By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
यह मंत्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मंत्रों मे केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ में ही ऋषियों ने कर लिया था और संपूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मंत्रों में इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप स्थिर हुआ।
ॐ
भूर्भुव स्वः।
तत् सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
उस प्राण स्वरूप, दुखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंतर आत्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्वि को सन्मार्ग मे प्रेरित करे।
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
ब्रह्मा जी के कथनानुसार :- ब्रह्म ज्ञान (गायत्री) की उत्पत्ति स्वयम्भू भगवान् विष्णु की अंगुलियाँ मथने से जल उत्पन्न हुआ। जल से फेन निकला। फेनों से बुद्बुद्ध की उत्पत्ति हुई। उससे अण्ड की और अण्ड से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। उनसे वायु निकला।अग्नि की उत्पत्ति उससे ही हुई। अग्नि से ओङ्कार उत्पन्न हुआ। ओङ्कार से व्याहृति उत्पन्न हुईं। व्याहृति से गायत्री पैदा हुईं और गायत्री से सावित्री। उनसे सरस्वती। सरस्वती से सभी वेद उत्पन्न हुए। वेदों से सभी लोक हुए और उनसे सभी प्राणी हुए। इसके बाद गायत्री और व्याहृतियाँ प्रवृत्त हुईं।
गायत्री दो प्रकार की होती है :– लौकिक और वैदिक। लौकिक गायत्री में चार चरण होते हैं तथा वैदिक गायत्री में तीन चरण होते हैं। इसी कारणवश गायत्री का नाम त्रिपदा भी है। त्रिपदा गायत्री के ऋषि विश्वामित्र हैं। परमसत्ता धर्मी, शक्ति या शक्तिमान् की जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया इस गुणत्रय से सम्पन्न है और जो ज्योति: स्वरुप है उसकी मैं उपासना करता हूँ। त्रिपदा गायत्री के :– भूमि, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये अष्टाक्षर कहलाते है। गायत्री का प्रत्येक पाद आठ अक्षरों का है :–
भू:, भुव: और स्व: यह तीनो लोक परिन्त विराजमान हैं। ऋच: यजूंषि ओर सामानि ये अष्टाक्षर भी गायत्री की एक पदत्रयी विद्या है। प्राणों का नाम गय है। उनका त्राण करने से ही गायत्री कहलाती है। गायत्री के भिन्न-भिन्न 24 अक्षर इस प्रकार है :–
ऊँ (1). त, (2). त्स, (3). वि, (4). तु, (5). र्व, (6). रे, (7). णि, (8). यं। ऊँ (9). भ, (10). र्गो, (11). दे, (12). व, (13). स्य, (14). धी, (15). म, (16). हि। ऊँ (17). धि, (18). यो, (19). यो, (20). न:, (21). प्र, (22). चो, (23). द, (24). यात्।
गायत्री के चौबीस अक्षर :: गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों के साथ अनेक कारण जुड़े हुए है। इसके साथ कई चौबीस रहस्यों का सम्मिलन है। नीचे कुछ ऐसे ही चौबीस अक्षरों के हेतु बताये जाते हैं :−
(1). संसार की समस्त विद्याओं के भण्डार 24 महाग्रन्थ हैं। 4 वेद, 4 उपवेद, 4 ब्राह्मण, 6 दर्शन और 6 वेदांग इस प्रकार चौबीस हुए। तत्वज्ञों का ऐसा भी मत है कि गायत्री के 24 अक्षरों से यह एक-एक ग्रन्थ बना है। गायत्री के गर्भ में इन 24 ग्रंथों का मर्म छिपा हुआ है। गायत्री का मर्म इन 24 ग्रंथों में वर्णित है। जो गायत्री का विस्तृत रहस्य जानना चाहे, वे इन 24 महाग्रन्थों को पढ़कर उकसा मर्म समझ सकते है।
(2). हृदय जीवन का और ब्रह्मरंध्र ईश्वर का स्थान है। हृदय से ब्रह्मरंध्र 24 अँगुल दूर है। एक-एक अक्षर से एक-एक अँगुल की दूरी को पार करके जीव गायत्री द्वारा ब्रह्म में लीन हो सकता है, ऐसा योगी लोग कहते हैं। गायत्री के 24 अक्षर यह संकेत करते हैं कि ईश्वर जीव से, हृदय मस्तिष्क से 24 अँगुल दूर है। हृदय में ईश्वर रहता है और मस्तिष्क में मन। अपने मन को ईश्वर के अर्पण कर दो तो कल्याण की प्राप्ति हो जाएगी।
(3). गायत्री के तीन विराम होते हैं, शरीर के भी तीन भाग हैं, प्रत्येक भाग के अंतर्गत आठ अंग होते हैं। इस प्रकार शरीर रूपी गायत्री के 24 अक्षर हो जाते हैं।
(3.1). शिर, नेत्र, कर्ण प्राण = 8 अक्षर,
(3.2). मुख, हाथ, पैर, नाक = 8 अक्षर,
(3.3). कण्ठ, त्वचा, गुदा, शिश्न = 8 अक्षर,
यह सब मिलकर 24 हुए। गायत्री के दो-दो अक्षरों से इन बारह प्रमुख अंगों की रचना हुई है। यह स्वभावतः पवित्र हैं और इन्हें सदा पवित्र ही रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
(4). शरीर की सुषुम्ना नाड़ी में 24 कशेरुकाएँ हैं (ग्रीवा में 7, पीठ में 12, कमर में 5; कुल 24) से कशेरुकाएँ प्राणों का, मातृकाओं का ग्रन्थियों का और चक्रों का पोषण करने वाली हैं। यह पोषण गायत्री कहा जाता है और इन 24 कशेरुकाओं को 24 अक्षर कहते हैं।
(5). शरीर में प्राण सूत्र 24 है गायत्री में 24 अक्षर हैं। गायत्री का एक एक अक्षर सूक्ष्म शरीर के लिए उतना ही महत्व पूर्ण है जितना कि स्थूल शरीर के लिए ये 24 प्राण सूत्र हैं।
(6). शरीर में 5 ज्ञानेन्द्रियाँ 5 कर्मेंद्रियां 5 प्राण, 5 तत्व और 4 अन्तःकरण हैं। इन 24 के द्वारा ही शरीर जीवित रहता है। हमारे आध्यात्मिक शरीर में गायत्री की 24 शक्तियाँ इसी प्रकार ओत प्रोत हैं।
(7). गायत्री साधना से अष्ट सिद्धि, नव निद्धि और सात शुभ गतियों की प्राप्ति होती है, यह 24 महान लाभ गायत्री के अंतर्गत हैं।
(8). इस मंत्र में 24 ऋषियों और 24 देवताओं की शक्तियों की शक्तियाँ सन्निहित हैं।
(9). साँख्य दर्शन में वर्णित 24 तत्वों से सृष्टि का क्रम चलता है। उन 24 का प्रतिनिधित्व गायत्री के 24 अक्षर करते हैं।
(10). शरीर में प्रधानतः 24 अंग है। उसके प्रत्येक तृतीयाँश में भी 24−24 टुकड़े है। शरीर के तीन भाग है। शिर, धड़ और पैर। इन तीनों भागों में से प्रत्येक में 24−24 अवयव है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में 24 तत्व है। इन दोनों शरीर के अवयवों की सृष्टि 24 अक्षर वाली गायत्री से होती है। ब्रह्म पुरुष के शरीर के 24 भाग गायत्री के 24 अक्षर है।
इस प्रकार के और भी अनेकों कारण है जो गायत्री के 24 अक्षरों का हेतु है। प्रत्येक अक्षर के पीछे बड़े बड़े महान् तत्व है जिसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र करेंगे।
मुक्ताविद्रुमहेमनील धवलच्छायैमुर्खैस्त्रीक्षणैयुर्क्ता मिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम्।
गायत्रीं वरदाभयाडंकुशकषा: षुभ्रं कपालं गुणं, षंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥
यह पॉंच सिर वाली है (जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के बोधक) तथा प्रधान पंच प्राणधारिणी है। इन पंच प्राणों के पंच वर्ण हैं। एक मोती जैसा, दूसरा विद्रुम मणि जैसा तीसरा सुवर्ण जैसा, चौथा नीलमणि जैसा और पॉंचवा धवल अर्थात् गौरवपूर्ण का है। इसके तीन आँखें हैं अर्थात् (अ–उ–म् :: ऊॅं) प्रणव के वर्ण–त्रय के अनुसार वेदत्रय अर्थात् रसवेद, विज्ञानवेद और छन्दोवेद सम्बद्ध, ऋक, यजु: और साम वेदात्मक तीन नयन अर्थात् ज्ञानवाली या त्रिविद्यावाली है। इसी को दूसरे प्रकार से श्रुति कहती है कि ये नाद, बिन्दु और कला के द्योतक है। इसके मुकुट पर, जो रत्न–मंडित है, वह चन्द्र है अर्थात् ज्योतिर्मयी आद्यषक्ति अमृत वर्शिणी है, ऐसा बोध है। तत्व वर्णात्मिका है अर्थात् चौबीस अक्षर वाली गायत्री चतुविशंति तत्वों की बनी हुई पूर्ण अर्थात् सत् चिद् ब्रा स्वरुपिणी है। यहॉ गायत्री में तीन अक्षर हैं :– ग+य+त्र। ग से ‘गति‘ ‘य‘ तथा ‘त्र‘ से ‘यात्री‘ अर्थात् यात्री की गति हो, वह ‘गायत्री‘ है। ‘ग‘ से गंगा, ‘य‘ से यमुना और ‘त्र‘ से त्रिवेणी। ये तीनों हिन्दू के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। दसों भुजायें कर्मेन्द्रियों और विषयों की द्योतक है। दक्षिण पाँचों भुजाएँ, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ की द्योतक है तथा बॉंई–पाँचों भुजाएँ वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग और आनन्द विशयक रुप है। ये दसों आयुध इनके कर्म करण रुप हैं। ऐसी ही रुप–कल्पना परा प्राण शक्ति या परमात्मा की भी है और अपरा, चन्चला, माध्यमा, प्राणशक्ति या जीवात्मा की भी है।
श्रुति भी कहती है कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वम्‘‘ गायत्री ही सब कुछ है। व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से गायत्री वह है जो इसके साधक को सभी प्रकार की मलिनता तथा पापों से बचाये एवं संरक्षण करे। कहा गया हे कि ‘गायन्तं त्रायते इति गायत्री‘। गायत्री मन्त्र भी है और प्रार्थना है जिसमें उपासक केवल अपने लिये ही नहीं, सभी के लिये ज्ञान की ज्योति पाने हेतु प्रार्थना करता है ।
देवियों में स्थान ::
गयत्र्येव परो विश्णुगायित्र्व पर: षिव:।
गायत्र्येव परो ब्राा, गायत्र्येव त्रयी तत:॥स्कन्दपुराण॥
गायत्री ही परमात्मा विष्णु है, गायत्री ही परमात्मा शिव है और गायत्री ही परमात्मा परम् ब्रह्म है। अत: गायत्री से ही तीनों वेदों की उत्पत्ति हुई है। भगवती गायत्री को सावित्री, ब्राागायत्री, वेदमाता, देवमाता आदि के नाम से मनुष्य ही नही अपितु देवगण भी सम्बोधित करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि, गायत्री वेदों की माता है और गायत्री से ही चारो वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह सब ब्रह्माण्ड गायत्री ही है। वेद, उपनिशद्, वेदों की शाखाएं, ब्रााण ग्रन्थ, पुराण और धर्मशास्त्र ये सभी गायत्री के कारण पवित्र माने जाते हैं। अनेक शास्त्र, पुराणादि के कीर्तन करने पर भी ये सभी शास्त्र गायत्री के द्वारा ही पावन होते हैं। गायत्री मन्त्र के जप में भगवत् तत्व को प्रकट करने की रहस्यमयी क्षमता है। मन्त्र के जप से हृदय की ग्रंथियों का भेदन होता है, सम्पूर्ण दु:ख छिन्न–भिन्न हो जाते हैं और सभी अवशिष्ट कर्मबन्धन विनिष्ट हो जाते हैं।
Gayatri is Tri Pada :- a Trinity, since being the Primordial Divine Energy, it is the source of three cosmic qualities known as “Sat”, “Raj” and “Tam” representing spirituality by the deities “Saraswati” or “Hreem”. “Lakshmi” or “Shreem” and “Kali” or “Durga” as “Kleem”. Incorporation of “Hreem” in the soul augments positive traits like wisdom, intelligence, discrimination between right and wrong, love, self-discipline and humility. Yogis, spiritual masters, philosophers, devotees and compassionate saints derive their strength from Saraswati.
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