Friday, June 24, 2016

GURU गुरु

GURU गुरु
(TEACHER, MANTOR, EDUCATOR, अध्यापक)
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
The break up of Guru is Gu-darkness and ru light-enlightenment. Thus the Guru is the one who directs the learner from unawareness to awareness. He is the one ensures success for his disciple.

गुरु शब्द में ही गुरु का महिमा का वर्णन है। गु का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है प्रकाश। इसलिए गुरु का अर्थ है: अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला अर्थात जीवन में सफलता हेतु  विद्यार्थी का उचित मार्गदर्शन करने वाला। गुरु शिष्यों का मार्ग दर्शन करता है और शिष्य को उचित की ओरआगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। गुरु वेद-शास्त्रों का उपदेश करता है ज्ञान करता है। ज्ञान गुरु है। गुरु वह है, जो ज्ञान दे। इसका अर्थ शिक्षक भी है। सांसारिक अथवा पार मार्थिक ज्ञान देने वाले व्यक्ति को भी गुरु कहा जाता है। 
One who obtains the blessing of his teachers-elders-pundits-scholars-philosopher gets success in life. 
वर्तमान काल में शिक्षकों की 5  श्रेणिया :: (1). शिक्षक, अध्यापक :- जो स्कूलों में पढ़ाते-शिक्षा देते हैं, (2). आचार्य :- जो अपने आचरण से शिक्षा देता है, (3). कुलगुरु :- जो वर्णाश्रम धर्म के अनुसार संस्कार ज्ञान देता है, (4). दीक्षा गुरु :- जो परम्परा का अनुसरण करते हुए अपने गुरु के आदेश पर आध्यात्मिक उन्नति के लिए मंत्र दीक्षा देते हैं और  (5). गुरु :- यह शब्द समर्थ गुरु अथवा परम गुरु के लिए आया है। 
गुरु का अर्थ है भारी। ज्ञान सभी से भारी है अर्थात महान है। अतः पूर्ण ज्ञानी चेतन्य रूप पुरुष के लिए गुरु शब्द प्रयुक्त होता है, उसकी ही स्तुति की जाती है। 
निषेकादीनि कार्माणि य: करोति यथाविधि। 
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते।[मनुस्मृति 2.143]
जो विप्र संस्कारों को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह गुरु कहलाता है। पिता प्रथम गुरु, दूसरी गुरु माता तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक, मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं।
(1). गुरुत्व के लिए वर्जित पुरुष ::
अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा। 
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥कालिकापुराण॥ 
(2). गुरु वर्ग :-
उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:। 
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥ 
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥ 
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु। 
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥[कूर्मपुराण] 
(3). अच्छे गुरु के लक्षण :-
सदाचार: कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थापारग:। 
नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारक: शुचि:॥ 
अपर्वमैथुनपुर: पितृदेवार्चने रत:।
गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत सदा॥ 
दयावान शीलसम्पन्न: सत्कुलीनो महामति:।
परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विज:॥
अन्यैश्च वैदिकगुणैगुणैर्युक्त: कार्यो गुरुर्नृपै:।
एतैरेव गुणैर्युक्त: पुरोधा: स्यान्महीर्भुजाम्॥युत्किकल्पतरु॥ 
(4). मंत्रगुरु के विशेष लक्षण :-
शांतो दांत: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेशवान्।
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान॥ 
आश्रामी ध्याननिष्ठश्च मंत्र-तंत्र-विशारद:।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥
उद्धर्तुच्ञै व संहतुँ समर्थो ब्राह्माणोत्तम:।
तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुच्यते॥
(5). सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है। 
गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥
(6). उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थत: गुरु है-
उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:। आचारमग्निकार्यञ्चसंध्योपासनमेब च॥ 
अल्पं वा बहु वा यस्त श्रुतस्योपकरोति य:।
तमपीह गुरुं विद्याच्छु तोपक्रिययातया॥
षटर्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्।
तदर्द्धिकं पादिक वा ग्रहणांतिकमेव वा॥ 
गुरु का चुनाव :: वीर शैवों में यह है कि प्रत्येक लिंगायत गाँव में एक मठ होता है जो प्रत्येक पाँच प्रारम्भिक मठों से सम्बंधित रहता है। प्रत्येक लिंगायत किसी न किसी मठ से सम्बंधित होता है। प्रत्येक का एक गुरु होता है। 'जंगम' इनकी एक जाति है जिसके सदस्य लिंगायतों के गुरु होते हैं।
जब लिंगायत अपने 'गुरु' का चुनाव करता है तब एक उत्सव होता है, जिसमें पाँच मठों के महंतों के प्रतिनिधि के रूप में, रखे जाते हैं। चार पात्र वर्गाकार आकृति में एवं एक केंद्र में रखा जाता है। यह केंद्र का पात्र उस लिंगायत के घर जाता है, उस अवसर पर 'पादोदक' संस्कार होता है, जिसमें सारा परिवार तथा मित्रमण्डली उपस्थित रहती है। गृहस्वामी द्वारा गुरु की षोडशोपचार पूर्वक पूजा की जाती है।
गुरु का सम्मान :: धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है। प्राचीन काल में गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का परम धर्म होता था। प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली में वेदों का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से गुरुओं द्वारा मौखिक शिक्षा के माध्यम से शिष्यों को दिया जाता था। गुरु शिष्य का दूसरा पिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। आधुनिक काल में गुरु का सम्मान और भी अधिक बताया गया है। संतों के अनुयायी जिसे एक बार गुरु ग्रहण करते हैं, उसकी बातों को ईश्वर वचन मानते हैं।
बिना गुरु की आज्ञा के कोई हिंदु किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं हो सकता। प्रथम वह एक जिज्ञासु बनता है। बाद में गुरु उसके कान में एक शुभ बेला में दीक्षा-मंज्ञ पढ़ता है और फिर वह सम्प्रदाय का सदस्य बन जाता है।
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। 
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही भगवान् शंकर है; गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है अतः उन सद्गुरु को प्रणाम।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः। 
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥
धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते॥
जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ। 
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्॥
गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पर बैठना चाहिए। गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी इच्छा से नहीं बैठना चाहिए।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च। दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्॥
बहुत ज्यादा और करोडों शास्त्रों से भी अधिक चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा। 
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः॥
प्रेरणा देने वाले, सूचना देने वाले, (सच) बताने वाले, (रास्ता) दिखाने वाले, शिक्षा देने वाले और बोध कराने वाले; ये सब गुरु समान है।
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते। 
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
'गु'कार याने अंधकार और 'रु'कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च। 
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥
शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए।
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्। 
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता॥
विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व और प्रसन्नता; ये सात शिक्षक के गुण हैं।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। 
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार।
गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते। 
कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥
जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए। यदि यह शक्य न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए और (यदि) वह भी शक्य न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए।
विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम्। 
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः॥
विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है और विरक्ति का फल आश्रव निरोध है।
यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः। 
जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः॥
गुरु सब प्राणियों के प्रति वीत राग और मत्सर से रहित होते हैं। वे जीतेन्द्रिय, पवित्र, दक्ष और सदाचारी होते हैं।
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत्। 
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत्॥
गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें।
बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः। 
क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः॥
जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु शायद हि दिखाई देते हैं।
सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः। 
अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु॥
अभिलाषा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले और मिथ्या उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं है।
दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्। 
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन॥
जैसे दूध बगैर गाय, फूल बगैर लता, शील बगैर भार्या, कमल बगैर जल, शम बगैर विद्या और लोग बगैर नगर शोभा नहीं देते, वैसे ही गुरु के बिना शिष्य शोभा नहीं देता।
योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः। 
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः॥
योगीयों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समजा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर मं समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु, बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं।
पूर्णे तटाके तृषितः सदैव भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः। 
कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी॥
जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी रहे, वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के पास होते हुए भी प्यासा, घर में अनाज होते हुए भी भूखा और कल्प वृक्ष के पास रहते हुए भी दरिद्र है।
दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम्। 
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि॥
तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती। गुरु को पारस मणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारस मणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाता। सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेने वाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहीं है, गुरु अलौकिक है।
नाम चिंता मणि में  बारह प्रकार के गुरुओं का वर्णन :: 
धातु वादी गुरु :-  विभिन्न बातें बताकर अंत में ज्ञानोपदेश देनेवाले धातुवादी गुरु होते हैं। उदाहरण के लिये : ‘बच्चा!  मंत्र ले लिया, अब जाओ तीर्थाटन करो। भिक्षा माँग के खाओ अथवा घर का खाओ तो ऐसा खाओ, वैसा न खाओ। लहसुन न खाना, प्याज न खाना, यह करना, यह न करना। इस बर्तन में भोजन करना, ऐसे सोना।' आदि 
चंदन गुरु :-  जिस प्रकार चंदन वृक्ष अपने निकट के वृक्षों को भी सुगंधित बना देता है, ऐसे ही अपने सान्निध्य द्वारा शिष्य को तारने वाले गुरु चंदन गुरु होते हैं। चंदन गुरु वाणी से नहीं, आचरण से मनुष्य में संस्कार भर देते हैं। उनकी सुवास का चिंतन करके मानव अपने समाज में सुवासित होने के काबिल बन जाता है। 
विचार प्रधान गुरु :- जो सार है वह ब्रह्म-परमात्मा है, असार है अष्टधा प्रकृति का शरीर। प्रकृति का शरीर प्रकृति के नियम से रहे लेकिन आप अपने ब्रह्म-स्वभाव में रहें।  इस प्रकार का विवेक जगानेवाले आत्म-विचार प्रधान गुरु होते हैं।
अनुग्रह-कृपा प्रधान गुरु :- अपनी अनुग्रह-कृपा द्वारा अपने शिष्यों का पोषण कर दें, दर्शन करा दें, मार्ग दर्शन दे दें; अच्छा काम करें तो प्रोत्साहित कर दें, गड़बड़ी करें तो गुरु की मूर्ति मानो नाराज हो रही है। ऐसे गुरु भी होते हैं।
पारस गुरु :- जैसे पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना कर देता है, ऐसे ही ये गुरु अपने हाथ का स्पर्श अथवा अपनी स्पर्श की हुई वस्तु का स्पर्श कराके मनुष्य चित्त के दोषों को हर कर चित्त में आनंद, शांति, माधुर्य एवं योग्यता का दान करते हैं।
कूर्म गुरु :- जैसे मादा कछुआ दृष्टिमात्र से अपने बच्चों को पोषित करती है, ऐसे ही गुरुदेव कहीं भी हों अपनी दृष्टिमात्र से, पवित्र दृष्टि मात्र से शिष्य को दिव्य अनुभूतियाँ कराते रहते हैं। 
चन्द्र गुरु :- जैसे चन्द्रमा के उगते ही चन्द्रकांत मणि से रस टपकने लगता है, ऐसे ही गुरु को देखते ही मनुष्य के अंतःकरण में उनके ज्ञान का, उनकी दया का, आनंद, माधुर्य का रस उभरने, छलकने लगता है। गुरु का चिंतन करते ही, उनकी लीलाओं, घटनाओं अथवा भजन आदि का चिंतन करके किसी को बताते हैं तो भी रस आने लगता है।
दर्पण गुरु :- जैसे दर्पण में अपना रूप दिखता है ऐसे ही गुरु के नजदीक जाते ही मनुष्य को अपने गुण-दोष दिखते हैं और अपनी महानता का, शांति, आनंद, माधुर्य आदि का रस भी आने लगता है, मानो गुरु एक दर्पण हैं। गुरु के पास गये तो गुरु का स्वरूप और अपना स्वरूप मिलता-जुलता, प्यारा-प्यारा लगता है। वहाँ वाणी नहीं पहुँचती। 
छाया निधि गुरु :- जैसे एक अजगैबी देवपक्षी आकाश में उडता है और जिस व्यक्ति पर उसकी ठीक से छाया पड जाती है वह राजा बन जाता है ऐसी कथा प्रचलित है। यह छायानिधि पक्षी आकाश में उडता रहता है किंतु मनुष्य कोआँखों से दिखाई नहीं देता। ऐसे ही साधक को अपनी कृपा छाया में रखकर उसे स्वानंद प्रदान करने वाले गुरु छायानिधि गुरु होते हैं। जिस पर गुरु की दृष्टि, छाया आदि कुछ पड गयी वह अपने-अपने विषय में, अपनी-अपनी दुनिया में राजा हो जाता है। राजे-महाराजे भी उसके आगे घुटने टेकते हैं। 
नादनिधि गुरु :-  नादनिधि मणि ऐसी होती है कि वह जिस धातु को स्पर्श करे वह सोना बन जाती है। पारस तो केवल लोहे को सोना करता है ।
संत गरीब दास दादू दयाल जी के शिष्य थे। उनको किसी वैष्णव साधु ने मणि दी तो उन्होंने वह मणि फेंक दी। वैष्णव साधु ने कहा : ‘‘मैं तो तुम्हारी गरीबी मिटाने के लिए लाया था। इतनी तपस्या के बाद मणि मिली थी, तुमने उसे फेंक दिया वो तो बेशकीमती थी। गरीब दास जी  उन्हें नदी तट पर ले गये और नदी में दिखाकर कर कहा कि जितनी पारस मणि चाहियें उतनी निकल लो। वैष्णव साधु गरीब दास जी के चरणों में पड़ गये।
मनुष्य के चित्त की कितनी महानता है! ऐसे भी गुरु होते हैं, जिनका ललाट या वाणी नादनिधि बन जाती है। ऐसी कथा वार्तायें सुनकर हृदय आनंदित हो जाता है, अहो भाव से भर जाता है और स्वयम को परम् सौभाग्शाली मानने लगता है। ऐसे गुरु मुमुक्षु की करुण पुकार सुन के उस पर करुणा करके उसे तत्क्षण ज्ञान दे देते हैं। मुमुक्षु के आगे स्वर्ण तो क्या है, हीरे क्या हैं, राज्य क्या है ? वह तो राज्य और स्वर्ण का दाता बन जाता है। नादनिधि मणि से भी उन्नत, गुरु की कृपा और गुरु का ज्ञान काम करता है। नादनिधि चमत्कारी है, मगर  उससे भी कई गुना चमत्कारी गुरुदेव की वाणी और कृपा है। उनके चरणों में  नमस्कार है। गुरुदेव की पूजा के आगे नादनिधि मणि, चिंतामणि, पारसमणि कुछ भी नहीं है।
क्रौंच गुरु :-  जैसे मादा क्रौंच पक्षी अपने बच्चों को समुद्र-किनारे छोडकर उनके लिए दूर स्थानों से भोजन लेने जाती है तो इस दौरान वह बार-बार आकाश की ओर देखकर अपने बच्चों का स्मरण करती है। आकाश की ओर देख के अपने बालकों के प्रति सदभाव करती है तो वे पुष्ट हो जाते हैं। ऐसे ही गुरु अपने चिदाकाश में होते हुए अपने शिष्यों के लिए सदभाव करते हैं तो अपने स्थान पर ही शिष्यों को गुदगुदियाँ होने लगती हैं, आत्मानंद मिलने लगता है और वे समझ जाते हैं कि गुरु ने याद किया। 
सूर्यकांत गुरु :-  सूर्यकांत मणि में ऐसी कुछ योग्यता होती है कि वह सूर्य को देखते ही अग्नि से भर जाती है, ऐसे ही अपनी दृष्टि जहाँ पडे वहाँ के साधकों को विदेह मुक्ति देनेवाले गुरु सूर्य कांत गुरु होते हैं। शिष्य को देखकर गुरु के हृदय में उदारता, आनंद उभर जाय और शिष्य का मंगल ही मंगल होने लगे, शिष्य को उठकर जाने की इच्छा ही न हो। गुरु का अपना स्वभाव ही बरसने लगे। 
तीरथ नहाये एक फल :- अपनी भावना का ही फल मिलेगा। संत मिले फल चार :- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मिलेगा। आत्म साक्षात्कारी गुरु में तो उपरोक्त बारह के बारह लक्षण चमकते दमकने लगते हैं। 
GURU ARADHNA गुरु आराधना ::
गुरु अष्टक :: गुर्वष्टकम्गुर्वष्टकम् :: श्री गुरु स्तोत्र  
शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम्। 
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥1॥ 
यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्तिचारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्री चरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं, गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥2॥ 
सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हों, किंतु गुरु के श्री चरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या, कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति। 
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥3॥ 
वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु केश्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः, सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥4॥ 
जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?
क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः, सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्। 
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥5॥ 
जिन महानुभाव के चरण कमल पृथ्वी मण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥6॥ 
दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणोंमें आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ, न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम्। 
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥7॥ 
जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये, न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥8॥ 
जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु केश्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारीअनासक्त्तियों का क्या लाभ?
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही, यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥9॥ 
जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवंब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है Mother is the first teacher-Guru, father is the second Guru and the third Guru is the teacher who educated the human beings for becoming a descent-honest-pious citizen in future.The occasion when one can pay respect to his teachers, falls on Guru Purnima. Special significance is attached to this full Moon night since Bhagwan Ved Vyas was born on this auspicious day. He is one who dictated Maha Bharat to Ganesh Ji. This is known as Vyas Purnima as well, after his name. Kaurav dynasty prolonged due to his conceiving-inseminating, the wives of Chitr Viry and Vichitr Viry, King Shantunu's sons when his mother Saty Wati invited him to do so.
माता-जननी, पहला गुरु, पिता दूसरा गुरु तथा तीसरा गुरु वह व्यक्ति है एक अनघड़ बालक को समाज के योग्य बनता है।आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। इस दिन गुरु की पूजा कर सम्मान करने की परंपरा प्रचलित है। हिंदू धर्म में गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है तथा जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार करता है इसलिए यह कहा गया है। 
ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।गुरु पूर्णिमा अर्थात सद्गुरु के पूजन का पर्व। गुरु की पूजा, गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा है उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।
I pay respect-reverence [valuing, respect, prising, cherishing, treasuring, admiration, regard, esteem, high opinion, acknowledgement, recognition, realisation]
to the Guru, since he guided to me become a respectable citizen-a human being. guru Purnima is the day when I can remember him and pay my tributes and felicitate him. Honouring the teacher is honouring the Almighty present in our hearts. Bhagwan Shiv is considered to be the one who is aware of the Almighty-The Par Brahm Parmeshwar and is considered to be the ultimate Guru. Honouring a teachers means we honour learning-enlightenment knowledge.
Special significance is attributed-attributed to the status of teacher since he is one who creates-generated to good qualities-virtues-morals-righteousness-piousness-honesty in his disciple. Its he who inculcates the qualities-abilities to make the student learn how to interact-mingle in the society and earn his livelihood through intelligence-prudence-learning-skills-ability. He is the one who help the learner in over powering the wickedness-evils-demonic tendencies-wretchedness in him self.
गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वर:। 
गुरु: साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:॥ 
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। 
Its the teacher who grants second birth-life to the child. he takes the follower from darkness to aura-light-brightness.
हिंदू धर्म में सदैव गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को नवजीवन प्रदान करता है उन्हें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है।
The break up of Guru is Gu-darkness and ru light-enlightenment. Thus the Guru is the one who directs the learner from unawareness to awareness. he is the one ensures success for his disciple.
गुरु शब्द में ही गुरु का महिमा का वर्णन है। गु का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है प्रकाश। इसलिए गुरु का अर्थ है: अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला अर्थात जीवन में सफलता हेतु  विद्यार्थी का उचित मार्गदर्शन करने वाला। 
One who obtains the blessing of his teachers-elders-pundits-scholars-philosopher gets success in life.
इस दिन जो व्यक्ति गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करता है, उसका जीवन सफल हो जाता है। महर्षि वेदव्यास ने भविष्योत्तर पुराण में गुरु पूर्णिमा के बारे में लिखा है ::
मम जन्मदिने सम्यक् पूजनीय: प्रयत्नत:। 
आषाढ़ शुक्ल पक्षेतु पूर्णिमायां गुरौ तथा॥ 
पूजनीयो विशेषण वस्त्राभरणधेनुभि:। 
फलपुष्पादिना सम्यगरत्नकांचन भोजनै:॥ 
दक्षिणाभि: सुपुष्टाभिर्मत्स्वरूप प्रपूजयेत। 
एवं कृते त्वया विप्र मत्स्वरूपस्य दर्शनम्॥ 
One should offer cloths, ornaments, fruits-sweets, gifts-money etc. on the occasion of Guru Poornima to be liberated.
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को मेरा जन्म दिवस है। इसे गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन पूरी श्रृद्धा के साथ गुरु को सुंदर वस्त्र, आभूषण, गाय, फल, पुष्प, रत्न, स्वर्ण मुद्रा आदि समर्पित कर उनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करने से गुरुदेव में मेरे ही स्वरूप के दर्शन होते हैं।
Those who suffer due to the retro-gate Jupiter must serve their elders-Guru-Pundits with dedication and seek their blessings. he should offer cloths with yellowish tinge-shade-colour to the needy-poor-elders-parents-grand parents and the virtuous. He should be attentive to the sages-ascetics-hermits-recluse and offer the basic amenities-essentials goods to survive if they need them without being asked and without disclosing the help-nature of help offered to them.
इस दिन सभी लोग अपने-अपने गुरु की पूजा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा के बिना कहीं भी सफलता नहीं मिलती।जिन लोगों की कुंडली में गुरु प्रतिकूल स्थान पर होता है, उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते है। वे लोग यदि गुरु पूर्णिमा के दिन नीचे लिखे उपाय करें तो उन्हें इससे काफी लाभ होता है। यह उपाय इस प्रकार हैं- (1). भोजन में केसर का प्रयोग करें और स्नान के बाद नाभि तथा मस्तक पर केसर का तिलक लगाएं। (2). साधु, ब्राह्मण एवं पीपल के वृक्ष की पूजा करें। (3). गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान के जल में नागरमोथा नामक वनस्पति डालकर स्नान करें। (4). पीले रंग के फूलों के पौधे अपने घर में लगाएं और पीला रंग उपहार में दें। (5). केले के दो पौधे विष्णु भगवान के मंदिर में लगाएं। (6). गुरु पूर्णिमा के दिन साबूत मूंग मंदिर में दान करें और 12 वर्ष से छोटी कन्याओं के चरण स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद लें। (7). शुभ मुहूर्त में चांदी का बर्तन अपने घर की भूमि में दबाएं और साधु संतों का अपमान नहीं करें। (8). जिस पलंग पर आप सोते हैं, उसके चारों कोनों में सोने की कील अथवा सोने का तार लगाएं।
**गुरु बनने से पहले गुरु के जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आये होंगे, अनेक अनुकूलताएं-प्रतिकूलताएं आयी होंगी, उनको सहते हुए भी वे साधना में रत रहे, ‘स्व’ में स्थित रहे, समता में स्थित रहे।
TRIBUTES TO THE GURU-TEACHER गुरु वन्दना ::
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं; 
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं; 
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥
brahmanandam paramasukhadaṃ kevalaṃ gyanmurtim; 
dvandvateetam gagansadrasham  tattvmasyadilkṣhyam.
ekam nityam vimlamchalam sarvdheesakshibhutam;
bhavateetam trigunrahitam sadgurum tam namami.
मैं उस सद्गुरु के समक्ष दण्डवत प्रणाम करता हूँ जो ज्ञानमूर्ति परब्रह्म परमेश्वर के सदृशय परमानन्द प्रदान करने वाले हैं, परमात्म तत्व के ज्ञाता हैं, जो द्वन्द-परेशानी-दुःख से मुक्ति प्रदायक हैं, जो आकाश के समान विस्तृत-विशाल हैं, जो सत्य की मूर्ति हैं, जो कि स्वयं अपने आप में परिपूर्ण (मुकम्मल, निष्कलंक, बेदाग़, उत्तम), दृढ़ (स्थिर, निरंतर, अचल, अडिग) सभी भावनाओं व त्रिगुणों से भी ऊपर हैं। 
One bow-offer his obeisance-tributes to the Guru-teacher who is like the Par Brahm Parmeshwar-the Almighty, Parmanand-bliss-Ultimate pleasure-joy, the only the source of true-tangible form  manifestation-personification of knowledge-enlightenment, beyond the dilemma-tussle of joy-sorrow, life-death, like the sky which is fatherly protecting & vast, indicator-shower of great truths,  indicates-explains-shows which are perennial, always unblemished (complete, entire, whole, accomplished, impeccable, thoroughbred, taint less, stainless, flawless, unshaded, unspotted, soil less, unshadowed, spotless, unblameable, unshaded), steadfast (good, perfect, masterly, surpassing, complete, finished, total, overall, thorough, firm, strong,  tenacious, resolute, determined, stable, static, stationary, constant, stagnant, continuous, sustained, continued, continual, unremitting, immovable, invariable, irreplaceable, unshakeable, still, wiry, sure, unbending), witness-observer of everyone's cosmic intelligence, beyond existence or emotions, beyond the three GUN-characteristics i.e.,  Satv (pure, pious, virtuous, honest, truth, Rajas (action) & Tamas (inertia, lazy, lethargic). 
GURU WORSHIP गुरु आराधना :: These are (गुरु मन्त्र Guru Mantr) are Sanskrat stanzas-rhymes addressed to the teacher-the गुरु Guru). These Shlok are recited  for praising the गुरु Guru for his proximity to God.
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। 
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Akhand Mandala Karam Vyaptam  Yen Chra Chram;
Tatpdam Darshitm Yen Tasmae Shri Gurve Namah.
I bow before my teacher-the enlightened-Noble Guru, who has made it possible to realise the state which pervades the entire cosmos, everything animate and inanimate.
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। 
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Agyan  Timi Randhasy Gyana Anjan Shlakya; 
Chakshu Run Meelitm Yen Tasmae Shri Gurve Namah.
I bow in front of my virtuous-noble Guru, who has opened my eyes, blinded by darkness of ignorance with the collyrium-stick of knowledge.
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Gurur Brahma Gurur Vishnuh Gurur Devo Maheshwarah;
Guru Sakshat Para Brahm Tasmae Shri Gurve Namah.
My salutation to my teacher, who to me are Brahma, Vishnu and Maheshwar, the Ultimate Par Brahm, the Supreme reality.
Guru Vandna: This is recited to pay salutation to teacher  (गुरु, guru) in evening. 
स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम्। 
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Sthavram Jangmam Vyaptam Yatkim Chits Chra Chram;
Tatpdam Darshitam Yen Tasmae Shri Gurve Namah.
I beg pray to the noble Guru, who has made it possible to realise Him, by whom all that is sentient and insentient, movable and immovable is pervaded.
चिन्मयं व्यापियत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Chinmyam Vyapiyatsarwam  Trelokyam Sachracharam;
Tatpdam Darshitam Yen Tasmae Shri Gurve Namah.
My salutation to the noble Guru, who has made it possible to realise Him who pervades in everything, sentient and insentient, in all three worlds.
त्सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजित पदाम्बुजः।
वेदान्ताम्बुजसूर्योयः तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Tsarw Shruti Shiro Ratn Virajit Pdambujah;
Vedantambuj Suryoyh Tasmae Shri Gurve Namah.
I salute the noble Guru, whose lotus feet are radiant with (-the lustre of) the crest jewel of all Shruti and who is the sun that causes the Vedant Lotus (-knowledge) to blossom.
चैतन्यः शाश्वतःशान्तो व्योमातीतो निरंजनः।
बिन्दुनाद कलातीतः तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Chaitanyh Shashvath Shanto Vyomateeto Niranjnah;
Bindunad Kalateetah Tasmae Shri Gurve Namah.
My salutation to the noble Guru, who is the ever effulgent, eternal, peaceful, beyond space, immaculate, and beyond the manifest and unmanifest.
ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Gyan Shakti Sma Rudhh  Tattv Mala Vibhushitah;
Bhukti Mukti Pradata Ch Tasmae Shri Gurve Namah.
I pay my tributes, regards to the noble Guru, who is established in the power of knowledge-enlightenment, adorned with the garland of various principles and is the bestow-er of prosperity and liberation.
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Anek Janm Samprapt  Karm Bandh Vidahine;
Atm Gyana Pradanen Tasmae Shri Gurve Namah.
Salutation to the noble Guru, who by bestowing the knowledge of the Self burns up the bondage created by accumulated actions of innumerable births.
शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापणं सारसंपदः।
गुरोः पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Shoshnam  Bhav Sindhoshch Gyapnam Sar Sampdah;
Guroh Padodkam Samyak Tasmae Shri Gurve Namah.
I pray to the noble Guru, by washing whose feet, the ocean of transmigration, endless sorrows is completely dried up and the Supreme wealth is revealed.
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Na Guror Dhikam Tattvam Na Guror Dhikam  Tapah;
Tattv Gyanatpram Nasti Tasmae Shri Gurve Namah.
I pray to the noble illustrious Guru, beyond whom there is no higher truth, there is no higher penance and there is nothing higher attainable than the true knowledge.
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Man Nathah Shri Jagan Nathah Mad Guruh Shri Jagad Guruh;
Madatma Sarw Bhutatma Tasmae Shri Gurve Namah.
I pray to the noble Guru, who is my master and the Master of the Universe, my Teacher and the Teacher of the Universe, who is the Self in me and the Self in all beings.
गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
Gurura Dir Nadishch Guruh Param Daevtam;
Guroh Partram Nasti Tasmae Shri Gurve Namah.
I bow before the noble Guru, who is both the beginning and beginning less, who is the Supreme Deity than whom there is none superior.
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
 त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
Tvamev Mat Ch Pita Tvamev, Tvamev Bandhushch Sakha Tvamev;
Tvamev Vidya Ch Dravinam Tvamev, Tvamev Sarvam Mam Dev Dev.
This is a prayer dedicated to the Almighty who is the Ultimate Guru. (Oh Guru!) You are my mother and father; you are my brother and companion; you alone are knowledge and wealth. Oh the Almighty, you are everything to me.
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SERVING THE GURU  गुरु सेवा  :: Mother is the first teacher-Guru, father is the second Guru and the third Guru is the teacher who educated the human beings for becoming a descent-honest-pious citizen in future. The occasion when one can pay respect to his teachers, falls on Guru Purnima. Special significance is attached to this full Moon night since Bhagwan Ved Vyas was born on this auspicious day. He is one who dictated Maha Bharat to Ganesh Ji. This is known as Vyas Purnima as well, after his name. Kaurav dynasty prolonged due to his conceiving-inseminating, the wives of Chitr Viry and Vichitr Viry, King Shantunu's sons when his mother Saty Wati invited him to do so.
माता-जननी, पहला गुरु, पिता दूसरा गुरु तथा तीसरा गुरु वह व्यक्ति है एक अनघड़ बालक को समाज के योग्य बनता है।आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। इस दिन गुरु की पूजा कर सम्मान करने की परंपरा प्रचलित है। हिंदू धर्म में गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है तथा जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार करता है इसलिए यह कहा गया है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरु पूर्णिमा :: यह सद् गुरु के पूजन का पर्व है। इस दिन जो व्यक्ति गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करता है, उसका जीवन सफल हो जाता है। गुरु की पूजा, गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा है उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।
I pay respect-reverence (valuing, respect, prising, cherishing, treasuring, admiration, regard, esteem, high opinion, acknowledgement, recognition, realisation) to the Guru, since he guided to me become a respectable citizen-a human being. guru Poornima is the day when I can remember him and pay my tributes and felicitate him. Honouring the teacher is honouring the Almighty present in our hearts. Bhagwan Shiv is considered to be the one who is aware of the Almighty-The Par Brahm Parmeshwar and is considered to be the ultimate Guru. Honouring a teachers means we honour learning-enlightenment knowledge.
Special significance is attributed-attributed to the status of teacher since he is one who creates-generated to good qualities-virtues-morals-righteousness-piousness-honesty in his disciple. Its he who inculcates the qualities-abilities to make the student learn how to interact-mingle in the society and earn his livelihood through intelligence, prudence, learning, skills, ability. He is the one who help the learner in over powering the wickedness-evils-demonic tendencies-wretchedness in him self.
गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वर:। 
गुरु: साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:॥ 
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। 
Its the teacher who grants second birth-life to the child. He takes the follower from darkness to aura, light, brightness.
हिंदू धर्म में सदैव गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को नव जीवन प्रदान करता है उन्हें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है।
महर्षि वेदव्यास ने भविष्योत्तर पुराण में गुरु पूर्णिमा के बारे में लिखा है ::
मम जन्मदिने सम्यक् पूजनीय: प्रयत्नत:। 
आषाढ़ शुक्ल पक्षेतु पूर्णिमायां गुरौ तथा॥ 
पूजनीयो विशेषण वस्त्राभरणधेनुभि:। 
फलपुष्पादिना सम्यगरत्नकांचन भोजनै:॥ 
दक्षिणाभि: सुपुष्टाभिर्मत्स्वरूप प्रपूजयेत। 
एवं कृते त्वया विप्र मत्स्वरूपस्य दर्शनम्॥ 
One should offer cloths, ornaments, fruits-sweets, gifts-money etc. on the occasion of Guru Poornima to be liberated.
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को मेरा जन्म दिवस है। इसे गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन पूरी श्रृद्धा के साथ गुरु को सुंदर वस्त्र, आभूषण, गाय, फल, पुष्प, रत्न, स्वर्ण मुद्रा आदि समर्पित कर उनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करने से गुरुदेव में मेरे ही स्वरूप के दर्शन होते हैं।
Those who suffer due to the retro-gate Jupiter must serve their elders-Guru-Pundits with dedication and seek their blessings. he should offer cloths with yellowish tinge-shade-colour to the needy-poor-elders-parents-grand parents and the virtuous. He should be attentive to the sages-ascetics-hermits-recluse and offer the basic amenities-essentials goods to survive if they need them without being asked and without disclosing the help-nature of help offered to them.
इस दिन सभी लोग अपने-अपने गुरु की पूजा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा के बिना कहीं भी सफलता नहीं मिलती।जिन लोगों की कुंडली में गुरु प्रतिकूल स्थान पर होता है, उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते है। वे लोग यदि गुरु पूर्णिमा के दिन नीचे लिखे उपाय करें तो उन्हें इससे काफी लाभ होता है। यह उपाय इस प्रकार हैं- (1). भोजन में केसर का प्रयोग करें और स्नान के बाद नाभि तथा मस्तक पर केसर का तिलक लगाएं। (2). साधु, ब्राह्मण एवं पीपल के वृक्ष की पूजा करें। (3). गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान के जल में नागरमोथा नामक वनस्पति डालकर स्नान करें। (4). पीले रंग के फूलों के पौधे अपने घर में लगाएं और पीला रंग उपहार में दें। (5). केले के दो पौधे विष्णु भगवान के मंदिर में लगाएं। (6). गुरु पूर्णिमा के दिन साबूत मूंग मंदिर में दान करें और 12 वर्ष से छोटी कन्याओं के चरण स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद लें। (7). शुभ मुहूर्त में चांदी का बर्तन अपने घर की भूमि में दबाएं और साधु संतों का अपमान नहीं करें। (8). जिस पलंग पर आप सोते हैं, उसके चारों कोनों में सोने की कील अथवा सोने का तार लगाएं।
**गुरु बनने से पहले गुरु के जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आये होंगे, अनेक अनुकूलताएं-प्रतिकूलताएं आयी होंगी, उनको सहते हुए भी वे साधना में रत रहे, ‘स्व’ में स्थित रहे, समता में स्थित रहे।
TRIBUTES TO THE GURU-TEACHER गुरु वन्दना ::
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं। 
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं। 
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥
brahmanandam paramasukhadaṃ kevalaṃ gyanmurtim; 
dvandvateetam gagansadrasham  tattvmasyadilkṣhyam.
ekam nityam vimlamchalam sarvdheesakshibhutam;
bhavateetam trigunrahitam sadgurum tam namami.
मैं उस सद्गुरु के समक्ष दण्डवत प्रणाम करता हूँ जो ज्ञानमूर्ति परब्रह्म परमेश्वर के सदृशय परमानन्द प्रदान करने वाले हैं, परमात्मतत्व के ज्ञाता हैं, जो द्वन्द, परेशानी, दुःख से मुक्ति प्रदायक हैं, जो आकाश के समान विस्तृत-विशाल हैं, जो सत्य की मूर्ति हैं, जो कि स्वयं अपने आप में परिपूर्ण (मुकम्मल, निष्कलंक, बेदाग़, उत्तम), दृढ़ (स्थिर, निरंतर, अचल, अडिग) सभी भावनाओं व त्रिगुणों से भी ऊपर हैं।  
One bow-offer his obeisance-tributes to the Guru-teacher who is like the Par Brahm Parmeshwar-the Almighty, Parmanand-bliss-Ultimate pleasure-joy, the only the source of true-tangible form manifestation-personification of knowledge-enlightenment, beyond the dilemma-tussle of joy-sorrow, life-death, like the sky which is fatherly protecting & vast, indicator-shower of great truths, indicates, explains, shows which are perennial, always unblemished (complete, entire, whole, accomplished, impeccable, thoroughbred, taint less, stainless, flawless, unshaded, unspotted, soil less, unshadowed, spotless, unblameable, unshaded), steadfast (good, perfect, masterly, surpassing, complete, finished, total, overall, thorough, firm, strong,  tenacious, resolute, determined, stable, static, stationary, constant, stagnant, continuous, sustained, continued, continual, unremitting, immovable, invariable, irreplaceable, unshakeable, still, wiry,  sure, unbending), witness-observer of everyone's cosmic intelligence, beyond existence or emotions, beyond the three GUN-characteristics i.e.,  Satv (pure, pious, virtuous, honest, truth, Rajas (action) & Tamas (inertia, lazy, lethargic).
प्रज्ञावर्धन स्तोत्र :: इस स्तोत्र का पाठ प्रात:, सूर्योदय के समय रवि पुष्य या गुरु पुष्य नक्षत्र से प्रारम्भ करके आगामी पुष्य नक्षत्र तक,पीपल वृक्ष की जड़ के समीप पूर्व दिशा में मुँह करके करना चाहिये। पाठ करते समय माता पार्वती व भगवान् शिव के पुत्र भगवान् कार्तिकेय जी का ध्यान करना चाहिये। 27  दिन में एक पश्चरण होगा। फिर हर रोज घर में इसका पाठ करना चाहिये। दायें हाथ में जल लेकर विनियोग के बाद जल त्याग करके, स्तोत्र पाठ को शुरू करें। 
विनियोग: ॐ अथास्य प्रज्ञावर्धन, स्तोत्रस्य भगवान शिव ऋषि:, अनुष्टुप छंद:, स्कन्द कुमारो देवता, प्रज्ञा सिद्धयर्थे जपे विनिटिग:। यहाँ जल का त्याग कर दें। 
अथ स्तोत्रम
ॐ योगेश्वरो महासेन: कार्तिकेयोSग्निननन्दन    
स्कन्द: कुमार : सेनानी स्वामी शंकरसंभव॥1॥ 
गांगेयस्ता म्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वज: 
तारकारिरुमापुत्र: क्रौंचारिश्च षडानन:॥2॥ 
शब्दब्रह्मसमूहश्च सिद्ध: सारस्वतो गुह: 
सनत्कुमारो भगवांन भोग- मोक्षप्रद प्रभु:॥3॥ 
शरजन्मा गणाधीशं पूर्वजो मुक्तिमार्गकृत 
सर्वांगं-प्रणेता च वांछितार्थप्रदर्शक:॥4॥ 
अष्टाविंशति नामानि मदीयानीति य: पठेत 
प्रत्यूषे श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत्॥5॥ 
महामन्त्रमयानीति नामानि कीर्तयत
महाप्रज्ञावाप्नोति नात्र कार्य विचारणा॥6॥ 
पुष्यनक्षत्रमारम्भय कपून: पुष्ये समाप्य च
अश्वत्त्थमूले प्रतिदिनं दशवारं तु सम्पठेत॥7॥ 
प्रज्ञावर्धन स्तोत्रों सम्पूर्णमयह स्तोत्र विद्यार्थोयों की बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने एवं विद्या में सफलता के लिये है। 

    
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