Friday, June 24, 2016

PLEASURE-COMFORTS सुख-भोग

 PLEASURE-COMFORTS-ENJOYMENT 
सुख-भोग
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌। 
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥
पुष्पित वाणी से जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात भोगों की तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों की परमात्मा में एक निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती।[श्रीमद्भगवद्गीता साँख्य योग 2.44]  
One, whose inner self is dragged by the camouflaged language towards the comforts (pleasures, enjoyments, sensualities, passions, lust, sexuality) is enchanted by these, due to lack of determination & self discipline.
ऐसे व्यक्ति स्वर्ग के सुखों को ज्यादा महत्व देते हैं, जिन्हें अत्यधिक ख़ुशी-आनन्द प्रदायक माना जाता है। अप्सराएँ-सम्भोग, नाचना-गाना, मौज-मस्ती, बड़े-बड़े सुन्दर सरोवर, बाग-बगीचे और अमृत उन्हें वहाँ खींचता है।
सुख शब्द, स्पर्श, रूप-सौन्दर्य, रस और गन्ध से जुड़ा है। साथ में नाम, बड़ाई और आराम भी है। धन, सम्पत्ति, बँगला, गाड़ी (लगातार बड़ी होती हुई), मनुष्य में आसक्ति, खिंचाव-जुड़ाव उत्पन्न करते हैं। आसक्ति महत्व बुद्धि-आसुरी प्रवृति की द्योतक है। उनके लिये सांसारिक-शारीरिक सुख ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। 
इससे भी विचित्र बात ये है कि वे इन सभी भोगों को मानवीय शरीर के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं। वे ये भूल जाते हैं कि मानव जन्म का मूल कारण मुक्ति-मोक्ष प्राप्त करना है, भटकना नहीं। आशाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं, तृष्णाओं का अन्त कभी नहीं होता, उनकी पूर्ति-संतुष्टि कभी नहीं होती। एक पूरी हुई; दूसरी शुरू। ये एक शृंखला की तरह है। 
Such people give more importance weightage to the the heavens due to the extreme pleasure for enjoyment, Apsras-nymphs for sex, dance & music, beautiful gardens and the elixir, which is present there. 
Pleasure is associated with pleasing words, soothing touch, beauty, extracts for drinking (juices, wine, elixir, nectar) and smells-fragrances, physical rest-pleasures, honour and name, fame, glory. Worldly pleasures are obtained through wealth, property, vehicles (always increasing in size & comforts) etc. They generate attraction, attachment, bonding, which is purely demonic tendency. For them physical comforts are more important. What is unique is that they want to experience the comforts of heaven through this material body! The real cause behind the availability of birth as a human being is to worship, pray-make efforts, for assimilation in God and not to venture for any thing else. The main thing behind the desires is, failure to achieve saturation-satisfaction. More one obtain more he crave for. The comforts-luxuries are never ending and have a chain formation.
Its possible to have every thing and still keep aloof, uninvolved, unattached like king Janak and Achary Chanky. While performing one's duties with dedication, honestly, piously, if one is able to get luxuries, its alright but indulgence is harmful. It divert one away from the Almighty.
भोग :: अनुभूति, अनुभव, समझना, संवेदन, बूझ, पीड़ा, कष्ट, क्लेश, यंत्रणा, आनंद, उपभोग, संतुष्टि, संभोग, विहार, आपदा; enjoyment, suffering, perception.
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ। 
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥
हे भरत श्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझ से सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है, वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण, पहले विष के तुल्य प्रतीत होता है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.36] 
O the Ultimate- (Outstanding, excellent) amongest the descendants of Bharat! Out of the three types of comforts (pleasure, enjoyment, happiness, delight, amusement, dalliance), the one which an individual experiences (attains, achieves, gains) through practice and which terminates the grief (distress, pain, sadness, sorrow), is Satvik.
ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि घृति का ध्येय सुख प्राप्ति की है। राजस और तामस सुख यथा विषय, अभिमान, निद्रा, प्रशंसा जन्य सुख सभी प्राणियों को अच्छे लगते हैं। अर्जुन ने राजस और तामस सुखों, स्वर्ग में अप्सराओं को ठुकरा दिया और नींद पर भी विजय प्राप्त की। पारमार्थिक पथ पर चलने में अगर कुछ बाधक है तो, वह है सुख की चाहत। सात्विक सुख भी साधक की एकाग्रता में बाधक है, क्योंकि यह बाँधने वाला है। इतना ही नहीं एकाग्रता, ध्यान, समाधि का सुख भी बन्धनकारी हो सकता है। सात्विक सुख में अभ्यास की आवश्यकता तो है, परन्तु उनमें रमण-भोग उचित नहीं है, क्योंकि यह बाँधने वाला है। इसमें अभ्यास से ज्यों-ज्यों रूचि बढ़ती है त्यों-त्यों पापों और दुःखों का नाश होता है और मनुष्य गुणातीत हो जाता है। साँसारिक सुखों से उपरत होकर परमात्म तत्व में विलीन होने पर, जिस सुख का अनुभव होता है, वही सात्विक है। परमात्म तत्व का सुख अक्षय सुख है और स्वतः अनुभव किया जाता है। 
Desire for comforts, create hurdles in the path of social workers-devotees, who follow the path of the service-welfare of mankind and wish to achieve the Ultimate. If, a devotee seeks comforts in profound meditation and concentration, complete restraint of senses and mind or complete absorption; they will also create hurdles-obstacles in the achievement of the Ultimate. The Ultimate pleasure “Permanand-Bliss” is experienced automatically by the Satvik, by eliminating comforts, which is durable and everlasting.
Whole life is wasted in culmination of Rajsik and Tamsik comforts by the ambitious, without recognising the existence of real Satvik comforts, which needs practice through listening, study, understanding, application, development of skill in scriptures, meditation and drifting away from Rajsik-Tamsik tendencies.
Enhancement of interest in Satvik practices terminates the grief to some extent and enhances the comforts and pleasures many fold, but it does not eliminate them completely. Practice is essential to detract the brain (thoughts, will, mood) from passions-degradation.
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। 
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥
वह सुख जो प्रारम्भ में विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह होता है, वह सुख सात्विक कहा गया है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.37]  
मानव जन्म का ध्येय जो सात्विक सुख है, वह परोक्ष है और उसका कभी अनुभव नहीं हुआ। अतः सात्विक सुख प्रारम्भ में जहर की तरह उन्हीं लोगों को लगता है, जिनका राजस और तामस सुख में राग है। राजस और तामस सुख का अनुभव मनुष्य को है। इसलिए इसका त्याग करने में परेशानी होती है और यह जहर के समान लगता है।
Pleasures (generated through happiness and satisfaction of the mind), which appears to be poisonous in the beginning but turn out to be nectar-elixir ultimately is Satvik comfort. 
जिन लोगों का सांसारिक भोगों से स्वाभाविक वैराग्य है, जिनकी पारमार्थिक शास्त्राध्ययन, सत्संग, कथा-कीर्तन साधन-भजन आदि में स्वाभाविक रूचि है और जिनके ज्ञान, कर्म, बुद्धि और घृति सात्विक हैं, उन्हें यह प्रारम्भ से ही अमृत के समान आनन्द देने वाला है। उनको इसमें कोई कष्ट, परिश्रम दिक्क़त नहीं होती। 
सात्विक गुणों के आते ही इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता, ज्ञान का प्रकाश, शान्ति, निर्विकारता, आदि गुण प्रकट होने लगते हैं। जो कि परिणाम में-अक्षय सुख प्रदान करने वाले हैं। इनसे जड़ता समाप्त होती है और परमात्मा की प्राप्ति होती है। 
Satvik pleasures are generated through devotion to the Almighty. Anything that has evolved, will perish. Therefore, it’s understood that comforts can’t terminate grief and one should not crave for them as well. One, who rises over Satvik pleasures achieves the termination of pains and becomes most virtuous. The spiritual, who solely rises above worldly detachable pleasures and dissolves himself in deep thoughts-meditation of the Almighty, is Satvik.
Satvik pleasure has neither been attained nor experienced and is only conceived as a goal; but Rajsik (passionate) and Tamsik (degradation-darkness) pleasures have been experienced, in previous births. The memory of Rajsik and Tamsik pleasures generate quick attachment for them. It’s therefore difficult to alienate from them. That is the reason, why the Satvik is like poison in the beginning and nectar-elixir in the end. In fact Satvik is not like poison, it’s the rejection-detachment of Rajsik and Tamsik which appears like poison.
Those, who have detached from worldly pleasures and have interest in spirituality, whose knowledge, intelligence and Ghrati are Satvik; take it like elixir from the very beginning. They do not find any trouble, difficulty, labour, tension or pain in them. Efforts made by the devotee, are blessed with the generation of inner purity, purity of senses, peace, freedom from defects, wisdom, prudence, goodness of behaviour. Display of these characters is the elixir like result of imperishable Satvik pleasures. Satvik pleasure uplifts the devotee from Rajsik and Tamsik comforts, eliminating inertness-numbness, immorality-isolation with achievement of God and so it’s Satvik. Satvik dalliance is binding and rejection is vanishing of pains. All sorts of comforts lead to satisfaction of passions and ultimately downfall is certain. Rejection of all sorts of comforts is Yog-assimilation in Supreme Soul-the Almighty.
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्त-दग्रेऽमृतोपमम्। 
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले, आरम्भ-भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को परिणाम में विष के तुल्य) है, इसलिए वह सुख राजस कहा गया है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.38]  
Pleasure obtained by the combination of senses and sensuality (passions), appears to be elixir-nectar in the beginning and ends as poison (pain-sorrow, imprisonment, hells), is Rajsik.
The individual-organism experienced the pleasures associated with senses and sensuality in each and every birth, species or animate form. Rajsik comforts do not need any practice or training. They remain in the memory of the soul, from one birth to another. Its a continuous unbreakable process.
अनुभव किया हुआ राजस और तामस सुख जो अनेकानेक योनियों में भोगा है, त्याज्य है। सात्विक सुख जिसका अनुभव नहीं है-लक्षित है; वह जहर के समान उसी को प्रतीत होगा, जिसको राजस और तामस सुख के प्रति राग है और वो विवेक का उपयोग नहीं कर रहा। जिसको सांसारिक सुखों से वैराग्य है, भजन-कीर्तन, परमार्थ में रूचि है, शास्त्राध्ययन, सत्संग, साधना से लगाव है; जिनकी बुद्धि, घृति, गुण, कर्म, स्वभाव सात्विक हैं, उनको तो सात्विक सुख प्रारम्भ से ही अमृत के सदृश लगता है। सत्व गुण के आने पर इन्द्रयों, अन्तःकरण में निर्मलता, स्वच्छता, ज्ञान का प्रकाश, शांति, निर्विकारता आदि सद्भाव-सद्गुण प्रकट होने लगते हैं और इन्हीं का प्रकट होना सात्विक सुख को परिणाम में अमृत तुल्य बना देता है। सात्विक गुण जड़ता से सम्बन्ध विच्छेद कराकर परमात्मा जोड़ देता है।
Initially, expectation of comforts is more thrilling as compared to a situation, when they are obtained slowly and gradually, these comforts loss charm and attraction and a time comes when the capability to enjoy is either reduced considerably or lost completely. Then the strength, power, vigour potency vanishes and the disabled person do not obtain any charm or comfort from them, anymore and develops distaste and may looses interest. If, he still continues with them, they create pain, tensions, worries, sorrow and loss of mental peace and stability. Those who are in jail-prison or hell or taking birth after rebirth, have enjoyed the Rajsik pleasures, in one or the other life.
The poor-have not, is happy with whatever he has. Experience of poverty after being rich is painful. One is not sure whether his goals will be accomplished or not, but once accomplished, desire for more success develops. New desires, more wishes crop up in the mind of the individual, which are never ending. Unfulfilled desires always create uneasiness. They rattle the mind every now and then.
Rajsik comforts do not kill like poison, they recreate death in many births. Even if the person goes to paradise-heaven, there also he suffers due to envy-ego, pain and ultimately returns to earth. Interest-indulgence in sins begins the unending journey, cycles of births-rebirths, hell.
Satvik person looks to the results of comforts and the Rajsik person to immediate pleasure. Loss of interest in worldly affairs paves the path of liberation through prudence, capacity to analyse, cause and effect, result and by not initiating the chain of pleasures-comforts.
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः। 
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥
निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ-भोगकाल में तथा परिणाम में भी अपने को मोहित करने वाला है, वह सुख तामस कहा गया है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.39]  
Pleasures-comforts generated by sleep, laziness-drowsiness and intoxication-frenzy (indolence and heedlessness), which is delusive and Tamsik in the beginning and the result as well.
सीमा से अधिक बढ़ने पर राग तमोगुण धारण कर लेता है। राग से मोह, मोह से मूढ़ता और नींद अधिक आने लगती है। गहरी नींद ना आने से तन्द्रा-बेहोशी और फिर स्वप्न अधिक आने लगते हैं। तामसिक मनुष्य सोता ज्यादा है। यह उसे निकम्मा बनाता है और उसके इन्द्रियों में शिथिलता बढ़ती है। इससे चिंता, विषाद, शोक, दुःख अशान्ति आती है। उसमें प्रमाद उत्पन्न होता है जिससे दुर्व्यसन, दुराचार, बेईमानी, कपट, चोरी, डकैती, अभक्ष्य-भक्षण, व्याभिचार आदि शुरू हो जाते हैं। उसे इन्हीं में ही सुख मिलता है। 
तमोगुणी मनुष्य में सत्व गुण, विवेक, ज्ञान ढँक जाते हैं। ऐसा व्यक्ति परिणाम नहीं देख पाता। 
साधक लेटे हुए भी परमात्मा को स्मरण करता रहता है। वह काम करते, घूमते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते भी प्रभु को स्मरण करता रहता है। 
Sleep is essential but too much-excessive sleep is dangerous-toxic, bad, leading to wastage of time and money. Laziness is always harmful, as it creates trouble-hurdles for the individual in all walks of life. A lazy person spends most of his time in rest and idling, which weakens his senses and organs. Such people tend to loose mental peace, solace and tranquillity. Their hearts are filled with sorrow, anxiety, worries and apprehensions.
Intoxication-frenzies makes a person sit idle, avoid essential work and duties. Such people waste their time in unlawful, antisocial, anti people, criminal activities like smoking, drinking, theft, conceit, dishonesty, wickedness, adultery, addiction, vices, lies, even torturing others-terrorise and what not!
Intoxication covers prudence, wisdom, ability to think and take proper decisions. Tamsik nature of the individual fills him with sleep, laziness and intoxication. One must sleep, but he must not be unconscious. Deep sleep relaxes him from tiredness after hard work-labour. The devotee, who is close to approach the Almighty, obtains rest in a state of trans or meditation. One can recite HIS names-verses while working or even laying down. Rest regenerates energy, vigour and vitality of the individual. A healthy person may sleep from 5-8 hours in a day. Timely nap reduces tiredness and fatigue. It should be avoided during the day. It has curative effect during illness as it relives pain and discomfort. Arjun-incarnation of Nar (incarnation of Vishnu), had won (overcome) sleep.
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्याल्लभते परं।
स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत्-स्वातंत्र्यात् परमं पदम्॥
स्वतंत्रता-राग द्वेष की अधीनता से रहित व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है। स्वतंत्रता से ही परम तत्त्व, परम पद, आत्म ज्ञान, परम शान्ति की उपलब्धि होती है।[अष्टावक्र गीता 18.50]
Detachment-freedom from bandages, ties, attachments leads to pleasure. Relinquishment provides ultimate abode, understanding, peace, enlightenment.
 
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ  (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)