CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
TRIPLE BOND त्रिविधि बंधन :: आत्मा का निवास तीन प्रकार के शरीरों :: स्थूल, सूक्ष्म और कारण में होता है। यही त्रिदेव भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महेश के स्थान हैं। यही त्रिलोक भी हैं। गायत्री त्रिपदा है। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में कई जगहों पर बँधन बँधे हुए हैं। उन्हें खोलने, काटने एवं छूटने बन्धन मुक्ति का निरन्तर प्रयास मनुष्य को करते रहना चाहिए। इन बन्धनों को ग्रन्थि बेध कहते हैं।
(1). ब्रह्म ग्रन्थि :: इस ग्रन्थि का स्थान जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार है। यह उत्पादन क्षेत्र है। मनुष्य शरीर की उत्पत्ति इसी केन्द्र की हलचलों से होती है। सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई है। इसलिए इस क्षेत्र पर ब्रह्मा का अधिकार माना गया है। वासनाओं की स्वामिनी जननेन्द्रिय है। वह यौनाचार से ही तृप्त नहीं होती वरन् चिन्तन क्षेत्र में भी कामुकता के रूप में समय कुसमय छाई रहती और कल्पना चित्र बनाती रहती है।
मनुष्य इसी से बन्धन में बँधता है। विवाह करता है। उसके साथ ही सन्तानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। स्त्री बच्चों की जिम्मेदारी साधारण नहीं होती। पूरा जीवन इसी प्रयोजन के लिए खपा देने पर भी उसमें कमी ही रह जाती है और मरते समय तक मनुष्य इन्हीं की चिन्ता करता रहता है।
इस पूरे प्रपंच को ऐसा बन्धन समझना चाहिए जिसे बाँधता तो मनुष्य हँसी-खुशी से है पर फिर उसी बोझ से इतना लद जाता है अन्य कोई महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाता। ब्रह्म ग्रन्थि के सम्बन्ध में दृष्टिकोण परिष्कृत करने का तरीका यह है कि जननेंद्रिय को मूत्रेन्द्रिय मात्र माना जाये तथा मल द्वार की तरह मूत्र मार्ग को भी उसी काम तक सीमित रखा जाये।
सभी वासनाग्रस्त प्राणी जब अपनी शक्ति सामर्थ्य से कहीं अधिक प्रजनन में जुटे हुए हैं। तो कुछेक आदर्शवादी व्यक्ति परिवार में इतने लोगों के बीच रहकर अपना गुजारा बिना किसी कठिनाई के कर सकते हैं। विवाह करना ही हो तो जयप्रकाश नारायण एवं जापान के गाँधी जैसा स्तर अपनाया जा सकता है।
दो मित्रों की तरह लक्ष्य की ओर बढ़ने में मिल-जुल कर काम करते रहा जा सकता है। बन्धनकारी सन्तानोत्पादन से बच निकलने के लिये अब तो ब्रह्मचर्य भी अनिवार्य नहीं रहा। विज्ञान ने उससे बचे रहने के सरल उपाय भी निकाल दिये हैं। प्रजनन से शक्तियों को बचाकर उन्हें परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जा सकता है।
(2). विष्णु ग्रन्थि :: नाभि स्थान दूसरा नाभि चक्र है। गर्भावस्था में प्राणी माता के साथ इसी नाल द्वारा जुड़ा रहता है और पोषण प्राप्त करता हुआ क्रमशः बड़ा होता रहता है। प्रसव के उपरान्त भी पेट ही पाचन का काम करता है, रक्त बनाता है। पोषण के दायित्व पेट के ऊपर आ जाते हैं। इसलिए यह विष्णु क्षेत्र है। भगवान् विष्णु पालनकर्ता हैं। दूसरी विष्णु ग्रन्थि का स्थान उदर क्षेत्र है। इसमें तृष्णा रहती है। यह तृष्णा पशु पक्षियों में तो पेट भरने तक सीमित है। इन्हें इतना ही उपार्जन करना पड़ता है।
किन्तु मनुष्य का पेट तो समुद्र जितना बड़ा है। जिसमें आहार ही नहीं वैभव भी चाहिए। आज के लिए ही नहीं जन्म भर के लिए, औलाद के लिए, संग्रह और व्यसनों के लिए भी चाहिए।
यही तृष्णा है जो प्रचुर परिमाण में धन वैभव कमाने पर भी शान्त नहीं होती। इसके लिए उचित अनुचित सब कुछ करना पड़ता है। मनुष्य अनीति और पाप उत्पादन करने में भी नहीं चूकता।
विष्णु ग्रन्थि का नियम एक सिद्धान्त अपनाने भर से हो सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वो सामान्य जीवन जीये। सदा जीवन उच्च विचारों को महत्व दे। उन लिप्साओं को निरस्त किया जाये तो लोभ लालच, संग्रह एवं अपव्यय के लिये दौलत जमा करने की हवस भड़काती रहती हैं।
परिवार भावना अपनाने पर यह ललक सह मिल जाती है। विश्व परिवार की भावना रखी जा सके तो अपने लिये अधिक और दूसरों के लिये कम का अनौचित्य मन से हट सकता है और न्यायपूर्वक, श्रमपूर्वक कमाई से भी भली प्रकार गुजारा हो सकता है।
(3). रुद्रग्रन्थि :: तीसरा केन्द्र मस्तिष्क है। यहाँ विवेक, बुद्धि का निवास है। उसी के आधार पर अनौचित्य का संहार होता है। जीवन में परिवर्तन भी यहीं से आता है। नर पशु को नर नारायण बनाने की क्षमता इसी में है। अभाव, अज्ञान और अशक्ति से निपटने वाला त्रिशूल भी यहाँ अवस्थित है। इसलिए मस्तिष्क रुद्र का अधिकार क्षेत्र है। कैलाश सहस्रार चक्र है और उसके इर्द-गिर्द भरा हुआ ग्रेमैटर मानसरोवर स्थित है।रुद्र को विक्षोभ का देवता माना गया है। वे जब ताण्डव नृत्य करते हैं तो प्रलय उपस्थित हो जाते है। मनुष्य जीवन में अहन्ता का भी वही स्थान है।
दूसरों को तुच्छ और अपने को महान सिद्ध करने के लिए जो विक्षोभ मन में उत्पन्न होते रहते हैं। उनकी गणना अहन्ता में गिनी जाती है। इसी हेतु दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए आत्म विज्ञापन करता है। ठाट-बाट बनाता है।
अपव्यय का मार्ग अपनाकर अपनी अमीरी की धाक जमाता है। संस्थाओं में, शासन में, समाज में बड़ा पद पाने के लिए इतना आतुर रहता है कि आये दिन साथियों से झगड़ना पड़ता है और उन्हें समता करने से रोकना होता है।
अभिमान, घमण्ड, दम्भ का त्याग करना चाहिए।मनुष्य शालीनता अपनाकर दूसरों को सम्मान देने का मार्ग चुने तो अहंकार का दुर्गुण सहज शान्त हो सकता है। दर्प के कारण रावण, कंस हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर, दुर्योधन आदि न जाने कितनों को नीचा देखना और संकटों में फँसना पड़ा।
अहन्ता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर तो आत्मसन्तोष और लोग सम्मान का लाभ मिलता है उस पर विचार करना चाहिए।
शरीर सत्ता को मलमूत्र की गठरी मानने वाला, मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे?
(1). ब्रह्म ग्रन्थि :: इस ग्रन्थि का स्थान जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार है। यह उत्पादन क्षेत्र है। मनुष्य शरीर की उत्पत्ति इसी केन्द्र की हलचलों से होती है। सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई है। इसलिए इस क्षेत्र पर ब्रह्मा का अधिकार माना गया है। वासनाओं की स्वामिनी जननेन्द्रिय है। वह यौनाचार से ही तृप्त नहीं होती वरन् चिन्तन क्षेत्र में भी कामुकता के रूप में समय कुसमय छाई रहती और कल्पना चित्र बनाती रहती है।
मनुष्य इसी से बन्धन में बँधता है। विवाह करता है। उसके साथ ही सन्तानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। स्त्री बच्चों की जिम्मेदारी साधारण नहीं होती। पूरा जीवन इसी प्रयोजन के लिए खपा देने पर भी उसमें कमी ही रह जाती है और मरते समय तक मनुष्य इन्हीं की चिन्ता करता रहता है।
इस पूरे प्रपंच को ऐसा बन्धन समझना चाहिए जिसे बाँधता तो मनुष्य हँसी-खुशी से है पर फिर उसी बोझ से इतना लद जाता है अन्य कोई महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाता। ब्रह्म ग्रन्थि के सम्बन्ध में दृष्टिकोण परिष्कृत करने का तरीका यह है कि जननेंद्रिय को मूत्रेन्द्रिय मात्र माना जाये तथा मल द्वार की तरह मूत्र मार्ग को भी उसी काम तक सीमित रखा जाये।
सभी वासनाग्रस्त प्राणी जब अपनी शक्ति सामर्थ्य से कहीं अधिक प्रजनन में जुटे हुए हैं। तो कुछेक आदर्शवादी व्यक्ति परिवार में इतने लोगों के बीच रहकर अपना गुजारा बिना किसी कठिनाई के कर सकते हैं। विवाह करना ही हो तो जयप्रकाश नारायण एवं जापान के गाँधी जैसा स्तर अपनाया जा सकता है।
दो मित्रों की तरह लक्ष्य की ओर बढ़ने में मिल-जुल कर काम करते रहा जा सकता है। बन्धनकारी सन्तानोत्पादन से बच निकलने के लिये अब तो ब्रह्मचर्य भी अनिवार्य नहीं रहा। विज्ञान ने उससे बचे रहने के सरल उपाय भी निकाल दिये हैं। प्रजनन से शक्तियों को बचाकर उन्हें परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जा सकता है।
(2). विष्णु ग्रन्थि :: नाभि स्थान दूसरा नाभि चक्र है। गर्भावस्था में प्राणी माता के साथ इसी नाल द्वारा जुड़ा रहता है और पोषण प्राप्त करता हुआ क्रमशः बड़ा होता रहता है। प्रसव के उपरान्त भी पेट ही पाचन का काम करता है, रक्त बनाता है। पोषण के दायित्व पेट के ऊपर आ जाते हैं। इसलिए यह विष्णु क्षेत्र है। भगवान् विष्णु पालनकर्ता हैं। दूसरी विष्णु ग्रन्थि का स्थान उदर क्षेत्र है। इसमें तृष्णा रहती है। यह तृष्णा पशु पक्षियों में तो पेट भरने तक सीमित है। इन्हें इतना ही उपार्जन करना पड़ता है।
किन्तु मनुष्य का पेट तो समुद्र जितना बड़ा है। जिसमें आहार ही नहीं वैभव भी चाहिए। आज के लिए ही नहीं जन्म भर के लिए, औलाद के लिए, संग्रह और व्यसनों के लिए भी चाहिए।
यही तृष्णा है जो प्रचुर परिमाण में धन वैभव कमाने पर भी शान्त नहीं होती। इसके लिए उचित अनुचित सब कुछ करना पड़ता है। मनुष्य अनीति और पाप उत्पादन करने में भी नहीं चूकता।
विष्णु ग्रन्थि का नियम एक सिद्धान्त अपनाने भर से हो सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वो सामान्य जीवन जीये। सदा जीवन उच्च विचारों को महत्व दे। उन लिप्साओं को निरस्त किया जाये तो लोभ लालच, संग्रह एवं अपव्यय के लिये दौलत जमा करने की हवस भड़काती रहती हैं।
परिवार भावना अपनाने पर यह ललक सह मिल जाती है। विश्व परिवार की भावना रखी जा सके तो अपने लिये अधिक और दूसरों के लिये कम का अनौचित्य मन से हट सकता है और न्यायपूर्वक, श्रमपूर्वक कमाई से भी भली प्रकार गुजारा हो सकता है।
(3). रुद्रग्रन्थि :: तीसरा केन्द्र मस्तिष्क है। यहाँ विवेक, बुद्धि का निवास है। उसी के आधार पर अनौचित्य का संहार होता है। जीवन में परिवर्तन भी यहीं से आता है। नर पशु को नर नारायण बनाने की क्षमता इसी में है। अभाव, अज्ञान और अशक्ति से निपटने वाला त्रिशूल भी यहाँ अवस्थित है। इसलिए मस्तिष्क रुद्र का अधिकार क्षेत्र है। कैलाश सहस्रार चक्र है और उसके इर्द-गिर्द भरा हुआ ग्रेमैटर मानसरोवर स्थित है।रुद्र को विक्षोभ का देवता माना गया है। वे जब ताण्डव नृत्य करते हैं तो प्रलय उपस्थित हो जाते है। मनुष्य जीवन में अहन्ता का भी वही स्थान है।
दूसरों को तुच्छ और अपने को महान सिद्ध करने के लिए जो विक्षोभ मन में उत्पन्न होते रहते हैं। उनकी गणना अहन्ता में गिनी जाती है। इसी हेतु दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए आत्म विज्ञापन करता है। ठाट-बाट बनाता है।
अपव्यय का मार्ग अपनाकर अपनी अमीरी की धाक जमाता है। संस्थाओं में, शासन में, समाज में बड़ा पद पाने के लिए इतना आतुर रहता है कि आये दिन साथियों से झगड़ना पड़ता है और उन्हें समता करने से रोकना होता है।
अभिमान, घमण्ड, दम्भ का त्याग करना चाहिए।मनुष्य शालीनता अपनाकर दूसरों को सम्मान देने का मार्ग चुने तो अहंकार का दुर्गुण सहज शान्त हो सकता है। दर्प के कारण रावण, कंस हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर, दुर्योधन आदि न जाने कितनों को नीचा देखना और संकटों में फँसना पड़ा।
अहन्ता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर तो आत्मसन्तोष और लोग सम्मान का लाभ मिलता है उस पर विचार करना चाहिए।
शरीर सत्ता को मलमूत्र की गठरी मानने वाला, मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे?
No comments:
Post a Comment