DEATH मृत्यु
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
शरीर में जब वात का वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणा से ऊष्मा अर्थात पित्त का प्रकोप भी हो जाता है। वह पित्त सारे शरीर को घेर कर सारे सम्पूर्ण देशों को आवर्त के लेता है और प्राणों के स्थान और मर्मों का उच्छेद कर डालता है। फिर शीत से वायु का प्रकोप होता है और वायु अपने निकलने का स्थान-छिद्र ढूढ़ने लगती है।
दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक मुँख; ये सात छिद्र हैं और आठवाँ ब्रह्मरन्ध्र है। शुभ कार्य करने वाले मनुष्यों के प्राण प्रायः इन्हीं पूर्व सात मार्गों से निकलते हैं। धर्मात्मा जीव को उत्तम मार्ग और यान द्वारा स्वर्ग भेजा जाता है।
नीचे भी दो छिद्र हैं :- गुदा औए उपस्थ। पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते है।
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात्।
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति॥
वेदों का अभ्यास न करने से, अपने आचार को छोड़ देने से, आलस्य करने से और दूषित अन्न खाने से मृत्यु ब्राह्मणों को मारने की इच्छा करती है।[मनु स्मृति 5.4] The Brahmn invite untimely death by neglecting the study-practice of Veds, deviating from the conduct meant for the Brahmns described in scriptures, becoming lazy and eating contaminated, stale, unhealthy food.
Death is imminent, but life span is increased by adopting suitable eating habits, exercise, performing Yog.
Death is imminent, but life span is increased by adopting suitable eating habits, exercise, performing Yog.
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च।
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥[मनु स्मृति 5.5]
लहसुन, गाजर, प्याज और गोबर छत्ता तथा अशुद्ध (माँस, मछली, अंडा; विष्ठा इत्यादि से होने वाले) पदार्थ, द्विजातियों के लिये अखाद्य हैं। Eating of Garlic, leeks and onions, mushrooms, meat, fish & eggs and all plants which springing from impure substances like compost, rotten meat etc. are prohibited for Brahmns.
All plants have medicinal value-properties. If one has to take something as medicine its allowed. during emergency there is no restriction. Regular use of these things is definitely harmful for every one. Ayur Ved is the most advanced & developed medical science which can cure all ailments except death.
All plants have medicinal value-properties. If one has to take something as medicine its allowed. during emergency there is no restriction. Regular use of these things is definitely harmful for every one. Ayur Ved is the most advanced & developed medical science which can cure all ailments except death.
निम्न छिद्र :: गुदा औए उपस्थ। पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते है।
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
जीव को यमराज के दूत आतिवाहिक शरीर में पहुँचाते हैं। यमलोक का मार्ग अति भयंकर और 86,000 योजन लम्बा है। यमराज के आदेश से चित्रगुप्त जीव को उसके पाप कर्मों के अनुरूप भयंकर नरकों में भेजते हैं।
महाकाल भगवान् शिव ने पार्वती को बताए मृत्यु रहस्य ::
(1). यदि अचानक शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाएगी। जब मुँह, कान, आँख और जीभ ठीक से काम न करें तो भी 6 महीने के भीतर ही मृत्यु जाननी चाहिए।
(2). जो मनुष्य हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता उसकी मृत्यु भी 6 महीने के भीतर हो जाती है।
(3). जिसे सूर्य, चंद्रमा या अग्नि का प्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी 6 महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।
(4). त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुँह और कण्ठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीतते-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
(5). जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देखे अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।
(6). जब चंद्रमा व सूर्य के आस-पास के चमकीला घेरा काला या लाला दिखाई दे तब 15 दिन के अंदर ही उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसा मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।
(7). यदि ग्रहों का दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे तो उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने में हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दे, उस मनुष्य की आयु 6 महीने ही शेष समझनी चाहिए।
(8). जिस मनुष्य को उतथ्य व ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी दर्शन न हो, रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गीध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु 6 महीने से अधिक नहीं होती।
इन दिखाई देने सम्बन्धी लक्षणों को तभी मानना चाहिये जब जातक को सही देखे देता हो मगर उपयुक्त वस्तुएँ ने दिखती हों।
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other airs (heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold. This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
महाकाल भगवान् शिव ने पार्वती को बताए मृत्यु रहस्य ::
(1). यदि अचानक शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाएगी। जब मुँह, कान, आँख और जीभ ठीक से काम न करें तो भी 6 महीने के भीतर ही मृत्यु जाननी चाहिए।
(2). जो मनुष्य हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता उसकी मृत्यु भी 6 महीने के भीतर हो जाती है।
(3). जिसे सूर्य, चंद्रमा या अग्नि का प्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी 6 महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।
(4). त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुँह और कण्ठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीतते-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
(5). जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देखे अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।
(6). जब चंद्रमा व सूर्य के आस-पास के चमकीला घेरा काला या लाला दिखाई दे तब 15 दिन के अंदर ही उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसा मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।
(7). यदि ग्रहों का दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे तो उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने में हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दे, उस मनुष्य की आयु 6 महीने ही शेष समझनी चाहिए।
(8). जिस मनुष्य को उतथ्य व ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी दर्शन न हो, रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गीध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु 6 महीने से अधिक नहीं होती।
इन दिखाई देने सम्बन्धी लक्षणों को तभी मानना चाहिये जब जातक को सही देखे देता हो मगर उपयुक्त वस्तुएँ ने दिखती हों।
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other airs (heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold. This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
Humans have 2 ears, 2 nostrils, 2 eyes and a mouth, a total of 7 openings-outlets and the 8th is the Brahm Randhr-the ultimate outlet for the soul-Vital. The soul-Pran Vayu of pious-virtuous-righteous releases through these 7 openings. The pious-virtuous, righteous gets heaven by the sanction of Yam Raj. Chitr Gupt send him there through excellent routes by planes.
There are 2 more out lets for the release of Pran Vayu-the vital force-energy: The anus and the pennies. The soul of the wicked-sinner leaves the body through them.
The Yogi has the ultimate outlet for the soul-the Brahm Randhr. The soul explodes the skull and leaves the body to the abodes of its choice, in a divine formation-incarnation achieved by it.
The dead-deceased gets another identical non material body which is moved to hell through a distance of 86,000 Yojan which is very painful. There Yam Raj looks at him and Chitr Gupt thereafter send him to hell, which are extremely painful-torturous. What one gets here is the outcome of his deeds? As one sows, so he gets, here. This is absolute justice.DEATH THE ULTIMATE TRUTH :: One has faced undergone suffering-setbacks-disasters-illness-agony-death in previous births, innumerable times, having acquired rich experience in them. They can be manoeuvred-handled quite easily. One should conquer the fear from them-face them without being afraid. These are the outcome of sins, in previous births. Activities which one is used to-experienced-practiced-repeatedly in previous births-lives are sufficient to develop skill and ability in doing them. You have the experience of death in previous innumerable lives, then why are you afraid of it, now!?Let such events do not destabilise-disturb one, having faced and survived them, a great number of times. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births. These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds, in last many many births left to be experienced. So, one must face them smiling, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential rigours-torture .
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-unrighteous acts. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births. These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds in last many many births left to be experienced. So, one must face them smilingly, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential.
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-vice-wicked-wretched-unrighteous acts. One remembers God and the God also remember his creations. He is always with his devotees to strengthen them. So one has to be virtuous, pious, honest, righteous.
Death is imminent and constitute an integral part of the life cycle and death cycle. One who is born must die, sooner or later. Demigods are not exception to this rule. Even the deities-goddess under go this cycle. None of the 14 abodes: 7 heavens and the 7 Tal are spared by it. Bhagwan Shri Ram and Bhagwan Shri Krashn took incarnation and left, as soon the deeds-purpose of their incarnation was over. All abodes under go this cycle. Bhagwan Brahma-Bhagwan Vishnu and Bhagwan Mahesh them self are bound-governed by this rule with the life of 2 Parardh, 4 Parardh and 8 Parardh respectively. None of the abodes is spared by birth and destruction. As soon as the impact of virtues is over, the souls start descending to lower abodes .It reaches the earth, in the incarnation of human beings in a virtuous family. Here onward the next journey is decided, depending upon his deeds, virtues or sins. The sins will take him to hells. The soul may earn virtues, piousness, righteousness, honesty, devotion, values, ethics, leading to Salvation-a state of no return to earth. [Santosh]
One has faced-undergone suffering-setbacks-disasters-illness-agony-death in previous births innumerable times, having acquired rich experience in them. Activities which one is used to-experienced-practiced-repeatedly in previous lives are sufficient to develop skill and ability in doing them. Let such events do not destabilise-disturb one, having faced and survived them, a great number of times. They can be manoeuvred-handled quite easily. One should conquer them, without being afraid. These are the outcome of sins in previous births. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births. These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds in previous many many births left to be experienced. So, one must face them smilingly, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential to face rigours-torture.
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-unrighteous acts.
One remembers God and the God also remember his creations. He is always with his devotees to strengthen them. So, one has to be virtuous, righteous, honest, truthful, pious.
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other airs (heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold. This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
Humans have 2 ears, 2 nostrils, 2 eyes and a mouth, a total of 7 openings-outlets and the 8th is the Brahm Randhr-the ultimate outlet for the soul-Vital. The soul-Pran Vayu of pious-virtuous-righteous releases through these 7 openings. The pious-virtuous, righteous gets heaven by the sanction of Yam Raj. Chitr Gupt send him there through excellent routes by planes.
There are 2 more out lets for the release of Pran Vayu-the vital force-energy :- The anus and the pennies. The soul of the wicked-sinner leaves the body through them.
The Yogi has the ultimate outlet for the soul-the Brahm Randhr. The soul explodes the skull and leaves the body to the abodes of its choice, in a divine formation-incarnation achieved by it.
The dead-deceased gets another identical non material body which is moved to hells through a distance of 86,000 Yojan which is very painful. There Yam Raj looks at him and Chitr Gupt thereafter send him to hells, which are extremely painful-torturous. What one gets here is the outcome of his deeds? As one sows, so he gets, here. This is absolute justice.
एक थे शादी बाबा। गाँव सलैमपुर, कस्बा ककोड़, जिला बुलंद शहर, उत्तर प्रदेश, भारत। वो मुसलमान थे। वो कब्र में दफनाने वक्त उठ बैठे। लोगों ने कहा भूत है भागो। उन्होंने मातम मनाने वालों को रोका और कहा कि देखो वो जो शादी पण्डित हैं, मरना तो उन्हें था, वो लोग भूल से मुझे उठा के ले गये। वहाँ जाकर देखा तो पता पड़ा कि मरना तो किसी और को था और मर कोई और गया। ख़ैर भूल सुधार तो हो गया। शादी बाबा उसके बाद 20 साल तक दिल्ली की जामा मस्जिद में हर जुम्मे को 70 मील का सफर, पैदल तय करके आते रहे। उन्हें अपने मरने-वापस जाने का मुकरर वक्त बता दिया गया था और वो उसी वक्त, दिन, तारीख पर गये। मजहब का झगड़ा यहाँ है, वहाँ नहीं।
मृत्यु एक परम सत्य :: विचलित मत होओ। मृत्यु भय व्यर्थ है। व्यक्ति समस्त प्रकार की यातनाओं, यंत्रणाओं, रोगों, व्याधि, बीमारीओं, रोगों व मृत्यु का अनुभव अनंत पूर्वजन्मों में भी कर चुका है। एक यही क्रिया है जो आत्मा स्वयं नहीं करती फिर भी उसे इसका अनन्त बार का अनुभव है। दुनियां में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हँस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, मुकाबला करो। पाप-बुराई से बचो। दुनियाँ का हर संकट टल जायेगा।
मृत्यु भय व्यर्थ है :- मृत्यु एक परम सत्य है। मृत्यु अटल है और शाश्वत सत्य है। अत: उनसे डरना व्यर्थ है। विचलित मत होओ। पाप-बुराई से बचो। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो, अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो। भक्त व भगवान् एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए उसे याद करते रहो। कल्याण अवश्य होगा।
दुनियाँ में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हंस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, संघर्ष मुकाबला करो। अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो ।
जब कभी कोई व्यक्ति श्मशान में जाता है उसे जीवन की नीरसता याद आने लगती है यह भ्रम जाल लगता है, और वह कहता है, "अरे अन्त में यहीं तो आना है, फिर धोका, बेईमानी, झूँठ, लूट, चोरी, डकैती किस लिये"!? परन्तु, जैसे ही श्मशान से बाहर निकलता है, वह सब कुछ भूलकर फिर से इन्हीं गोरख धंधों में लग जाता है। क्या यही जीवन है? क्या इसीलिए जीवन है? मनुष्य जन्म अमोल है यह मानव मात्र की सेवा, अपना उद्धार सत कर्म, धर्म के लिए ही है।
अभी 14 मार्च 2014 को बुलंद शहर में एक स्त्री की मृत्यु हो गई। परन्तु कुछ घण्टों बाद वो फिर से जीवित हो गई। उसने बताया कि ऊपर जाने पर यह पर कहा गया ये किसे उठा लाये।? जिसे लाना था वो तो दूसरे मोह्हले में रहती है। भूल सुधार तो हो गया, परन्तु देखो गलती तो धर्म राज के यहाँ भी हो सकती है।
मृत्यु भय व्यर्थ है :- मृत्यु एक परम सत्य है। मृत्यु अटल है और शाश्वत सत्य है। अत: उनसे डरना व्यर्थ है। विचलित मत होओ। पाप-बुराई से बचो। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो, अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो। भक्त व भगवान् एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए उसे याद करते रहो। कल्याण अवश्य होगा।
दुनियाँ में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हंस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, संघर्ष मुकाबला करो। अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो ।
जब कभी कोई व्यक्ति श्मशान में जाता है उसे जीवन की नीरसता याद आने लगती है यह भ्रम जाल लगता है, और वह कहता है, "अरे अन्त में यहीं तो आना है, फिर धोका, बेईमानी, झूँठ, लूट, चोरी, डकैती किस लिये"!? परन्तु, जैसे ही श्मशान से बाहर निकलता है, वह सब कुछ भूलकर फिर से इन्हीं गोरख धंधों में लग जाता है। क्या यही जीवन है? क्या इसीलिए जीवन है? मनुष्य जन्म अमोल है यह मानव मात्र की सेवा, अपना उद्धार सत कर्म, धर्म के लिए ही है।
अभी 14 मार्च 2014 को बुलंद शहर में एक स्त्री की मृत्यु हो गई। परन्तु कुछ घण्टों बाद वो फिर से जीवित हो गई। उसने बताया कि ऊपर जाने पर यह पर कहा गया ये किसे उठा लाये।? जिसे लाना था वो तो दूसरे मोह्हले में रहती है। भूल सुधार तो हो गया, परन्तु देखो गलती तो धर्म राज के यहाँ भी हो सकती है।
यमलोक गमन :: जीव को यमराज के दूत आतिवाहिक शरीर में पहुँचते हैं। यमलोक का मार्ग अति भयंकर और 86,000 योजन लम्बा है। यमराज के आदेश से चित्रगुप्त जीव को उसके पाप कर्मों के अनुरूप भयंकर नरकों में भेजते हैं।
गरुड़ पुराण में बताया गया है कि यमलोक का रास्ता भयानक और पीड़ा देने वाला है। वहां एक नदी भी बहती है जोकि सौ योजन अर्थात एक सौ बीस किलोमीटर है। इस नदी में जल के स्थान पर रक्त और मवाद बहता है और इसके तट हड्डियों से भरे हैं। मगरमच्छ, सूई के समान मुखवाले भयानक कृमि, मछली और वज्र जैसी चोंच वाले गिद्धों का यह निवास स्थल है।
वैतरणी :: यम के दूत जब धरती से लाए गए व्यक्ति को इस नदी के समीप लाकर छोड़ देते हैं तो नदी में से जोर-जोर से गरजने की आवाज आने लगती है। नदी में प्रवाहित रक्त उफान मारने लगता है। पापी मनुष्य की जीवात्मा डर के मारे थर-थर कांपने लगती है। केवल एक नाव के द्वारा ही इस नदी को पार किया जा सकता है। उस नाव का नाविक एक प्रेत है। जो पिंड से बने शरीर में बसी आत्मा से प्रश्र करता है कि किस पुण्य के बल पर तुम नदी पार करोगे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में गौदान किया हो, केवल वह व्यक्ति इस नदी को पार कर सकता है, अन्य लोगों को यमदूत नाक में काँटा फँसाकर आकाश मार्ग से नदी के ऊपर से खींचते हुए ले जाते हैं।
व्रत और उपवास का पालन करने से गोदान का फल प्राप्त होता है। दान वितरण है। इस नदी का नाम वैतरणी है। अत: दान कर जो पुण्य कमाया जाता है, उसके बल पर ही वैतरणी नदी को पार किया जा सकता है।
वैतरणी नदी की यात्रा को सुखद बनाने के लिए मृतक व्यक्ति के नाम वैतरणी गोदान का विशेष महत्व है। पद्धति तो यह है कि मृत्यु काल में गौमाता की पूँछ हाथ में पकड़ाई जाती है या स्पर्श करवाई जाती है। लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में गाय का ध्यान करवा कर प्रार्थना इस प्रकार करवानी चाहिए।
वैतरणी गोदान मंत्र ::
जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुँह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग-गुदा से निकलते हैं।
मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़े भयानक, क्रोधयुक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं। वे नग्न अवस्था में रहते हैं और दाँतों से कट-कट की ध्वनि करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होता है। नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा-हा शब्द करता हुआ निकलता है।
यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बाँधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूत उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते।
इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और काँपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है। वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकार मय मार्ग से यमलोक ले जाते हैं।
यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है, चार कोस यानी 13.16 कि.मी) दूर है। वहाँ पापी जीव को दो-तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसे भयानक यातना देते हैं। यह याताना भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं।
घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पातीऔर भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समयमें दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है।
जिस पापात्मा के पुत्र आदि पिंडदान नहीं देते हैं तो वे प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।
शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पाँचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है। यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेतरूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है।
यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है। इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुँचता है। मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है।
गरुड़ पुराण में बताया गया है कि यमलोक का रास्ता भयानक और पीड़ा देने वाला है। वहां एक नदी भी बहती है जोकि सौ योजन अर्थात एक सौ बीस किलोमीटर है। इस नदी में जल के स्थान पर रक्त और मवाद बहता है और इसके तट हड्डियों से भरे हैं। मगरमच्छ, सूई के समान मुखवाले भयानक कृमि, मछली और वज्र जैसी चोंच वाले गिद्धों का यह निवास स्थल है।
वैतरणी :: यम के दूत जब धरती से लाए गए व्यक्ति को इस नदी के समीप लाकर छोड़ देते हैं तो नदी में से जोर-जोर से गरजने की आवाज आने लगती है। नदी में प्रवाहित रक्त उफान मारने लगता है। पापी मनुष्य की जीवात्मा डर के मारे थर-थर कांपने लगती है। केवल एक नाव के द्वारा ही इस नदी को पार किया जा सकता है। उस नाव का नाविक एक प्रेत है। जो पिंड से बने शरीर में बसी आत्मा से प्रश्र करता है कि किस पुण्य के बल पर तुम नदी पार करोगे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में गौदान किया हो, केवल वह व्यक्ति इस नदी को पार कर सकता है, अन्य लोगों को यमदूत नाक में काँटा फँसाकर आकाश मार्ग से नदी के ऊपर से खींचते हुए ले जाते हैं।
व्रत और उपवास का पालन करने से गोदान का फल प्राप्त होता है। दान वितरण है। इस नदी का नाम वैतरणी है। अत: दान कर जो पुण्य कमाया जाता है, उसके बल पर ही वैतरणी नदी को पार किया जा सकता है।
वैतरणी नदी की यात्रा को सुखद बनाने के लिए मृतक व्यक्ति के नाम वैतरणी गोदान का विशेष महत्व है। पद्धति तो यह है कि मृत्यु काल में गौमाता की पूँछ हाथ में पकड़ाई जाती है या स्पर्श करवाई जाती है। लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में गाय का ध्यान करवा कर प्रार्थना इस प्रकार करवानी चाहिए।
वैतरणी गोदान मंत्र ::
धेनुके त्वं प्रतीक्षास्व यमद्वार महापथे।
उतितीर्षुरहं भद्रे वैतरणयै नमौऽस्तुते॥
पिण्डदान कृत्वा यथा संभमं गोदान कुर्यात।[गरुड़ पुराण]
मृत्यु के पश्चात :: मरने के 47 दिन बाद आत्मा यमलोक में पहुँचती है। मृत्यु एक परम् सत्य है। मृत्यु के बाद आत्मा को कर्मों के अनुरूप गति-जन्म की प्रापि होती हैं। जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, वह स्वर्ग जाता है,जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसे यमदूत नरक में ले जाते हैं। सबसे पहले जीवात्मा को यमलोक ले जाया जाता है। वहाँ यमराज उसके पापों के आधार पर उसे अनुरूप लोक और योनि प्रदान करते हैं। जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुँह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग-गुदा से निकलते हैं।
मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़े भयानक, क्रोधयुक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं। वे नग्न अवस्था में रहते हैं और दाँतों से कट-कट की ध्वनि करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होता है। नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा-हा शब्द करता हुआ निकलता है।
यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बाँधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूत उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते।
इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और काँपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है। वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकार मय मार्ग से यमलोक ले जाते हैं।
यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है, चार कोस यानी 13.16 कि.मी) दूर है। वहाँ पापी जीव को दो-तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसे भयानक यातना देते हैं। यह याताना भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं।
घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पातीऔर भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समयमें दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है।
जिस पापात्मा के पुत्र आदि पिंडदान नहीं देते हैं तो वे प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।
शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पाँचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है। यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेतरूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है।
यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है। इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुँचता है। मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है।
मृत्यु एक परम सत्य :: मृत्यु एक परम सत्य है। मृत्यु अटल है और शाश्वत सत्य है। अत: मृत्यु भय व्यर्थ है। विचलित मत होओ। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। व्यक्ति समस्त प्रकार की यातनाओं, यंत्रणाओं, रोगों, व्याधि, बीमारीओं, रोगों व मृत्यु का अनुभव अनंत पूर्वजन्मों में भी कर चुका है। एक यही क्रिया है, जो आत्मा स्वयं नहीं करती, फिर भी उसे इसका अनन्त बार का अनुभव है। दुनियाँ में हर परेशानी का समाधान है। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हैं, मगर उससे बच नहीं सकते। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हँस कर स्वागत करना चाहिये; उनसे डरना नहीं है, संघर्ष-मुकाबला करना है। पाप-बुराई से बचना है और दुनियाँ का हर संकट टल जायेगा। अभी इस परेशानी से निपट लेंगे तो, अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। अगले जन्म के साथ-साथ इस जन्म को भी सुधारना है। भक्त व भगवान् एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए उसे याद करते रहना है। कल्याण अवश्य होगा। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। जब कभी कोई व्यक्ति श्मशान में जाता है, उसे जीवन की नीरसता याद आने लगती है यह भ्रम जाल लगता है और वह कहता है, "अरे अन्त में यहीं तो आना है, फिर धोखा-धड़ी, बेईमानी, झूँठ, लूट, चोरी, डकैती किस लिये"!? परन्तु, जैसे ही श्मशान से बाहर निकलता है, वह सब कुछ भूलकर फिर से इन्हीं गोरख धंधों में लग जाता है। क्या यही जीवन है? क्या इसीलिए जीवन है? मनुष्य जन्म अमोल है, यह मानव मात्र की सेवा, अपना उद्धार सत कर्म, धर्म के लिए ही है। मृत्यु के पश्चात :: मरने के 47 दिन बाद आत्मा यमलोक में पहुँचती है। मृत्यु एक परम् सत्य है। मृत्यु के बाद आत्मा को कर्मों के अनुरूप गति-जन्म की प्रापि होती हैं। जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, वह स्वर्ग जाता है, जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसे यमदूत नरक में ले जाते हैं। सबसे पहले जीवात्मा को यमलोक ले जाया जाता है। वहाँ यमराज उसके पापों के आधार पर उसे अनुरूप लोक और योनि प्रदान करते हैं। जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुँह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग-गुदा से निकलते हैं। मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़े भयानक, क्रोध युक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं। वे नग्न अवस्था में रहते हैं और उनके दाँतों से कट-कट की आवाज आती है। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होता है। नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठ मात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा-हा शब्द करता हुआ निकलता है। यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बाँधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूतों उस पर बिल्कुल भी दया नहीं आती। इसके बाद वह अँगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और काँपता हुआ, कुत्तों के काटने जैसा दु:ख अनुभव करते हुए अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है। वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकार मय मार्ग से यमलोक ले जाते हैं। यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है, चार कोस यानी 13.16 कि.मी) दूर है। वहाँ पापी जीव को दो-तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसे भयानक यातना देते हैं। यह याताना भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं। घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पातीऔर भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समय में दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है। पापात्मा के पुत्र आदि यदि पिंडदान नहीं देते हैं, वह प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है। शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पाँचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है। यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेत रूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है। यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है। इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुँचता है। मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है। वैतरणी :: यम के दूत जब धरती से लाए गए व्यक्ति को इस नदी के समीप लाकर छोड़ देते हैं, तो नदी में से जोर-जोर से गरजने की आवाज आने लगती है। नदी में प्रवाहित रक्त उफान मारने लगता है। पापी मनुष्य की जीवात्मा डर के मारे थर-थर कांपने लगती है। केवल एक नाव के द्वारा ही इस नदी को पार किया जा सकता है। उस नाव का नाविक एक प्रेत है, जो पिंड से बने शरीर में बसी आत्मा से प्रश्र करता है कि किस पुण्य के बल पर तुम नदी पार करोगे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में गौदान किया हो, केवल वह व्यक्ति इस नदी को पार कर सकता है, अन्य लोगों को यमदूत नाक में काँटा फँसाकर आकाश मार्ग से नदी के ऊपर से खींचते हुए ले जाते हैं। व्रत और उपवास का पालन करने से गोदान का फल प्राप्त होता है। दान वितरण है। इस नदी का नाम वैतरणी है। अत: दान कर जो पुण्य कमाया जाता है, उसके बल पर ही वैतरणी नदी को पार किया जा सकता है। वैतरणी नदी की यात्रा को सुखद बनाने के लिए मृतक व्यक्ति के नाम वैतरणी गोदान का विशेष महत्व है। पद्धति तो यह है कि मृत्यु काल में गौमाता की पूँछ हाथ में पकड़ाई जाती है या स्पर्श करवाई जाती है। लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में गाय का ध्यान करवा कर प्रार्थना इस प्रकार करवानी चाहिए। वैतरणी गोदान मंत्र :: धेनुके त्वं प्रतीक्षास्व यमद्वार महापथे। उतितीर्षुरहं भद्रे वैतरणयै नमौऽस्तुते॥ पिण्डदान कृत्वा यथा संभमं गोदान कुर्यात।[गरुड़ पुराण] |
मौत का आभास :: अगर किसी व्यक्ति को अचानक चंद्रमा और सूरज काले दिखाई देने लगे, सभी दिशाएँ घूमती दिखें तो उसकी मौत 6 माह में हो सकती है।
अगर किसी व्यक्ति को चंद्रमा या सूर्य के आसपास काला या लाल घेरा दिखाई देने लगे तो समझना चाहिये कि उसकी मौत 15 दिन के अंदर होगी।
अगर किसी व्यक्ति को रात में चंद्रमा या तारे ठीक से ना दिखाई दें, तब ऐसा माना जाता है कि उसकी मौत एक महीने के अंदर हो सकती है।
यदि किसी इंसान का बाँया हाथ लगातार फड़कता रहे, तालू सूख जाए तो उसकी मौत भी एक महीने में हो जाती है।
जिस व्यक्ति को अचानक नीली मक्खियां घेर लें तो ऐसा माना जाता है कि अब उसकी उम्र एक महीने ही बची है।
जब किसी इंसान को पानी, तेल, घी और शीशे में अपनी परछाई दिखाई ना दे तो उसकी मौत में 6 महीने का समय ही शेष होता है।
किसी इंसान का शरीर सफेद या पीला हो जाए और शरीर पर लाल निशान दिखाई देने लगें, तो उसकी मौत 6 महीने में हो सकती है।
यम गीता :: नचिकेता यम संवाद
न देने योग्य गौ के दान से दाता का उलटे अमङ्गल होता है। इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषि कुमार नचिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाज श्रवस वाज त्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित् नामक महान् यज्ञ के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्यो की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं। पिता के मङ्गल की रक्षा के लिये अपने अनिष्ट की आशंका होते हुए भी उन्होंने विनय पूर्वक कहा, "पिताजी! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं"- "तत कस्मै मां दास्यसीति"।
उद्दालक ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये।
"पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं"? नचिकेता द्वारा तीसरी बार पूछने पर उद्दालक को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा, "तुम्हें देता हूँ मृत्यु को देता हूँ" :- "मृत्यवे त्वा ददामीति"।
नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिये वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा, "पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि हैं। आप अपने वचन की रक्षा के लिये मुझे यम सदन जाने कीआज्ञा दें"।
ऋषि सहम गये, पर पुत्र की सत्य परायणता देखकर उसे यम पुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी। नचिकेता ने पिता के चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराज की पुरी के लिये प्रस्थान कर गए। यमराज काँप उठे। अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतया परिचित थे और ये तो अग्नि तुल्य तेजस्वी ऋषि कुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति उनके द्वार पर बिना अन्न-जल ग्रहण किये तीन रात विता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्ण कलश अपने ही हाथों में लिये दौड़े। उन्होंने नचिकेता को सम्मान पूर्वक पाद्यार्यं देकर अत्यन्त विनयपूर्वक कहा, "आदरणीय ब्राह्मण कुमार, पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं। यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझ से माँग लें"।
"मृत्यो! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्न चित्त और क्रोध रहित हो जायँ तथा जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचान कर प्रेम पूर्वक बातचीत करें"। पितृ भक्त बालक ने प्रथम वर माँगा। "तथास्तु" यम-धर्म राज ने कहा।
"मृत्यो! स्वर्ग के साधन भूत अग्नि को आप भली-भाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्व देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यह मेरी द्वितीय वर-याचना है"।
"अग्नि अनन्त स्वर्ग लोक की प्राप्ति का साधन है", यमराज अल्पायु तीक्ष्ण बुद्धि, वास्तविक जिज्ञासु के रूप नचिकेता को पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा, "यही अग्नि विराट् रूप से जगत् की प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धि रूप गुहा में स्थित समझिये"। उस अग्नि के लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञस्थ ली निर्माण के लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्नि चयन करने की विधि बतलाते हुए, अत्यन्त संतुष्ट होकर यम ने द्वितीय वर के रूप में कहा, "मैंने जिस अग्नि की बात आप से कहो, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिये"।
"तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व"।[कठोपनिषद् 1.1.19]
हे नचिकेता! अब तीसरा वर मांगिये।
अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा।
"आप मृत्यु के देवता हैं" श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा, "आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता। अतः मैं आपसे वही आत्म तत्व जानना चाहता हूँ कृपा पूर्वक बतला दीजिये"।
यम झिझ के। आत्मविद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निक्षय से नहीं डिगा सके। यम ने भुवन मोहन अस्त्र का उपयोग किया, सुर-दुर्लभ सुन्दरियों और दीर्घ काल स्थायिनी भोग-सामग्रियोंका प्रलोभन दिया, परन्तु ऋषि कुमार अपने तत्त्व-सम्बन्धी गूढ वर से विचलित नहीं हो सके।
आप बड़े भाग्यवान् हैं। यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्त मयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक-वैराग्य, सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा "आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं"।
भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप द्वार पर आप देखते हैं, मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये।
"परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न ही कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है"। नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तार पूर्वक समझाया, "वह अजन्मी है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से भी महान् है। वह समस्त अनित्य शरीरों में रहते हुए भी शरीर रहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कण में व्याप्त है। सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है। अग्नि उसी के भय से जलता है, सूर्य उसी के भयसे तपता है तथा इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भयसे दौड़ते हैं। जो पुरुष काल के गाल में जाने से पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं तथा शोकादि क्लेशोंको पार करके परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं"।
यम ने आगे कहा, "वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्म भर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है"।
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन"।
[कठोपनिषद् 12.23]
"वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट गयी हैं और जिनके पवित्र अन्तःकरण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती तथा जो उसे पाने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं"।
आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद उद्दालक-पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध तपस्वियों का समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है।
गरुड़-पुराण महात्म्य ::
विद्या कीर्ति प्रभा लक्ष्मीजयारोग्यादिकारकम्।
यः पठेच्छृणुयद्रुद सर्ववित् स दिवं व्रजेत॥
भगवान् हरि ने कहा- हे रुद्र! यह गरुड़ महापुराण विद्या, यश, सौन्दर्य, लक्ष्मी, विजय और आरोग्यादिका कारक है। जो मनुष्य इसका पाठ करता है या सुनता है, वह सब कुछ जान लेता है और अन्त में उसको स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद्वा समाहितः।
संलिखेल्लेखयेद्वापि धारयेत् पुस्तकं ननु।
धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्॥
जो मनुष्य एकाग्रचित होकर इस महापुराण का पाठ करता है, सुनता है अथवा सुनाता है, जो इसको लिखता है, लिखाता है या पुस्तक के ही रूप में इसे अपने पास रखता है, वह यदि धर्मार्थी है, तो उसे धर्म की प्राप्ति होती है, यदि अर्थ का अभिलाषी है तो अर्थ प्राप्त होता है।
गारुडं यस्य हस्ते तु तस्य हस्तगतो नयः।
यः पठेच्छृणुयादेतद्भुक्तिं मुक्तिं समाप्नुयात्॥
जिस मनुष्य के हाथ में यह गरुड़ महापुराण विद्यमान है, उसके हाथ में ही नीतियों का कोष है। जो प्राणी इस पुराण का पाठ करता है या इसको सुनाता है, वह भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता है।
धर्मार्थ काममोक्षांश्च प्राप्नुयाच्छ्रवणादितः।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् कामार्थी काममाप्नुयात्॥
इस महापुराण को पढ़ने या सुनने से मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि हो जाती है। इस महापुराण का पाठ करके या इसको सुनकर के पुत्र चाहने वाला पुत्र प्राप्त करता है तथा कामना का इच्छुक अपनी कामना प्राप्ति में सफलता प्राप्त कर लेता है।
विद्यार्थी लभते विद्यां जयार्थी लभते जयम्।
ब्रह्महत्यादिना पापी पापशुद्धिमवाप्नुयात्॥
विद्यार्थी को विद्या, विजिगीषु को विजय, ब्रह्महत्यादि से युक्त पापी, पाप से विशुद्धि को प्राप्त करता है।
वन्ध्यापि लभते पुत्रं कन्या विन्दति सत्पतिम्।
क्षेमार्थी लभते क्षेमं भोगार्थी भोगमाप्नुयात्॥
बन्ध्या स्त्री पुत्र, कन्या सज्जनपति, क्षेमार्थी क्षेम तथा भोग चाहने वाला भोग प्राप्त करता है।
मङ्गलार्थी मङ्गलानि गुणार्थी गुणमाप्नुयात्।
काव्यार्थी च कवित्वं च सारार्थी सारमाप्नुयात्॥
मंगल की कामना वाला व्यक्ति अपना मंगल, गुणों का इच्छुक व्यक्ति गुण, काव्य करने का अभिलाषी मनुष्य कवित्वशक्ति और जीवन का सारतत्व चाहने वाला व्यक्ति सारतत्व प्राप्त करता है।
ज्ञानार्थी लभते ज्ञानं सर्वसंसारमर्दनम्।
इदं स्वस्त्ययनं धन्यं गारुडं गरुडेरितम्॥
ज्ञानार्थी सम्पूर्ण संसार का मर्दन करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है "हे रुद्र!" पक्षि श्रेष्ठ गरुड़ के द्वारा कहा गया यह "गारुड़महापुराण" धन्य है। यह तो सबका कल्याण करने वाला है।
नाकाले मरणं तस्य श्लोकमेकं तु यः पठेत्।
श्लोकार्धपठनादस्य दुष्टशत्रुक्षयो धुवम्॥
जो मनुष्य इस महापुराण के एक भी श्लोक का पाठ करता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती। इसके मात्र आधे श्लोक का पाठ करने से निश्चित ही दुष्ट शत्रु का क्षय हो जाता है।
अतो हि गारुड़ मुख्यं पुराणं शास्त्रसम्मतम्।
गारुडेन समं नास्ति विष्णुधर्मप्रदर्शने॥
इसलिए यह गरुड़पुराण मुख्य और शास्त्र सम्मत पुराण है। विष्णु धर्म के प्रदर्शन में गरुड़ पुराण के समान दूसरा कोई भी पुराण नहीं है।
यथा सुराणां प्रचरो जनार्दनो यथायुधानां प्रवरः सुदर्शनम्।
तथा पुराणेषु च गारुडं च मुख्यं तदाहुर्हरितत्व दर्शनं॥
जैसे देवों में जनार्दन श्रेष्ठ है और आयुधों में सुर्दशन श्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों में यह गरुड़ पुराण हरि के तत्वनिरुपण में मुख्य कहा गया है।
पुराणं गारुडं पुण्यं पवित्रं पापनाशम्।
श्रृण्वतां कामनापूर्ण श्रोतव्यं सर्वदैव हि॥
यश्चेदं श्रृणुयान्मर्त्यो यश्चापि परिकीर्तयेत्।
विहाय यातानां घोरां धूतपापो दिवं व्रजेत्॥
यह गरुड़ महापुराण बड़ा ही पवित्र एवं पुण्यदायक है। यह सभी पापों का विनाशक एवं सुनने वालों की समस्त कामनाओं का पूरक है। इसका सदैव श्रवण करना चाहिए। जो मनुष्य इस महापुराण को सुनता या पाठ करता है, वह निष्पाप होकर यमराज की भंयकर यातनाओं को तोड़कर स्वर्ग को प्राप्त करता है।
नृणामकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता।
निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्रात्शुद्धिरिष्यते॥5.67॥
मुंडन के पूर्व बालक की मृत्यु होने से दवादों को एक अहोरात्र और मुंडन के बाद उपनयन के पूर्व मृत्यु होने से तीन रात तक अशौच होता है।[मनु स्मृति 5.67]
If the infant expires before the tonsure ceremony his immediate relatives-brothers etc. have to abstain from worship, prayers, auspicious activities, new ventures for one complete day and night. If the death occurs after tonsure but before sacred thread ceremony-Janeu; it constitute impurity for three days.
All religious activities, auspicious functions, marriages etc. are suspended for 3 days.
ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः।
अलङ्कृत्य शुचौ भूमावस्थिसञ्चयनाद्ते॥5.68॥
दो वर्ष उम्र का बालक मर जाये तो बन्धुगण उसे फूल मालाओं से सजाकर गॉंव के बाहर पवित्र भूमि में रख कर उसका अस्थि संचय न करें।[मनु स्मृति 5.68]
If the child dies before acquiring the age of 2 years his dead body should be placed in the pious soil after decorating it with flowers, garlands. His bones should not be digged-excavated.
This place has to be maintained by the society so that no defalcation is allowed there and no garbage is dumped there. The body should be buried at such a depth that it can not be digged by jackals, foxes etc.
नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्यौदकक्रिया।
अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहमेव च॥
अग्नि संस्कार न करें और न ही इसकी उदक क्रिया ही करें। उसे जंगल में लकड़ी के तरह त्याग दें और तीन दिन तक अशौच रखें।[मनु स्मृति 5.69]
Neither the dead body has to be cremated-burnt, nor rituals like bathing in sacred water have to be performed. The body should be rejected like dead wood i.e., one should not show any sort of affection to it. A three days mourning has to be observed during which period no sacred-auspicious ceremony, function, celebration has to take place.
उदक क्रिया :: किसी के करने, अग्नि संस्कार के बाद घाट पर नहाना; bathing in a reservoir or flowing water-river after cremation of dead body.
नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया।
जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वाऽपि कृते सति॥[मनु स्मृति 5.70]
तीन वर्ष से कम उम्र के बालक के मरने पर उसे जलाञ्जलि न दें। जिसके दाँत निकल आये हों और नामकरण हो गया हो, उसकी उदक क्रिया और अग्निसंस्कार करें।मनु स्मृति 5.70]
In case the child dies before acquiring the age of 3 years he should not be offered rituals connected with pouring of water. The child whose teeth have grown up and whose naming ceremony has been conducted, should be cremated.
जलाञ्जलि :: अञ्जलि में जल लेकर सूर्य भगवान् आदि देवताओं को अर्पित करना; hollowed palms filled with water offered to ancestors-deceased, a method of offering homage to the deceased in front of the Sun on the banks of a river, pond.
अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति॥
दशाह बीत जाने पर मृत्यु वार्ता होने से त्रिरात्रि शौच होता है। बीत जाने पर स्नान करने से शुद्धि होती है।[मनु स्मृति 5.76]
After the expiry of three days, one has to practice purification for 3 days. Thereafter, purification takes place just by bathing.
In India, one is supposed to take bath everyday in the morning. One who is involved in austerities has to bathe trice or thrice a day.
निर्दशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च।
सवासा जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः॥
दशाह के अनन्तर सपिण्ड दयाद का मरण या पुत्र जन्म का समाचार सुनकर मनुष्य उस समय शरीर में जो कपड़े हों, उनके सहित जल में स्नान कर लेने से शुद्ध हो जाता है।[मनु स्मृति 5.77]
Bothers-kines, who gets the informative after 10 days of the death or the birth of a son become pure by bathing along with the cloths they are wearing.
बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते।
सवासा जलमाप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति॥
असपिण्ड (समानोदक) बालक के देशान्तर में मारे जाने की वार्ता (समाचार सुनकर) तुरन्त वस्र सहित स्नान करने से शुद्ध होता है।[मनु स्मृति 5.78]
The distant relative who learns about the death of the child abroad, becomes pure just by taking bath along with the cloths, he is wearing.
This is to ward off the ill effects of vibrations, waves, gloom, generated in the atmosphere-cosmos due to the death of someone close, near & dear, relative, friend etc.
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम्॥
दस दिन के भीतर यदि मरणा शौच में पुनः दूसरा मरण और जनना शौच में दूसरा जन्म (अन्य बच्चे का जन्म) हो जाये तो ब्राह्मण तब तक पूर्व के दशाहा शौच के पूरा होने तक अशुद्ध रहता है।[मनु स्मृति 5.79]
The Brahmn remains impure if second death or second birth occurs in the family, before the completion of the 10 days of mourning, until the first period of ten days has expired.
त्रिरात्रमाहुराशौचमाचार्ये संस्थिते सति।
तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रमिति स्थितिः॥
आचार्य के मरने पर तीन दिन अशौच कहा गया है; किन्तु उसके पुत्र या स्त्री की मृत्यु होने पर एक अहो रात्र (रात) अशौच होता है, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है।[मनु स्मृति 5.80]
The scriptures asks to observe mourning-condolences for three day if the teacher dies, while in case of the death of teacher's wife's or his son's death; condolence for a day and night has to be observed.
श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।
मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च॥
वेद शास्त्र का जानने वाला कोई पुरुष किसी के घर पर मर जाये तो उसको त्रिरात्रा शौच होता है। मामा, यज्ञ पुरोहित, बान्धव और शिष्य की मृत्यु होने पर पक्षिणी अर्थात दो दिन और एक रत का अशौच होता है।[मनु स्मृति 5.81]
If an enlightened person who has the knowledge of the Veds & scriptures dies at one's place, he should observe mourning for three days & nights; while in the case of the death of his maternal uncle or the priest who performs families prayers-Yagy or brothers or the disciple, condolences for two days and one night should be held.
प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः।
अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नमनूचाने तथा गुरौ॥
जिसके राज्य में ब्राह्मण निवास करते हों, उस राजा की मृत्यु होने की वार्ता दिन को मिले तो सूर्य दर्शन पर्यन्त और रात को मिले तो तारे जब तक दिखाई दें, तब तक, अशौच रहता है। वेद शास्त्र न जानने वाला दिन में जिसके घर पर मरे, उसे सारा दिन और रात में मरे, तो सारी रात अशौच होता है। साङ्ग वेदाभ्यासी गुरु के मरने पर भी ऐसे ही, एक दिन या रात अशौच जानना चाहिये।[मनु स्मृति 5.82]
Impurity-in auspiciousness prevails till Sun set if one gets the news of the death of the king in whose regime the Brahmns live-flourish, during the day. If the news is received at night it prevails till the stars are seen in the sky. If a person who is unaware of Veds or scriptures dies at one's place, he has to abstain from auspicious acts throughout the day. If such a person dies at night then inauspiciousness will prevail the whole night. Like wise, if the death of a Guru, learned, enlightened teacher, who is well versed with the scriptures occurs, one should abstain from all auspicious acts for the whole day or the whole night.
शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति॥
सपिण्ड के मरण या जन्म में ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय 12 दिन में, वैश्य 15 दिन में और शूद्र एक मॉस में शुद्ध होता है।[मनु स्मृति 5.83]
If the death or birth of of a sibling takes place in the family, Brahmn will attain purity in 10 days, Kshtriy will get it in 12 days, the Vaeshy will have it in 15 days and the Shudr will get it in one month.
As a matter of rule one should abstain from auspicious acts during this period. The impact of the death remains in the environment during the period described here in the form of vibrations-gloom.
न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः।
न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत्॥
अशौच के दिन बढ़ाने नहीं चाहिये और ना ही अग्निहोत्र की क्रिया में बाधा डालनी चाहिये। उस कर्म को करता हुआ भी सपिण्ड अपवित्र नहीं होता।[मनु स्मृति 5.84]
One should not enhance-increase the period of the observance of mourning-condolences. The holy sacrifices in fire should prevail as usual immediate after the period of mourning is over. The sibling too do not face the ill effects of such measures i.e., Agnihotr, Hawan, Prayers.
If one is unable to hold Agnihotr-Hawan every day, he may opt for incense sticks, Dhoop Batti (धूप बत्ती, Pastille), a wick lamp by using pure deshi ghee, mustard oil, til oil etc.
दिवाकीर्तिमुदक्यां च पतितं सूतिकां तथा।
शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति॥5.85॥
चाण्डाल, रजस्वला, पतित, प्रसूति का, शव और शव के स्पर्शकर्ता को छूकर स्नान करने से शुद्धि होती है।
One becomes clean by taking a bath after touching a Chandal (the Shudr, who helps in cremation in the cremation ground, (a menstruating woman, an outcast, a woman who has given birth to a child, a corpse (dead body) or one who has touched a corpse.
मृत्यु के 14 प्रकार :: राम-रावण युद्ध चल रहा था, तब अंगद ने रावण से कहा- तू तो मरा हुआ है, मरे हुए को मारने से क्या फायदा!?
रावण बोला :- मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे?
अंगद बोले :- सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती है!
तब अंगद ने मृत्यु के निम्न 14 प्रकार बताए :-
कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा। अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा॥
सदारोगबस संतत क्रोधी। विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी॥
तनुपोषक निंदक अघखानी। जीवत शव सम चौदह प्रानी॥
(1). कामवश :- जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है।
(2). वाममार्गी :- जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो, नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।
(3). कंजूस :- अति कृपण-कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।
(4). अति दरिद्र :- गरीबी सबसे बड़ा अभिश्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। दरिद्र-नारायण मानकर उनकी मदद करनी चाहिए।
(5). विमूढ़ :- अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके, यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।
(6). अजसि :- जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान-इज्ज़त नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।
(7). सदा रोगवश :- जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।
(8). अति बूढ़ा-वयवृद्ध :- अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।
(9). सतत क्रोधी :- 24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता। पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है। क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरकगामी होता है।
(10). अघ खानी :- जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।
(11). तनु पोषक :- ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।
(12). निंदक :- अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है। परनिंदा करने से नीच गोत्र का बंध होता है।
(13). परमात्म विमुख ATHIEST :- जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।
(14). श्रुति संत विरोधी :- जो संत, ग्रंथ, पुराणों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुत और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण-अवरोध का काम करते हैं।
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
जो सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करनेवाला, सूक्ष्म से अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात ज्ञान स्वरूप-ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है। वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्त समय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटि के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष -परब्रह्म परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। [श्रीमद्भगवद्गीता 8.9-10]One who meditates of the Almighty as the omniscient, the ancient, the administer-controller, minute than the minutest, nurturer-sustainer of everyone, the inconceivable, luminous-bright like the Sun and transcendental-beyond the material reality; at the time of death with steadfast mind and devotion by making the flow of bio-impulses rise up to the middle of the eye brows by the power of Yogic practices; attains HIM-the Ultimate.
सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले परमात्मा को कवि अर्थात सर्वज्ञ कहते हैं। सबका आदि होने के कारण उन्हें पुराण कहा गया है। नेत्रों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर अहम् और जो अहम् के भी ऊपर शासन करते है, उन्हें अनुशासित करते है, वह परमात्मा हैं। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मन-बुद्धि की सीमा से परे-ऊपर है। वह समस्त-अनंतकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला है। वह अज्ञान से दूर अर्थात उसका नाश करने वाला है। वह सूर्य के समान प्रकाश करने वाला अर्थात मन-बुद्धि को प्रकाशित-अनुशासित करने वाला है। वह सगुण-निर्गुण परमात्मा सब कुछ याद रखने वाला है। उस परमात्मा को मनुष्य निरंतर-याद करे उसका चिंतन करे।
मनुष्य भक्ति-प्राणायाम अर्थात योगबल द्वारा मन को उस परमात्मा में लगाये-अचल करे और दोनों भ्रुवों के मध्यभाग में स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्ना नाड़ी में प्राणों का अच्छी तरह प्रवेश करके, वह शरीर छोड़कर दसवें द्वार से दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करे।
The Almighty is aware of each and every activity of the organism. HE is eternal-ancient beyond the limits of time, since ever-forever. The mind lies over the eye brows, (mind controls-perceives what is seen by the eyes), intelligence rules the head, mind, brain, intelligence is ruled by the ego and the Almighty regulates even this ego. HE disciplines every one-everything. HE is minutest-much smaller than the atom and holds the infinite number of universes. HE abolishes ignorance and provides enlightenment-prudence. HE is shinning-bright like the Sun and destroys darkness-lack of knowledge-ignorance. The formless-characteristics less Almighty remembers everything, event, person, soul. The human should always think of HIM-continuously.
One should make use of the Yogic power and strength of devotion to concentrate his mind in the Almighty and focus between the two eye brows. This constitutes the 10th opening of the human body. The Shushmana Nadi (the Central Nadi-nerve in the spine which conducts the Kundlini or spiritual force from Mooladhar Chakr to Sahasrar Chakr) has to be invoked to release the soul through this opening to assimilate in the Ultimate.
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
इन्द्रियों के समस्त द्वारों को रोककर मन का ह्रदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में स्थित हुआ जो साधक "ॐ" इस "एक अक्षर का ब्रह्म" का मानसिक उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.12-23]One attains the Ultimate-the Supreme Abode, when he closes all doors of the body (mouth, nostrils, eyes, ears, pennies & anus) checks the thoughts by subliming them in the heart, pulls the soul-Pran Vayu (bio impulses), in the skull, brain, cerebrum, practicing Yog, reciting-uttering the Ultimate syllable "ॐ"OM-the sacred monosyllable sound power of Spirit, mentally-silently and remembering the Almighty, while deserting the human incarnation-body.
मनुष्य-साधक शरीर त्याग करते वक्त अपना ध्यान कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से हटा ले, ताकि वे अपने स्थान पर स्थिर रहें। मन का निरोध करके उसे ह्रदय में स्थानान्तरित कर दे अर्थात ध्यान को विषयों से मुक्त करके, अपने ह्रदय में परमात्मा की मूर्ति-आकृति का अनुभव करे। प्राणों को दसवें द्वार-ब्रह्मरंध्र में रोक ले अर्थात उन पर काबू कर ले। इस प्रकार वो योग धारणा में स्थित हो जाये। इन्द्रियों और मन से कुछ भी चेष्टा न करे। इस स्थित को प्राप्त करके वो "ॐ" अर्थात "प्रणव" का मानसिक उच्चारण करे अर्थात वो निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करे। यही वह अवस्था है, जिसमें प्रभु को स्मरण करते हुए दसवें द्वार :- ब्रह्म रंध्र से प्राणों का विसर्जन करते हुए परमगति अर्थात निर्गुण-निराकर परमात्मा को प्राप्त करे।
The practitioner of Yog has to divert his attention from the body and the brain, thought, ideas, organs of work and experience, so that they are comfortably placed in their position & he become motionless. The mind has to be controlled completely and forget every thing else, except the God and form a mental image of the Almighty in the heart. The bio impulses have to be concentrated in the tenth opening: the place between the eye brows called Brahm Randhr-the Ultimate opening through he scull. Having attained this state, he should start uttering-reciting "ॐ" silently-mentally. Now, he is ready-prepared to immerse in the Almighty, who is free from characteristics and form. The time is mature for him to depart the human incarnation for which he was awarded this, to assimilate in the God.
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥8.24॥
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय-प्रकाश स्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अधिपति देवता है, उस मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर) पीछे ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.24-25]The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्ल मार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्ल पक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्ल मार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्ल पक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्ल पक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्म लोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्म लोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद :: परमात्मा परोक्ष रूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्ष रुप रूप से जानने वालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है।
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gan (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्ष क्रम में :: (1). अग्नि: :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति: :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अहः :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं। (3.1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (3.2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3.3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (3.4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (3.5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (3.6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (3.7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (3.8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (3.9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (3.10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (3.11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (3.12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (3.13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (3.14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (3.15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (3.16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है]
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
धूम का अधिपति देवता, रात्रि का अधिपति देवता, कृष्ण पक्ष का अधिपति देवता और 6 महीनों वाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर गया हुआ, उस मार्ग से गया हुआ सकाम व्यक्ति-योगी चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात जन्म-मरण को प्राप्त होता है। The passage of righteous, virtuous, pious one, who is praying to the Almighty with motive is quite different, since it follows the path of darkness, night, dark phase of Moon-fortnight, turning of Sun into Southern solstice-hemisphere, when he ultimately achieves the Chandr Lok to be fed with elixir, Amrat, nectar for the period of his stay there and thereafter turning back to earth to be born in the families of the righteous well to do people.
Sun & Moon both have some kind of habitation. Habitation over the Sun is masked by the outer sphere which is luminous-illuminated and visible through out the universe. Habitation over Luna may be both inside or surface of Moon. Time and again evidence surfaces favouring the presence of life over Luna. Life is possible over Venus as well Mars. These are known as abodes-Lok of deities.
Chandra Yan successfully landed over the South Pole of Moon; may not find any evidence life-their presence there.
धूम अर्थात अन्धकार के देवता कृष्ण मार्ग से जाने वाले जीवों को रात्रि के अधिपति देवता को सौंप देते हैं, जो कि उन्हें कृष्ण पक्ष के देवता के सुपुर्द कर देते हैं। यहाँ से जीव को दक्षिणायन के अधिपति ग्रहण करते हैं और अब जीव को चन्द्र लोक के अधिपति प्राप्त करते हैं। यहाँ वह अमृत का पान करता है। चन्द्रमा पृथ्वी के सन्निकट है, जबकि चन्द्र लोक तो सूर्य लोक से भी कहीं आगे है। चन्द्र लोक अमृत चन्द्र मण्डल में आता है, जिससे शुक्ल पक्ष में औषधियों की पुष्टि होती है। कृष्ण मार्ग भी उर्ध्व गति का द्योतक है। ऐसे लोग पुनर्जन्म लेते वक्त श्रीमानों के घर में स्थान पाते हैं। ये व्यक्ति-साधक वो हैं, जो कि ऊँचे लोकों के प्राप्ति हेतु यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र आदि का आयोजन करते हैं। अतः ब्रह्म लोक तक पहुँच कर ब्रह्मा जी के साथ लय होने वाले और इन साधकों की गति में अन्तर है। जिस साधक का उद्देश्य ही भगवत्प्राप्ति है वो कभी भी शरीर छोड़ें :- दिन-रात, उत्तरायण-दक्षिणायन, शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष, उन्हें लेने लिए स्वयं भगवान् के पार्षद आते हैं।
निष्काम भाव प्रकाशमय और सकाम भाव अंधकारमय है। कृष्ण मार्ग को पितृ यान, धूम मार्ग और दक्षिण मार्ग भी कहा गया है।
The deity of darkness handover the expired-dead one to the deity of Krashn Marg (dark way, path-road), who in turn give him to the deity of night to be handed over to the deity of dark phase of Lunar fortnight. From here, he is surrendered to the deity of the southern path of Sun, leading him to the Chandr Lok which is much higher than the Sun's abode. The Lunar abode is different than the Luna which is comparatively closer to the earth. The organism in his minor form-body (सूक्ष्म शरीर) is fed with nectar, elixir, the Amrat to support him, till his rewarding-enjoying phase is over. Now, the organism returns to the earth to be born in the families of the devotees of the God, who are well to do, prosperous.
There is a lot of difference between the darkness associated with the hells and this dark route to Chandr Lok. Hells are full of tortures, pains, sorrow, worries unending tensions, anxieties etc. The route to Chandr Lok is meant for those who desire to attain Ultimate comforts and performs Yagy, Hawan, prayers, Agnihotr to attain them. Yet there are the humans-Yogis who's one point program is attainment of the God through devotion. For them the restriction of day-night, dark or bright phase of Moon, movement of Sun in northern hemisphere or southern hemisphere are meaningless, since the nominees of the God themselves come to earth to receive and welcome them to the Almighty's abode.
Selflessness-devotion without motives desires is synonym to brightness-light, while devotion with desires-longing is darkness.
धूम अर्थात अन्धकार के देवता कृष्ण मार्ग से जाने वाले जीवों को रात्रि के अधिपति देवता को सौंप देते हैं, जो कि उन्हें कृष्ण पक्ष के देवता के सुपुर्द कर देते हैं। यहाँ से जीव को दक्षिणायन के अधिपति ग्रहण करते हैं और अब जीव को चन्द्र लोक के अधिपति प्राप्त करते हैं। यहाँ वह अमृत का पान करता है। चन्द्रमा पृथ्वी के सन्निकट है, जबकि चन्द्र लोक तो सूर्य लोक से भी कहीं आगे है। चन्द्र लोक अमृत चन्द्र मण्डल में आता है, जिससे शुक्ल पक्ष में औषधियों की पुष्टि होती है। कृष्ण मार्ग भी उर्ध्व गति का द्योतक है। ऐसे लोग पुनर्जन्म लेते वक्त श्रीमानों के घर में स्थान पाते हैं। ये व्यक्ति-साधक वो हैं, जो कि ऊँचे लोकों के प्राप्ति हेतु यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र आदि का आयोजन करते हैं। अतः ब्रह्म लोक तक पहुँच कर ब्रह्मा जी के साथ लय होने वाले और इन साधकों की गति में अन्तर है। जिस साधक का उद्देश्य ही भगवत्प्राप्ति है वो कभी भी शरीर छोड़ें :- दिन-रात, उत्तरायण-दक्षिणायन, शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष, उन्हें लेने लिए स्वयं भगवान् के पार्षद आते हैं।
निष्काम भाव प्रकाशमय और सकाम भाव अंधकारमय है। कृष्ण मार्ग को पितृ यान, धूम मार्ग और दक्षिण मार्ग भी कहा गया है।
The deity of darkness handover the expired-dead one to the deity of Krashn Marg (dark way, path-road), who in turn give him to the deity of night to be handed over to the deity of dark phase of Lunar fortnight. From here, he is surrendered to the deity of the southern path of Sun, leading him to the Chandr Lok which is much higher than the Sun's abode. The Lunar abode is different than the Luna which is comparatively closer to the earth. The organism in his minor form-body (सूक्ष्म शरीर) is fed with nectar, elixir, the Amrat to support him, till his rewarding-enjoying phase is over. Now, the organism returns to the earth to be born in the families of the devotees of the God, who are well to do, prosperous.
There is a lot of difference between the darkness associated with the hells and this dark route to Chandr Lok. Hells are full of tortures, pains, sorrow, worries unending tensions, anxieties etc. The route to Chandr Lok is meant for those who desire to attain Ultimate comforts and performs Yagy, Hawan, prayers, Agnihotr to attain them. Yet there are the humans-Yogis who's one point program is attainment of the God through devotion. For them the restriction of day-night, dark or bright phase of Moon, movement of Sun in northern hemisphere or southern hemisphere are meaningless, since the nominees of the God themselves come to earth to receive and welcome them to the Almighty's abode.
Selflessness-devotion without motives desires is synonym to brightness-light, while devotion with desires-longing is darkness.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)