CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ध्यान योग :: परमात्मा के मूर्त और अमूर्त रूप का चिंतन-स्मरण; meditation, concentration in the Almighty.
ध्यान की विधियाँ ::
(1). भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन संवाद :- भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "शुद्ध एवं एकांत स्थान पर कुशा आदि का आसन बिछाकर सुखासन में बैठें। अपने मन को एकाग्र करें। मन व इन्द्रियों की क्रियाओं को अपने वश में करें, जिससे अंतःकरण शुद्ध हो। इसके लिए शरीर, सर व गर्दन को सीधा रखें और हिलाएं-डुलायें नहीं। आँखें बंद रखें व साथ ही जीभ को भी न हिलाएं। अब आँख की पुतलियों को भी इधर-उधर नहीं हिलने दें और उन्हें एक दम सामने स्थिर रखें। एकमात्र ईश्वर का स्मरण करते रहें। ऐसा करने से कुछ ही देर में मन शांत हो जाता है और ध्यान आज्ञा चक्र पर स्थित हो जाता है और परम ज्योति स्वरुप परमात्मा के दर्शन होते हैं।
जब तक मन में विचार चलते हैं; तभी तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती रहती हैं और जब तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती हैं तब तक हमारे मन में विचार उत्पन्न होते रहते हैं। जैसे ही मन में चल रहे समस्त विचारों रुक जाते हैं, आँखों की पुतलियाँ रुक जाती हैं। इसी प्रकार यदि आँख की पुतलियों को रोक लें तो मन के विचार पूरी तरह रुक जाते हैं और मन व आँख की पुतलियों के रुकते ही आत्मा का प्रभाव ज्योति के रूप में दीख ने लगता है। [गीतोपदेश 6-(12-15)]
(2). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- “एकांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाएँ। मन में ईश्वर का स्मरण करते रहें। अब तेजी से सांस अन्दर खींचकर फिर तेजी से पूरी सांस बाहर छोड़कर रोक लें। श्वास इतनी जोर से बाहर छोड़ें कि इसकी आवाज पास बैठे व्यक्ति को भी सुनाई दे। इस प्रकार साँस बाहर छोड़ने से वह बहुत देर तक बाहर रुकी रहती है। उस समय श्वास रुकने से मन भी रुक जाता है और आँखों की पुतलियाँ भी रुक जाती हैं और आज्ञा चक्र पर दबाव पड़ता है जिससे वह खुल जाता है। श्वास व मन के रुकने से अपने आप ही ध्यान होने लगता है और आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है। यह विधि शीघ्र ही आज्ञा चक्र को जाग्रत कर देती है। [नेत्र तंत्र]
(3). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- रात्रि में एकांत में बैठ जाएँ। आंखें बंद करें. हाथों की अँगुलियों से आँखों की पुतलियों को दबाएँ। इस प्रकार दबाने से तारे-सितारे दिखाई देंगे। कुछ देर दबाये रखें फिर धीरे-धीरे अँगुलियों का दबाव कम करते हुए छोड़ दें तो सूर्य के सामान तेजस्वी गोला दिखाई देगा। इसे तैजस ब्रह्म कहते हैं। इसे देखते रहने का अभ्यास करें। कुछ समय के अभ्यास के बाद आप इसे खुली आँखों से भी आकाश में देख सकते हैं। इसके अभ्यास से समस्त विकार नष्ट होते हैं, मन शांत होता है और परमात्मा का बोध होता है [शिव पुराण, उमा संहिता]
(4). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- रात्रि में ध्वनिरहित, अंधकारयुक्त, एकांत स्थान पर बैठें। तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करें। आँखें बंद रखें। कुछ ही समय के अभ्यास से अग्नि प्रेरित शब्द सुनाई देगा। इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं। यह शब्द या ध्वनि नौ प्रकार की होती है। इसको सुनने का अभ्यास करना शब्द-ब्रह्म का ध्यान करना है। इससे संध्या के बाद खाया हुआ अन्न क्षण भर में ही पच जाता है और संपूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र ही नाश करता है।
यह शब्द ब्रह्म न ॐकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है। यह अनाहत नाद है (अनाहत अर्थात बिना आघात के या बिना बजाये उत्पन्न होने वाला शब्द)। इसका उच्चारण किये बिना ही चिंतन होता है। यह नौ प्रकार का होता है :-
(4-1). घोष नाद :- यह आत्मशुद्धि करता है, सब रोगों का नाश करता है व मन को वशीभूत करके अपनी और खींचता है।
(4-2). कांस्य नाद :- यह प्राणियों की गति को स्तंभित कर देता है। यह विष, भूत, ग्रह आदि सबको बांधता है।
(4-3). श्रृंग नाद :- यह अभिचार से सम्बन्ध रखने वाला है।
(4-4). घंट नाद :- इसका उच्चारण साक्षात् शिव करते हैं। यह सभी देवताओं को आकर्षित कर लेता है, महासिद्धियाँ देता है और कामनाएं पूर्ण करता है।
(4-5). वीणा नाद :- इससे दूर दर्शन की शक्ति प्राप्त होती है।
(4-6). वंशी नाद :- इसके ध्यान से सम्पूर्ण तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं।
(4-7). दुन्दुभी नाद :- इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है।
(4-8). शंख नाद :- इसके ध्यान व अभ्यास से इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है।
(4-9). मेघनाद :- इसके चिंतन से कभी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ता।
इन सबको छोड़कर जो अन्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है। तुंकार का ध्यान करने से साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति होती है [शिव पुराण, उमा संहिता]
(5). भगवान् श्री कृष्ण ने उद्धवजी से कहा :- शुद्ध व एकांत में बैठकर अनन्य प्रेम से ईश्वर का स्मरण करें और प्रार्थना करें कि ‘हे प्रभु! प्रसन्न होइए! मेरे शरीर में प्रवेश करके मुझे बंधनमुक्त करिये।’ इस प्रकार प्रेम और भक्तिपूर्वक ईश्वर का भजन करने से वे भगवान भक्त के हृदय में आकर बैठ जाते हैं। भक्त को भगवान् का वह स्वरुप अपने हृदय में कुछ-कुछ दिखाई देने लगता है। इस स्वरुप को सदा हृदय में देखने का अभ्यास करना चाहिए।
सगुण स्वरुप के ध्यान से भगवान् हृदय में विराजमान होते ही हृदय की सारी वासनाएं संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती है और जब उस भक्त को परमात्मा का साक्षात्कार होता है तो उसके हृदय की गांठ टूट जाती है और उसके सरे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्म-वासनाएं सर्वथा क्षीण हो जाती हैं। [श्रीमदभगवत महापुराण 11-20-(27-30)]
ध्यान में होने वाले अनुभव :- भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है। फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं। एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग आत्मा का प्रकाश है, जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है।
MEDITATION(ध्यान) :: स्थिर चित्त से भगवान का चिंतन, ध्यान कहलाता है। समस्त उपाधियों से मुक्त मन सहित आत्मा का ब्रह्म विचार में परायण होना ध्यान है। ध्येय रूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से युक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति होती है, उसको भी ध्यान कहते हैं। जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिंतन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ध्यान है। ध्यान परायण होकर जो व्यक्ति अपने शरीर का त्याग करता है, वह अपने कुल स्वजन और मित्रों का उद्धार करके स्वयं भगवत स्वरुप हो जाता है। प्रति दिन श्रद्धा पूर्वक श्री हरी का ध्यान करने से मनुष्य वह गति पाता है, जो कि सम्पूर्ण महायज्ञों के द्वारा भी अप्राप्य है
चलते-फिरते, उठते-बैठते-खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते-मींचते, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था में भी निरंतर परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।
भगवान मृत्युंजय, ध्यान करने पर अकाल-मृत्यु को दूर करने वाले हैं।
साधक को पहले मन को स्थिर करने के लिए स्थूल-मूर्त रूप का ध्यान करना चाहिये। मन के स्थिर हो जाने पर उसे सूक्ष्म तत्व-अमूर्त के चिंतन में लगाना चाहिये।
ध्यानावस्था में समस्याओं का समाधान मिल जाता है।
It involves conceptualization-image formation of the Almighty. Initially one has to sit quietly, with closed eyes thinking of the Almighty only. He will experience all sorts of hurdles and the mind will travel in all direction. But being a human being, he is capable of channelizing all his energies to a spot. Normally the direction to align one self in the morning is East and in the evening, its North. A calm-quite place is essential for such practices. People prefer isolated places, near water bodies or caves. One can practice it at home as well, by placing a pot full of water in front of him. Sit with cross legs or adopt some Asan, like Padmasan. Use a mat-cushion for sitting comfortably. You can use fan or even AC during this. This water should be offered to the Sun in the morning after bathing.
One should concentrate only in him, while forgetting-discarding everything at this moment. Ignore all activities around you and think of him only and nothing else, at the time of meditation.He will show you the way to Dharm, Arth,Kaam and Moksh. उसी में रम जाओ और रमण करो मन को एकाग्र करो चित्त को भटकने मत दो अभीष्ट पर केंद्रित करो और देखो सफ्लता तुम्हारी है।
It involves conceptualization-image formation of the Almighty. Initially one has to sit quietly, with closed eyes thinking of the Almighty only. He will experience all sorts of hurdles and the mind will travel in all direction. But being a human being, he is capable of channelizing all his energies to a spot. Normally the direction to align one self in the morning is East and in the evening, its North. A calm-quite place is essential for such practices. People prefer isolated places, near water bodies or caves. One can practice it at home as well, by placing a pot full of water in front of him. Sit with cross legs or adopt some Asan, like Padmasan. Use a mat-cushion for sitting comfortably. You can use fan or even AC during this. This water should be offered to the Sun in the morning after bathing.
One should concentrate only in him, while forgetting-discarding everything at this moment. Ignore all activities around you and think of him only and nothing else, at the time of meditation.He will show you the way to Dharm, Arth,Kaam and Moksh. उसी में रम जाओ और रमण करो मन को एकाग्र करो चित्त को भटकने मत दो अभीष्ट पर केंद्रित करो और देखो सफ्लता तुम्हारी है।
One is aware of deep-repeated thinking over certain issues-problems, which forces him to forget everything to find ways and means, to come out of the difficulty. The thinker get involved with it, whole heartedly and all his energies are channelized into finding a solution. Ultimately, he approaches the God. Life in itself is full of difficulties and the prudent-enlightened makes a bid to come out of them. The easiest-simplest method is meditation by focusing-fixing-concentrating the brain-mind into the Almighty.
This is a state when one prevents the mind from roaming around, brings the mind-brain under self restraint-control. Inner self-sensuality-passions are made to fall in line with deep thinking-contemplation. A magic spell is cast, followed by enchantment-charm-delight-happiness.
This involves mental image formation or conceptualization of the Almighty, who has no shape or size. He is undefined yet unique. He is present each and every where, including us. He has no sense organs, still he is performing all functions. He is without hands or legs, still he is able to act-perform what ever is essential. He is free from desires or activities, still he acts. He does not eat, still he accepts the offerings of the devotees. He is without tongue and yet he recites the Shloks-enchants-rhymes of Ved, Puran, Upnishad. He is without skin, still he experiences cold or warmth. He has full control over all sensualities-passions. He is one and only one-unique. There is no one-nothing to support him, yet he supports every one. He has no sentiments. He is pure, orator, source of all energy, mesmerize every one-controls every one-looks in all directions and above all the enlightened. He is present in each one of us and all directions-material-immaterial objects. His qualities-characters are unlimited-infinite. He has no boundaries.
One who utilize his mind-brain-intelligence, to attain him, is able to liberate himself and assimilate in him.
One has to focus the mind over certain material object like a statue-picture-even Om-Allah-Khuda-Rab-God-Jesus-Bhagwan, written over the wall. This can be done-achieved, while-talking-walking-moving-standing-sitting-sleeping-waking-opening or closing eyes-pure or impure body state, by continuously reciting-remembering the God. One has to consider himself as an incarnation-organ-part-component(-soul is a component of the Almighty-the Supreme soul) of the God and that he has evolved out of the Almighty and merge into him, ultimately.
This involves mental image formation or conceptualization of the Almighty, who has no shape or size. He is undefined yet unique. He is present each and every where, including us. He has no sense organs, still he is performing all functions. He is without hands or legs, still he is able to act-perform what ever is essential. He is free from desires or activities, still he acts. He does not eat, still he accepts the offerings of the devotees. He is without tongue and yet he recites the Shloks-enchants-rhymes of Ved, Puran, Upnishad. He is without skin, still he experiences cold or warmth. He has full control over all sensualities-passions. He is one and only one-unique. There is no one-nothing to support him, yet he supports every one. He has no sentiments. He is pure, orator, source of all energy, mesmerize every one-controls every one-looks in all directions and above all the enlightened. He is present in each one of us and all directions-material-immaterial objects. His qualities-characters are unlimited-infinite. He has no boundaries.
One who utilize his mind-brain-intelligence, to attain him, is able to liberate himself and assimilate in him.
One has to focus the mind over certain material object like a statue-picture-even Om-Allah-Khuda-Rab-God-Jesus-Bhagwan, written over the wall. This can be done-achieved, while-talking-walking-moving-standing-sitting-sleeping-waking-opening or closing eyes-pure or impure body state, by continuously reciting-remembering the God. One has to consider himself as an incarnation-organ-part-component(-soul is a component of the Almighty-the Supreme soul) of the God and that he has evolved out of the Almighty and merge into him, ultimately.
Meditation relieves anxiety and helps in solving intricate problems.
Human brain has two lobes-compartments which drag him into different directions-channels. One may successfully perform two tasks, simultaneously. During emergency-difficulty the two lobes start functioning together. Repeated practice makes one achieve this state quite frequently. This act when utilized to focus-penetrate-channelize into the creator-nurturer-destroyer-all in one, the Almighty; relieves the devotee of all pains-sorrow-grief-problems-difficulty and the cycle of birth and rebirth, obviously.
For best results choice of a peaceful place-solitude is recommended. Continued efforts gives quick results associated with confidence-happiness-success.
Transcendental Meditation requires practice session extending between 10-15 minutes twice-even once depending upon the time available with you, regularly. Don't mind if you could not devote time for it for a number of days. You may restart at you will. It's relaxation of mind, body and soul.One may call it self analysis-identification-realization.
This technique allows the mind to settle and gives one a chance to experience pure awareness, called transcendental consciousness. It allows one to experience the most silent and peaceful level of consciousness-the innermost self. It also allows the brain to attain deep rest-relaxation, helping one to be more efficient and better in cognitive functions.
Sit with crossed legs comfortably over met-tiger/deer skin-cushion-durri-carpet. You may utilize Padmasan or some other Aasan-posture. Sit with erect back bone-vertebral column, recite om or om em namh: or remain quite.
Transcendental Meditation requires practice session extending between 10-15 minutes twice-even once depending upon the time available with you, regularly. Don't mind if you could not devote time for it for a number of days. You may restart at you will. It's relaxation of mind, body and soul.One may call it self analysis-identification-realization.
This technique allows the mind to settle and gives one a chance to experience pure awareness, called transcendental consciousness. It allows one to experience the most silent and peaceful level of consciousness-the innermost self. It also allows the brain to attain deep rest-relaxation, helping one to be more efficient and better in cognitive functions.
Sit with crossed legs comfortably over met-tiger/deer skin-cushion-durri-carpet. You may utilize Padmasan or some other Aasan-posture. Sit with erect back bone-vertebral column, recite om or om em namh: or remain quite.
The Human brain is greatly affected by the body postures. Facial expressions often reveal one's inner self affecting the brain function. Smiling face lowers the blood temperature of the brain, while frowning will increase it. Positioning of the hands too affect the functioning of the brain.
While meditating, it is especially important to hold the hands in a way-posture-folding them in front of the chest-praying to the Almighty-to bless the meditator. This will help the mind to maintain its focus helping in concentration, pulling him out of the world momentarily, while eliminating distracting thoughts. The meditator has to hold the two hands over the knees in Gyan Mudra. The Palm is stretched in the upper direction-horizontal to the floor, having the thumb joining index finger. Venus and Jupiter are joined and Mars is subdued.
It steadies the body and trains the mind. It eliminating adverse stress and develops one's inner power-strength. While the breath control will be different for each of these, the hand position is the same. it provides one with: (i) Increased mental focus, (ii)m Increased emotional control, (iii) Reduction of harmful stress in daily life, (iv) Improved digestion, (v) Proper elimination of body waste from bladder and bowels, (vi) Tones and stimulates the internal organs, (vii). Correction of Hernia, (viii) Reduction of chest and abdominal pain.
ZEN-ONE POINT MEDITATION: One has to place the palms together with the fingertips upward. He has to Interlock the fingers, extend the index fingers so they lie side-by-side & extend the thumbs the same way. Now, he has to lift the hands and hold them in front of the chest. He has to feel the heat between the two hands and take note of the pulse in the palms. Now, he has to direct his attention to the point, where the index fingertips touch. This is the One Point. One will begin to feel his pulse at the fingertips. Within seconds one will notice calmness and inner power growing. He should not permit other thought-ideas-tensions to hover around.
स्थिर चित्त से भगवान का चिंतन, ध्यान कहलाता है। समस्त उपाधियों से मुक्त मन सहित आत्मा का ब्रह्म विचार में परायण होना ध्यान है। ध्येय रूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से युक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति होती है, उसको भी ध्यान कहते हैं। जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिंतन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ध्यान है। ध्यान परायण होकर जो व्यक्ति अपने शरीर का त्याग करता है, वह अपने कुल स्वजन और मित्रों का उद्धार करके स्वयं भगवत स्वरुप हो जाता है। प्रति दिन श्रद्धा पूर्वक श्री हरी का ध्यान करने से मनुष्य वह गति पाता है, जो कि सम्पूर्ण महायज्ञों के द्वारा भी अप्राप्य है
चलते-फिरते, उठते-बैठते-खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते-मींचते, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था में भी निरंतर परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।
भगवान मृत्युंजय, ध्यान करने पर अकाल-मृत्यु को दूर करने वाले हैं।
साधक को पहले मन को स्थिर करने के लिए स्थूल-मूर्त रूप का ध्यान करना चाहिये। मन के स्थिर हो जाने पर उसे सूक्ष्म तत्व-अमूर्त के चिंतन में लगाना चाहिये।
ध्यानावस्था में समस्याओं का समाधान मिल जाता है।
ध्यान दो प्रकार का होता है-निर्गुण और सगुण। जो लोग योग-शास्त्रोक्त, यम-नियमादि साधनों के द्वारा परमात्म-साक्षात्कार का प्रयास कर रहे हैं, वे सदा ही ध्यान परायण होकर केवल ज्ञान दृष्टि से परमात्मा का दर्शन करते हैं।
निर्गुण ध्यान :: परमात्मा हाथ और पैर से रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता है और सर्वत्र जाता है। मुख के बिना ही भोजन करता है और नाक के बिना ही सूंघता है। उसके कान नहीं हैं तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी और इस जगत का स्वामी है। रूप हीन होकर भी रूप से संबद्ध हो पांचों इंद्रियों के वशीभूत सा प्रतीत होता है। वह सब लोकों का प्राण है, सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभ के ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रों के अनुकूल बोलता है। उसके त्वचा नहीं है तथापि वह शीत-उष्ण आदि, सब प्रकार के स्पर्श अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रय विहीन, निर्गुण, ममता रहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वश में करने वाला, सब ओर देखने वाला और सर्वज्ञों में श्रेष्ठ है। वह व्यापक और सर्वमय है। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धि से उस सर्वमय ब्रह्म का ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृत तुल्य परम पद को प्राप्त होता है।
सगुण ध्यान :: इस ध्यान का विषय किंवा साकार रूप है। वह निराकार-रोग-व्याधि से रहित है। उसका कोई आलम्ब-आधार नहीं है, वही सब का आलम्ब है। जिनके संकल्प से यह संसार वासित है वे श्री हरी इस संसार को वासित करने के कारण वासुदेव कहलाते हैं।
उनका श्री विग्रह वर्षा ऋतु के सजल मेघ के समान श्याम है। उनकी प्रभा सूर्य के तेज को भी लज्ज्ति करती है। उनके दाहिने भाग के एक हाथ में बहुमूल्य मणियों से चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरे हाथ में बड़े-बड़े असुरों का संहार करने वाली कौमुद गदा विराजमान है। उन जगदीश्वर के बायें हाथों में पद्म और शंख सुशोभित हैं। वे चतुर्भज हैं। वे सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। श्राङ्ग धनुष धारण करने के कारण श्राङ्गी उन्हें भी कहते हैं। वे लक्ष्मी के स्वामी हैं।
चलते-फिरते, उठते-बैठते-खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते-मींचते, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था में भी निरंतर परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।
भगवान मृत्युंजय, ध्यान करने पर अकाल-मृत्यु को दूर करने वाले हैं।
साधक को पहले मन को स्थिर करने के लिए स्थूल-मूर्त रूप का ध्यान करना चाहिये। मन के स्थिर हो जाने पर उसे सूक्ष्म तत्व-अमूर्त के चिंतन में लगाना चाहिये।
ध्यानावस्था में समस्याओं का समाधान मिल जाता है।
ध्यान दो प्रकार का होता है-निर्गुण और सगुण। जो लोग योग-शास्त्रोक्त, यम-नियमादि साधनों के द्वारा परमात्म-साक्षात्कार का प्रयास कर रहे हैं, वे सदा ही ध्यान परायण होकर केवल ज्ञान दृष्टि से परमात्मा का दर्शन करते हैं।
निर्गुण ध्यान :: परमात्मा हाथ और पैर से रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता है और सर्वत्र जाता है। मुख के बिना ही भोजन करता है और नाक के बिना ही सूंघता है। उसके कान नहीं हैं तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी और इस जगत का स्वामी है। रूप हीन होकर भी रूप से संबद्ध हो पांचों इंद्रियों के वशीभूत सा प्रतीत होता है। वह सब लोकों का प्राण है, सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभ के ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रों के अनुकूल बोलता है। उसके त्वचा नहीं है तथापि वह शीत-उष्ण आदि, सब प्रकार के स्पर्श अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रय विहीन, निर्गुण, ममता रहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वश में करने वाला, सब ओर देखने वाला और सर्वज्ञों में श्रेष्ठ है। वह व्यापक और सर्वमय है। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धि से उस सर्वमय ब्रह्म का ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृत तुल्य परम पद को प्राप्त होता है।
सगुण ध्यान :: इस ध्यान का विषय किंवा साकार रूप है। वह निराकार-रोग-व्याधि से रहित है। उसका कोई आलम्ब-आधार नहीं है, वही सब का आलम्ब है। जिनके संकल्प से यह संसार वासित है वे श्री हरी इस संसार को वासित करने के कारण वासुदेव कहलाते हैं।
उनका श्री विग्रह वर्षा ऋतु के सजल मेघ के समान श्याम है। उनकी प्रभा सूर्य के तेज को भी लज्ज्ति करती है। उनके दाहिने भाग के एक हाथ में बहुमूल्य मणियों से चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरे हाथ में बड़े-बड़े असुरों का संहार करने वाली कौमुद गदा विराजमान है। उन जगदीश्वर के बायें हाथों में पद्म और शंख सुशोभित हैं। वे चतुर्भज हैं। वे सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। श्राङ्ग धनुष धारण करने के कारण श्राङ्गी उन्हें भी कहते हैं। वे लक्ष्मी के स्वामी हैं।
शंख के समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल तथा पद्म-पत्र के समान बड़ी-बड़ी ऑंखें हैं। कुन्द जैसे चमकते दांतों से ह्रषिकेश की बड़ी शोभा हो रही है। वे निद्रा के ऊपर शासन करते हैं। उनका नीचे का होंठ मूंगे के सामान लाल है। नाभि कमल से प्रकट होने के कारन उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। वे अत्यन्त तेजस्वी किरीट के कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्री वत्स के चिन्ह ने उनकी छवि को और बढ़ा दिया है। श्री केशव का वक्ष स्थल कौस्तुभ मणि से अलंकृत है। वे जनार्दन सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डलों से अत्यंत देदीप्यमान हो रहे है। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र करघनी तथा अंगूठियों से उनके श्री अंग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा और बढ़ गयी है। भगवान तपाये हुए सुवर्ण के रंग का पीताम्बर धारण किये हुए हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर विराजमान हैं। वे भक्तों की पाप राशि को दूर करने वाले हैं। इस प्रकार सगुण चिन्तन करना चाहिये।
इसका अभ्यास करने से मनुष्य मन, वाणी तथा शरीर द्वारा होने वाले सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है।
समाधि: जो चैतन्य स्वरूप से युक्त और प्रशांत महासागर की भांति स्थिर हो, जिसमें आत्मा के सिवाय किसी अन्य वस्तु की प्रतीति न हो, उस ध्यान को समाधि कहते हैं। जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय-परमात्मा, में लगा कर वायु हीन प्रदेश की अग्नि शिखा के भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता है, वह योगी समाधिस्थ कहा गया है। जो न सुनता है, न सूँघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन में संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धि से किसी दूसरी-अन्य, वस्तु को जानता ही है, केवल काष्ठ (वृक्ष) की भांति अविचल भाव से ध्यान में स्थित रहता है, ऐसे चिंतन परायण पुरुष को समाधिस्थ कहते हैं। जो अपने आत्म स्वरुप श्री विष्णु के ध्यान में संलग्न रहता है, उसके सामने अनेक दिव्य विघ्न उपस्थित होते हैं , वे सिद्धि की सूचनादेने वाले हैं। बड़े बड़े विघ्न, लालच, लोभ, ज्ञान, सिद्धियाँ, प्रतिभा, सद्गुण, सम्पूर्ण शील, कलाएँ, कन्याएँ बिना बुलाए उपस्थित होती हैं। जो इनको तिनके की भांति निस्सार मानकर त्याग देता है, उसी पर भगवान विष्णु की कृपा होती है और वे प्रसन्न होते हैं।
समाधि :: जो चैतन्य स्वरूप से युक्त और प्रशांत महासागर की भांति स्थिर हो, जिसमें आत्मा के सिवाय किसी अन्य वस्तु की प्रतीति न हो, उस ध्यान को समाधि कहते हैं। जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय-परमात्मा, में लगा कर वायु हीन प्रदेश की अग्नि शिखा के भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता है, वह योगी समाधिस्थ कहा गया है। जो न सुनता है, न सूँघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है , न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन में संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धि से किसी दूसरी-अन्य, वस्तु को जानता ही है, केवल काष्ठ (-वृक्ष) की भांति अविचल भाव से ध्यान में स्थित रहता है, ऐसे चिंतन परायण पुरुष को समाधिस्थ कहते हैं। जो अपने आत्म स्वरुप श्री विष्णु के ध्यान में संलग्न रहता है, उसके सामने अनेक दिव्य विघ्न उपस्थित होते हैं , वे सिद्धि की सूचनादेने वाले हैं। बड़े बड़े विघ्न, लालच, लोभ, ज्ञान, सिद्धियाँ, प्रतिभा, सद्गुण, सम्पूर्ण शील, कलाएँ, कन्याएँ बिना बुलाए उपस्थित होती हैं। जो इनको तिनके की भांति निस्सार मानकर त्याग देता है, उसी पर भगवान विष्णु की कृपा होती है और वे प्रसन्न होते हैं।
गोले के आकार दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है। इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दिखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं और मनुष्य के मन में आत्मविश्वास जाग्रत होता है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
अभ्यास (कर्मकाण्ड) से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल की इच्छा-आसक्ति का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।[श्रीमद् भगवद्गीता 12.12] The transcendental knowledge of scriptures is better than mere ritualistic practice; meditation is better than-superior to scriptural knowledge; renunciation of selfish attachment to the rewards-fruits of work (deeds), is better than meditation, since peace immediately follows renunciation of selfish motives.
भगवान् ने कर्मफल के त्याग को श्रेष्ठ और तुरन्त शान्ति देने वाला कहा है। पिछले श्लोकों में वर्णित चारों ही साधन मनुष्य को स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। शास्त्र ज्ञान और तत्व ज्ञान में बहुत अन्तर है। तत्व ज्ञान सभी साधनों का फल है। ज्ञान की तुलना अभ्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें न अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है, तो ऐसे अभ्यास से तो ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक ज्ञान से संयुक्त अभ्यास मनुष्य में भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत कर सकता है। यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रता का वाचक है, न कि ध्यान योग का। इस तरह के ध्यान में शास्त्र ज्ञान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिसमें अभ्यास, ध्यान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ध्यान (परमपिता परब्रह्म परमेश्वर में केन्द्रीत करना) मन को नियंत्रित करता है, शास्त्र नहीं। मन को नियंत्रित करके साधक जिस शक्ति को प्राप्त करता है, उसका उपयोग वह परमात्मा की ओर बढ़ने में कर सकता है। ज्ञान और कर्म फल त्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफल के त्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। जप-तप ध्यान समाधि, मनुष्य स्वयं के लिए सांसारिक सुख के लिए न करे, ताकि उसका सम्बन्ध उससे बने ही नहीं। इस तरह से कर्म फल का त्याग कर देने से मनुष्य को जिस शान्ति की प्राप्ति होती है, वो परम शांति अर्थात भगवत्प्राप्ति है। अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान तीनों ही करण सापेक्ष हैं, मगर कर्म फल त्याग करण निरपेक्ष है।
The Almighty has said that the rejection of the desire for the rewards of actions-deeds provides immediate relief, solace, peace, tranquillity. The methods described in earlier verses-Shloks (rhymes) are the means of attaining the God, independently. They are capable in themselves. However, the knowledge of scriptures is not enough, unless it is assisted by meditation and devotion to one's duties without the desire-expectation for the rewards. One may rise from the knowledge of scriptures to enlightenment i.e., Tatv Gyan (gist of divinity-eternity); understanding the purpose of birth and our endeavour to seek release thereafter. Tatv Gyan is the ultimate of all efforts, means leading to the Ultimate. Practice of knowledge develops understanding, skill, ability, interest directing one to the God. This type of practice of knowledge-rote memory, learning is insufficient as compared to Dhyan Yog. Mere attainment of knowledge is useless without meditation, practice of meditation and rejection of the desire for reward of actions. The practice which does not materialise into attainment of God is useless. If the knowledge of the scriptures is aided by practice of procedures-methods leading to the attainment of God, it becomes quite useful-effective. When one merely talks of Dhyan-meditation, he is far-far away from Dhyan Yog. The meditation leading to love in God is better than that knowledge free from practice, meditation and rejection of the desire of rewards of actions. Meditation leads to concentration and penetration into the Almighty, which the devotee-practitioner may practice for attainment of the Almighty HIMSELF. Rejection of the desire of the rewards utilised for the deeds leads to detachment from the world and that is the sole aim of worship. One should never utilise the ascetic practice, enchantment of holy verses, meditation, staunch meditation for self. Instead he should make use of them for the benefit of the society-others as a whole (वसुधैव कुटुम्बकम्). This will keep him free from bonds with the world, leading to bliss i.e., the God. Practice, knowledge of scriptures and Dhyan involve the self, while rejection of the desire for the reward of deeds makes one absolute.
भगवान् ने कर्मफल के त्याग को श्रेष्ठ और तुरन्त शान्ति देने वाला कहा है। पिछले श्लोकों में वर्णित चारों ही साधन मनुष्य को स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। शास्त्र ज्ञान और तत्व ज्ञान में बहुत अन्तर है। तत्व ज्ञान सभी साधनों का फल है। ज्ञान की तुलना अभ्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें न अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है, तो ऐसे अभ्यास से तो ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक ज्ञान से संयुक्त अभ्यास मनुष्य में भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत कर सकता है। यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रता का वाचक है, न कि ध्यान योग का। इस तरह के ध्यान में शास्त्र ज्ञान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिसमें अभ्यास, ध्यान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ध्यान (परमपिता परब्रह्म परमेश्वर में केन्द्रीत करना) मन को नियंत्रित करता है, शास्त्र नहीं। मन को नियंत्रित करके साधक जिस शक्ति को प्राप्त करता है, उसका उपयोग वह परमात्मा की ओर बढ़ने में कर सकता है। ज्ञान और कर्म फल त्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफल के त्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। जप-तप ध्यान समाधि, मनुष्य स्वयं के लिए सांसारिक सुख के लिए न करे, ताकि उसका सम्बन्ध उससे बने ही नहीं। इस तरह से कर्म फल का त्याग कर देने से मनुष्य को जिस शान्ति की प्राप्ति होती है, वो परम शांति अर्थात भगवत्प्राप्ति है। अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान तीनों ही करण सापेक्ष हैं, मगर कर्म फल त्याग करण निरपेक्ष है।
The Almighty has said that the rejection of the desire for the rewards of actions-deeds provides immediate relief, solace, peace, tranquillity. The methods described in earlier verses-Shloks (rhymes) are the means of attaining the God, independently. They are capable in themselves. However, the knowledge of scriptures is not enough, unless it is assisted by meditation and devotion to one's duties without the desire-expectation for the rewards. One may rise from the knowledge of scriptures to enlightenment i.e., Tatv Gyan (gist of divinity-eternity); understanding the purpose of birth and our endeavour to seek release thereafter. Tatv Gyan is the ultimate of all efforts, means leading to the Ultimate. Practice of knowledge develops understanding, skill, ability, interest directing one to the God. This type of practice of knowledge-rote memory, learning is insufficient as compared to Dhyan Yog. Mere attainment of knowledge is useless without meditation, practice of meditation and rejection of the desire for reward of actions. The practice which does not materialise into attainment of God is useless. If the knowledge of the scriptures is aided by practice of procedures-methods leading to the attainment of God, it becomes quite useful-effective. When one merely talks of Dhyan-meditation, he is far-far away from Dhyan Yog. The meditation leading to love in God is better than that knowledge free from practice, meditation and rejection of the desire of rewards of actions. Meditation leads to concentration and penetration into the Almighty, which the devotee-practitioner may practice for attainment of the Almighty HIMSELF. Rejection of the desire of the rewards utilised for the deeds leads to detachment from the world and that is the sole aim of worship. One should never utilise the ascetic practice, enchantment of holy verses, meditation, staunch meditation for self. Instead he should make use of them for the benefit of the society-others as a whole (वसुधैव कुटुम्बकम्). This will keep him free from bonds with the world, leading to bliss i.e., the God. Practice, knowledge of scriptures and Dhyan involve the self, while rejection of the desire for the reward of deeds makes one absolute.
वसुधैव कुटुम्बकम् :: यह सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, जो कि महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। इसका अर्थ है :- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
यह अपना है और यह दूसरे का है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।[महोपनिषद् 4.71]
The humans all over the earth constitute my family.
हरी ओम तत् सत्।
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