DETACHED-RELINQUISHED
गुणातीत
(CHARACTRICES OF A PERESON CLOSE TO THE ALMIGHTY
ईश्वराधीन पुरुषों के लक्षण)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन :: महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 38 वें अध्याय में भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन किया गया है।
अर्जुन :- हे वासुदेव! त्रिगुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है। हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है।
श्री कृष्ण :- हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्य रूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है। जो साक्षी के सदृश्य स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं; ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता। जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाववाला है। जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भ में कर्तापन के अभिमान-से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भली-भाँति लाँघकर सच्चिदानन्दन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है।
सगुण परमेश्वरी की उपासना का फल निर्गुण-निराकार ब्रह्म की प्राप्ति है।
अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एक रस आनंद का आश्रय मैं (परब्रह्म परमेश्वर) हूँ।
गुणातीत पुरुष के अन्दर ज्ञान, शांति और आनन्द नित्य रहते हैं; उनका कभी अभाव नहीं होता।
सत्त्वगुणी जातक में सत्त्वगुण की प्रकाश-वृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है तो गुणातीत पुरुष उससे द्वेष नहीं करता और जब तिरोभाव हो जाता है। वह पुनः उसके आगमन की इच्छा नहीं करता उसके प्रादुर्भाव और तिरोभाव में सदा एक सी स्थिति रहती हैं।
नाना प्रकार के कर्म करने की स्फुरणा का नाम प्रवृत्ति है। इसके सिवा जो काम, लोभ, स्पृहा और आसक्ति आदि रजोगुण के कार्य हैं, वे गुणातीत पुरुष में नहीं होते। कर्मों का आरम्भ गुणातीत के शरीर-इन्द्रियों द्वारा भी होता है, वह प्रवृत्ति के अन्तर्गत ही आ जाता है अतएव यहाँ रजोगुण के कार्यों में से केवल ‘प्रवृत्ति’ में ही राग-द्वेष का अभाव दिखलाया गया है। किसी भी स्फुरणा और क्रिया के प्रादुर्भाव और तिरोभाव में सदा ही उस मनुष्य की एक सी ही स्थिति रहती हैं।
अन्तःकरण की जो मोहिनी वृत्ति है, जिससे मनुष्य को तन्द्रा, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थायें प्राप्त होती हैं तथा शरीर, इन्द्रिय, और अन्तःकरण में सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश का अभाव सा हो जाता है, उसका नाम मोह है। इसके सिवा जो अज्ञान और प्रमाद आदि तमोगुण के कार्य है, उसका गुणातीत में अभाव हो जाता है; क्योंकि अज्ञान तो ज्ञान के पास आ नहीं सकता और प्रमाद बिना कर्ताके करे कौन इसलिये यहाँ तमोगुण के कार्य में केवल मोह के प्रादुर्भाव और तिरोभाव में राग-द्वेष का अभाव दिखलाया गया है। गुणातीत पुरुष के शरीर में तन्द्रा, स्वप्न या निद्रा आदि तमोदगुण की वृत्तियाँ व्याप्त होती है, तब तो गुणातीत उनसे द्वेष नहीं करता और जब वे निवृत्त हो जाती है, तब वह उनके पुनरागमन की इच्छा नहीं करता। दोनों अवस्थाओं में ही उसकी स्थिति सदा एक सी होती है।
जिन जीवों का गुणों के साथ सम्बन्ध है, उनको ये तीनों गुण उनकी इच्छा न होते हुए भी बलात्कार से नाना प्रकार के कर्मों में और उनके फलभोगों में लगा देते हैं। एवं उनको सुखी-दुखी बनाकर विक्षेप उत्पन्न कर देते हैं तथा अनेकों योनियों में भटकाते रहते हैं परन्तु जिसका इन गुणों से सम्बन्ध नहीं रहता, उस पर इन गुणों का कोई प्रभाव नहीं रह जाता। गुणों के कार्यरूप शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण अवस्थाओं का परिर्वतन तथा नाना प्रकार के सांसारिक पदार्थों का संयोग वियोग होते रहने पर भी वह अपनी स्थिति में सदा निर्विकार एकरस रहता है यही उसका गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जाना है।
इन्द्रिय, मन बुद्धि और प्राण आदि समस्त करण और शब्दादि सब विषय, ये सभी गुणों के ही विस्तार है; अतएव इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि का जो अपने अपने विषयों में विचरना है, वह गुणों का ही गुणें में बरतना है, आत्मा का इसमें कुछ भी सम्भव नहीं हैं। आत्मा नित्य, चेतन, सर्वथा असंग, सदा एक रस, सच्चिदानन्दन है, ऐसा समझकर निर्गुण-निराकार सच्च्दिानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा में जो अभिन्नभाव से सदा के लिये नित्य स्थित हो जाना है, वही गुण ही गुणों में बरत रहे हैं यह समझकर परमात्मा में स्थित रहना है।
गुणातीत पुरुषों को गुण विचलित नहीं कर सकते, इतनी ही बात नहीं है वह स्वयं भी अपनी स्थिति से कभी किसी भी काल में विचलित नहीं होता।
साधारण मनुष्यों की स्थिति प्रकृति के कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण, इन तीन प्रकार के शरीरों में से किसी एक में रहती ही है अतः वे स्वस्थ नहीं है, किंतु प्रकृतिस्थ हैं और ऐसे पुरुष ही प्रकृति के गुणों को भोगने वाले हैं (श्रीमद्भागवत गीता 13.21), इसलिये वे सुख-दुख सम नहीं हो सकते। गुणातीत पुरुष का प्रकृति और उसके कार्य से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता अतएव वह स्वस्थ है, अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित है। इसलिये शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में सुख और दुःखों का प्रादुर्भाव और तिरोभाव होते रहने पर भी गुणातीत पुरुष का उनसें उनसे कुछ भी सम्बन्ध न रहने के कारण वह उनके द्वारा सुखी-दुखी नहीं होता उसकी स्थिति सदा सम ही रहती है यही उसका सुख-दुःख को समान समझना है।
जो पदार्थ शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि के अनुकुल हो तथा उनका पोषक, सहायक एवं सुखप्रद हो, वह लोकदृष्टि से प्रिय कहलाता है और जो पदार्थ उनके प्रतिकूल हो, उनका क्षयकारक, विरोधी एवं ताप पहुँचाने वाला हो, वह लोकदृष्टि से अप्रिय माना जाता है। साधारण मनुष्यों को प्रिय वस्तुओं के संयोग में और अप्रिय के वियोग में राग और हर्ष तथा अप्रिय के संयोग में और प्रिय के वियोग में द्वेष और शोक होते हैं किंतु गुणातीत में ऐसा नहीं होता, वह सदा-सर्वदा राग-द्वेष और हर्ष-शोक से सर्वथा अतीत रहता है।
किसी के सच्चे या झूठे दोषों का वर्णन करना निन्दा है और गुणों का बखान करना स्तुति है इन दोनों का सम्बन्ध, अधिकतर नाम से और कुछ शरीर से है। गुणातीत पुरुष का शरीर और उसके नाम से किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न रहने के कारण उसे निन्दा या स्तुति के कारण शोक या हर्ष कुछ भी नहीं होता।
मान और अपमान का सम्बन्ध अधिकतर शरीर से है। अतः जिनका शरीर में अभिमान है, वे संसारी मनुष्य मान में राग और अपमान में द्वेष करते हैं इससे उनको मान में हर्ष और अपमान में शोक होता है तथा वे मान करने वाले के साथ प्रेम और अपमान करने वाले से वैर भी करते हैं परन्तु गुणातीत पुरुष का शरीर से कुछ भी सम्बन्ध न रखने के कारण न तो शरीर का मान होने से उसे हर्ष होता है। और न अपमान होने से शोक ही होता है। उसकी दृष्टि में जिसका मान-अपमान होता है, जिसके द्वारा होता एवं जो मान-अपमान रूप कार्य हैं, ये सभी मायिक और स्वप्रवत है अतएव मान-अपमान से उसमें किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष और हर्ष-शोक नहीं होते। यही उसका मान और अपमान में सम रहना है।
यद्यपि गुणातीत पुरुष का अपनी और से किसी भी प्राणी में मित्र या शत्रु भाव नहीं होता, इसलिये उसकी दृष्टि में कोई मित्र अथवा वैरी नहीं है, तथापित लोग अपनी भावना के अनुसार उसमें मित्र और शत्रुभाव की कल्पना कर लेते हैं किंतु वह दोनों पक्षवालों में समभाव रखता है, उसके द्वारा बिना राग-द्वेष के ही सम्भाव से सब के हित की चेष्टा हुआ करती है, वह किसी का भी बुरा नहीं करता और उसकी किसी में भी भेदबुद्धि नहीं होती। यही उसका मित्र और वैरी के पक्षों में सम रहना हैं।
जब तक अन्तःकरण में राग-द्वेष, विषमता, हर्ष-शोक, अविद्या और अभिमान का लेशमात्र भी रहे, तब तक साधक को समझना चाहिये कि अभी गुणातीत अवस्था नहीं प्राप्त हुई है।
केवल मात्र एक परमेश्वर ही सबसे श्रेष्ट है वे ही हमारे स्वामी, शरण लेने योग्य, परम गति और परम आश्रय तथा माता-पिता, भाई-बंधु, परम हितकारी और सर्वस्व है उसके अतिरिक्त हमारा और कोई नहीं- ऐसा समझकर उसमें जो स्वार्थ-रहित अतिशय श्रद्धापूर्वक अनन्य प्रेम है अर्थात जिस प्रेम में स्वार्थ, अभिमान और व्यभिचार का जरा भी दोष न हो। जो सर्वथा और सर्वदा पूर्ण और अटल रहे, जिसका तनिक-सा अंश भी भगवान् से भिन्न वस्तु के प्रति न हो और जिसके कारण क्षणमात्र की भी भगवान् की विस्मृति असह्य हो जाय, उस अनन्य प्रेम का नाम अव्यभिचारी भक्ति योग है। ऐसे भक्ति योग के द्वारा जो निरन्तर भगवान् के गुण, प्रभाव और लीलाओं का श्रवण-कीर्तन मनन, उसके नामों का उच्चारण, जप तथा उनके स्वरूप का चिन्तन आदि करते रहना है एवं मन, बुद्धि और शरीर आदि तथा समस्त पदार्थों को भगवान् का ही समझकर निष्काम भाव से अपने को केवल निमित्त मात्र समझते हुए उनके आज्ञानुसार उन्हीं की सेवारूप में समस्त क्रियाओं को उन्हीं के लिये करते रहना है, यही अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा भगवान् को निरन्तर भजना है।
गुणातीत होने से साथ ही मनुष्य ब्रह्मभाव को अर्थात जो निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्द पूर्णब्रह्म है, जिसको पा लेने के बाद कुछ भी पाना काफी नहीं रहता, उसकों अभिन्नभाव से प्राप्त करने के योग्य बन जाता है और तत्काल ही उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
गीता के पांचवें अध्याय के इकीसवें श्लोक में जो ‘अक्षय सुख’ के नाम से, छठे अध्याय के ईक्कीसवें श्लोक में ‘आत्यन्तिक सुख’ के नाम से और अठाईसवें श्लोक में ‘अत्यन्त सुख’ के नाम से कहा गया है, उसी नित्य परमात्मानंद को यहाँ ‘ऐकान्तिक सुख’ अर्थात् अखण्ड एकरस आनंद कहा गया है। उसका आश्रय (प्रतिष्ठा) अपने को बतलाकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि वह नित्य परमानंद मेरा ही स्वरूप है, मुझसे भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं है अतः उसकी प्राप्ति मेरी ही प्राप्ति है।
गुकारश्च गुणातीतो रूपातीतो रुकारकः।
गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
‘गु’ कार से गुणातीत कहा जाता है, ‘रु’ कार से रूपातीत कहा जाता है। गुण और रूप से पर होने के कारण ही गुरु कहलाते हैं।[गुरु गीता 1.35]
Gu-गु stands for transcendental-The Supreme (God) and Ru-रु comes for converted-brought into form. The Guru has no person identity of his own. He just conveys the knowledge granted to him by the Almighty.
गुणातीत :: गुणों से अल्पित, परे और भिन्न, जिसका सत्त्व, रज आदि गुणों से कोई सम्बन्ध न हो और जो इन सब से परे हो, परमात्मा या ब्रह्म की संज्ञा, परमात्मा; Beyond the Gun-traits, qualities, characteristics, a title of the unqualified Supreme being-Transcendental, free from or beyond all properties.
जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है, जो अपनी निंदा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। जो मनुष्य प्रकृति जन्य गुणों से दूर-उदासीन-सम-तटस्थ है, वह गुणातीत है; (beyond virtues, unqualified supreme being). The patient-courageous-steadfast, who remains equanimous (indifferent, neutral) in pleasure & pain and stabilised in himself; weighs gold, like a lump of clay and stone equally; remains unaffected towards likes & dislikes; neutral towards insult & honour (censure and in praise); maintains normal relations with both friends and foes; has rejected new ventures since beginning; is relinquished, detached, renounced, transcended.
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥
जो व्यक्ति कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और स्वयं में सदा तृप्त-नित्य संतुष्ट है, वह कर्मों में लगा हुआ होकर भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.20] One who has given up (rejected, relinquished) attachment for the actions and their fruits, is always content with him self and is independent, though engaged in actions, is a not a doer-performer, in essence-reality.
कर्म करते हुए कर्ता का यह भाव कि शरीरादि कर्म-सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा औए मेरे लिए है तथा इसका मुझे यह-अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्म फल का हेतु बन जाता है। अगर इनमें किञ्चित मात्र भी आसक्ति नहीं है तो वो कर्मफल का हेतु नहीं बनता। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि का किञ्चित मात्र भी आश्रय न लेना निराश्रय है। उसे स्वतः सिद्ध नित्य तृप्ति का अनुभव हो जाता है। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसार के हित में होते हैं।
सांगोपांग रीति से सब कर्म करते हुए भी वह वास्तव में किञ्चित मात्र कोई कर्म नहीं करता, क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त के साथ कर्म का स्पर्श ही नहीं होता तथा उसके सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। अतः वह कर्मफल से बँधता ही नहीं।
The thinking (understanding) of the doer that this body, the objects, materials, (aims, targets, goals) to perform are mine, the deeds are mine, I will be rewarded in this or that manner, become the motive for performance-more & more repeated performances. If one is not inclined (attached, interested) in the result oriented deeds, he remains aloof (unstained, unslurred, untainted) from the outcome-result of the deeds. Not to seek dependence over country-place, period (era, time), object-material, individuals, situations makes one independent. He starts realising contemplation-satisfaction. All his deeds-motives are directed towards the well being of the masses-society. This is the state when he does every thing strictly according to the dictates of scriptures-Shastr but the deeds & their out come become null and void, since he is detached (relinquished, content). He remains untied (unbonded, free) with the deeds and their out come.
The relinquished performs but is not tied by the impact, result, out come of the deeds.
कर्म करते हुए कर्ता का यह भाव कि शरीरादि कर्म-सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा औए मेरे लिए है तथा इसका मुझे यह-अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्म फल का हेतु बन जाता है। अगर इनमें किञ्चित मात्र भी आसक्ति नहीं है तो वो कर्मफल का हेतु नहीं बनता। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि का किञ्चित मात्र भी आश्रय न लेना निराश्रय है। उसे स्वतः सिद्ध नित्य तृप्ति का अनुभव हो जाता है। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसार के हित में होते हैं।
सांगोपांग रीति से सब कर्म करते हुए भी वह वास्तव में किञ्चित मात्र कोई कर्म नहीं करता, क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त के साथ कर्म का स्पर्श ही नहीं होता तथा उसके सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। अतः वह कर्मफल से बँधता ही नहीं।
The thinking (understanding) of the doer that this body, the objects, materials, (aims, targets, goals) to perform are mine, the deeds are mine, I will be rewarded in this or that manner, become the motive for performance-more & more repeated performances. If one is not inclined (attached, interested) in the result oriented deeds, he remains aloof (unstained, unslurred, untainted) from the outcome-result of the deeds. Not to seek dependence over country-place, period (era, time), object-material, individuals, situations makes one independent. He starts realising contemplation-satisfaction. All his deeds-motives are directed towards the well being of the masses-society. This is the state when he does every thing strictly according to the dictates of scriptures-Shastr but the deeds & their out come become null and void, since he is detached (relinquished, content). He remains untied (unbonded, free) with the deeds and their out come.
The relinquished performs but is not tied by the impact, result, out come of the deeds.
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छा रहित कर्म योगी-मनुष्य केवल शरीर-निर्वाह संबंधी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.21] One who has controlled his body and the inner self (soul, heart, ego psyche & mind), who has rejected-relinquished the collection (storage, accumulation, possessions) of every thing, a desires free person-Karm Yogi is not tainted-slurred, while doing-discharging all his duties pertaining to the sustenance of the body.
कर्मयोगी आशा और इच्छा से मुक्त है। अतः उसका शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वश में हो जाते हैं। सन्यास की अवस्था में कर्मयोगी सब प्रकार के भोग-संग्रह का परित्याग कर चुका है। गृहस्थ हो, तो भी वह भोग की दृष्टि से किसी चीज का संग्रह नही करता, अपितु संसार की सेवा के दृष्टिकोण से रखता है। उसमें कामना, आशा, स्पृहा, वासना नहीं रहते। निवृति परायण कर्मयोगी केवल शरीर-निर्वाह के लायक न्यूनतम कर्म ही करता है। क्योंकि उसका कर्म करने अथवा न करने से अपना किञ्चित मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वह जन्म-मरण तथा पाप से भी मुक्त है। उसमें आलस्य-प्रमाद भी नहीं हैं। उसके शरीर, इन्द्रियांँ संयत हैं।
Karm Yogi is free from desires-motivation. His physique, sense organs and the inner self (soul, heart, ego, sentiments, psyche & mind) are disciplined-under control. As a hermit (wanderer, recluse), he has relinquished (rejected) the tendency to accumulate (collect, store) goods for comforts-utilisation. As a household-family member, he possess these commodities for the benefit-utilisation of others-as a component social responsibilities. He is liable to fulfil his families needs as a responsibility. He is free from desires-wants, hope, sensuality, sexuality, passions. One who has the tendency to Liberate, stocks-piles only that much goods as are needed for sustenance-subsistence. Since, he has no relation with deeds-performances or non performances, he is free from sins & birth or death. He is free from laziness & intoxication. His physique and sense organs are balanced. Mentally, he is sound-perfect.
The needs of the relinquished are barest possible, minimum. He has no desire or ambition. He performs for the sake of others and does not accumulate-acquire any thing for himself.
कर्मयोगी आशा और इच्छा से मुक्त है। अतः उसका शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वश में हो जाते हैं। सन्यास की अवस्था में कर्मयोगी सब प्रकार के भोग-संग्रह का परित्याग कर चुका है। गृहस्थ हो, तो भी वह भोग की दृष्टि से किसी चीज का संग्रह नही करता, अपितु संसार की सेवा के दृष्टिकोण से रखता है। उसमें कामना, आशा, स्पृहा, वासना नहीं रहते। निवृति परायण कर्मयोगी केवल शरीर-निर्वाह के लायक न्यूनतम कर्म ही करता है। क्योंकि उसका कर्म करने अथवा न करने से अपना किञ्चित मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वह जन्म-मरण तथा पाप से भी मुक्त है। उसमें आलस्य-प्रमाद भी नहीं हैं। उसके शरीर, इन्द्रियांँ संयत हैं।
Karm Yogi is free from desires-motivation. His physique, sense organs and the inner self (soul, heart, ego, sentiments, psyche & mind) are disciplined-under control. As a hermit (wanderer, recluse), he has relinquished (rejected) the tendency to accumulate (collect, store) goods for comforts-utilisation. As a household-family member, he possess these commodities for the benefit-utilisation of others-as a component social responsibilities. He is liable to fulfil his families needs as a responsibility. He is free from desires-wants, hope, sensuality, sexuality, passions. One who has the tendency to Liberate, stocks-piles only that much goods as are needed for sustenance-subsistence. Since, he has no relation with deeds-performances or non performances, he is free from sins & birth or death. He is free from laziness & intoxication. His physique and sense organs are balanced. Mentally, he is sound-perfect.
The needs of the relinquished are barest possible, minimum. He has no desire or ambition. He performs for the sake of others and does not accumulate-acquire any thing for himself.
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
अपने आप जो कुछ मिल जाये उससे वह संतुष्ट रहता है, जो ईर्ष्या से रहित, द्वंद्वों (हर्ष, शोक आदि) से रहित तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.22] One is satisfied-content with whatever comes his way through destiny (stroke of luck, fate) automatically-without efforts, is beyond enmity-envy & disputes, has attained equanimity towards success and failure, is not bound by the deeds-actions while doing-discharging them.
कर्मयोगी निष्काम भाव से सभी कर्तव्य-कर्म करता हुआ, फल प्राप्ति की इच्छा से रहित-कर्म के अनुकूल या प्रतिकूल, लाभ या हानि, मान अपमान, स्तुति-निन्दा से अपने अन्तःकरण में दोष उत्पन्न नहीं देता। उसके लिए समस्त चराचर के प्राणी एक समान हैं। उसे किसी से भी ईर्ष्या, ग्लानि, द्वेष नहीं है। उसका मन-मस्तिष्क अन्तर्द्वन्दों, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, से मुक्त है। वह द्वैत और अद्वैत, निर्गुण या निराकार के झगड़े-झंझट से दूर है। सिद्धि-असिद्धि में उसका सम भाव है। वह तो कर्म करते हुए भी नहीं बँधता-फिर अकर्म और कर्म न करने से तो कैसे बँधेगा!? वह तो पूर्ण रूप से निर्लिप्त है। उसे समता की प्राप्ति हो चुकी है।
Karm Yogi does every thing without attachment with it, without the desire of reward-positive out come of it. He does not bother weather the proceeds are gain or loss, praise or slur, insult or honour, prayer or blasphemy. For him the entire world is one. All its creatures-organisms are similar-identical having the component-soul of the Almighty, in them. His mind (mood, psyche, inner self, heart, soul) are never perturbed-disturbed, by pain or pleasure, enmity or friendship. He do not care for the duality of the Almighty. He has same attitude-equanimity, towards success and failure. He is unbonded-free, while working-performing deeds and therefore, he can not be tied (tainted, slurred), when he is not performing. He has attained equanimity.
Equanimity, contentedness, self satisfaction paves the way for the Karm Yogi.
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥
हे महाबाहो अर्जुन! जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, उस कर्म योगी को सदा संन्यासी ही जानना चाहिए, क्योंकि (राग, द्वेष आदि) द्वंद्वों से रहित पुरुष सुख पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.3]
O mighty Maha Baho Arjun! The Karm Yogi, who is free from envy-malice and desires, should be known as a renouncer of actions (hermit). One who is free from malice & desires, liberates easily from the worldly bondage-liabilities.
भगवान् ने अर्जुन को महाबाहु कहा क्योंकि वे बड़ी भुजाओं से सम्पन्न, शक्तिशाली, बलवान और शूरवीर थे। भगवान् श्री कृष्ण उनके मित्र और भाई अजातशत्रु धर्मराज युधिष्टर थे। तात्पर्य यह कि सेवा करना उनकी सामर्थ में था। ऐसा व्यक्ति सुगमता से कर्म योग का निर्वाह कर सकता है। कर्म योगी सबकी सेवा भलाई हेतु अहंकार-अभिमान से मुक्त होकर कार्य-कर्म करता है, विशेषतः अपने से द्वेष रखने वाली की भलाई के लिये। आकांक्षा-कामना का त्याग करने से वह निष्काम हो जाता है। युद्ध से बचकर भागना सन्यास नहीं है, अपितु कायरता है। अगर राग, द्वेष, बन्धन ही नहीं रहे तो युद्ध में कौन मरा, कौन बचा, यह अर्थ हीन है। कर्मयोग के बिना सन्यास-साँख्य योग संभव हैं ही नहीं और राग-द्वेष नहीं हैं तो अलग से सन्यास की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
परमात्म तत्व की प्राप्ति का साधक यदि सत्संग, स्वध्याय, विचार करके भी मन, इन्द्रिय संयम, न करके भोग संग्रह में रूचि रखता है, तो वह निद्वंद नहीं रहा। वह सुख, आराम, भोग, संग्रह की चेष्टा (प्रवृति, अभिलाषा) से दूर है तो केवल शेष रहा, सत्, चित्, आनन्दस्वरूप परमात्मा और यही मुक्ति है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग में साधक का निर्द्वंद होना परमावश्यक है।
Maha Baho stands for one who has long arms, is mighty, strong and victorious. Arjun was blessed with the friendship of the Almighty and a brother like Yudhishtar who had no enemies and stood for justice (equality, truth, piousity, honesty, righteousness). He had the capability to serve and it was easy for him to follow-practice Karm Yog. A Karm Yogi serves without ego (pride, conflicts, envy, malice). He qualifies for and becomes recipient of the Ultimate by rejecting the desires-attachments. Not to fight is cowardice, escape from duties (responsibilities, liabilities) Karm. Who dies, who survives is immaterial for him. Sankhy Yog-enlightenment is not possible without Karm Yog. One performs from the very first breath to his last. If there is no malice (envy, conflict, attachment, desire) there is no need to retire.
One who attends religious functions (conferences, meetings, gatherings, sermons), listens to the philosophers (scholars, enlightened, Pandits, learned Brahman, Guru), resort to self study. meditate-analyse, thinks and still dances to the tunes of his heart-desires, is unable to control senses, resorts to accumulation, pleasure, leisure; fails to meet the Ultimate. He is surrounded by problems (malice, conflicts, envy) etc. If he rejects such motives, he is left with the Parmanand (bliss, the Ultimate). Freedom from malice (envy, conflicts) is essential for Karm Yog, Gyan Yog as well as Bhakti Yog.
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥
जो पुरुष-भक्ति योगी, सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा-ब्रह्म में अर्पण करके, आसक्ति रहित होकर सब कर्मों को ब्रह्म (परमात्मा) द्वारा होने वाला जान कर करता है, वह पाप से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे जल में डूबा हुआ कमल का पत्ता, गीला नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.10]
The Yogi who is detached and free from bonds-ties performs by offering all his deeds to the Almighty-the Par Brahm Parmeshwar, remains unstained-unsmeared by the sins, just like the lotus leaf which remains in water without becoming wet.
साधक-भक्त जब यह मान लेता है कि इन्द्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि, शरीर सभी भगवान् के हैं; उनके द्वारा होने वाली समस्त क्रियाएँ भी भगवान् के द्वारा ही हो रहें हैं और वह तो निमित्त मात्र है, तो वह पाप युक्त नहीं हो पाता।
सम्पूर्ण कार्यों को कर्म योगी संसार को, साँख्य योगी प्रकति को और भक्ति योगी भगवान् को अर्पित करता है। प्रकृति और संसार दोनों के ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओं और पदार्थों को भगवान् को अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।
किसी प्राणी, प्रदत्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, क्रिया में किंचित मात्र भी राग, लगाव, आकर्षण, महत्व, खिंचाव, ममता, कामना आदि का न रहना, आसक्ति का सर्वता त्याग है। राग अज्ञान का मूल है और जन्म-मृत्यु का मुख्य कारण भी है। राग मिटा तो अज्ञान भी मिटा। राग या आसक्ति कामना पैदा करने वाली और सम्पूर्ण पापों की जड़ है। क्रिया जन्य सुख से फल में आसक्ति, अपने को महत्वपूर्ण (अच्छा, भला) कहलवाने की भावना आसक्ति ही है। जिस सुख से फलेच्छा-सुख पाने की ललक हो, वह कर्म अपना हो जाता है। अतः अपनी सुख-सुविधा, इच्छा का सर्वथा त्याग अति आवश्यक है। भक्ति योगी जल में खिले कमल की तरह है, जो कि जल में रहते हुए भी जल से निर्लिप्त है। भगवान् से विमुख होकर संसार की कामना सब पापों का मुख्य हेतु है। जिसने आशा, कामना, आसक्ति का त्याग कर दिया हो, उसे दोष-पाप नहीं लगता। सगुण ईश्वर ब्रह्म है, वह साकार, निराकार, निर्गुण भी है, क्योंकि वह समग्र है। अतः उससे विमुख भी नहीं होना चाहिए।
A little bit of inclination, attachment, attraction, importance, desire in the body, senses, mind, longevity, affection leads to reincarnations. Inclination-attachment is the root cause of ignorance. Detachment leads to loss of ignorance. Inclination (attachments, desires) give birth to sins. Desire for fame, comforts, recognition as good (gentle, great) is inclination-attachment. The deeds which have a motive become own, creating ties with the world i.e., birth and death. It is therefore, essential to reject the desire for comforts, riches, achievements. The Bhakti Yogi-devotee is comparable to the Lotus leaves which remains dry in spite of being in touch with water.
One who is indifferent-neutral towards the Almighty and desires all comforts (luxuries, wealth, riches) may turn into be a sinner. One who has rejected desires, motives remains untainted-unsmeared. The Almighty is complete-perfect in HIMSELF. HE is formless and with form-shape as well. HE has characteristics and HE is without characteristics as well. One should not be separable-detachable, neutral towards HIM.
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥
कर्म योगी आसक्ति को त्याग कर केवल (ममता रहित) इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.11]
The Karm Yogi functions (performs, acts) without attachment through the body, mind, intellect and mere senses for the purification of their conscience.
जो योगी भगवदर्पण-बुद्धि से कर्म करते हैं, वे भक्ति योगी कहलाते हैं। जो योगी संसार के सेवा निष्काम भाव से करता है वह कर्मयोगी है। अपने कहलाने वाले शरीर, मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि को भी परमार्थ में लगा देता है। ये चारों ही किसी भी दृष्टि से अपने नहीं हैं, क्योंकि वे भी नष्ट प्राय: हैं। उनके प्रति ममत्व पैदा करना बन्धन कारी है। इनके प्रति निर्मोही-निर्मम होने से आसक्ति और फलेच्छा मिटती है। एक ना एक दिन शरीर ने गिर जाना-नष्ट हो जाना है। यह हमेशां के लिए नहीं है। यह विचार शुद्धि करने वाले हैं, क्योंकि इनसे सूक्ष्म अपनापन भी दूर होता है।
The Yogi who performs while remembering the Almighty simultaneously, is a Bhakti Yogi. One who performs for the sake of others without attachment (motive, desire) for favour (reward) is Karm Yogi. He puts his body, intelligence, desires and the senses into the service of the man kind-humanity. These faculties are bound to perish sooner or later, since they do not belong to him. Nature created them and the nature will take them back. One should not develop affection (bonds, ties, rapport, relation) with them. Bonds with them leads to attachment and repeated incarnations. One should be neutral towards them, so that he becomes free. Detachment cuts the minute relationship-association with them helping one to be Liberated.
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥
ज्ञानी महापुरुष विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी और कुत्ते को समान देखते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.18]
The enlightened do not differentiate-distinguish between a learned Brahman possessed with humility, a Chandal-low caste, a cow, an elephant or a dog.
जो ब्राह्मण विद्वान् और विनम्र है, वो अहंकार से मुक्त और पूर्ण है। पूजा ब्राह्मण की, की जाती है, न कि चाण्डाल की। दूध गाय का पीया जाता है, न की कुतिया का और सवारी हाथी की, की जाती कि कुत्ते की। इनमें व्यवहार की समता सम्भव न होने पर भी तत्वतः सबमें परमात्म तत्व परि पूर्ण है। महापुरुष उस परमात्म तत्व को प्रधानता देते हैं, न कि उनकी शरीरिक रचना पर। उनकी दृष्टि विषम नहीं हो सकती। सर, पैर, हाथ और गुदा हमारे अपने हैं, मगर मनुष्य व्यवहार की दृष्टि से उन्हें भिन्न पाते हैं। हाथ-पैर की उँगलियों और अँगूठे के प्रति मनुष्यों के व्यवहार में भी अन्तर है। इनमें मनुष्यों का व्यवहार भले ही अलग-अलग हो, आत्मीयता एक समान है। सबमें दर्द-पीड़ा का अनुभव मनुष्यों को ही होता है। इसी प्रकार प्राणियों में खान-पान, शरीरिक रचना, गुण, आचरण, जाति गत भेद-अन्तर होता है और उसके अनुरूप ही व्यवहार भी किया जाता है। उन प्राणियों के प्रति महापुरुष के प्रेम, आत्मीयता, हित दृष्टि, दया की भावना समान बनी रहती है। उसके अन्तःकरण में राग-द्वेष, ममता, आसक्ति, अभिमान, पक्षपात, विषमता आदि का सर्वथा अभाव होता है। ऐसे पुरुष समदर्शी कहे गए हैं। अद्वैत भाव में होना चाहिए क्रिया-व्यवहार में नहीं।
A learned Brahman who possess humility is complete and deserve prayer, since he is free from ego-pride. One prays a Brahman but not the Chandal. He drinks milk of the cow not the bitch and rides an elephant not the the dog. He distinguishes between them practically but treat them as living beings, having the same soul-a component of the Almighty. The gist is that they too have the same spirit. The great souls-people give importance-credence to the presence of the Ultimate in them, not the physical configuration-structure. One has the head, mouth, hands-legs and the anus present in the same body. As far the practicality is there, his behaviour-treatment with them is different. He bears shoes in the feet and never keep them over the head. Mouth is to eat and not the anus. There is distinction between the fingers and the toes of the hands and the feet too. Still, when it pinches-pains, he gives equal importance-care to them. Distinction by virtue of eating habits, physique, caste, characters, behaviour remains but pity, desire to help and benefit, affection prevails equally. His heart is free from attachment, distinctions, pride, partiality. Such people are described as impartial-equanimous. Equanimity is there in feelings-sympathy not in practice-actions.
One who has acquired equanimity is relinquished.
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥
जिस समय वह त्यागी पुरुष न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सभी संकल्पों का वह त्यागी योगारूढ़ होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.4] When the relinquished is not indulged (involved, attached) to sensualities (sexuality, passions, consumption, resolutions, lasciviousness, lust) or the deeds-ambitions, he is said to have attained-established himself in Yog-assimilation in the Almighty.
मनुष्य यह विचार करके कि जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, वह नष्ट प्रायः है, निर्लिप्त हो जाये। जो कुछ भी प्रारब्ध वश मिला है, उसमें वो भोग बुद्धि न रखकर परमार्थ हेतु प्राप्त साधन समझे। कभी भी सुख भोग की कामना न करे और देव वश प्राप्त वस्तुओं से सुख प्राप्त होने पर उनके अधीन न हो। यदि उसके अपने निर्वाह से अधिक सामग्री है तो वह उसे अभाव ग्रस्त को अर्पित कर दे। मनुष्य को कभी भी इन्द्रियों और कर्म के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। कर्मों के फल के प्रति उसे उदासीन हो जाना चाहिए। मनुष्य (आत्मा, शरीरी, soul) स्वयं परमात्मा का अंश होने से नित्य अपरिवर्तनशील है। परन्तु शरीर पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृति का अंश होने से निरन्तर परिवर्तनशील-नश्वर हैं। मनुष्य संकल्प और विकल्प की तलाश न करे। संकल्प का त्याग करने वाला; योगी तो स्वतः ही हो जाता है। संकल्प से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य यह विचार कर ले कि मेरा जन्म अपने उद्धार के लिए हुआ है। कर्म योग का साधक आसक्ति रहित होकर कर्तव्य को पूरा करते रहे। ज्ञान योग के साधक को इस निश्चय पर दृढ़ रहना चाहिए कि सत्ता परमात्म तत्व की है, संकल्पों की नहीं। अतः उनके प्रति राग-द्वेष न रखकर उदासीन रहे। भक्ति योग का साधक यह विचार करे कि जो भी कोई संकल्प मस्तिष्क में आता है, वो या तो भूतकाल से सम्बंधित है अथवा भविष्यकाल से। अथवा उस पर विचार करना उचित नहीं है। अतः वो अपना मन परमात्मा की भक्ति में ही लगाये। सिद्धि-असिद्धि में सम और संकल्पों में उदासीन, निर्लिप्त, त्यागी योगारूढ़ रहे।
The humans should remember that what ever has evolved, will perish and should become detached-neutral. Whatever has come to him by way of destiny, should be utilised for the sake, welfare, benefit of the mankind without being involved-inclined mentally. Its (attainment, wealth, riches) with him and he is the custodian-caretaker only. One should never think of involving in pleasures. Whatever is in excess with him should be spent, shared, donated, given, spent over the welfare of needy. He should not have the ego of having done some thing for others. He should perform, but should never be inclined to the deeds (ambitions, goals, targets, motives, resolutions). He should be neutral to the result-reward of his actions done for the sake of others. He is a component of the Almighty and his body is a component of nature. He (as a soul) is forever-everlasting, while the body (resolutions, aims) are perishable. All goods and actions are part of the nature and will come to an end sooner or later, but he (as a soul) will remain till infinity, unless-until the soul immerse in the Almighty. Rejection of resolutions, disconnect him with the nature and he turn into a Yogi. He should forget the resolutions or their alternatives. He should remember that he is born to make efforts for Salvation. As a Karm Yogi, he has to perform without attachment for the welfare of the society. As a Gyan Yogi, he has to achieve the gist of the God (enlightenment not the fulfilment-contemplation of resolutions, desires). As a Bhakti Yogi, he has to be aware that neither the past nor the future are meant for resolutions and the present is meant for the prayers (dedication, devotion to the Almighty). So, one has to be neutral to achievements and failures and the resolutions as well, simultaneously.
मनुष्य यह विचार करके कि जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, वह नष्ट प्रायः है, निर्लिप्त हो जाये। जो कुछ भी प्रारब्ध वश मिला है, उसमें वो भोग बुद्धि न रखकर परमार्थ हेतु प्राप्त साधन समझे। कभी भी सुख भोग की कामना न करे और देव वश प्राप्त वस्तुओं से सुख प्राप्त होने पर उनके अधीन न हो। यदि उसके अपने निर्वाह से अधिक सामग्री है तो वह उसे अभाव ग्रस्त को अर्पित कर दे। मनुष्य को कभी भी इन्द्रियों और कर्म के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। कर्मों के फल के प्रति उसे उदासीन हो जाना चाहिए। मनुष्य (आत्मा, शरीरी, soul) स्वयं परमात्मा का अंश होने से नित्य अपरिवर्तनशील है। परन्तु शरीर पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृति का अंश होने से निरन्तर परिवर्तनशील-नश्वर हैं। मनुष्य संकल्प और विकल्प की तलाश न करे। संकल्प का त्याग करने वाला; योगी तो स्वतः ही हो जाता है। संकल्प से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य यह विचार कर ले कि मेरा जन्म अपने उद्धार के लिए हुआ है। कर्म योग का साधक आसक्ति रहित होकर कर्तव्य को पूरा करते रहे। ज्ञान योग के साधक को इस निश्चय पर दृढ़ रहना चाहिए कि सत्ता परमात्म तत्व की है, संकल्पों की नहीं। अतः उनके प्रति राग-द्वेष न रखकर उदासीन रहे। भक्ति योग का साधक यह विचार करे कि जो भी कोई संकल्प मस्तिष्क में आता है, वो या तो भूतकाल से सम्बंधित है अथवा भविष्यकाल से। अथवा उस पर विचार करना उचित नहीं है। अतः वो अपना मन परमात्मा की भक्ति में ही लगाये। सिद्धि-असिद्धि में सम और संकल्पों में उदासीन, निर्लिप्त, त्यागी योगारूढ़ रहे।
The humans should remember that what ever has evolved, will perish and should become detached-neutral. Whatever has come to him by way of destiny, should be utilised for the sake, welfare, benefit of the mankind without being involved-inclined mentally. Its (attainment, wealth, riches) with him and he is the custodian-caretaker only. One should never think of involving in pleasures. Whatever is in excess with him should be spent, shared, donated, given, spent over the welfare of needy. He should not have the ego of having done some thing for others. He should perform, but should never be inclined to the deeds (ambitions, goals, targets, motives, resolutions). He should be neutral to the result-reward of his actions done for the sake of others. He is a component of the Almighty and his body is a component of nature. He (as a soul) is forever-everlasting, while the body (resolutions, aims) are perishable. All goods and actions are part of the nature and will come to an end sooner or later, but he (as a soul) will remain till infinity, unless-until the soul immerse in the Almighty. Rejection of resolutions, disconnect him with the nature and he turn into a Yogi. He should forget the resolutions or their alternatives. He should remember that he is born to make efforts for Salvation. As a Karm Yogi, he has to perform without attachment for the welfare of the society. As a Gyan Yogi, he has to achieve the gist of the God (enlightenment not the fulfilment-contemplation of resolutions, desires). As a Bhakti Yogi, he has to be aware that neither the past nor the future are meant for resolutions and the present is meant for the prayers (dedication, devotion to the Almighty). So, one has to be neutral to achievements and failures and the resolutions as well, simultaneously.
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥
जिस व्यक्ति ने अपने आप पर विजय पा ली है और वह सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान में निर्विकार है, उसे परमात्मा नित्य प्राप्त है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.7]One who is serene (शाँत, quiet, calm, tranquil, sober, silent) and has attained self control-restraint, is established in Supreme Self and is indifferent to cold and heat, to pleasure and pain and to honour and disgrace.
अनात्मा वो है जो शारीरिक पदार्थ के साथ अपनापन रखने के कारण स्वयं का शत्रु है। जितात्मा वो है जो शारीरिक तत्व के साथ अपनापन न रखके अपने साथ मित्रता का व्यवहार करता है। जितात्मा दुनिया का हितैषी है। यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि, शरीरिक कष्ट-सुख के लिए आए हैं, जो कि जितात्मा को विचलित नहीं करते। उसके अन्तःकरण में शान्ति व्याप्त है। उसके अंतर्मन (conscience) में वाह्य करण सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान प्रभाव नहीं डालते, क्योंकि इनके प्रति उसमें समता का भाव उत्पन्न हो गया है। वो निर्लिप्त-निर्विकार है। मान-सम्मान, आदर-निरादर प्रारब्ध का परिणाम हैं, जिन्हें वह सहजता से लेता है और उनसे प्रभावित नहीं होता। उस प्रशान्त को साम्यावस्था प्राप्त है। अतः वो हर वक्त, हर घड़ी भगवान् के साथ है; उसे परमात्म तत्व प्राप्त हो चुका है।
One who gives credence, weightage-importance to the body (nature, worldly possessions, comforts, wealth) is his own enemy. One who has overcome the bodily comforts (impacts, sensations, feelings), is his own friend and the greatest benefactor of the whole world. The terms hot & cold are used for favourable & against situations, achievements & failures, insult and honour to which, he is neutral. His innerself is full of peace-tranquillity and solace. His conscience is not affected by external factors like summer or winter, pleasure or pains, disgrace or reverence. He has attained equanimity. He is detached (pure, pious, uncontaminated). He is aware that insult or reverence, are due to the destiny and bound to come and so he does not bother about them. He takes them lightly. Prashant-the pacified (serene, content), has reached that stage where he observes the Almighty in everything, everyone including himself. He is synonymous-icon to the God.
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, धर्मात्मा और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.9]
He, who treats the well-wishers, the friends, the foes, the indifferent, the neutral-mediators, the envious, the relatives, the righteous and the sinful equally, prevails-excels.
निर्जीव और पशु-पक्षियों में समता सरल है; परन्तु इन्सानों में सम बुद्धि उत्पन्न करना अत्यंत कठिन है। व्यक्ति का आचरण देखकर भी जिसकी बुद्धि और विचार में कोई विषमता या पक्षपात नहीं होता; ऐसा सम बुद्धि वाला पुरुष श्रेष्ठ है।
सुहृदय वो है जो माता की तरह ही, मगर ममता रहित होकर, बिना किसी कारण के सबका भला चाहने वाला हो। मित्र वह है जो उपकार के बदले उपकार करता है। अरि (शत्रु, दुश्मन) वो है जो अपने स्वार्थवश, किसी अन्य कारण या अकारण ही द्वेष, अहित, अपकार करता है। उदासीन-तटस्थ वो है जो किसी के वाद-विवाद में पक्षपात रहित रहता है और अपनी ओर से किसी से कुछ नहीं कहता। मध्यस्थ वो है जो वाद-विवाद, मार-पीट को रोककर, समझौता (मेल-हित) करने की चेष्टा करता है। अपने सम्बन्धी, मित्र, बन्धु) के प्रति बर्ताव करने में मन में कोई विषम भाव नहीं लाता।
श्रेष्ठ आचरण करने वालों, पापियों के साथ व्यवहार में, उनका हित करने में, दुःख-मुसीबत में सहायता करने में उसके अन्तःकरण कोई पक्षपात या विषम भाव नहीं होता। श्रेष्ठ मनुष्य जानता है कि सबमें एक ही परमात्मा विराजमान है। तत्व बोध होने से मनुष्य में सम भाव आता है और वह समबुद्धि हो जाता है। सुहृदय सिद्ध कर्म योगी पक्षपात रहित होकर सेवा, परमार्थ, परहित करता है। जिसकी साधु और पापी में समबुद्धि हो गई हो, निश्चय ही श्रेष्ठ है। समता की अपार असीम, अनन्त महिमा है। समदृष्टा किसी का बुरा नहीं मानता, बुरा नहीं करता, बुरा नहीं सोचता, किसी में बुराई नहीं देखता, किसी की बुराई नहीं सुनता और किसी की बुराई नहीं कहता-करता।
Its easy to develop-grow equanimity towards lifeless, birds & animals, but really difficult to grow equanimity towards the humans of different behaviour, habits, nature, region, religion, attitude, culture, tendencies, mental level, social status etc. One is definitely a great man if he does not react-behave differently, without favour or discrimination, (contrast, abnormality, incongruity, inequality, disparity, irregularity).
One is good at heart if he think of the benefit-welfare of all without attachment & discrimination, without any reason, without the desire of reciprocation and is tender like the mother. One is a friend-relative if he reciprocate the timely help, gratitude.
Enemy-foe is one who is envious & do not hesitate in harming without logic-reason due to his selfishness-with bad intentions.
One is neutral if he do not interfere-indulge in the quarrel (dispute, confrontation) of others. Mediator is one who tries to resolve the disputes of two parties.
The great man do not react, show or bring and irrationality-abnormality, in their behaviour-dealings towards the friends, relatives, acquaintances, enemies-foes. The pious (righteous, virtuous, great soul) discriminate (differentiate, distinguish) while dealing with the sinners, for helping them in destitute (बेसहारा, दीन, निःसहाय, अकिंचन, निराश्रित, मुहताज, बेकस, निरालंब, निराश्रय, miserable, necessitous, penniless, unobtrusive, pauper, indigent, poor, needy, dependent, devoid, helpless, hapless, defenceless, helpless, homeless, house less) trouble-bad luck. The great souls-enlightened are aware that the same Almighty resides in all creatures-humans. The moment Tatv Gyan-gist of the Almighty comes to one, he acquires equanimity in him automatically. The accomplished, relinquished Karm Yogi with tender heart, helps every one, without discrimination. One is definitely-surely a great man if he has grown equanimity towards the devil-sinner and the saint-sage. The grandeur (बडप्पन, प्रताप, महिमा, शोभा, महत्व), greatness, (बडाई, अधिकार, भलमनसाहत, श्रेष्ठता, गुरुत्व) of equanimity is beyond limits, infinite.
One who has attained equanimity, does take any thing against him to his heart, does not listen-mind bad words spoken to him by others, does not speak bad-slur against others, does not find fault with others, does not listen any thing bad pertaining to others and does not speak bad (does not use foul language).
श्रीभगवानुवाच :-
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥
हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृति तथा मोह, ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जाएँ तो भी गुणातीत मनुष्य, इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जाएँ तो इनकी इच्छा नहीं करता।[श्रीमद्भगवद्गीता 14.22] Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Pandav and said, "The enlightened never has envy-hate for the three characteristics viz. Satv, Raj and the Tam, in spite of being associated with them and does not long for them, when they are no more".
इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता ही प्रकाश है। इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों का ज्ञान होता है, मन से मनन होता है और बुद्धि से निर्णय होता है। सत्व गुण में प्रकाश वृत्ति ही मुख्य है, क्योंकि जब तक इन्द्रियों और अन्तःकरण में प्रकाश नहीं आता, स्वच्छता-निर्मलता नहीं आती और तब तक विवेक जाग्रत नहीं होता। रजोगुण के साथ सम्बन्ध लोभ, प्रवृत्ति, रागपूर्वक कर्मों का प्रारंभ होना, अशान्ति और स्पृहा पैदा करता रहता है। गुणातीत मनुष्य में रजोगुण प्रभावहीन हो जाता है, यद्यपि वह आसक्ति, कामना रहित प्रवृति, निष्काम भाव से नित्यकर्म और अन्य क्रियाएँ करता रहता है। राग और क्रिया में राग दुःखों का कारण है। गुणातीत व्यक्ति में राग भी खत्म हो जाता है। गुणातीत मनुष्य में सत्त-असत्त, नित्य-अनित्य, कर्तव्य-अकर्तव्य का मोह तो रहता ही नहीं है। तथापि व्यवहार में गलती-भ्रम हो सकता है। सत्त्व गुण का प्रकाश, रजो गुण की प्रवृत्ति और तमो गुण का मोह; इन तीनों से अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी गुणातीत व्यक्ति, इनसे द्वेष नहीं करता और इनसे निवृत्त होने पर इनकी इच्छा नहीं करता। साधक वृत्तियों को अच्छा, बुरा या अपने में न माने, क्योंकि ये तो आने-जाने वाली हैं, जबकि स्वयं, आत्मा-देही निरन्तर है। वृत्तियों का सम्बन्ध प्रकृति के साथ और मनुष्य-आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है।
Purity-piousness of the organs and the innerself is illumination-enlightenment. It grows prudence in the devotee-practitioner. The sense organs help him in recognition-identification and the innerself help in thinking, meditation, analysis. The decision is taken by the intelligence, thereafter. Satv Gun grants purity, enlightenment and prudence. The Rajo Gun create tendencies to work with greed, resulting in pain, disturbance and attachment. The detached remains unaffected by Rajo Gun, though he continues performing essential activities for survival. He is free from attachments, bonds, ties, allurements and performs without the desire for name, fame, honour or financial-monetary gains. Out of the two, attachment and action, attachment leads to pain-sorrow. The detached is free from the distinction or hate and love for pure or contaminated, regular or perishable, action or inertial (inaction). Still, he may commit mistakes. The detached do not envy-hate the illumination of Satv Gun, tendency of Rajo Gun and the attachment of Tamo Gun, in spite of being involved with them. When he overcome-overpower them, he do not crave for them. He generate equanimity, equanimous behaviour-attitude towards them. The devotee-practitioner should not recognise these three characteristics in himself, since they are not permanent. They may increase-decrease, eliminate or evolve again. The soul-self is for ever being a component of the Almighty.
इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता ही प्रकाश है। इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों का ज्ञान होता है, मन से मनन होता है और बुद्धि से निर्णय होता है। सत्व गुण में प्रकाश वृत्ति ही मुख्य है, क्योंकि जब तक इन्द्रियों और अन्तःकरण में प्रकाश नहीं आता, स्वच्छता-निर्मलता नहीं आती और तब तक विवेक जाग्रत नहीं होता। रजोगुण के साथ सम्बन्ध लोभ, प्रवृत्ति, रागपूर्वक कर्मों का प्रारंभ होना, अशान्ति और स्पृहा पैदा करता रहता है। गुणातीत मनुष्य में रजोगुण प्रभावहीन हो जाता है, यद्यपि वह आसक्ति, कामना रहित प्रवृति, निष्काम भाव से नित्यकर्म और अन्य क्रियाएँ करता रहता है। राग और क्रिया में राग दुःखों का कारण है। गुणातीत व्यक्ति में राग भी खत्म हो जाता है। गुणातीत मनुष्य में सत्त-असत्त, नित्य-अनित्य, कर्तव्य-अकर्तव्य का मोह तो रहता ही नहीं है। तथापि व्यवहार में गलती-भ्रम हो सकता है। सत्त्व गुण का प्रकाश, रजो गुण की प्रवृत्ति और तमो गुण का मोह; इन तीनों से अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी गुणातीत व्यक्ति, इनसे द्वेष नहीं करता और इनसे निवृत्त होने पर इनकी इच्छा नहीं करता। साधक वृत्तियों को अच्छा, बुरा या अपने में न माने, क्योंकि ये तो आने-जाने वाली हैं, जबकि स्वयं, आत्मा-देही निरन्तर है। वृत्तियों का सम्बन्ध प्रकृति के साथ और मनुष्य-आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है।
Purity-piousness of the organs and the innerself is illumination-enlightenment. It grows prudence in the devotee-practitioner. The sense organs help him in recognition-identification and the innerself help in thinking, meditation, analysis. The decision is taken by the intelligence, thereafter. Satv Gun grants purity, enlightenment and prudence. The Rajo Gun create tendencies to work with greed, resulting in pain, disturbance and attachment. The detached remains unaffected by Rajo Gun, though he continues performing essential activities for survival. He is free from attachments, bonds, ties, allurements and performs without the desire for name, fame, honour or financial-monetary gains. Out of the two, attachment and action, attachment leads to pain-sorrow. The detached is free from the distinction or hate and love for pure or contaminated, regular or perishable, action or inertial (inaction). Still, he may commit mistakes. The detached do not envy-hate the illumination of Satv Gun, tendency of Rajo Gun and the attachment of Tamo Gun, in spite of being involved with them. When he overcome-overpower them, he do not crave for them. He generate equanimity, equanimous behaviour-attitude towards them. The devotee-practitioner should not recognise these three characteristics in himself, since they are not permanent. They may increase-decrease, eliminate or evolve again. The soul-self is for ever being a component of the Almighty.
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥
जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, इस भाव से जो अपने स्वरूप स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता वह उदासीन की तरह स्थित है।[श्रीमद्भगवद्गीता 14.23]
One is stable with equanimity and can not be disturbed by the characteristics and remains neutral, being aware that the characteristics are interacting amongest them selves, do not make any attempt of his own.
गुणातीत मनुष्य-साधक उदासीन है, वह किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं है। वह इस संसार को और परमात्मा को एक ही दृष्टि से देखता है। संसार की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। यह संसार ईश्वर की सत्ता से ही चालित है। वह साधक अपने अन्तःकरण में सत्त्व, रज और तम गुणों वाली वृत्तियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि परमात्म तत्व का प्रभाव उसे निरंतर जाग्रत रखता है। वह जानता है कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं अर्थात समस्त क्रियाएँ गुणों के परस्पर मिलने से होती हैं। यह जानकर ही वह अपने स्वरूप में निर्विकार भाव से स्थित है। गुणातीत व्यक्ति स्वयं कोई चेष्टा नहीं करता।
The relinquished-detached is equanimous. He is neither in favour or against any one. He visualise the Almighty and the world alike. The world lacks independent existence. It is due to the God and operate by his might. The gist of the God is so profound in him that he is not motivated or disturbed by the characteristics. The impact of the Almighty always keeps him awake-alert. He is aware that the characteristics are interacting amongest themselves (there are infinite permutations & combinations leading to next births). All actions, activities materialise when the characteristics mix up. Thus neutral and untainted, he is idling (निष्क्रिय) in himself. He never make any attempt by himself, of his own.
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥
जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है, जो अपनी निंदा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 14.24-25]The patient-courageous-steadfast, who remains equanimous (indifferent, neutral) in pleasure & pain and stabilised in himself; weighs gold, like a lump of clay and stone equally; remains unaffected towards likes & dislikes; neutral towards insult & honour (censure and in praise); maintains normal relations with both friends and foes; has rejected new ventures since beginning; is relinquished, detached, renounced, transcended.
नित्य-अनित्य, सार-असार, आदि के तत्व को जानकर स्वतः सिद्ध स्वरूप में स्थित होने से गुणातीत मनुष्य धैर्यवान (Patient) कहलाता है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही सुख-दुःख हैं। जो इन्द्रियों, शरीर और मन के अनुकूल है, वह सुख है। गुणातीत मनुष्य दोनों स्थितियों में सम-तटस्थ बना रहता है। वह सदैव अपने स्वरूप (आत्मभाव ) में स्थित रहता है। स्वर्ण, मिट्टी का ढेला, पत्थर या पारस उसके लिए समान हैं। सोने और पारस का ज्ञान होते हुए भी वह इनके प्रति उदासीन बना रहता है। सिद्धि-असिद्धि या उनका तात्कालिक प्रभाव उसके लिए बेमानी है। कोई उसकी बुराई करे या बड़ाई उसे फर्क नहीं पड़ता। उसे निन्दकों-आलोचकों से द्वेष और प्रसंशा करने वालों के प्रति राग नहीं होता। मान-अपमान में वह शांत-प्रतिक्रिया रहित बना रहता है। मित्र या शत्रु जैसे शब्द उसके लिए नहीं हैं, क्योंकि वह सभी से तारतम्य, समान व्यवहार करता है। जो मनुष्य प्रकृति जन्य गुणों से दूर-उदासीन-सम-तटस्थ है, वह गुणातीत है।
One who has alienated (अलग-थलग) himself from the characteristics of nature, having understood gist of momentary and forever, mortal & immortal; is stabilised in himself. He is patient and courageous. He remains neutral in both favourable or adverse conditions-situations, circumstances. For him pain & pleasure are alike. Favourable conditions gives pleasure to senses, organs, body, mood and the psyche. He do not worry about the favourable or against. He weighs a lump of gold and a mould equally. The Philosopher's Stone and an ordinary stone are alike for him. He treats the jewels like dust. Achievement or failure carries no weight for him. He neither feel happy nor pained in case of rejection or success. He do not care for his appreciation or criticism. For him insult & honour; censure or praise are alike. He do not feel attached towards those who favour, appreciate, honour him. He is not bothered by friends or foes. He maintains a balanced-equanimous relation-behaviour with all. He is beyond the characteristics of nature.
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्ति योग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 14.26] One who worship the Almighty with the help of pure-pious Bhakti Yog qualifies for the unswerving devotion-Salvation & transcends the three modes-characteristics of material Nature.
भगवान् ने गुणातीत (निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति) होने का उपाय भक्ति बताया है।साधक को यदि ज्ञान योग अथवा कर्म योग का सहारा न भी हो तो भी वह मात्र भक्ति योग से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। केवल भगवान् का ही आश्रय, सहारा, सम्बल, आशा, बल, विश्वास, भक्ति मार्ग ही साधक के लिए पर्याप्त है। जो साधक अनन्य भाव से प्रभु की शरण में है, उसे गुणों के अतिक्रमण का प्रयास नहीं करना पड़ता, प्रभु स्वयं ही उसका मार्ग सरल-निष्कंटक बना देते हैं।
The Almighty propounded (प्रतिपादित, स्थापित) the means of the attainment of Brahm through Bhakti Yog. Devotion to the God automatically cuts the bonds of three characteristics of material nature-world. The devotee-practitioner can achieve the Ultimate through devotion without the help of Gyan Yog-enlightenment and Karm Yog performances as per the directives of scriptures. Shelter, asylum, seeking protection under the God, faith and one point-single mind devotion are enough for attaining Brahm-Liberation. One is not supposed to cross the barrier of the material characteristics. The Almighty HIMSELF makes his path clear.
भगवान् ने गुणातीत (निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति) होने का उपाय भक्ति बताया है।साधक को यदि ज्ञान योग अथवा कर्म योग का सहारा न भी हो तो भी वह मात्र भक्ति योग से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। केवल भगवान् का ही आश्रय, सहारा, सम्बल, आशा, बल, विश्वास, भक्ति मार्ग ही साधक के लिए पर्याप्त है। जो साधक अनन्य भाव से प्रभु की शरण में है, उसे गुणों के अतिक्रमण का प्रयास नहीं करना पड़ता, प्रभु स्वयं ही उसका मार्ग सरल-निष्कंटक बना देते हैं।
The Almighty propounded (प्रतिपादित, स्थापित) the means of the attainment of Brahm through Bhakti Yog. Devotion to the God automatically cuts the bonds of three characteristics of material nature-world. The devotee-practitioner can achieve the Ultimate through devotion without the help of Gyan Yog-enlightenment and Karm Yog performances as per the directives of scriptures. Shelter, asylum, seeking protection under the God, faith and one point-single mind devotion are enough for attaining Brahm-Liberation. One is not supposed to cross the barrier of the material characteristics. The Almighty HIMSELF makes his path clear.
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥
जो मान और मोह से रहित हो गए हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो अपनी दृष्टि से सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं, जो सुख-दुःख नाम वाले द्वन्दों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे ऊँची स्थिति वाले, मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद-परमात्मा को प्राप्त होते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 15.5॥
The Almighty described the prerequisites that helps one in attaining HIM. Those who are free from pride and delusion, who have conquered the evils arising out of attachment, who are constantly dwelling in HIM, who have overpowered desires & passions, who are free from the fangs of pleasure and pain; such people who have attained peaks of devotion are detached, relinquished & equanimous, attains the highest-Ultimate abode.
जिस मनुष्य ने मैं पन और मोह का त्याग करके परमात्मा की ही शरणागती ग्रहण की है, आसक्ति, मोह-ममता, कामना को छोड़ दिया है, वह पूर्ण रुप से भगवान् को समर्पित है तथा संसार को अपना नहीं मानता। उसने स्वयं को शरीर, जाति-बिरादरी, ऊँच-नीच, लिंग भेद से दूर कर लिया है। उसका मन, बुद्धि, चिंतन, विवेक, अहम्, शरीर और इन्द्रियाँ केवल भगवान् में लगे हैं। वह सुख-दुःख, राग-द्वेष, हर्ष-शोक तथा अन्य द्वन्दों से पर है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में एकसार रहता है। जो परमात्मा की सत्ता से ही संसार की सत्ता मानता है, वो संसार को अस्थाई मानता है। उसमें मूढ़ता नाम मात्र को भी नहीं है। इस प्रकार के आचरण वाले मनुष्यों ने परम् पद प्राप्त कर लिया है।
Those who are eligible for the Ultimate abode of the Almighty are the devotees who have overpowered ego-pride and rejected the allurements, attachments. They are free from attachments, allurements, bonds-ties and desires. They have surrendered themselves to the God (attained asylum, shelter, refuge, protection under the God) and find the world to be perishable. For them the existence of the world is due to the God. They are above the distinctions of castes-creed, upper-lower, male-female, species or any other kind-type of distinctions. Their mind, intelligence, prudence, thinking, self, body and the senses are always dedicated to the God. They are always at par with each other and every situation. They have discarded ignorance. Those devotees who have adopted themselves to such practices, have achieved the Ultimate; from where no one ever returns to earth, i.e., gets rebirth.
न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति।
न ददाति न गृण्हाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः॥
न निंदा करता है और न प्रशंसा करता है, न लेता है, न देता है, इन सबमें अनासक्त वह सब प्रकार से मुक्त है।[अष्टावक्र गीता 17.13] One who is unattached and liberated is without sap (flavour-taste), dry-arid, empty (uninteresting, unfeeling, insensitive), without blame (censure, scorn, abuse, defamation, slander, criticism, blasphemy), appreciation, taking or giving. He is indifferent towards all these.
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितं।
अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः॥
अनुराग-युक्त स्त्रियों को देख कर अथवा मृत्यु को उपस्थित देख कर विचलित न होने वाला, स्वयं में स्थित वह महात्मा मुक्त ही है।[अष्टावक्र गीता 17.14]The Mahatma-sage, who has established in himself, remains unperturbed by seeing the women full of passion like Suk Dev Ji Maharaj, son of Bhagwan Ved Vyas (love, devotion, attachment, lust) or death in front of him is liberated.
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे॥
क्षीण संसार वाले पुरुष में न हिंसा और न करुणा, न गर्व और न दीनता, न आश्चर्य और न क्षोभ ही होते हैं।[अष्टावक्र गीता 17.16]One detached from this world do not find violence, kindness, pride, humility (meekness, suffering, dejection, need, want), surprise and agitation. He is free from aggression, submissiveness, pride & lowliness.
निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चितः।
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि करोति न॥
ममता रहित, अहंकार रहित और दृश्य जगत के अस्तित्व रहित होने के निश्चय वाला, सभी इच्छाओं से रहित, करता हुआ भी कुछ नहीं करता।[अष्टावक्र गीता 17.19] One, who has determined that the visible unreal world is non-existent, is free from affections-love, pride, free from all desires, is considered to have done nothing even after having done it (उसने सभी कर्म भगवान को अर्पित कर दिए हैं) He has surrendered all his deeds to the Almighty.
स्वराज्ये भैक्ष्यवृतौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोSस्ति योगिन:॥
जो योगी स्वभाव से ही विकल्प रहित है, उसके लिए अपने राज्य में या भिक्षा में, लाभ-हानि में, भीड़ में या सूने-निर्जन जंगल में कोई अंतर नहीं है। जीव मुक्त (शरीर होते हुए भी मोक्ष की अनुभूति) योगी-व्यक्ति को राज्य प्राप्ति से हर्ष और भीख माँगने से कष्ट नहीं होता। उसके लिये परेशानी, दुःख-निराशा, किसी वस्तु की प्राप्ति अथवा अप्राप्ति, वन या नगर में एक रूपता-समानता है।[अष्टावक्र गीता 18.11] The dominion of heaven or beggary, gain or loss, life among humans, in cities-society or the forest, make no difference to the relinquished, ascetic, Yogi; who is free from distinctions.
The Yogi is indifferent-neutral, passive to the attainment of empire or begging alums, tensions, troubles, grief-attainment, success-gain, achievement or failures-losses, despair-disappointment, company of humans or the jungle. They are all alike, non entity-non existent for the Yogi-ascetic. These things did not exist earlier and will not exist, there after.
The Yogi is indifferent-neutral, passive to the attainment of empire or begging alums, tensions, troubles, grief-attainment, success-gain, achievement or failures-losses, despair-disappointment, company of humans or the jungle. They are all alike, non entity-non existent for the Yogi-ascetic. These things did not exist earlier and will not exist, there after.
क्व धर्मः क्व च वा कामःक्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेतिद्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥
यह कर लिया और यह कार्य शेष है, इन द्वंद्वों से जो मुक्त है, उसके लिए धर्म कहाँ, कर्म कहाँ, अर्थ कहाँ और विवेक कहाँ!? जो व्यक्ति कर्तव्य या अकर्तव्य जैसी भवनाओं से मुक्त है, उसके लिए धर्म, अर्थ, काम मोक्ष बेमानी हैं।[अष्टावक्र गीता 18.12]One, Yogi-the enlightened, who is free from the conflicts-bonds of deeds-responsibilities, there is no Dharm-religion, wealth, sensuality-passions or discrimination.
There is always one thing or the other left to be attained which creates conflicts, tensions, troubles, pain-sorrow, grief for the human being. Once he realises that these things are perishable, immaterial, meaningless, he is a free bird.
There is always one thing or the other left to be attained which creates conflicts, tensions, troubles, pain-sorrow, grief for the human being. Once he realises that these things are perishable, immaterial, meaningless, he is a free bird.
कृत्यं किमपि नैवास्तिन कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेहजीवन्मुक्तस्य योगिनः॥
जीवन्मुक्त योगी का न तो कुछ कर्तव्य-दायित्व है और न ही उसके ह्रदय में कोई अनुराग है। जैसे भी जीवन बीत जाये, वैसे ही उसकी स्थिति है। वह स्वयं को परिस्थियों का गुलाम नहीं बनाता और शेष जीवन में, शेष कर्मों को अनासक्त भाव से व्यतीत कर देता है।[अष्टावक्र गीता 18.13] Nothing is left to be done for the unattached-detached Yogi, there is no conflict, no responsibility, no attachment. He subjects himself to the dictates of God-undergoing, experiencing, bearing the results-out comes of his remaining deeds by virtue of destiny, while withdrawing himself from new commitments, deeds, duties, responsibilities. The Yogi, ascetic, liberated, just completes his life span. He makes no efforts.
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो यो न पश्यति॥
जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिंतन किया करे कि वह ब्रह्म मैं हूँ, पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह निश्चिन्त क्या विचार करे। ब्रह्मलीन जीवमुक्त-निर्लिप्त व्यक्ति स्वयं को ब्रह्मा भी नहीं मानता, क्योंकि वह अद्वैत परमात्मा से अभिन्न है।[अष्टावक्र गीता 18.16] One who has seen Brahm might realise that he is a component-fraction of Brahm and think "I am Brahm-Almighty", but the detached who do not find anyone else, should think, do not find-see duality. One who has realised that he and the Almighty are one, discards the idea of dualness.
The detached is inseparable from the Brahm-God.
The detached is inseparable from the Brahm-God.
दृष्टो येनात्मविक्षेपोनिरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्॥
जिसने अपने स्वरुप में कभी कोई विक्षेप देखा हो तो वह उसको रोके। तत्त्व को जानने वाले का विक्षेप कभी होता ही नहीं है, किसी साध्य के बिना वह क्या करे। ब्रह्मलीन, जीवमुक्त, निर्लिप्त, तत्वज्ञानी व्यक्ति को भेद-अन्तर दोष दिखाई नहीं देता। उसके लिए ना कुछ दोष है और ना प्राप्त-उपलब्ध करने कुछ शेष है।[अष्टावक्र गीता 18.17]One who noticed-discovered some defect-inner distraction in him should control it, otherwise nothing is left to achieve-attain and he has no activity left to be performed, in the absence of which, one is unable to decide future course. Detached-deluded has nothing to attain or to loss. He is defect less-pure. Nothing is there for him to attain.
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्॥
जो विद्वान स्तुति अथवा निंदा से रहित आत्मानंद से तृप्त है वह लौकिक दृष्टि से कर्ता होने पर भी अकर्ता ही है। आत्म ज्ञान ने उसके कर्त्तव्यादि अध्यास नष्ट कर दिये हैं। तत्त्वज्ञ का प्रवृत्ति या निवृत्ति का दुराग्रह नहीं होता। जब जो सामने आ जाता है, तब उसे करके वह आनंद से रहता है।[अष्टावक्र गीता 18.20]The relinquished, wise, content person is free from distractions, though visibly he is a doer, he has isolated himself from all of these activities. He just do-perform what is desired by the circumstances and remain happy.
असंसारस्य तु क्वापिन हर्षो न विषादिता।
स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥
जो ज्ञानी-संसार से मुक्त है, वह हर्ष और विषाद से मुक्त है। उसका मन, ह्रदय, चित्त शान्त है और वह विदेह (शरीर रहते हुए भी) के समान सुशोभित होता है। जिसके आवश्कताएँ न्यूनतम हैं, जो शाँत चित्त है, जीवन मुक्त है, उसे दुःख और प्रसन्नता एक जैसी ही लगतीं हैं। ऐसा व्यक्ति परमात्मा के समीप होता है।[अष्टावक्र गीता 18.22]The Yogi-enlightened is free from pains-sorrow, grief and pleasures. His mind-thoughts (innerself, mood, psyche, gestures) are always at ease, peace, solace, tranquillity. One who has relinquished this world and is detached, never experience pain or pleasure. He is neutral towards them. He experiences Permanand-extreme pleasure in devotion to the Ultimate-Almighty.
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥
धीर पुरुष का चित्त स्वभाव से ही निर्विकार-निर्विषय है, वह साधारण मनुष्य के समान प्रारब्धवश बहुत से कार्य करता हुआ हर्ष और शोक का अनुभव नहीं करता, उसे मान-अपमान की चिन्ता भी नहीं होती। ऐसा व्यक्ति जो असंसारी है, मान-अपमान, मोह-शोक जैसी भावनाओं से ऊपर उठ जाता है और उनकी परवाह नहीं करता।[अष्टावक्र गीता 18.24] The stable-defect free does not care for the pain or sorrow, pride-self respect or insult. He is relinquished and above all such human tendencies. One is neutral-least concerned towards social activities-troubles, tensions. He is not affected by the happenings by virtue of destiny, since they are bound to happen and he find no logic-reason to react to them.
अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते॥
जीवन्मुक्त-ज्ञानी प्रारब्धवश कार्य करता है। वह मोहवश अथवा बालक के समान व्यवहार नहीं करता और शान्त चित्त से प्रसन्नता पूर्वक सांसारिक दायित्व का निर्वाह करता हुआ शोभायमान होता है। मनुष्य को अपना व्यवहार संयत रखना चाहिये और बालक के समान व्यवहार नहीं करना चाहिए उसे प्रारब्धवश जो शेष कर्म भोग है, उसे पूरा करना ही चाहिये और मोहवश नये उद्यमों से किनारा करना चाहिये।[अष्टावक्र गीता 18.26]The liberated, relinquished, detached, learned, enlightened, Yogi, acts in order to undergo the outcome of previous deeds, by virtue of destiny, happily. He should not act like a child due to ignorance-illusions.
One seeking liberation-assimilation in the Almighty, should avoid future commitments as far as possible. Any endeavour will indulge him in new chain of destiny. One who fulfil his obligations without treachery, cheating, honestly with devotion, will automatically qualify for liberation effortlessly.
One seeking liberation-assimilation in the Almighty, should avoid future commitments as far as possible. Any endeavour will indulge him in new chain of destiny. One who fulfil his obligations without treachery, cheating, honestly with devotion, will automatically qualify for liberation effortlessly.
नोद्विग्नं न च सन्तुष्ट-मकर्तृ स्पन्दवर्जितं।
निराशंगतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते॥
जीवन मुक्त का चित्त प्रकाशरूप है; अतः वह चिंता-उद्वेग को प्राप्त नहीं होता। उद्वेग का कारण द्वैत है, जो उसमें नहीं रहा। वह संकल्प और विकल्प से भी मुक्त है, जिसके कारण वह निराशा और संदेह से भी मुक्त है, क्योँकि संदेह का हेतु-कारण अज्ञान भी उसमें नहीं रहा। जीवन मुक्त, ज्ञानी कर्तृत्व-अकर्तृत्व, संकल्प-विकल्प, आशा-निराशा, सन्देह-अज्ञान, चित्त की उद्विघ्नता-उद्वेग तथा अभिमान से रहित सुशोभित होता है।[अष्टावक्र गीता 18.30] चिंता चिता समान :- जब तक मनुष्य चिंता से मुक्त नहीं होता, तभी तक बंधन है। अन्यथा नहीं। जीवन्मुक्त का चित्त प्रकाशित है जो उसे उद्वेग से मुक्त अद्वैत में स्थापित करता है।
One who is liberated-relinquished is free from distractions, tensions, duality. He is free from desires, determinations, aims, objectives, alternatives, options (goals, targets, endeavours, ambitions) which liberate him from failure-despair, disappointment-lack of hope-pessimism. He has over powered lack of enlightenment. He, whose mind does not set out to meditate or act, meditates and acts without an object. Enlightenment removes all doubts leading to satisfaction and peace. His innerself is filled with illumination-aura, since he is free from duality.
One who is liberated-relinquished is free from distractions, tensions, duality. He is free from desires, determinations, aims, objectives, alternatives, options (goals, targets, endeavours, ambitions) which liberate him from failure-despair, disappointment-lack of hope-pessimism. He has over powered lack of enlightenment. He, whose mind does not set out to meditate or act, meditates and acts without an object. Enlightenment removes all doubts leading to satisfaction and peace. His innerself is filled with illumination-aura, since he is free from duality.
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब मन्तरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥
मुमुक्षु पुरुष जिसको आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ है, की बुद्धि सांसारिक आलम्ब-आश्रय ग्रहण किये बिना नहीं रहती। निष्काम-जीवन्मुक्त पुरुष की बुद्धि आत्मा के अचल आश्रय से होने के कारण सदैव स्थिर-निष्काम और निराश्रय ही रहती है। परमात्मा का आश्रय ग्रहण करने वाले को किसी अन्य सहारे-आलम्ब की आवश्यकता नहीं रहती।[अष्टावक्र गीता 18.44]The desirous-ambitious, who has not been able to identify-recognise self, remains struck with this world. The Liberated-relinquished, detached remain independent-free from desires-ambitions, motivations, since his mind-thoughts are dependent over the soul-Almighty, only. One who has sought the shelter-asylum under the Ultimate does not need any other support.
न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशङ्को युक्तमानसः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥
जीवन्मुक्त, शंका रहित, निश्चल यम-नियमादि क्रिया से मुक्त ज्ञानी पुरुष मुक्ति के साधनों का अभ्यास नहीं करता, क्योंकि उसको कर्त्वय का ध्यान नहीं है और वह देखते, सुनते, छूते, सूँघते, भोगते हुए भी आत्मानन्द में मग्न रहता है।[अष्टावक्र गीता 18.47]Detached-relinquished, free from doubts and rituals-practices, do not try-attempt for Salvation, since he has attained the ultimate state of pleasure-Permanand, Bliss while visualising, hearing, feeling smelling or tasting, living at ease.
वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।
नैवाचारमनाचार मौदास्यं वा प्रपश्यति॥
शुद्ध-बुद्धि स्थिर चित्त वाला व्यक्ति वस्तु-तत्त्व के केवल सुनने मात्र से आचार, उदासीनता-आकुलता रहित हो जाता है, फिर वह इच्छा रहित होकर अपने में ही मगन रहता है।[अष्टावक्र गीता 18.48]One in stable-unattached state, becomes free from bondage-doubts just by listening to the ultimate truth and thereafter, he remain inclined to himself-roaming freely, neither observing nor performing-interacting with anything, being indifferent.
उच्छृंखलाप्यकृतिका स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु सस्पृहचित्तस्य शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा॥
जो धीर पुरुष नि:स्पृह है उसकी स्वाभाविक स्थिति विक्षोभ युक्त होने पर भी, श्रेष्ठ-शोभायुक्त होती है क्योंकि उसमें बनावट नहीं होती। परन्तु वो मूढ़-अज्ञानी जिसके चित्त में अनेक इच्छाएं भरी हैं; उसकी बनावटी शांति शोभायमान नहीं होती।[अष्टावक्र गीता 18.52]Natural behaviour of one-wise, who is detached-relinquished, neutral, spontaneous is noteworthy-appreciable, since it is not intoxicated, abnormal, deliberate-intentional. The outer calmness of the ignorant-fool is not appreciated, since his behaviour is artificial, unnatural & his heart is full of desires.
श्रोत्रियं देवतां तीर्थम ङ्गनां भूपतिं प्रियं।
दृष्ट्वा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥
श्रोत्रिय, ब्रह्म वेत्ता, धीर पुरुष, शास्त्रज्ञ ब्राह्मण को देवता, तीर्थ को देख कर कोई कामना उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि वे निष्काम हैं तथा सुन्दर स्त्री, पुत्रादि, राज्य को पाकर भी उनके दिल में कोई चाहत-इच्छा, वासना उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि वे सर्वत्र समबुद्धि और समदर्शी हैं। उसके ह्रदय में कोई कामना नहीं है।[अष्टावक्र गीता 18.54]No desire develop-erupt-grows in the mind-heart of the learned-Brahman, when he finds the holy places or demigods willing to grant him boons, since he has become content-satisfied. Beautiful wife, sons or the king either ready to grant him any thing, do not please the enlightened, since he has acquired a state of mind, where nothing is left to be attained. He has become neutral, detached, content.
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्॥
जीवन्मुक्त-योगी को सेवक, पुत्र, स्त्री, नाती, सम्बन्धियों-सगोत्र द्वारा तिरस्कार, हँसी उड़ाने, धिक्कारने पर भी थोड़ा सा भी विकार उत्पन्न नहीं होता।[अष्टावक्र गीता 18.55]The Yogi, relinquished-detached is not disturbed by the humiliation-ridicule, at the hands of friends-relatives, servants, sons, wife, grandchildren.
सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तादृशा एव जानते॥
ज्ञानी-विद्वान् लौकिक दृष्टि संतुष्ट न होते हुए भी प्रसन्न-संतुष्ट है और खेद होते हुए भी दु:खी नहीं है। उसकी इस आश्चर्यमय गति-स्थिति को उसके समान ज्ञानी विद्वान ही जान सकते हैं, अन्य कोई नहीं।[अष्टावक्र गीता 18.55]The enlightened, who appears-looks to be dissatisfied-displeased externally, is happy-content, satisfied internally and free from grief-sorrow, distractions, though undergoing through them. Only the enlightened-philosopher, learned, scholar like him, reach-understand this state of the relinquished-detached.
कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः॥18.57॥
जीवन मुक्त, ज्ञानी-विद्वान व्यक्ति न कर्त्तव्यता को देखता है और न उसका संकल्प करता है। "मेरा यह कर्तव्य है" इस निश्चय-बुद्धि का नाम ही संसार है। वह संकल्पों-विकारों और आध्यात्मिकता आदि रोगों से भी मुक्त है, क्योंकि उनकी बुद्धि शून्याकार, निराकार, निर्विकार और निरामय होती है।[अष्टावक्र गीता 18.57]The liberated-enlightened do not tie-bind himself with responsibility-duties. Sense of duty-responsibility create ties, bonds-attachments with this world (संसार, विश्व). The wise who are of the form of emptiness, formless, unchanging and spotless see no such thing. He is free from vows-resolutions, intent.
नैव प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तम मृतेनैव पूरितम्॥
ज्ञानी, तृप्त, जीवन्मुक्त, धीर का चित्त परमानंद रूपी अमृत के द्वारा तृप्त-आनन्दित रहता है; वह न लाभ की आशा या प्रार्थना करता है और न हानि पर शोक।[अष्टावक्र गीता 18.81]The calm mind of the sage, patient, stable, content, is full of contentment, bliss-pleasure. He neither longs for possessions nor grieves for their absence.
न शान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति॥18.82॥
ज्ञानी, तृप्त, जीवन्मुक्त, धीर पुरुष न संत की स्तुति और न दुष्ट की निंदा करता है। वह सुख-दुख में समान एवं स्वयं में तृप्त-आनन्दित रहता है और निष्काम होने के कारण किसी कर्तव्य नहीं देखता।[अष्टावक्र गीता 18.82] The learned, satisfied, content, dispassionate neither praise the saints-sages nor blame the wicked. He is neutral towards pleasure & pain, being unattached, he do not find any thing-task for performing.
He keeep on meditating the Almighty and continue performing his daily routine as such.
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥
विद्वान, ज्ञानी, तृप्त-जीवन्मुक्त, धीर पुरुष, पुत्र-स्त्री आदि के प्रति आसक्ति से रहित, विषयों में कामना रहित, अपने शरीर के लिए भी निश्चिन्त-चिंता रहित एवं सभी आशाओं से रहित (निराश, उदासीन) होकर सुशोभित होता है।[अष्टावक्र गीता 18.83] The wise man-enlightened who becomes stable, patient-liberated in himself from attachments towards wife-children, worldly comforts, worries-considerations towards his own body and all hopes, desires, ambitions, anticipations, becomes neutral and relishes.
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान् यत्रस्तमितशायिनः॥
विद्वान, ज्ञानी, तृप्त, जीवन्मुक्त, धीर पुरुष, जहाँ सूर्यास्त हुआ वहाँ सो लिया, जहाँ इच्छा हुई वहाँ रह लिया, जो सामने आया उसी के अनुसार व्यवहार करता हुआ सर्वत्र संतुष्ट-आनन्दित रहता है।[अष्टावक्र गीता 18.85]The enlightened, patient, detached, wise man, sleeps at the place where the Sun sets, lives at a place he chooses, stops, halts and behaves as per the situation and roams everywhere enjoying-rejoicing.
पततूदेतु वा देहो नास्य, चिन्ता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रान्ति-विस्मृताशेषसंसृतेः॥
जीवन मुक्त, ज्ञानी निज स्वभाव-आत्मस्वरुप में विश्राम करते हुए सभी प्रपंचों का नाश कर चुके महात्मा को शरीर रहे अथवा नष्ट हो जाये-ऐसी चिंता भी नहीं होती।[अष्टावक्र गीता 18.86]The Liberated-great soul who rests in own, having lost all illusion does not care whether the body remains or dies.
अकिंचनः कामचारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥
जीवन मुक्त, ज्ञानी, निर्विकार संग्रह रहित, स्वच्छंद, निर्द्वन्द्व और संशय रहित होकर अनासक्त भाव से आनन्द पूर्वक रमण करता-विचरता है।[अष्टावक्र गीता 18.87]The Liberated, great soul, wise man who is free from duality, possessions, attachments, roams freely.
निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकांचनः।
सुभिन्नहृदयग्रन्थि र्विनिर्धूतरजस्तमः॥
मोह-ममता से रहित-जीवन मुक्त, ज्ञानी, निर्विकार, धीर पुरुष, जिसके की ह्रदय ग्रंथि खुल गई है और रज, तम, रूपी मल दूर हो गये हैं, वह मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखता है और शोभा-सुख पाता है।[अष्टावक्र गीता 18.88]The Liberated, great soul, wise man, enlightened who has opened up the knots of his heart leading to loss of all evils-wickedness finds, sees, weighs stone and gold equally and he is decorated-honoured everywhere universally.
सर्वत्रानवधानस्य न किंचिद् वासना हृदि।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते॥
मोह-ममता से रहित वह जीवन मुक्त, ज्ञानी, निर्विकार, धीर पुरुष, जिसकी किसी विषय में रूचि नहीं है, जिसके ह्रदय में जरा सी भी कामना-आसक्ति शेष नहीं है, जो इस दृश्य प्रपंच पर ध्यान नहीं देता, आत्म तृप्त है, ऐसे मुक्तात्मा की तुलना किसके साथ की जा सकती है!?[अष्टावक्र गीता 18.89] The Liberated-great soul-wise person, who is away from desires, subjects, attachments, allurements, who is contented, who pays no regard to anything else, can not be compared with anyone else.
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति।
ब्रुवन्न् अपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते॥
कामना, मोह, ममता से रहित जो जीवन मुक्त, ज्ञानी, निर्विकार, धीर पुरुष, के अतिरिक्त ऐसा दूसरा और कौन है, जो लोक-परमार्थ दृष्टि से जानते हुए भी न जाने, देखते हुए भी न देखे और बोलते हुए भी न बोले।[अष्टावक्र गीता 18.90] Who else except the Liberated, great soul, wise upright person, without desire knows without knowing, sees without seeing and speaks without speaking; none else can do it.
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥
योगी, विद्वान, जीवन्मुक्त, धीर पुरुष चिन्तावान होने पर भी चिंता रहित है, इन्द्रिय युक्त होने पर भी इन्द्रिय रहित है, बुद्धि युक्त होने पर भी बुद्धि रहित होता है और अहंकार सहित होने पर भी अहंकार रहित है।[अष्टावक्र गीता 18.94] The Yogi, scholar, philosopher, seer, wise man is without worries in spite of their existence, has organs-body systems but do not utilise them, blessed with intelligence but makes no use of it, has pride but does not reflects it in his behaviour-is non egoist.
न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता न किंचिन्न्न च किंचन॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, जीवन्मुक्त विषय भोगों में न सुखी होता है और न दुखी, न विरक्त होता है और न अनुरक्त। वह न मुमुक्षु है और न मुक्त। क्योंकि आत्म दृष्टि से वह कुछ नहीं है और अन्तः करण के साथ भी उसे उनका अभ्यास नहीं है।[अष्टावक्र गीता 18.96]The enlightened, Yogi, passionless, stable is not involved internally-pertaining to innerself-soul, in external pain or pleasure (unhappy or happy), neither detached nor attached, neither seeking liberation nor liberated, neither an entity-something nor non entity, nothing. In spite of being a physical entity-person, he does not involve himself in worldly affairs.
विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, योगी, जीवन्मुक्त विक्षेप में विक्षिप्त नहीं होता, समाधि में समाधिस्थ नहीं होता। उसकी लौकिक जड़ता में वह जड़ नहीं है और पांडित्य में पंडित नहीं है; क्योंकि वह स्वयं प्रकाश आत्मा का अनुभव कर रहा है।[अष्टावक्र गीता 18.97] The enlightened, Yogi, passionless, stable remains undistracted-calm, at peace in distractions, in a state of stanch meditation-mental stillness remains unpoised, remains active in universal inertia, stability, calmness, though a scholar, philosopher, enlightened but does not show off, claim, pretend to be so or describe, discuss his wisdom.
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम्॥
ज्ञानी, विद्वान, योगी, धीर, जीवन्मुक्त व्यक्ति प्रारब्धवश-कर्मानुसार उत्पन्न सभी स्थितियों में अपने स्वरुप में स्थित-स्वस्थ चित्त वाला रहता है। कर्तव्य रहित होने से वह उद्वेग को प्राप्त हुए बगैर शाँत रहता है, क्योंकि किसी भी प्रकार का हठ-आग्रह उसमें शेष हीं है; सदा समान-तृष्णा रहित होने के कारण वह किये गये और विस्मृत कर्मों से भी निर्लिप्त है।[अष्टावक्र गीता 18.98]The enlightened, Yogi, passionless, stable, liberated is self possessed, stable, mentally free, in all circumstances generated by the destiny due to the impact of deeds-KARM FAL, being free from actions-new deeds remains at peace-ease, since he has lost all desires-possessiveness and is untainted-unsmeared without greed, without dwelling on what has been done or left incomplete.
न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, जीवन्मुक्त किसी के द्वारा वंदना करने से वह प्रसन्न नहीं होता, निंदा करने से क्रोधित नहीं होता, मृत्यु से उद्वेग नहीं करता और जीवन का अभिनन्दन नहीं करता; क्योंकि उसकी दृष्टि में जीवन-मरण एक नियम है और केवल आत्मा ही नित्य है। वह हर हाल-परिस्थिति में एक रस-एक समान है।[अष्टावक्र गीता 18.99]The enlightened, Yogi, passionless, stable is neither pleased, when praised nor upset-angry when blamed-rebuked. He is neither afraid of death nor attached to life. He considers life and death as a matter of routine, rule-law. He is alike in all conditions, circumstances, situations, adversities.
न धावति जनाकीर्णं नारण्यं उपशान्तधीः।
यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, जीवन्मुक्त, शांत बुद्धि वाला व्यक्ति न तो जन समूह की ओर आकर्षित होता है और न ही वन की ओर। वह हर हल-चल, परिस्थिति में स्थिर, समभाव, समचित्त से आसीन रहता है।[अष्टावक्र गीता 18.100] The enlightened, Yogi, patient, stable remains at peace-ease without being attracted to the human habitation-popular resorts or by the forests-jungles which are not inhabited by the people. He remains stable with equanimity under all conditions-situations.
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहमूलानि दु:खानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम्॥
किसी भी व्यक्ति से प्रेम-स्नेह दुःख का कारण हो सकते हैं। दुःखों से मुक्त होने के लिये व्यक्ति को बन्धन मुक्त होना चाहिये।[चाणक्य नीति 13.5] Love & affection may become the root cause of sorrow and pains for a person. Love and affection are the root cause of sorrow, pain, grief and behind each & every trouble. One should reject, renounce, cut these attachments, bonds, ties, sentiments to become happy, fearless, tension less-trouble free.
Its easy to say than doing it. Its extremely difficult to eliminate the family bonds-attachments or throw them out the life. As soon as one problem is over come, yet another problem surfaces, as a result of bond, ties, affections, affiliations. Till the end comes humans remain busy with their routine. One should find time for prayers, worship, social service and helping others. These are the acts which help him in relinquishing the world without pain.
One will not be able to achieve renunciation unless-until he cuts the bonds of love-affection or worldly affairs.
Its easy to say than doing it. Its extremely difficult to eliminate the family bonds-attachments or throw them out the life. As soon as one problem is over come, yet another problem surfaces, as a result of bond, ties, affections, affiliations. Till the end comes humans remain busy with their routine. One should find time for prayers, worship, social service and helping others. These are the acts which help him in relinquishing the world without pain.
One will not be able to achieve renunciation unless-until he cuts the bonds of love-affection or worldly affairs.
One should attain equanimity, become passionless, stable, Yogi, enlightened and make efforts to achieve salvation-Moksh while discharging his domestic routine, duties, Varnashram Dharm.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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