps her husband in sexual pleasure-passions-sensuality; काम देव की पत्नी-काम वर्धक, प्राणियों में कामोत्तेजना उत्त्पन्न करतीं हैं। 
PITRGAN-MANES पितृगण :: They maintains the chain of hierarchy; वंश परम्परा को कायम रखना। They are of two types (1). Divines & (2). the deceased-departed souls.
GANDARBH गन्दर्भ :: Beautiful and attractive body-figure, experts in dance & music; सुन्दर और आकर्षक शरीर, नृत्य और संगीत के माहिर। 
SAMUDR-OCEAN समुद्र :: Incarnation of Bhagwan Vishnu-Ocean; पृथ्वी पर जल के संग्रह कर्ता।  
GANGA, YAMUNA, SARASWATI, KAWERI, GODAWARI, SINDHU, GAUMTI; गँगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी, गोदावरी, सिन्धु  गौमती :: Perennial Holy rivers;  पवित्र नदियाँ। 
GANESH गणेश :: Son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati, protects from troubles, makes the job easier, helps in over coming difficulty. Removes all hindrances, obstructions. Provides enlightenment-intelligence-prudence; विघ्न विनाशक, रुकावट-परेशानी दूर कर्ता।  भगवान् शिव के पुत्र गणेश जी महाराज को देवगणों का अधिपति नियुक्त किया गया है। वे बुद्धिमत्ता और समृद्धि के देवता हैं। विघ्ननाशक की ऋद्धि और सिद्धि नामक दो पत्नियाँ और शुभ और लाभ दो पुत्र हैं।
DHANWANTRI धनवंतरी :: Incarnation of Bhagwan Vishnu to provide cure to the demigods and the humans, Son of Samudr, the divine doctor. He came out of ocean with pitcher of elixir in hands when ocean was churned; चिकित्सा।                  
SHANI-SATURN शनि :: Deity of Luck; सूर्य भगवान् के पुत्र, भाग्य के देवता।  
VRAHASPATI वृहस्पति :: Philosopher-teacher & guide of Demi Gods-deities, देव गुरु,  ब्रह्मतेज या विशिष्ट ज्ञान प्रदायक।          
SHUKR-VENUS शुक्र :: Philosopher-teacher & guide of Demons, Rakshash, Giants-King of Poets, owner of earth, revived the demons-monsters who died in war with undamaged body; राक्षसों के गुरु, सर्वश्रेष्ठ कवि, राक्षसों और दानवों को जीवित कर दिया जो देव-दानव संग्राम में आहत हुए और जिनका शरीर पूरी तरह सुरक्षित था। 
MOON चन्द्र देव :: Son of Samudr & King of Brahmns, nourishes medicines, love, imagination, travel; ब्राह्मणों के राजा, औषधियों के उत्पत्ति करता और रक्षक, प्यार-मोह, भोग। 
BUDDH-MERCURY बुद्ध :: Son of Chandr-Moon-Provides intelligence; चन्द्र पुत्र-चतुराई-ज्ञान, बुद्धि के दाता। 
MANGAL-MARS मँगल :: War, Welfare; भगवान् शिव व पृथ्वी पुत्र।    
HANUMAN JI हनुमान जी महाराज :: Protector of Deities-Demi Gods, incarnation of Bhagwan Shiv; 11 वें रूद्र, शिव स्वरूप देवताओं के रक्षक व सहायक। देवताओं में सबसे शक्तिशाली देव, रामदूत हनुमान जी अभी भी सशरीर हैं और उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है। सूर्य भगवान् के शिष्य, रावण और महर्षि बाल्मीकि से भी ज्यादा ज्ञानी-पण्डित, पवनदेव के पुत्र हैं। बुद्धि और बल देने वाले देवता हैं। उनका नाम मात्र लेने से सभी तरह की बुरी शक्तियाँ और संकटों का खात्मा हो जाता है।
MOTHER EARTH पृथ्वी माता :: Bears all the creatures over her, humans gets opportunity to worship & attain Salvation; समस्त प्राणियों का भार धारण करने वाली।  
BHAGWAN SHESH NAG भगवान शेष नाग :: Incarnation of Bhagwan Vishnu; holds the earth in its orbit round the Sun on his hood, took incarnation as younger brother Laxman Ji with Bhagwan Shri Ram  and Balram Ji as elder brother of Bhagwan Shri Krashn; पृथ्वी को अपने फन पर धारण करने वाले-भगवान् विष्णु के शेष अवतार। उन्होंने सूत जी को धर्म के विरुद्ध कार्य करने के कारण देवलोक पहुँचा दिया। 
ADITI अदिति :: Mother of demigods, grants sufficient food grain; अन्न संग्रह। 
PRAJAPATI प्रजापति :: Grants progeny-descendants  in next birth; अगले जन्म में सन्तान प्राप्ति। 
RUDR रूद्र :: Valour, courage, might, bravery; वीरता।  
SONS OF ADITI-DEMIGODS अदिति के पुत्र देवगण :: Grants heaven; स्वर्ग प्रदायक। 
VISHW DEV विश्वदेव :: Grants empire-kingdom; राज्य प्रदान करते हैं। 
ASHWANI KUMAR अश्वनी कुमार :: Sons of Bhagwan Sury grants longevity and are medical practitioners-doctors of demigods, आयु, चिकित्सा।          
ADITI & DITI देवमाता अदिति और असुर माता दिति :: Wives of Mahrishi Kashyap, भूत, भविष्य, चेतना तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।
BHAGWAN KARTIKEY कार्तिकेय ::  Chief of Divine armies; भगवान् शिव व माता पार्वती के बड़े पुत्र हैं। कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वे देवताओं के सेनापति हैं। उनका एक नाम स्कंद भी है। उनका वाहन मोर है। दक्षिण भारत में उनकी पूजा का प्रचलन है।
ARYMA-ARYMAN अर्यमा या अर्यमन :: यह आदित्यों में से एक हैं और देह छोड़ चुकी आत्माओं के अधिपति हैं अर्थात पितरों के देव।
DEV RISHI NARAD देवऋषि नारद :: नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वे तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। वे देवताओं के संदेशवाहक हैं। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है।
देवताओं के नाम का अर्थ :: ईश्वर का उनके गुणों के आधार पर देववाची नामकरण किया गया है, जैसे अग्नि :- तेजस्वी। प्रजापति-प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र-ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा-बनाने वाला। विष्णु-व्यापक। रुद्र-भयंकर। शिव-कल्याण चाहने वाला। शंकर-कल्याण करने वाला। मातरिश्वा-अत्यंत बलवान। वायु-वेगवान। आदित्य-अविनाशी। मित्र-मित्रता रखने वाला। वरुण-ग्रहण करने योग्य। अर्यमा-न्यायवान। सविता-उत्पादक। कुबेर-व्यापक। वसु-सबमें बसने वाला। चंद्र-आनंद देने वाला। मंगल-कल्याणकारी। बुध-ज्ञानस्वरूप। बृहस्पति-समस्त ब्रह्माण्डों का स्वामी। शुक्र-पवित्र। शनिश्चर-सहज में प्राप्त होने वाला। राहु-निर्लिप्त। केतु-निर्दोष। निरंजन-कामना रहित। गणेश-प्रजा का स्वामी। धर्मराज-धर्म का स्वामी। यम-फलदाता। काल-समय रूप। शेष-उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। 
देवी-देवताओं का समूह और उनके कार्य सर्वोच्च शक्ति परमेश्वर के बाद हिन्दु धर्म में देवी और देवताओं के समान ही देवगणों के स्थान है। देवताओं के देवता अर्थात देवाधिदेव महादेव हैं तो देवगणों के अधिपति श्री गणेश जी महाराज हैं।
जैसे शिव के गण होते हैं उसी तरह देवों के भी गण होते हैं। गण का अर्थ है वर्ग, समूह, समुदाय। जहाँ राजा वहीं मंत्री है, इसी प्रकार जहाँ देवता वहाँ देवगण भी हैं। 
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च। 
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्‍घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥
11 रुद्र और 12 आदित्य तथा 8 वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं।
आदित्य-विश्व-वसवस् तुषिताभास्वरानिलाः। 
महाराजिक-साध्याश् च रुद्राश् च गणदेवताः॥  [नामलिङ्गानुशासनम्]
देवताओं के गण :: 33 देवताओं के अतिरिक्त ये गण और माने गए हैं। 36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्य, 64 आभास्वर, 49 मरुत, 220 महाराजिक। इस प्रकार वैदिक देवताओं के गण और परवर्ती देवगणों को मिलाकर कुल सँख्या 424 होती है। उक्त सभी गणों के अधिपति  जी महाराज हैं। गणाधि‍पति गजानन गणेश। गणेश जी की आराधना करने से सभी की आराधना हो जाती है।
देवगण अर्थात देवताओं के गण, जो उनके लिए कार्य करते हैं। हालांकि गणों की सँख्या अनंत है, लेकिन 3 देव के अलावा देवताओं की संख्या 33 ही है। इसके अलावा प्रमुख 10 आंगिरस देव और 9 देवगणों की सँख्या भी बताई गई है। महाराजिकों की कहीं-कहीं सँख्या 236 और 226 भी मिलती है।
राम, कृष्ण और बुद्ध को देवता नहीं, अपितु भगवान् श्री हरी विष्णु का अवतार कहा गया है। कृष्ण अवतार नहीं अवतारी हैं अर्थात स्वयं परब्रह्म परमेश्वर धरा पर उतर आये। उन्हें पूर्णावतार कहा गया है। 
पृथ्वी पर देवता :: प्रारंभिक काल में धरती पर आया-जाया करते थे देवी और देवता। उनका मनुष्यों से गहरा संपर्क था। कलयुग की शुरुआत के बाद वे सभी अपने-अपने धाम चले गए। वे मनुष्यों की इच्छा के अनुसार उनकी स्‍त्रियों से संपर्क पर उनको पुत्र लाभ देते थे। देवताओं से उत्पन्न पुत्रों को भी देवता ही माना जाता था, जैसे पवनपुत्र हनुमान और पांडु पुत्र। देवताओं से उत्पन्न पुत्रों में अपार शक्तियाँ होती थीं।
देवकुल :: देवकुल में मुख्‍यत: 33 देवता हैं। इन 33 देवताओं के अलावा मरुद्गणों और यक्षों को भी देवताओं के समूह में शामिल किया गया है। त्रिदेवों ने सभी देवताओं को अलग-अलग कार्य पर नियुक्त किया है। वर्तमान मन्वन्तर में ब्रह्मा के पौत्र कश्यप से ही देवता और दैत्यों के कुल का निर्माण हुआ।
ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे। इनकी माता ‘कला’ कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थीं। महर्षि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं।
प्रमुख 33 देवता :: 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं, रुद्र ही शिव और आदित्यों में एक विष्णु हैं।
12 आदित्य :: (1). अंशुमान, (2). अर्यमन, (3). इन्द्र, (4). त्वष्टा, (5). धातु, (6). पर्जन्य, (7). पूषा, (8). भग, (9). मित्र, (10). वरुण, (11). विवस्वान और (12). विष्णु।
8 वसु :: (1). आप, (2. ध्रुव), (3). सोम, (4). धर, (5). अनिल, (6). अनल, (7). प्रत्युष और (8). प्रभाष।
11 रुद्र :: (1). शम्भू, (2). पिनाकी, (3). गिरीश, (4). स्थाणु, (5). भर्ग, (6). भव, (7). सदाशिव, (8. शिव), (9). हर, (10). शर्व और (11). कपाली। इन 11 रुद्र देवताओं को यक्ष और दस्युजनों का देवता माना गया है।
पुराणों में रुद्रों के अलग-अलग नाम हैं :: मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग-अलग नाम मिलते हैं।
2 अश्विनी कुमार :: (1). नासत्य और (2.) दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।
12 साध्यदेव :: अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं-कहीं इस तरह भी मिलते हैं :- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।
64 अभास्वर :: तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं :- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।
12 यामदेव :: यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।
10 विश्वदेव :: पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है, जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।
220 महाराजिक ::
49 मरुतगण :: मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है, जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं।
वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम पृशित बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।[ऋ. 1.85.4] 
पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।
7 मरुत :: (1). आवह, (2). प्रवह, (3). संवह, (4). उद्वह, (5). विवह, (6). परिवह और (7). परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं :- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।
30 तुषित :: 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक ‍द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे :- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।
तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया।
पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है।
अन्य देव :: गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, शनि, सोम, ऋभुः, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय आदि।
ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दो अश्वनीकुमार तथा उन्चास मरुद्गण हैं। उनके साथ 12 साध्य गण :- मन, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभस और विभु हैं। ये 10 विश्वेदेव :- क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, धुनि, कुरुवान, प्रभवान् और रोचमान हैं। ये 7 पितर :- कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निश्वात्त और बर्हिषत् हैं। कश्यप जी की पत्नी मुनि, प्राधा और अरिष्टा से गन्धर्वों की उत्पत्ति हुई है, जो कि गायन विद्या में कुशल होने के कारण स्वर्गलोक के गायक हैं। कश्यप जी की पत्नी खसा से यक्षों की उत्पत्ति हुई है। देवताओं के विरोधी दैत्य, दानव और राक्षस असुर कहलाते हैं। कपिल आदि को सिद्ध कहते हैं।
अन्य देवी :: भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति आदि।
गायत्री मंत्र अनुसार 24 देवता :: (1). अग्नि, (2). वायु, (3). सूर्य, (4). कुबेर, (5). यम, (6). वरुण, (7). बृहस्पति, (8). पर्जन्य, (9). इन्द्र, (10). गंधर्व, (11). प्रोष्ठ, (12). मित्रावरुण, (13). त्वष्टा, (14). वासव, (15). मरुत, (16). सोम, (17). अंगिरा, (18). विश्वेदेवा, (19). अश्विनीकुमार, (20). पूषा, (21). रुद्र, (22). विद्युत, (23). ब्रह्मा, (24). अदिति।
देवताओं का वर्गीकरण :: देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है, इनमें 4 प्रकार मुख्य हैं। 
पहला स्थान क्रम से :: द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्य स्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता और तीसरे पृथ्वी स्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
दूसरा परिवार क्रम से :: इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
तीसरा वर्ग क्रम से :: इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
चौथे समूह क्रम से :: इन देवताओं में सर्व देवा आदि की गिनती की जाती है।
स्व: (स्वर्ग) लोक के देवता :: सूर्य, वरुण, मित्र। 
भूव: (अंतरिक्ष) लोक के देवता :: पर्जन्य, वायु, इंद्र और मरुत। 
भू: (धरती) लोक :: पृथ्वी, उषा, अग्नि और सोम आदि।
आकाश के देवता अर्थात स्व: (स्वर्ग) :: सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदित्यगण, अश्विनद्वय आदि।
अंतरिक्ष के देवता अर्थात भूव: (अंतरिक्ष) :: पर्जन्य, वायु, इंद्र, मरुत, रुद्र, मातरिश्वन, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य।
पृथ्वी के देवता अर्थात भू: (धरती) :: पृथ्वी, ऊषा, अग्नि, सोम, बृहस्पति, नद‍ियाँ आदि।
पाताल लोक के देवता :: उक्त 3 लोक के अलावा पितृलोक और पाताल के भी देवता नियुक्त हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। पितरों के देवता अर्यमा हैं। पाताल के देवाता शेष और वासुकि हैं।
पितृलोक के देवता दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण :: अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।
नक्षत्र के अधिपति :: चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।
10 दिशा के 10 दिग्पाल :: ऊर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत। 
धर्म के नाम  पर लोगों को गुमराह किया जाता है। धर्म की दुकानें कहीं भी खुल जाती हैं और धड़ल्ले से चल रही हैं। लोगों की आस्था, विश्वास, धार्मिकता, मानसिकता, मनोवृति का दुरूपयोग करने वालों में राजनीतिबाज, सबसे आगे हैं।
देवताओं की अधिकतम सँख्या 33 करोड़ है। जो मनुष्य सतकर्म करते हैं वो स्वर्ग पहुँच जाते हैं। कर्मफल समाप्त होते ही पुनः पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करते हैं।

शास्त्रों में बताया गया विधान जो कि कर्म परलोक में सद्गति प्रदान करता है, वह धर्म है।

हिन्दु धर्म सनातन है, जो पहले भी था, वर्तमान में और भविष्य में भी होगा। यह कभी नष्ट नहीं होता। यह शाश्वत है। यह जीवन शैली,  जीने का तरीका है।
वर्णाश्रम धर्म और कर्तव्य का पालन धर्म है।
धर्म वह मनुष्य को आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। धर्म मनुष्य में अच्छा जीवन यापन, प्रेम, करूणा, अहिंसा, क्षमा और अपनत्व का भाव उत्पन्न करता है।
मनुस्मृति में बताये धर्म के दस लक्षण :-
धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, धी या बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं।
श्रीमद्भागवत में बताये धर्म के 30 लक्षण :: सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार-ज्ञान, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृति, मनुष्य के अभिमान पूर्ण प्रयत्नों का फल उल्टा ही होता है; यह विचार धारण करना, मौन, आत्मचिंतन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग विभाजन-वितरण, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपनी आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान् श्री कृष्ण के नाम, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्यसाथी-प्रेमी, और आत्म समर्पण। ये तीस प्रकार का आचरण, सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह उपदेश प्रह्लाद जी ने अपने बाल्य काल में अपने सहपाठियों को दिया। उन्होंने यह सब नारद जी के मुँख से अपनी माँ को कहते सुना, जब वे गर्भ में थे।[श्रीमद्भागवत 11.7.8-12]
ऋग्वेद में धर्म की व्याख्या निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धान्त) या आचार  को कहता है।  वेदों में वसुधैव कुटुम्बकम् ही धर्म है।
महाभारत, शांतिपर्व के अनुसार धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। धर्म मय आचरण का फल तत्काल दिखाई नहीं देता अपितु, समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व (ज्ञान रूप में) मिलता है।
 बाल्मिकी रामायण संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। भगववान श्री राम ने कहा कि धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन अवश्य करना चाहिए।
मनु स्मृति में कहा गया है कि धर्म उसका नाश करता है जो धर्म का नाश करता है। धर्म उसका रक्षण करता है, जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है। अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए। धर्म का नाश करने वाले का सर्वनाश, अवश्यंभावी है।
हिंदु धर्म के 9 चिन्ह :: (1). शंख, (2). चक्र, (3). गदा, (4). कमल, (5). ध्वजा, (6). ॐ, (7). स्वास्तिक, (8). त्रिशूल और (9). कलश।
वर्ण व्यवस्था :: मुख्य रूप से 4 वर्ण :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य  शूद्र हैं। 
वर्ण की पहचान कर्म से है न कि जन्म से।
अन्य वर्ण :- मलेच्छ और निषाद। मलेच्छ के दो  प्रमुख भेद हैं :- यहूदी और इस्लाम। ईसाइयत यहूदी धर्म की देन है। यहूदी देवगुरु बृहस्पति के वंशज हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर-पर ब्रह्म परमेशवर से हुई है। अनन्त श्रष्टियाँ हैं। परमात्मा के अनन्त अवतार हो चुके हैं और आगे भी होंगे। 
हमारी पृथ्वी पर ईश्वर ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप  विराजमान हैं। 33 करोड़ देवता हैं। प्रत्येक देवी-देवता को उसका कार्य विभाजन किया गया है।
सनातन धर्म की व्याख्या वेद, पुराण, उपनिषद, वेदान्त, ब्राह्मण, मनुस्मृति इतिहास आदि में विस्तार पूर्वक की गई है। रामायण, महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता प्रमुख ग्रन्थ हैं। श्रुति और  व्याख्या आदि भी इसके अभिन्न अंग हैं। 
चार आश्रम :: बालक, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध। ब्रह्मचारी (0-25), गृहस्थ (26-50), वानप्रस्थ 51-75) और सन्यास (76-100)।
    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)