Friday, June 24, 2016

YOG योग

YOG योग
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
It is Yuj, binding, joining, attaching. It helps one in directing and concentrating attention in the Almighty. It is union, communion with the Supreme. It disciplines the intellect, mind, emotions and the  will. It helps the soul  to look at life in all aspects evenly.
Purans have explained different dimensions of Yog in great details. Patanjali was one of the scholars who brought it to the masses. He composed Yog Sutr (formulations), consisting of 185 terse aphorisms. 
It is permeated by the Supreme Universal Spirit (Parmatma, God, the Almighty) of which the individual human spirit (Jeevatma) is a fraction-component. It explores the way through which the Jeevatma units or communicates with the Parmatma, to attain renunciation, relinquishment, Liberation,  Moksh, Salvation.
One who follows the path of Yog is a Yogi.
Bhagwan Shri Krashn explains to Arjun the meaning of Yog as a deliverance from contact with pain and sorrow, in the sixth chapter of the Bhagwad Gita. When the mind, intellect and self (Ahanenkar, अहँकार, घमण्ड, ego, super ego, id, pride) are under control-freed-liberated from restless desires, to rest in the spirit within, one becomes a Yukt-in communion with God. A Yogi controls his mind, intellect and self, being absorbed in the spirit within him. When the restlessness of the mind, intellect and self is stilled through the practice of Yog, the Yogi by the grace of the Spirit-Supreme Soul-the Almighty, within himself finds fulfilment. He attain a stage where there is bliss-the joy eternal-Parmanand and no pain-sorrow-grief. This is beyond the pale of the senses which reason cannot grasp. He abides in this reality. He has found the treasure-the Ultimate-above all others. There is nothing higher than-beyond this. 
Yog is wisdom in work or skillful living amongest activities, harmony and moderation. Yog is neither for the one who gorges too much, nor for one who starves himself. It is neither for him who sleeps too much, nor for the one who stays awake. By moderation in eating and in resting, by regulation in working and by concordance in sleeping and waking, it destroys all pain and sorrow.
Yog is a state when the senses are stilled, mind is at rest, intellect stops wavering i.e., perfect control-harmony of the senses and mind.  One who attains this is free from delusion.[Kathopnishad]
Yog is Chitt Vratti Nirodh.[Patanjali Yog Sutr 1-2] 
Controlling, suppression of the psyche, mood, tendencies, fluctuations, wavering of mind-intelligence, utilization of prudence, reigning pride (Id, ego, super ego). 
It improves cardiovascular health, tones muscles, increases flexibility and invokes calmness. Yog is a meditative discipline that reduces anxiety while sharpening the mind.
पतञ्जलि योगसूत्र :: चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है।चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर उधर भटकने न देना, केवल मात्र एक परमात्मा में स्थिर रखना ही योग है।
आत्मा और जगत् में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों में कपिल मुनि के अनुरूप पचीस तत्व हैं। क्योंकि कपिल स्वयं ईश्वर के अवतार हैं, अतः पतञ्जलि ने छब्बीसवाँ तत्व पुरुष विशेष या ईश्वर भी माना है। 
पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादों या भागों में विभक्त है। 
समाधिपाद में योग के उद्देश्य और लक्षण और उनका संसाधन किस प्रकार होता है, समझाया गया है।इसमें क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। 
विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है। मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग है।  क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। संसार दुःखमय और हेय है। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये योग ही एकमात्र उपाय है।
चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ हैं  जिन्हें चित्तभूमि कहते हैं।आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं। जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं। यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच रहता है। यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
योगसाधना :: योगी साधक पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलता है। अपना चित्त स्थिर करता है। 
चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय :- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें 'विभूति' या 'सिद्धि' कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य है। जो व्यक्ति योग के ये आठों अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी होता है। सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग और साँख्य एकमत हैं। अतः साँख्य को ज्ञानयोग और योग को कर्मयोग भी कहते हैं।
ग्रन्थ का सांगठन :- यह चार पादों या भागों में विभक्त है। समाधि पाद (51 सूत्र), साधन पाद (55 सूत्र), विभूति पाद (55 सूत्र), कैवल्य पाद (34सूत्र) और कुल सूत्र 195 हैं। 
इन पदों में योग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के उद्देश्य, लक्षण तथा साधन के उपाय या प्रकार हैं और उसके भिन्न-भिन्न अंगों का विवेचन है। इसमें चित्त की भूमियों या वृत्तियों का भी विवेचन है। इस योग-सूत्र का प्राचीनतम भाष्य वेदव्यास का है, जिस पर वाचस्पति का वार्तिक भी है। योगशास्त्र नीति विषयक उपदेशात्मक काव्य की कोटि में आता है।
यह शारीरिक योग मुद्राओं का शास्त्र नहीं है अपितु आत्मा और परमात्मा के योग या एकत्व और उसको प्राप्त करने के नियमों व उपायों का विषय है। यह अष्टांग योग भी कहलाता है क्योंकि इसकी व्याख्या अष्ट अर्थात आठ अंगों :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में की गई है। 
अष्टांग योग-योग के आठ अंग :: यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है।
(1). यम :- पाँच सामाजिक नैतिकता। 
(1.1). अहिंसा :- शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को कोई हानि नहीं पहुँचाना। 
(1.2). सत्य :- विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। 
(1.3). अस्तेय :- चोर-प्रवृति का न होना। 
(1.4). ब्रह्मचर्य :- इसके दो अर्थ हैं :- (1.4.1). चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और  (1.4.2). सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। 
(1.5). अपरिग्रह :- आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 
(2).  नियम :- पाँच व्यक्तिगत नैतिकता। 
(2.1).  शौच  :- शरीर और मन की शुद्धि। 
(2.2).  संतोष  :- संतुष्ट और प्रसन्न रहना। 
(2.3).  तप :- स्वयं से अनुशासित रहना। 
(2.4).  स्वाध्याय :- आत्मचिंतन करना। 
(2.5).  ईश्वर-प्रणिधान :- ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। 
(3). आसन :- योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण। 
(4). प्राणायाम :- श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण। 
(5). प्रत्याहार :- इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना। 
(6). धारणा :- एकाग्रचित्त होना। 
(7). ध्यान :- निरंतर ध्यान। 
(8). समाधि :- आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था। 
सार-संक्षेप :: (1). पतंजलि को गुरु परम्परा में मिली योग शिक्षा; योग अनुशासन, 
(2). योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है,
(3). दृष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है,
(4). वृत्तियों का सारुप्य होता है, इतर समय में,
(5). वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं :- क्लेशक्त और क्लेशरहित,
(6). 
(6.1). प्रमाण*, (6.2). विकल्प, (6.3). विपर्यय, (6.4). निद्रा तथा (6.5). स्मृति,
प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। प्रमा नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द।[गौतम]
कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम्।
अर्थात जिस ज्ञान में अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, अन्य ज्ञान से बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही प्रमाण है।[शास्त्र दीपिका]
मीमांसक, वेदांती और पौराणिक चार प्रकार के और प्रमाण मानते हैं :- ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अनुपलब्धि या अभाव। 
चार्वाक :- केवल प्रत्यक्ष प्रमाण,
बौद्ध :- प्रत्यक्ष और अनुमान,
सांख्य :- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द),
पातंजल :- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द),
वैशेषिक :- प्रत्यक्ष और अनुमान, 
रामानुज पूर्णप्रज्ञ :- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द),
भाट्टमत में प्रमाण के छः भेद हैं:- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थातपत्ति तथा अनुपलब्धि या अभाव।
(7). आगम,
(8). विपर्यय वृत्ति मिथ्या ज्ञान अर्थात जिससे किसी वस्तु के यथार्थ रूप का ज्ञान न हो,  
(9). ज्ञान जो शब्द से उत्पन्न होता है, पर वस्तु होती नहीं, विकल्प है,
(10). ज्ञेय विषयों के अभाव : ज्ञान का आलंबन, निद्रा, 
(11). अनुभव में आए हुए विषयों का न भूलना, स्मृति, 
(12). अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उनका निरोध, 
(13). उनमें स्थित रहने का यत्न, अभ्यास, 
(14). अभ्यास दीर्घ काल तक निरन्तर सत्कार पूर्वक सेवन किए जाने पर दृढ़ भूमिका वाला होता है, 
(15). देखे हुए सुने हुए विषयों की तृष्णा रहित अवस्था वशीकार नामक वैराग्य है, 
(16). वैराग्य, वह अवस्था जब पुरुष तथा प्रकृति की पृथकता का ज्ञान, उससे परे परम् वैराग्य जब तीनों गुणों के कार्य में भी तृष्णा नहीं रहती, 
(17). वितर्क विचार आनन्द तथा अस्मिता नामक स्वरूपों से संबंधित वृत्तियों का निरोध सम्प्रज्ञात है, (वैराग्य से वृत्ति निरोध के बाद) 
(18). शेष संस्कार अवस्था, असम्प्रज्ञात, 
(19). जन्म से ही ज्ञान, विदेहों अथवा प्रकृति लयों को होता है, (गुरु, साधन, शास्त्र में) श्रद्धा, वीर्य (उत्साह), 
(20). बुद्धि की निर्मलता, ध्येयाकार बुद्धि की एकाग्रता, उससे उत्पन्न होने वाली ऋतंभरा प्रज्ञा- पाँचों प्रकार के साधन, बाकि जो साधारण योगी हैं, उनके लिए, 
(21). तीव्र उपाय, संवेग वाले योगियों को शीघ्रतम सिद्ध होता है, 
(22). तीव्र संवेग के भी मृदु मध्य तथा अधिमात्र, यह तीन भेद होने से, अधिमात्र संवेग वाले को समाधि लाभ में विशेषता है, 
(23). या फिर सब ईश्वर पर छोड़ देने से, 
(24). (ईश्वर प्रणिधान) अविद्या अस्मिता राग द्वेष तथा अभिनिवेष यह पाँच क्लेश कर्म, शुभ तथा अशुभ, फल, संस्कार आशय से परामर्श में न आने वाला, ऐसा परम पुरुष, ईश्वर है, 
(25). उस (ईश्वर में) अतिशय की धारणा से रहित सर्वज्ञता का बीज है, 
(26). काल से पार होने के कारण वह ईश्वर पूर्वजों का भी गुरु है, 
(27). उसका बोध कराने वाला प्रणव है (ॐ),
(28). उस (प्रणव) का जप, उसके अर्थ की भावना सहित (करें), 
(29). उससे प्रत्यक्ष चेतना की अनुभवी रूपी प्राप्ती होगी और अन्तरायों का अभाव होगा,
(30). शारीरिक रोग, चित्त की अकर्मण्यता, संशय, लापरवाही, शरीर की जड़ता, विषयों की इच्छा, कुछ का कुछ समझना, साधन करते रहने पर भी उन्नति न होना, ऊपर की भूमिका पाकर उससे फिर नीचे गिरना, वित्त में विक्षेप करने वाले नौ विध्न हैं,  
(31). दुख, इच्छा पूर्ति न होने पर मन में क्षोभ, कम्पन, श्वास प्रवास विक्षेपों के साथ घटित होने वाले, 
(32). उनके प्रतिषेध के लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए,
(33). सुखी, दुखी पण्यात्मा तथा पापात्मा व्यक्तियों के बारे में, यथा क्रम मैत्री, करुणा, हर्ष तथा उदासीनता, की भावना रखने से चित्त निर्मल एवं प्रसन्न होता है,
(34). या, श्वास प्रवास की क्रिया को रोककर शरीर के बाहर स्थित करना अथवा अन्तर में धारण करने से वृत्ति निरोध होता है,
(35). अथवा शब्द, स्पर्ष, रूप, गंध वाली दिव्य स्तर की वृत्ति, उत्पन्न होने पर चित्त वृत्ति का निरोध करती है क्योंकि वह मन को बांधने वाली होती है,
(36). अथवा ज्योतिषमती नाम की विशोका ज्योतियों से,
(37). अथवा उनका महात्माओं का ध्यान करने से, जिनका चित्त वीतराग हो गया है, 
(38). अथवा निद्रा में ध्यान करने से,
(39). पहले निद्रा को सत्वगुणी बनाना आवश्यक है, गीता में कहा गया है कि जब सब नींद में होते हैं, योगी जागता है। उससे यही अर्थ बनता है।) अथवा जैसे भी (श्रद्धा से अभिमत) ध्यान, 
(40). उस ध्यान से) परमाणु से परम महान तक उस निरुद्ध योगी की वशीकार अवस्था हो जाती है, 
(41). वह द्रष्टा,जिसकी, अभिजात मणि के समान वृत्तियाँ  क्षीण हो गयी हैं; वृत्तियों से उत्पन्न ज्ञान, जिन विषयों का ज्ञान ग्रहण किया जाता है या जिस पर उस चित्त की सथिति होती है, उसी के समान रंगे जाने से, उसी के समान हो जाता है, 
(42). उन में से शब्द अर्थ तथा ज्ञान के तीनों विकल्प सहित मिली हुई, सवितर्क समापत्ती है 
(43). शब्द तथा ज्ञान, इन विषयों के हट जाने पर तथा अपने स्वरूप की भी विस्मृती सी हो जाने पर, जब अर्थ मात्र का आभास ही शेष रह जाता है, निर्वितर्क सम्प्रज्ञात है, 
(44). इस प्रकार सवितर्क एवं निर्वितर्क समाधि के निरुपण से सविचार एवं निर्विचार सम्प्रज्ञात, जो कि सूक्ष्म विषय है, की भी व्याख्या हो गयी, 
(45). उन विषयों की सूक्ष्मता अव्यक्त प्रकृति तक है, 
(46). आगम तथा अनुमान से उदय ज्ञान से यह ज्ञान अलग है क्योंकि इस में विशेष रूप से अर्थ का साक्षात्कार होता है, 
(47). उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उदय होने वाले संस्कार, बाकी सब संस्कारों को काटने वाले होते हैं, 
(48). ऋतम्भरा प्रज्ञा के संस्कारों का भी निरोध हो जाने से, सभी संस्कारों का बीज नाश हो जाने से निर्बीज समाधि होती है। 
साधनपाद :: (1). तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान, यह क्रिया योग है, 
(2). क्रिया योग का अभ्यास समाधि प्राप्ति की भावना से, वित्त में विद्यमान क्लेशों को क्षीण करने के लिए है, 
(3). अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश, यह पाँच क्लेश है, 
(4). अविद्या बाकी चारों, अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेश, इन क्लेशों की उत्पत्ती के लिए क्षेत्र रूप है, 
(5). अनित्यत्व अपवित्र दुख, अनात्म में क्रमशः नित्यत्व, पवित्रता, सुख तथा आत्मभाव की बुद्धि का होना अविद्या है,
(6). देखने वाली शक्ति तथा देखने का माध्यम चित्त शक्ति दोनों की एकात्मता अस्मिता है,
(7). सुख भोगने पर, उसे फिर से भोगने की इच्छा बनी रहती है, वह राग है, 
(8). दुख भोगने पर, उससे बचने की इच्छा, द्वेष है, 
(9). स्वभाव से प्रवाहित होने वाला, सामान्य जीवों की भाँति ही विद्वानों को भी लपेट लेने वाला, अभिनिवेश है, 
(10). (शरीर के बचाव की इच्छा) क्रिया योग द्वारा तनु किए गए पंच क्लेश, शक्ति के प्रति प्रसव क्रम द्वारा त्यागे जाने योग्य हैं, जो सूक्ष्म रूप में हैं,  
(11). (जब चेतना, प्रत्यक् चेतना होकर ऊपर की ओर चढ़ती है, तो कारव को कारण में विलीन करती है, इसे शक्ति का प्रति प्रसव क्रम कहते हैं।) ध्यान द्वारा त्याज्य उन की वृत्तियाँ हैं, 
(12). क्लेश ही मूल हैं उस कर्माशय के जो दिखने वाले अर्थ वर्तमान, तथा न दिखने वाले अर्थ भविष्य मे् होने वाले जन्मों का कारण हैं, 
(13). जब तक जीव को क्लेशों ने पकड़ रखा है, तब तक उसके कारण उदय हुए कर्माशय का फल, जाति आयु तथा भोग होता है, 
(14). वह आयु जाति भोग की फसल सुख दुख रूपी फल वाली होती है, क्योंकि वह पुण्य तथा अपुण्य का कारण है, 
(15). परिणाम दुख, ताप दुख तथा संस्कार दुख बना ही रहता है तथा गुणों की वृत्तियों के परस्पर विरोधी होने के कारण, सुख भी दुख ही है, ऐसा विद्वान जन समझते हैं, 
(16). त्यागने योग्य है वह दुख जो अभी आया नहीं है,  
(17). यह योग का उद्देश्य है। दुख का मूल कारण, द्रष्टा का दृश्य में संयोग, उलझ जाना है, 
(18). प्रकाश सत्व, स्थिति अर्थ तम् तथा क्रियाशील अर्थ रज्, पंचभूत तथा इन्द्रियाँ अंग हैं जिसके, भोग तथा मोक्ष देना जिसका प्रयोजन है, वह दृश्य है, 
(19). योग में दृश्य को दृष्टा का सेवक अथवा दास माना गया है। गुणों के चार परिणाम हैं, विशेष अर्थ पाँच महाभूत आकाश वायु अग्नि जल तथा पृथ्वी, अविशेष अर्थ प्रकृति की सूक्ष्म तन्मात्राएँ शब्द स्पर्ष रूप रस और गंध तथा छठा अहंकार, लिंग अर्थ प्रकृति में बीजरूप, अलिंग अर्थ अप्रकट, 
(20). देखने वाला द्रष्टा अर्थ आत्मा, देखने की शक्ति मात्र है, इसलिए शुद्ध भी है, वृत्तियों के देखने वाला भी है, 
(21). दृश्य का अस्तित्व क्यों है? केवल दृष्टा के लिए, 
(22). जो मुक्ति, सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं, उनके लिए दृश्य समाप्त होकर भी, अन्य साधारण जीवों के लिए तो वैसा ही बना रहता है, 
(23). दृश्य के स्वरूप का कारण क्या है? उसके स्वामि अर्थ दृष्टा की शक्ति, 
(24). दृश्य के संयोग का, उलझने का कारण अविद्या है, 
(25). उस अविद्या के अभाव से, संयोग का भी अभाव हो जाता है, यही हान है जिसे कैवल्य मुक्ति कहा जाता है, 
(26). विवेक अर्थ दृश्य तथा दृष्टा की भिन्नता का निश्चित ज्ञान, हान का उपाय है, 
(27). उस विवेक ख्याति की सात भुमिकिएं हैं, 
(28). अष्टांग योग के अनुष्ठान से अशुद्धि का क्षय तथा विवेक ख्याति पर्यन्त प्रकाश होता है,
(29). यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि, यह योग के आठ अंग हैं, 
(30). यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि, यह योग के आठ अंग हैं, 
(31). दूसरे को मन, वाणी, कर्म से दुख न देना, सत्य बोलना, ब्रह्मचर्य, तथा संचय वृत्ति का त्याग, यह पाँच यम कहे जाते हैं, 
(32). ये यम जाति, देश, काल तथा समय की सीमा से अछूते, सभी अवस्थाओं में पालनीय, महाव्रत हैं, 
(33). शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान, यह नियम हैं। 
नाड़ी :: नाड़ी सूक्ष्म शरीर की वाहिकाएँ हैं, जिनसे होकर प्राणों का प्रवाह होता है। इनका मुख्य कार्य शरीर के विभिन्न अंगों से सन्देश को ग्रहण करके मस्तिष्क में तथा मस्तिष्क से आज्ञा-आदेश को प्राप्त कर अंगों तक पहुंचना है। इनसे प्राणों का संचार होता है। शरीर के ऊर्जा‌-कोष, जिसे प्राणमय कोष कहा जाता है, में 72,000 नाड़ियां होती हैं, जो कि तीन मुख्य नाड़ियों :- बाईं (इड़ा, चन्द्र नाड़ी), दाहिनी (पिंगला, सूर्य नाड़ी) से निकलती हैं। इड़ा का अधिष्ठाता देवता चंद्रमा और पिंगला का सूर्य है। इड़ा-चन्द्र नाड़ी और पिंगला-सूर्य नाड़ी मेरुदंड के दोनों ओर स्थित (sympathetic & para sympathetic system) के तद्नुरूप हैं।  
इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं अथवा इसे पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं। इनके माध्यम से  तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं। यदि इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो मनुष्य में स्त्रियोचित गुणों के प्रभाव होगा। यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।
इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन मनुष्य को प्रभावशाली बनाता है। 
कबहु इडा स्वर चलत है कभी पिंगला माही।
सुष्मण इनके बीच बहत है गुर बिन जाने नाही॥
मनुष्य के रोगी और निरोगी रहने में श्वासों का अत्यधिक महत्व है। इसके लिए इड़ा और पिंगला नाड़ी के साथ-साथ सुषुम्ना को भी सक्रिय करना होता है। दोनों नाड़ियों के सक्रिय रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं सताता। प्राणायाम के माध्यम से मनुष्य सुषुम्ना को सक्रिय कर सकता है। श्वास-प्रश्वास की उचित विधि मनुष्य को स्वस्थ, सुंदर और दीर्घजीवी बनाकर उसे सिद्ध पुरुष बनाकर ईश्वरानुभूति करा सकती है। 
मनुष्य के दोनों नासिका छिद्रों में श्वास-प्रश्वास कभी एक साथ नहीं चलती। यह कभी वह बाएं तो कभी दाएं नासिका छिद्र में स्थानांतरित होती रहती है। प्राय: मनुष्य उतनी गहरी श्वास नहीं लेता और छोड़ता है जितनी कि एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। प्राणायाम एक ऐसी विधि है जिससे मनुष्य ज्यादा गहरी और लंबी श्वास ले और छोड़ सकता है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम की विधि से दोनों नासिका छिद्रों से बारी-बारी से वायु को भरा और छोड़ा जाता है। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आ जाता है, जब चंद्र और सूर्य नाड़ी से समान रूप से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने लगती है। उस अल्पकाल में सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही योग कहा जाता है।
इड़ा का प्रवाह बाई नासिका से होता है तथा इसकी प्रकृति शीतल है। चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने पर वह मस्तिष्क अनावश्यक ऊर्जा का निष्कासन करके शीतलता प्रदान करती है। इस प्रवाह में व्यक्ति को साधारण कार्य करना चाहिए। शांत चित्त से जो सहज कार्य किए किए जा सकते हैं उन्हीं में उस समय व्यक्ति को लगना चाहिए। इड़ा में तमस की प्रबलता होती है। 
पिंगला दाहिनी नासिका से प्रवाहित होती है तथा इसकी प्रकृति गरम है। जब सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होती है तो शरीर को ऊष्मा प्राप्त होती है यानी गर्मी पैदा होती है। सूर्य नाड़ी से धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। दाहिनीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो उस समय पिंगला नाड़ी क्रियाशील रहती है। उस समय व्यक्ति को कठिन कार्य; जैसे व्यायाम, खाना, स्नान और परिश्रम वाले कार्य करना चाहिए। इसी समय सोना भी चाहिए। क्योंकि पिंगला की क्रियाशीलता में भोजन शीघ्र पचता है और गहरी नींद आती है।पिंगला में रजस प्रभावशाली होता है।
प्राणायाम प्राणों का विस्तार करने की विधि है। दीर्घ श्वास-प्रश्वास से प्राणों का विस्तार होता है। एक स्वस्थ मनुष्य को 1 मिनट में 15 बार सांस लेनी चाहिए। इस तरह 1 घंटे में उसके श्वासों की संख्या 900 और 24 घंटे में 21,600 होनी चाहिए। चंद्र और सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास के जरिए कई तरह के रोगों यथा उच्च या निम्न रक्तचाप, हाई ब्लड प्रेशर को चंद्र नाड़ी के संतुलित श्वास-प्रश्वास को प्रवाहित करके सामान्य किया जा सकता है। 
सुषुम्ना नाड़ी ::  सभी नाड़ियों में श्रेष्ठ सुषुम्ना नाड़ी है। मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इड़ा या पिंगला के प्रभाव में मनुष्य बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो वह एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं। मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्‍यता या खाली स्थान है। अगर शून्‍यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्‍य आ जाता है। 
सुषुम्ना के क्रियाशील होते ही मनुष्य आन्तरिक-अंदरूनी संतुलन का आभास करता है। इस अवस्था में मनुष्य रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है। दोनों नासिका से साँस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
इन तीन ना‍ड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्तत्रिवेणी (जहाँ से तीनों अलग-अलग होती हैं) और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणी (जहाँ तीनों आपस में मिल जाती हैं) कहते हैं।
PRANAYAM-YOG प्राणायाम-योग-साधना :: It has nothing to do with religion. Its purely an exercise form, to improve health and vitality. It helps one in becoming slim and lose weight. The health conscious may opt for this in his daily routine.  Those who wish to prolong their lifespan-longevity, should devote 10-15 minutes initially, extending to 1 hour subsequently, since this is hassle free. It provides relaxation and reduces fatigue. 
With the start up, it starts up controlling blood pressure and pulse. It cures asthma, respiratory troubles, bronchitis, lung cancer.
 It cure digestive problems. When the stomach is moved inside towards the spinal cord during exhalation-release of breath, a tough layer/coating developed in due course of time, inside the intestines, breaks away and is rejected by the body, leading to better absorption of digested food.
When the spinal cord/back bone/vertebral column is erect-straight and the diaphragm moves towards the back bone during exhalation,  gases trapped in the stomach are released through the mouth and anus. This process helps in reducing gastric trouble. Continued practice leads to complete cure.
Gas gets accumulated close to the heart leading to chest etching/pain. Release of gas relieves this trouble. Chest pain due to gas resemble the due to heart attack.
Heaviness experienced in the head is reduces by the release gas from the stomach due to Yogabhyas (योगाभ्यास regular practice of Yog).
The stomach is like an inflated balloon the thickness of which goes on increasing with the deposition of fat layers. Each deep breath helps in reducing this thickness.
During inhalation excess of oxygen is absorbed by the haemoglobin in the blood forms haemoglobin, which helps in breaking down of food particles into energy, water and nitrogenous waste. 
Most of the hostile /cancerous cells break down in this process deep breathing-inhalation & exhalation.
It can be compared to artificial breathing-resuscitation. It improves resistivity and is a wonderful cure to incurable diseases. 
There is no boundation, restriction, limit  of time and place. However, one has to  be empty stomach-fresh, like other exercises.
Oxygen is a basic component of air required to break food into energy, carbon dioxide, nitrogenous waste, which are segregated by the kidneys and the lungs. Nitrogen is another component needed by the body to maintain-cop up, with the atmosphere. Unwanted cells-cancer and the like, needed to be eliminated from the circulatory system-which is done by this age/generation old- tried and trusted-most scientific technique/therapy.
PRANAYAM प्राणायाम :: 
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। 
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन-साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.29-30]
Yogis-ascetics mixes the fresh air, Pran, breath with the Apan (stale breath, rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, bacteria, microbes, dead cells) present in the body, called Hawan here. When the Apan (waste, rejected-stale air) is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases (tensions, defects). In fact pap-sins appear in the form of diseases.
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय साँस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका-नथुने-चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
तत्पश्चात योगी-अभ्यास कर्ता प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राणवायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है। 
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्र नाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों को नष्ट कर देते हैं (यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है)। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त, निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्वज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धनकारी है-जिसे मुक्ति-भक्ति-मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है। 
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4, 16 or 8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy (Hawan, burning of sins-diseases). This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful (quite, unagitated, restful, blissful), leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice is a form of Yagy leading to freedom from sins (diseases, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, impurity) helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer (Yogi, ascetic). Those who undertake big celebrations (rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan) for attaining the heaven (empire, high posts, name, fame) etc. are not the ones, who understand the gist of the religion (Faith, Dharm). The detached (unbonded, free from ties), avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
Those who correlate Yog-Pranayam with Hinduism are wrong-ignorant. 
Yogis-ascetics mixes the fresh air-Pran-breath with the Apan (rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak-intake-inhaling. This is combustion-burning of the sins i.e., germs-virus-bacteria present in the body, called Hawan here. When the Apan-waste-rejected air is mixed with Pran-fresh breath-air, it is Rechak (रेचक exhaling). The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases-tensions-defects. In fact pap-sins appear in the form of diseases.
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4-16-8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy-Hawan-burning of sins-diseases. This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful-quite-unagitated-restful-blissful, leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice  is a form of Yagy leading to freedom from sins-evil ideas-thoughts-wretchedness-vices, helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer-Yogi-ascetic. Those who undertake big celebrations-rituals-Yagy-Agnihotr-Hawan for attaining the heaven-empire-high posts-name-fame etc. are not the ones, who understand the gist of the religion-Dharm. The detached-unbonded-free from ties, avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
ANULOM-VILOM (अनुलोम-विलोम) :: It involves three  stages (1). Inhaling-suction (2). Holding and (3). Exhaling (creation of vacuum) air from the lungs. One may opt for a posture, in which the back is kept vertically straight and the legs are crossed. In the morning sit/perform facing east-Sun the source of energy on the earth and in the evening the north-the magnetic alignment for keeping-normalization of blood circulation, since it constitutes of haemoglobin a composition of iron.
Inhaling: Considering thumb as the  1st finger, Jupiter finger as the 2nd finger, Saturn finger as the 3rd finger, Sun finger as the 4th  finger and the Mercury finger as the  5th ,finger; use the  2nd and 3rd (-or 3rd and  4th finger) fingers to block the left nostril. The thumb will stand erect, while  4th and 5th  fingers will bend inside, into the fist. Now, hold the left nostril and take long breath to fill the lungs with air slowly, for a few seconds. The diaphragm, will be pressed inwards and the chest will bulge a bit in an outward direction. One may concentrate over God-Almighty, a deity of your choice, or even the devil, as per your liking. However, there is no compulsion.
As soon air enters lungs it allows the oxygen to get mixed with haemoglobin to form oxy-haemoglobin and reach each and every cell of the body, leading to formation of new cells and decomposition of the old-unwanted-undesirable cells, keeping one young-fit and full of energy.
Holding the breath for a few seconds, will help in the exchange of gases, in the bronchial, inside the lungs. Oxygen will be mixed with the blood and carbon dioxide will be liberated.
Exhaling will be done by chocking the right nostril with the thumb. Carbon dioxide is exhaled, in addition to other gases, simultaneously.
2nd inhaling is done with the right nostril still choked  holding is done by reverting the two fingers to the left nostril and the air is exhaled again.
All these postures requires the practitioner to sit with straight back. chest bulges slightly and the stomach is pulled in side. Immediate gains are in the form of relief from the gas filled-stored inside the stomach and burning sensation. It prevent chest congestion and digestive disorders. learning with straight back helps in sharpening of memory. 
KAPAL BHATI कपाल भाती :: Start with deep breathing-inhalation and exhalation of air in the lungs, while sitting in comfortable posture keeping the back straight,twice or thrice. Its better if one  does this in open air.
Now suck the air into the lungs without jerking the body and reject it there after one second. repeat it for 5-10 minutes initially and the rise time up to 15 minutes.
Have faith in you (-and the God, perhaps) and proceed. Yog (literally plus,addition + ) means associating with the God through physical means.
Have a good day. Best of luck.
Caution: All these exercises are performed with empty stomach.
Take juice or milk after drying sweat and bathing, low calorie diet is advised.
One may keep his eyes closed. He may focus over some religious thought-idea. Try to think of good-virtuous-pious-righteous deeds-plans, at least till you are busy with this simple exercise. Results are wonderful and observed within a week. This is a wonderful healer.
Yog boosts confidence, internal strength, vitality, vigor and brings peace-tranquility.
Have faith in you (-and the God, perhaps) and proceed. Yog (literally plus,addition + ) means associating with the God through physical means.
Have a good day. Best of luck.
You will experience amazing results like weight loss, cure of respiratory ailments, gas trouble, good sleep, loss of tension, improvement of vision etc.
VAJR ASAN :: A comfortable cushion/mat has to be used for performing this Asan, exercise, Yog. 
Bend over the knees, by placing the legs over the heels. The nails, fingers should touch the cushion. Hips should rest over the heels, continuously. Take an erect posture and keep the back bone straight/vertical. Keep the head up. 
Take a long breath/suck air into the lungs, inflate the lungs with fresh air. 
Hold the two hands in locking position behind the back, while moving the two elbows close to each other. Raise the chest by pushing the hands behind the back slowly. 
Now bend slowly, releasing the air through the nostrils slowly, till the forehead touches the mat/cushion. Move the elbows towards the stomach gradually. Let the stomach touch the spinal cord. It has to be pulled inside as much as possible. 
Now start raising head gradually and sucking the air into the lungs again. 
Acquire the vertical posture again. Initially perform this 3-5 time and then go on increasing the frequency, simultaneously.
This Asan provides complete cure for digestive troubles, gas, constipation, indigestion. It repair muscles of thighs and reduces pain in knees-joints.
भ्रामरी प्राणायाम BHRAMARI PRANAYAM ::  Close the two ears with thumbs, place the second finger over the head , third and fourth fingers by the side of nose and the fifth finger will occupy the position, just below the nostrils.  Now suck air-deep breathing,  hold it for a moment and  then release along with the sound of Om.  
अपने शरीर के भीतर रहने वाली वायु को प्राण कहते हैं और उसे रोकने को आयाम अर्थात प्राणवायु को रोकना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम करने के लिये पद्मासन, पालती या एक पैर दूसरे पर रख कर आसन लगाना चाहिये। इस मुद्रा में परमात्मा का चिंतन करना चाहिये। प्राणायाम करने  के लिये समतल भूमि का चुनाव करें और स्थिर आसन बिछावें जो कि  ज्यादा ऊँचा-नीचा न हो। पहले मूंज-कुशासन, फिर मृगचर्म और इनके ऊपर कपड़ा बिछावें। 
मृगचर्म उपलब्ध नहीं होगी, इसलिये पक्के फर्श-तख़्त पर रुई का बढ़िया गद्दा, कालीन, दरी, कम्बल या चटाई बिछा लें। 
मन और इन्द्रियों की चेष्टाओं को काबू कर चित्त को एकाग्र करें तथा अंत:करण की शुद्धि के लिए योगाभ्यास शुरू करें। शरीर, मस्तक, और गले को अविचल-बगैर हिलाए डुलाए, एक सीध में रखते हुए स्थिर बैठें। केवल नासिका के अग्र भाग को देखें और कमर को सीधा रखें। प्रात: काल  में मुख पूर्व व शाम को उत्तर दिशा में रखें तथा अन्य दिशाओं में द्रष्टि पात न करें। दोनों एड़ियों से अंड कोष और लिंग को बचाते हुए, दोनों जांघों के ऊपर भुजाओं को तिरछी करके रखें तथा बायें हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ के पृष्ठभाग को स्थापित करें और मुंह को कुछ ऊँचा करके सामने की ओर स्थिर करें। 
रेचन :: दायें  नथुने से वायु बाहर निकलने के लिये दूसरी व तीसरी ऊँगली को माथे पर रखें तथा चौथी व पांचवी ऊँगली से  बांया नथुना बंद करें धीरे-धीरे वायु बाहर निकालें, अंगूठे को स्वतंत्र  रखें।
पूरक :: अब पूर्वावस्था में धीरे-धीरे साँस भीतर खींचें। पर्याप्त वायु भरकर स्थिर बैठें । 
कुम्भक :: इस स्थिति में वायु को रोकना है, वायु  न अन्दर जाये न बाहर आए। शुरू में 24 सेकंड, कुछ दिनों के अभ्यास के बाद 48 सेकंड और फिर 72 सेकंड।
इन तीनों प्रक्रियाओं को धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते हुए करना चाहिये। एक दिन में आधे घंटे का अभ्यास पर्याप्त है। इस क्रिया के दौरान पसीना आना अच्छा है, कम्कपी आना उत्तम तथा अभिघात लगना सर्वोत्तम है। ध्यान के साथ प्राणायाम अति उत्तम है। ज्ञान व वैराग्य से युक्त प्राणायाम, इन्द्रियों पर विजय प्रदान करता है। शास्त्र तपस्या व प्राणायाम को बराबर मानता है।                                     
भ्रामरी प्राणायाम :: अंगूठों से दोनों कानों को बंद करें, दूसरी अंगुली माथे पे रखें, तीसरी और चौथी अंगुली को नाक के बगल में व पांचवी अंगुली को नासिका द्वार के निचे स्थिर करें।अब गहरी साँस खिंच कर उसे ॐ शब्द के उच्चारण के साथ बाहर निकालें। 
अपने शरीर के भीतर रहने वाली वायु को प्राण कहते हैं और उसे रोकने को आयाम अर्थात प्राणवायु को रोकना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम करने के लिये पद्मासन, पालती या एक पैर दूसरे पर रख कर आसन लगाना चाहिये। इस मुद्रा में परमात्मा का चिंतन करना चाहिये। प्राणायाम करने  के लिये समतल भूमि का चुनाव करें और स्थिर आसन बिछावें जो कि  ज्यादा ऊँचा-नीचा न हो। पहले मूंज-कुशासन, फिर मृगचर्म और इनके ऊपर कपड़ा बिछावें। 
मृगचर्म उपलब्ध नहीं होगी, इसलिये पक्के फर्श-तख़्त पर रुई का बढ़िया गद्दा, कालीन, दरी, कम्बल या चटाई बिछा लें। 
मन और इन्द्रियों की चेष्टाओं को काबू कर चित्त को एकाग्र करें तथा अंत:करण की शुद्धि के लिए योगाभ्यास शुरू करें। शरीर, मस्तक, और गले को अविचल-बगैर हिलाए डुलाए, एक सीध में रखते हुए स्थिर बैठें। केवल नासिका के अग्र भाग को देखें और कमर को सीधा रखें। प्रात: काल  में मुख पूर्व व शाम को उत्तर दिशा में रखें तथा अन्य दिशाओं में द्रष्टि पात न करें। दोनों एड़ियों से अंड कोष और लिंग को बचाते हुए, दोनों जांघों के ऊपर भुजाओं को तिरछी करके रखें तथा बायें हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ के पृष्ठभाग को स्थापित करें और मुंह को कुछ ऊँचा करके सामने की ओर स्थिर करें। 
YOG THERAPY-PREVENTION FROM DRUGS (PREVENTION IS BETTER THAN CURE) :: Drug addiction claims thousands of lives annually. Mostly people try drugs out of curiosity and become addicted to it. It provides unification of body, mind and soul.  Yog can help prevent drug addiction and break  the vicious cycle. Rehabilitation centers are incorporating these familiar Yogic exercises to prevent drug addictions. One may prefer Yog to remain healthy. Numerous people in India and abroad use Yog to abstain from drugs, narcotics, wine-women." It’s really enjoying-pleasant, to do it every day for 20-30 minutes. It involves-engage various body systems, resulting in perfect health.
Rehabilitation means treatment for drug addiction, which involves several steps, involving detoxification leading to reduced dependence over drugs.One may experience withdrawal symptoms like anxiety and increased stress levels.Yogic practices-techniques are  utilized for  clarity and stability. Experts are generally involved in the various phases of this process.
Yog helps one in staying calm-quite ("Peace-Solace-Tranquillity") and induces clarity of vision and thoughts, helping in  prevention from drug addiction. The newly induced clarity, allows one to see clearly and stop responding, in an impulsive manner. Yog also induces discipline, willpower and confidence. 
Boasting-improving health: Yog is all about relaxation from stress and anxiety. 
Increased-enhanced concentration power: One passing through recovery phase may be worried and stressed. One should have confidence in it for speedy recovery.
Cultivates awareness: One of the most important functions of Yog is to increase awareness. A person can calm himself whenever, he is facing anxiety-pain-stress.
Enhanced mental strength: Its clinically proven that different breathing modes-inhaling-ex hailing-holding, help in improving mental stability. Deep breathing increases blood circulation which smoothen brain functionality. Improved supply of oxygen to whole body and the brain shows miraculous impact-results.
Common Yogic techniques-practices-excises are:
Hath Yog describes postures, breathing methods and medical treatment. Detoxification of harmful substances, along with body strength development which can be easily attained through various physical postures. The clarity of mind-vision is harnessed through various breathing techniques. Clarity of mind can also be achieved through medical therapies and use of many medications.
SHAVASAN शवासन :: Its final relaxation posture which constitutes  the concluding phase of every Yogic exercise. All the tension and stress are released in this phase as you relax consciously.
Yog Nidra: The drug addicts are usually faced with higher levels of stress and anxiety. This deep meditation technique often referred to as yogic sleep is practiced at least once a week. This exercise basically helps to release all the tension and anxiety, helping to minimize body imbalances and achieve clarity in thought.
SURY NAMASKAR-SALUTING THE SUN सूर्य नमस्कार :: This exercise provides good health, longevity and vigor-youthfulness. It helps one in attaining a beautifully shaped perfect body. Perform it regularly, after 15-20 minutes of the Sun rise. Don't bother if its cloudy or raining. In case it’s raining, move to a shelter-covered area.
(1). Stand erect, facing the Sun when it’s shining.
(2). Raise the hands over the head, touching the ears, touching each other, covering each other completely. Now start bending in the backward direction, making a smooth curve-bend, for a moment. Come back to standing posture again, slowly-gradually.
(3). Start moving the hands in the front direction slowly, bending the back bone completely, the fore head touching the knees and the palms should touch the floor. Maintain this position for a while. Balance the whole body, over the palms.
(4). Move one leg in the reverse-backward direction, so that the toe touches the ground-floor, slowly and then move the other leg, gradually by the side of it. Start raising the head gradually-slowly in the upward direction. Maintain the posture for a few seconds.
(5). Raise the hips gradually, bring the mouth parallel to the floor and maintain balance, for a while.
(6). Bring the chest close to the floor, maintaining balance of the body over the palms and the toes.
(7). Start raising the head in an upward direction gradually, maintaining balance over the toes and resting the head straight in the forward to upward direction, gradually-slowly. The knees should not touch the floor.
(8). Put the feet comfortably over the floor; raise the hips into the middle of the body, putting pressure of the body over the palms. Head will take its position between the arms.
(9). Bring one leg forward, raise the head, maintain balance over the palms and one toe, while stretching the body.
(10). Now bring the other legs by the side of the first leg, making U-shape of the body.
(11). Start raising the hands slowly over the head gradually and acquire the standing posture again. In this state, keep on banding the head in the backward direction along with the bending of vertebral column.
(12). Here the deep breathing is experienced. Calm down the breath and revert back to the initial position of erect body standing posture, with folded hands, facing the Sun, again. Repeat the exercise 15-20 times regularly, without fatigue. Inhale, capture and exhale the air regularly. This exercise need fresh air and open space. Initially one may seek the guidance of an expert.
IMPORTANCE: This Asan removes the foul gas filled in the stomach, moves the blood to the head, refreshing brain cells.
SURY SADHNA सूर्य साधना (सूर्य एवं चन्द्र चक्र, आज्ञा चक्र, ह्रदय चक्र एवं मूलाधार चक्र) ::
(1). ध्यान साधक द्वारा की गई दिव्य दर्शन हेतु प्रक्रिया है। इसके साकार तथा निराकार दोनों पक्ष हैं। गायत्री माता के ध्यान-जप को साकार एवं सविता (सूर्य) देव में अरुणोदय स्वरूप के ध्यान को निराकार ध्यान कहते हैं। इनमें बाहर से भीतर के प्रवेश के लिए आकर्षण किया जाता है।
(2). सविता का ध्यान :- इसमें नेत्र बन्द करके प्रातः कालीन स्वर्णिम सूर्य का ध्यान किया जाता है। उसकी सुनहरी किरणों का साधक के कण-कण में प्रवेश की कल्पना की जाती है। जिससे उसके शरीर में निष्ठा, प्रज्ञा, श्रद्धा का उद्भव हो और उसके आलोक से, ऊर्जा से शरीर का कण-कण अनुप्रमाणित हो उठे। अपने स्वरूप की प्रकाश पुंज, अग्निपिंण्ड जैसी अनुभूति होने लगे। सविता देव के इस अनुदान से साधक की पवित्रता और प्रखरता में अभिवृद्धि होने लगती है।
(3). सूर्य योग :- भगवान सूर्य की अनन्त शक्तियां उपयोग करने के लिए साधक को अपने अन्दर क्षमता उत्पन्न करनी पड़ती है। 
(4). सूर्योपासना के साधारण उपक्रम :- रविवार का व्रत रखना, निराहार, फलाहार, एक समय का, एक अन्न का एक दाल, शाक के साथ स्वाद रहित-बिना नमक अथवा मीठे के सात्विक भोजन अर्थात् अर्द्ध उपवास रखना। उपवास के दिन या नित्य-प्रति सूर्य को अर्घ्य देना-जल चढ़ाना, सूर्य का ध्यान करना, उसकी मानसिक परिक्रमा करना, नमस्कार करना, ऊँ सूर्याय नमः मन्त्र का जप करना – यह सभी सूर्योपासना के साधारण उपक्रम कहलाते हैं।
(5). सूर्य स्नान, धूप में रखे गरम पानी से नहाना, वस्त्रों को धूप में सुखाना, घर में धूप आने देना सभी स्वास्थ्यकर हैं।
(6). सूर्य चक्र के दो स्थान :- ह्रदय (प्रधान) तथा आमाशय (शाखा)। किन्हीं वांछित शक्तियों को विकसित करने, उत्तेजित करने के लिए ह्रदय स्थित प्रधान सूर्य चक्र का ध्यान करना चाहिए। इसे ही ‘ह्रदय चक्र’ भी कहते हैं, जो कि वक्षस्थल की दोनों पसलियों के बीच स्थित होता है। यह श्वेत वर्ण का, तेजवान प्रकाश स्वरूप, गोल आकार एवं उष्ण प्रकृति का माना जाता है। जिस भावना को उत्तेजित करना-बढ़ाना हो उसे मन में धारण करते हुए सूर्य चक्र का ध्यान किया जाता है।
(7). आमाशय स्थित (शाखा) सूर्य चक्र को चन्द्र चक्र भी कहते हैं। इसका वर्ण पीला, चन्द्रमा जैसा प्रकाश, आकार दीपक की लौ जैसा एवं प्रकृति ‘शीतल’ होती है। किन्हीं अनावश्यक वृत्तियों को शान्त या समाप्त करने के लिए ‘चन्द्र चक्र’ का ध्यान किया जाता है। सूर्य योग अद्भुत योग है, जो अभ्यास, प्रयत्न और धैर्य के साथ अविचल साधना करने से सिद्ध होता है।
(8). भीतर से बाहर उभरने वाले-अन्तर्मुखी ध्यानों में आज्ञा चक्र, ह्रदय चक्र और मूलाधार चक्र के जागरण को प्रमुख माना जाता है। त्रिपदा गायत्री के इन तीन केन्द्रों को ज्योतिर्मय बनाने से काम चल जाता है।
(9). आज्ञा चक्र मस्तक पर दोनों भौहों के मध्य स्थान पर स्थित होता है। इसे तीसरा नेत्र भी कहते हैं। इस नेत्र में जब ज्योति का अवतरण होता है, तो अदृश्य जगत में प्रवेश सामर्थ्य मिलती है। मन, बुद्धि और चित्त उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ते हैं। यह अतीन्द्रिय क्षमताओं का केन्द्र भी समझा जाता है। नेत्र बन्द करके सुखासन मुद्रा में बैठ कर (एक निश्चित समय-स्थान पर) एकाग्रता पूर्वक नियमित अभ्यास साधना से इस चक्र को जागृत किया जा सकता है।
(10). ह्रदय चक्र को सूर्य चक्र या ब्रह्म चक्र भी कहते हैं, जो दोनों पसलियों के बीच स्थित होता है। ईश्वर की प्रकाश ज्योति यहीं प्रकट होती है। जिस अंगुष्ठ मात्र ब्रह्म ज्योति का स्वरूप वेदों, पुराणों में बताया गया है-उसका निवास इसी केन्द्र में होता है। यह अन्तःकरण-अन्तरात्मा का केन्द्र है। इसके जागरण से आध्यात्मिक क्षेत्र की “ऋद्धियों” को पाया जाता है।
(11). मूलाधार चक्र :- इसे नाभि चक्र, प्राण चक्र, प्रसुप्त सर्प कुण्डलिनी केन्द्र भी कहते हैं। यद्यपि इसका स्थान मल-मूत्र छिद्रों के मध्य केन्द्र में माना जाता है। लेकिन सुषुम्ना नाडी का अन्तिम सिरा उस स्थान से काफी ऊँचा पड़ता है और वह लगभग नाभि की सीध में जा पहुँचता है। मूलाधार का ध्यान करने में जननेन्द्रिय का बार-बार स्मरण आने से ऊर्ध्वगमन में अवरोध-रुकावट उत्पन्न होती है-इसलिए वहां तक पहुँचने के लिए नाभि चक्र का ध्यान किया जाता है। मूलाधार चक्र तथा नाभि चक्र को एक ही मान लिया गया है।
(12). प्राण रूपी जीवन्त ऊर्जा-प्रतिभा का यही केन्द्र है। साहस, पराक्रम, उल्लास, उमंग जैसी सचेतन धाराऐं इसी केन्द्र से उभरती हैं। बलिष्ठता, समर्थता, प्रखरता हेतु इसी चक्र को सक्रिय-प्रकाशित करने का यत्न करना चाहिए। दाम्पत्य जीवन और सु-प्रजनन की सफलता, रस से इस केन्द्र का सीधा सम्बन्ध है।
APPLICATION-UTILITY FOR THE HUMAN BODY :: One should get up in the morning before Sun rise, which is possible when he goes to bed around 10 PM. It means that one is paying obeisance or prostrations (Salutation-respect-Namaskar) to the Sun (Sury). The Yogic exercise are always performed empty stomach.
(1). This exercise is composed of twelve bodily postures and does not strain or cause injuries to the body. Normally it’s performed in the morning, to relieve stiffness and revitalizes the body along with refreshing the mind. 
(2). It provides sufficient activity for the muscles, joints, ligaments and the skeletal system in addition to improving posture and balance. The internal vital organs become more functional.
(3).  It increase blood flow through the digestive tract and stimulate the intestinal action, known as peristalsis making the digestion more efficient, leading to effective elimination of stools-excreta. Bending in the forward direction will increase the space in the abdomen and facilitate the release of entrapped gases. These postures warm up the front of the body and cool the body back.
(4). It helps in curing insomnia and related disorders, by calming the brain, thus helping in sound sleep.
(5).  It regulates irregular menstrual cycles, ensures the easy childbirth and cures hormonal imbalance. 
(6). It boosts blood circulation, prevents greying of hair, hair fall, dandruff and improves hair growth.
(7). It’s extremely useful in weight loss, giving proper shape to the tummy-abdominal muscles. Thyroid gland which controls mood and body weight may be reactivated.
(8). It reduces-prevents aging and on set of wrinkles along with reduction in blemishes and acne.
(9). It boosts endurance power, provides vitality and strength and reduces restlessness and anxiety.
(10).  Daily practice of Surya Namaskar makes body flexible. It improves flexibility in spine and the limbs.
(11). It influences the pineal gland and hypothalamus to prevent pineal degeneration and calcification.
The body absorbs sun light which stimulates the production of vitamin D in the body. Knee joints too absorb vitamin D to produce RBC.
One suffering from slip-disk, arthritis, heart attack etc. including pregnant women should avoid this exercise.
GENERAL HEALTH BENEFITS OF YOG :: Yog is an ancient Indian practice with its origin stretching back to millions of years. It is designed to help achieve a more positive outlook on life and a focused, permanent sense of serenity, tranquility, solace & peace. Its considered to be the best exercise for ladies and everyone without harmful side effects.
It encourages relaxation and  flexibility of the human body, mind and soul. Body pain, back ache, strain are improved with slow and gradual regular practice. 
Age, physical capabilities, current weight or fitness goals are immaterial if one does regular practice of Yog-Yogabhyas. Psychological problems are over come, nervous calmness is restored. It calms the nervous system and provides rest. Stress-strain, anxiety-depression are cured permanently. One who perform Yog is blessed with humour, good mood, patience.
With an increasing percentage of the population suffering from varying degrees of Insomnia, snorting, coughing during sleep, sperm discharge are cured permanently. 
It helps in controlling craving for food, indigestion and controls weight. Craving generally strikes when the body is tense. With a relaxing session of Yog one makes it easier to consider whether or not he really need that extra sweets, food intake, burgers etc. Intake of oxygen during deep breathing-intake-inhaling air provides for breaking of sugars, glucose, fructose etc. easily. Which in turn do not allow weight to grow. It helps women to shed non essential fat by improving their figure and making them more attractive and sexy.
Right posture during sitting-studying is essential. Yog is performed with erect back bone. It leads to awakening of brain, sharpness of intelligence, increased concentration and memory and quickness of actions. It helps in maintaining balance of mind. Laziness is overcome.  
It boosts sexuality-both masculine and feminine, self control, makes more and more assertive, increases strength-vigour and vitality & helps in controlling quick discharge. It helps build lean muscle, tone and define existing muscle. One will surely have a sexy and gorgeous silhouette.
It  provides help to the people suffering from a myriad of various ailments. It provides relief from Alzheimer’s disease. Arthritic, rheumatoid arthritis, long-term joint, muscle or other pain are curable with regular practice of Yog.
High-low blood pressure, erratic nerve, bad cholesterol, heart-cardice problems are overcome quite easily.
*प्रमाण ::
प्रत्यक्ष :: इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण वा प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'।
प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं :-
(1). इंद्रिय,
(2). इंद्रिय का संबंध और
(3). इंद्रिय संबंध से उत्पन्न ज्ञान। 
पहली अवस्था में जब केवल इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल सामने आने से होता है। जैसे, वह सामने कोई चीज दिखाई देती है। इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं। दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज सामने है, वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ। इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है। जब इंद्रिय के संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यह प्रत्यक्ष ज्ञान 6 प्रकार का होता है :-
(1). चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह पुस्तक नई है।
(2). श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा
(3). स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है।
(4). रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है।
(5). घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। और
(6). मानस प्रत्यक्ष जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव।
अनुमान :: प्रत्यक्ष को लेकर जो ज्ञान (तथा ज्ञान के कारण) को अनुमान कहते हैं। जैसे, हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी को नैयायिक 'व्याप्ति ज्ञान' कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढी़ है। हमने कहीं धूआँ देखा जो आग कि जिस धूएँ के साथ सदा हमने आग देखी है वह यहाँ हैं। इसके अनंतर हमें यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है'। अपने समझने के लिये तो उपयुक्त तीन खंड काफी है पर नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना, इससे वे अनुमान के पाँच खंड करते हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं।
(1). प्रतिरा :- साध्य का निर्देश करनेवाला अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करना है उसका वर्णन करनेवाला वाक्य, जैसे, यहाँ पर आग है।
(2). हेतु :- जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है, जैसे, क्योंकि यहाँ धुआँ है।
(3). उदाहरण :- सिद्ध की जानेवाली वस्तु बतलाए हुए चिह्न के साथ जहाँ देखी गई है उसा बतानेवाला वाक्य। जैसे, जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, जैसे 'रसोईघर में'।
(4). उपनय :- जो वाक्य बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे, जैसे, 'यहाँ पर धूआँ है'।
(5). निगमन :- सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गई यह कथन।
अतः अनुमान का पूरा रूप यों हुआ :- यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा)। क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु)। जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर में' (उदारहण)। यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन)। साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं।
नवीन नैयायिक इन पाँचों अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते। वे प्रमाण के लिये प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत इन्हीं तीनों को काफी समझते हैं। मीमांसक और वेदांती भी इन्हीं तीनों को मानते हैं। बौद्ध नैयायिक दो ही मानते हैं, प्रतिज्ञा और हेतु। 'दुष्ट हेतु' को हेत्वाभास कहते हैं पर इसका प्रमाण गौतम ने प्रमाण के अंतर्गत न कर इसे अलग पदार्थ (विषय) मानकर किया है। इसी प्रकार छल, जाति, निग्रहस्थान इत्यादि भी वास्तव में हेतुदोष ही कहे जा सकते हैं। केवल हेतु का अच्छी तरह विचार करने से अनुमान के सब दोष पकडे़ जा सकते हैं और यह मालूम हो सकता है कि अनुमान ठीक है या नहीं।
उपमान :: गौतम का तीसरा प्रमाण 'उपमान' है। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। जैसे, नीलगाय गाय के सदृश होती है। किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह नीलगाय है'। इससे प्रतीत हुआ कि किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है। वैशेषिक और बौद्ध नैयायिक उपमान को अलग प्रमाण नहीं मानते, प्रत्यक्ष और शब्द प्रमाण के ही अंतर्गत मानते हैं। वे कहते हैं कि 'गो के सदृश गवय होता है' यह शब्द या आगम ज्ञान है क्योंकि यह आप्त या विश्वासपात्र मनुष्य कै कहे हुए शब्द द्वारा हुआ फिर इसके उपरांत यह ज्ञान क्रि 'यह जंतु जो हम देखते हैं गो के सदृश है' यह प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। इसका उत्तर नैयायिक यह देते हैं कि यहाँ तक का ज्ञान तो शब्द और प्रत्यक्ष ही हुआ पर इसके अनंतर जो यह ज्ञान होता है कि 'इसी जंतु का नाम गवय है' वह न प्रत्यक्ष है, न अनुमान, न शब्द, वह उपमान ही है। उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार अनुमान कै अंतर्गत किया है। वे कहते हैं कि 'इस जंतु का नाम गवय हैं', 'क्योंकि यह गो के सदृश है' जो जो जंतु गो के सदृश होते है उनका नाम गवय होता है। पर इसका उत्तर यह है कि 'जो जो जंतु गो के सदृश्य होते हैं वे गवय हैं' यह बात मन में नहीं आती, मन में केवल इतना ही आता हैं कि 'मैंने अच्छे आदमी के मुँह से सुना है कि गवय गाय के सदृश होता है ?
शब्द :: सूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य शब्दप्रमाण है। भाष्यकार ने आप्तपुरुष का लक्षण यह बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा सुना (अनुभव किया) हो ठीक ठीक वैसा ही कहनेवाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ। गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किए हैं :- दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ। प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बतानेवाला दृष्टार्थ और केवल अनुमान से जानी जानेवाली बातों (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्न इत्यादि) को बतानेवाला अदृष्टार्थ कहलाता है। इसपर भाष्य करते हुए वात्स्यान ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक और ऋषि :- वाक्य (वैदिक) का विभाग हो जाता है अर्थात् अदृष्टार्थ मे केवल वेदवाक्य ही प्रमाण कोटि में माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है इससे उसके वाक्य सदा सत्य और विश्वसनीय हैं पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं। जब उनका कहनेवाला प्रामाणिक माना जाय। सूत्रों में वेद के प्रामाण्य के विषय में कई शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया गया है। मीमांसक ईश्वर को नहीं मानते पर वे भी वेद को अपौरुषेय और नित्य मानते हैं। नित्य तो मीमांसक शब्द मात्र को मानते हैं और शब्द और अर्थ का नित्य संबंध बतलाते हैं। पर नैयायिक शब्द का अर्थ के साथ कोई नित्य संबंध नहीं मानते। वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतभेद है। मीमांसकों के मत से नियोग या प्रेरणा ही वाक्यार्थ है अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात सब वाक्यों से कही जाती है चाहे साफ साफ चाहे ऐसे अर्थवाले दूसरे वाक्यों से संबंध द्वारा। पर नैयायिकों के मत से कई पदों के संबंध से निकलनेवाला अर्थ ही वाक्यार्थ है। परंतु वाक्य में जो पद होते हैं वाक्यार्थ के मूल कारण वे ही हैं। न्यायमंजरी में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गई है, प्रथम अभिधात्री शक्ति जिससे एक एक पद अपने अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य शक्ति जिससे कई पदों के संबंध का अर्थ सूचित होता है। शक्ति के अतिरिक्त लक्षणा भी नैयायिकों ने मानी है। आलंकारिकों ने तीसरी वृत्ति व्यंजना भी मानी है पर नैयायिक उसे पृथक् वृत्ति नहीं मानते। सूत्र के अनुसार जिन कई अक्षरों के अंत में विभक्ति हो वे ही पद हैं और विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं :- नाम विभक्ति और आख्यात विभक्ति। इस प्रकार नैयायिक नाम और आख्यात दो ही प्रकार के पद मानते हैं। अव्यय पद को भाष्यकार ने नाम के ही अंतर्गत सिद्ध किया है। न्याय में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गए हैं। मीमांसक और वेदांती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, संभव और अभाव ये चार और प्रमाण कहते हैं। नैयायिक इन चारों को अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं।
अर्थापत्ति :: दृष्ट या श्रुत विषय की उपपत्ति जिस अर्थ के बिना न हो, उस अर्थ के ज्ञान को 'अर्थापत्ति' कहते हैं। जैसे--देवदत्त दिन में कुछ भी नहीं खाता, फिर भी खूब मोटा है'। इस वाक्य में 'न खाना तथापि मोटा होना' इन दोनों कथनों में समन्वय की उपपत्ति नहीं होती। अत: उपपत्ति के लिए 'रात्रि में भोजन करता है' यह कल्पना की जाती है। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि 'यद्यपि दिन में वह नहीं खाता, परन्तु रात्रि में खाता है'। अतएव देवदत्त मोटा है। यहाँ पर प्रथम वाक्य में उपपत्ति लाने के लिए, 'रात्रि में खाता है' यह कल्पना स्वयं की जाती है। इसी को 'अर्थापत्ति' कहते हैं।
अर्थापत्ति के भेद :- यह दो प्रकार की है, 'दृष्टार्थापत्ति', जैसे :- ऊपर के उदाहरण में, तथा 'श्रुतार्थापत्ति' । जैसे- सुनने में आता है कि देवदत्त जो जीवित है, घर में नहीं हैं। इस से 'देवदत्त कहीं और स्थान में है' इसकी कल्पना करना 'अर्थापत्ति' है। अन्यथा 'जीवित होकर घर में नहीं रहना' इन दोनों बातों में समन्वय नहीं हो सकता।
प्रभाकर का मत है कि किसी भी प्रमाण से ज्ञात विषय की उपपत्ति के लिए 'अर्थापत्ति' हो सकती है, केवल दृष्ट और श्रुत ही से नहीं। यह बात साधारण रूप से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता, तस्मात् 'अर्थापत्ति' का नाम का एक भिन्न 'प्रमाण' मीमांसक मानते हैं।
अनुपलब्धि या अभाव :: प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा जब किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता, तब 'वह वस्तु नहीं है' इस प्रकार उस वस्तु के अभाव का ज्ञान हमें होता है। इस अभाव का ज्ञान इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि के द्वारा तो हो नहीं सकता, क्योंकि इन्द्रिय सन्निकर्ष भाव पदार्थों के साथ होता है। अतएव अनुपलब्धि या अभाव नाम के एक ऐसे स्वतन्त्र प्रमाण को मीमांसक मानते हैं, जिसके द्वारा किसी वस्तु के 'अभाव' का ज्ञान हो। यह तो मीमांसकों का एक साधारण मत है। किन्तु प्रभाकर इसे नहीं स्वीकार करते। उनका कथन है कि जितने प्रमाण है, सब के अपने-अपने स्वतन्त्र प्रमेय हैं, किन्तु अभाव प्रमाण का कोई भी अपना विषय नहीं है। जैसे :- इस भूमि पर घट नहीं है, इस ज्ञान में यदि वहाँ घट होता, तो भूतल के समान उसका भी ज्ञान होता, किन्तु ऐसा नहीं है। फिर हम देखते हैं केवल भूमि, जिस का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से होता है। वस्तुत: अभाव का अपना स्वरूप तो कुछ भी नही है। वह तो जहाँ रहता है, उसी आधार के साथ कहा जाता है। इसलिए यथार्थ में भूतल के ज्ञान के अतिरिक्त घट नहीं है, इस प्रकार का ज्ञान होता ही नहीं। अतएव अभाव अधिकरण स्वरूप ही है। इस का पृथक् अस्तित्व नहीं है।
सम्भव :: कुमारिल ने 'सम्भव' की चर्चा की है। जैसे :- एक सेर दूध में आधा सेर दूध तो अवश्य है अर्थात् एक सेर होने में सन्देह हो सकता है, किन्तु उसके आधा सेर होने में तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता। इसे ही सम्भव का नाम का प्रमाण पौराणिकों ने माना है। कुमारिल ने इस अनुमान के अन्तर्गत माना है।
ऐतिह्य :: एतिह्य का भी उल्लेख कुमारिल ने किया है। जैसे 'इस वट के वृक्ष पर भूत रहता है'। यह वृद्ध लोग कहते आये हैं। अत: यह भी एक स्वतन्त्र प्रमाण है। परन्तु इस कथन की सत्यता का निर्णय नहीं हो सकता, अतएव यह प्रमाण नहीं है। यदि प्रमाण है तो यह 'आगम' के अन्तर्भूत है। किन्तु इन दोनों को अन्य मीमांसकों की तरह कुमारिल ने भी स्वीकार नहीं किया।
प्रतिभा :: प्रतिभा अर्थात् प्रातिभ ज्ञान सदैव सत्य नहीं होता, अतएव इसे भी मीमांसक लोग प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार करते।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट हो गया होगा कि प्रमाण ही न्याय शास्त्र का मुख्य विषय है। इसी से प्रमाण प्रवीण, प्रमाण कुशल आदि शब्दों का व्यवहार नैयायिक या तार्किक के लिये होता है।
प्रमेय :: प्रमाण का विषय (जिसे प्रमाणित किया जाय) प्रमेय कहलाता है। ऐसे विषय न्याय के अन्तर्गत बारह गिनाए गए हैं :-
(1). आत्मा :- सब वस्तुओं का देखनेवाला, भोग करनेवाला, जाननेवाला और अनुभव करनेवाला।
(2). शरीर :- भोगो का आयतन या आधार।
(3). इंद्रियाँ :- भोगों के साधन।
(4). अर्थ :- वस्तु जिसका भोग होता है।
(5). बुद्धि :- भोग।
(6). मन :- अंतःकरण अर्थात् वह भीतरी इंद्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है।
(7). प्रवृत्ति :- वचन, मनऔर शरीर का व्यापार।
(8). दोष :- जिसके कारण अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है।
(9). प्रेत्यभाव :- पुनर्जन्म।
(10). फल :- सुख दुःख का संवेदन या अनुभव।
(11). दुःख :-पीडा़, क्लेश।
(12). अपवर्ग :- दुःख से अत्यंत निवृत्ति या मुक्ति।
इस सूची से यह न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमेय (प्रमाण के विषय) हो ही नहीं सकते। प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती हैं। पर गौतम ने अपने सूत्रों में उन्हीं बातों पर विचार किया है जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो। न्याय में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख दुःख और ज्ञान ये आत्मा के लिंग (अनुमान के साधन चिह्न या हेतु) कहे गए हैं, यद्यपि शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा पृथक् मानी गई है। वैशेषिक में भी इच्छा, द्वेष सुख, दुःख आदि को आत्मा का लिंग कहा है। शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा के पृथक् होने के हेतु गौतम ने दिए हैं। वेदांतियों के समान नैयायिक एक ही आत्मा नहीं मानते, अनेक मानते हैं। सांख्यवाले भी अनेक पुरुष मानते हैं पर वे पुरुष को अकर्ता और अभोक्ता, साक्षी वा द्रष्टा मात्र मानते हैं। नैयायिक आत्मा को कर्ता, भोक्ता आदि मानते हैं। संसार को रचनेवाली आत्मा ही ईश्वर है। न्याय में आत्मा के समान ही ईश्वर में भी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, इच्छा, बुद्धि प्रयत्न ये गुण माने गए हैं पर नित्य करके। न्यायमंजरी में लिखा है कि दुःख, द्वेष और संस्कार को छोड़ और सब आत्मा के गुण ईश्वर में हैं।
बहुत से लोग शरीर को पाँचों भूतों से बना मानते हैं पर न्याय में शरीर केवल पृथ्वी के परमाणुओं से घटित माना गया है। चेष्टा, इंद्रिय और अर्थ के आश्रय को शरीर कहते हैं। जिस पदार्थ से सुख हो उसके पाने और जिससे दुःख हो उसे दूर करने का व्यापार चेष्टा है। अतः शरीर का जो लक्षण किया गया है उसके अंतर्गत वृक्षों का शरीर भी आ जाता है। पर वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि यह लक्षण वृक्षशरीर में नहीं घटता, इससे केवल मनुष्यशरीर का ही अभिप्राय समझना चाहिए। शंकर मिश्र ने वैशेषिक सूत्रोपस्कार में कहा है कि वृक्षों को शरीर है पर उसमें चेष्टा और इंद्रियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई पड़तीं इससे उसे शरीर नहीं कह सकते। पूर्वजन्म में किए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। पाँच भूतों से पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति कही गई है। घ्राणेंद्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है क्योकि रस जल का ही गुण है। चक्षु तेज से बना हैं क्योकि रूप तेज का ही गुण है। त्वक् वायु से बना है क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है। श्रोत्र आकाश से बना है क्योंकि शब्द आकाश का गुण है। बौद्धों के मत से शरीर में इंद्रियों के जो प्रत्यक्ष गोलक देखे जाते हैं उन्हीं को इंद्रियाँ कहते हैं। (जैसे, आँख की पुतली, जीभ इत्यादि); पर नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं वे इंद्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इंद्रियाँ नहीं हैं। इंद्रियों का ज्ञान इँद्रियों द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वग् इंद्रिय मानते हैं। न्याय में उनके मत का खंडन करके इंद्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है। सांख्य में पाँच कर्मेद्रियाँ और मन लेकर ग्यारह इंद्रियाँ मानी गई हैं। न्याय में कर्मेंद्रियाँ नहीं मानी गई हैं पर मन एक करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपद ज्ञान संभव होता अर्थात् अनेक इंद्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होने से उन सबके विषयों का एक साथ ज्ञान होता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते। गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों भूतों के गुण और इंद्रियों के अर्थ या विषय़ हैं।
न्याय में बुद्धि को ज्ञान या उपलब्धि का ही दूसरा नाम कहा है। सांख्य में बुद्धि नित्य कही गई है पर न्याय में अनित्य। वैशेषिक के समान न्याय भी परमाणु वादी है अर्थात् परमाणुओं के योग से सृष्टि मानता है।
प्रमेयों के संबंध में न्याय और वैशेषिक के मत प्रायः एक ही हैं इससे दर्शन में दोनों के मत न्याय मत कहे जाते हैं। वात्स्यायन ने भी भाष्य में कह दिया है कि जिन बातों को विस्तार-भय से गौतम ने सूत्रों में नहीं कहा है उन्हें वैशेषिक से ग्रहण करना चाहिए।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे प्रकट हो गया होगा कि गौतम का न्याय केवल विचार या तर्क के नियम निर्धारित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि प्रमेयों का भी विचार करनेवाला दर्शन है। पाश्चात्य लाजिक (तर्क शास्त्र) से यही इसमें भेद हैं। लाजिक, दर्शन के अंतर्गत नहीं लिया जाता पर न्याय, दर्शन है। यह अवश्य है कि न्याय में प्रमाण या तर्क की परीक्षा विशेष रूप से हुई है।
प्रामाण्यवाद :: न्यायशास्त्र तथा मीमांसाशास्त्र में प्रामाण्यवाद सब से कठिन विषय कहा जाता है। मिथिला में विद्वन्मण्डली में प्रसिद्ध है कि 14 वीं सदी में एक समय एक बहुत बड़े विद्वान् और कवि किसी अन्य प्रान्त से मिथिला के महाराज की सभा में आये। उनकी कवित्वशक्ति और विद्वत्ता से सभी चकित हुए। वह मिथिला में रह कर प्रामाण्यवाद का विशेष अध्ययन करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् महाराज ने उनसे एक दिन नवीन कविता सुनाने के लिए कहा, तो बहुत देर सोचने के बाद उन्होने एक कविता की रचना की :-
नम: प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे।
इसकी दूसरी पंक्ति की पूर्ति करने में उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की। वास्तव में 'प्रामाण्यवाद' बहुत कठिन है और इसके अध्ययन करने वालों का ध्यान और कहीं नहीं जा सकता है।

    
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