Friday, June 24, 2016

xxx त्र, TRA, tra

त्र, TRA, tra
CONCEPTS $ EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नमः। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

त्र्यवरा धर्म परिषद :: 
दशावरा वा परिषद्यं धर्मं परिकल्पयेत्।
त्र्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्
दस शिष्ट ब्राह्मणों की एक दशावरा धर्म परिषद की कल्पना करे अथवा दस के अभाव में सदाचार से युक्त तीन ब्राह्मणों की त्र्यवरा धर्म परिषद की कल्पना करे। यह परिषद जिस धर्म की व्यवस्था करे वही धर्म है, उसमें शंका न करे।[मनु स्मृति 12.110] 
In case an issue arises (tit-bits) which have not been explained in scriptures, the society should call a meeting (joint session) of ten Shish-enlightened Brahmn or three Brahmns observing excellent moral character and let them decide-settle the issue and the society should accept the judgement without doubt. 
The king should follow the verdict and implement it without hitch. However, he may suggest amendments as per doctrine of prevailing rituals, mores, cultures, place, law.
ऋग्वेदविद्यजुर्विच्च सामवेदविदेव च।
त्र्यवरा परिषद्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये
एक ऋग्वेद को जानने वाला, एक यजुर्वेद को जानने वाला और एक सामवेद को जानने वाला, इन तीनों से धर्म के संशय का निवारण करने के लिये त्र्यवरा धर्म परिषद होती है।[मनु स्मृति 12.112] 
The Trayvara Parishad is constituted of one expert in Rig Ved, One in Yajur Ved and one in Sam Ved for clearing the doubts pertaining to-arising in the implementation of Dharm.
त्राण :: रक्षा, बचाव, आश्रय, शरण; defence, salvation.
त्रित :: एक ऋषि का नाम जो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र माने जाते हैं, गौतम मुनि के तीन पुत्रों में से एक जो अपने दोनों भइयों से अधिक तेजस्वी और विद्वान् थे। एक देवता, जिन्होंने सोम बनाया था।
त्रित मुनि का यज्ञ :: भरतश्रेष्ठ! जैसे पापी मनुष्य अपने-आपको नरक में डूबा हुआ देखता है, उसी प्रकार तृण, वीरुध और लताओं से व्याप्त हुए उस कुँए में अपने आपको गिरा देख मृत्यु से डरे और सोमपान से वंचित हुए विद्वान त्रित अपनी बुद्धि से सोचने लगे कि मैं इस कुँए में रहकर कैसे सोमरस का पान कर सकता हूँ। इस प्रकार विचार करते-करते महातपस्वी त्रित ने उस कुँए में एक लता देखी, जो दैव योग से वहाँ फैली हुई थी। मुनि ने उस बालू भरे कूप में जल की भावना करके उसी में संकल्प द्वारा अग्नि की स्थापना की और होता आदि के स्थान पर अपने आपको ही प्रतिष्ठित किया। तत्पश्चात् उन महातपस्वी त्रित ने उस फैली हुई लता में सोम की भावना करके मन ही मन ऋग, यजु और साम का चिन्तन किया। नरेश्वर! इसके बाद कंकड़ या बालू-कणों में सिल और लोढ़े की भावना करके उस पर पीस कर लता से सोमरस निकाला। फिर जल में घी का संकल्प करके उन्होंने देवताओं के भाग नियत किये और सोमरस तैयार करके उसकी आहुति देते हुए वेद-मन्त्रों की गम्भीर ध्वनि की। राजन! ब्रह्म वादियों ने जैसा बताया है, उसके अनुसार ही उस यज्ञ का सम्पादन करके की हुई त्रित की वह वेदध्वनि स्वर्ग लोक तक गूँज उठी। महात्मा त्रित का वह महान यज्ञ जब चालू हुआ, उस समय सारा स्वर्ग लोक उद्विग्न हो उठा, परन्तु किसी को उसका कोई कारण नहीं जान पड़ा। तब देव गुरु बृहस्पति ने वेद मन्त्रों के उस तुमुलनाद को सुनकर देवताओं से कहा, "देवगण! त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा है, वहाँ हम लोगों को चलना चाहिये"।
वे महान तपस्वी हैं। यदि हम नहीं चलेंगे तो वे कुपित होकर दूसरे देवताओं की सृष्टि कर लेंगे। बृहस्पति जी का यह वचन सुनकर सब देवता एक साथ हो उस स्थान पर गये, जहाँ त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा था। वहाँ पहुँच कर देवताओं ने उस कूप को देखा, जिसमें त्रित मौजूद थे। साथ ही उन्होंने यज्ञ में दीक्षित हुए महात्मा त्रित मुनि का भी दर्शन किया। वे बड़े तेजस्वी दिखायी दे रहे थे। उन महाभाग मुनि का दर्शन करके देवताओं ने उनसे कहा, "हम लोग यज्ञ में अपना भाग लेने के लिये आये हैं"। उस समय महर्षि ने उनसे कहा, "देवताओं! देखो, में किस दशा में पड़ा हूँ। इस भयानक कूप में गिरकर अपनी सुधबुध खो बैठा हूँ"। महाराज! तदनन्तर त्रित ने देवताओं को विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए उनके भाग समर्पित किये। इससे वे उस समय बड़े प्रसन्न हुए। विधि पूर्वक प्राप्त हुए उन भागों को ग्रहण करके प्रसन्न चित्त हुए देवताओं ने उन्हें मनोवान्छित वर प्रदान किया। मुनि ने देवताओं से वर माँगते हुए कहा, "मुझे इस कूप से आप लोग बचावें तथा जो मनुष्य इसमें आचमन करे, उसे यज्ञ में सोमपान करने वालों की गति प्राप्त हो"। राजन! मुनि के इतना कहते ही कुँए में तरंगमालाओं से सुशोभित सरस्वती लहरा उठी। उसने अपने जल के वेग से मुनि को ऊपर उठा दिया और वे बाहर निकल आये। फिर उन्होंने देवताओं का पूजन किया।[महाभारत शल्य पर्व 36.20-55]
त्रिधातु :: सोना, चाँदी और लोहा अथवा सोना, चाँदी तथा ताँबे का मिश्रण।
त्रिष्टुप् :: त्रिष्टुप् वेदों में प्रयुक्त छंद है, जिसमें 44 कुल वर्ण होते हैं, जो 11-11-11-11 वर्णों के चार पदों में व्यवस्थित होते हैं, यथा :- 
अबोधि होता यजथाय देवानुर्ध्वो अग्निः सुमनाः प्रातरस्थात्।
समिद्धस्य रुशददर्शि पाजो महान् देवस्तमंसो निरमोचि॥[ऋग्वेद 5.1.2]
एक पदा त्रिष्टुप (11 वर्ण), द्विपदा (11 + 11), पुरस्ताज्योतिः, विराट् पूर्वा, विराट रूपा इत्यादि, इसके अन्य भेद हैं। 
त्रायुष्करण :: माणवक उपनयनाग्नि में घी युक्त समिधा प्रदान करता है और हाथों के द्वारा अग्नि को तापकर अपने देह के विभिन्न अंगों में अग्नि का आप्यायन करता है। स्रुवमूल से वेदी से भस्म ग्रहणकर अनामिका अँगुली के द्वारा ललाट, ग्रीवा, दक्षिण स्कन्ध तथा हृदय स्थल पर मंत्र पूर्वक भस्म-त्र्यायुष् धारण करता है। यह कर्म त्रायुष्करण कहलाता है। इससे आयु की वृद्धि होती है। इसका क्रम इस प्रकार है :- 
"ॐ त्र्यायुषम् जमदग्नेः, इति ललाटे", "ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्, इति ग्रीवायाम्", "ॐ यद्देवेषु  त्र्यायुषम्, इति दक्षिणांसे", ॐ तन्नो अस्तु  त्र्यायुषम्, इति हृदि"।  
त्रयोदशी-प्रदोष व्रत :: किसी पक्ष तेरहवीं तिथि। यह तिथि धार्मिक कार्य करने के लिये बहुत उपयुक्त है। पंचांग की तेरहवीं तिथि को त्रयोदशी कहते हैं। यह तिथि मास में दो बार आती है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली त्रयोदशी को कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी और अमावस्या के बाद आने वाली त्रयोदशी को शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी कहते हैं। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है। इस दिन किया गया त्रिदोष व्रत कहलाता है।
त्रासी :– जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।
त्रिगुण :: प्रत्येक प्राणी या जीव अपने अन्दर पाए जाने वाले तीन गुणों (सत्, रज़, तम-आसुरी प्रवृत्ति) के कारण ही जन्म-मृत्यु के बन्धन में जकड़ा रहता और लगातार साँप-सीढ़ी के खेल की तरह 84,00,000 योनियों में भटकता रहता है। ये त्रिगुण प्रकृति के अंतर्गत मानी जाने वाली तीन प्रकार की वृत्तियाँ सत्व, रज और तम या भाव हैं जो कि मनुष्यों, जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों आदि में पायी जाती हैं। Efficacy, Essence, Quality, Strength, Worth, Qualities, Properties.  

 
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