Friday, June 24, 2016

BRAHMAN DHARM-DUTIES OF BRAHMNS ब्राह्मण धर्म

DUTIES OF BRAHMNS 
ब्राह्मण धर्म
DUTIES (Rules regulations) for the BRAHMNS
(ब्राह्मण वृत्ति-धर्म, ग्राहस्थ धर्म, स्वास्थ्य के नियम, सदाचार, वेद अनध्याय)
Please refer to :: MANU SMRATI (2) मनु स्मृति :: ब्राह्मण धर्म, संस्कार, गुरु-शिष्य परम्परा
MANU SMRATI (4) मनुस्मृति :: ब्राह्मण वृत्ति-धर्म
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CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh  Bhardwaj  
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ॐ गं गणपतये नमः। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ब्राह्मण के 8 भेद :: ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है, चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण बनने के लिए बेहद कठिन नियमों का पालन अनिवार्य है। मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि इनके 8 वर्ग-भरद हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊँचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
(1). मात्र :: ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं, लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं, उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।
(2). ब्राह्मण :: ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि, पुराणिक, वेदसम्मत आचरण करता है, वह ब्राह्मण है।
(3). श्रोत्रिय :: स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह श्रोत्रिय कहलाता है।
(4). अनुचान :: कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पाप रहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह अनुचान माना गया है।
(5). भ्रूण :: अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।
(6). ऋषि कल्प :: जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है, उसे ऋषि कल्प कहा जाता है।
(7). ऋषि :: ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं, उस सत्य प्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।
(8). मुनि :: जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है, ऐसे ब्राह्मण को मुनि कहते हैं।
किसी वेदपाठी परम्परा में यदि कोई बालक-बालिका जन्म ले तो उसके ब्राह्मणत्व को प्राप्त होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं। 
लेकिन इसका इसका ये मतलब नहीं हैं कि ऐसा बालक-बालिका ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हो ही जाए। इसीलिए कहते हैं :-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः। 
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः॥ 
व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है। अतएव वर्ण निर्धारण मनुष्य के गुण और कर्म के आधार पर ही तय होता हैं न कि जन्म या वंश परम्परा से।[निरुक्त शास्त्र के प्रणेता यास्क मुनि, स्कन्द पुराण-नागर खण्ड अध्याय 239  श्लोक 31]
It describes the practices, rituals, duties, methods, procedures meant for the Brahmans only, which have been mentioned in the scriptures; not for any one else. Its really very difficult to adopt them. However, one who is determined and devoted to the Almighty may proceed further.
विधाता शासिता वक्ता मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्
विधाता (शास्त्रोक्त कर्मों को करने वाला), शासिता (शिष्यादिक  शासन करने वाला), वक्ता (प्रायश्चितादि का आदेश देने वाला), मैत्र (सबसे मित्रता करने वाला) ब्राह्मण कहा जाता है। उस ब्राह्मण को किसी को भी अनिष्ट वचन या रुखा वचन नहीं कहना चाहिये।[मनुस्मृति 11.35]
The Brahmn is Vidhata (one who perform the deeds as per doctrine of the scriptures), Shasita (one who governs the disciple-students, society), Vakta (who asks to ascertain penances), Maetr (one who has friendly relations with all, each & every one). The Brahmn should never uttar such words which are indecent, painful, harsh, intolerable or curse anyone.
This is Kali Yug and the Brahmns are devoid of asceticism Yog, Yagy, Hawan, prayers, self study of Veds-scriptures etc. As a result of which he lacks the divine powers.Therefore, the Brahmn should never over estimate himself.
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। 
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥[श्रीमद्भागवत गीता18.42] 
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों को वश में करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर, लोक-परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्था रखना, ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।  
Equanimity, serenity-self control-restraint, peace loving, tolerance (bearing of pain, difficulty, suffering, inconvenience, hardship, torture, for righteous or devout conduct to carry-out religious faith-duties), purity-austerity and cleansing (internal and external), faith in eternity, forgiveness, honesty, uprightness-simplicity of body and mind, wisdom-knowledge of Ved, Puran, Upnishad, Brahmns are the natural duties-qualities of the Brahmns. 
ब्रह्म कर्म, सत्वगुण की प्रधानता, ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण-लक्षण हैं। इनमें उसको परिश्रम नहीं करना पड़ता। 
शम: :: मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहां से हट जाये।
दम: :: इन्द्रियों को वश में रखना।
तप: :: अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।
शौच :: मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। क्षान्ति-बिना क्षमा माँगे ही क्षमा करना। आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों। ज्ञान-वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण। 
आजकल के ब्राह्मण में कलयुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और कुछ को छोड़ कर शेष नाममात्र के ब्राह्मण हैं। केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता; उसे ब्राह्मण उसके माँ-बाप, गुरु जन, शिक्षा-दीक्षा से बनाया जाता है। 
A Brahmn is deemed to have self control over his senses, organs and the mind in order to fix and channelise the brain and energies as per his own will and desire. It enables him to utilize, divert or restraint his capabilities in best possible manner for the service of mankind, humanity and society.
He is capable of bearing with pain, insult, torture, difficulty, suffering, inconvenience, hardship and wretchedness, while carrying out righteous or devout conduct, duties. He restrains himself, though capable of repelling wickedness and improper conduct.
During the current cosmic era-Kali Yug the Brahmn is the most deprived lot. He has to accept various jobs for his survival in addition to performing his traditional duties, Pooja, Path, Yagy, Hawan, Agni Hotr, study of Veds, scriptures and guiding, motivating the public to seek Moksh.
He has to ascertain purity of body, mind and soul, senses, organs; purity of food, drinks and behavior. Maintenance of good habits of excretion, bathing are essential for him, in daily routine. He should ad hare to pious behavior, virtuous and ethical conduct. He is always soft and polite and uses decent, dignified, distinguished language. He never uses harsh words or language.
Those who migrate to other counties forget all these things and adopt them selves to those circumstances-situations. Still the prudent never forget these and seek guidance from learned, enlightened.
He forgives, without being asked happily, though cable to punish with the strength, power and might possessed by him. He is immune to defamation, back biting and insult.
He bears simple cloths. He is simple, honest and open. He is free from cheating, cunningness,  trickery, fraud, deceit, deceiving, ill will etc.
He studies and learns Ved, Puran, Upnishad, Brahmn, Ramayan, Mahabharat, Geeta and History; acquires the knowledge of various other scriptures to understand, accept and act in accordance with them. He has the understanding and experience of do’s and do not’s of performing Vedic rites, sacrifices and scientific methods.
He has firm faith and belief in God, Ved, other Abodes (life after death, rebirth) and respects and honour them. A Brahmn is not burdened to act in accordance with them, since he is born in such families, where purity of blood has been maintained. He has the natural Brahmanical tendencies (DNA, chromosomes, genes) in him due to the atmosphere, company and association. Importance is not given to the means of livelihood-earning for living due to the presence of Satvik characters, practice, company, self study. It’s for the society to take care of him, since he is the real owner of the earth and all means of livelihood.
A Brahmn has to be an ideal person with high moral character, values, virtues and dignity. He should command respect in the society. He should purify and sanctifies himself every day, in the morning by bathing, prayers and rituals. He is a devotee of God with simple living and high thinking. He learns and acquires the knowledge of various Vedic literature  He himself accepts donations and distributes the surplus, among the ones who are in need of them. He teaches and guides the students and disciples. He is free from ill will, anger, envy and prejudices. He is always soft and polite, with graceful-refined decent tone, language and behavior. He is revered in the society in high esteem and is ready to help anyone and everyone. He is simple and down to earth, in behavior and practice. He observes fast on festivals. He is away from wine, woman, narcotics, drugs, meat, fish and meat products. He adhere to ascetic practices and performs Hawan, Yagy, prayers and religious ceremonies as per calendar, on the prescribed dates auspicious occasions and schedule. He has conquered his desires.
Brahmns have originated from the forehead of Brahma. They are the mouth of the community and the store house of knowledge and wisdom. Teaching, educating, showing the right direction and preaching the four Varn are the pious duties of a Brahmn. Any one who is a Brahmn by birth, but do not possess the Brahmnical qualities, characters, virtues, morals, wisdom is not considered to be a Brahmn. The Brahmns who are corrupt in respect of food, habits, behavior, devoid of Bhakti, devotion to God are considered to be inferior to lower castes.
Any one who insults, misbehaves a Brahmn and invite his wrath, has his abode in the hells. His life is cursed and all sorts of pains, tortures, insults comes to him uninvited.
GENERAL CHARACTERISES :: (1). दान पुण्य, (2). हवन, अग्नि-होत्र, यज्ञ करना,  (3). धूप बत्ती, अगर बत्ती, लोबान, शुद्ध देशी घी या सरसों के तेल का दीया जलाना, आरती करना-उतारना, पूजा-पाठ करना, (4). तीर्थ स्थलों की यात्रा करना, (5). पवित्र नदियों, तालाबों, झीलों यथा मन सरोवर में नहाना, (6). योग्य, आदरणीय-पूजनीय व्यक्तिओं व देवी-देवताओं का सम्मान, (7). केवल अपनी पति के साथ-केवल ऋतु कल में संतान हेतु मैथुन-गर्भाधान,  (8). सभी प्राणियों पर दया करना, (9). सत्य बोलना, आचरण, (10). अत्यधिक कठिन श्रम न करना, (11). अपने पर निर्भर व्यक्तियों हेतु धन कमाना, (12). सभी से मित्रता पूर्ण व्यवहार, (13). शरीर, मन, आत्मा की शुद्धि, साफ सफाई, (14). इच्छा रहित कार्य-कर्म, समाज भले-हित के लिये कार्य, अनुसंधान,  (15). किसी के कार्य में कमी, गलती, बुराई न देखना-निकालना, (16). कंजूसी न करना इत्यादि। 
(1). Donation-charity, (2). Performing  Hawan, Agni Hotr-Sacrifices in Fire, Yagy, (3). Burning Dhoop, incense sticks, Loban-Banzoin, wick lamps of mustard, Deshi Ghee, Arti, Pooja-Path, (4). Visiting Holi places-pilgrimages, (5). Bathing in Holi rivers, ponds, lakes like Man Sarovar, (6). Honouring the deserving and the deities, (7). Sex-mating-intercourse with own wife only  and that is too during ovulation for the sake of progeny only, (8). Kindness-pity towards all creatures, (9). Truthfulness, (10). avoidance of extreme -too much, painful, excessive labour, (11). earning money for dependent, (12). Friendly behaviour with every one-organism creature, (13). Cleanliness of the body, mind and the soul, (14). Doing of work without desires, performing for the welfare of the society others,  (15). Not to see-find faults with others, (16). Lack of miserliness, etc, 
CHARACTERISTICS OF BRAHMNS ब्राह्मण गुण धर्म :: कुछ अपवादों को छोड़ कर अधिकतर ब्राह्मण अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर पहचाने जाते हैं। (1). शुद्ध सात्विक आचार- व्यवहार, निरामिष  भोजन, सदाचार।(2). अत्यधिक विकसित मस्तिष्क, मानसिक शक्ति।(3). वेदों, पुराणों, शास्त्रों, रामायण, महाभारत इतिहास आदि का पढ़ना और पढ़ाना। (4). साहस, पौरुष।(5). मजबूत शरीर व माँस पेशियाँ-बाहुबल।(6). पढ़ना-पढाना, स्वाद्ध्याय, चिंतन भक्ति। (7). गौर वर्ण। (8). माँस, मच्छी, अंडा, माँसाहार न करना। (9). धुम्रपान, बीडी-सिग्रेट न पीना; नशाखोरी, शराब से दूर रहना।(10). अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री के बारे में न सोचना। (11). किसी को भी न सताना, परेशान तंग न करना, हानि न पँहुचाना। (12). सहन शक्ति, क्रोध न करना-काबु रखना। (13). दैनिक स्नान पूजा पाठ प्रार्थना।(14). भगवान देवी देवताओं पूर्वजों को भेंट चढ़ाना।(15). शुद्ध सात्विक साधनों द्वारा धन कमाना। (16). अपनी आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर सीमित   रखना। (16). संग्रह की  पृव्रति  का अभाव।(17). समाज के उत्थान-विकास का प्रयास। (18). सभी प्राणियों से सामंजस्य बनाये रखना।(19). धन, जवाहरात, गहनों व पत्थरों को समान समझना (20). अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री से गर्भाधान न करना, वह भी केवल ऋतु काल में, केवल  रात्रि में, राहु-कालम व ग्रहण में कतई नहीं। 
परम्परा के अनुसार ब्राह्मण वैद्य, चिकित्सक, ज्योतिषी, हस्त रेखा परीक्षक, मन्दिर के पुजारी और यज्ञ कर्ता, सेना के सचालक, राजा के परामर्शदाता, न्यायाधीश होते थे। यदि किसी स्त्री का पति असमर्थ होता था तो संतानोत्पत्ति में उसके परिवार की सहमति से संतानोत्पत्ति यज्ञ की संसाधना भी करते थे। 64 विद्याओं, विधाओं का ज्ञान प्रदान करना, ऋषिकुल की स्थपना-विश्वविद्यालय और संचालन। समस्त ऋषियों का नाम वैज्ञानिक के रूप में भी पाया जाता है। 
ईर्षालु आलोचक, मूर्ख, अविवेकी, नासमझ, अनपढ़, विधर्मी, इसे धर्म का नाम देते यद्यपि इस तरह की किसी चीज का शास्त्रों में कहीं भी कोई भी वर्णन नहीं है। यह मात्र भ्राति के अलावा कुछ भी नहीं है। कोई भी योग्य, काबिल, विवेकी व्यक्ति ब्राह्मण बन सकता है यदि उसमें क्षमता है। 
Barring a few exceptions majority of Brahmns are blessed with certain characteristics which differentiate them with the other Varns. (1). Pure vegetarian food descent behaviour. (2). Highly developed brain power, Study  and teaching of Veds, (3). Purans, epics, scriptures, (4). Courage, valour, bravery, (5). Stout body and muscle power, (6). Learning, educating, meditation, prayers, Bhakti worship-devotion to God, (7). fair colour-complexion, (8). Non consumption of meat, meat products, fish, eggs, (9). Non consumption of narcotics, drugs, wine, (10). Not to think of other women, (11). Not to harm or trouble any one, (12). Tolerance-not to become angry, (13). Regular bathing, performance of rights-rituals-prayers, (14). making offerings to God-deities-ancestors, (15). Earning money through honest-righteous pure means, (16). To keep own needs to the barest possible minimum, (17). Tendency not to store-accumulate for future,  (18). Should be devoted to for the development, growth, upliftment of society, (19). Harmonious relations-cordial relations with all creatures, (20). Weighs stones, gems and jewels equally, (21). Inclination towards sex with own wife only and that is too, during the ovulation period, during night only, avoidance of Rahu Kalam and eclipse. 
Traditionally the Brahmns used to be physicians-doctors (Vaedy), astrologers, Palmists, teachers, ministers, king's adviser, judges. State administrations and army management were their primary duties. They helped women whose husbands were functionally impotent, with the consent of their family. Providing education in 64 faculties. Establishment of universities and maintenance. 
DUTIES OF BRAHMNS :: Acquiring knowledge-learning and training for self, educating others, performing Yagy-sacrifices, accepting and making donations-charity, piousness-purity, performing natural deeds, Satvik food habits. All of his movements should be directed towards the service of the four Varn and the mankind, in whom the Almighty is pervaded. He has to perform all his duties happily, with pleasure and devotion to God as per his dictates, with wisdom.
Inherent activities of Brahmns are placid and mild, as compared to that of Kshatriy, Vaeshy or Shudr. Still, the Kshatriy, Vaeshy and Shudr remain free from defects. On the contrary, they are benefited by observing them, since they are according to their nature, prescribed and easy to do and in line with scriptures. Even the mandatory sins associated with violence, do not affect them.
Some ignorant critics, envious, incapable, imprudent, idiots call it Brahmn Dharm, though nothing like exists in the scriptures. Its purely a deceptive notion. However, anyone is free to become a Brahmn if he has calibre, capability, capacity.
BRAHMANS TODAY वर्तमान में ब्राह्मण :: It's very-very difficult, rather impossible to follow-observe the self imposed restrictions, prohibitions, dictates in the life of a Brahmn. It's clearly the reason behind the evolution of the tree of Varn, caste-creed in Hindu religion-society.
One is free to become a Brahmn just by following the long-long list of do's and don'ts.
Daksh Prajapati, who was born out of the right foot-toe of Brahma Ji, may be treated as a Shudr (born out of the feet of Brahma Ji).
His 13 daughters, who were married to Kashyap-a Brahmn,  followed the dictates of Shashtr; gave birth to all life forms on including Shudr, Mallechh (Christians & Muslims) earth.
Sanctity, righteousness, asceticism, virtuousness, religiosity, truthfulness, purity, piousity, poverty, donations, charity, kindness, fasting, contentedness, satisfaction, teaching and learning Veds, Purans, Epics, Shashtr, harmony, peace, soft spokenness, decent behaviour, tolerance, highly developed fertile creative brain, excellent memory-power to retention-grasp, not to envy, anger, greedy, perturbed, tease are synonyms to a Brahmn. 
Today's Brahmns are Brahmns only for the name sake. They are just the carriers of the genes, chromosomes, DNA of their ancestors, Rishis, fore fathers. They are changing with the changing times and do not hesitate-mind, adopting any profession, trade, business, job for the sake of earning money for survival, in the ever increasing race of fierce competition-in a world, which is narrowing down-shrinking, day by day, in an atmosphere of scientific advancement, discoveries, innovations, researches. However, which ever is the field, they work-choose, they assert their excellence-highly developed mental calibre, capabilities, capacities and move ahead of others, facing-tiding over, all turbulence, difficulties, resistances.
BRAHMANICAL VIRTUES ब्राह्मण संस्कार :: 
ब्राह्मण के तीन जन्म  :: (1). माता के गर्भ से, (2). यज्ञोपवीत से व (3). यज्ञ की दीक्षा लेने  से। यज्ञोपवीत के समय गायत्री माता व और आचार्य पिता होते हैं। वेद की शिक्षा देने से आचार्य  पिता कहलाता है। यज्ञोपवीत के बिना, वह किसी भी वैदिक कार्य का अधिकारी नहीं होता। जब तक वेदारम्भ न हो, वह शूद्र के समान है।
जिस ब्राह्मण के 48 संस्कार विधि पूर्वक हुए हों, वही ब्रह्म लोक व ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इनके बिना वह शूद्र के समान है। 
गर्वाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकार के वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पञ्च महायज्ञ (जिनसे पितरों, देवताओं, मनुष्यों, भूत और ब्रह्म की तृप्ति होती है), सप्तपाक यज्ञ-संस्था-अष्टकाद्वय, पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, शूलगव, आश्र्वयुजी, सप्तहविर्यज्ञ-संस्था-अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणि, सप्त्सोम-संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। ये चालीस ब्राह्मण के संस्कार हैं। 
इनके साथ ब्राह्मण में  8 आत्म गुण भी होने चाहियें :- 
अनसूया :: दूसरों के गुणों में दोष बुद्धि न रखना, गुणी  के गुणों को न छुपाना, अपने गुणों को प्रकट न करना, दुसरे के दोषों को देखकर प्रसन्न न होना। 
दया :: अपने-पराये, मित्र-शत्रु में अपने समान व्यवहार करना और दूसरों का  दुःख दूर करने की इच्छा रखना। 
क्षमा :: मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना।
अनायास :: जिन शुभ कर्मों को करने से शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म को हठात् न करना। 
मंगल :: नित्य अच्छे कर्मों को करना और बुरे कर्मों को न करना। 
अकार्पन्य :: मेहनत, कष्ट व न्यायोपार्जित धन से, उदारता पूर्वक थोडा-बहुत नित्य दान करना।  
शौच :: अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। 
अस्पृहा :: ईश्वर की कृपा से थोड़ी-बहुत संपत्ति से भी संतुष्ट रहना और दूसरे के धन की, किंचित मात्र भी इच्छा न रखना। 
जिसकी गर्भ-शुद्धि हो, सब संस्कार विधिवत् संपन्न हुए हों और वर्णाश्रम धर्म का पालन करता हो, तो उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है । 
BRAHMAN AS A DISCIPLE :: The student-Brahmchari will begin-receiving lessons-instructions only after the sacred thread is granted to him-Janeu (जनेऊ, loin cord, thread) ceremony. It's essential to accept the sacred knowledge of the Veds. He is asked to wear a chain, garland, string of beads, skin, stick, cloths, sacred thread, recommended for the purpose of education. He has to follow orders, directives, dictates, sermons, rules-regulations, rituals, practices of his teacher, educator, Guru and remain  as an ascetic, like a hermit. He has to become fresh every day by taking bath  and offering tributes to the deities, ancestors, saints. He has to collect flowers, fruits, water,  naturally dried wood, Kush-a grass with sharp edges, cow dung, pure clay, mud, earth and different type of of wood for making hut etc. He should not accept wine, meat, fish, egg, meat products, scents, flower garland-beads, various juices-extracts and reject the company of the women. Violence of any kind, speaking-telling lies, blame, censure, scorn, abuse, defamation, slander, criticism, blasphemy, betting, company of women, sensuality, passions, sexual acts, greed, anger-envy are not allowed-have to be skipped. He has to remain alone-in solitude with control over himself and all of his faculties.
Begging, only as per need  with self restraint, control over speech-tongue-utterances, from such families only, who have faith in God, Veds, Hawan, Agnihotr, is allowed. In case alums from such families are not available, he may go to the relative of his Guru, own relatives, acquaintances. He should ensure that the alums are not collected from  the same-one family every day, unless-until their is an emergency. Grain collected through begging should constitute  his main food. Dependence over begging for survival is like fasting. One should not beg before-in front of, from  the sinners, wretched, wicked people. Scriptures-Shashtr do not consider this type of collection of alums as begging.
Hawan has to be performed every day by collecting dried wood and sacrifices in the fire are made. 
The disciple should stand before the Guru with folded hands and sit  over the ground only when he is asked to sit and that is too without the mat, cushion, seat in high esteem. He should wake up before the Guru and sleep only when the Guru has slept. He should not speak the name of the Guru and never mimic copy him. He should never criticise the teacher and speak slur against him. He should close his ears if some one is criticising him and moves away from that place. He should  always remain away-aloof from the company of such people-critics.
The disciple, student, child should come down-out of the vehicle to pay regards-respect to elders, Guru, high and mighty. He should behave with the relatives of the Guru in a manner, similar to that he practices with the Guru. Wife of the Guru should be treated as the Guru himself, but touching her in any manner is prohibited. Never sit on the same cushion, seat, mat, bed, with sister, mother, daughter and the wife of the Guru, teacher, educator, master, revered, respected person
He should move-come out  of the village before dawn and dusk. Morning and evening prayers, offerings, recitations have to be performed near a water source-body. Mother, father, parents-guardians, elders and brothers must be regarded and should not be betrayed during trouble-difficult times-periods.
Regular service of the parents-Guru ensures education, enlightenment, knowledge. He should not follow any other practices-service unless until ordered by them. He has to adhere to his own Dharm.
ब्राह्मण छात्र धर्म :: यज्ञोपवीत संपन्न हो जाने पर वटुक (विद्यार्थी) को व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिये और वेदाध्ययन करना चाहिये। यज्ञोपवीत के समय जो मेखला, चर्म, दंड, वस्त्र, यज्ञोपवीत आदि धारण करने को कहा गया है, उन्हीं को धारण करे। अपनी तपस्या हेतु ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर गुरु की सेवा में तत्पर रहे व नियमों का पालन करे। नित्य स्नान करके देवता, पितर और ऋषिओं का तर्पण करे। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृतिका, कुश, और अनेक प्रकार के काष्ठों का संग्रह करे। मद्य, मांस, गंध,पुष्प माला, अनेक प्रकार के रस और स्त्रियों का परित्याग करे। प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन लगाना, अंजन लगाना, जूता व छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, झूंठ बोलना, निंदा करना, स्त्रियों के समीप बैठना,  काम-क्रोध-लोभादि के वशीभूत होना-इत्यादि ब्रह्मचारी के लिए वर्जित है-निषिद्ध हैं। उसे संयम पूर्वक एकाकी रहना है। उसे जल, पुष्प, गाय का  गोबर,  मृतिका और कुशा का संग्रह करे। 
आवश्कतानुसार भिक्षा नित्य लानी है। भिक्षा माँगते वक्त वाणी पर संयम रखे। जो ग्रहस्थी अपने कर्मों (वर्णाश्रम धर्म) में तत्पर हो, वेदादि का अध्ययन करे, यज्ञादि में श्रद्धावान हो उसके यहाँ से ही भिक्षा ग्रहण करे। इस प्रकार भिक्षा न मिलने पर ही, गुरु के कुल में व अपने बंधु-बांधव, पारिवारिक सदस्य-स्वजनों से भिक्षा प्राप्त करे। कभी भी एक ही परिवार से भिक्षा ग्रहण न करे। भिक्षान्न को मुख्य अन्न माने। भिक्षावृति से रहना, उपवास के बराबर माना गया है। महापातकियों से भिक्षा कभी स्वीकार न करे। इस प्रकार की भिक्षा को शास्त्र में भीख नहीं माना गया है। 
नित्य समिधा लाकर प्रतिदिन सायं काल व प्रात: काल हवन करे। 
ब्रह्मचारी गुरु के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा हो गुरु की आज्ञा से ही बैठे, परन्तु आसन पर नहीं। गुरु के उठने से पूर्व उठे व सोने के बाद सोये, गुरु के समक्ष बड़ी विनम्रता से बैठे, गुरु का नाम न ले, गुरु की नक़ल न करे। गुरु की निंदा-आलोचना न करे, जहाँ  गुरु की निंदा-आलोचना  होती हो वहाँ से उठ जाये अथवा कान बंद कर ले।  गुरु निंदक-आलोचकों से  सदा दूर ही रहे। 
वाहन से उतर कर  गुरु को अभिवादन-प्रणाम करे। वह एक ही वाहन, शिला, नौका आदि पर गुरु के बैठ सकता है। गुरु के गुरु, श्रेष्ठ सम्बन्धी, गुरु पुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करे। गुरु की सवर्णा स्त्री को गुरु के समान ही समझे, परन्तु पैर दवाना, उबटन लगाना, स्नान कराना निषिद्ध हैं। बहन, बेटी, माता के साथ  कभी भी एक ही आसन पर न बैठे। 
गाँव में सूर्योदय व सूर्यास्त न होने दे-जल के निकट-निर्जन स्थान पर दोनों संध्याओं में संध्या-वंदन करे।  
माता, पिता, आचार्य व भाई का विपत्ति में भी अनादर न करे, सदा आदर करे। 
माता, पिता,आचार्य की नित्य सेवा-शुश्रूषा करने से ही विद्या मिल जाती है। इनकी आज्ञा से ही किसी अन्य धर्म का आचरण करे अन्यथा नहीं। 
शिखा :: चूड़ाकरण संस्कार में गर्भकालीन बालों को काट कर शिखा-चुटिया रखी जाती है, जिसकी उपयोगिता इस प्रकार है :- 
सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च। 
विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्॥[कात्यायन]
द्विजों को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और सदा शिखा में गाँठ-ग्रंथि लगाये रहना चाहिये। शिखा और यज्ञोपवीत के बिना वह जो कर्म करता है, वह निष्फल होता है। 
स्नाने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने। 
शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रबीत्॥
स्नान, दान, जप, होम, सन्ध्या, देवपूजन आदि समस्त नित्य-नैमित्तिक कर्मों में शिखा में ग्रंथि लगी होनी चाहिये।
श्रापित ब्राह्मण ::
(1). ब्राह्मण जाति को नन्दीश्वर का दक्ष यज्ञ में श्राप :- भगवान् रुद्र से विमुख दुष्ट ब्राह्मण वेद के तत्व ज्ञान से शून्य हो जाये, ब्राह्मण सर्वदा भोगों में तन्मय रहें तथा क्रोध, लोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहें, दरिद्र रहें। सर्वदा दान लेने में ही लगे रहे, दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सभी नरक-गामी हों, उनमें से कुछ ब्राह्मण ब्रह्म-राक्षस हों। 
(2). माता लक्ष्मी का ब्राह्मणों को श्राप :- भृगु ने भगवान् श्री हरी विष्णु के वक्ष स्थल पर लात मारी तो माता लक्ष्मी ने कुपित होकर पूरी ब्राह्मण जाती को श्राप दे दिया किउनके घर में मेरा (लक्ष्मी का) वास नहीं होगा और वे दरिद्र बनकर इधर उधर भटकते रहेंगे।
(3). माता पार्वती का श्राप :- भृगु ज्योतिष शास्त्र की रचना करके माता पार्वती के भवन में अहँकार वश बगैर अनुमति के जा घुसे और कहा कि ब्राह्मण जाति उनके द्वारा रचित ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करके जीवन यापन कर लेगी। उनकी धृष्टता से कुपित होकर माता पार्वती ने श्राप दिया कि अपनी विद्या पर इतना ज्यादा घमंड करने की वज़ह से तुम्हारी सारी भविष्यवाणी सच नहीं होंगी। 
(4). जो ब्राह्मण सूर्योदय के समय भोजन करता है, दिन में शयन करता है तथा दिन में मैथुन करता है उसके यहाँ लक्ष्मी नहीं रहती। जो ब्राह्मण आचारहीन, ताज्य का दान ग्रहण करने वाला दीक्षा विहीन तथा मूर्ख है उसके भी घर से लक्ष्मी चली जाती हैं। जो भींगे पैर अथवा नग्न होकर सोता है तथा वाचाल की भांति निरंतर बोलता रहता है उसके घर से भी साध्वी लक्ष्मी चली जाती हैं। जो व्यक्ति अपने सिर पर तेल लगाकर उसी हाथ से दूसरे के अंग का स्पर्श करता है और अपने किसी अंग को स्पर्श करता है और अपने किसी अंग को बाजे की तरह बजाता है उसके घर से रुष्ट होकर लक्ष्मी चली जाती हैं। जो ब्राह्मण व्रत उपवास नहीं करता, संध्या वंदन नहीं करता, सदा अपवित्र रहता है तथा भगवान् विष्णु की भक्ति से रहित है उसके यहाँ से हरि प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं। जो व्यक्ति ब्राह्मण की निंदा करता है, उससे सदा द्वेष करता है, जीवों की हिंसा करता है प्राणियों के प्रति दयाभाव नहीं रखता, जगत जननी लक्ष्मी उस व्यक्ति के घर से भी दूर चली जाती हैं। 
(5). राजा शतानीक ने पूछा :- हे मुने! आपने उपाध्याय आदि के लक्षण बताये, अब महागुरु किसे कहते है ? यह भी बताने की कृपा करें। 
सुमन्तु मुनि बोले :– राजन! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो अर्थात अष्टादशपुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म, महाभारत (भगवान् श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत जो पंचम वेद के नाम से भी विख्यात है) तथा श्रौत एवं स्मार्त-धर्म (विद्वान् लोग इन सभी को ‘जय’ नाम से अभिहित करते हैं) का ज्ञाता हो, वह महागुरु कहलाता है। वह सभी वर्णों के लिये पूज्य है। जो शास्त्र द्वारा थोड़ा या बहुत उपकार करे, उसको भी उस उपकार के बदले गुरु मानना चाहिए। अवस्था में चाहे छोटा ही क्यों न हो, पढ़ाने से वह बालक वृद्ध का भी गुरु हो सकता है। 
राजन! इस विषय में एक प्राचीन आख्यान सुनो :–
पूर्वकाल में अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति बाल्यावस्था से ही बड़े वृद्धों को पढ़ाते थे और पढ़ाने वक्त ‘हे पुत्रो ! पढ़ो कहते थे। देवताओं ने कहा :– पितृ गणों! उस बालक ने न्यायोचित बात ही कही हैं, क्योंकि जो अज्ञ हो अर्थात कुछ न जानता हो वही सच्चे अर्थ में बालक है, किंतु जो मंत्र को देनेवाला है (वेदों को पढानेवाला है), उपदेशक है, यह युवा आदि होने पर भी गुरु-पिता होता है।अवस्था अधिक होने से, केश श्वेत होने से और बहुत वित्त तथा बन्धु-बाँधवों के होने से कोई बड़ा नही होता, बल्कि इस विषय में ऋषियों ने यह व्यवस्था की है कि जो विद्या में अधिक-विद्वान हो, वही सबसे महान-गुरु है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में क्रमशः ज्ञान, बाल, धन तह जन्म से बड़प्पन होता है। सिर के बाल श्वेत हो जाने से कोई वृद्ध नहीं होता, यदि कोई युवा भी वेदादि शास्त्रों का भली भाँति ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसको महान समझना चाहिये। जैसे काष्ठ से बना हाथी, चमड़े से मढ़ा मृग किसी काम का नहीं, उसी प्रकार वेद से हीन ब्राह्मण का जन्म निष्फल है। मूर्ख को दिया हुआ दान जैसे निष्फल होता है, वैसे ही वेद की ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण का जन्म निष्फल होता है। ऐसा ब्राह्मण नाम मात्र का ब्राह्मण होता है। वेदों का स्वयं कथन है कि जो हमें पढ़कर हमारा अनुष्ठान न करे, वह पढने का व्यर्थ क्लेश उठाता है, इसलिए वेद पढ़कर वेद में कहे हुए कर्मों का जो अनुष्ठान करता है अर्थात तदनुकूल आचरण करता है, उसी का वेद पढ़ना सफल है। जो वेदादि शास्त्रों को जानकार धर्म का उपदेश करते है, वही उपदेश ठीक है, किंतु जो मूर्ख वेदादि शास्त्रों को जाने बिना धर्म का उपदेश करते है, वे बड़े पाप के भागी होते है। शौचरहित (अपवित्र), वेद से रहित तथा नष्टव्रत ब्राह्मण को जो अन्न दिया जाता है, वह अन्न रोदन करता है कि ‘मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो ऐसे मूर्ख ब्राह्मण के हाथ पड़ा और वही अन्न यदि जयोपजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नता से नाच उठता है और कहता है कि ‘मेरा अहोभाग्य है, जो मैं ऐसे पात्र के हाथ आया।’ विद्या और तप के अभ्यास से सम्पन्न ब्राह्मण के घर में आने पर सभी अन्नादि ओषधियाँ अति प्रसन्न होती है और कहती हैं कि अब हमारी भी सद्गति हो जायगी। व्रत, वेद और जप से हीन ब्राह्मण को दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि पत्थर की नाव नदी के पार नहीं उतार सकती। इसलिए श्रोत्रिय को हव्य-कव्य देने से देवता और पितरों की तृप्ति होती है। घर के समीप रहने वाले मूर्ख ब्राह्मण से दूर रहने वाले विद्वान ब्राह्मण को ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घर के समीप रहने वाला ब्राह्मण यदि गायत्री भी जानता हो तो उसका परित्याग न करे। परित्याग करने से रौरव नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि ब्राह्मण चाहे निगुर्ण हो या गुणवान, परंतु यदि वह गायत्री जानता है तो वह परमदेव-स्वरुप है। जैसे अन्न से रहित ग्राम, जल से रहित कूप केवल नाम धारक है, वैसे ही विद्याध्ययन से रहित ब्राह्मण भी केवल नाम मात्र का ब्राह्मण है। 
प्राणियों के कल्याण के लिये अहिंसा तथा प्रेम से ही अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्म की इच्छा करने वाले शासन को सदा मधुर तथा नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिये। जिसके मन, वचन, शुद्ध और सत्य है, वह वेदान्त में कहे गये मोक्ष आदि फलों को प्राप्त करता है। आर्त होनेपर भी ऐसा वचन कभी न कहे जिससे किसी की आत्मा दु:खी हो और सुननेवालों को अच्छा न लगे। दूसरे का अपकार करने की बुद्धि नहीं करनी चाहिये। पुरुष को जैसा आनंद मीठी वाणी से मिलता है, वैसा आनंद न चन्द्रकिरणों से मिलता है, न चंदन से, न शीतल छाया से और न शीतल जल से। ब्राह्मण को चाहिये कि सम्मान की इच्छा को भयंकर विष के समान समझकर उससे डरता रहे और अपमान को अमृत के सामान स्वीकार करे, क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं होती, वह सुख ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह विनाश को प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज नित्य वेद का अभ्यास करे, क्योंकि वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है। 
वेद की शिक्षा देने से आचार्य को पिता कहते है, क्योंकि यज्ञोपवीत होने के पूर्व किसी भी वैदिक कर्म के करने का अधिकारी वह नहीं होता। श्राद्ध में पढ़े जाने वाले वेद मंत्रो को छोडकर (अनुपनीत द्विज) वेद मंत्र का उच्चारण न करे, क्योंकि जब तक वेदारम्भ न हो जाय, तब तक वह शूद्र के समान माना गया है। यज्ञोपवीत सम्पन्न हो जानेपर बटुक को व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिये और तभी से विधि पूर्वक वेदाध्ययन करना चाहिये। यज्ञोपवित के समय जो-जो मेखला-चर्म, दण्ड और यज्ञोपवीत तथा वस्त्र जिस-जिसके लिए कहा गया है वह-वह ही धारण करे। अपनी तपस्या की वृद्धि के लिए ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर गुरु के पास रहे और नियमों का पालन करता रहे। नित्य स्नानकर पवित्र हो देवता, ऋषियों ततः पितरों का तर्पण करे। पुष्प, फल,जल, समिधा, मृतिका, कुशा और अनेक प्रकार के काष्ठों का संग्रह रखे। मद्य, माँस, गन्ध, पुष्प माला, अनेक प्रकार के रस और स्त्रियों का परित्याग करे। प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन, अंजन लगाना, जूता और छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, झूठ बोलना, निंदा करना, स्रियों के समीप बैठना और काम, क्रोध तथा लोभादि के वशीभूत होना इत्यादि बातें ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध हैं। उसे संयम पूर्वक एकाकी रहना चाहिये। वह जल, पुष्प, गौ का गोबर, मृतिका और कुशा तथा आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लाये। जो पुरुष अपने कर्मों में तत्पर हों और वेदादि-शास्त्रों को पढ़े तथा यज्ञादि में श्रद्धावान हों, ऐसे गृहस्थों के घरसे ही ब्रम्हचारी को भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। गुरु के कुल में और अपने पारिवारिक बन्धु-बान्धवों के घरों से भिक्षा न माँगे। यदि भिक्षा अन्यत्र न मिले तो इनके घर से भी भिक्षा ग्रहण करे, किंतु जो महापातकी हो उनकी भिक्षा न लें। नित्य समिधा लाकर सायंकाल और प्रात:काल हवन करे। भिक्षा माँगने के समय वाणी संयमित रखे। ब्रम्हचारी के लिए भिक्षा का अन्न मुख्य है। एक घर-गृहस्थ का अन्न नित्य न ले। भिक्षावृत्ति से रहना उपवास के बराबर माना गया है। यह धर्म केवल ब्राह्मण के लिए कहा गया है, क्षत्रिय और वैश्य के धर्म में कुछ भेद है। 
ब्रह्मचारी गुरु के सम्मुख हाथ जोडकर खड़ा रहे, जब गुरु की आज्ञा हो तब बैठे, परंतु आसन पर न बैठे। गुरु के उठने से पूर्व उठे, सोने के पश्चात सोये, गुरु के सम्मुख अति नम्रता से बैठे, परोक्ष में गुरु का नाम उच्चारण न करे, किसी भी बात में गुरु का अनुकरण अर्थ नकल न करें। गुरु की निंदा न करे और जहाँ होती हो, आलोचना होती हो वहाँ से उठकर चला जाय अथवा कान बंद कर ले। 
परिवादस्तथा निंदा गुरोर्यत्र प्रवर्तते। 
कर्णों तत्र पिश्चातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यत:॥
[ब्राम्हपर्व 4.171]
वाहन पर चढ़ा हुआ गुरु का अभिवादन न करे अर्थात वाहन से उतरकर प्रणाम करे। गुरु के साथ एक वाहन, शिला, नौकायान आदि पर बैठ सकता है। गुरु के गुरु तथा श्रेष्ठ सम्बन्धीजनों एवं गुरु पुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करे। गुरु की सवर्णा स्त्री को गुरु के समान ही समझे, परंतु गुरु पत्नी के उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना आदि क्रियाएँ निषिद्ध हैं। माता, बहन या बेटी के साथ एक आसन पर न बैठे, क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समूह विद्वान को भी अपनी ओर खींच लेता हैं। जिस प्रकार भूमि को खोदते-खोदते जल मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रषा करते-करते गुरु से विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, जटाधारी हो अथवा शिखी (बड़ी शिखासे युक्त) हो, चाहे जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँव में रहते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं होना चाहिये अर्थात जल के तट अथवा निर्जन स्थान पर जाकर दोनों संध्याओं में संध्या-वंदन करना चाहिये। जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान पाप का भागी होता है और बिना प्रायश्चित (कृच्छ्रवत) के शुद्ध नही होता। 
माता, पिता भाई और आचार्य का विपत्ति में भी अनादर न करें। आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति है, पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की तथा भाई आत्ममूर्ति है। इसलिये इनका सदा आदर करना चाहिये। प्राणियों की उत्पत्ति में तथा पालन-पोषन में माता-पिता को जो क्लेश सहन करना पड़ता है, उस क्लेश का बदला वे सौ वर्षों में भी सेवा करके नही चुका पाते। इसलिए माता-पिता और गुरु की सेवा नित्य करनी चाहिये। इन तीनों के संतुष्ट हो जाने से सब प्रकार के तपों का फल प्राप्त हो जाता है, इनकी शुश्रूषा ही परम तप कहा गया है। इन तीनों की आज्ञा के बिना किसी अन्य धर्म का आचरण नही करना चाहिये। ये ही तीनों लोक है, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद है और ये ही तीनों अग्रियाँ हैं। माता गार्हपत्य नामक अग्नि है, पिता दक्षिणाग्नि-स्वरुप है और गुरु आहवनीय अग्नि है। जिस पर ये तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर लेता है और दीप्यमान होते हुए देवलोक में देवताओं की भाँति सुख भोग करता हैं।
त्रिपु तुष्टेषु चैतेषु प्रिंल्लोकाश्चयते गृही। 
दीप्यमान: स्ववपुषा देववददिवि मोदते॥[ब्राह्म पर्व 4.201]
पिता की भक्ति से इहलोक, माता की भक्ति से मध्यलोक और गुरु की सेवा से इंदलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं और जो इनका आदर नहीं करता, उसकी सभी क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जब तक ये तीनों जीवित रहते है, तब तक इनकी नित्य सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा रूपी धर्म में पुरुष का सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात धर्म है, अन्य सभी उप धर्म कहे गये है। 
उत्तम विद्या अधम पुरुष में हो तो भी उससे ग्रहण कर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डाल से भी मोक्ष धर्म की शिक्षा, नीच कुल से भी उत्तम स्त्री, विष से भी अमृत, बालक से भी सुंदर उपदेशात्मक बात, शत्रु से भी सदाचार और अपवित्र स्थान से भी सुवर्ण ग्रहण कर लेना चाहिये। उत्तम स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म, शौच, सुभाषित तथा अनेक प्रकार के शिल्प जहाँ से भी प्राप्त हो, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरु के शरीर-त्यागपर्यंत जो गुरु की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। पढने के समय गुरु को कुछ देने की इच्छा न करें, किंतु पढने के अनन्तर गुरु की आज्ञा पाकर भूमि, सुवर्ण, गौ, घोडा, छत्र, उपानह, धान्य, शाक तथा वस्र आदि अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणा के रूपमें देने चाहिए। जब गुरु का देहान्त हो जाय, तब गुणवान गुरु पुत्र, गुरु की स्त्री और गुरु के भाइयों के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करना चाहिये। इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारी-धर्मका आचरण करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। 
सुमन्तु मुनि पुन: बोले :– हे राजन! इस प्रकार मैंने ब्रह्मचारी धर्म का वर्णन किया। ब्राह्मण का उपनयन वसन्त में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का शरद ऋतु में प्रशस्त माना गया है।[भविष्य पुराण ब्राह्मपर्व 4.2]
This is conversation is from Bhavishy Puran. Almost same text is available in Veds & Manu Smrati.
व्यास और युधिष्ठिर संवाद-ब्राह्मण की सिद्धि ::
तपो यज्ञस्तथा विद्या भैक्ष्यमिन्द्रियसंयम।
ध्यानमेकान्तशीलत्वं तुष्टिर्ज्ञानं च शक्तित:।
ब्राह्मणानां महाराज चेष्टा: संसिद्धिकारिका:॥
[महा.शान्तिपर्व 9.15]
तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रिय-संयम, ध्यान, एकान्तवास का स्वभाव, सन्तोष और यथाशक्ति शास्त्रज्ञान, ये समस्त गुण तथा चेष्टाएं ब्राह्मणों के लिए सिद्धि देने वाली हैं।
KILLING BRAHMAN ब्राह्मण वध :: There is no sin as great as killing, slaying, murdering a Brahmn. Therefore, the king never resort to killing a Brahmn.
Maha Nand killed Chanak-the father of Achary Chanaky and his empire was reduced to zero. Killing of Bhagwan Parshu Ram's father father led to the elimination of Kshtriy clans 21 times from the earth.
Dev Raj Indr-king of heaven, too was spared for killing Vrata Sur a Brahmn by birth. 
Bhagwan Ram himself took to penances for killing Ravan.
Pandavs too were made to undergo penances by Bhagwan Shri Krashn for killing Achary Dron.
ब्राह्मण सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी है। शुक्राचार्य को पृथ्वी का स्वामी माना जाता है। परशुराम जी ने 21 बार क्षत्रियों का विनाश करके धरती ब्राह्मणों को प्रदान की; परन्तु ब्राह्मणों ने भूमि पुनः-पुनः क्षत्रियों को दे दी। क्षत्रिय या शासक ब्राह्मण के प्रतिनिधि के रूप में राज्य करता है। ब्राह्मणों को नाराज-नाखुश करके शासक अपना सर्वनाश कर लेता है।ब्राह्मण किसी का नहीं खाता। दान देना और लेना उसका हक-अधिकार है। 
Brahmn own this earth. He is the master of this universe and he has given this earth to the Kshatriy to manage-rule-maintain law and order on his behalf. Shukrachary is master of this earth. Bhagwan Shri Parshu Ram Ji eliminated the Kshatriys 21 times, due to the arrogance-atrocities they inflicted over the Brahmns. Brahmns repeatedly granted this earth to the Kshatriys to rule. One who displease-angers the Brahmn digs his own grave.
पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिए और आताताइयों को मार ही डालना चाहिए।[श्री मद् भागवत 1.7.53]
One must not kill-murder the scholars, Brahmns-Pandits, philosophers, but kill the invaders, intruders, attackers, terrorists, those who poison, fire the houses, snatch the earnings, property, wealth, belongings, farms and the women folk and the one who possess the weapons with bad-ulterior intentions-motives.
आताताई :: आग लगाने वाला, जहर देने वाला, बुरी नीयत से हाथ में शस्त्र ग्रहण करने वाला, धन लूटने वाला, खेत और स्त्री को छीनने वाला। 
मूँड़ देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकाल देना, यही ब्रह्मणाधमों (अधम-नीच) का वध है, उनके लिए इसके अतिरिक्त शारीरिक वध का विधान नहीं है।[श्री मद् भागवत 1.7.58] 
Shaving of head, snatching the money-wealth-property-belongings, removing from state-region-country is equivalent to death-execution for the Brahmns. 
जो उच्छृंखल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मण कुल को कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मण कुल उन राजाओं को सपरिवार शोकाग्नि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है।[श्री मद् भागवत 1.7.48] 
The unrestrained-uncontrolled king, ruler, emperor, politician, who vanish (torture, punish) innocent Brahmns and anger them is wiped off from the earth along with his descendants, clan-hierarchy.
परशुराम जी ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया। चाणक्य ने नन्द कुल का नाश किया। वर्तमान काल में ब्राह्मणों का तिरस्कार-अपमान किया जा रहा है, जो कि नेताओं के लिए चेतावनी है!
Parshu Ram Ji wiped off the Kshtriy-marshal caste from the earth 21 times. Chanky vanished the Nand dynasty. The leaders-Netas-politicians who are insulting, torturing the Brahmns, depriving them off suitable jobs are bound to be doomed-marooned-destroyed for their irrational behaviour.
ब्रह्महत्या :: ब्राह्मण की हत्या एक जघन्य अपराध और पाप है। ऐसा करने वाले को ब्रह्म हत्या लग जाती है जो उसे नर्क यातना प्रदान करती है। देवराज इन्द्र को ब्रह्म हत्या लगने पर अपने पद से च्युत होना पड़ा और भयंकर कष्ट भोगने पड़े। 
Brahman's murder is the worst possible sin and place the murderer in hells from where he is released after millions of years to become insect. Brahm Hatya led Dev Raj Indr to remove him from his seat in the heaven and suffering.
पूर्व काल में वृत्रासुर और इन्द्र में 11,000 वर्ष तक युद्ध हुआ, जिसमें इन्द्र की हार हुई और वे भगवान् शिव के शरणागत हुए। इन्द्र को वरदान प्राप्त हुआ और उन्होंने प्रभु कृपा से, वृत्रासुर का वध किया, जो ब्राह्मण पुत्र था। इस लिये उन्हें ब्रह्म हत्या लग गई। वे ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्महत्या ने इन्द्र के शरीर से हटने के लिये अन्य स्थान माँगा, तो उन्होंने उसे 4 भागों में बाँट दिया। 
पहला भाग अग्नि देव को मिला। जो कोई प्रज्वलित अग्नि में बीज, औषध, तिल, फल, मूल, समिधा और कुश की आहुति नहीं डालेगा, ब्रह्महत्या अग्नि को छोड़ कर उसे लग जायेगी।
दूसरा भाग वृक्ष, औषध और तृण को मिला। जो कोई व्यक्ति मोह वश अकारण, इन्हें काटेगा या चीरेगा, ब्रह्म हत्या, इन्हें छोड़ कर उसे लग जायेगी।
तीसरा भाग अप्सराओं को मिला। जो कोई व्यक्ति रजस्वला स्त्री से मैथुन करेगा, यह तुरन्त उसे लग जायेगी। 
चौथा भाग जल ने गृहण किया। जो व्यक्ति अज्ञानवश जल में थूक, मल-मूत्र डालेगा, वही ब्रह्महत्या का निवास बन जायेगा। 
प्राचीन काल से ही कोई भी न्यायाधीश, इस भय से ब्राह्मण को प्राण दण्ड नहीं देता था।
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते। 
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे॥मनु स्मृति 1.86॥
सतयुग में तपस्या, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापरयुग में यज्ञ और कलियुग में दान प्रधान धर्म माना गया है। 
The principal tenant of Dharm in Sat Yug is asceticism-austerities, in Treta Yug it is enlightenment, in Dwapar Yug it is Yagy-sacrifices in holi fire and during Kali Yug it is donation-charity.
कलियुग में भगवन्नाम का जप करने से भी मनुष्य-प्राणी का उद्धार सम्भव है।
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्य्र्थं स महाद्द्युतिः। 
मुखबाहूरूपज्जानां प्रथक्कर्माण्यकल्पयत्॥मनु स्मृति 1.87॥
महातेजस्वी ब्रह्मा जी ने इस सम्पूर्ण विश्व के रक्षार्थ मुख, बाहू, जँघा और पाँव से उत्पन्न होने वाले जीवों के अलग-अलग कर्मों की कल्पना की है। 
Brahma Ji assigned different duties-roles to different humans beings born out of his different organs-parts of his body i.e., mouth, hands-arms, thighs and the feet for the protection, survival, perpetuation of this universe.
अध्यापनमध्ययनं यजन तथा। 
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥1.88॥ 
ब्राह्मणों के लिये पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना दान देना, दान लेना, ये 6 कर्म निश्चित किये गये हैं।
6 deeds have been fixed-assigned for the Brahmans namely learning, teaching-educating, performance of holy sacrifices, helping in performing holy sacrifices in fire, accepting donation and donating to others. In narrow terms learning stands for reading, writing, grasping, practicing, thinking, analysing, interpreting, teaching Veds. But in practice learning has 64 openings and then each opening may have further 64 tracts for comprehensive learning.
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥1.89॥ 
क्षत्रियों के लिये संक्षेप से प्रजाओं की रक्षा, दान, यज्ञ करना, पढ़ना, विषयों (गीत-नृत्यादि) में आसक्त न होना, ये 5 कर्म निश्चित किये गए हैं।
The Kshatriy have been assigned the 5 tasks namely protecting the people, donations, performance of Yagy, learning-education, to remain away from music-dance-passions, sensuality, sexuality, lust. Learning for warriors-Kshtriy stands mainly warfare, weapon systems, administration, protection of populations.
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। 
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥1.90॥ 
पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, रोजगार, सूद पर रुपया देना और कृषि करना , ये वैश्यों के कर्म हैं।
The Vaeshy had been assigned the duty of tending-caring, nurturing cattle, donations-charity, performing Yagy, studies-education (book keeping, accounting, business studies, commerce, trading, craftsmanship-opening factories etc.) employment in various jobs related to them, lending money and agriculture-cultivation of land.
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्। 
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥1.91॥ 
ब्रह्मा जी ने उपयुक्त तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और शुद्र) का गुणानुवाद (Eulogy, Relating or glorifying the virtues of Encomium) करते हुए सेवा करना; यह एक ही कर्म शूद्रों के लिए निश्चित किया है।
Brahma Ji-the creator fixed just one duty for the Shudr & that was the service of the mankind-humans of the earlier three divisions-castes, categories i.e., Brahmn, Kshtriy & Shudr.
Society needs service personnel of all categories. Brahma Ji distinguished between them on the basis of genes & chromosomes. No conflict occurs till each and every one performs his duty.
उध्र्वं नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः।
तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमुक्तं स्वयंमुवा॥1.92॥ 
नाभि से ऊपर पुरुष-मनुष्य अत्यन्त पवित्र माना गया है, उससे भी पवित्र (शरीर के सभी अंगों की तुलना में) ब्रह्मा जी ने मुख को ही माना है।
Brahma Ji considered the upper part of the body of a man-humans, above naval; to be the purest & amongest them the mouth is purest compared to other parts of the body.
उत्तमाङ्गोद्भवज्ज्यैष्ठयाद् ब्राह्मणच्श्रैव धारणात्।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥1.93॥ 
उत्तमाङ्ग-मुख से उत्पन्न होने और वेद को धारण करने के कारण इस सम्पूर्ण संसार का स्वामी धर्म से ब्राह्मण ही है।
Brahmn is the master-owner of the universe since he has evolved from the mouth and bears the Veds in accordance with the Dharm-religion.
तं हि स्वयंभू: स्वादास्यात्तप्त्वावादितो सृजत्।
हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥1.94॥ 
ब्रह्मा जी ने तपस्या करके सबसे पहले देवता और पितरों को हव्य-कव्य पहुँचाने के लिये और सम्पूर्ण संसार की रक्षा करने के हेतु अपने मुख से ब्राह्मण को उत्पन्न किया।
Brahma Ji resorted to asceticism, austerities-Tapasya & created the Brahmns first, so that the offerings-food reach the demigods & the Manes; for the sake of the protection of the universe.
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः।
कव्यानि चैव पितर: किं भूतमधिकं ततः॥1.95॥ 
 जिस ब्राह्मण के मुख से देवगण हव्य और पितृगण कव्य कहते हैं उससे कौन प्राणी श्रेष्ठ हो सकता है।
What can be superior to the mouth of the Brahmn through which the demigods receive their food, offerings (sacrificial viands, खाद्य-पदार्थ) in the sacrificial fire and the manes gets the fairings (उपहार)!?
भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धजीविनः।
बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा: नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:॥1.96॥ 
भूतों (स्थावर, जङ्गम रूप पदार्थों) में (कीटादि) श्रेष्ठ हैं, प्राणियों में बुद्धि से व्यवहार करने वाल पशु श्रेष्ठ हैं, बुद्धि रखने वाले जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण (यज्ञ-यागादि कर्मों से श्रेष्ठ होते हैं)।
Out of the whole immovable creations the insects are superior, among the organisms, animals, creations-living being which have intelligence; humans are superior and the Brahmans are superior amongest all the humans, since they perform sacrifices in fire-Hawan, Agnihotr, ascetic practices.
A Brahmn is supposed to perform rites, rituals, prayers, Pooja-Path, ascetic practices, fasts, worshipping the God, purity, piousity, cleanliness, Tapasya, austerities, honesty etc, which is really very difficult for a human being these days. So, the Brahmns of today are for the name sake only. There are people who use Sharma as suffix but do every thing wicked, vice-vicious, sinful.
ब्राह्मणेषुन् च विद्वान्सो विद्वत्सु कृतबुद्धय:।
कृतबुद्धिषु कर्तार: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥1.97॥ 
ब्राह्मणों में विद्वान्, विद्वानों में कृत बुद्धि (शात्रोक्त अनुष्ठानों में उत्पन्न कर्तव्य बुद्धि वाले) इनसे कर्म करने वाले और इनसे ब्रह्म ज्ञानी श्रेष्ठ हैं।
Brahmns too are categorised in order of their performances-excellence. Amongest the Brahmns by birth, the enlightened is superior, to him one who perform according to the scriptures-Veds is superior, then the one who perform, does work-is active and is earning his livelihood and then the uppermost strata is occupied by the one who has realised the Brahm.
One who claims himself to be a Brahmn, since he is born in a Brahmn family is mistaken. He has to learn Veds, scriptures and the various combinations of arts and sciences listed in groups of 64, is essential and only then he is called a Dwij-born twice. One who eats meat, use narcotics, consume wine, has illicit relations with other women, tells lies or is a criminal can not claim to be a Brahmn.
Learning is incomplete unless-until its grasped-understood, applied in life. Rote memory-cramming was never advocated. Utilisation of memory, wisdom & prudence was essential, which made the Brahm occupy the apex in hierarchy.
उतपत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शास्वती।
स हि धर्मार्थ मुतपन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥1.98॥ 
ब्राह्मण की उत्पत्ति धर्म की शास्वत मूर्ति है। ब्राह्मण  धर्म के ही लिये उत्पन्न होता है। इसलिये यह मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है।
The Brahmn is the eternal creation of Dharm-religion, duty and is created by Brahma Ji to perpetuate religiosity in the humans-populations.He is capable of achieving Salvation, Liberation-Assimilation in the Almighty.
Salvation is not solely meant for the Brahmns. Any one who is pure-uncontaminated can achieve it, just by following the tenants set for him by the creator-Brahma Ji. The Shudr is specifically to be mentioned; since its easiest job for him. Just by serving the masters, he is granted Salvation.
ब्राह्मणों जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥1.99॥ 
इस पृथ्वी पर ब्राह्मण ही सबसे श्रेष्ठ और उन्नत होता है, वह सभी प्राणियों के धर्मकोश की रक्षा करने में समर्थ होता है।
In this universe only the Brahmn is ultimate (excellent and developed) in various living beings-organisms and is devised to protect the Dharm of all other organisms including the humans.
सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किञ्चिज्जगतीगतम्।
श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोंऽर्हति॥1.100॥ 
इस संसार में जो कुछ है वह सब धर्म ब्राह्मणों का है क्योंकि सबसे श्रेष्ठ उत्पत्ति होने के कारण वह ब्राह्मण ही इसका अधिकारी है।
Everything in this universe belongs to the Brahmns, since they are the ultimate & are entitled for this status.
स्वमेव ब्राह्मणों भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
आनृशंस्याद् ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जना:॥1.101॥ 
ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपना ही दान देता है (अर्थात दूसरे का अन्न, वस्त्रादि सब ब्राह्मण का ही होता है)। ब्राह्मण ही की कृपा से अन्य लोग पदार्थों को भोगते हैं।
The Brahmn enjoys his own food, wears his own dresses and donates his own wealth, since everything possessed by others belongs to him. Its the Brahmn who's generosity-benevolence let's enjoy others.
The scriptures says that the earth belongs to Shukrachary-the Guru of demons & a Brahmn. Bhagwan Parshu Ram Ji annihilated the earth of the Kshatriys 21 times and handed over it to the Brahmns who repeatedly handed over it the Kshatriys. Thus the ruler is just a lessee, not the master. Bhagwan Brahma created the universe and so he is the master making the Brahmns the master of the earth, none other person except them.
तस्य कर्म विवेकार्थं शेषाणामनु पूर्वशः।
स्वायंभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥1.102॥ 
उसके (ब्राह्मण) और अन्य वर्णों के कर्मों के जानने के लिये ही बुद्धिमान् स्वायंभुव मनु ने इस शास्त्र की रचना की।
Swayambhuv Manu (He who evolved himself without parents) created this treatise to describe the duties of the other Varns (Four major castes, divisions of humans beings based on genetic structure-material i.e., genes & chromosomes).
विदुषा ब्रह्मणेनेदमध्येतव्यं प्रयत्नतः। 
शिष्येभ्यश्च देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते॥1.103॥ 
विद्वान् ब्राह्मण इस शास्त्र को अच्छी तरह पढ़ें और यत्न पूर्वक शिष्यों को भी पढावें तथा किसी अन्य को न पढावें।
The learned-enlightened prudent Brahmn, who has thoroughly grasped, understood, this treatise should teach this to his disciples-students with deep interest, carefully explaining their queries-doubts (प्रश्नों, सवाल, शंका, संदेह)  and deter from teaching this to any one else i.e., those who do not deserve.
This treatise is very-very intricate and requires genius person to understand. This is explaining the social structure, culture, scientific principles and various aspects of life.
इदं शास्रमधीयानो ब्राह्मणः शंसितव्रतः।
मनोवाग् देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते॥1.104॥ 
इस शास्त्र के अध्ययन करने वाला और इसके अनुसार अनुष्ठान करने वाला ब्राह्मण मन, वचन और शरीर से होने वाले कर्मों के दोषों से रहित होता हैं।
The Brahmn who studies-grasps & acts in accordance with the principles-tenets of this treatise becomes free from defects, sins & troubles of body, mind, speech and the soul.
Mere reading is useless.Meditation after studying it, is essential.Then one should prepare himself to face the rigours associated with it & only then he should continue with it. Learning involves understanding and proper application.
पुनाति पंक्तिं वंशयांच्श्र सप्त परावरान्।
पृथ्वीमपि चैवेमां कृत्स्नानामेकोऽपि सोऽर्हति॥1.105॥ 
शास्त्र को अध्ययन करने वाले व्यक्ति अपनी आगे और पीछे की सात-सात पुश्तों-पीढ़ियों को पवित्र करके उनका उद्धार करता है और अकेला ही इस पृथ्वी का उद्धार करने योग्य होता है।
One who has adopted this treatise in his life, becomes free from sins and leads to the release of his next 7 generation as well as the previous 7 generations (seven generations of ancestors-Manes and seven generations of descendants), from hells and life cycles-reincarnations. He becomes capable of sustaining and purifying the earth as well.
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम्। 
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥[मनु स्मृति 2.127]
ब्राह्मण से कुशल, क्षत्रिय से निरामय (आरोग्य, स्वास्थ्य) कुशलक्षेम, वैश्य से क्षेम (Well-being, Security, Prosperity, Easy or comfortable state) और शूद्र से आरोग्यता साक्षात्कार होने पर पूछे। 
One should ask about the well being (whether he has sufficient money to live comfortably-survive) to the Brahmn, about his health-might to the Kshtriy-warriors, pertaining to business, security, prosperity to the Vaeshy, traders-businessmen and the Shudr should be asked about his state of health as and when one meets them.
This is in accordance with the duties assigned to them by the scriptures.
निरामय :: जिसे कोई रोग न हो, निरोग, स्वस्थ, निर्मल, सकुशल, आरोग्य; Free from illness, Pure, Untainted, Free from disease.
क्षेम :: कुशल-मंगल, सुख-चैन, ख़ैरियत, Safety, well-being.
अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवियानपि यो भवेत्। 
भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मवित्॥[मनु स्मृति 2.128]
दीक्षा प्राप्त यदि अपने से छोटा हो तो भी उसका नाम नहीं लेना चाहिये, धर्मात्मा पुरुष भो: अथवा भवन शब्द कहकर उसके साथ बातचीत करे। हे तात्शि, ष्य-प्रिय! आदि सम्बोधनों का प्रयोग किया जा सकता है। 
One who has been baptised-initiated into education (celibate, Brahmchari)  should not be addressed by name, even if he younger to one and call him as Bho or Bhuvan. He may be addressed Hey, dear-child! which indicates love & affection like a father or mother.
परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बन्धा च योनित:। 
तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च॥[मनु स्मृति 2.129]
जो दूसरे की स्त्री हो और जिससे किसी प्रकार का सम्बन्ध (रिश्ता) नहीं हो उसे भवति (आप), सुभगे अथवा भगिनी कहकर बातचीत करना चाहिये। 
One should talk respectfully-honourably to the woman who is not related  to him or is not a blood-relation, as Lady, sister, Subhge etc.
मातुलांश्र्च पित्रवयांश्र्च श्र्वशुरानृत्विजो गुरुन्। 
असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय यवियस:॥[मनु स्मृति 2.130]
मामा, चाचा, श्वसुर, पुरोहित और गुरुजन (वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध) यदि अपने से छोटे हों, तब भी उठकर इतना कहे कि यह मैं हूँ। 
One should get up from his seat and welcome the visitors like maternal uncle, uncle, father in law, Gurus (elders, enlightened-learned) even if they are younger to him and introduce himself by spelling his name.
ब्राह्मणायावगुर्यैव द्विजातिर्वधकाम्यया। 
शतं वर्षाणि तामिस्रे नरके परिवर्तते॥[मनु स्मृति 4.165]
जो द्विजाति ब्राह्मण को मारने की इच्छा से क्रुद्ध होकर लाठी उठता है वह सौ वर्ष तक तामिस्त्र नामक नरक में चक्कर खाता है। 
One who raise the staff-arms with the aim-desire of killing, striking a Brahmn has to stay-roam in deadliest-dreaded hell called Tamistr for 100 years.
ताडयित्वा तृणेनापि संरम्भान्मतिपूर्वकम्। 
एकविंशतीमाजातीः पापयोनिषु जायते॥[मनु स्मृति 4.166]
जो क्रोध में आकर ज्ञानतः एक तिनके से भी ब्राह्मण को मारता है, वह उस पाप के फल स्वरूप 21 बार पाप योनियों में अर्थात कुत्ता आदि नीच योनियों में जन्म लेता है। 
One who knowingly-intentionally strike a Brahmn even with a straw, with anger goes to inferior species like dogs for 21 rebirths 
अयुध्यमानस्योत्पाद्य ब्राह्मणस्यासृगङ्गतः। 
दुःखं सुमहदाप्नोति प्रेत्याप्राज्ञतया नरः॥[मनु स्मृति 4.167]
जो कोई न लड़ने वाले ब्राह्मण के शरीर से लहू बहाता है, वह अपनी मूर्खता के कारण परलोक में कष्ट पाता है। 
The ignorant-idiot, who shed blood out of the body of a Brahmn who does not fight, suffers in next births-other abodes.
शोणितं यावतः पांसून्संगृह्णाति महीतलात्। 
तावतोऽब्दानमुत्रान्यैः शोणितोत्पादकोऽद्यते॥[मनु स्मृति 4.168]
ब्राह्मण का गिरा हुआ रक्त मिट्टी के जितने अणुओं को भिगोता है, उतने वर्ष परलोक में उस रक्त बहाने वाले को हिंस्त्र जीव काटते और खाते हैं। 
One who shed the blood of a Brahmn, has to be bitten and eaten by the carnivorous animals in next births-abodes for as many years as the atoms-molecules of the earth were damped, soaked, wrapped by the Brahman's blood.
न कदाचित् द्विजे तस्माद्विद्वानवगुरेदपि। 
न ताडयेत्तृणेनापि न गात्रात्स्रावयेदसृक्॥[मनु स्मृति 4.169]
इसलिये विद्वान पुरुष ब्राह्मण पर भूलकर भी दण्ड उठावे, तृण से भी न मारे उसके शरीर से रक्त न बहावे। 
A wise man should therefore neither raise the staff to harm, threaten, punish a Brahmn nor strike him even with a straw-blade of grass and never bleed him.
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। 
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्॥[मनु स्मृति 8.350]
गुरु, बालक, वृद्ध या बहुत शस्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी होकर मारने के लिये आये तो उसे बेखटके मार डालें।
One must kill-slay without hesitation if a Guru, child, old man or a Brahmn who has learnt many scriptures come to kill-murder.
Bhagwan Shri Ram did not hesitate in killing Ravan who was a Brahmn by birth and one of the most learned man on earth with the knowledge of all scriptures including Ved and astrology. Achary Dron was killed by Dhrasht Dhyumn due to this reason only. Dev Raj too killed Vrata Sur a Brahmn by birth. Pandavs were sinned on this account as well. They all had to undergo penances for this act. Ashwatthama was pardoned by Dropadi being the son of Guru and a Brahmn. However being Ajar & Amar & an incarnation of Bhagwan Shiv he could not be killed. He killed Dropadi's sons over the orders of Bhagwan Shiv but he crossed the limits and targeted the Brahmastr over Abhimanyu's son in the womb.
न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि। 
तस्मादस्य वधं राजा मनसाऽपि न चिन्तयेत्[मनु स्मृति 8.381]
ब्राह्मण के वध से बढ़कर संसार में दूसरा कोई पाप-अपराध नहीं है। इसलिये राजा उसके वध की चिंता कभी मन से न करे। 
यह नियम काम विकारों-अपराधों से सम्बन्धित है। कौरव वंश भगवान् वेद व्यास से ही कायम रहा और भगवान् श्री राम का रघुवंश भी महर्षि वशिष्ठ की कृपा से ही आगे बढ़ा। व्यवहार में बहुत लोग बच्चे पैदा करने में सक्षम नहीं होते। उनकी पत्नियाँ प्रताड़ना से बचने के लिए अन्यत्र प्रयास करती हैं। आज भी समाज में नियोग प्रथा कायम है। नियोग में ब्राह्मण या स्त्री की ओर से वासना का अंश नहीं होना चाहिये।पुरुष और विशेषतः ब्राह्मण को कभी भी आगे बढ़कर यह कार्य सम्पादन नहीं करना चाहिये। इस प्रकार की संतान का पिता सम्बन्धित स्त्री का पति हो होता है। 
It does not contradicts postulate [मनु स्मृति 8.350]. This postulate pertains to sexual offences-advances. Kaurav clan continued due to Bhagwan Ved Vyas and the Raghu Vansh continued due to Mahrishi Vashishth. In practice a large number of people are functionally impotent and are unable to produce children. In such situations the woman resort to sexual relations else where to protect them selves from the torture in the family. An ancient practice by the name of NIYOG still prevail in the Hindu society in which the woman mates with intellectual able bodied, pious, virtuous Brahmns with the permission of her husband and in laws. The progeny gets the title of its father only not the biological father. 
परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत्। 
ते ह्येनं कुपिता हन्युः सद्यः सबलवाहनम्॥[मनु स्मृति 9.313] 
अत्यन्त विपत्ति आने पर भी राजा ब्राह्मणों को कुपित न करे। यदि ब्राह्मण कुपित हो जायें तो सेना और वाहन के साथ उसका नाश कर देते हैं। 
The king should never anger-provoke the Brahmns under any-most difficult (intricate, typical) circumstances. Infuriated Brahmns can crush-destroy him along with his army and the carriers-vehicles.
One after another regimes lost their empire due to the anger of Brahmns. Recently the Muslim regime of Nehru dynasty was unseated. Now, its the turn of another party BJP, which has indulged in harming the Swarn especially the Brahmns.
यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्निरपेयश्च महोदधिः। 
क्षयी चाप्यायितः सोमः को न नश्येत् प्रकोप्य तान्॥[मनु स्मृति 9.314] 
जिन्होंने (ब्राह्मणों ने) अग्नि को सर्वभक्षी, समुद्र को अपेय और चन्द्रमा को क्षय होने वाला बना दिया, भला उनके कुपित हो जाने पर कौन नष्ट नहीं होगा!? 
Who would escape unhurt-unharmed, by provoking-angering the Brahmns who made Agni Dev eater of every thing (whether good or bad), made ocean water unfit for drinking and made Moon with continuous loosing and gaining shine.
The Brahmn has the strength due to his Tapasya-asceticism, self imposed suffering of surviving with minimum needs-requirements, facing extreme heat, cold and showers and worst ever social conditions as are prevailing at present. He is taunted, tortured, harassed, blasphemed by the Shudr.
लोकानन्यान्सृजेयुर्ये लोकपालांश्च कोपिताः। 
देवान् कुर्युरदेवांश्च कः क्षिण्वंस्तान्समृध्नुयात्॥[मनु स्मृति 9.315] 
कुपित होने पर जो अन्य लोकों की और लोकपालों की रचना कर सकते हैं और देवताओं को मनुष्य बना सकते हैं, उनको छेड़कर कौन समृद्धिशाली हो सकता है?! 
Who can either prosper or retain his glory & wealth by disturbing-teasing the Brahmns, who are capable of creating new universes and appoint the governors-guardians of all directions?!
The manner, the impact of the remaining three cosmic era remain in a specific era, Brahmns with might, power Mantr Shakti remain in every era. The Sapt Rishis, Bhagwan Parshu Ram, Bhagwan Ved Vyas are still present over this earth. 88,000 Rishis are also meditating in the deep caves of Himalay, over laden with ice.
यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा। 
ह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात्ताञ्जिजीविषुः॥[मनु स्मृति 9.316]
जिनके आश्रय से लोक और देवता सदा रहते हैं, जिनका ब्रह्म ही धन है, उनको जीने की इच्छा वाला कौन सतायेगा?! 
Who would trouble the Brahmn desirous of life; who solely depends upon the God and whose support is essential for the universe to survive and existence of demigods?!
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्। 
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत्॥[मनु स्मृति 9.317]
जिस प्रकार वैदिक और अवैदिक रीति से स्थापित की हुई अग्नि महान देवता है, उसी तरह ब्राह्मण पंडित हो या मूर्ख, महान देवता है। 
The manner in which the fire is a great deity irrespective of its ignition through Vaedic (meant for oblations) or non Vaedik means (for cooking, burning the dead or waste); in the same manner the Brahmn too is a great demigod whether he is a Pandit (educated, scholar, learned, enlightened) of fool (uneducated, ignorant, imprudent, moron, duffer, idiot).
श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति। 
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते॥[मनु स्मृति 9.318]
श्मशान में भी तेजस्वी अग्नि दूषित नहीं होती और हवन करने से तो वह बढ़ती ही है। 
The fire in funeral pyre remain uncontaminated and become brilliant by carrying out Hawan. 
Cremation through Vaedik procedures-means a process carried just like Agnihotr, Hawan, holy sacrifices with pure deshi ghee, wood, barley, honey etc.
Yagy-Hawan are the deeds-processes which cleanse the environment by killing germs, bacteria, viruses, microbes. 
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु। 
सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्॥[मनु स्मृति 9.319]
उसी प्रकार सभी प्रकार के अपवित्र कार्यों में संलग्न रहने पर भी ब्राह्मण पूजनीय है, क्योंकि वह परम् देवता है। 
In this manner the Brahmn is revered in spite of engaging in impure activities (mean occupations, service) since he is the Ultimate demigod. 
Circumstances may compel the Brahmn to accept patty jobs for the sake of survival which do not degenerate-lower his status, since he is still busy with prayers, worship, devotion to the Almighty undertaking fasting, meditation, Yog, ascetics. 
क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान्प्रति सर्वशः। 
ब्राह्मैव संनियन्तृ स्यात्क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम्॥[मनु स्मृति 9.320]
सब प्रकार से अत्यंत उत्कट रूप से ब्राह्मणों को पीड़ा देने वाले क्षत्रिय का शासन ब्राह्मण ही कर सकता है, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है। 
Only a Brahmn can restrain-control, punish-discipline, the Kshatriy-ruler who torture-tease the Brahmns in all possible manner; since the Kshatriy has his origin in the Brahmn.
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट् कर्माणि यथाक्रमम्[मनु स्मृति 10.74]
जो ब्राह्मण अपने कर्म में संलग्न और ब्रह्मनिष्ठ हैं, वे आगे कहे हुए छः कर्मों का भली भाँति अनुष्ठान करें। 
Those Brahmns who are devoted to their prescribed and mandatory duties and are absorbed in contemplating Brahm or the oneself (own Spirit) should resort to the six acts which follows.
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मनः[मनु स्मृति 10.75]
अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह; ये छः कार्य ब्राह्मणों के हैं। 
Teaching, learning-studying, performing Yagy (Hawan, sacrificing in holy fire, Agnihotr) for self & others, giving & accepting donations-charity are the six deeds listed for the Brahmns.
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः[मनु स्मृति 10.76]
इन छः कर्मों में तीन काम याजन (यज्ञ कराना), अध्यापन और विशुद्ध दान लेना ब्राह्मणों की जीविका है। 
Out of the six deeds, three deeds viz. teaching, performing Yagy for others and accepting donations as fee-Dakshina, earned through pure means by the host, constitute the means of survival, earning, subsistence of the Brahmns.
अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन कर्मणा।
जीवेत्क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य प्रत्यनन्तरः[मनु स्मृति 10.81]
यदि ब्राह्मण अपने यथोक्त कर्म से जीविका न करे तो क्षत्रिय धर्म से जीविका चलावे, क्योंकि क्षात्र धर्म ही उसके निकट धर्म है। 
If the Brahmn is unable to maintain his family through teaching, performing Yagy for others, he may adopt Kshatriy Dharm of saving-protecting others, i.e., he may join army or forces.
Dronachary, Krapachary and Ashwatthama were great warriors unmatched. Parshu Ram made the earth free from the atrocities of Kshatriy 21 times. Dronachary sacrificed his life in Maha Bharat war but remaining three are still alive.
The Brahmns provided training in warfare to the Kshatriy which necessitated expertise in warfare on their part. They had expertise in arms and ammunition as well. The scriptures describe use of fire arms-weapons at length which needed expertise on the part of the teacher.
उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद्भवेत्।
कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम्[मनु स्मृति 10.82]
यदि दोनों प्रकार की जीविका से ब्राह्मण अपनी जीविका न चला सके तो उसकी जीविका कैसे हो!? ऐसी स्थिति में खेती और गौ रक्षा को करके वैश्य वृत्ति से अपनी जीविका चलाये।
In case the Brahmn is unable to survive through the two means discussed earlier, he may resort to agriculture and rearing of cows, which is the profession of the Vaeshy, under duress.
After the onset of Buddhism, the Brahmns suffered a lot and engaged themselves in agriculture and rearing of cattle. Even after independence under successive regimes, their position has not changed. They are facing insult at the hands of scheduled castes who reach high positions in society without any talent, calibre, quality, just because they are scheduled castes. The irony is that most of these people do not deserve even low positions-cadre jobs like peon!
वैश्यवृत्त्याऽपि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्षत्रियोऽपि वा।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत्[मनु स्मृति 10.83]
वैश्य की वृत्ति से जीवन यापन करता हुआ ब्राह्मण या क्षत्रिय हिंसा वाली पराधीन कृषि को यत्न पूर्वक त्याग दे। 
The Brahmns and Kshatriy should reject the services meant for the Vaeshy involving violence adopted by them for survival.
The Brahmn should continue with regular prayers, worship, Yagy in spite of all odds.
कृषिं साध्विति मन्यन्ते सा वृत्तिः सद्विगर्हिताः।
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम्[मनु स्मृति 10.84]
कृषि कर्म श्रेष्ठ है, ऐसा कोई-कोई मानते हैं, किन्तु सज्जनों ने कृषि की निन्दा की है, क्योंकि खेती के औजार (फरसा, फार, हल) से भूमि और भूमि और भूमि में रहने वाले जीवों का नाश होता है। 
Some people believe agriculture to be an excellent trade-profession but  gentleman opines that its not a noble profession meant for the Brahmns, since it involves tilting-ploughing the fields and killing of insects etc. by the agricultural appliances.
A Brahmn engaged in farming should resort to regular fasts on Amavashya-no moon night. He should pledge donations-alms to the beggars-needy, as well. He should reward the low castes associated with him in farming, as well.
इदं तु वृत्तिवैकल्यात्त्यजतो धर्मनैपुणम्।
विट्पण्यमुद्धृतोद्धारं विक्रेयं वित्तवर्धनम्[मनु स्मृति 10.85]
जिन ब्राह्मण या क्षत्रियों ने अपनी निज वृत्ति से जीविका असम्भव समझकर अपने धर्म नैपुण्य का त्याग किया हो, वे वैश्यों के व्यापार पदार्थों को छोड़कर अन्य वस्तुओं का व्यापार अपने धन को  बढ़ाने के लिये करें। 
The Brahmn or Kshatriy who have deserted their own Varn Dharm after finding it impossible to survive by continuing it, should resort to trading-business but in those commodities only in which the Vaeshy are not dealing, to boost their income.
During the current era Kali Yug people from all walks of life, castes-Varn are resorting to those jobs which were not meant for them, causing chaos. Brahmns are seen working as hair dressers, beauticians, dry cleaners, sanitary inspectors. The worst has happened, the Brahmns from noble families resort to cleaning streets to survive.
सर्वान्रसानपोहेत कृतान्नं च तिलैः सह।
अश्मनो लवणं चैव पशवो ये च मानुषाः[मनु स्मृति 10.86]
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं  का व्यापार न करें :- सभी प्रकार के रसों से युक्त पदार्थ, अन्न से बने पदार्थ, तिल, पत्थर, नमक, पशु और मनुष्य। 
The Brahmn & Kshatriy who had to abandon their Dharm under distress should never resort to selling these items :- condiments of all sorts, cooked food and sesamum, stones, salt, cattle and human beings (slaves). 
CONDIMENTS :: चटनी, छौंक, बघार, मसाला।  
सर्वं च तान्तवं रक्तं शाणक्षौमाविकानि च।
अपि चेत्स्युररक्तानि फलमूले तथौषधीः[मनु स्मृति 10.87]
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं  का व्यापार न करें :- सभी प्रकार के बने वस्त्र, लाल रंग, तीसी की छाल और ऊनी वस्त्र, यदि रंगे न हों, तब भी और फल, मूल और औषधि। 
The Brahmn & Kshatriy who had to abandon their Dharm under distress should never resort to selling these items :- prohibited items include all dyed cloth, as well as cloth made of hemp or flax or wool, even though they are not dyed, fruit, roots and medicinal herbs.
अपः शस्त्रं विषं मांसं सोमं गन्धांश्च सर्वशः।
क्षीरं क्षौद्रं दधि घृतं तैलं मधु गुडं कुशान्[मनु स्मृति 10.88]
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं  का व्यापार न करें :- पानी, हथियार, विष, माँस, सोम रस, सभी प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, दूध, दही, घी, तेल, मधु, गुड़ और कुश। 
The Brahmn & Kshatriy who had to abandon their Dharm under distress should never resort to selling these items :- forbidden items include water, weapons, poison, meat, Soma Ras and perfumes of all kinds, milk, honey, curd, Ghee-clarified butter, oil, honey, jaggery-sugar, Kush-grass.
आरण्यांश्च पशून्सर्वान्दंष्ट्रिणश्च वयांसि च।
मद्यं नीलिं च लाक्षां च सर्वांश्चैकशफांस्तथा[मनु स्मृति 10.89]
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं  का व्यापार न करें :- सभी प्रकार के जंगल में रहने वाले पशु-जानवर, दाढ़ वाले पशु, पक्षी, मदिरा, नील, लाख और जिन पशुओं का खुर जुड़ा हो उन्हें न बेचे। 
The Brahmn & Kshatriy who had to abandon their Dharm under distress should never resort to selling these items :-  all sorts of animals which live in forest, beasts-meat eaters, animals with fangs or tusks, birds, wine-liquor, alcoholic liquids-extracts, indigo, lac and all one-hoofed animals.
काममुत्पाद्य कृष्यां तु स्वयमेव कृषीबलः।
विक्रीणीत तिलाञ्शूद्रान्धर्मार्थमचिरस्थितान्
अपनी किसी फसल में अन्य धानों के साथ अधिक मात्रा में तिल पैदा कर धर्माथ उसे बेचें।[मनु स्मृति 10.90]  
He should grow sesame along with other grains and sell them for sacred-religious purposes.
याजन और अध्यापन से किया हुआ पाप जप और होम से नष्ट होता है और प्रतिग्रह से जो पाप होता है, वह प्रतिग्रह से ली गई वस्तु के त्याग और तपस्या से नष्ट होता है।
जपहोमैरपेत्येनो याजनाध्यापनैः कृतम्।
प्रतिग्रहनिमित्तं तु त्यागेन तपसैव च
याजन और अध्यापन से किया हुआ पाप जप और होम से नष्ट होता है और प्रतिग्रह से जो पाप होता है, वह प्रतिग्रह से ली गई वस्तु के त्याग और तपस्या से नष्ट होता है।[मनु स्मृति 10.111] 
The sin acquired by virtue of accepting money-fee, Dakshina for performing Yagy & teaching others is rectified (removed, cleansed) through recitation of God's prayers and performing Yagy for self. The obligation caused by accepting any thing in return is nullified by discarding the gifts and subjecting self to asceticism, austerities.
शिलौञ्छमप्याददीत विप्रोऽजीवन्यतस्ततः।
प्रतिग्रहाच्छिल: श्रेयांस्ततोऽप्युञ्छः प्रशस्यते
इधर-उधर जीविका के लिये प्रतिग्रह न लेकर ब्राह्मण शिलोञ्छवृत्ति का आश्रय ले। प्रतिग्रह से शिलवृत्ति अच्छी है और शिल से उञ्छवृत्ति अच्छी है।[मनु स्मृति 10.112]  
In stead of collecting alms or gifts or begging hither & thither the Brahmn should resort to survival just by collecting the staff bearing food grains (wheat ear) which falls over the land in a harvested field. This is better than collecting alms. Still better-laudable than this is gleaning-collection of food grains in the harvested field. 
Leading such a harsh life and still blamed for the troubles of Shudr, those who are parasites on present Indian community. They are gifted most of the funds through taxes.
शिलोञ्छवृत्ति :: कटे हुए खेत की बाल का बीनकर लाना; gleaning of food grain ear from a harvested field.
उञ्छवृत्ति :: कटे हुए खेत से धन का एक-एक दाना चुनना; gleaning of food grain from a harvested field. 
सीदद्भिः कुप्यमिच्छद्भिर्धने वा पृथिवीपतिः। 
याच्यः स्यात्स्नातकैर्विप्रैरदित्संस्त्यागमर्हति
स्नातक ब्राह्मण द्रव्याभाव के कारण दुखी होकर यदि धन की इच्छा करे तो राजा से याचना करे, यदि राजा धन न दे तो, उसका राजा-राज्य त्याग कर दे।[मनु स्मृति 10.113] 
The learned-graduate Brahmn should request the king for the money if he  is under stress. If the king fails to support him, he should discard the king. 
The Learned Brahmn is supposed to be supported by the state. He should look to alternatives if the state fails to support him. Soon after the invent of Buddhism most of the kings adopted it and discarded the enlightened, learned Brahmns and the funds started flowing to monks, illiterates in the hermitages. This led to weakening of the state and Muslims captured India. The kings lost their bravery, valour, power and public support. The Brahmns too indulged in sinful acts for earning-survival. Still Dharm maintained its significance.
Its still better if one-Brahmn keep on worshiping the God, side by side.
सप्त वित्तागमा धर्म्या दायो लाभः क्रयो जयः।
प्रयोगः कर्मयोगश्च सत्प्रतिग्रह एव च
दाय (पूर्वजों की सम्पत्ति), लाभ (गढ़े हुए धन की प्राप्ति), क्रय (खरीदना), जय (जीतकर लेना), प्रयोग (ब्याज पर द्रव्य-धन देने से), कर्मयोग (खेती और वाणिज्य) और दान; ये सात रास्ते धर्म मार्ग से धन प्राप्त करने के हैं।[मनु स्मृति 10.115]  
There are seven means of earning through Dharm-righteousness modes viz. inheritance,  obtaining buried treasures, purchase, winning, earning by lending money for interest, Karm Yog (earning through labour in field-agriculture & business) and accepting donations.
यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि द्रुमान्।
तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषमात्मनः
जैसे तीव्र अग्नि हरे पेड़ों को भी जला देती है, उसी प्रकार वेदज्ञ अपने किये हुए कर्म के दोषों का भी नाश कर देता है।[मनु स्मृति 12.101] 
Vedagy, Brahmn, one who is thoroughly-well versed with the Veds is capable of eliminating the impact of the defects of his deeds-sins just like the strong fire which engulfs & burns the green trees-jungles.
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन्।
इहैव लोके तिष्ठन्स ब्रह्मभूयाय कल्पते
वेद शास्त्र के अर्थ के तत्व को जानने वाला चाहे जिस आश्रम में बास करता हो, इस लोक में ही ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है।[मनु स्मृति 12.102]  
One who knows (understand & practice) the gist of the meaning-theme behind a certain verse-Veds is able to attain Brahmatv (Godhood-the title of Bhagwan) in the current birth irrespective of the stage of life (either Brahmchary, Grahasthashram, Vanprasth, Sanyas or Varn i.e., Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr) 
अज्ञेभ्योग्रन्थिनः श्रेष्ठा ग्रन्थिभ्यो धारिणो वराः।
धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः
मूर्खों से (की तुलना में) ग्रन्थ पढ़ने वाले श्रेष्ठ होते हैं। ग्रन्थ पढ़ने वालों से धारण करने वाले श्रेष्ठ, धारण करने वालों से ज्ञानी श्रेष्ठ और ज्ञानियों से भी निष्काम कर्म करने वाला श्रेष्ठ होता है।[मनु स्मृति 12.103] 
One who studies the Veds (scriptures, history, Puran, Upnishad, Ramayan, Mahabharat) is superior-distinguished to the fools (ignorant, idiots, stupid, imprudent, mindless or the one who fails to apply his brain), one who studies the scriptures and act accordingly, is superior to the one who has just read them without going into depth, the enlightened is superior to the one who grasped the gist of Veds and the one who perform the deeds without any motive after grasping the Veds, analysing them.
तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम्।
तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते
तप और विद्या ब्राह्मण के लिये परम् कल्याणकारी है। तप सदा पाप का नाश करता है और विद्या मुक्ति दिलाती है।[मनु स्मृति 12.104]  
Ascetics &  learning of scriptures are meant for the ultimate benefit-welfare of the Brahmn. Ascetics removes all sins and learning grants Salvation, detachment from the world, reincarnations.
The Brahmn can easily achieve Supreme Bliss by resorting to austerities and learning of Veds.
प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम्।
त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिमभीप्सता
धर्म शुद्धि की इच्छा रखने वाले को प्रत्यक्ष, अनुमान और अनेक प्रकार के आगम शास्त्र (सगुण ईश्वर की उपासना की व्याख्यान करने वाले शास्त्र); इन तीनों का अच्छी तरह ज्ञान कर लेना चहिये।[मनु स्मृति 12.105] 
The Brahmn who wish to purify-cleanse himself (Dharm Shuddhi-absolute purity) should be well versed with visible, guess and various kinds of Agam Shastr.
The three kinds of evidence, perception, inference and the sacred Institutes which comprise the tradition of many established schools, must be thoroughly understood & applied in life-day to day living by the Brahmn who desires Ultimate purity.
ब्राह्मण को दान ::
(1). भगवान् वामन ने ब्राह्मण रूप में तीनों लोकों को दान में ले लिया था। तब से यह त्रिलोक ब्राह्मणों का हो गया।
(2). भगवान्  परशुराम ने 21 बार सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान में दे दिया था। तब से इस पर अधिकार ब्राह्मणों का हो गया।
(3). इस संसार के सबसे अधिक स्वाभिमानी, ब्राह्मण सुदामा को, उनके मित्र ने दो लोकों दान में दिया था।
(4). ब्राह्मण, गौ को देवता का अंश माना गया है।
आस्थावान व्यक्ति ब्राह्मणों को कर (दान देकर पुण्य कमाता है। शास्त्र के अनुसार शुक्राचार्य पृथ्वी के स्वामी हैं। ब्राह्मणों ने स्वाभाव वश राजकार्य पुनः-पुनः क्षत्रियों को सौंप दिया। अतः ब्राह्मण स्वतः ही उनसे कर लेने का अधिकारी है, जिसे दान का स्वरूप प्रदान कर दिया गया।
जो जाति मात्र से भी ब्राह्मण हो उसे प्राण दण्ड न दे। उस पर सामनीति का प्रयोग करके उसे वश में लाने की चेष्टा करे।[राम नीति]
is devoted to Brahmn Dharm.यह ब्राह्मणों की आचार संहिता है। 
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