Friday, June 24, 2016

SALVATION मोक्ष साधना

 SALVATION 
मोक्ष साधना
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। 
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥श्रीमद्भगवद्गीता 10.4॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। 
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥श्रीमद्भगवद्गीता 10.5॥
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दुःख, उत्तपत्ति, विनाश, भय, अभय और अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश; प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग बीस भाव मुझसे ही होते हैं।
Intelligence, enlightenment, disillusion, pardon, truth-austerity, self restraint-control & comforts-pleasure, pain-sorrow, training-discipline, tranquillity, evolution, destruction, fear, bravery-fearlessness, non violence, equanimity, satisfaction, asceticism, donation-charity, fame-goodwill-name, slander-defame are the 20 qualities-feelings, gestures which evolve due to the Almighty in the human beings.
मनुष्य के मस्तिष्क का विकास, सूझ-बूझ, बुद्धि-विवेक, चिन्तन-विचार शक्ति, दूरदृष्टि आदि ऐसे गुण हैं, जो उसे सन्मार्ग की ओर ले जा सकते हैं। सार-निस्सार, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य, साँख्य आदि ज्ञान के अंग हैं। मैं, मेरा, अपना, मोह है और संसार के प्रति विरक्ति असम्मोह है। अपने प्रति किये गए घोर अपराध-गुनाह, को शन करना, बर्दाश्त कर लेना और अपराधी को उसके किये गए कुकृत्य के लिए कहीं भी सज़ा न मिले, यह विचार मन में धारण कर लेना क्षमा है। ऐसा सत्य बोलना जो किसी बेगुनाह को सज़ा से मुक्त करा सके। जैसा देखा, सुना और समझा वैसा ही कहना। सत्य वह जो सुख का कारण बने। दम, शम, इन्द्रियों को अपने-अपने  विषयों से हटाकर अपने वश में करना दम और मन को सांसारिक भोगों के चिंतन से हटाना शम है। शरीर, मन इन्द्रियों को अनुकूल परिस्थिति से हृदय में जो प्रसन्नता होती है वह सुख है। प्रतिकूल परिस्थिति, परिणाम से जो अप्रसन्नता होती है वह दुःख है। सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदि के उत्पन्न होने को भव और लीन होने को अभाव कहते हैं। अपने आचरण, भाव आदि के शास्त्र, लोक-मर्यादा के विरुद्ध होने पर अन्तःकरण में जो अनिष्ट-दुःख की आशंका होती है, वो भय है इसके विपरीत भाव अभय-निडरता है। तन, मन, वचन और देश, काल, परिस्थिति में किसी भी प्राणी को कष्ट ने पहुँचाना अहिंसा है। अनुकूल-प्रतिकूल घटना, व्यक्ति, काल, परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी अंतःकरण-मन में किसी भी प्रकार की विषमता का न होना समता है। कम-ज्यादा जो भी जैसा भी मिल जाये, उसी में संतुष्ट रहना संतोष-तुष्टि है। अपने कर्तव्य-धर्म के निर्वाह में किसी भी प्रकार के कष्ट, प्रतिकूल परिस्थिति का निर्वाह, व्रत-उपवास आदि तप हैं। अपनी नेक-ईमानदारी की कमाई का कुछ भाव सत्पात्र को देना दान है। अच्छे आचरण-वर्ताव, गुण, भाव, कार्यों के कारण समाज-देश में प्रसिद्धि, प्रशंसा यश है। समस्त प्राणियों में इन विभिन्न प्रकार के भावों, सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश परमात्मा से हुई प्राप्य है और वे ही इन सबके मूल में हैं। मत्त: योग, सामर्थ, प्रभाव का और पृथग्विधा: अनेक प्रकार की विभूतियों का द्योतक है। संसार में समस्त शुभ-अशुभ, विहित-निहित, निषिद्ध, सद्भाव-दुर्भावआदि सभी कुछ भवत्वतलीला है। ये जो बीस भाव प्राणियों में बताये गए हैं, प्रभु से ही संचालित हैं। 
Intelligence, development of brain-mind, thoughtfulness, prudence, power to analyse and synthesise, farsightedness, memory-retention are the factors, which can guide one-humans to austerity, piousity, virtuousness, righteousness & the Ultimate-Almighty. Power to understand right or wrong, just or unjust, duty-religiosity are the organs of enlightenment-learning. The preoccupation of mind with I, My, Me, Mine & the ego are illusion-attachment and rejection of worldly possessions-attachment is relinquishment-rejection. Pardon is the quality which allows forgiveness to the culprit for his crime against one and not to think of punishing him under any circumstances.Truth is a quality to report the event as such and to protect an innocent person from punishment. Say what you saw, heard or perceived. Dam is controlling the sense organs and avoiding the subjects-objects of sensual pleasure & Sham is that tendency which forbids one from the thinking-imagination of enjoyments, comforts, luxuries of this destructible-perishable world. Pleasure is happiness attained from the situations, incidents-occurring, attainments in the heart & the pain is caused due to failure, anti-adverse situation, results. Evolution-creation of worldly goods, person, situation-incident, mood, feeling, projection is also Godly act in addition to destruction. Fear comes to one, when he acts against law, person, scriptures, ethics and the power-actions of dreaded criminals.  Non violence is the tendency not to hurt-harm any organism, individual, creature through body, mind, thinking, heart-imagination and the speech. Equanimity is the parity of adverse & favourable situation, event, occurrence, person-organism,  time-cosmic era-death & life, pleasure-pain. Satisfaction means to remain content with whatever has been obtained-earned honesty, through righteous-just means. Asceticism is bearing of difficulties happily, worship of God through fasting, meditating in the lonely places and as a recluse. Donation-charity is the grant for social welfare through own honest-righteous earning to the deserving. Appreciation due to nice-good conduct-behaviour, dealing with others, goodness, qualities is name & fame. These qualities, characteristics, traits, factors comes to one from the Almighty-God, who is at the root of this universe & all that is happening. Assimilation in God, Liberation, Salvation, Yog, strength, power, capacity, impact-effect and various other auspicious qualities are the gifts of the God and whatever is happening is just an act of the Supreme Lord. These 20 qualities of humans are directed-granted by the God. Thus everything-event is a play-act of the Almighty. 
 SALVATION मोक्ष साधना 

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM By :: Pt. Santosh Bhardwaj  

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विधि निषेध रूप कर्म का अधिकारी मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है।  स्वर्ग और नरक लोकों मे रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि इसी शरीर में अंत:करण  की शुद्धि  होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति होती है।  बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग-नरक के भोग प्रधान शरीर-जो किसी  साधन के लिए उपुक्त नहीं हैं अथवा न मानव शरीर की ही कामना  करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी शरीर में गुण बुद्धि और अभिमान हो जाने से, अपने वास्तविक स्वरुप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है। 

Human body which is the recipient of reward-award-Karm Fal of his deeds, in one after another-repeated births and rebirths, is very rare (-obtained only after passing through, 84,00,000 incarnations in lower forms), even the deities, demons, ghosts etc. wish to avail it. Inhabitants of Heavens and Hells crave for this material -physical body. In fact one is extremely lucky to have obtained it. One can perform prayers and like to attain Salvation, through it. This human body is capable to cleanse the internal faculties associated with the soul. An intelligent or enlightened, will not desire to have a divine or even the human embodiment, since they will abstain him from Liberation-Assimilation in the Almighty. Which ever body is possessed by the soul, is bound to generate intoxication-ego-pride-suffering, ultimately.

यद्पि यह मानव रुपी शरीर मृत्यु  को अवश्य प्राप्त होगा तथापि इसके द्वारा परमार्थ की सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है।  बुद्धिमान पुरुष को चाहिए यह बात जानकर मृत्यु  पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिए छूट जाये- मुक्त हो जाये। 

Who so ever is born, is bound to die-perish. Still the human being can make use of this body for the ultimate bliss-eternal truth-ecstasy. The intelligent-enlightened should be careful enough, to understand this  and subject-prepare himself for the attainment of the Ultimate, so that he becomes free from movement from one incarnation to another.

8 PREREQUISITES-ESSENTIALS OF SALVATION मोक्ष प्राप्ति हेतु आठ आत्म गुण

(1). PITY-MERCY :: One  should take Pity-mercy on all creatures-organisms. One may be kind hearted. Kindness-pity-mercy help in paving path to Salvation. One must utilize discretion before extending a helping hand. At occasions it is misused, as a tool-means to extract some thing-favors. Think before you extend a helping hand, whether the person is deserving or not? If the help is going into wrong hands. Often people utilize the help against the person, who helped them. Be alert.

दया: (अपने दुःख में करुणा तथा दूसरों के दुःख में सौहार्द-स्नेहपूर्ण सहानुभूति) समस्त प्राणियों पर दया करना। दयालु होना अच्छी बात है। यह मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है। किसी भी प्राणी पर दया करने से पहले विचार कर लेना चाहिए कि वह इस लायक है भी या नहीं। ऐसा न हो कि आपकी दया का कोई नाजायज फायदा उठा रहा हो, जैसा कि अक्सर ही होता है। कोई भी निर्णय सोच समझ कर ही करना चाहिए। दया की पात्रता भी आवश्यक है। ऐसा भी हो जाता है कि आपकी सहायता  को आपके विरुद्ध ही इस्तेमाल किया जा रहा हो। अत: सावधान होकर ही ऐसा करो। दया धर्म का मूल है। 

दया के समान धर्म, तप, मित्र, दान नहीं है। पुण्य का दान करने वाला मनुष्य सदा लाख गुना प्राप्त करता है। दया से धर्म की वृद्धि होती है मनुष्य की बुद्धि सदा दान और दया में दृढ़ रहनी चाहिए। 

(2). PARDON:  He teased-troubled you time and again and said sorry-please excuse me, each time he offended. You pardoned him every time, he said sorry. It emboldened him and he identified a weak person in you, who can be humiliated easily-repeatedly. How long will you tolerate him? Let him be punished, otherwise he will not mend-change his ways-mentality-style of working-mode of functioning. Pardons-forgiveness only make him a bigger-dreaded criminal. Let this bud be killed in the nip. Such people deserve to be behind the bars-put in secluded-deserted-isolated places, eliminated all together, for ever. As per dictates of the Almighty one will have to be undergo the fruits of his deeds-good for good, bad for bad.

Even if they are pardoned here, they will have to suffer for their misdeeds in successive rebirths-but, who will witness this?

To forgive is divine and constitute Satvik characteristic, paying  the way to divinity-Salvation.

क्षमा: क्षान्ति-बिना क्षमा मांगे ही क्षमा करना। (-निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन, और वध तथा दूसरों के क्रोध से उत्तपन्न होने वाले दोषों को सह लेना, धर्म का साक्षात साधन है) संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आप को बार बार दुःख पंहुचाते हैं। फिर मांफी मांग लेते हैं। जब भी उसने मांफी मांगी, आपने उसे मांफ कर दिया। इससे वह और भी कठोर और निष्ठुर हो गया। उसे आपके अन्दर एक ऐसा आदमी मिल गया, जिस को कभी भी कहीं भी प्रताड़ित किया जा सकता है, सताया जा सकता है। कब तक बर्दाशत करोगे ? उसे सजा मिलने दो, अन्यथा वह नहीं सुधरेगा। ऐसी कांटे को निलने से पहले ही मसल दो। ऐसे लोगों को तो समाज से दूर जेल में ही होना ही चाहिए। उन्हें समाप्त कर दो हमेंशा के लिए। 

उन्हें यहाँ भले ही मांफी मिल जाये, भगवान से मांफी कभी नहीं मिल सकती। परमात्मा का नियम है कर्म का फल अवश्य मिलेगा -बुरे को बुरा , भले को भला। पर वहां ये सब हम कैसे देखंगे ?

क्षमा करना एक सात्विक गुण है जो कि दैव मार्ग-मोक्ष का द्वार खोलता है। 

(3). CONSOLATION:(-To assure-console the worried-pained and protect him) Assure-console the worried-pained and protect him. When one console the worried-grieved, he becomes calm and quite. In due course of time his grief is reduced considerably. He becomes normal. At occasions he is afraid of some one/enemy/invaders/terrorists/animal/ghost and you are capable of protecting him. Give him shelter-asylum, but ensure that he may not target you in future. Protection granted to dreaded enemies often back fires.

There are instances when protection was granted and the protected  attacked the protector. Take the case of venomous snakes. They may attack you any time, even if you feed/protect them. Its a part of their nature. If you are capable of protecting yourself from such attacks, proceed; otherwise not.

To protect the sinner is sin.

आश्वासन: दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना। रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाये पर वचन न जाई। अगर आप में सामर्थ है तो ऐसा करो अन्यथा कतई नहीं। पृथ्वीराज चौहान का उदाहरण याद रखो। 17 बार छोड़ने के बाद भी मौह्म्मद गौरी ने अन्त में बंदी बना लिया। पापी कि रक्षा करना भी पाप है। दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना। 

(4). JEALOUSY :: Jealousy create unfounded desires-competition-anonymity-rivalry, which results in  tensions-unrest-instability of  mind.  One may become nervous. He dreams too big but make no/little effort for achieving his goal-target-ambitions. If unsuccessful in his ventures, he should remove weaknesses of his system-design-working, in stead of having ill will-grudge for others-competitors. He find other people acquiring all sorts of amenities of life and start craving for them. Envy develops hate-repulsion for those who have attained what he could not. This is a state of mind which can motivate him to commit a crime of any magnitude. It may create brain disorders. Enmity leads to sins and hell, ultimately. One should make efforts to eliminate spite-grudge and seek asylum in the Ultimate. Do not to have envy-anonymity-enmity with any one.

ईर्ष्या: जगत में किसी से ईर्ष्या-द्वेष न करो। दुर्योधन बचपन से ही पाण्ड़वों से ईर्ष्या रखता था। वो उनसे किसी भी बात में सानी नहीं रखता था। इसी वजह से उसने, उनके राज्य को हड़पना चाहा। उसकी तृष्णा बढ़ती ही गई और इसकी परिणति महाभारत में हुई और उसका कुल नाश हो गया। मनुष्य को जगत में किसी से भी ईर्षा-द्वेष नहीं  करना-रखना चाहिये। 

(5). PURITY-PIOUSITY-VIRTUOUSNESS: Internal purity is connected to the mind-thoughts-ideas-concepts-visualization of things-happenings. Our soul perpetuate from one life to another vibrating from incarnation to another depending upon the deeds, our performances in respective births. Often we think-act through our perception of likes or dislikes, what pleases us make us react. We give more weightage to our relations determined by heart-attachments. Warnings come from the brain but we prefer to discard them. As a matter of fact one should think twice before acting. Ethics-virtues-purity of thoughts-righteousness-honesty leads to holiness, higher abodes, closer to the God.

External purity is equally important. it involves our behavior-actions-dealings with others-society. What we speak is important.We should not hurt the sentiments of others. One should not insult others. One should avoid watching-listening-mixing with the wretched-vulgar-indecent. Avoid commenting over them as well. Try to adhere to truth-honesty. 

Bathing in holy rivers, shrines, holy places do help us. Regular bathing is equally important since it keep one free from germs, fit and fine.

बाह्य  व आन्तरिक पवित्रता-शुद्धि : मन चंगा तो कठोती में गंगा। बाह्य व आन्तरिक पवित्रता, दोनों ही मनुष्य के भविष्य का निर्धारण करतीं हैं, उसके अगले जन्मों को तय करतीं हैं। 

(6). AUSPICIOUS-PROPITIOUS CEREMONIES माँगलिक कार्य : परिश्रम रहित अथवा अनायास प्राप्त हेतु कार्यों के अवसर पर उन्हें मांगलिक आचार-व्यवहार के द्वारा संपन्न करना।  Events which do not involve labor or occasions which are obtained-comes up instantly, should be celebrated with auspicious rituals-Mantr-Shloks.

(7). HELPING सहायता : One must spend at least 1/6th of his earnings over charity-helping the needy-infirm-weak. Its essential to satisfy one self whether the person is wasting the funds provided to him over the prostitutes-narcotics-wine-criminal activities-terrorism. Do not to hold back the strings of the purse, while helping the poor-down trodden, with the earned by own labor-efforts.If the funds provided by you are used on evil-wicked acts, the recipient will drag you to the hells along with him.

जहाँ तक सम्भव हो मनुष्य को जरूरत मंद व्यक्ति-असहाय-कमजोर की  सहायता अवश्य करनी चाहिए। फिर भी यह आवश्यक है कि इस बात की जाँच-पड़ताल कर ली जाये कि वह व्यक्ति वास्तव में ही सहायता के लायक है भी या नहीं। कहीं ऐसा न कि आपसे प्राप्त धन से वो शराब-जुआ-वेश्या गमन आदि कर रहा हो। अगर ऐसा हुआ तो वो अपने साथ-साथ सहायता करने वाले को भी नरक में घसीट लेगा। अपने द्वारा उपार्जित द्रव्यों से दीन दुखियों की सहायता करते समय कृपणता-कंजूसी नहीं  बरतनी चाहिए।

(8). DETACHED-UNCONCERNED: One must remain aloof-unconcerned from the wealth and women belonging to others.

पराये धन और पराई स्त्री के प्रति सदा निस्पृह रहना।नारी नरक का द्वार है। दूसरे की धन-संपत्ति छीनने वाला आताताई कहलाता है, शास्त्रों में उसके वध का विधान है। छीनने वाला नरक गामी-अधोगति को प्राप्त होता है।  

These are the means of Karm Yog  and Gyan Yog. Gyan Yog can not be achieved-attained without Karm Yog.

ये कर्म योग व ज्ञान  योग के साधन हैं। कर्म योग के बिना ज्ञान योग की प्राप्ति नहीं होती। [Exerts from Matasy Puran]

PAVING WAY FOR SALVATION 

Yam and Niyam are useful to both types of devotees: The one who works selflessly and the one who want-seek fulfillment of his desires. One who practice  these is granted-blessed-provided with comforts-luxuries enjoyment and Moksh-Liberation, simultaneously. 

 12 YAM: SELF RESTRAINT-CONTROLS-यम

(1). NON VIOLENCE (-अहिंसा) : स्वयं सहित किसी भी जीवित प्राणी को शारीरिक, मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। हत्या न करना। इसका लाभ-किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से जहां सकारात्मक भाव के लिए आधार तैयार होता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंस व्यक्ति के प्रति भी अच्छा भाव रखने लगता है। सभी लोग परस्पर अच्छा भाव रखेंगे तो जीवन में अच्छा ही होगा।अहिंसा परमो धर्म। मांसाहार से सदा बचना चाहिये। व्यर्थ की हिंसा से दूर ही रहना चाहिये। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई तुम पर हमला करे और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो। डट कर मुकाबला करो और आता ताई को समूल नष्ट करो। भगवान बुद्ध और गाँधी जी की अहिंसा की नीति सदैव प्रासांगिक नहीं होती।चाणक्य नीति का अनुसरण समयानुसार उचित है। शान्ति चाहते हो तो युद्ध के लिए तैयार रहो। ब्राह्मण का वध करने वाले को बृह्म हत्या लग जाती है और वो नरक गामी होता है।

ब्रह्महत्या: पूर्व काल में वृत्रासुर और इन्द्र में 11,000  वर्ष तक युद्ध हुआ, जिसमें इन्द्र की हार हुई और वे भगवान शिव के शरणागत हुए। इन्द्र को वरदान प्राप्त हुआ और उन्होंने प्रभु कृपा से, वृत्रासुर का वध किया, जो ब्राह्मण पुत्र था। इस लिये उन्हें ब्रह्म हत्या लग गई। वे ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्महत्या ने इन्द्र के शरीर से हटने के लिये अन्य स्थान माँगा, तो उन्होंने उसे 4 भागों में बाँट दिया। 

पहला भाग अग्नि देव को मिला। जो कोई प्रज्वलित अग्नि में बीज, औषध, तिल, फल, मूल, समिधा और कुश  की आहुति नहीं डालेगा, ब्रह्महत्या अग्नि को छोड़ कर उसे लग जायेगी।

दूसरा भाग वृक्ष, औषध और तृण को मिला। जो कोई व्यक्ति मोह वश अकारण, इन्हें काटेगा या चीरेगा, ब्रह्म हत्या, इन्हें छोड़ कर उसे लग जायेगी।

तीसरा भाग अप्सराओं को मिला। जो कोई व्यक्ति रजस्वला स्त्री से मैथुन करेगा, यह तुरन्त उसे लग जायेगी।  

चौथा भाग जल ने गृहण किया। जो व्यक्ति अज्ञानवश जल में थूक, मल-मूत्र डालेगा, वही ब्रह्महत्या का निवास बन जायेगा। 

प्राचीन काल से ही कोई भी न्यायाधीश, इस भय से ब्राह्मण को प्राण दण्ड नहीं देता था। 

(2).TRUTH-सत्य : Speak the truth. God is Ultimate truth-reality. Its a means to attain Salvation. But always speak the truth which is not going to harm any one, un necessarily-without reason-logic.Truth always triumphs. Truth is truth. One who do not speak the truth reserves his seat in hells.

सत्य: सत्य से मनुष्य  इस लोक पर विजय पाता है। यह परम पद है। सदा सत्य बोलो। मृत्यु सत्य है।परमात्मा-ब्रह्म ही अन्तिम सत्य है। 

LIE-झूंठ : A lie for the sake of humanity-welfare of mankind-to save an innocent person from ruin-disaster-torture-imprisonment-misery-cruelty is better than a plain truth.

एक ऐसा झूंठ जो किसी निर्दोष की रक्षा करता हो वह एक सत्य से उत्तम है।सत्य वादी नाम के तपस्वी सरस्वती के तट पर तपस्या के रहे थे।एक व्यापारी लुटेरों से बचने के लिए उनके पास आया तो उन्होंने उसे कुटिआ के अन्दर छुपा दिया। लुटेरे उसे ढूंढते हुए वहाँ आये तो, अन्दर इशारा कर  दिया।  भगवान श्री कृष्ण ने ऐसे सत्य को असत्य से भी हीन-बुरा माना।

सत्य ही परम मोक्ष, उत्तम शास्त्र, देवताओं में जाग्रत् तथा परम पद है। 

तप,यज्ञ,पुण्य कर्म, देवर्षि-पूजन,आद्य विधि और विद्या सत्य में प्रतिष्ठित हैं। 

सत्य ही यज्ञ, दान और सरस्वती है। 

सत्य ही व्रतचर्या और ॐ कार है। सत्य से वायु चलती है, सूर्य तपता है, आग जलती है और स्वर्ग टिका हुआ है। 

सत्यवादी देवताओं के पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त  कर लेता है।

सम्पूर्ण यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा ही भारी है। 

देवता, पितर और ऋषि सत्य में ही विश्वास रखते हैं।

सत्य ही परम धर्म और परम पद है। 

यह ब्रह्म स्वरूप है। जो मनुष्य अपने, पराये अथवा पुत्र के लिये भी असत्य भाषण नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं। ब्राह्मणों में वेद, यज्ञ तथा मंत्र निवास करते हैं। किन्तु जो ब्राह्मण सत्य का परित्याग कर देता है उसमें ये शोभा नहीं देते-उसका त्याग कर देते हैं।

अतः मनुष्य को सदैव सत्य भाषण ही करना चाहिये।  [पद्मपुराण ]   

(3). SELF RESTRAINT FROM STEALING-THEFT (ASTEY अस्तेय): Stealing leads to hells. One must not steal. चोरी एक ऐसा अपराध है, जो मनुष्य को नर्क ले जाता है और वहाँ से मुक्ति के तदुपरान्त हीन योनियों में जन्म प्रदान करता है। चोरी करने वाला, चोरी का माल खरीदने वाला, बेचने वाला बराबर के अपराधी हैं।

(4). IRRELEVANCE (-not to have unwanted-irrelevant company, असंगता) : Undesirable company is always bad. One learns all sorts of evils-bad deeds-bad habits which puts him in trouble time and again. It takes one to Shaitan away from the God and paves the way for Hells. Some times, one is dragged to notoriety unknowing. The parents should be extremely careful, while handling the child. He should be nursed properly. The parents should teach-elaborate-discuss the epics, scriptures along with the teachings of renowned people-sages.

(5). SHAME शर्म-हया-लज्जा : Bashfulness-modesty is like an ornament. One who cares for his parents-teachers-elders-God avoid such acts in front of them, which are not good-which are considered bad or anger them; to be done in front of others like sex, nudity, easing, urinating, smoking, drinking or the taboo. This is a manner to show respect-regard for them. सामाजिक मर्यादा का पालन हर मनुष्य को करना चाहिये।लज्जा स्त्री का गहना है। 

(6). ACCUMULATION (-no need to add-accumulate wealth, funds असंचय (-आवश्यकता से अधिक धन नहीं जोड़ना) : One should have sufficient money to fulfill his needs after retirement and in an hour of need. People make investments-bank deposits for lean season. All religious ceremonies needs money and no activity can be performed without money. One should assess his needs and act accordingly. One should have sufficient funds for donation-charity and to avoid loans-begging. Accumulated wealth invites cheats-thugs-thieves-dacoits-bandits-criminals and even the state to steal-snatch it.One should not be a miser.पूत  कपूत तो क्यों धन संचय, पूत  सपूत तो क्यों धन संचय। जोड़-जोड़ मर जायेंगे, मॉल जमाई खायेंगे। कहते हैं धन संग्रह करने वाला उसकी रक्षा करने के लिए साँप बनता है। 

(7). FAITH IN GOD-RELIGION आस्तिकता-आस्था: We are the most valuable creations of God. One must have faith in Him. He is always with us. Religiosity and Atheism (-a belief that there is no God) are two phenomenon, which act in opposite directions, never to meet. India is a country where, majority of populations constitute of  the followers of Hinduism-The Sanatan Dharm, ancient way of life.  It's a very very liberal community. इसे ईश्वरवाद भी कहा जाता है। 

Religiosity makes one pious-virtuous-honest-a kind hearted person and improves the incarnations in future.

(8). CELIBACY-ASCETICISM ब्रह्मचर्य : It connects one with the God. It retains the vigor, health, potency, memory, strength of a person. It protects one in an hour of need. The student life up to the age of 25 years is considered to be meant for celibacy. One is not supposed to interact with opposite sex during this period. While one is out of the Ashram for begging alms he has to keep his eyed down facing earth, and call every women Mata-mother.

(9). SILENCE मौन: कम बोलना अच्छी आदत है। चुप रहना, व्यर्थ की बातचीत-बकबास-वाद विवाद से अच्छा है। इससे ऊर्जा की बचत होती है और ध्यान केन्द्रित रहता है। एकांत-वन-गुफा  में रहना, घर-गृहस्थी में रहकर कम बोलने से-न बोलने से आसान है। इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। विवाद में फँसने से अच्छा  है, बात को हँसकर टाल देना-तूल न देना-माँफी मांग लेना। जिन लोगों को हर वक्त बकर-बकर करने की आदत होती है, उनसे दूर ही रहना चाहिये । एक चुप सौ को हराता है। 

इसका अर्थ यह नहीं है कि जरुरत के वक्त भी मौन रहो। आवश्यकता पड़ने पर अपनी बात पूरे जोर-शोर-दबाब से कहो।

Silence is Golden. It does not detach one from the living world. It brings peace, solitude, equanimity with it. It transcends  a person to the eternal. One goes beyond or outside the range of human experience-reason-belief-power of description. Silence can be used as a tool for eloquence-skillful use of language, to persuade or to appeal to the feelings, fluent speaking.  

Powerful-strong pulses of brain waves start pushing through the space and are received by the devotee-seeker bringing about a  complete change-metamorphosis in the thoughts pattern-ideas, granting him devotion-prudence-enlightenment. Piousness of thoughts enchant the ascetics all around-all over. Holy person generate-transmit, harmony-peace-solace-tranquility-calm-quietness to the recipients. A stage is reached, where body consciousness, along with thoughts, pertaining to others, pervading the mind, disappear automatically, leaving behind the  worshiper, enchanted with the Supreme. 

(10). STABILITY स्थिरता : One should be stable in stead of moving from one place to another. He should be not be flickering mind. Those who meditate-concentrate in God stay at one place in solitude year after year. Having adopted the life of a sage-recluse they do not turn to family way-house hold.

(11). FORGIVENESS-PARDON क्षमा : To forgive is divine. One who is capable of containing the aggression-threat-attack may pardon the guilty but only after ascertaining that he will not be able to tease-torture again. Instead of hanging the guilty, let him be may be put to life sentence-imprisonment, till death. Mohammad Ghouri attacked India 17 times and was pardoned by Prathvi Raj Chauhan (-incarnation of Dhrat Rashtr)  on 16 occasions. At last he was successful. He  caught and blinded Prathvi Raj Chauhan and took him to Kabul in a cage. One should be able to crush such people; or else eliminate them at once. क्षान्ति-निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वध को तथा दूसरों के क्रोध से उत्तपन्न होने वाले दोषों को सह लेना। बिना क्षमा मांगे ही क्षमा करना। 

(12). LONELINESS अमय : The sages-saints-ascetics wander alone and move out of the periphery-boundaries of residential areas before it becomes dark. भगवत भक्ति-भजन-चिन्तन-स्मरण एकांत में ही करना चाहिये ताकि मन की  शान्ति-एकाग्रता बनी रहे। चित्त उद्विघ्न न हो, चिन्ताएँ न हों, सब तरफ शान्ति ही शान्ति हो।  

12 NIYAM-SANCTIONS-RULES

12 Niyam-Sanctions-Rules: Shouch-cleanliness (-external, outer and inner purity), Jap-chanting, Tap- tenacity-meditation, Hawan-Agnihotr-sacrifice in fire, faith, serving- welcoming guests, Bhagvat Bhajan (-recitation of the names of God), worship, pilgrimage, efforts to help the needy-poor-down trodden -charity, contentment-satisfaction,  serving the mentor- master-teacher-educator.

SHUM-TRANQUILITY शम : Enlightenment-dedication of all faculties-intellect in the divinity through absence of passions-peace of mind-quiet-rest. Channelize all of one's efforts-energy-power to assimilate in the Eternal-Ultimate. Intentional cultivating an inner attitude of tranquility, peace of mind, or contentment is a foundation on which the other practices can rest. 

DUM TRAINING DISCIPLINE दम : Training of the senses (-indriy, इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in our actions in the world and the nature of inner thoughts we cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions.  Restraint of the senses-sensuality-passions-mortification-subduing feelings.

Endurance: Bearing of sorrow-pains by virtue of justice.

PATIENCE: Control-Victory over tongue and genitals (-vagina, pennies), sex organs-passions, sensuality.

DONATION CHARITY दान: Giving alms, food, shelter, asylum, protection-safety, financial help to the needy-one who deserve.

अन्न दान: अन्न के समान न कोई दान है, न होगा। कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को उचित है कि वह अपने कुटुम्ब को कष्ट देकर भी महात्मा ब्राह्मण को दान अवश्य दे। थके मांदे अपरिचित राहगीर को जो बिना क्लेश अन्न (-भोजन) देता है, वो सब धर्मों का फल प्राप्त कर लेता है। अन्न से देवता, पितर, ब्राह्मण और राहगीर को तृप्त करने वाला, अक्षय पुण्य प्राप्त करता है। अन्न दान पाप से मुक्ति दिलाता है। ब्राह्मण को दिया अन्न दान अक्षय और शुद्र को दिया गया दान महान्  पहल दायक है। 

जल दान: बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके बनवाये गये जलाशय से गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष पानी पीते हैं, उसका कुल तर जाता है।पोखरा बनवाने वाला, तीनों लोक में सम्मानित होता है। मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशय का सहारा लेते हैं।जिसके पोखरे में वर्षा ऋतु में ही जल रहता है, उसे अग्निलोक का फल मिलता है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर काल तक जल ठहरता है, उसे सहस्त्र गौ दान का फल मिलता है। वसन्त और ग्रीष्म ऋतु तक पानी ठहरने पर मनीषी पुरुष अतिरात्रि और अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त करता है। जिसके पोखरे में गर्मी तक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकट का सामना नहीं करता।

वृक्ष लगाना : वृक्ष लगाने वाला अपने पितर और वंशजों का भी उद्धार कर  देता है और अक्षय लोकों को प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलों से देवताओं, पत्तों से पितरों, छाया से समस्त अथितियों का पूजन करते है। किन्नर, राक्षस, मानव, देवता, ऋषि, यक्ष तथा गन्धर्व भी वृक्षों का आश्रय लेते हैं। वृक्ष फल और  फूल से युक्त होकर इस लोक में मनुष्यों को तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोक में भी पुत्रवत माने गये हैं। 

पशु दान : जो श्रेष्ठ पात्र को गौ, भैंस, हाथी, घोड़े दान देता है, वो अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। 

धन व वस्त्र दान : जो व्यक्ति सुपात्र को धन, सुवर्ण, धान्य, वस्त्र दान करता है, वो परम गति को प्राप्त करता है।

अति दान: गौ दान, भूमि दान व विद्या दान अति दान कहलाते हैं। 

भूमि दान : जो व्यक्ति सुपात्र को जोती-बोई एवं फलों से भरी हुई भूमि दान करता है, वो अपनी दस पीढ़ी पहले के पूर्वजों व दस पीढ़ी बाद के वंशजों को तार देता  है और विमान में बैठ कर विष्णु लोक जाता है।

दीप दान : दीप दान करने से मनुष्य सौभाग्य, अत्यन्त निर्मल विद्या, आरोग्य, परम उत्तम समृद्धि  के साथ-साथ सौभाग्यवती पत्नी, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र तथा अक्षय सम्पत्ति पाता है। ब्राह्मण ज्ञान, क्षत्रिय उत्तम राज्य, वैश्य धन और पशु तथा शुद्र सुख की प्राप्ति करता है। कुमारी कन्या को शुभ लक्षणों से युक्त पति, पुत्र-पौत्र तथा बड़ी आयु मिलती है और कभी वैधव्य नहीं देखना पड़ता। स्वामी से वियोग नहीं होता। भयभीत परुष भय से तथा कैदी बंधन मुक्त हो जाता है। दीपदान ब्रह्म हत्या, मानसिक चितां तथा रोगों से भी मुक्ति दिलाता है। दीप का प्रकाश दान करने से मनुष्य रूपवान्  होता है और दक्षिणा देने से स्मरणशक्ति  तथा मेधा (-धारणा शक्ति)   प्राप्त होता है। 

जो लोग मंदिर के दिए में सदा ही यथाशक्ति तेल और बत्ती डालते हैं, वे परम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति स्वयं असमर्थ होते हुए बुझते या बुझे हुए दिए की सूचना देते हैं, वे भी परमधाम के अधिकारी होते हैं। यदि कोई भीख मांगकर भी भगवान विष्णु के सम्मुख दिया जलाता है, तो वो भी पुण्य का भागीदार हो जाता है। दीपक जलाते समय यदि कोई नीच पुरुष भी श्रद्धा से हाथ जोड़कर उसे निहारता है, तो वो भी विष्णुधाम को जाता है। दूसरों को भगवान के सम्मुख दिया जलाने की सलाह देने वाला भी सब पापों से मुक्त हो श्री धाम प्राप्त करता है। अतः मनुष्य को यथा सम्भव भगवान के सम्मुख या मार्ग में राहियों कि सुविधा के लिए दिया अवश्य जलाना चाहिए। [पद्मपुराण]

जो सदा सत्य बोलते हैं, पोखरे के किनारे वृक्ष लगा ते हैं, यज्ञानुष्ठान करते हैं, वे कभी स्वर्ग से भ्रष्ट नहीं होते।दान का पात्र : पुराण वेत्ता पुरुष दान का सर्व श्रेष्ठ पात्र है। वह पतन से त्राण करता है, इसलिए पात्र है। ब्राह्मण शांत होने के साथ ही विशेषतः क्रियावान् हो। इतिहास-पुराणों का ज्ञाता, धर्मज्ञ, मृदुल स्वभाव का पितृ भक्त, गुरुसेवा परायण तथा देवता-ब्राह्मणों का पूजन करने वाला हो। वो गुणवान, जितेन्द्रिय, तपस्वी हो।  जो ब्राह्मण श्रोतिय, कुलीन, दरिद्र, संतुष्ट, विनयी, वेदा भ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और इन्द्रिय संयमी हो उसे ही दिया गया दान अक्षय होता है। 

Tap-Tenacity: Asceticism, Renunciation-rejection-conquering of desires. Reject all desires.

Shrurut-valor: Conquering passions-sensuality-desires.

Saty-Truth: Experiencing-visualizing the equanimity-true divinity, all around,(-just speaking of truth is not sufficient).

Shrt:  Speaking the truth and pleasant-speech that consoles-soothes the listener.

Shouch-purity: Not to indulge in desires. 

Sanyas-retirement: Renunciation of desires-detachment.

Wealth: Religiosity-piousity-righteousness is true-intended, for humans.

Yagy-Sacrifice: God himself is Yagy (-the one who accepts all offerings).

Dakshina:  Blessing with enlightenment-knowledge.

Pranayam-Yog: Pranayam generates-provides great strength force.

Bhag-vulva: The divine-superhuman power of God.

Labh-Gain-Advantages: Great devotion-subjecting one, to the dictates of God, is excellent form of Bhakti-devotion.

Vidya-Lore-Learning-Education: Eliminates the distinctions between the Brahm and Soul (-jeev-organism), difference between the divine and the soul disappears.

Lajja-Shame: To treat sin as a hate (-ghrana, घृणा)-taboo-disgrace.

Shree: True-real neutrality, absolute form.

Pleasure-Pain: Equanimity between pleasure and pain (-comforts and sorrow) is real-true pleasure.

Grief: Desire for passions-sensuality. 

Pundit-Scholar-Philosopher-Priest: Knows the gist-extract-nectar-elixir of attachment and Salvation.

Stupid:  One attached with the body, (-does not think beyond the current birth, life after death and improvement of the next births).

Sumarg-Good Company: The path which detaches the creature-organism from the world and connects-attaches with the Almighty. 

Kumard-misled-Bad Company : Indecent path which lures one, towards the world (rejection of the devil, bad company, wicked-wretched-evil). 
Heaven :: Increase-enhancement of Satv Gun-divinity.
WITHDRAWAL (uprati, उप्रति) :: With a proper inner attitude of tranquility and the training of the senses, satiety, natural sense of completeness, one should not seek sensory experiences. Saturation, satisfaction may also provide an outlet to safely move to the shelter of the Almighty.
FORBEARANCE (titikksha, तितिकक्षा) :: Forbearance and tolerance of external situations allows one to be free from the onslaught of the sensory stimuli and pressures from others to participate in actions, speech or thoughts, that one knows to be going in a not-useful-evil-wicked direction. 
FAITH (shraddha, आस्था, विश्वास, श्रद्धा) :: Faith in God should be essential-integral part of an individual. Mutual faith too is essential in a family-household, society. Faith in the scriptures, epics, sermons of the holy souls,  saints and the ruler are necessary. An intense sense of certainty about the direction one is going to keep  in the right direction, persisting in following the teachings and practices that have been examined and seen to be productive, useful, and fruit bearing. 

SOLUTION (-samadhan, समाधान): Resolute focus towards harmonizing and balancing of mind, its thoughts and emotions, along with the other virtues, brings a freedom to pursue the depth of inner exploration and realization. 

मोक्ष मार्ग के सहायक ::
12 यम :: अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना ), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्कता से अधिक धन नहीं जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा, अमय। 
12 नियम :: शौच (बाहरी और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा, भगवत भजन, तीर्थ यात्रा, परोपकार की चेष्टा, संतोष व गुरु सेवा। 
यम-नियम सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधनों के लिए उपयोगी हैं। पुरुष के द्वारा इनका प्रयोग-पालन, उसे इच्छानुसार भोग और मोक्ष प्रदान करता है।
विज्ञान :: छहों अंग, चारों वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय शास्त्र, पुराण और धर्म शास्त्र। धर्म की वृद्धि, विधि पूर्वक विद्याद्ययन करके धन का उपार्जनकर धर्म-कार्य का अनुष्ठान। 
सदा आत्म चिन्तन :: अक्षर -अविनाशी पद को अध्यात्म समझना-जहां जाकर मनुष्य शोक में नहीं पड़ता। 
ज्ञान :: जिस विद्या से षड्विध ऐश्वर्य युक्त परम देवता साक्षात भगवान् हृषिकेश का ज्ञान होता है।वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। 
शम :: बुद्धि का परमात्मा में लग जाना। बुद्धि की निर्मलता। मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहां से हट जाये।  
आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों।
आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण।
दम :: इंद्रियों को वश में रखना-संयम दम  है। शरीर की उपरामता। 
तितिक्षा :: न्याय से प्राप्त दुःख को सहने का नाम तितिक्षा है।
धैर्य :: जिव्हा व जननेद्रिय पर विजय, धैर्य है। 
दान :: किसी से द्रोह न करना, सबको अभय देना दान है।
दया :: अपने दुःख में करुणा तथा दूसरों के दुःख में सौहार्द पूर्ण सहानुभूति जो कि धर्म का साक्षात साधन है। 
तप :: कामनाओं का त्याग।अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।  मन का संतुलन बनाए रखना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है।
उत्साह एवं प्रसन्नता से व्रत रखना, पूजा करना, पवित्र स्थलों की यात्रा करना। विलासप्रियता एवं फिजूलखर्ची न चाहकर सादगी से जीवन जीना। इंद्रियों के संतोष के लिए अपने आप को अंधाधुंध समर्पित न करना भी तप है।
जीवन में कैसी भी दुष्कर परिस्थिति आपके सामने प्रस्तुत हो, तब भी आप दिमागी संतुलन नहीं खो सकते, यदि आप तप के महत्व को समझते हैं तो। अनुशासन एवं परिपक्वता से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्रा‍प्त की जा सकती है।
शूरता :: अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना। Win-over power-control each and every kind of lust-instincts.
सत्य :: सर्वत्र सम स्वरूप,  सत्य स्वरूप,  परमात्मा का दर्शन ही सत्य है। Visualisation of the Almighty who is truth, in each and every one-organism-God's creations.
श्रत :: सत्य व मधुर भाषण ही सत्य है। Speak the pleasant truth.
शौच :: कामनाओं में आसक्त न होना। मन, बुद्धि, इन्द्रियां, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। Rejection all needs-desires-wants. 
सन्यास :: कामनाओं का त्याग। Rejection-relinquishing  of the world
धन :: धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट धन है। Religion-pious-virtuous-righteous duties is the only religion
यज्ञ :: परमेश्वर-शिव ही यज्ञ है। The Almighty is Yagy-all prayers-Agnihotr-sacrifices are offered to him.
दक्षिणा :: ज्ञान का उपदेश। Preaching advising enlightenment-eternal truth.
प्राणायाम :: प्राणायाम ही श्रेष्ठ बल  है। Pranayam-Yog is the Ultimate strength.
भग :- परमात्मा का ऎश्वर्य है। Only wealth-luxury is the attainment of the Almighty.
लाभ :- परमात्मा की श्रेष्ठ भक्ति ही लाभ है।Devotion to the ultimate God is the only gain-profit, attained through this perishable body.
विद्या :- सच्ची विद्या वही है, जिससे परमात्मा और आत्मा का भेद मिट जाता है। The real learning is one which clears the difference between the soul and the Almighty.
लज्जा :- पाप करने से  घृणा  का नाम ही लज्जा है।hatred towards sin real shame.
श्री :- निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौन्दर्य-श्री है। Neutrality is the real beauty.
सुख :- सुख व दुःख दोनों की भावना का सदा  के लिये नष्ट हो जाना सुख है।The vanishing of the feeling of pain and pleasure is the real happiness. 
दुःख :- विषय भोगों की कामना ही दुःख है। Desire of pleasure is real worry-pain.
पंडित :- जो बंधन और मोक्ष का तत्व जनता है, वही पंडित है।  One who understands the gist of attachment and Salvation is the Philosopher-Pundit-Scholar.
मूर्ख :- शरीर आदि में जिसका मैं पन-अपना पन-लगाव  है, वही मूर्ख  है। One suffering from the feeling of I-My-Me-Egotism is the real imprudent-Idiot-fool.
सुमार्ग :- जो संसार की ओर से निव्रत्त करके परमात्मा की प्राप्ति करा देता है, वही  सच्चा सुमार्ग है। The path which leads to detachment and relinquishing this world is the right-correct path-way.
कुमार्ग :- चित्त की वहिर्मुखता  ही कुमार्ग है। 
स्वर्ग :- सत्व गुण की वृद्धि ही स्वर्ग है। 
नरक :- तमो गुण की वृद्धि ही नरक है। 
बंधु :- गुरु परमात्मा की प्राप्ति ही सच्चा भाई बंधु  है।  
घर :- मनुष्य शरीर ही सच्चा घर है। 
धनी :- सच्चा धनी वह है, जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है। 
दरिद्र :- जिसके चित्त में असंतोष है,अभाव का बोध है, वही दरिद्र है। 
कृपण :- जो जितेन्द्रिय नहीं है,वही  कृपण है। 
ईश्वर :- समर्थ, स्वतंत्र और ईश्वर वह है, जिसकी चित्त वृति विषयों में आसक्त नहीं है। 
असमर्थ :- जो विषयों में आसक्त है ,वही  सर्वथा असमर्थ है। 
इनको समझ लेना ही मोक्ष-मार्ग के लिए सहायक है । 
गुणों और दोषों पर द्रष्टि  जाना ही सबसे सबसे बड़ा दोष है । 

गुण दोषों पर द्रष्टि नहीं जाना, अपने नि संकल्प स्वरूप में स्थित रहना -ही सबसे बड़ा गुण है। 
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌। 
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥श्रीमद्भगवद्गीता 8.24॥ 
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय-प्रकाशस्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अधिपति देवता है, उस मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर) पीछे ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्लपक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्लमार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्लपक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्लपक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद: परमात्मा परोक्षरूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्षरुप रूप से जाननेवालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है। 
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gun (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्षक्रम में :: (1). अग्नि: :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति: :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अहः :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं। (1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है]
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों में मोक्ष ही श्रेष्ठ है। 84,00,000 योनियों से गुजरने के बाद ही मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। अतः यह जन्म अति दुर्लभ है। 
"जन्तूनां नरजन्म दुर्लभतरम्"।  
इसलिए प्रत्येक मनुष्य के जीवन का प्रधानतम लक्ष्य मोक्ष होना चाहिये और इसके लिये उसे दिन-रात निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिये। जो व्यक्ति विषय-भोगों में उलझकर ऐसा नहीं करता, वो निश्चय ही दो पैरों वाला पशु ही है। 
लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुति पार दर्शनम्। 
यस्त्वातम्मुक्तौ न यतेत मूढधीः  स ह्यात्महा स्वं  विनिहन्त्यसद्ग्रहात्  
यदि किसी प्रकार-पुण्य विशेष से, परम दुर्लभ मानव जन्म पाकर उसमें भी सम्पूर्ण श्रुतियों का आद्योपान्त अनुशीलन करने वाले पुरुष शरीर को पा लेने पर भी, जो मूढ़ चित्त मानव अपनी मुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह आत्म हत्यारा है। वह अनित्य भोगों में फँसे रहने के कारण अपने आपको विनाश के गर्त में गिरा रहा है। 
"श्रोत्वयो मन्तव्यो निधिध्यासितव्य:" 
आत्मज्ञान के लिये श्रवण, मनन और निधिध्यासन, इन तीन साधनों का प्रयोग करे। 
कर्मत: प्राप्त हुए लोकों की परीक्षा करके-उनकी अनित्यता भली-भाँति समझकर, ब्राह्मण उनसे विरक्त हो जाये; क्योंकि कृत-अनित्य कर्म से अकृत-नित्य आत्मतत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। वह आत्मज्ञान के लिये हाथ में समिधा लेकर ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय गुरु की ही शरण में जाये।  
विधि निषेध रूप कर्म का अधिकारी मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक लोकों मे रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि इसी शरीर में अंत:करण  की शुद्धि  होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति होती है।  बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग-नरक के भोग प्रधान शरीर-जो किसी साधन के लिए उपुक्त नहीं हैं अथवा न मानव शरीर की ही कामना  करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी शरीर में गुण बुद्धि और अभिमान हो जाने से, अपने वास्तविक स्वरुप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है।
Human body which is the recipient of reward-award-Karm Fal of his deeds, in one after another-repeated births and rebirths, is very rare (-obtained only after passing through, 84,00,000 incarnations in lower forms), even the deities, demons, ghosts etc. wish to avail it. Inhabitants of Heavens and Hells crave for this material-physical body. In fact one is extremely lucky to have obtained it. One can perform prayers and like to attain Salvation, through it. This human body is capable to cleanse the internal faculties associated with the soul. An intelligent or enlightened, will not desire to have a divine or even the human embodiment, since they will abstain him from Liberation-Assimilation in the Almighty. Which ever body is possessed by the soul, is bound to generate intoxication-ego-pride-suffering, ultimately.
यद्पि यह मानव रुपी शरीर मृत्यु  को अवश्य प्राप्त होगा तथापि इसके द्वारा परमार्थ की सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है।  बुद्धिमान पुरुष को चाहिए यह बात जानकर मृत्यु  पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिए छूट जाये- मुक्त हो जाये। 
Who so ever is born, is bound to die-perish. Still the human being can make use of this body for the ultimate bliss-eternal truth-ecstasy. The intelligent-enlightened should be careful enough, to understand this  and subject-prepare himself for the attainment of the Ultimate, so that he becomes free from movement from one incarnation to another.
8 PREREQUISITES-ESSENTIALS OF SALVATION मोक्ष प्राप्ति हेतु आठ आत्म गुण
(Exerts from Matasy Puran)
(1). PITY-MERCY :: One  should take Pity-mercy on all creatures-organisms. One may be kind hearted. Kindness-pity-mercy help in paving path to Salvation. One must utilize discretion before extending a helping hand. At occasions it is misused, as a tool-means to extract some thing-favours. Think before you extend a helping hand, whether the person is deserving or not? If the help is going into wrong hands. Often people utilize the help against the person, who helped them. Be alert.
दया :: (अपने दुःख में करुणा तथा दूसरों के दुःख में सौहार्द-स्नेहपूर्ण सहानुभूति) समस्त प्राणियों पर दया करना। दयालु होना अच्छी बात है। यह मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है। किसी भी प्राणी पर दया करने से पहले विचार कर लेना चाहिए कि वह इस लायक है भी या नहीं। ऐसा न हो कि आपकी दया का कोई नाजायज फायदा उठा रहा हो, जैसा कि अक्सर ही होता है। कोई भी निर्णय सोच समझ कर ही करना चाहिए। दया की पात्रता भी आवश्यक है। ऐसा भी हो जाता है कि आपकी सहायता  को आपके विरुद्ध ही इस्तेमाल किया जा रहा हो। अत: सावधान होकर ही ऐसा करो। दया धर्म का मूल है। 
दया के समान धर्म, तप, मित्र, दान नहीं है। पुण्य का दान करने वाला मनुष्य सदा लाख गुना प्राप्त करता है। दया से धर्म की वृद्धि होती है मनुष्य की बुद्धि सदा दान और दया में दृढ़ रहनी चाहिए। 
(2). PARDON:  He teased-troubled you time and again and said sorry-please excuse me, each time he offended. You pardoned him every time, he said sorry. It emboldened him and he identified a weak person in you, who can be humiliated easily-repeatedly. How long will you tolerate him? Let him be punished, otherwise he will not mend-change his ways-mentality-style of working-mode of functioning. Pardons-forgiveness only make him a bigger-dreaded criminal. Let this bud be killed in the nip. Such people deserve to be behind the bars-put in secluded-deserted-isolated places, eliminated all together, for ever. As per dictates of the Almighty one will have to be undergo the fruits of his deeds-good for good, bad for bad.
Even if they are pardoned here, they will have to suffer for their misdeeds in successive rebirths-but, who will witness this?
To forgive is divine and constitute Satvik characteristic, paying  the way to divinity-Salvation.
क्षमा :: क्षान्ति-बिना क्षमा मांगे ही क्षमा करना। (निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन, और वध तथा दूसरों के क्रोध से उत्तपन्न होने वाले दोषों को सह लेना, धर्म का साक्षात साधन है) संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आप को बार बार दुःख पंहुचाते हैं। फिर मांफी मांग लेते हैं। जब भी उसने मांफी मांगी, आपने उसे मांफ कर दिया। इससे वह और भी कठोर और निष्ठुर हो गया। उसे आपके अन्दर एक ऐसा आदमी मिल गया, जिस को कभी भी कहीं भी प्रताड़ित किया जा सकता है, सताया जा सकता है। कब तक बर्दाशत करोगे ? उसे सजा मिलने दो, अन्यथा वह नहीं सुधरेगा। ऐसी कांटे को निलने से पहले ही मसल दो। ऐसे लोगों को तो समाज से दूर जेल में ही होना ही चाहिए। उन्हें समाप्त कर दो हमेंशा के लिए। 
उन्हें यहाँ भले ही मांफी मिल जाये, भगवान से मांफी कभी नहीं मिल सकती। परमात्मा का नियम है कर्म का फल अवश्य मिलेगा -बुरे को बुरा, भले को भला। पर वहां ये सब हम कैसे देखंगे ?
क्षमा करना एक सात्विक गुण है जो कि दैव मार्ग-मोक्ष का द्वार खोलता है। 
(3). CONSOLATIONआश्वासन :: (To assure-console the worried-pained and protect him) Assure-console the worried-pained and protect him. When one console the worried-grieved, he becomes calm and quite. In due course of time his grief is reduced considerably. He becomes normal. At occasions he is afraid of some one, enemy, invaders, terrorists, animal, ghost and you are capable of protecting him. Give him shelter-asylum, but ensure that he may not target you in future. Protection granted to dreaded enemies often back fires.
There are instances when protection was granted and the protected  attacked the protector. Take the case of venomous snakes. They may attack you any time, even if you feed/protect them. Its a part of their nature. If you are capable of protecting yourself from such attacks, proceed; otherwise not.
To protect the sinner is sin.
दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना। रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाये पर वचन न जाई। अगर आप में सामर्थ है तो ऐसा करो अन्यथा कतई नहीं। पृथ्वीराज चौहान का उदाहरण याद रखो। 17 बार छोड़ने के बाद भी मौह्म्मद गौरी ने अन्त में बंदी बना लिया। पापी कि रक्षा करना भी पाप है। दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना। 
(4). JEALOUSY ईर्ष्या :: Jealousy create unfounded desires-competition-anonymity-rivalry, which results in  tensions-unrest-instability of  mind.  One may become nervous. He dreams too big but make no/little effort for achieving his goal-target-ambitions. If unsuccessful in his ventures, he should remove weaknesses of his system-design-working, in stead of having ill will-grudge for others-competitors. He find other people acquiring all sorts of amenities of life and start craving for them. Envy develops hate-repulsion for those who have attained what he could not. This is a state of mind which can motivate him to commit a crime of any magnitude. It may create brain disorders. Enmity leads to sins and hell, ultimately. One should make efforts to eliminate spite-grudge and seek asylum in the Ultimate. Do not to have envy-anonymity-enmity with any one.
जगत में किसी से ईर्ष्या-द्वेष न करो। दुर्योधन बचपन से ही पाण्ड़वों से ईर्ष्या रखता था। वो उनसे किसी भी बात में सानी नहीं रखता था। इसी वजह से उसने, उनके राज्य को हड़पना चाहा। उसकी तृष्णा बढ़ती ही गई और इसकी परिणति महाभारत में हुई और उसका कुल नाश हो गया। मनुष्य को जगत में किसी से भी ईर्षा-द्वेष नहीं  करना-रखना चाहिये। 
(5). PURITY बाह्य  व आन्तरिक पवित्रता-शुद्धि :: Internal purity is connected to the mind-thoughts-ideas-concepts-visualization of things-happenings. Our soul perpetuate from one life to another vibrating from incarnation to another depending upon the deeds, our performances in respective births. Often we think-act through our perception of likes or dislikes, what pleases us make us react. We give more weightage to our relations determined by heart-attachments. Warnings come from the brain but we prefer to discard them. As a matter of fact one should think twice before acting. Ethics-virtues-purity of thoughts-righteousness-honesty leads to holiness, higher abodes, closer to the God.
External purity is equally important. it involves our behavior-actions-dealings with others-society. What we speak is important.We should not hurt the sentiments of others. One should not insult others. One should avoid watching-listening-mixing with the wretched-vulgar-indecent. Avoid commenting over them as well. Try to adhere to truth-honesty. 
Bathing in holy rivers, shrines, holy places do help us. Regular bathing is equally important since it keep one free from germs, fit and fine.
मन चंगा तो कठोती में गंगा। बाह्य व आन्तरिक पवित्रता, दोनों ही मनुष्य के भविष्य का निर्धारण करतीं हैं, उसके अगले जन्मों को तय करतीं हैं। 
(6). AUSPICIOUS-PROPITIOUS CEREMONIES माँगलिक कार्य :: परिश्रम रहित अथवा अनायास प्राप्त हेतु कार्यों के अवसर पर उन्हें मांगलिक आचार-व्यवहार के द्वारा संपन्न करना।  Events which do not involve labor or occasions which are obtained-comes up instantly, should be celebrated with auspicious rituals-Mantr-Shloks.
(7). HELPING सहायता :: One must spend at least 1/6th of his earnings over charity-helping the needy-infirm-weak. Its essential to satisfy one self whether the person is wasting the funds provided to him over the prostitutes-narcotics-wine-criminal activities-terrorism. Do not to hold back the strings of the purse, while helping the poor-down trodden, with the earned by own labor-efforts.If the funds provided by you are used on evil-wicked acts, the recipient will drag you to the hells along with him.
जहाँ तक सम्भव हो मनुष्य को जरूरत मंद व्यक्ति-असहाय-कमजोर की  सहायता अवश्य करनी चाहिए। फिर भी यह आवश्यक है कि इस बात की जाँच-पड़ताल कर ली जाये कि वह व्यक्ति वास्तव में ही सहायता के लायक है भी या नहीं। कहीं ऐसा न कि आपसे प्राप्त धन से वो शराब-जुआ-वेश्या गमन आदि कर रहा हो। अगर ऐसा हुआ तो वो अपने साथ-साथ सहायता करने वाले को भी नरक में घसीट लेगा। अपने द्वारा उपार्जित द्रव्यों से दीन दुखियों की सहायता करते समय कृपणता-कंजूसी नहीं  बरतनी चाहिए।
(8). DETACHED-UNCONCERNED :: One must remain aloof-unconcerned from the wealth and women belonging to others.
पराये धन और पराई स्त्री के प्रति सदा निस्पृह रहना।नारी नरक का द्वार है। दूसरे की धन-संपत्ति छीनने वाला आताताई कहलाता है, शास्त्रों में उसके वध का विधान है। छीनने वाला नरक गामी-अधोगति को प्राप्त होता है।  
These are the means of Karm Yog  and Gyan Yog. Gyan Yog can not be achieved-attained without Karm Yog.
ये कर्म योग व ज्ञान  योग के साधन हैं। कर्म योग के बिना ज्ञान योग की प्राप्ति नहीं होती।  
PAVING WAY FOR SALVATION 
Yam and Niyam are useful to both types of devotees: The one who works selflessly and the one who want-seek fulfilment of his desires. One who practice  these is granted-blessed-provided with comforts-luxuries enjoyment and Moksh-Liberation, simultaneously. 
12 YAM: SELF RESTRAINT-CONTROLS-यम
(1). NON VIOLENCE ::  (अहिंसा) : स्वयं सहित किसी भी जीवित प्राणी को शारीरिक, मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। हत्या न करना। इसका लाभ-किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से जहां सकारात्मक भाव के लिए आधार तैयार होता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंस व्यक्ति के प्रति भी अच्छा भाव रखने लगता है। सभी लोग परस्पर अच्छा भाव रखेंगे तो जीवन में अच्छा ही होगा।अहिंसा परमो धर्म। मांसाहार से सदा बचना चाहिये। व्यर्थ की हिंसा से दूर ही रहना चाहिये। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई तुम पर हमला करे और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो। डट कर मुकाबला करो और आता ताई को समूल नष्ट करो। भगवान बुद्ध और गाँधी जी की अहिंसा की नीति सदैव प्रासांगिक नहीं होती। चाणक्य नीति का अनुसरण समयानुसार उचित है। शान्ति चाहते हो तो युद्ध के लिए तैयार रहो। ब्राह्मण का वध करने वाले को बृह्म हत्या लग जाती है और वो नरक गामी होता है।
ब्रह्महत्या :: पूर्व काल में वृत्रासुर और इन्द्र में 11,000  वर्ष तक युद्ध हुआ, जिसमें इन्द्र की हार हुई और वे भगवान शिव के शरणागत हुए। इन्द्र को वरदान प्राप्त हुआ और उन्होंने प्रभु कृपा से, वृत्रासुर का वध किया, जो ब्राह्मण पुत्र था। इस लिये उन्हें ब्रह्म हत्या लग गई। वे ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्महत्या ने इन्द्र के शरीर से हटने के लिये अन्य स्थान माँगा, तो उन्होंने उसे 4 भागों में बाँट दिया। 
पहला भाग अग्नि देव को मिला। जो कोई प्रज्वलित अग्नि में बीज, औषध, तिल, फल, मूल, समिधा और कुश  की आहुति नहीं डालेगा, ब्रह्महत्या अग्नि को छोड़ कर उसे लग जायेगी।
दूसरा भाग वृक्ष, औषध और तृण को मिला। जो कोई व्यक्ति मोह वश अकारण, इन्हें काटेगा या चीरेगा, ब्रह्म हत्या, इन्हें छोड़ कर उसे लग जायेगी।
तीसरा भाग अप्सराओं को मिला। जो कोई व्यक्ति रजस्वला स्त्री से मैथुन करेगा, यह तुरन्त उसे लग जायेगी।  
चौथा भाग जल ने गृहण किया। जो व्यक्ति अज्ञानवश जल में थूक, मल-मूत्र डालेगा, वही ब्रह्महत्या का निवास बन जायेगा। 
प्राचीन काल से ही कोई भी न्यायाधीश, इस भय से ब्राह्मण को प्राण दण्ड नहीं देता था। 
(2). TRUTH-सत्य :: Speak the truth. God is Ultimate truth-reality. Its a means to attain Salvation. But always speak the truth which is not going to harm any one, un necessarily-without reason-logic.Truth always triumphs. Truth is truth. One who do not speak the truth reserves his seat in hells.
सत्य :: सत्य से मनुष्य  इस लोक पर विजय पाता है। यह परम पद है। सदा सत्य बोलो। मृत्यु सत्य है।परमात्मा-ब्रह्म ही अन्तिम सत्य है। 
LIE-झूंठ :: A lie for the sake of humanity-welfare of mankind-to save an innocent person from ruin-disaster-torture-imprisonment-misery-cruelty is better than a plain truth.
एक ऐसा झूंठ जो किसी निर्दोष की रक्षा करता हो वह एक सत्य से उत्तम है।सत्य वादी नाम के तपस्वी सरस्वती के तट पर तपस्या के रहे थे।एक व्यापारी लुटेरों से बचने के लिए उनके पास आया तो उन्होंने उसे कुटिआ के अन्दर छुपा दिया। लुटेरे उसे ढूंढते हुए वहाँ आये तो, अन्दर इशारा कर  दिया।  भगवान श्री कृष्ण ने ऐसे सत्य को असत्य से भी हीन-बुरा माना।
सत्य ही परम मोक्ष, उत्तम शास्त्र, देवताओं में जाग्रत् तथा परम पद है। 
तप, यज्ञ,पुण्य कर्म, देवर्षि-पूजन,आद्य विधि और विद्या सत्य में प्रतिष्ठित हैं। 
सत्य ही यज्ञ, दान और सरस्वती है। 
सत्य ही व्रतचर्या और ॐ कार है। सत्य से वायु चलती है, सूर्य तपता है, आग जलती है और स्वर्ग टिका हुआ है। 
सत्यवादी देवताओं के पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त  कर लेता है।
सम्पूर्ण यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा ही भारी है। 
देवता, पितर और ऋषि सत्य में ही विश्वास रखते हैं।
सत्य ही परम धर्म और परम पद है। 
यह ब्रह्म स्वरूप है। जो मनुष्य अपने, पराये अथवा पुत्र के लिये भी असत्य भाषण नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं। ब्राह्मणों में वेद, यज्ञ तथा मंत्र निवास करते हैं। किन्तु जो ब्राह्मण सत्य का परित्याग कर देता है उसमें ये शोभा नहीं देते-उसका त्याग कर देते हैं।अतः मनुष्य को सदैव सत्य भाषण ही करना चाहिये।  [पद्मपुराण ]   
(3). SELF RESTRAINT FROM STEALING-THEFT (ASTEY अस्तेय) :: Stealing leads to hells. One must not steal.
चोरी एक ऐसा अपराध है, जो मनुष्य को नर्क ले जाता है और वहाँ से मुक्ति के तदुपरान्त हीन योनियों में जन्म प्रदान करता है। चोरी करने वाला, चोरी का माल खरीदने वाला, बेचने वाला बराबर के अपराधी हैं।
(4). IRRELEVANCE (not to have unwanted-irrelevant company, असंगता) :: Undesirable company is always bad. One learns all sorts of evils-bad deeds-bad habits which puts him in trouble time and again. It takes one to Shaetan away from the God and paves the way for Hells. Some times, one is dragged to notoriety unknowing. The parents should be extremely careful, while handling the child. He should be nursed properly. The parents should teach-elaborate-discuss the epics, scriptures along with the teachings of renowned people-sages.
(5). SHAME शर्म-हया-लज्जा :: Bashfulness-modesty is like an ornament. One who cares for his parents-teachers-elders-God avoid such acts in front of them, which are not good-which are considered bad or anger them; to be done in front of others like sex, nudity, easing, urinating, smoking, drinking or the taboo. This is a manner to show respect-regard for them. सामाजिक मर्यादा का पालन हर मनुष्य को करना चाहिये।लज्जा स्त्री का गहना है। 
(6). ACCUMULATION (hoarding, no need to add-accumulate wealth, funds असंचय आवश्यकता से अधिक धन नहीं जोड़ना) :: One should have sufficient money to fulfill his needs after retirement and in an hour of need. People make investments-bank deposits for lean season. All religious ceremonies needs money and no activity can be performed without money. One should assess his needs and act accordingly. One should have sufficient funds for donation-charity and to avoid loans-begging. Accumulated wealth invites cheats-thugs-thieves-dacoits-bandits-criminals and even the state to steal-snatch it.One should not be a miser. 
पूत  कपूत तो क्यों धन संचय, पूत  सपूत तो क्यों धन संचय। जोड़-जोड़ मर जायेंगे, मॉल जमाई खायेंगे। कहते हैं धन संग्रह करने वाला उसकी रक्षा करने के लिए साँप बनता है। 
(7). FAITH IN GOD-RELIGION आस्तिकता-आस्था :We are the most valuable creations of God. One must have faith in Him. He is always with us. Religiosity and Atheism (a belief that there is no God) are two phenomenon, which act in opposite directions, never to meet. India is a country where, majority of populations constitute of  the followers of Hinduism-The Sanatan Dharm, ancient way of life.  It's a very very liberal community. 
इसे ईश्वरवाद भी कहा जाता है। 
Religiosity makes one pious-virtuous-honest-a kind hearted person and improves the incarnations in future.
(8). CELIBACY-ASCETICISM ब्रह्मचर्य :: It connects one with the God. It retains the vigour, health, potency, memory, strength of a person. It protects one in an hour of need. The student life up to the age of 25 years is considered to be meant for celibacy. One is not supposed to interact with opposite sex during this period. While one is out of the Ashram for begging alms he has to keep his eyed down facing earth, and call every women Mata-mother.
(9). SILENCE मौन::  कम बोलना अच्छी आदत है। चुप रहना, व्यर्थ की बातचीत-बकबास-वाद विवाद से अच्छा है। इससे ऊर्जा की बचत होती है और ध्यान केन्द्रित रहता है। एकांत-वन-गुफा  में रहना, घर-गृहस्थी में रहकर कम बोलने से-न बोलने से आसान है। इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। विवाद में फँसने से अच्छा  है, बात को हँसकर टाल देना-तूल न देना-माँफी मांग लेना। जिन लोगों को हर वक्त बकर-बकर करने की आदत होती है, उनसे दूर ही रहना चाहिये । एक चुप सौ को हराता है। 
इसका अर्थ यह नहीं है कि जरुरत के वक्त भी मौन रहो। आवश्यकता पड़ने पर अपनी बात पूरे जोर-शोर-दबाब से कहो।
Silence is Golden. It does not detach one from the living world. It brings peace, solitude, equanimity with it. It transcends  a person to the eternal. One goes beyond or outside the range of human experience-reason-belief-power of description. Silence can be used as a tool for eloquence-skilful use of language, to persuade or to appeal to the feelings, fluent speaking.  
Powerful-strong pulses of brain waves start pushing through the space and are received by the devotee-seeker bringing about a  complete change-metamorphosis in the thoughts pattern-ideas, granting him devotion-prudence-enlightenment. Piousness of thoughts enchant the ascetics all around-all over. Holy person generate-transmit, harmony-peace-solace-tranquillity-calm-quietness to the recipients. A stage is reached, where body consciousness, along with thoughts, pertaining to others, pervading the mind, disappear automatically, leaving behind the  worshipper, enchanted with the Supreme. 
(10). STABILITY स्थिरता :: One should be stable in stead of moving from one place to another. He should be not be flickering mind. Those who meditate-concentrate in God stay at one place in solitude year after year. Having adopted the life of a sage-recluse they do not turn to family way-house hold.
(11). FORGIVENESS-PARDON क्षमा :: To forgive is divine. One who is capable of containing the aggression-threat-attack may pardon the guilty but only after ascertaining that he will not be able to tease-torture again. Instead of hanging the guilty, let him be may be put to life sentence-imprisonment, till death. Mohammad Ghouri attacked India 17 times and was pardoned by Prathvi Raj Chauhan (-incarnation of Dhrat Rashtr)  on 16 occasions. At last he was successful. He  caught and blinded Prathvi Raj Chauhan and took him to Kabul in a cage. One should be able to crush such people; or else eliminate them at once. क्षान्ति-निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वध को तथा दूसरों के क्रोध से उत्तपन्न होने वाले दोषों को सह लेना। बिना क्षमा मांगे ही क्षमा करना। 
(12). LONELINESS अमय :: The sages-saints-ascetics wander alone and move out of the periphery-boundaries of residential areas before it becomes dark. 
भगवत भक्ति-भजन-चिन्तन-स्मरण एकांत में ही करना चाहिये ताकि मन की  शान्ति-एकाग्रता बनी रहे। चित्त उद्विघ्न न हो, चिन्ताएँ न हों, सब तरफ शान्ति ही शान्ति हो।  
12 NIYAM-SANCTIONS-RULES ::
12 Niyam-Sanctions-Rules: Shouch-cleanliness (-external, outer and inner purity), Jap-chanting, Tap- tenacity-meditation, Hawan-Agnihotr-sacrifice in fire, faith, serving- welcoming guests, Bhagvat Bhajan (-recitation of the names of God), worship, pilgrimage, efforts to help the needy-poor-down trodden -charity, contentment-satisfaction,  serving the mentor- master-teacher-educator.
वृती :- यह यम नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने का प्रयास है। शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान, श्रद्धा। मन को संसार से रोकना शम है। बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है। निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना उपरति है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकरसरलता से सह लेना तितीक्षा है। रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है। 
SHAM-TRANQUILITY शम :: Enlightenment-dedication of all faculties-intellect in the divinity through absence of passions-peace of mind, quiet, rest. Channelise all of one's efforts, energy, power to assimilate in the Eternal-Ultimate. Intentional cultivating an inner attitude of tranquillity, peace of mind or contentment is a foundation on which the other practices can rest. निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वध को तथा दूसरों के क्रोध से उत्पन्न होने वाले दोषों को सह लेना। 
DAM TRAINING DISCIPLINE दम :: Training of the senses (Indriy, इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in our actions in the world and the nature of inner thoughts we cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions-mortification-subduing feelingsशरीर की उपरामता। 
ENDURANCE :: Bearing of sorrow-pains by virtue of justice.
PATIENCE :: Control-Victory over tongue and genitals (vagina, pennies), sex organs-passions, sensuality.
DONATION CHARITY दान :: Giving alms, food, shelter, asylum, protection-safety, financial help to the needy-one who deserve. 
दानधर्मं निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम्। 
परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः॥मनुस्मृति 4.227॥ 
यज्ञ और पूर्त सम्बन्धी दान-धर्म सत्पात्र को पाकर सदा प्रसन्न मन से यथाशक्ति करना चाहिये। 
One should donate freely-open heartedly-happily as per his capability for sacrifices in holy fire i.e., Yagy (Hawan, Agnihotr, sacrifices in holy fire) or construction of garden, inn, temple, roads, hospitals, water reservoirs, community center or some religious activity if he finds a suitable-deserving person performing that job etc.
पूर्त :: पूरी तरह से भरा हुआ, छाया या ढका हुआ, आवृत्त, पालित, रक्षित, पूर्णता,  खोदने अथवा निर्माण करने का कार्य; पुष्करिणी, सभा, वापी, बावली, देवगृह, आराम बगीचा, सड़क, देवगृह, वापी आदि का बनवाना जो धार्मिक दृष्टि से उत्तम कर्म माना गया है; construction of garden, inn, temple, roads, hospitals, water reservoirs, community center etc. for religious purpose.
यत्किञ्चिदपि दातव्यं याचितेनानसूयया। 
उत्पत्स्यते हि तत्पात्रं यत्तारयति सर्वतः॥मनुस्मृति 4.228॥ 
किसी के याचना करने पर जो कुछ हो सके उसे श्रद्धा पूर्वक (सत्पात्र को) देना चाहिये, क्योंकि दानशील पुरुष के पास किसी दिन ऐसा पात्र-अतिथि भी आ जाता है, जो उसका सब पापों से उद्धार कर देता है। 
One should oblige-donate happily on being requested by some one-needy, since occasionally someone comes to the person who donates happily, who can liberate him from all sins.
वारिदस्तृप्तिमाप्नोति सुखमक्षय्यमन्नदः। 
तिलप्रदः प्रजामिष्टां दीपदश्चक्षुरुत्तमम्॥मनुस्मृति 4.229॥
 प्यासे को पानी देने वाला तृप्त होता है, भूखे को अन्न देने वाला सुख पाता है, तिल दान करने वाला अभिलक्षित सन्तान और दीप दान केरे वाला, उत्तम नेत्र प्राप्त करता है। 
One who quench the thirst of the thirsty, gets contentment-satisfaction, one who feed the hungry gets comforts, one who offer-donate sesame gets the desired progeny and the one who donates a lamp is to get excellent eyes. 
भूमिदो भूमिमाप्नोति दीर्युमार्हिरण्यदः। 
गृहदोऽग्र्याणि वेश्मानि रूप्यदो रूपमुमत्तम्॥मनुस्मृति 4.230॥
भूमि देने वाला भूमि, स्वर्ण देने वाला दीर्घ आयु, गृह उत्सर्ग करने वाल उत्तम भवन और चाँदी दान करने वाला सुन्दर रूप पता है। 
One who donate land gets more land, one who donate gold gets long life-age, one who gives house gets excellent palace and one who donate silver gets beautiful-exquisite body.

न विस्मयेत तपसा वदेदिष्ट्वा च नानृतम्। 

नार्तोऽप्यपंवदेद्विप्रान्न दत्त्वा परिकीर्तयेत्॥4.236॥
तपस्या करके आश्चर्य ने करे, यज्ञ करके झूँठ न बोले, विप्रों से पीड़ित होने पर भी उनकी निंदा ने करे और दान करके लोगों में उसकी ख्याति ने करे। 
One should not be surprised having completed ascetics, austerities successfully. He should not tell lies after the completion of Yagy. He should not condemn even though rebuked by the Brahmns. One should never tell anyone else about the charity, donations made by him. 
The learned Brahmn will inform, ask his Yajman-host, if anything goes wrong during the ascetic practices, charity, Yagy by him. One should never feel irritated by that and try to correct his actions at the earliest.
यज्ञोऽनृतेन क्षरति तपः क्षरति विस्मयात्। 
आयुर्विप्रापवादेन दानं च परिकीर्तनात्॥4.237॥
यज्ञ झूँठ बोलने से, तप आश्चर्य करने से, आयु ब्राह्मण की निंदा करने से, दान लोगों के आगे कहने से क्षीण होता है। 

The value, importance, credit of performing a Yagy is reduced-lost by telling lies-falsehood. Expressing surprise, reduces the intensity of ascetic practice-austerities. Condemnation-rebuking a Brahmn reduces the longevity. The credit of having made donations, become null and void after disclosing it or boasting about it.
शक्तः परजने दाता स्वजने दुःखवजीविनि
मध्वापातो विषास्वादः स धर्मप्रतिरूपकः॥मनुस्मृति 11.9॥
जो दाता (दान देने वाला) अपने आत्मीयों को दुःखी देखता हुए भी; दूसरों को दान देता है, वह दान धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानता। मधु के सदृश दिखने पर भी परिणाम में यह विष समान होता है। 
The donor who donate money, prefer charity ignoring his near & dear undergoing trouble, pain, sorrow for lack money, is ignorant and do not know the gist of donation. The out come of any Yagy in such a state, though appears to be like nectar-elixir, but in reality, it is like poison in yield.
Charity begins at home. One should move from family to neighbourhood followed by village, state, country & the international boundaries respectively. Ensure that donated money never passes on to non deserving, drunkards, sinners, terror mongers. 

वासोदश्चन्द्रसालोक्यमश्विसालोक्यमश्वदः। 
अनडुहः श्रियं पुष्टां गोदो ब्रध्नस्य विष्टपम्॥मनुस्मृति 4.231॥
वस्त्र दाता चन्द्र लोक, घोड़ा दान करने वाला अश्विलोक, वृषभ का दाता लक्ष्मी, गोदान करने वाला सूर्य लोक पाता है। 
Cloth donor goes to abode of Moon, horse donor gets the abode of Ashwani Kumars, donor of bull gets wealth-money and the donor of cows goes to the aboard of Bhagwan Sury-Sun.
यानशय्याप्रदो भार्यांमैश्वर्यंभयप्रदः।
धान्यदः शाश्वतं सौख्यं ब्रह्मदो ब्रह्मसार्ष्टिताम्॥मनुस्मृति 4.232॥
रथ और पलंग का दाता पत्नी को, अभयदाता ऐश्वर्य को, अन्नदाता चिरस्थायी सुख को और वेद की शिक्षा देने वाला ब्रह्मतुल्य गति को प्राप्त होता है। 
One who grants chariot or a bed gets a wife, the protector-defender gains comforts-luxury, food donor gets everlasting pleasure and one who teaches Veds, gets abodes like that Brahma Ji's i.e., Brahm Lok. One who is entitled to Brahm Lok may assimilate in the Almighty.
Teaching of Veds is not enough. Rote memory, cramming remembering in not enough,. One should know the gist, exact meaning, applicability in real life; for social welfare is essential. Only that enlightened who has grasped Veds can do it, non else. Mere word by word translation is not enough. At points Veds becomes symbolic, gives formulation and leave it to one to find theme.
सर्वेषामे व दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। 
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलक ञ्चनसर्पिषाम्॥मनुस्मृति 4.233॥
जल, अन्न, गौ, पृथ्वी, वस्त्र, टिल, सोने और घी आदि सब दानों में वेद का दान सबसे बढ़कर है। 
The teaching of  Veds surpasses all other gifts-offerings-donations like water, food grain, cows, land, clothes, sesamum, gold or clarified butter.
येन येन तु भावेन यद्यद्दानं प्रयच्छति। 
तत्तत्तेनैव भावेन प्राप्नोति प्रतिपूजितः॥मनुस्मृति 4.234॥
जिस-जिस भाव से जिस फल की इच्छा कर जो-जो दान करता है, जन्मान्तर में सम्मानित होकर वह उन-उन वस्तुओं को उसी भाव से पाता है। 
One who donate the goods to others with specific desires and the feeling-sentiment behind the donation leads to receiving all these good back in next incarnations with the same feeling attached with which he donated the goods.
Please refer to ::  SALVATION मोक्ष साधनाsantoshhindukosh.blogspot.com
In fact its cyclic in natures. Do good have good. If one just donate without any feeling or desire attached with it, do not seek any reward from the God, he just perform it, as his pious job-duty, he inches towards the Almighty-Ultimate. Do the virtuous, righteous, pious acts and offer the result of this Karm to the Almighty. Salvation is must.
योऽर्चितं प्रतिगृह्णाति ददात्यर्चितमेव च। 
तावुभौ गच्छतः स्वर्गं नरकं तु विपर्यये॥मनुस्मृति 4.235॥
जो दाता आदर से प्रतिग्राही को दान देता है और प्रतिग्राही आदर से उस दान को ग्रहण करता है, वे दोनों स्वर्ग जाते हैं। इसके उलटा अपमान से दान देने वाला और दान लेने वाला दोनों नरक में जाते हैं। 

The donor who donates respectfully and the acceptor who too accepts it with due regard-honour goes to the heaven, while both go to the hell if the donor gives it with insult-contempt and the receiver too receive it with contempt-dishonour.
अन्न दान :: अन्न के समान न कोई दान है, न होगा। कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को उचित है कि वह अपने कुटुम्ब को कष्ट देकर भी महात्मा ब्राह्मण को दान अवश्य दे। थके मांदे अपरिचित राहगीर को जो बिना क्लेश अन्न (भोजन) देता है, वो सब धर्मों का फल प्राप्त कर लेता है। अन्न से देवता, पितर, ब्राह्मण और राहगीर को तृप्त करने वाला, अक्षय पुण्य प्राप्त करता है। अन्न दान पाप से मुक्ति दिलाता है। ब्राह्मण को दिया अन्न दान अक्षय और शुद्र को दिया गया दान महान्  पहल दायक है।
जल दान :: बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके बनवाये गये जलाशय से गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष पानी पीते हैं, उसका कुल तर जाता है।पोखरा बनवाने वाला, तीनों लोक में सम्मानित होता है। मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशय का सहारा लेते हैं।जिसके पोखरे में वर्षा ऋतु में ही जल रहता है, उसे अग्निलोक का फल मिलता है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर काल तक जल ठहरता है, उसे सहस्त्र गौ दान का फल मिलता है। वसन्त और ग्रीष्म ऋतु तक पानी ठहरने पर मनीषी पुरुष अतिरात्रि और अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त करता है। जिसके पोखरे में गर्मी तक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकट का सामना नहीं करता।
वृक्ष लगाना :: वृक्ष लगाने वाला अपने पितर और वंशजों का भी उद्धार कर  देता है और अक्षय लोकों को प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलों से देवताओं, पत्तों से पितरों, छाया से समस्त अथितियों का पूजन करते है। किन्नर, राक्षस, मानव, देवता, ऋषि, यक्ष तथा गन्धर्व भी वृक्षों का आश्रय लेते हैं। वृक्ष फल और  फूल से युक्त होकर इस लोक में मनुष्यों को तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोक में भी पुत्रवत माने गये हैं।
पशु दान :: जो श्रेष्ठ पात्र को गौ, भैंस, हाथी, घोड़े दान देता है, वो अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है।
धन व वस्त्र दान :: जो व्यक्ति सुपात्र को धन, सुवर्ण, धान्य, वस्त्र दान करता है, वो परम गति को प्राप्त करता है।
अति दान :: गौ दान, भूमि दान व विद्या दान अति दान कहलाते हैं।
भूमि दान :: जो व्यक्ति सुपात्र को जोती-बोई एवं फलों से भरी हुई भूमि दान करता है, वो अपनी दस पीढ़ी पहले के पूर्वजों व दस पीढ़ी बाद के वंशजों को तार देता  है और विमान में बैठ कर विष्णु लोक जाता है।
दीप दान :: दीप दान करने से मनुष्य सौभाग्य, अत्यन्त निर्मल विद्या, आरोग्य, परम उत्तम समृद्धि  के साथ-साथ सौभाग्यवती पत्नी, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र तथा अक्षय सम्पत्ति पाता है। ब्राह्मण ज्ञान, क्षत्रिय उत्तम राज्य, वैश्य धन और पशु तथा शुद्र सुख की प्राप्ति करता है। कुमारी कन्या को शुभ लक्षणों से युक्त पति, पुत्र-पौत्र तथा बड़ी आयु मिलती है और कभी वैधव्य नहीं देखना पड़ता। स्वामी से वियोग नहीं होता। भयभीत परुष भय से तथा कैदी बंधन मुक्त हो जाता है। दीपदान ब्रह्म हत्या, मानसिक चितां तथा रोगों से भी मुक्ति दिलाता है। दीप का प्रकाश दान करने से मनुष्य रूपवान्  होता है और दक्षिणा देने से स्मरणशक्ति  तथा मेधा (धारणा शक्ति)   प्राप्त होता है।
जो लोग मंदिर के दिए में सदा ही यथाशक्ति तेल और बत्ती डालते हैं, वे परम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति स्वयं असमर्थ होते हुए बुझते या बुझे हुए दिए की सूचना देते हैं, वे भी परमधाम के अधिकारी होते हैं। यदि कोई भीख मांगकर भी भगवान् विष्णु के सम्मुख दिया जलाता है, तो वो भी पुण्य का भागीदार हो जाता है। दीपक जलाते समय यदि कोई नीच पुरुष भी श्रद्धा से हाथ जोड़कर उसे निहारता है, तो वो भी विष्णुधाम को जाता है। दूसरों को भगवान् के सम्मुख दिया जलाने की सलाह देने वाला भी सब पापों से मुक्त हो श्री धाम प्राप्त करता है। अतः मनुष्य को यथा सम्भव भगवान् के सम्मुख या मार्ग में राहियों कि सुविधा के लिए दिया अवश्य जलाना चाहिए। [पद्मपुराण]
जो सदा सत्य बोलते हैं, पोखरे के किनारे वृक्ष लगा ते हैं, यज्ञानुष्ठान करते हैं, वे कभी स्वर्ग से भ्रष्ट नहीं होते।
दान का पात्र :: पुराण वेत्ता पुरुष दान का सर्व श्रेष्ठ पात्र है। वह पतन से त्राण करता है, इसलिए पात्र है। ब्राह्मण शांत होने के साथ ही विशेषतः क्रियावान् हो। इतिहास-पुराणों का ज्ञाता, धर्मज्ञ, मृदुल स्वभाव का पितृ भक्त, गुरुसेवा परायण तथा देवता-ब्राह्मणों का पूजन करने वाला हो। वो गुणवान, जितेन्द्रिय, तपस्वी हो।  जो ब्राह्मण श्रोतिय, कुलीन, दरिद्र, संतुष्ट, विनयी, वेदा भ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और इन्द्रिय संयमी हो उसे ही दिया गया दान अक्षय होता है। 
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
 देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥श्रीमद् भगवद्गीता 17.20॥ 
दान देना कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुकारी को अर्थात निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्विक कहा गया है। 
Satvik-pious donation is one which has been made without the desire for returns, made as a matter of duty, to a deserving person, at the right time-occasion & place. 
प्रत्येक मनुष्य को अपनी सात्विक, गाढ़े खून-पसीने की मेहनत की कमाई का छठा भाग दान-धर्म के निमित्त निकाल देना चाहिये। इसे प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य समझना चाहिये। दान के बदले में परमात्मा या किसी अन्य से कोई लाभ या प्रत्युपकार की भावना नहीं होनी चाहिये। दान का महत्व देश, स्थान, तीर्थ, अवसर से बढ़ जाता है। दान लेने वाले की पात्रता मुख्य चीज है। वेदपाठी ब्राह्मण, सदगुणी-सदाचारी भिक्षुक या कोई भी व्यक्ति जिसे सहायता की आवश्यकता है, उपयुक्त है। आजकल जिस प्रकार अंधाधुंध दान की रकम संस्थाओं के नाम पर वसूलकर, आतंकियों, धर्म परिवर्तन करने वालों, व्याभिचारियों को दी जा रही है, वो सिवाय दुःख-पाप के कुछ और नहीं देती। भारत में ही लाखों की तादाद में ऐसे लोग हैं, जो देश-विदेश से दान प्राप्तकर मौज-मस्ती में उड़ा रहे हैं। जिस प्रकार दान का फल दस गुना होता है, उसी प्रकार निकृष्ट और अनुपयुक्त व्यक्ति को दिया गया दान दस गुना पाप उत्पन्न करता है। दान केवल और केवल ईमान की कमाई का फलता है। मन्दिर को प्राप्त हुई दान की राशि को तुरन्त समाज कल्याण में लगा देना चाहिये, अन्यथा गजनी, मुसलमान और अंग्रजों जैसे लुटेरों का खतरा बना  ही रहता है। मन्दिर के धन को जो लोग व्यक्तिगत उपयोग में लाते हैं, उनकी सदगति नहीं होती।
The scriptures have clearly mentioned that every one should set aside one sixth of his pious earnings for the sake of donations-charity to the deserving, disabled, needy or  one in difficulty. The Shastr advocates donations to the learned Brahmns, scholars, Pandits and the students getting education in Ashrams, Guru Kuls, which do not have any source of earnings. The society should take care of the insane, widows, disabled, fragile-sick, aged. India has traditionally saw the farmers, the rich, the traders, the kings extending help to the poor, down trodden and the lower segments of the society. One remembers his grandfather who did not carry grain to home, until-unless the wheat was distributed amongest the regular workers, poor and the needy. Huge sums of money are pouring into non deserving hands in India, now a days. The money is used for conversion to Islam or Christianity. Most of the receivers are enjoying with this money. A lot of money is falling into the hands of separatists-terrorists. Money received by Pakistan from America is utilised for terrorist activities. Wahabis are using ill gotten money to spread unrest in Kashmir. Paupers in Kashmir involved in anti national activities, have become multimillionaires with such funds. Their own children are studying in Europe & America, but the poor for whom the transactions were made are still living in extreme poverty. The temples should immediately utilise this money for social cause and upliftment of poor. Their is always the danger of invaders like Ghajni, Muslims and the Britishers who did not spare even the temples. One finds that the Pujaries-Priests of a famous temple in Delhi use the donations entirely for their person requirements. The scriptures clearly mention that such people will definitely move to lower species like dogs, in their next birth. Donations made at pilgrim sites, holy rivers-reservoirs on auspicious dates and specific places like Haridwar, Kashi, Dwarka, Rameshwaram, Maha Kal-Ujjain, Tri Veni Sangam Allahabad, Nasik, Badri Nath etc. are more rewarding. However, one must not donate with the desire for returns. The donations with pious, honest money provides ten times benefits. Donations made with ill gotten money generate ten times sins and the person moves to undefined hells for millions of years.
Gurudwaras abroad and Mosques-Madarsas within the country are busy sowing the seeds of discord-hatred for other communities, specifically Hindus. They collect billions as donation and pass over for terrorist activities in India. Their sole aim is power.
 यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः। 
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥श्रीमद् भगवद्गीता 17.21॥ 
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।
Rajas mode of charity-donations are the once made by the desirous people looking for returns, favours, rewards, higher abodes & are made unwillingly or to settle some previous deal or obligations.
राजस दान वह है जो कि प्रत्युपकार के हेतु किया जाये। दान लेने वाले नातेदार-रिस्तेदार, जानकर, पूर्व परिचित, पुरोहित, चिकित्सक आदि इसी श्रेणी में आते हैं। जिस दान को उच्च लोकों की उपलब्धि के लिये व्रत, त्यौहार, तीर्थ, विशिष्ट तिथि, अवसर, स्थान पर किया जाये वह भी इसी श्रेणी में आ जाता है। क्लेशपूर्वक दिया गया दान जो मजबूरी में किया गया हो, भी ऐसा ही फल देता है। 
Rajas mode of charity-donations involves the desire for higher abodes. For this purpose people visit temples, undertake pilgrimage, bathes in holy rivers and sacred reservoirs. In fact its typical Indian-Hindu mentality to improve the future at the cost of present. Austerities undertaken have the sole purpose to get rid of the sins of the previous births. Hindus undertake fasting, pilgrimages and even donations, which have desires associated with them. If one is aware of the futility of such purposes he might switch over to helping others without motive-desires, which is virtuous, righteous, auspicious. Donations which involve return of the previous receipts, hitch, pain, unwillingness too becomes Rajas. Money that goes to relatives, friends, doctors, astrologers, Priests (Purohits, Pandits) ritualism too takes the form of Rajas charity, since hidden desires are always there that if I am helping some one, I too will be helped in return. So, the donations-austerities which are made just to help others, needy, one in destitute, poverty stricken, sick, diseased without the intention of any fruit, reward, return grant auspiciousness.
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥श्रीमद् भगवद्गीता 17. 22॥ 
जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस है। 
Charity made  at wrong place and time, to unworthy persons or without due respect-regards to the receiver or with ridicule, is Tamas. 
तामस दान असत्कार, अवज्ञा, तिरस्कार पूर्वक किया जाता है। तामस दान में शास्त्र विधि-विधान को महत्व नहीं दिया जाता। इसमें पात्रता का ध्यान नहीं रक्खा जाता। दान लेने वाले के प्रति दान देने वाले को उचित मान-सम्मान, आदर-सत्कार दिया जाना चाहिये। दान लेने वाले ने दान लेकर कृतार्थ कर दिया, यह विचार मन में बनाना चाहिये। तामस  दान देने वाले की अधो गति होती है। दान का उचित समय, काल और मुहूर्त भी होता है, जिसका ध्यान रखना चाहिये। अन्न, जल, वस्त्र और औषधि का दान देने में पात्र-कुपात्र, देश, काल के स्थान पर लेने वाले की जरुरत मुख्य है। कुपात्र को अन्न, जल उतनी ही मात्रा में दें; जितने से  वो पुनः हिंसा या पाप में प्रवत्त न हो पाये। कलियुग में दान का महत्व बहुत बढ़ गया है, क्योंकि यज्ञ, तप, व्रत, आदि-आदि के लिये उचित पात्र, अवसर मिलना बेहद कठिन है। 
Donations should be free from slight, disobedience, disregard,  affront to the recipient. The recipient deserves due honour, respect and the one who is distributing alms should be humble, polite and sympathetic to the recipient. Due weightage should be given to the time, place and the recipient's ability (necessity, requirement)  to get donations. One should not nurse any grudge towards the recipient. One should feel obliged that his charity has been accepted with grace. Donations made to the those, who are involved in anti social-anti religious activities, sinners, criminals, terrorists, those inclined to conversion of other's faith; always yield negative results, including stint in hells. Christian missionaries indulging in conversions in the name of charity are covered in this category. Politicians, trusts, NGO's receiving funds for charity, do come under the list of negative categories. There are several Muslim organisations which are receiving aid to fan terrorism in India and abroad from Muslim countries specially Saudi Arabia, need to be curbed with firm action and determination by the world community. However, it has been found that some institutions and temples are offering free education, food, clothing, residence in India. They deserve whole hearted appreciation. In one case more than 50,000 free meals are distributed on a single day. The volume rises to 1,25,000 on specific occasions-festivals. One educational Institution is offering free meals and education to more than 12,500 needy children up to graduation level in Orissa. Donations made to them are pious, virtuous & righteous. Eligibility of the recipients matters a lot. You will find drunkards, beggars having millions in their coffers, healthy people in the disguise of sick or disabled; awards negative results to the donors. Pot belly Mahants, Pandits, Brahmns, Purohits roaming in silk dresses, cars, living in palatial buildings, do not deserve either sympathy or charity. Most of the trusts, schools, hospitals in India are registered under charitable category to receive land at cheaper rates, but they do not serve the poor at all. They are purely commercial in nature. They charge exorbitant heavy tuition fees in additions of hundreds of other charges levied from time to time. The worst possible aspect of it is the charging of capitation fee-donation money by the schools, colleges. Donations made in the form of food, clothing, medicine water to the needy may be made without hitch-hesitation. Food-fodder offered to cows, dogs, crows, birds is always rewarding made with sympathy to them. Indians do not hesitate in offering milk to snakes, though are dangerous. Kali Yug, the present cosmic era has high value-importance of charity.
Teesta Setalvad and her organisation is an example of misusing funds.
The educational institutions compel parents to shell out money in millions for admission and fees, which is not donation. It is purely extortion, exploitation. Almost all political parties in India and every where in the world collect huge sums in the name of donations.
ASCETICS Tenacity तप :: Asceticism, Renunciation-rejection-conquering of desires. Reject all desires.
कामनाओं का त्याग।अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।  मन का संतुलन बनाए रखना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है।
उत्साह एवं प्रसन्नता से व्रत रखना, पूजा करना, पवित्र स्थलों की यात्रा करना। विलासप्रियता एवं फिजूलखर्ची न चाहकर सादगी से जीवन जीना। इंद्रियों के संतोष के लिए अपने आप को अंधाधुंध समर्पित न करना भी तप है।
जीवन में कैसी भी दुष्कर परिस्थिति आपके सामने प्रस्तुत हो, तब भी आप दिमागी संतुलन नहीं खो सकते, यदि आप तप के महत्व को समझते हैं तो। अनुशासन एवं परिपक्वता से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्रा‍प्त की जा सकती है।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। 
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥श्रीमद् भगवद्गीता 17.19॥ 
जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से अपने आप को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है। 
The ascetic practices-Austerity performed under the influence of ignorance with foolish stubbornness by with self-torture or for harming others are Tamsik.
तामस तप में मूढ़ता पूर्ण आग्रह है, जो स्वयं को पीड़ा देकर किया जाता है। मूढ़ मनुष्य शरीरिक कष्ट को ही तपस्या मानता है। ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों को कष्ट देने के लिए तप करते हैं। वे मन माने ढंग से उपवास करते हैं, सर्दी-गर्मी-वर्षा को सहन करते हैं। जिस तप का उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट-पीड़ा पहुँचाना है, वह पूरी तरह तामसिक है। 
The ignorant stresses over self inflicting pains-tortures. He believes that straining the body is austerity-asceticism. His object is to trouble the others, at his own cost. He observe fasts in his own way-manner.He bear extreme cold, heat, rains and rough weather. His aim is to tease others, inflict injuries over others and hence this mode is Tamsik-demonic.
Shrurut-valour: Conquering passions-sensuality-desires.
Saty-Truth: Experiencing-visualising the equanimity-true divinity, all around, (just speaking of truth is not sufficient).
Shrt:  Speaking the truth and pleasant-speech that consoles-soothes the listener.
Shouch-purity: Not to indulge in desires. 
Sanyas-retirement: Renunciation of desires-detachment.
Wealth: Religiosity-piousity-righteousness is true-intended, for humans.
Yagy-Sacrifice: God himself is Yagy (-the one who accepts all offerings).

Dakshina:  Blessing with enlightenment-knowledge.
Pranayam-Yog: Pranayam generates-provides great strength force.
Bhag-vulva: The divine-superhuman power of God.
Labh-Gain-Advantages: Great devotion-subjecting one, to the dictates of God, is excellent form of Bhakti-devotion.
Vidya-Lore-Learning-Education: Eliminates the distinctions between the Brahm and Soul (Jeev-organism), difference between the divine and the soul disappears.
Lajja-Shame: To treat sin as a hate (घृणा)-taboo-disgrace.
Shree: True-real neutrality, absolute form.
Pleasure-Pain: Equanimity between pleasure and pain (comforts and sorrow) is real-true pleasure.
Grief: Desire for passions-sensuality. 
Pandit-Scholar-Philosopher-Priest: Knows the gist-extract-nectar-elixir of attachment and Salvation.
Stupid:  One attached with the body, (does not think beyond the current birth, life after death and improvement of the next births).
Sumarg-Good Company: The path which detaches the creature-organism from the world and connects-attaches with the Almighty. 
Kumard-misled-Bad Company : Indecent path which lures one, towards the world (rejection of the devil, bad company, wicked-wretched-evil). 
Heaven: Increase-enhancement of Satv Gun-divinity.
WITHDRAWAL (उप्रति): With a proper inner attitude of tranquillity and the training of the senses, satiety, natural sense of completeness, one should not seek sensory experiences. Saturation, satisfaction may also provide an outlet to safely move to the shelter of the Almighty.
FORBEARANCE (तितिकक्षा): Forbearance and tolerance of external situations allows one to be free from the onslaught of the sensory stimuli and pressures from others to participate in actions, speech or thoughts, that one knows to be going in a not-useful-evil-wicked direction. 
FAITH (आस्था, विश्वास, श्रद्धा): Faith in God should be essential-integral part of an individual. Mutual faith too is essential in a family-household, society. Faith in the scriptures, epics, sermons of the holy souls,  saints and the ruler are necessary. An intense sense of certainty about the direction one is going to keep  in the right direction, persisting in following the teachings and practices that have been examined and seen to be productive, useful, and fruit bearing. 
SOLUTION (समाधान): Resolute focus towards harmonising and balancing of mind, its thoughts and emotions, along with the other virtues, brings a freedom to pursue the depth of inner exploration and realisation. 
मोक्ष मार्ग के सहाय
12 यम  :: अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्कता से अधिक धन नहीं जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा, अमय। 
12 नियम :: शौच (बाहरी और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा, भगवत भजन, तीर्थ यात्रा, परोपकार की चेष्टा, संतोष व गुरु सेवा। 
यम-नियम सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधनों के लिए उपयोगी हैं। पुरुष के द्वारा इनका प्रयोग-पालन, उसे इच्छानुसार भोग और मोक्ष प्रदान करता है।
विज्ञान :: छहों अंग, चारों वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय शास्त्र, पुराण और धर्म शास्त्र। धर्म की वृद्धि, विधि पूर्वक विद्याद्ययन करके धन का उपार्जनकर धर्म-कार्य का अनुष्ठान। 
सदा आत्म चिन्तन : अक्षर -अविनाशी पद को अध्यात्म समझना-जहां जाकर मनुष्य शोक में नहीं पड़ता। 
ज्ञान :: जिस विद्या से षड्विध ऐश्वर्य युक्त परम देवता साक्षात भगवान् हृषिकेश का ज्ञान होता है। वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। 
शम :: बुद्धि का परमात्मा में लग जाना। बुद्धि की निर्मलता। मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहां से हट जाये।  
आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों।
आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण।
दम :: इंद्रियों को वश में रखना-संयम दम  है। शरीर की उपरामता। 
तितिक्षा :: न्याय से प्राप्त दुःख को सहने का नाम तितिक्षा है।
धैर्य: जिव्हा व जननेद्रिय पर विजय, धैर्य है। 
दान :: किसी से द्रोह न करना, सबको अभय देना  दान है।
दया: अपने दुःख में करुणा तथा दूसरों के दुःख में सौहार्द पूर्ण सहानुभूति जो कि धर्म का साक्षात साधन है। 
शूरता :: अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना। 
Win-over power-control each and every kind of lust-instincts.
सत्य :: सर्वत्र सम स्वरूप,  सत्य स्वरूप,  परमात्मा का दर्शन ही सत्य है। Visualisation of the Almighty who is truth, in each and every one-organism-God's creations.
श्रत :: सत्य व मधुर भाषण ही सत्य है
Speak the pleasant truth.
शौच: कामनाओं में आसक्त न होना। मन, बुद्धि, इन्द्रियां, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। 
Rejection all needs-desires-wants.   
सन्यास: कामनाओं का त्याग। Rejection-relinquishing  of the world
धन : धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट धन है। Religion-pious-virtuous-righteous duties is the only religion
यज्ञ : परमेश्वर-शिव ही यज्ञ है। The Almighty is Yagy-all prayers-Agnihotr-sacrifices are offered to him.
दक्षिणा: ज्ञान का उपदेश। Preaching advising enlightenment-eternal truth.
प्राणायाम: प्राणायाम ही श्रेष्ठ बल  है। Pranayam-Yog is the Ultimate strength.
भग: परमात्मा का ऎश्वर्य है। Only wealth-luxury is the attainment of the Almighty.
लाभ: परमात्मा की श्रेष्ठ भक्ति ही लाभ है।Devotion to the ultimate God is the only gain-profit, attained through this perishable body.
विद्या: सच्ची विद्या वही है, जिससे परमात्मा और आत्मा का भेद मिट जाता है। The real learning is one which clears the difference between the soul and the Almighty.
लज्जा Shyness :: पाप करने से  घृणा  का नाम ही लज्जा है।
Hatred towards sin real shame.
श्री: निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौन्दर्य-श्री है। Neutrality is the real beauty.
सुख: सुख व दुःख दोनों की भावना का सदा  के लिये नष्ट हो जाना सुख है। The vanishing of the feeling of pain and pleasure is the real happiness. 
दुःख: विषय भोगों की कामना ही दुःख है। Desire of pleasure is real worry-pain.
पंडित :: जो बंधन और मोक्ष का तत्व जनता है, वही पंडित है।  
One who understands the gist of attachment and Salvation is the Philosopher, Pandit, Scholar.
मूर्ख :: शरीर आदि में जिसका मैं पन-अपना पन-लगाव  है, वही मूर्ख  है। 
One suffering from the feeling of I, My, Me, Egotism is the real imprudent, Idiot, fool.
सुमार्ग: जो संसार की ओर से निव्रत्त करके परमात्मा की प्राप्ति करा देता, है वही  सच्चा सुमार्ग है। 
The path which leads to detachment and relinquishing this world is the right-correct path-way.
कुमार्ग: चित्त की वहिर्मुखता  ही कुमार्ग है। 
स्वर्ग: सत्व गुण की वृद्धि ही स्वर्ग है। 
नरक:तमो गुण की वृद्धि ही नरक है। 
बंधु: गुरु परमात्मा की प्राप्ति ही सच्चा भाई बंधु  है। 
घर: मनुष्य शरीर ही सच्चा घर है। 
धनी: सच्चा धनी वह है, जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है। 
दरिद्र: जिसके चित्त में असंतोष है,अभाव का बोध है, वही दरिद्र है। 
कृपण: जो जितेन्द्रिय नहीं है,वही  कृपण है। 
ईश्वर : समर्थ, स्वतंत्र और ईश्वर वह है, जिसकी चित्त वृति विषयों में आसक्त नहीं है। 
असमर्थ : जो विषयों में आसक्त है ,वही  सर्वथा असमर्थ है। 
इनको समझ लेना ही मोक्ष-मार्ग के लिए सहायक है । 
गुणों और दोषों पर द्रष्टि  जाना ही सबसे सबसे बड़ा दोष है । 
गुण दोषों पर द्रष्टि नहीं जाना, अपने नि संकल्प स्वरूप में स्थित रहना -ही सबसे बड़ा गुण है।
 

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

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