Friday, June 24, 2016

CONCH :: CURING EFFECTS शंख ध्वनि से विघ्ननाश

CONCH :: CURING EFFECTS 
शंख ध्वनि से विघ्ननाश
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
 

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
‘शंखकल्प संहिता’ और सभी आध्यात्मिक ग्रंथों, पौराणिक मतों के अनुसार देवताओं और दानवों ने अमृत की खोज के लिए मंदराचल पर्वत की मथानी से क्षीरसागर मंथन किया, उससे 14 प्रकार के रत्न प्राप्त हुए। आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ जिसमें तथा मुख्य दक्षिणावर्ती शंख, गोमुखी शंख और भी कई प्रकार के शंख प्राप्त हुए। प्रतिदिन घर में शंखनाद करने से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करती है। शंख ध्वनि से सूक्ष्म जीवाणुओं का नाश होता है। शंख में पंच तत्वों का संतुलन बराबर बनाए रखने की प्रचुर क्षमता होती है। शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है, जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। इसको अन्य नामों से भी पुकारा जाता है यथा :: शंख, समुद्रज, कंबु, सुनाद, पावनध्वनि, कंबु, कंबोज, अब्ज, त्रिरेख, जलज, अर्णोभव, महानाद, मुखर, दीर्घनाद, बहुनाद, हरिप्रिय, सुरचर, जलोद्भव, विष्णुप्रिय, धवल, स्त्रीविभूषण, पांचजन्य, अर्णवभव आदि। शंख ध्वनि घर में सुलह शान्ति प्रदायक है। 
शंखस्तुविमल: श्रेष्ठश्चन्द्रकांतिसमप्रभ: अशुद्धोगुणदोषैवशुद्धस्तु सुगुणप्रद:। 
निर्मल व चन्द्रमा की कांति के समानवाला शंख श्रेष्ठ होता है जबकि अशुद्ध अर्थात् मग्न शंख गुणदायक नहीं होता। गुणोंवाला शंख ही प्रयोग में लाना चाहिए। क्षीरसागर में शयन करने वाले सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु के एक हाथ में शंख अत्यधिक पावन माना जाता है। इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में विशेष रूप से किया जाता है।
नादब्रह्म :: शंख को नादब्रह्म और दिव्य मंत्र की संज्ञा दी गई है। शंख की ध्वनि को ॐ की ध्वनि के समकक्ष माना गया है। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का नाश हो जाता है। जहाँ शंख ध्वनि होती है वहाँ देवी-देवताओं का वास होता है और व्याधियों से मुक्ति प्राप्त होती है। भूत-प्रेत और राक्षस भाग जाते हैं। यह वास्तुदोष दूर करने के साथ-साथ आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह आदि की रुकावट भी दूर दूर करता है। 
भगवान् शिव को छोड़कर सभी देवताओं पर शंख से जल अर्पित किया जा सकता है। भगवान् शिव ने शंखचूड़ नामक दैत्य का वध किया था, अत: शंख का जल भगवान् शिव को निषेध है। योग में शंख प्रक्षालन और शंख मुद्रा होती हैं। आयुर्वेद में शंख पुष्पी और शंख भस्म का प्रयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में शंख लिपि भी हुआ करती थी। 
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृत: करे। 
नमित: सर्वदेवैश्य पाञ्चजन्य नमो स्तुते॥ 
शंख का प्रयोग प्राय: पूजा-पाठ में किया जाता है। अत: पूजारंभ में शंखमुद्रा से शंख की प्रार्थना की जाती है। शंख को हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण और पवित्र माना गया माना गया है। 
शंख का रासायनिक संयोग :: अर्कट, मेवाड़ी, सुपंखी, प्रवाश्म, लौह, शिलामंडूर, एवं चिपिलिका है। इसमें वामावर्ती पूजा, यज्ञ आदि में, दक्षिणावर्ती अन्तः औषधि के रूप में, हेममुख बाह्य औषधि के रूप में, पुन्जिका विशानुघ्ना एवं नारायण दर्शन के लिये। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है।
3 प्रकार के मुख्य शंख :: दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख अथवा वामावर्ती, दक्षिणावर्ती तथा गणेश शंख। 
अन्य प्रकार :: हेममुख, पुन्जिका, नारायण, लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख, गोमुखी शंख, पांचजन्य शंख, अन्नपूर्णा शंख, मोती शंख, हीरा शंख, शेर शंख आदि प्रकार के होते हैं। 
वामवर्ती शंख :: इसका पेट बाईं ओर खुला होता है। इसके बजाने के लिए एक छिद्र होता है। इसकी ध्वनि से रोगोत्पादक कीटाणु कमजोर पड़ जाते हैं। वामावर्ती अपने आयतन के अनुपात में बीस गुणा कम भार का होता है। 
प्रथम प्रहर में पूजन करने से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। द्वितीय प्रहर में पूजन करने से धन-सम्पत्ति में वृद्धि होती है। तृतीय प्रहर में पूजन करने से यश व कीर्ति में वृद्धि होती है। चतुर्थ प्रहर में पूजन करने से संतान प्राप्ति होती है। प्रतिदिन पूजन के बाद 108 बार या श्रद्धा के अनुसार मंत्र का जप करें।
भगवान् श्री कृष्ण के शंख का नाम पाञ्चजन्य था जिसको उन्होंने पांचजन्य नामक समुद्र में स्थित राक्षस को मर कर प्राप्त किया था। उस राक्षस ने उनके गुरु संदीपन के पुत्र का वध किया था। भगवान् ने उनके मरे हुए पुत्र को धर्मराज से पुनः प्राप्त करके वापस किया था। 
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:। 
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:॥
अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग-अलग थी। कई देवी देवतागण शंख को अस्त्र रूप में धारण किए हुए हैं। महाभारत में युद्धारंभ की घोषणा और उत्साहवर्धन हेतु शंख नाद किया गया था।[महाभारत]
महाभारत युद्ध में शंख का भी अत्यधिक महत्त्व था। शंखनाद के साथ युद्ध प्रारम्भ होता था। जिस प्रकार प्रत्येक रथी सेनानायक का अपना ध्वज होता था, उसी प्रकार प्रमुख योद्धाओं के पास अलग-अलग शंख भी होते थे। भीष्मपर्वांतर्गत गीता उपपर्व के प्रारम्भ में विविध योद्धाओं के नाम दिए गए हैं। भगवान् श्री कृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था, अर्जुन का देवदत्त, युधिष्ठिर का अनंतविजय, भीम का पौण्ड, नकुल का सुघोष और सहदेव का मणिपुष्पक।
भगवान् श्री कृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था। 
शंखेन हत्वा रक्षांसि। 
शंख से राक्षसों का नाश होता है।[अथर्ववेद]
भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है।
युद्ध में शत्रुओं का हृदय दहलाने के लिए शंख फूंकने वाला व्यक्ति अपिक्षित है।[यजुर्वेद]
शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। [ब्रह्मवैवर्त पुराण]
धन प्राप्ति में सहायक शंख :: शंख समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह अनमोल रत्नों में से एक है। लक्ष्मी के साथ उत्पन्न होने के कारण इसे लक्ष्मी भ्राता भी कहा जाता है। यही कारण है कि जिस घर में शंख होता है, वहाँ लक्ष्मी का वास होता है।
शंख पूजन का लाभ :: शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। तीर्थाटन से जो लाभ मिलता है, वही लाभ शंख के दर्शन और पूजन से मिलता है। 
शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि होती है। प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते।
शंख बजाने से चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है। शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है। शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है। गोरक्षा संहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्य संहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख को आयुर्वद्धक और समृद्धि दायक कहा गया है।
पेट में दर्द रहता हो, आंतों में सूजन हो अल्सर या घाव हो तो दक्षिणावर्ती शंख में रात में जल भरकर रख दिया जाए और सुबह उठकर खाली पेट उस जल को पिया जाए तो पेट के रोग जल्दी समाप्त हो जाते हैं। नेत्र रोगों में भी यह लाभदायक है। कालसर्प योग में भी यह रामबाण का काम करता है।
शंख से वास्तु दोष का निदान :: शंख से वास्तु दोष भी मिटाया जा सकता है। शंख को किसी भी दिन लाकर पूजा स्थान पर पवित्र करके रख लें और प्रतिदिन शुभ मुहूर्त में इसकी धूप-दीप से पूजा की जाए तो घर में वास्तु दोष का प्रभाव कम हो जाता है। शंख में गाय का दूध रखकर इसका छिड़काव घर में किया जाए तो इससे भी सकारात्मक उर्जा का संचार होता है।
विश्व का सबसे बड़ा शंख केरल राज्य के गुरुवयूर के श्रीकृष्ण मंदिर में सुशोभित है, जिसकी लंबाई लगभग आधा मीटर है तथा वजन दो किलोग्राम है।
गणेश शंख :: इस शंख की आकृति भगवान श्रीगणेश की तरह ही होती है। यह शंख दरिद्रता नाशक और धन प्राप्ति का कारक है।
अन्नपूर्णा शंख :: इसका उपयोग घर में सुख-शान्ति और श्री समृद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी है। गृहस्थ जीवन यापन करने वालों को प्रतिदिन इसके दर्शन करने चाहिए। 
कामधेनु शंख :: इसका उपयोग तर्क शक्ति को और प्रबल करने के लिए किया जाता है। इस शंख की पूजा-अर्चना करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
मोती शंख :: इस शंख का उपयोग घर में सुख और शांति के लिए किया जाता है। मोती शंख हृदय रोग नाशक भी है। मोती शंख की स्थापना पूजा घर में सफेद कपड़े पर करें और प्रतिदिन पूजन करें, लाभ मिलेगा। यदि मोती शंख को कारखाने में स्था‍पित किया जाए तो कारखाने में तेजी से आर्थिक उन्नति होती है। यदि व्यापार में घाटा हो रहा है, दुकान से आय नहीं हो रही हो तो एक मोती शंख दुकान के गल्ले में रखा जाए तो इससे व्यापार में वृद्धि होती है। यदि मोती शंख को मंत्र सिद्ध व प्राण-प्रतिष्ठा पूजा कर स्थापित किया जाए तो उसमें जल भरकर लक्ष्मी के चित्र के साथ रखा जाए तो लक्ष्मी प्रसन्न होती है और आर्थिक उन्नति होती है। मोती शंख को घर में स्थापित कर रोज "ॐ श्री महालक्ष्मै नम:" 11 बार बोलकर 1-1 चावल का दाना शंख में भरते रहें। इस प्रकार 11 दिन तक प्रयोग करें। यह प्रयोग करने से आर्थिक तंगी समाप्त हो जाती है।
ऐरावत शंख :: इसका उपयोग मनचाही साधना सिद्ध को पूर्ण करने के लिए, शरीर की सही बनावट देने तथा रूप रंग को और निखारने के लिए किया जाता है। प्रतिदिन इस शंख में जल डाल कर उसे ग्रहण करना चाहिए। शंख में जल प्रतिदिन 24-28 घण्टे तक रहे और फिर उस जल को ग्रहण करें, तो चेहरा कांतिमय होने लगता है।
विष्णु शंख :: इस शंख का उपयोग लगातार प्रगति के लिए और असाध्य रोगों में शिथिलता के लिए किया जाता है। इसे घर में रखने भर से घर रोगमुक्त हो जाता है।
पौण्ड्र शंख :: इसका उपयोग मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग विद्यार्थियों के लिए उत्तम है। इसे विद्यार्थियों को अध्ययन कक्ष में पूर्व की ओर रखना चाहिए।
मणि पुष्पक शंख :: इसकी पूजा-अर्चना से यश कीर्ति, मान-सम्मान प्राप्त होता है। उच्च पद की प्राप्ति के लिए भी इसका पूजन उत्तम है।
देवदत्त शंख :: इसका उपयोग दुर्भाग्य नाशक माना गया है। इस शंख का उपयोग न्याय क्षेत्र में विजय दिलवाता है। इस शंख को शक्ति का प्रतीक माना गया है। न्यायिक क्षेत्र से जुड़े लोग इसकी पूजा कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
दक्षिणावर्ती शंख :: दक्षिणावर्ती शंख के पूजन से खुशहाली आती है और लक्ष्मी प्राप्ति के साथ-साथ सम्पत्ति भी बढ़ती है। इस शंख की उपस्थिति ही कई रोगों का नाश कर देती है। दक्षिणावर्ती शंख पेट के रोग में भी बहुत लाभदायक है। विशेष कार्य में जाने से पहले दक्षिणावर्ती शंख के दर्शन करने भर से उस काम के सफल होने की संभावना बढ़ जाती है।
द्विधासदक्षिणावर्तिर्वामावत्तिर्स्तुभेदत: दक्षिणावर्तशंकरवस्तु पुण्ययोगादवाप्यते यद्गृहे तिष्ठति सोवै लक्ष्म्याभाजनं भवेत्। 
दक्षिणावर्ती शंख पुण्य के ही योग से प्राप्त होता है। यह शंख जिस घर में रहता है, वहां लक्ष्मी की वृद्धि होती है। इसका प्रयोग अर्घ्य आदि देने के लिए विशेषत: होता है। ये दो प्रकार के होते हैं नर और मादा। जिसकी परत मोटी हो और भारी हो वह नर और जिसकी परत पतली हो और हल्का हो, वह मादा शंख होता है। इसकी स्थापना यज्ञोपवीत पर करनी चाहिए। शंख का पूजन केसर युक्त चंदन से करें। प्रतिदिन नित्य क्रिया से निवृत्त होकर शंख की धूप-दीप, नैवेद्य-पुष्प से पूजा करें और तुलसी दल चढ़ाएं।
इस शंख को दक्षिणावर्ती इसलिए कहा जाता है, क्योंकि जहाँ सभी शंखों का पेट बाईं ओर खुलता है वहीं इसका पेट विपरीत दाईं और खुलता है। इस शंख को देव स्वरूप माना गया है। दक्षिणावर्ती शंख के पूजन से खुशहाली आती है और लक्ष्मी प्राप्ति के साथ-साथ सम्पत्ति भी बढ़ती है। इस शंख की उपस्थिति ही कई रोगों का नाश कर देती है। दक्षिणावर्ती शंख पेट के रोग में भी बहुत लाभदायक है। यदि पेट मे दर्द रहता हो, आंतों में सूजन हो अल्सर या घाव हो तो दक्षिणावर्ती शंख में रात में जल भरकर रख दिया जाए और सुबह उठकर खाली पेट उस जल को पिया जाए तो पेट के रोग जल्दी समाप्त हो जाते हैं। विशेष कार्य में जाने से पहले दक्षिणावर्ती शंख के दर्शन करने भर से उस काम के सफल होने की संभावना बढ़ जाती है। शंख ध्वनि से सूक्ष्म जीवाणुओं का नाश होता है। इसके मध्य में वरूण, पृष्ठ में ब्रह्मा व अग्रभाग में गंगा का निवास है। इसके पूजन से मंगल ही मंगल और लक्ष्मी प्राप्ति के साथ-साथ सम्पत्ति भी बढ़ती है। जहाँ शंखनाद और शंख पूजन होता है वहाँ माँ लक्ष्मी स्थायी-वास करती हैं। यही नहीं, कालसर्प योग में भी यह रामबाण का काम करता है। दक्षिणावर्ती शंख से शिवजी का अभिषेक करने से अतिशीघ्र लाभ प्राप्त होता है। विशेष कार्य में जाने से पूर्व दक्षिणावर्ती शंख के दर्शन करने से वह कार्य सिद्ध होता है।
प्रथम प्रहर में पूजन करने से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। द्वितीय प्रहर में पूजन करने से धन सम्पत्ति में वृद्धि होती हैं। तृतीय प्रहर में पूजन करने से यश व कीर्ति में वृद्धि होती है। चतुर्थ प्रहर में पूजन करने से सन्तान प्राप्ति होती है।
जिस घर में इस शंख का पूजन होता है, वहाँ माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है। इस शंख की उत्पत्ति भी माता लक्ष्मी की तरह समुद्र मंथन से हुई है। दूसरा कारण यह है कि यह शंख श्री हरि विष्णु को अति प्रिय है, इस शंख को विधि-विधान से घर में प्रतिष्ठित किया जाए तो घर के वास्तुदोष भी समाप्त होते हैं।
हेम मुख एवं नारायण शंख में मुँह कटा नहीं होता। हेम मुख का काठिन्य या रासायनिक घनत्व इसके परिमाण क़ी तुलना में 1:2 का अनुपात रखता है। नारायण शंख भी दक्षिणावर्ती ही होता है। किन्तु इसमें पांच या इससे अधिक वक्र चाप होते हैं। पांच से कम चाप वाले को दक्षिणावर्ती शंख कहते है। इनमें से प्रत्येक शंख बिल्कुल स्वच्छ एवं शुभ्र वर्ण का होता। नारायण एवं दक्षिणावर्ती शंख बिल्कुल चिकने, बिना किसी चिन्ह एवं आयतन के अनुपात में भार साथ गुणा होता है। 
शंख के घटक तत्व अपने निर्माण में वृद्धि या ह्रास के चलते ज्यादा या अल्प प्रभाव वाले होते है। जैसे पुन्जिका शंख में प्रवाश्म (क्लोरोमेंथाज़िन) साठ प्रतिशत होता है। 
इसे घर में रखने से खाने पीने क़ी चीजो में सडन नहीं होती है। किन्तु माँस मछली या इस तरह के भोज्य पदार्थ से निकलने वाली सिलिफोनिक टेट्रा मेंडाक्लीन या ट्राईमेंथिलिकेट हाइड्राक्सायिड का रासायनिक समायोजन एसिटिक डिक्लोफेनिक एसिड, कार्बोमेंट्राजिन होजोल, पैराफ्लेक्सी मेट्रोब्रोमायिड, टरमेरिक एसिड, टार्टारिक एसिड आदि के संयोग से पुन्जिका शंख का क्लोरोमेंथाजिन फ्रोक्सोज़ोनिक गुआनायिड या फफूंद में बदल जाता है और समस्त भोज्य पदार्थ दूषित हो जाता है। चूंकि यह प्रक्रिया बहुत धीमी गति से होती है, अतः इसका अनुमान या आभास नहीं हो पाता। इसके अलावा घर में सूक्ष्म विषाणु प्रवेश नहीं पाते। मोटे शब्दों में फंगस या संक्रामक बीमारियों का खतरा समाप्त हो जाता है। 
इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को घर में इस शंख को रखना चाहिए। किन्तु किसी भी शंख को यदि घर में रखना हो तों उसे नित्य प्रति धोना पडेगा तथा उसमें पानी भर कर रखना पडेगा। 
उत्तरा के गर्भ में परीक्षित क़ी रक्षा करने के लिये भगवान् वासुदेव गर्भ में घुस कर अश्वत्थामा के तार्क्ष्य अस्त्र के प्रभाव से बचाने के लिये पुन्जिका शंख को उत्तरा के सिरहाने रख कर उसकी रक्षा करते रहे।[वायु पुराण] 
जो विषाणु उस अस्त्र से उत्पन्न हो गये थे, उन्हें भगवान अपने चक्र एवं गदा से समाप्त करते रहे और पुन्जिका शंख के प्रभाव से नए विषाणुओं का उत्पन्न होना रुक गया था। कुंडली में नीलार्धिका या ऐसे ही दुर्योग के होने पर इस शंख का सहयोग विधान है। 
हेम मुख शंख में फेनासिलिक लिनियोडायिड अपने अन्य अवयओं के साथ उपस्थित होता है। इसे आयुर्वेद में प्राक्दोलिक क्षार कहते हैं।यह एक बहुत ही सघन प्रभाव वाला विष एवं अनूर्जता अवरोधी पदार्थ होता है। 
वात वाहिनियो पर इसका बहुत ही अच्छा प्रभाव होता है. शिरो रोग में भी यह बहुत विकट प्रभाव दिखाता है। कुंडली में परान्जलिका, सायुज्य उल्का, भ्रान्दुप, अन्कालिक आदि दुर्योग या गुरु-शनि कृत दोष के भय के शमन हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। 
इसे स्वच्छ पत्थर पर घिस कर सिर पर नियमित रूप से लगाने पर अर्ध कपारी जैसा दुर्गम रोग भी शांत हो जाता है। 
शुक्राचार्य अपने शिष्यों क़ी दुर्वृत्ती से सदा दुखी रहा करते थे। राक्षस माँस-मदिरा का बहुतायत में सेवन करते थे। इनके दुष्प्रभाव को रोक कर उन्हें स्वस्थ रखने के लिये शुक्राचार्य इस शंख के लेप का प्रयोग करते थे। 
दक्षिणावर्ती शंख कैल्सीफ्लेमाक्सीडीन ग्लिमोक्सिलेट का मिश्रण होता है। शरीर के चार आतंरिक अँग इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं। 
आलिन्द-हृदय का एक भाग, प्लीहा, पित्ताशय एवं तिल्ली (Spleen)। किन्तु इसको घर में रखने से पहले बहुत एहतियात रखना पड़ता है। यह एक उच्च उत्प्रेरक होता है। 
यदि कुंडली में किसी भी तरह सूर्य एवं राहू अच्छी स्थिति में हो तों इसे घर में न रखें। अन्य स्थिति में यह सुख शान्ति दायक, मनोवृत्ती को सदा सुव्यवस्थित रखते हुए तंत्रिका तंत्र को सदिश एवं सक्रिय रखता है। 
नारायण शंख में डेकट्राफ्लेविडीन सेंथासीनामायिड जैसा यौगिक उपस्थित होते हैं। 
यह एक उच्च स्तरीय परिपोषक है। इसमें इतनी क्षमता है कि आनुवांशिक अवयवो तक को इच्छानुसार बदल सकता है। जो विज्ञान के लिये अभी अब तक एक पहेली बना हुआ है। 
कुंडली में घोर विषकन्या, स्थूल मांगलिक, विषघात, एवं देवदोष जो राहू, शनि, मंगल तथा सूर्यकृत दुष्प्रभाव के कारण उत्पन्न होते है, सब दूर हो जाते हैं। 
ताम्र पट्टिका पर गोमुखी विधि से बने श्रीयंत्र के ऊपर नारायण शंख एवं पारद शिवलिंग घर में रखने से कितना क्या मिल सकता है, इसका सीमा निर्धारण कही भी नहीं प्राप्त होता है। अर्थात यह योग एक अक्षुण एवं अमोघ फल देने वाला योग माना गया है। 
शंख का धार्मिक एवम वैज्ञानिक महत्व :: अर्थवेद के अनुसार शंखेन हत्वा रक्षांसि अर्थात शंक से सभी राक्षसों का नाश होता है और यजुर्वेद के अनुसार युद्ध में शत्रुओं का ह्दय दहलाने के लिए शंख फूंकने वाला व्यक्ति अपिक्षित है। यजुर्वेद में ही यह भी कहा गया है कि यस्तु शंखध्वनिं कुर्यात्पूजाकाले विशेषतः, वियुक्तः सर्वपापेन विष्णुनां सह मोदते अर्थात पूजा के समय जो व्यक्ति शंख-ध्वनि करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवान विष्णु के साथ आनंद करता है।
प्रतिदिन शंख फूकने वाले को सांस से संबंधित बीमारियां जैसे-दमा आदि एवं फेफड़ों के रोग नहीं होते। इसके अलावा कई अन्य बीमारियों जैसे :- प्लीहा व यकृत से संबंधित रोगों तथा इन्फलूएंजा आदि में शंख-ध्वनि अत्यंत लाभ प्रद है।
शंख की ध्वनि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक स्तित अनेक वीमारियों के कीटाणुओं के ह्दय दहल जाते हैं व मूर्छित होकर नष्ट होने लगते हैं। महाभारत में युद्ध के आरंभ, युद्ध के एक दिन समाप्त होने आदि मौकों पर शंख-ध्वनि करने का जिक्र आया है। इसके साथ ही पूजा आरती, कथा, धार्मिक अनुष्टानों आदि के आरंभ व अंत में भी शँख-ध्वनि करने का विधान है। इसके पीछे धार्मिक आधार तो है ही, वैज्ञानिक रूप से भी इसकी प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं।
अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तता पर्यावरण शुद्ध रहता है।.
आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।
ऋषि श्रृंग की मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।
रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।
हृदय रोगी के लिए यह रामबाण औषधि है। दूध का आचमन कर कामधेनु शंख को कान के पास लगाने से "ॐ" की ध्वनि का अनुभव किया जा सकता है। यह सभी मनोरथों को पूर्ण करता है।
यस्तु शंखध्वनिं कुर्यात्पूजाकाले विशेषतः, 
वियुक्तः सर्वपापेन विष्णुनां सह मोदते।
पूजा के समय जो व्यक्ति शंख-ध्वनि करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवान विष्णु के साथ आनंद करता है।[यजुर्वेद]
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।
तानसेन ने अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्ति प्राप्त की थी। अथर्ववेद के चतुर्थ अध्याय में शंखमणि सूक्त में शंख की महत्ता वर्णित है।
"शंखेन हत्वा रक्षांसि" शंख से राक्षसों का नाश होता है।[अथर्ववेद]
भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है।
यजुर्वेद के अनुसार युद्ध में शत्रुओं का हृदय दहलाने के लिए शंख फूंकने वाला व्यक्ति अपिक्षित है। गोरक्षा संहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्य संहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख को आयुर्वद्धक और समृद्धि दायक कहा गया है।
श्रीदक्षिणामूर्ति अष्टोत्तर शतनामस्तोत्र :: 
अथ ध्यानम् :-
वटवृक्ष तटासीनं योगी ध्येयाङ्घ्रि पङ्कजम्। 
शरश्चन्द्र निभं पूज्यं जटामुकुट मण्डितम्॥1॥
गङ्गाधरं ललाटाक्षं व्याघ्र चर्माम्बरावृतम्। 
नागभूषं परम्ब्रह्म द्विजराजवतंसकम्॥2॥
अक्षमाला ज्ञानमुद्रा वीणा पुस्तक शोभितम्। 
शुकादि वृद्ध शिष्याढ्यं वेद वेदान्तगोचरम्॥3॥
युवानां मन्मथारातिं दक्षिणामूर्तिमाश्रये।
दक्षिणामूर्तिस्तोत्र-अथ दक्षिणामूर्ति अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रं ::
ॐ विद्यारूपी महायोगी शुद्ध ज्ञानी पिनाकधृत्। 
रत्नालङ्कृत सर्वाङ्गी रत्नमौळिर्जटाधरः॥1॥
गङ्गाधर्यचलावासी महाज्ञानी समाधिकृत्। 
अप्रमेयो योगनिधिर्तारको भक्तवत्सलः॥2॥
ब्रह्मरूपी जगद्व्यापी विष्णुमूर्तिः पुरातनः। 
उक्षवाहश्चर्मवासाः पीताम्बर विभूषणः॥3॥
मोक्षदायी मोक्ष निधिश्चान्धकारी जगत्पतिः। 
विद्याधारी शुक्ल तनुः विद्यादायी गणाधिपः॥4॥
प्रौढापस्मृति संहर्ता शशिमौळिर्महास्वनः। 
साम प्रियोऽव्ययः साधुः सर्व वेदैरलङ्कृतः॥5॥
हस्ते वह्निधरः श्रीमान् मृगधारी वशङ्करः। 
यज्ञनाथ क्रतुध्वंसी यज्ञभोक्ता यमान्तकः॥6॥
भक्तानुग्रह मूर्तिश्च भक्तसेव्यो वृषध्वजः। 
भस्मोध्दूलित सर्वाङ्गः चाक्षमालाधरोमहान् ॥7॥
त्रयीमूर्तिः परम्ब्रह्म नागराजैरलङ्कृतः। 
शान्तरूपो महाज्ञानी सर्व लोक विभूषणः॥8॥
अर्धनारीश्वरो देवोमुनिस्सेव्यस्सुरोत्तमः। 
व्याख्यानदेवो भगवान् रवि चन्द्राग्नि लोचनः॥9॥
जगद्गुरुर्महादेवो महानन्द परायणः। 
जटाधारी महायोगी ज्ञानमालैरलङ्कृतः॥10॥
व्योमगङ्गा जल स्थानः विशुद्धो यतिरूर्जितः। 
तत्त्वमूर्तिर्महायोगी महासारस्वतप्रदः॥11॥
व्योममूर्तिश्च भक्तानां इष्टकाम फलप्रदः। 
परमूर्तिः चित्स्वरूपी तेजोमूर्तिरनामयः॥12॥
वेदवेदाङ्ग तत्त्वज्ञः चतुःष्षष्टि कलानिधिः। 
भवरोग भयध्वंसी भक्तानामभयप्रदः॥13॥
नीलग्रीवो ललाटाक्षो गज चर्मागतिप्रदः। 
अरागी कामदश्चाथ तपस्वी विष्णुवल्लभः॥14॥
ब्रह्मचारी च सन्यासी गृहस्थाश्रम कारणः। 
दान्तः शमवतां श्रेष्ठो सत्यरूपो दयापरः॥15॥
योगपट्टाभिरामश्च वीणाधारी विचेतनः। 
मतिप्रज्ञा सुधाधारी मुद्रापुस्तक धारणः॥16॥
वेतालादि पिशाचौघ राक्षसौघ विनाशनः। 
राज यक्ष्मादि रोगाणां विनिहन्ता सुरेश्वरः॥17॥
इति श्री दक्षिणामूर्ति अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रं सम्पूर्णम्। 
हरि ॐ तत् सत्
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मौ प्रतापवान्‌॥
कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।[श्रीमद्भगवद्गीता 1.12] 
The eldest and most effective amongest the Kauravs-Bhishm Pitamah, blew the conch, giving pleasure, reassuring Duryodhan with loud sound like a roar of lion.
तस्य सञ्जनयन्हर्षं :: भीष्म पितामह ने जब शंख ध्वनि की तो दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष-खुशी का संचार हुआ। दुर्योधन एक निर्णायक युद्ध चाहता था, जिससे कि पांडवों का अस्तित्व मिट जाये और वह निष्कंटक हो जाये। शंख ध्वनि युद्ध आरम्भ करने की प्रक्रिया थी।
TASY SANJNYAN HARSHAM :: Blowing of conch gave pleasure to Duryodhan, who was eager to fight a decisive battle-war with the Pandavs, so that he could rule without any hurdles. Quarrelsome, wretched, notorious people find pleasure in fighting. Such people create opportunities, so that others can involve in infighting. 
कुरुवृद्धः :: यद्यपि आयु की दृष्टि से बाहिल्क बड़े थे, तथापि मुख्य सेनापति होने, धर्म, ज्ञान, ईश्वरीय भक्ति, माँ गँगा के पुत्र होने-दैवीय सम्बन्ध, परशुराम जी के शिष्य होने और अनेकानेक युद्धों में विजय हासिल करने के कारण उन्हें ही वयोवृद्ध माना गया। 
KURUVRDDHH :: Bhishm Pitamah is designated as eldest by virtue of position-seniority-capability, Chief of the army, religiosity, chastity-asceticism, enlightenment, being a Vasu-Demigod in previous life and being the son of Maa Ganga (the divine connection), disciple of Bhagwan Shri Parsu Ram, winner of many-many battles and capability to fight and satisfy his mentor-Guru Parshu Ram in the fight, though Bahilk (Shantnu's brother-Bhishm's uncle), was the eldest amongest the Kauravs.
प्रतापवान्‌ :: भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण विवाह नहीं किया, चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य के विवाह हेतु काशिराज की कन्याओं का हरण करते वक्त सभी क्षत्रियों को पराजित किया। उनको शस्त्र और शास्त्र पर समान अधिकार था, इच्छा मृत्यु का वरदान था, परशुराम जी के शिष्य थे, मृत्यु शय्या पर भगवान् श्री कृष्ण ने युधिष्टर से कहा कि यदि धर्म सम्बन्धी कोई शंका हो तो भीष्म पितामह से पूछ लो। इससे उनकी प्रतिभा और प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
PRATAPWAN :: Bhishm Pitamah did not marry due to the oath of serving and protecting the throne of Hastinapur so that his children were not able to claim the right over the throne. He abducted the three daughters of the king of Kashi for his step brothers, by defeating all the kings, who gathered there. He had full command over weaponry and scriptures. He was blessed by his father to leave the human body according to his own will-desire. He was the best disciple of Bhagwan Parshu Ram. Bhagwan Shri Krashn endorsed him, so that Yudhister could satisfy his quarries related to Dharm, duty, mode-art of living, dealings with citizens.
पितामहः :: दुर्योधन की चालाकी ताड़ने के बावजूद भीष्म पितामह ने वात्सल्य भाव के कारण दुर्योधन का मन रखने (खुश करने को शंख बजाया), जबकि द्रोण चुप रहे।
PITAMAH :: Though Bhishm could see through the trick-cunning  behaviour of Duryodhan, yet he blew the conch, just to satisfy, please-keep him happy. Both Dron and Bhishm were aware of his deceptive-notorious behaviour of Duryodhan. 
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मौ :: शंख की आवाज ऐसी थी जैसी कि सिंह की गर्जना हो; जिसे सुनकर बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं।                            
SINGHNADAM VINDYOCHCHAEH SHANKH DDHMOU :: The loud sound created by the conch was like the roar of the lion, enough to create terror in the big animals.
Traditionally Hindus never attacked any one unaware without warning, like the terrorists of today or the gorilla war fare, though they have thorough knowledge of it. They use it as and when compelled to do it and vanish the attackers at will closing all escape routes. Mayavi war fare was common with demons-giants. There are several instances when the normal humans were forced to use it and they did that. Ravan's son Megh Nad was an expert in this art. Ghatotkach too acquired the knowledge of it from his mother. Shankh Dhwani-blowing of conch was to ascertain whether the opposite army was ready for attack. It encouraged the soldiers as well, who in turn blew their conchs to show their readiness-preparedness.
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌॥
नगाड़ा 
इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ था।
[श्रीमद्भगवद्गीता 1.13]
Soon after the blowing of conch by Bhishm, Kaurav army too, started blowing conchs, drums, cymbals and gongs in unison leading to production of echo and loud noise.
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः :: इसके तुरंत बाद कौरव सेना में शंख, भेरी, पणव, आनक-पखावज, गौमुख-नरसिंघा, भीष्म पितामह के शंख बजाने पर बज उठे। भीष्म पितामह ने शंख केवल दुर्योधन को आश्वस्त करने के बजाया था, ना कि युद्ध की धोषणा के लिये। ये सभी बाजे राजाओं के महल और मन्दिरों में  शुभ कार्य दिन आरम्भ करने-होने पर बजाये जाते हैं।
Blowing of conch by Bhishm, followed by blowing of conchs, beating of drums, cymbals and gongs by Duryodhan's army.
सहसैवाभ्यहन्यन्त :: कौरव सेना में बहुत जोश था, क्योंकि वह निरन्तर युद्ध का अभ्यास और इंतजार कर रही थी। दुर्योधन ने पाण्डवों को वन में भेजकर युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी थी। वो स्वयं प्रतिदिन युद्ध का अभ्यास करता था। उसने 13 सालों में अनेक राजाओं और युद्ध की चाहत रखने वालों से सन्धियाँ की थीं। उसके मित्र और सलाहकार कर्ण, अश्त्थामा, शकुनि को युद्ध का बेसब्री से इन्तजार था। क्षत्रिय का स्वभाव उसे युद्ध में प्रवृत करता है। इसीलिये परशुराम जी को उन्हें 21 बार धरती से मिटाना पड़ा था। दूसरों पर शासन करना, दबाना, अत्याचार करना उनकी स्वभाविक प्रवृति है। क्षत्रिय को बचपन से ही सिखाया जाता है, घुट्टी में पिलाया जाता है कि युद्ध में मृत्यु, उसे स्वर्ग ले जायेगी (उसने स्वर्ग देखा ही नहीं है, जन्नत का सपना) युद्ध में पीठ दिखाना कायरता-जघन्य पाप है, आदि।
The Kaurav army was in great enthusiasm-preparedness, since Duryodhan had been preparing for the war relentlessly all these years, when Pandavs were in exile for 13 years. He entered into war treaties with like minded people (wretched, wicked, viceful having lust for war). The band was waiting for instructions to begin its job. The Kshatriy (Marshal-warrior castes) has a natural tendency-inclination to tease, rule, oppress others. Due to this reason Bhagwan Parshu Ram had to eliminate them 21 times from this earth.
They may suffer from ego problem accompanied by arrogance. 
From the early childhood infancy the Kshatriy is nurtured-nursed with the idea-misconception that his death in the battle field-war, will take him to heaven (which has not been seen by him, its only a dream). However, if one dies serving the society, protecting the innocents, he is sure to get Heaven after his death, if he dies during this operation.
Here the main point is that as per scriptures, only that person goes to heaven, after death, in a war-battle field, who has fought-sacrificed his life for a virtuous, righteous, pious cause, safety of his mother land, against the oppressor, traitor, wretched, sinner, terrorist, jihadi, brutal murderer. The Muslim traitors, terrorists, invaders are indiscriminately killing the innocents, while covering their face to avoid recognition. Take the case of Alexander, the British who invaded India, will certainly serve their term in hell. They all deserve hell and will stay there for millions of years.
At least one of the two parties fighting a war is at fault, like Kauravs. There are chances that both of them are over the wrong foot. Hence they deserve hell.
स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ :: विभिन्न विभागों-टुकड़ियों में सनन्न-तैयार खड़ी कौरव सेना के शंख-बाजे और मुँह से प्रसन्नता की आवाजों ने बेहद भयंकर शब्द किया और आबाजें गूँजने-प्रतिध्वनित होने लगीं। 
Various units-columns-divisions of the army, which were ready and waiting for the orders to fight; generated loud-furious sound-noises by using band-orchestra and mouth, depicting happiness which echoed and reverberated.
Various musical instruments were used to declare that the armies were ready for the war. The sound used to be loud and the soldiers were filled encouragement-courage. For some it was heart rendering, which discouraged them. Duryodhan was preparing for the war for 13 years, while the Pandavs were unprepared, still they had to accept the war, which was practically forced-thrust upon them.
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। 
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः॥
इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए भगवान् श्री कृष्ण  और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए।[श्रीमद्भगवद्गीता 1.14]
Soon there after (in response to this),  Arjun and Bhagwan Shri Krashn sitting over the great chariot (provided by Agni Dev, deity-demigod of fire) having white horses too,  blew their divine conchs. The sound of these conchs was sufficient to create uneasiness, fear in the enemy. 
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते :: चित्ररथ नाम के गन्दर्भ ने अर्जुन को 100 धोड़े दिए थे। युद्ध में चाहे कितने भी घोड़े मर जायें, इनकी सँख्या उतनी ही बनी रहती थी। ये पृथ्वी, स्वर्ग या कहीं भी जा सकते थे। उन्हीं में से 4 सुन्दर और प्रशिक्षित घोड़े उस दिव्य रथ में जुड़े थे, जिसकी ध्वजा में कपि चिन्ह अंकित था। उसकी रक्षा स्वयं हनुमान जी कर रहे थे।
Gandarvbh named Chir Rath gave 100 divine white horses to Arjun. The speciality about them was that, they would remain 100 in number even after the death of any number of horses. These horses were capable of going to any place in the universe, including the heavens. Out of these 100 horses, 4 beautiful and trained horses were yoked-deployed in the divine chariot driven by Bhagwan Shri Krashn. 
महति स्यन्दने स्थितौ :: यह रथ बहुत विशाल था। यह अग्नि देव द्वारा अर्जुन को दिया गया था, क्योंकि उन्होंने अग्नि देव का अजीर्ण दूर करने के लिये उन्हें विलक्षण जड़ी-बूटियों से भरपूर खाण्डव वन को जलाने में उनकी सहायता की थी; इन्द्रदेव द्वारा की गई बरसात को रोक कर। नौ गाड़ियों में लदे वजन के बराबर अस्त्र-शस्त्र इसमें आ जाते थे और इसकी पताका एक योजन (1 योजन = 4 कोस, 1 कोस = 2 1/2 मील, 1 मील = 1.6 किलोमीटर) तक लहराती रहती थी। न इसमें बोझ था, ना कहीं अटकती थी और न ही कहीं रूकती थी। इस ध्वजा पर हनुमान जी महाराज विराजमान थे। इसके पहिये बड़े मजबूत और विशाल थे। यह सोने से मढ़ा था। उस सुन्दर और तेजोमय रथ पर भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के विराजमान होने से उसकी  शोभा और बढ़ गई थी।
This chariot was very large gifted by Agni Dev for the help given to him by Arjun in engulfing-burning the Khandav Van jungle-forest, full of valuable herbs to cure indigestion, he had due to eating the offerings made by the devotees, made with ghee-clarified butter. It could store weapons equivalent to 9 carts. It was made of gold. Its wheels were very strong and large. The flag-mast over it, was more than 1 Yojan (1 Yojan = 4 Kos, 1 Kos = 2 1/2 mile, 1 mile = 1.6 km) or 10 miles in length (16 km). The flag was occupied by Hanuman Ji Maharaj. This flag had the speciality of being extremely light weight and did not struck any where in trees or any thing else.
The elegance-beauty of the chariot was enhanced by the presence of Bhagwan Shri Krashn and Arjun.
माधवः पाण्डवश्चैव :: मा माँ लक्ष्मी जी को कहते हैं और धव का अर्थ है पति; अर्थात लक्ष्मी पति नारायण। पाण्डव अर्जुन का सम्बोधन है,जो नर के अवतार थे। जहाँ नर-नारायण हैं, वहाँ श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेंगी।
Ma stands for Maan Laxmi-the goddess of all glory, money, riches, comforts and Dhav depicts husband i.e., Narayan-Bhagwan Shri Hari Vishnu. The presence of Nar & Narayan ensures riches, victory, glory and firm righteous policy.
दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः :: भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन ने अपने दिव्य, अलौकिक, तेजोमय शंखों को बड़े जोर से बजाया। यद्यपि सेनापति धृष्टद्युम्न थे तथापि सैन्य संचालन स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ही कर रहे थे। अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर भी युधिष्टर द्वारा प्रथम पूजन-अग्र पूजा उनका ही किया गया था, यद्यपि भीष्म पितामह उपस्थित थे और इसमें उनकी सम्मति थी। बाल्यावस्था से ही बड़े-बूढ़े, प्रबुद्ध जन उनकी बात का सम्मान करते थे। शिशुपाल, कंस, जरासंध, दुर्योधन, धृतराष्ट्र आदि नहीं। उनके कहने पर ही गोकुल वासियों ने देवराज इन्द्र की पूजा बंद कर दी थी। 
Bhagwan Shri Krashn and Arjun blew their divine, eternal, lustrous conchs on a high note, volume, sound. Though Dhrastdyumn was the commander in chief, yet in reality the army was acting over the, instructions, guidance, command of Bhagwan Shri Krashn. At the auspicious occasion of Ashwmedh Yagy, first celebrity of honour was Bhagwan Shri Krashn with the consent and advice of Bhishm Pitamah, though Bhishm was the eldest and honoured amongest Kaurav and Pandavs. Bhishm Pitamah was aware that The Almighty had landed over the earth to punish the guilty. From early childhood, elders, enlightened, honoured people respected his words. Shishu Pal, Kans, Jara Sandh, Duryodhan, Karn and Shakuni did not pay heed-attention to him and were doomed. People of Gokul stopped paying obscene-respect-honour to Dev Raj Indr on his advice.
Even if one happen to see the Almighty-God, he will not get the reward of this till he has devotion for him.
The conch of Bhagwan Shri Krashn resonated the three abodes and the demigods descended over the earth in Kurukshetr to witness the war. It generated fear in the army of Kauravs. Those who were aware of the identity of the Almighty bowed before Him at once and the imprudents waited for their death. The flag mast of the chariot of Arjun could be seen from a long distance. Even today the temple in Puri has a flag in the Jagan Nath temple which keep waving without casting shadow, a sign of divinity. Chariot driving was a great art which very few knew. The horses could pull at speeds much more than 100 kilometres per hours. Bhagwan Shri Krashn, Raja Nal and Madr Naresh, father of Pandu's wife Madri were expert in this field.
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। 
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः॥
भगवान् श्री कृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।[श्रीमद् भगवद्गीता 1.15]
इन तीन शंखों की मिली जुली आवाज कौरवों की सेना का दिल दहलाने वाली थी और पाण्डव सेना में ख़ुशी की लहर।
Bhagwan Shri Krashn master of all senses and aware of each and every activity in this universe blew his conch called Panchjany, Arjun blew his divine conch called Dev Dutt and Bhim the performer of unimaginable furious-dangerous deeds, blew his conch Pondr which was very large.
This loud and penetrating sound was sufficient to generate fear in Kaurav armies and happiness in the Pandav forces. 
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो :: हृषीकेश अंतर्यामी और सभी इन्द्रियों के स्वामी हैं। उन्होंने गुरु संदीपन के पुत्र की तलाश में समुद्र में बलराम जी साथ प्रवेश किया और समुद्र के कहने पर पञ्चजन नामक शंखरूपी राक्षस को मार कर उसको शंख रूप में गृहण किया था, इसलिए यह पाञ्चजन्य कहलाया।
Hrishikesh Bhagwan Shri Krashn, aware of each and every activity of the universe, controls all the sense organs of all creatures-organisms. He entered the ocean in search of the lost son of his Guru Sandipan, when Guru Mother asked him to bring him back from the ocean, who was assumed-considered to be eaten by the demon named conch due to his shape and size. Bhagwan killed the Rakshas-Demon and kept his shinning, glowing, lustrous shell with him. This shell was named Panchjany after the demon. 
Its impossible for the demigods-deities to bring back a person back to life, whose mortal remains are no more. This is possible for the God only.
देवदत्तं धनञ्जयः :: देवदत्त नामक शंख इन्द्र देव ने अर्जुन उस वक्त दिया था जब वे निवात-कवच आदि दैत्यों के साथ युद्ध कर रहे थे। इस शंख की आवाज सुनकर शत्रु सेना घबरा जाती थी। राजसूय यज्ञ करते समय जब धन की आवश्यकता हुई तो अर्जुन ने अनेक राजाओं को जीत कर धन इकट्ठा किया था। इसलिए धनञ्जय कहलाये।(संस्कृत भाषा में नाम संज्ञा होते हुए भी व्यक्ति विशेष की विशेषता बतलाता है। भगवान् के सभी नाम उनके द्वारा किये गए किसी विशिष्ट कार्य के द्योतक हैं।)
Devraj Indr awarded the conch named Dev Dutt to Arjun, while he was eliminating the demons, Rakshas, giants called Nivat Kavach. Its sound was furious tearing through the hearts of the opponents-enemies army. Arjun was nick named Dhananjay because of his ability to win-defeat many kings in wars and collecting a lot of money for donation and rituals-ceremonies, in the Rajsuy Yagy performed by Yudhister.  
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः :: पौण्ड्र नामक शंख बहुत विशाल था और भीम के नाम के अनुरूप था। भीम कर्मा उन्हें इसलिए कहा गया, क्योंकि उनके हाथों हिडिम्बासुर, जरासंध, बकासुर, जटासुर, कीचक जैसे असुर और बलवान व्यक्तियों को मारा गया। भीम को भूख बहुत लगती थी और वे शेष 4 पाण्डवों के भोजन के बराबर अकेले ही खाते थे, क्योंकि उनके उदर में जठराग्नि के अलावा वृक नामक अग्नि भी थी जो उनकी भोजन पचाने की क्षमता को बढ़ाती थी। 
The conch shell named Pondr was very large and produced ear deafening irritating sound and matched Bhim's name. He was called Bhim because he killed many mighty people like Jara Sandh and Keechak in addition to various furious demons like Hidimbasur, Bakasur, Jatasur etc. Bhim felt strong hunger for food because of the presence of an addition digestive fire (enzyme called Vrak) besides Jathragni. 
Blowing of conch by Bhagwan Shri Krashn indicated that ultimate devastation was about to begin and millions of people were sure to die in it. Burning of the dead bodies, regulating the flow of blood, clearing of the battle field at night, controlling the foul stench, keeping vultures away were mammoth tasks for which advance planning was essential on both sides. One can imagine the quantity of wood required for it and the quantum of heat generated by it!
Each and every conch had its own qualities and could be recognised through a distance. The conchs blown by Bhagwan Shri Krashn & the Pandavs generated spine-chilling trouble in the army of Kauravs.
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥
कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणि पुष्पक नामक शंख बजाए।[श्रीमद् भगवद्गीता 1.16] 
कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः :: पाण्डु की दो रानियां थीं। पहली कुन्ती-प्रथा और दूसरी माद्री। युधिष्टर कुंती के व नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।
राजा :: युद्ध से पहले युधिष्टर राजा थे और बनवास की समाप्ति के बाद भी वे पुनः राजा हो गये, भले ही राज्य उन्हें नहीं मिला। युद्ध के बाद तो राज्य उन्हें मिलना ही था। क्योंकि युधिष्टर राजा हैं और भगवान श्री कृष्ण के कृपा पात्र भी हैं अतः शेष तीनों भाइयों ने भी शंख बजाकर युद्ध की सम्मति-सहमति प्रकट कर दी। 
King Yudhishtar-the son of Kunti, blew his conch Anant Vijay, Nakul blew his conch Sughosh and Sahdev his conch Mani Pushpak.
KUNTIPUTRO YUDHISTARH :: King Pandu had two queens. Kunti was his first wife while Madri was his second wife. Madri was an expert in chariot driving and war fare and was more near-close to him. Yudhistar got birth from Kunti and Nakul and Sahdev took birth from Madri. By blowing their conchs they approved-their consent for the beginning of battle.
RAJA :: Sanjay addressed Yudhistar as Raja-king, since he was the king before going to exile and was supposed to be the king after the exile was over and Sanjay could see due to his ability to see through the future, granted by Mahrishi Ved Vyas that he would be the king after the battle, again.
The Pandavs were divine people born out of the demigods. Kunti & Dropadi, both were Chir Kumari i.e., the women who's virginity was intact. The Pandu dynasty was a constituent of Chandr Vansh which in turn was a branch of Ikshwaku dynasty in which Bhagwan Shri Ram took birth. It was an unbroken chain. One of the kings in Ikshwaku dynasty (Vansh, clan) is still meditating on the orders of the Almighty and the chain will be revived at a later date. Their conchs too had divine impact sufficient to render the hearts of the enemy with fear.
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। 
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥ 
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते। 
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌॥ 
श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु-इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए।[श्रीमद् भगवद्गीता 1.17-18] 
महारथी शिखण्डी :: पूर्व  जन्म में वह काशी राज की कन्या था और इस जन्म में वह द्रुपद की कन्या बन कर पैदा हुआ था। स्थूला कर्ण  नामक यक्ष ने उसे पुरुषत्व प्रदान किया। संसार उसे नपुंसक के रूप में जानता था और पितामह भीष्म उसे एक स्त्री ही समझते थे। इस तरह वो द्रोपदी और धृष्टद्युम्न की बहन हुआ। 
अभिमन्यु :: अभिमन्यु सुभद्रा का पुत्र था। वह एक महान सेना नायक और अपने पिता अर्जुन के समान महारथी-शूरवीर था। उसकी भुजाएं बहुत लम्बी थीं। उसे अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ने प्रदान की थी। वह चन्द्र के पुत्र का अवतार-अंश था। चक्रव्यूह का संसाधन उसने माँ के गर्भ में ही सीख लिया था, जबकि अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह का भेदन समझा रहे थे। उसे इस व्यूह से निकलना नहीं आता था, क्योंकि सुभद्रा विधि समझते-समझते सो गई थीं। उसकी हत्या कौरव सेना के 6 महारथियों ने षड्यंत्र करके की थी। दुःशासन के पुत्र ने नियम के विरुद्ध उसके सर पर गदा से प्रहार किया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।इसी के दण्ड स्वरूप जयद्रथ को अर्जुन ने मारा। 
संजय ने शंखनाद करने वालों में कौरव पक्ष से केवल पितामह भीष्म का ही नाम लिया, जबकि पाण्डव पक्ष के 18 वीरों के नाम लिये। यह दर्शाता है कि संजय स्वयं धर्म के पक्ष का आदर करता था। सूत-निम्न वर्ण में जन्म लेने के बावजूद संजय एक विद्वान और नीति कुशल व्यक्ति थे।
Kashi Raj-the king of Kashi with excellent bow, great charioteer Shikhandi, Dhrashtdyumn , Virat, Satyaki-one who never faced defeat, king Drupad, all the 5 sons of Draupadi and Abhimanyu-Subhadra's son, with long arms, blew their conchs separately from all directions.
MAHA RATHI-GREAT CHARIOTAR SHIKHANDI :: He was the daughter of Kashi Raj in his earlier birth abducted by Bhishm to marry her, to either of his half bothers. In the current birth, he again took birth as the daughter of King Drupad, as sister of Draupadi and Dhrashtdyumn. Later, he was converted into a male by a Yaksh called Sthul Karn. Every one recognised him as an impotent-Kinnar. Bhishm Pitamah considered him to be a female and advised Arjun to place him before him as a shield, to retire him from the battle field. 
ABHIMANYU :: He was the component-partial incarnation of the son deity-demigod Chandr-Moon, born with long arms. He learnt the art of penetrating into the cyclic formation of the army columns, while he was in the womb of his mother Subhdra. He could not learn the later part of relieving himself from the Vyuh, since Arjun stopped elaborating it further, as she fall asleep. He was trained in the use of weaponry by Bhagwan Krashn himself. He was killed by 6 stalwarts of the Kaurav's army through a conspiracy hatched by Jai Drath-who was killed by Arjun, the same day. Dushasan's son struck his head with the mac against rules of war.
Sanjay named just Bhishm Pitamah, when the conchs were blown, while he named 18 stalwarts from Pandav's army, reassuring Yudhister of the result-consequences of war. While Duryodhan had been preparing for the war for 13 years, Pandavs had no opportunity for practice and preparations. Sanjay too honoured Yudhister and his side because of righteousness attached to them. He was a learned man in spite of his birth in a low caste family.
It should be remembered that Emperor Yudhistar had one minister from a low origin-Shudr. A person with low origin could also ride to high posts through his labour and sincerity. It proves that the Britishers and Germans misinterpreted Manu Smrati. Karn himself was recognised as the son of a chariot driver but was elevated to the rank of army general and a king by Duryodhan.
The divinity descended over the earth to eliminate the rouge, sinful, deceit, viceful, wretched. Bhagwan Shri Krashn HIMSELF was Almighty. Pandavs were divine person. Kunti's sons Karn was from Bhagwan Sury Narayan, Yudhistar was incarnation of Dharm Raj, Bheem was the son of Pawan Dev and brother of Hanuman Ji Maha Raj while Arjun him self was Nar Rishi an incarnation of God. Nakul and Sahdev were born as components of Ashwani Kumars-divine physicians (doctors) and sons of Bhagwan Sury from Madri. Kunti her self was a Nag Kanya. Balram Ji him self was an incarnation of Bhagwan Shesh Nag and Lakshman Ji during Ramavtar 17,50,000 years ago. Pradyumn Ji was Kam Dev (a component of Bhagwan Brahma & Chandr Dev), Ashwatthama is a component of Bhagwan Shiv and Bhagwan Ved Vyas is a component of Bhagwan Vishnu himself. Bhishm Pitamah was a demigod Vasu, Maa Ganga appeared as a woman. Sapt Rishis came to Bhism Pitamah as swans at the occasion of his departure from earth. Abhimanyu was the son of Chandr Dev. Whenever the Almighty descend over the earth he has four forms (1). Krashn, (2). Bal Ram Ji, (3). Pradyumn Ji and (4). Aniruddh Ji, grand Son of Bhagwan Shri Krashn. During Ramavtar His four forms were  :- (1). Ram, (2), Bharat, (3), Lakshman Ji and (4). Shatrughan. Maa Devki and Maa Kaushlya were Almighty's mothers earlier as well. Rohini was Nag Mata in earlier birth. Vasudev Ji HIS father in current birth was his father as Kashyap Rishi earlier as well. Their conchs too were divine.
IT EMERGES OUT OF KONARK TEMPLE
 IN ODDISA EVERY 200 YEARS
पवित्र शंख के रहस्य :: क्या शंख हमारे सभी प्रकार के कष्ट दूर कर सकता है? भूत-प्रेत और राक्षस भगा सकता है? क्या शंख में ऐसी शक्ति है कि वह हमें धनवान बना सकता है? क्या शंख हमें शक्तिशाली व्यक्ति बना सकता है? पुराण कहते हैं कि सिर्फ एकमात्र शंख से यह संभव है। शंख की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन के दौरान हुई थी।
शिव को छोड़कर सभी देवताओं पर शंख से जल अर्पित किया जा सकता है। शिव ने शंखचूड़ नामक दैत्य का वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है।
शंख के नाम से कई बातें विख्यात है जैसे योग में शंख प्रक्षालन और शंख मुद्रा होती है, तो आयुर्वेद में शंख पुष्पी और शंख भस्म का प्रयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में शंक लिपि भी हुआ करती थी। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है।
शंख से वास्तुदोष ही दूर नहीं होता इससे आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह आदि की रुकावट भी दूर होती है। इसके अलावा शंख कई चमत्कारिक लाभ के लिए भी जाना जाता है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। 
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृत: करे।
नमित: सर्वदेवैश्य पाञ्चजन्य नमो स्तुते॥ 
वर्तमान समय में शंख का प्रयोग प्राय: पूजा-पाठ में किया जाता है। अत: पूजारंभ में शंखमुद्रा से शंख की प्रार्थना की जाती है। शंख को हिन्दु धर्म में महत्वपूर्ण और पवित्र माना गया माना गया है। शंख कई प्रकार के होते हैं। शंख के चमत्का‍रों और रहस्य के बारे में पुराणों में विस्तार से लिखा गया है। 
भगवान् विष्णु को शंख बहुत ही प्रिय है। शंख से जल अर्पित करने पर भगवान् विष्णु अति प्रसन्न हो जाते हैं लेकिन भगवान् शिव की पूजा में शंख का प्रयोग नहीं होता है। इन्हें शंख से न तो जल दिया जाता है और न शिव की पूजा में शंख बजाया जाता है।
राधा जी गोलोक से कहीं बाहर गयी थीं। उस समय भगवान् श्री कृष्ण अपनी विरजा नाम की सखी के साथ विहार कर रहे थे। संयोगवश राधा जी वहाँ आ गई। विरजा के साथ भगवान् श्री कृष्ण को देखकर राधा जी क्रोधित हो गईं और भगवान् कृष्ण एवं विरजा को भला बुरा कहने लगी। लज्जावश विरजा नदी बनकर बहने लगी।
भगवान् श्री कृष्ण के प्रति राधा जी के क्रोधपूर्ण शब्दों को सुनकर भगवान् श्री कृष्ण का मित्र सुदामा आवेश में आ गया। सुदामा ने भगवान् श्री कृष्ण का पक्ष लेते हुए राधा जी से आवेशपूर्ण शब्दों में बात करने लगा। सुदामा के इस व्यवहार को देखकर राधा जी नाराज हो गई। राधा जी ने सुदामा को दानव रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया। क्रोध में भरे हुए सुदामा ने भी हित-अहित का विचार किए बिना राधा को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। राधा जी के शाप से सुदामा शंखचूर नाम का दानव बना।[ब्रह्मवैवर्त पुराण]
शिवपुराण में भी दंभ के पुत्र शंखचूर का उल्लेख मिलता है। यह अपने बल के मद में तीनों लोकों का स्वामी बन बैठा। साधु-संतों को सताने लगा। इससे नाराज होकर भगवान् शिव ने शंखचूर का वध कर दिया। शंखचूर भगवान् श्री हरी विष्णु और देवी माता लक्ष्मी का भक्त था। भगवान् विष्णु ने इसकी हड्डियों से शंख का निर्माण किया। इसलिए भगवान् विष्णु एवं अन्य देवी देवताओं को शंख से जल अर्पित किया जाता है। क्योंकि भगवान् शिव ने शंखचूर का वध किया था, इसलिए शंख भगवान् शिव की पूजा में वर्जित माना गया है।
शंख जांगम द्रव्य है। इसकी उत्पति शंख नामक एक कठोर काय समुद्री जीव से होती है। वस्तुतः यह उसका ऊपरी कवच है। शंख समुद्री एक जीव का आवास है, जो पूरी उम्र उसके शरीर पर रहता है।  यह उसी प्रकर है जैसे कछुआ, घोंघा, सीपी, कौड़ी आदि के ऊपरी रक्ष कवच होता है। आकार भेद से शंख जौ-गेहूँ के दाने से लेकर तीन-चार सौ वर्ग ईंच तक के पाये जाते हैं। साथ ही गोलाकार, लम्बोतरा, चपटा आदि कई आकारों में दीख पड़ता है। वर्ण-भेद से यह चार प्रकार का होता है :- (1). पूरी तरह सफेद, (2). किञ्चित लालिमा युक्त, (3). पीताभ और (4). श्याम आभा वाला (विलकुल काला नहीं)।
ब्राह्मणों के लिए श्वेत वर्णी शंख को उत्तम माना जाता है; क्षत्रियों के लिए रक्त वर्ण, वैश्यों के लिए पीत एवं शूद्रों के लिए श्याम आभा वाला शंख उपयुक्त है।
शंख और माँ लक्ष्मी दोनों ही समुद्र से उत्पन्न हुए हैं अतः इन्हें भाई-बहन कहा गया है। शंख भगवान् श्री हरी विष्णु की पूजा में अनिवार्य है। इससे उनकी प्रिया माँ लक्ष्मी इससे अति प्रसन्न होती हैं। 
"वासामि पद्मोत्पल शंख मध्ये,वसामि चन्द्रे च महेश्वरे च....."
शंख की स्वतन्त्र रुप से पूजा भी की जाती है। भेदा-भेद वर्णन क्रम में शंख और भगवान् श्री हरी विष्णु अभेद है।
शिव-मन्दिर में शंख ध्वनि वर्जित है। देवी मन्दिर में घँटा वर्जित है। शंख शुभारम्भ और विजय का प्रतीक है। किसी भी उत्सव, पर्व, पूजा-पाठ, हवन, प्रयाण, आगमन, युद्धारम्भ, विवाह, राज्याभिषेक आदि अवसरों पर अनिवार्य रुप से शंखध्वनि की जाती है। शंख-घोष से वायु मण्डल की शुद्धि होती है। इससे नाँद से दैविक और भौतिक वाधाओं का शमन होता है। शंख ओज, तेज, साहस, पराक्रम, चैतन्यता, आशा, स्फूर्ति आदि की वृद्धि करता है।
शंख को अति पवित्र वस्तुओं की श्रेणी में रखा गया है, भले ही वो जांगम (जीव-जन्तुओं से प्राप्त) क्यों न हों। दूध, दही, घी, मक्खन, मधु, मृग-मद (कस्तूरी), गज-मद, गोरोचन, मृग चर्म, गोचर्म, व्याघ्र चर्म, हस्ति चर्म, हस्ति दंत, मोती, मूंगा, गजमुक्ता, मयूरपिच्छ आदि अनेक ऐसे पदार्थ हैं, जिन्हें शास्त्रों ने मर्यादित किया है यदि उन्हें स्वाभाविक रुप से, जीवों की हत्या करे बगैर प्राप्त किया जाये। 
किसी कारण से शंख यदि टूट-फूट गया हो तो उसे त्याग देना चाहिए।
शंख में दरार आ गयी हो तो वह ग्रहण-योग्य नहीं है।
बजाते समय असावधानी से यदि हाथ से छूट कर गिर जाय (खंडित ना भी हो, तो भी) उसे त्याग देना चाहिए।
रुपाकृति दूषित हो तो उसे ग्रहण न करें।
निप्रभ (आभाहीन) शंख ग्राह्य नहीं है।
कीड़ों से क्षतिग्रस्त शंख ग्राह्य नहीं है।
किसी प्रकार का दाग-धब्बा वाला शंख भी शुभ कार्यों में वर्जित है।
शंख के शिखर सुरक्षित हों, तभी ग्रहण करें। भग्न शिखर शंख त्याज्य है।
दो या तीन शंख एक घर में न रखे जायें। शेष सँख्या वर्जित नहीं है, यानी एक, चार,और उससे आगे की सँख्यायें ग्राह्य हैं। यह नियम किसी भी अन्यान्य देव-प्रतिमाओं :– शिव, गणेश, शालिग्राम आदि के लिए भी लागू होता है।
संरचना के विचार से शंख मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं :- (1). वामावर्त और (2). दक्षिणावर्त। 
शंख में जो आन्तरिक आवर्तन और मुख होता है, उसी के आधार पर यह विभाजन किया गया है।आम तौर पर प्राप्त शंख को सीधे नोक भाग को आगे कर हाथ में लेंगे तो पायेंगे कि उसका मुख आपकी बाईं ओर है।अन्दर के आवर्तन भी बाईं ओर ही होंगे। कुछ विशिष्ट प्रकार के शंख में ये दोनों बातें विलकुल विपरीत होती हैं; यानी दायीं ओर होती हैं। इन्हें ही दक्षिणावर्त शंख कहा जाता है। ये शंख की अति दुर्लभ प्रजाति है। रामेश्वरम् और कन्या कुमारी में यदा-कदा असली दक्षिणावर्त शंख सौभाग्य से प्राप्त हो जाता है। सामान्यतः यह श्वेत वर्ण का ही होता है, किन्तु गौर से देखने पर इन पर लाल-पीली या काली आभयुक्त धारियाँ नजर आयेंगी। शुद्ध श्वेत-दूधिया वर्ण, जिस पर अन्य आभायें न हों, सर्वोत्तम माना जाता है। वस्तुतः यह बहुत ही दुर्लभ है। 
एक अन्य प्रजाति हीरा शंख अति दुर्लभ है। यह हीरे जैसी इन्द्र धनुषी किरणें अर्थात आभा युक्त होता है।  यह भीतर से ठोस होता है, यानी न तो इसमें जल भर सकते हैं, और न बजा सकते हैं। मूल शंख जीव के मृत (नष्ट) हो जाने पर इसके उदर के रिक्त भाग में कुछ जीवाश्म आ बैठते हैं, जिसके कारण यह अपेक्षाकृत वजनी भी हो जाता है। देखने में ऐसा लगेगा मानों शंख के उदर में मिश्री का ढेला आ फँसा है। यह अवस्था प्राकृतिक रुप से लम्बे समय में बनती है।  
शंख का एक और प्रकार है, मोती-शंख। यह सर्वांग सप्त वर्णी आभा बिखेरते रहता है। इसकी आकृति भी सामान्य शंख से थोड़ी भिन्न होती है, मुँह की ओर अति संकीर्ण और पूँछ की ओर क्रमशः गोलाई में विस्तृत होकर लगभग छत्राकार और गोल होता है। मजबूत और भारयुक्त भी होता है। इसे बजाया भी जा सकता है। देखने में यह बड़ा मनोहर लगता है।
किसी भी दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति हेतु शुभ मुहूर्त की बात बेमानी है, वस्तु का प्राप्त हो जाना ही शुभ का  सूचक है। दक्षिणावर्त शंख भी उसी तरह है। प्राप्त हो गया, यही सौभाग्य है। हाँ, घर लाकर स्थापित-पूजित करने के लिए भद्रादि रहित रवि पुष्य योग का विचार अवश्य करेंगे, जैसा कि किसी भी वस्तु के तान्त्रिक प्रयोग के लिए किया जाता है। सम्भव हो तो चाँदी के पात्र में या फिर ताँबा, पीतल जो भी पात्र उपलब्ध हो उसमें नवीन वस्त्र बिछाकर, धो-पोंछ कर दक्षिणावर्त शंख (या अन्य शंख) को स्थापित कर विधिवत पंचोपचार पूजन करें।
पूजन के लिए निम्नांकित मंत्रों में किसी एक का चुनाव कर सकते हैं-
ऊँ श्री लक्ष्मी सहोदराय नमः। 
ऊँ श्री पयोनिधि जाताय नमः। 
ऊँ श्री दक्षिणावर्त शंखाय नमः। 
ऊँ श्रीँ ह्रीं क्लीँ श्रीधर करस्थाय,पयोनिधि जाताय,
लक्ष्मी सहोदराय,दक्षिणावर्त शंखाय नमः। 
ऊँ ह्रीँ श्रीधर करस्थाय, लक्ष्मीप्रियाय,
दक्षिणावर्त शंखाय मम चिन्तित फलं प्राप्त्यर्थाय नमः। 
चयनित मंत्र से पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन सम्पन्न करने के पश्चात् उक्त मंत्र का कम से कम सोलह माला जप भी अवश्य करें; विधिवत दशांश होमादि कर्म सहित।इसके बाद ब्राह्मण एवं भिक्षु भोजन यथाशक्ति दक्षिणा सहित सम्पन्न करके, पूजित शंख को आदर पूर्वक स्थायी स्थान पर सुरक्षित रख दें और नित्य यथा सम्भव पंचोपचार पूजन और एक माला जप करते रहें।
यह नियम किसी भी ग्राह्य शंख के ऊपर लागू होता है, विशेष कर दक्षिणावर्त। किसी भी शंख को खासकर जब सीधी अवस्था में रखते हों तो रिक्त न रहे, बल्कि जल पूरित रहे और उसके लिए शंखासन भी अनिवार्य है, क्योंकि शंखासन पर उसे जल पूरित सुरक्षित रखा जा सकता है। पीतल या ताँबे के बने-बनाये शंखासन पूजा सामग्री या बरतन की दुकानों में मिल जाते हैं। खाली रहने पर उल्टा (औंधे मुँह) रख सकते हैं, किन्तु सही प्रभाव के लिए सीधे मुँह और जल पूरित रहना अनिवार्य है।
पूजित दक्षिणावर्त शंख जहां कहीं भी रहेगा, अक्षय लक्ष्मी का वास होगा।
किसी भी पूजित शंख में जल भरकर व्यक्ति, वस्तु, स्थान पर छिड़क देने मात्र से दुर्भाग्य, अभिशाप, अभिचार,और दुर्ग्रह के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं।
ब्रह्म-हत्यादि महापातक दोषों से मुक्ति मिलती है, यदि दक्षिणावर्त शंख का जलपान कर लिया जाय। इसके अभाव में सामान्य (वामावर्त शंख-जल का प्रयोग भी श्री विष्णु मंत्र से अभिमंत्रित करके कुछ दिन तक करना चाहिए।
शंख जल-पान से जादू-टोना, नजरदोष आदि का निवारण होता है। वच्चों के लिए यह बड़ा ही लाभदायक प्रयोग है। प्रयोग कर्ता की साधना में यदि गायत्री समाहित हो तो उसी मंत्र का प्रयोग करना श्रेयष्कर है।अन्य इष्ट मंत्र (नवार्णादि) का प्रयोग भी किया जा सकता है।
दरिद्रता निवारण के लिए अभाव में किसी भी उपलब्ध शंख का नियमित पूजन किया जा सकता है। समय लगेगा, किन्तु लाभ अवश्य होगा। दक्षिणावर्त की तो बात ही और है।
शंख को हाथ में लेकर अभीष्ट शत्रु का नामोच्चारण करते हुए संकल्प पूर्वक जोर से बजाया जाय तो शत्रु की गति-मति का स्तम्भन होता है।
शंख को हाथ में लेकर अभीष्ट संकल्प करते हुए वादन करने से ह्रिंसक जीव-जन्तुओं (व्याघ्र, सर्पादि) से रक्षा होती है।
रात्रि में सोने से पूर्व संकल्प पूर्वक शंख-ध्वनि की जाय (पाँच-सात बार) तो चोर-डाकू, लुटेरों की गति-मति का भी स्तम्भन होता है।
जलपूरित शंख को हाथ में लेकर संकल्प पूर्वक किसी बालक को नियमित रुप से थोड़े दिनों तक पिलाया जाय तो स्वरमंडल का शोधन होकर बालक शीघ्र बोलने लगता है। यह प्रयोग जन्मजात स्वर-विकृति में भी लाभदायक है। इसके प्रयोग में आशातीत सफलता भी मिली है।
उक्त विधि से दूध भी नियमित दिया जा सकता है (जल और दूध वैकल्पिक क्रम से), किन्तु यह प्रयोग करने से पूर्व बालक की कुण्डली में चन्द्रमा की स्थिति का विचार अवश्य कर लेना चाहिए, कहीं चन्द्रमा नीच राशि अथवा शत्रु भाव गत तो नहीं हैं, अन्यथा लाभ के वजाय हानि हो सकती है।
आयुर्वेद में शंख का भस्म बना कर अत्यल्प मात्रा में सेवन करने का विधान है। शंख-भस्म या शंख-वटी के नाम से दवा की दुकान से इसे प्राप्त किया जा सकता है।अनेक उदर रोगों में इसका प्रयोग होता है। उक्त औषधी को "ऊँ श्री महावृकोदराय नमः" मंत्र से अभिमंत्रित कर सेवन करने से जटिल उदर रोगों में चमत्कारिक लाभ होता है।
मार्गशीर्ष मास में शंख की महिमा :: भगवान् श्री हरी विष्णु इस मास में शंख की महिमा बताते हुए कहते हैं कि इस मास में शंख में भरे जल से "ओम नमो नारायणाय" बोलते हुए जो मुझे स्नान कराता है, वह पापों से मुक्त हो जाता है। 
जो जल शंख में रखा जाता है वह गंगाजल के समान पवित्र करने वाला होता है।  
इस मास में तीनों लोकों में जितने भी तीर्थ हैं वह मेरी आज्ञा से शंख में निवास करते हैं।  
जो शंख में फूल, जल और अक्षत डालकर मुझे अर्घ्य देते हैं, उन्हें अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। 
जो भक्त मेरे मस्तक पर शंख का जल घुमाकर उस जल का छिड़काव घर में करता है उसके घर में कभी कुछ अशुभ नहीं होता।  
शंख में तीर्थ का पानी भरो और घर में जो पूजा का स्थान है, उसमें भगवान्-गुरु उनके ऊपर से शंख घुमाकर ईश्वर का नाम स्मरण करते हुए वो जल घर की दीवारों पर छाटों, उससे घर में शुद्धि बढ़ती है, शांति बढ़ती है, क्लेश झगड़े दूर होते है। 


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